तुम भी / राजी सेठ / पृष्ठ 4
बच्चे और सरना। दत्ताचित्ता पिछले कमरे में जन्माष्टमी की झांकी सजाने में लगे थे। पीछे का अंगड़-खंगड़ सरना ने अपनी पुरानी रेशमी साड़ी से ढंक दिया। पास-पड़ोस से खिलौने और रंग-बिरंगी तस्वीरें मांग ही ली थीं, तो दो-तीन पड़ोसिनों को आरती के लिए न्यौत भी आयी। न्यौत आने पर प्रसाद बनाने का अतिरिक्त उत्साह भी उसमें आ गया। केले, अमरूद मंगाते गुल्लू को वापस टेरकर बोली, दो-एक सेब और एक पाव भर अंगूर भी लेते आना। भगवान का काम है। गद्गद सरना अंदर-बाहर जाते कहती। गुल्लू चला गया तो उसे कलाकंद की याद आयी... यह सोच मरी रह-रहकर आती है...बच्चा बेचारा...? शायद अभी दूर न गया हो..., वह दौड़ी-दौड़ी बाहर आयी। गुल्लू तो निकल गया था, पर पति दहलीज पर बैठा बीड़ी फूंक रहा था चेहरा घिरा हुआ, भवें घनी होती हुईं। छि:-छि:...त्योहार के दिन तो रहने दो...वैसेई उपास का दिन है...यहां कैसे बैठे हो? अंदर चलो, देखो बच्चे कैसे... नहीं, अभी बाहर जाना है, वह बात काट देने की नीयत से बोला। वहां? फिर बिना जवाब सुने बोली, पहले कहा होता। नाहक़ गुल्लू को दौड़ाया। तुम्हीं सब चीज़ें लेते आते। वह कुछ न बोला। ढलती शाम को वैसे ही निर्विकार भाव से देखते हुए आधी पी हुई बीड़ी को एक कोने में फेंक दिया। कहां जाओगे, इस वक्त? बनिये के यहां...सुबह उसकी स्टॉक चेकिंग हो रही थी, बोला शाम को आना। कल चले जाना, फिर कुछ सोचकर स्वयं ही बोली, नहीं, अभी दे आओ...। न हो, एक गिलास दूध पी लो...आरती-प्रसाद में तो आज देर लगेगी?' ' नहीं। वह इतने छोटे में उत्तार देता है कि बात को आगे जाते-जाते लौट आना पड़ता है। तबीयत तो ठीक है न? वह उसका माथा छूती बोली। हां...बिलकुल, पत्नी के हाथ की करुणा उसने हौले से परे सरका दी। पूजन पूरा हुआ। आरोपित प्रसव और कृष्ण-जन्म उपलब्धि के तन्मय उल्लास में बही जाती पत्नी ने अचानक थाली में पैसे डालने को तत्पर उसके हाथ अधबीच थाम लिये। थाली में पड़ते-पड़ते पैसे उसके हाथ में ही थमे रह गए। वह मुंह-बाए देखता रहा। पड़ोसिनें भौचक्क, बच्चे विस्मित। अपने में लौटते हुए सरना ने फौरन सहज होते हुए कहा, सवी, जा...जा मेरा बटुआ उठा ला, छोटी संदूकची में धरा है। आरती में फिर अमर का ध्यान न लगा। बार-बार पिछड़ता जाता अपना ही स्वर, घर के स्वामी की-सी बुलंद तन्मयता से शून्य। बच्चों और औरतों की छोटी-सी भीड़ में से खिंचता-खिंचता वह एकदम पीछे सरक लिया। पत्नी प्रसाद बांटते इधर-उधर नज़रें दौड़ाती उसे ढूंढती रही। उसने चाहा कि वह प्रसाद पहले पति को देती। पर वह वहां नहीं था। सहन में तुलसी के झाड़ के नीचे के सूखे पत्तो बटोर रहा था। मन बुरा न करो। ...यह सब भी तो तुम्हारा लाया हुआ है...पूजा में वह पैसे खर्च करना ठीक नहीं था...