तृतीय याम का स्वप्न / श्यामास्वप्न / ठाकुर जगमोहन सिंह
“जिनके हित त्यागी कै लोक की लाजहिं संगही संग में फेरो कियो।
हरिचंद जू त्यों मग आवत जात में साथ घरी घरी घेरो कियो।
जिनके हित मैं बदनाम भई तिन नेकु कह्यौ नहिं मेरो कियो।
हमैं व्याकुल छोड़ि कै हाय सखी कोउ और के जाय बसेरो कियो॥”
हा ईश्वर! क्या यह स्वप्न था कि प्रत्यक्ष “हमैं व्याकुल छोड़ि के हाय सखी कोउ और के जाय बसेरो कियो” - इसके क्या अर्थ थे। यह कौन सा मंत्र था किसने कहा, कब कहा, दिन में कहा कि रात में, सामने कहा कि पीठ पीछे, कान में कहा कि और कहीं, मुझै कुछ स्मरण नहीं। सोचते सोचते ध्यान सागर में एक सीप हाथ लगी उसको खोलते ही बड़े-बड़े मोती निकले - इतने बड़े थे कि दो दो आँख रहते भी न सूख पड़े। अब क्या करूँ पाना और न पाना बराबर था, पाई के क्या किया जो किसी काम न आए। इच्छा हुई कि किसी श्वेतद्वीपवाले की दुकान से एक जोड़ी चश्मा मोल लाते तब तो यह करिश्मा भी दिखता।
दुकान कहाँ थी जो ऐसे शीघ्र मिलती। पर रेल तो थी ही। उसी पर बैठ के चलने की इच्छा हुई - इतने में कलकत्ते के स्टेशन पर मनोरथ पर बैठ पहुँचे। स्टेशन के कपाट बंद थे, ये लोहे के बने थे ऐसे पुष्ट थे कि नष्ट के भी दुष्ट बाप से न खुल सकैं। इन्हीं कपाटों में कई बार माथा फोड़ा - हथियार लेकर तोड़ा, पर यह जोड़ा ऐसा था कि तनिक न टसका। मन में सोचा कि सूर्य का सतमुँहा घोड़ा आवैं तब तो यह दुमुँहा द्वार खुलै पर आवै कैसे। यही सोच में तो एक चौकड़ी की कड़ी बीत गई। वह बूढ़ी ने तो हमैं अनेक प्रकार के जादू सिखा ही दिए थे - सिखाना क्या बरन सब कामरूप कामाक्षा को झोली में भरकर मुझै दे गई थी। मैंने उसी का स्मरण किया झोली तो ओली ही में धरी थी। वीर बजरंग और श्यामा देवी का नाम-स्मरण कर ज्यों ही हाथ डाला मंत्र की एक पुड़िया हाथ लगी, पुड़िया को खोलते ही उस्में से मंत्र की धुनि होने लगी। इस समय तो सतमुहा घोड़ा बुलाना था, यह मंत्र याद कर लिया।
“ॐ उच्चैःश्रवाय नमः एहि एहि फाटकं खोलय झोलय स्वाहा”
इसका जप गोमुखी में हाथ डार के करने लगा। अष्टोत्तर शत भी न पूरने पाया कि एक सहस्र किरनवाले भगवान मरीचिमाली अपने घोड़े को कोड़े फटकारते पहुँच ही गये, हाथ जोड़कर बोले, “क्या आज्ञा है” - मैंने कहा, “इस स्टेशन के निगढ़ कपाट तो खोला।” उनने सुनते ही रथ हाँका - घोड़ा तो बड़ा बाँका था - खोलते खोलते हार गया, टापैं मारी - लत्ती फेंकी - बचा को ऐसी चोट लगी कि फिर लौट कर हल्दी अजवाइन से सेंकी - छठी का दूध याद किया होगा। घोड़ा का बल निकल गया बचा से कुछ भी हो सका। मैंने कहा, “यदि तुम में यही बल था तो आए क्यौं - वहीं बैठ रहते व्यर्थ हमैं कष्ट दिया अब अपना सा मुख ले जाइए।”
