तुम भी / राजी सेठ / पृष्ठ 5
क्या है यह? थोड़ी खीर बना ली थी। खीर की मात्राा देखकर वह चौंका, बच्चों को नहीं दी? बच्चे तो ख़ूब छक चुके...हम दोनों रह गए हैं। वह थाली को आगे सरकाता हुआ बोला, तो फिर तुम भी खा लो साथ ही। इस आमंत्राण पर वह भीतर से भीग आयी। उमगाती-सी मुंह देखती रही पर वह निर्वाक् खाता रहा। फिर सोचते हुए बोला, आज बच्चों में से किसी का जन्मदिन तो नहीं...तभी तुम खीर बनाती हो। वह खिलखिलाकर हंस पड़ी, इस महीने में कौन जन्मा था अपने घर...? तुम तो बस... न साग अमर ने पीछे सरकाया, न खीर जमकर खायी, रख दे, सुबह बच्चे खा लेंगे। तुम भी अजीब हो, कुछ अपनी सेहत का... कौन-सी सेहत? वह ऐसे कड़वे काठिन्य से बोला कि सरना को मुंह उठाकर देखना पड़ा। सेहत भी दो-चार होती हैं क्या? तुम भी जाने कैसे... अच्छा, बस-बस! वह अपने बिस्तर में दुबक लिया। पत्नी सोने आई तो जैसे टोहती रही...छाती पर हाथ रखकर। अंधेरे को अपलक घूरता वह निश्चल पड़ा रहा।
प्रो. प्राणनाथ आज फिर आए थे। वही आते हैं। जबकि जाना अमर को चाहिए। उनका आना सरना के पैरों में पंख लगा देता है। अमर के पास सवी को लेकर छोटा-सा गर्व भी नहीं थाउसका रूप जो जन्मजात था और हाई स्कूल में बोर्ड में प्रथम स्थान, उसके अपने परिश्रम का फल। उसका तो बस...उसकी तो बस वह बेटी थी। इसीलिए वह पत्नी के उत्साह में इतना भाग नहीं ले पाता था। सवी पर बरसते उनके वात्सल्य को अविश्वास से देखता रह जाता था। गुल्लू का मिडिल इन गर्मियों तक...सवी की शादी इन सर्दियों तक। इस साल तो देबू भी तैयार हो जाएगा...तो बस! शेव करते शीशे के सामने खड़े अमर को अपने चेहरे के पीछे न जाने कितनी लहरियां कांपती नज़र आयीं। लहरों की उस बावड़ी में वह अपने भविष्य का चेहरा टटोलता खड़ा रहा। खड़ा रहता यदि धोती के सिरे से हाथ पोंछती पत्नी उसे न चौंकाती, सुनो, सवी के लिए एक कंठी बनवाना है। क्या? आश्चर्य के रास्ते धरती पर लौटता वह बोला। हां! हां! कंठी...। तुम्हें तो मालूम है, सवी की कब की साध है। मांजी कब से सवी के लिए रखे थीं...बिक गईं...! खैर, छोड़ो पिछली बातों को... प्राणनाथ जी को इन बातों में विश्वास नहीं, रोज़ इतनी बातें कहते रहते हैं, सुनती नहीं हो? उनके कहने से क्या होता है? होता क्यों नहीं, एकदम दूसरे ख्यालों के हैं...नहीं तो लड़के वाले होकर रोज-रोज़ यों चले आते...? वह तो देखती हूं...लड़की की ऐसी ममता करते हैं...छोड़ो, बातों में न उलझाओ...तुम कहो तो मैं आज सुनार के पास जाउं+? नहीं, वह अलिप्त-सा चेहरे पर साबुन घिसने लगा। क्यों? एक उद्दंड-सा क्षोभ पत्नी की आवाज़ में भी तिर आया। क्योंकि उसे कंठी देने का मेरा कोई इरादा नहीं है। कम-से-कम दो तोले की बनेगी...और सोने का भाव मालूम है? मालूम है...। पर कब से साध लिये है छोरी...। इतनी और साधें पूरी हो रही हैं...यह सोचकर सबर करो। एक इसी साध को लेकर मरने की क्या ज़रूरत है? कभी सोचा था तुमने या उसने कि ऐसे घर जाएगी? उसकी किस्मत! उसकी सज़ा तुम उसे क्यों दे रहे हो? सज़ा किसी को नहीं मिलती...सिर्फ मुझे मिलती है...और सब तो... बाकी का वाक्य वह अंदर घुड़क गया, खीजता हुआ बोला, जाओ, मुझे शेव करने दो...देर हो रही है। तुम असल में इस वक्त ज़ल्दी में हो, कहती हुई वह रसोई में लौट गई, उद्विग्न उतावली में वह तैयार होकर दफ्तर चला गया। शाम को जब लौटा तो नहीं जानता था कि वह प्रसंग अभी उनके बीच जीवित है। पत्नी ने यह कहकर कि इस समय तुम्हें जल्दी है, लगाम अपने हाथ में रख ली थी। बात शुरू होते-होते ही प्रोफेसर प्राणनाथ आ गए, और उनके साथ ही घर की हवा एक ताज़ा सुगंध से भर गई। इतनी सहज आत्मीयता से वह यहां बैठते-उठते कि उनके जाते-जाते तक तो घर का वातावरण हलका और तरल हो उठता। पति को उसने हलका सहज देखा तो कलाई थामकर बोली, क्या इतनी- सी बात भी नहीं रखोगे? उसे उसी क्षण जैसे ताप चढ़ आया। झिड़ककर बोला, बेवकूफष्ी मत करो ...कभी तुम अपने लिए कहतीं तो बात भी थी...हिरस समझ सकता हूं...सवी को क्या कमी है? एक-एक लड़का है उनका...ज़मीन-जायदाद है...ऐसे भले विचार हैं...। आगे भी तो देखना है मुझे...पता नहीं, किस-किससे पाला पड़े...दुनिया में सब प्रोफेसर प्राणनाथ ही तो नहीं होते... क्या हुआ...गीतू की शादी तक तो देबू भी डॉक्टर हो जाएगा। डॉक्टर क्यों कहती हो, कहो कुबेर हो जाएगा। इतना भरोसा मैंने किया है किसी का आज तक...? तुमने नहीं किया तो क्या, उसका भी खून इतना सफेद तो नहीं होगा। मैं कर ही क्या रहा हूं उसका, जो आशा करूं? वज़ीफा लेता है, टयूशन करता है, हम लोगों पर तो दो रोटी की मोहताजी भी नहीं रखी है उसने... वह न करे, पर तुम अपनी लड़की के लिए ऐसे पत्थर दिल क्यों हो गए हो...? चोट करने के तेवर में आ गई थी पत्नी।