भगवान का काम है...। मां के मरने पर इतना खर्च हुआ, तब तो तू कुछ नहीं बोली, एक रूठा हुआ उपालंभ आवाज़ में था। कैसी बातें करते हो? वह तनिक आहत होकर बोली, 'वह मौत का काम था। मां से कभी दो हाथ करते देखा है क्या तुमने मुझे? मैंने कब कहा? पत्नी के स्वर की शिकायत पहचान कर वह नरम होता हुआ बोला। तुम इतने सुस्त क्यों हो गए? तुम ही बताओ, मैंने ग़लत कहा है? ग़लत-सही मुझसे न पूछ सरना! ...यह समझना मेरे बस का नहीं। मैं सब लाकर तुम्हें दे देता हूं। तू जाने, तेरा भगवान जाने। भगवान तुम्हारा नहीं है क्या? पत्नी ने न जाने कैसे भय से आंखें फाड़कर पूछा। मुझे पता नहीं... बुदबुदाता-सा वह बाहर निकल गया। औरतें देर तक अंदर शोर करती रहीं।
मां की बरसी उसने कई ब्राह्मणों को न्यौत कर की। ऐसा करते पिता के नाम के श्राध्दों की याद करके हुमका भी। अब तक दफ्तर में ही काम करते लीचड़ जोशीजी की पालथी के नीचे पिता के श्राध्द की चौकड़ी बनी रही। वह भी मां के जीते-जी। यह अशुचिता उसे तब भी अखरती थी और नए-पुराने दु:खों की अनंत पोटलियों के बीच आ धरती थी। ऐसा रोग...पिता को अस्पताल भरती करा पाया होता तो...। डॉक्टर ने तो कहा था, ऑपरेशन उन्हें ज़िंदा रखने के लिए है, मारने के लिए नहीं। पर मरना-जीना भाग्य की बात है...भाग्य और कर्म का हिसाब किस जगह पर तय होता है, वह समझ नहीं पाता...। जी बहुत दु:ख जाता है तो फैसला भाग्य के पक्ष में कर लेता है। कई और ब्राह्मणों को आया देख जोशीजी कसमसाए, परंतु अमर ने उनके प्रति उदारता ही बरती, आप तो घर के ही ठहरे, कहकर उन्हें भी संतुष्ट किया। मौत के उत्सव में व्यस्तता से इधर-से-उधर डोलती सरना अपनी ही आंखों में बड़ी होती रही। अब अक्सर अमरौती खाकर उतरी नायलॉन की साड़ी को वह अलगनी पर टांगकर फूल-छपी कड़क कलफदार धोती पहने अपने पर मुग्ध होती बार-बार पति की तरफष् देखती। वह ठगा-सा उसे देखता रहता। जाने कैसी अबूझ-सी छाया उसके चेहरे से गुज़रती आसपास की वस्तुओं पर जाले की तरह जा लिपटती। ठंडे-से स्वर में पूछता, यह कब लाई हो? शंकर-बाज़ार में सेल लगी है न! वह पुलकती-सी पास दुबककर कहती, सुनो सवी के लिए भी मैंने धीरे-धीरे चीज़ें जमा करना शुरू कर दी हैं। ब्याह के समय चार चीज़ें घर से निकल आएंगी तो तुम्हारा हाथ भी... तुम तो कहती थीं, प्राणनाथ जी के यहां शादी करेंगे तो कुछ ख़ास देना नहीं पड़ेगा? वह तो ठीक है। सामने वाला तो कहता ही है...पर अपना भी तो कुछ फर्ष्ज बनता है... फर्ष्ज छोड़ो, सरना! ...किसका किसके लिए फर्ष्ज बनता है, और क्यों, यह मेरी समझ में नहीं आता। नई-नई-सी बातें करते हो तुम तो... हां, करता हूं! प्राणनाथ जी की हैसियत को हमारी चार चीज़ों की क्या परवाह पड़ी है? लड़की का रूप-गुण देखकर ले रहे हैं तो इसका यह मतलब तो नहीं...आखिर तुम भी बाप हो... तुम खुद ही केंचुली से निकलना नहीं चाहतीं...और मुझे भी... अपना वाक्य हवा में टांगकर वह बाहर निकल गया और चहलकदमी करने लगा। कूड़ा फेंकने वह बाहर आई तो चौंकी, अरे, मैं तो समझी थी तुम जगदीप के यहां गए हो...चलो, खा लो। हाथ धोकर थाली पर बैठा तो पत्नी ने पीतल का बड़ा कटोरा आगे सरकाते हुए कहा, साग चाहे रहने दो...यह खा लो।