इतना सुनते ही सूर्य भगवान भागे। क्या करैं बिचारे मुँह तो विलायती अनार सा सूख गया था, ऐसा रथ भगाया कि फिर पश्चिम समुद्र में जा डूबे - लाज ऐसी होती है - पराभव की लाज के मारे मुँह सदा नीचे ही रहता है। अब रेल के खुलने का खेल निकट था, इसी से जी में और चटपटी समानी दूसरा मंत्र याद पड़ा 'गंगजराजायनमः' - इसे भी पूर्व रीति पर जपा पर ज्यौंही गोमुखी में इसके जपने की जुगल की गौमुखी सौमुखी हो गई सब पाँजर झाँझर हो गए, माला नीचे लटक पड़ी, मुझै यह ज्ञान न रहा कि यह गोमुखी साक्षात् ब्रह्मा के झोली से निकली थी। मुझै क्या पड़ी थी जो उसमें हाथ डाल कोई मंत्र जंत्र जपते, मेरा तो अपवित्र हाथ था डालने के साथ ही जल भुन जाता। पर यदि ऐसा साहस न करता तो श्यामारहस्य की थाह भी न मिलती। रुद्रयामल और कालिकातंत्र तो अभी हरितालिका के दिन के बने थे मैं बड़े घनचक्कर में पड़ गया। पर इसकी क्या चिंता फक्कर तो होना ही था, जप न हो सकी। क्यौंकि उस गोमुखी में अनेक छिद्र हो गए थे। वाह रे विष्णुशर्मा! क्यौं न हो! तू ही तो एक मेरा नवखंड पृथ्वी में मित्र था। लक्ष्मी जी की पूजा करते करते स्वयं नारायण को भी राजी कर लिया अब क्या बचा था जिस्के पीछे तू दौड़ता। मैं तो आम की फुनगी में लटक गया भौरों के साथ उड़ने लगा - काले काले कपोत पोत में बैठ कर उड़ते थे। मंदिर के कंगूरे में बैठ कर अंगूर खाने लगा। हाथ जोड़ कर कपोतों को बुलाया - कपोत कब विश्वास करते थे? वे दूर ही से देख कर उड़ जाते। मैंने बहुतेरा अपना सा बल किया। बड़े बड़े रस्से मद्रास और माड़वार से डाक पर मँगवा कर बाँधे पर फंदा न लगा। जिस चिड़िया को फाँस लगाई वही चिड़िया निबुक गई। मानौ उन्होंने महाबीर से निबुकना सीख हो।
“निबुक चढ्यौ कपि कनक अटारी।
भई सभीत निशाचर नारी॥” -
इस ब्रह्मफाँस से निबुकने के लिए सिवाय बजरंगबली के और कौन समर्थ था - हाँ - सो भी श्यामा और श्यामसुंदर की आर्शीवाद से। अंत में एक कपोत को पोंछ पुचकार के विश्वास दिया। संदेशा भेजने के लिए इनसे बढ़के और कोई विहंगगणों में नहीं है। यह चतुरता की कला इनकी रूम रूस के युद्ध में भली भाँति लखी गई थी। एक कपोत से कहा, 'तू जाकर किसी बड़े भारी ऋषि को बुला ला कि जरा मेरी गोमुखी को टाँक तो दे।' कपोत उड़ा उड़ते उड़ते कैलास पहुँचा वहाँ महादेव से कहा, “कोई ऐसा मुनि बताइए जी गोमुखी सी दे। वे जप करने को ज्यौंही बैठे उनकी माला नीचे लटक पड़ी अब वे जप बिना समाप्त किए भोजन नहीं करते।”
महादेव जी ध्यान धरके कहने लगे, “इसका सीनेवाला तुम्हैं तुंडदंष्ट्रा नामक देश में मिलैगा वह यहाँ से सौ कोस पर दक्षिण दिशा में रहता है।” कपोत पलभर में उड़ कर पहुँच गया। दंष्ट्राकराल का राजा विरागचंद्र गौतममुनि का चेला था वात्स्यायन का भाई - वसिष्ठ का बाप - नारद का बहनोई और विश्वनाथ का गुरुभाई। विरागचंद्र से भी यही कहने लगा। विरागचंद्र ने अपने एक पूर्वोक्त जातिबंधुओं को बटोरा मंत्र किया। सूचीकार के ढूँढ़ने को ए सब बहुत इधर उधर दौड़े, पर हार मान कर घर बैठे। जब ऐसे ऐसे मुनियों का बल विफल हो गया तो मनुष्यों की क्या गणना थी! अब क्या करता? गोमुखी से हाथ निकाला उक्त मंत्र का जप करते करते 10 वर्ष बीत गए। एक वर्ष होम करते बीता। बारहें बरस मंत्र सिद्ध हो गया। इंद्र अखाड़े का ऐरावत गजराज झूमता हुआ आया। पर पलकदंता हाथी मत्त था। धर्म का ध्वजा बाहर के दाँतों के नाईं निकाले पर भीतर के दसनों के तुल्य कपट और विश्वासघात तथा अधर्म का पक्ष दबाए उपस्थित हुआ। मैं इसे देख उठ खड़ा हुआ। यह उपेंद्र का गजराज था। भला क्यों इसे देख आसन न देता। नहीं तो कहीं दुर्वासा सा कोई आकर शाप दे देता तो फिर मैं क्या करता। गज के दोष से दुर्वासा मुनि ने इंद्र को शाप दे ही दिया था। भला क्या इंद्र ने दुर्वासा की दी माला भूमि पर फेक दी थी या गज ने जो सामान्य पशु था? - पर बड़ों को कौन कह सकता है चाहै जो करै, चाहै आकाश में महल बनवावैं उन्हैं तो 'रवि पावक सुरसरि की नाईं' है। बाबा जी नई बालाओं को पूरा भोग भी देते हैं तौ भी बाबा जी ही बजते हैं - कहावत है कि “माई को माई भई-माई बुलावन जात है” चमारिन, डोमिन, धिररकारिन, धोबिन, तेलिन सभी गंगा के तुल्य हैं -
“आशंखचक्रांकितावाहुदंडा गृहे समालिंगितबालरण्डा।
मुण्डा भविष्यन्ति कलौ प्रचण्डः - “
बस हश! हाँ तो फिर मैंने गजराज को नमस्कार किया और उस फाटक खोलने की प्रार्थना की। लोभी पशु एक पसर धान के लालच में झट दतूसर फाटक पर लगा ही तो दिया (विश्वास न हो तो कर्पूर तिलक का वृत्तांत हितोपदेश में देख लो) फट् से फाटक फट पड़ा खुल गया। दूरबीन लगाने की भी आवश्यकता न पड़ी बिना इस यंत्र के उस पार का सब कुछ उघर गया। फाटक तो खुला ही था - भगवती भागीरथी गंगा की भी धार निकल पड़ी अब तो ऐरावत जी की नानी सी मर गई। कलकत्ता के निकट की तो बात है। भगीरथ कई सहस्र वर्षों तक तप करके पाए इधर केवल 'गं' बीज के जप मात्र से शीघ्र ही निकल पड़ी - ऐरावत लोट गया - स्नान किया हाथियों का मन जल में बहुत रमता है - किनारे की सब कमलिनी क्रम से उखाड़ उखाड़ कौर कर गए ऐसा जान पड़ा मानों
“चित्रद्विपा पद्मवनावतीर्णा:
करेणुभिर्दत्त मृणालभंगा:”
गंगा की धार फाटक के आर पार बह गई। मैंने तो जाना कि बस स्टेशन भी बहा ले जाएगी पर मेरे भाग्य से बच गया। बीच धार में शेष निकला तब तक भूमि के भार सम्हारने की एवजी कूर्म को दे आया था - शेष पर भगवान् जगन्मोहन विष्णु सोए थे। लक्ष्मी जी पाव पलोटती थी - नाभिकमल से मृणाल निकला - फिर कमल का फूल हो गया - कमल का ध्यान करके देखा तो उसी जलज में से जलजासन निकले - चारों वेद पाठ करते - पर मधुकैटभ दैत्यों ने इनके भी दाँत खट्टे किए। ब्रह्मा भागे दैत्यों ने पीछा किया जोतसी लोग सायत विचारने लगे पर ज्योतिष का उनको कुछ बोध थोड़ा ही था। अगहन की सायत सावन भादों ही में धरी। शुक्र का भी उदय नहीं हुआ था, अगस्ति का भी उदय न था - पंथ का जल भी नहीं सूखा था - दैत्यों ने ब्रह्मा का ऐसा पीछा किया जैसे बालि ने मायावी का किया था - न मानो तो वाल्मीकि रामायण पढ़ो - मैं भी पीछे पीछे गया। ब्रह्मा फाल्गुण ऋषि के चेले शाक्य मुनि की कंदरा में जा घुसे - उनके घुसते ही मैंने द्वार पर एक महा शिला लगा फिर उसी स्टेशन पर आ गया। विष्णु से सब हाल कह दिया। विष्णु भी उन्हीं दैत्यों को मारने हेतु गजराज पर सवार हो लक्ष्मी को छोड़ चले गए अब बिचारी लक्ष्मी शेषनाग के पाले पड़ी - यदि मैं न होता तो वह उसे सांगोपांग लील जाता। जैसे दमयंती को अजगर से व्याधे ने बचाया - पर अंत को व्याधा अनाचार करने लगा। दमयंती ने शाप देकर भस्म कर दिया, पर मैं भस्म तो नहीं हुआ केवल कोयला होकर पड़ा रहा। मैंने प्रार्थना की लक्ष्मी प्रसन्न हुई और शेष का विष खींच मुझै सदेह कर फिर सजीव किया। यही तो आश्चर्य था कोई अमृत पीने से जीता है मैं विषपान कर जिया। धन्य है री मायादेवी धन्य है! इतने ही में गंगा की ऐसी लहर आई कि लक्ष्मी उसी तरंग में बह गई - मैंने शोच किया रेल आई टिकट ली चार रुपये नौ आने साढ़े दस पाई देना पड़ा। रेल पानी पर चलने लगी। गंगा बहते बहते ब्रह्मपुत्र से जो मिली और अंत को सहस्र धारा हो सागर में जा गिरी - वहाँ सौतें तो बहुत मिलीं पर गंगा की तृप्ति कब होती है, एक सागर से दूसरे दूसरे से तीसरे इसी तरह सातों सागर घूमी - अंत को फिर क्षीरसागर में पहुँच कर विलास करने लगी। मैं भी गंगासागर के मुहाने तक गया। मुहाने में घुसी - वाह री रेल।
“अग्नि वायु जल पृथ्वी नभ इन तत्वों ही का मेला है
इच्छा कर्म संजोगी इन् जिन गारड आप अकेला है,
जीव लाद सब खींचत डोलत तन इस्टेशन झेला है
जयति अपूरब कारीगर जिन जगत रेल को रेला है।”
दूसरा स्टेशन दिखाने लगा। विचित्र लीला, अब जल से थल हो गया। उस स्टेशन के स्तंभ दिखाने लगे, स्टेशन तो हैमिल्टन साहब की दुकान था। वाह रे ईश्वर! मनोरथ पूरा हुआ। चश्मा मिलने की आस लगी। दुकान पर उतरे। एक गोरी थोरी वैसवाली निकल आई, इस गोरी के पीछे एक पूछ भी थी। मैंने तो ऐसी स्त्री कभी नहीं देखी थी। मुख मनोहर और वदन मदन का सदन था। इस कामिनी के कुचकलशों पर दो बंदर नाचते थे, इनके नाम दंभाधिकारी और पाखंड थे। इन बंदरों के पूछ से कपट और घात नाम के दो बच्चे और लटकते थे। मैंने ऐसी लीला कभी नहीं देखी थी। करम ठोका आश्चर्य किया। साहस कर दुकान के भीतर जा पूछने लगा, “गोरी तेरी दुकान में एक जोड़ चश्मा मिलैगा?” उसने त्यूरी चढ़ा के उत्तर दिया, “मूर्ख द्वापर और त्रेता में कभी चश्मा था भी कि तू माँगता है। तब सभी लोगों की दृष्टि अविकार रहती थी। यह तो कलियुग में जब लोग आँख रहते भी अंधे होने लगे तब चश्मा भी किसी महापुरुष ने चला दिया। मुझै नहीं जानता मैं पाखंडप्रिया अभी श्वेत द्वीप से चली आती हूँ, मैं फणीश की बहिन हूँ, देख बिना चश्मा के तू देख लेगा कि मैं कैसी हूँ और मेरा रूप कैसा आश्चर्यमय है। भाग जा नहीं तो - हाँ तमाशा बताऊँगी।” मैंने कहा, “हा दैव! किस आपत्ति में तूने मुझै डाला।” झट श्यामा का स्मरण किया और ज्यौंही गंगा सागर संगम में डुबकी लगाई पाप कट गए सब भ्रम नाश हो गया। रेल का खेल विला गया फिर भी वही श्यामा और मैं - फिर भी वही पर्वत और नदी - और फिर भी वही चाँदनी की रात - रात के दोपहर बीत चुके थे, तीसरा पहर था।
जिधर देखो उधर सूनसान - पशु पंछी सब योगियों के भाँति समाधि लगाए अपने अपने स्थल में बैठे थे। सच पूछो तो वह समय ऐसा ही था जैसा ही था जैसा हरिश्चंद्र ने नीलदेवी के पंचम दृश्य में कहा है।
राम कलिंगढ़ा, तितला
सोओ सुखनिदिया प्यारे ललन।
नैनन के तारे दुलारे मेरे बारे,
सोओ सुखनिदिया प्यारे ललन।
भई आधी रात वन सनसनात,
पशु पंछी कोउ आवत न जात,
जग प्रकृति भई मनु थिर लखात
पातहु नहिं पावत तरुन हलन।
झलमलत दीप सिर धुनत आय,
मनु प्रिय पतंग हित करत हाय,
सतरात अंग आलस जनाय,
सनसन लगी सीरी पवन चलन!
सोए जग के सब नींद घोर,
जागत कामी चिंतित चकोर,
विरहिन विरही पाहरू चोर,
इन कहं छिन रैनहु हाय कल न।
वर्षा के बादरों ने अपना आगम जनाया, विरही लोग कादर हो हो चादर से अपना मुँह छिपा छिपा लगे रो ने, संजोगी अपनी अपनी प्यारियों के साथ सादर हँसने बोलने लगे, मानौ अपना रावचाव दिखा के वियोगियों को लजाते और उनके दुस्सह दुःख पर हँसते थे। जो हो ये दिन भी न रहैंगे। यह तो रथ के चक्र सी मनुष्य के भाग की गति है - कभी सुख कभी दुःख, कभी गाड़ी नाव पर और नाव कभी गाड़ी पर चलती है। हाँ - आषाढ़ के गाढ़े गाढ़े मेघ गर्जन लगे। वियोगियों के जी लरजने लगे, अवकाश में बक की पाँति उड़ती ऐसी जान पड़ती थी मानौ काली ने कपाल की माला पहिनी हो। बिजुली चमकने लगी - बादर बार बार घहराने लगे। श्यामा ने कहा - “भद्र! तुम इतनी देर तक कहाँ गए थे। देखो पावस आ गई। विरहियों के प्रान अब कैसे बचैंगे? सुनो -
लागैगो पावस अमावस सी अंध्यारी जामे
कोकिल कुहुकि कूक अतन तपावैगो।
पावैगो अथोर दुःख मैंन के मरोरन सो
सोरन सो मोरन के जिय हू जलावैगो।
लावैगो कपूरहु की धूर तन पूर घिसि
भार नहि कोऊ हाय चित्त को घटावैगो।
ठावैगो वियोग जगमोहन कुसोग आली
विरह समीर वीर अंग जब लागैगो।
और भी -
को रन पावस जीति सकै लहकारै जबै इत मोरन सोरन।
सोरन सों पपिहा अधरात उठै जिय पीर अधीर करोरन।
रोरन मेष चमंकत बिज्जु गसे अब नैन सनेह के डोरन।
डोरन प्रेम की आय गहो जगमोहन श्याम करो दृग कोरन॥
मैंने कहा - “देवि! मुझै ज्ञात नहीं मैं कहाँ था और कौन कौन आपत्ति झेल रहा था, तुम तो अंतरजामिन हौ सब जान ही गई होगी। तुम्हारा नाम स्मरण करते सब मोहतिमिर नाश हो गया। फिर तुम्हारा दर्शन पाया जैसे फणी अपना मणी पा जाय। तो ठीक है पावस तो आ गई अब चलो इस गुफा में बैठें, चलते नहीं तो पानी के मारे तुम्हारी कथा भी न सुन सकैंगे।”
यह सुन श्यामा अपनी बहिन और वृंदा के साथ उठी और इसी पर्वत के कंदरा में बैठी। यह कंदरा बड़ी विचित्र थी मानौ विश्वकर्मा ने स्वयं श्यामा के बैठने को बनाया गया। नाना प्रकार के पक्षी गान करते थे। मत्त हंस सारस पपीहा कोइल इत्यादि पक्षी नीचे बहती हुई चित्रोत्पला में नहाते और कलोल करते। प्रकृति का उद्यान यहीं था। बस -
साल ताल हिंताल तमालन बंजुल धवा पुनागा
चंपक नाग विटप जहँ फूले कर्निकार रस पागा।
कंचन गुच्छ विचित्र सुच्छ जहँ किसलै लाल लखाहीं लता भार सुकुमार चमेलिन पाटल विलग सजाहीं।
तरुण अरुण सम हेम विभूषित दूषित नहिं कोउ भाँती
वेदी लसत विदूर फटिकमय सलिल तीर लस पाँती।
जहँ पुरैन के हरित पात बिच पंकज पाँति सुहाई
मनु पन्नन के पत्र पत्र पै कनक सुमन छबि छाई।
नील पीत जलजात पात पर विहँग मधुर सुर बोलैं
मधुकर माधवि मदन मत्त मन मैंन अछर से डोलैं।
हरिचंदन चंदन ललाम मय पीत नील वन वासै
स्यंदन विविध वदन जगवंदन सुखकंदन दुःख नासै। -
हम लोग सब इसी में बैठ गए। मैंने कहा अब पावस की शोभा देखो - जलनिधि जल गहि जलधर धारन धरनीधर धर आए
पटल पयोधर नवल सुहावन इत उत नभ घन छाए।
फरफरात चंचल चपला मनु घन अवली दृग राजै
गजरज घूमि भूमि छ्वै बादर धूम धूसरे साजै।
गज कदंब मेचक से अंबुद नव लखि नभ में छाए
को न गई पिय वल्लभ ढिंग निशि करि अभिसार सुहाए।
श्याम जलद नव सुंदर हरिधनु सुखद सरस मधि सोहै
श्याम सरीर श्यामता हर मनु विविध मनिन जुत मोहै।
वारिद वृंद बीच बिजुरी बलि चंचल चारु सुहानी
छिन उघरत छिपि जात छिनक छिन छटा छकित सुखदानी
नव तमाल सावन तरु तरलित धीर समीरहिं मानौ
विटपन छिपि छिपि जात मंजरी छिन छिन उघरत जानौ।
विधुर वधू पथिकन की नीरद नीर नैन सो पेखैं
असुभ दरस वारिद गुनि जीवन अंत आपुनो लेखैं।
मानिनि मान नमन घन मारुत उपवन वनन नचावै
ललित विकच कंदल कुलकलिका जगमोहन अकुलावै।
श्यामा बोली - “आप तो बड़े प्रेमी और कवि जान पड़ते हैं; पावस की अच्छी छटा दिखाई। आप का वर्णन मेरे जी में धस गया। मैं भी कहती हूँ सुनिये -
जलद पाँति धुनि संपति निज लहि कल आलाप सुहाई
किलकि कलाप कलापिन कुहुकत कोकिल काम कसाई।
बाजत मनौ नगारे सुनि धुनि पावसराज बधाई
श्रुति सुखदायक मोर पपीहा बग पंगति नभ छाई।
नव कदंब रज गगन अरुन करि अंबर सुषमा साजै
कंदल सुमन पराग सुरभिजुत जेहि लहि सब दुःख भाजै।
अनुरागिन चित नव नव उपवन पौन प्रेम प्रकटावै
नवल नवेलिन मन मनोज मथि परसि अंग उपजावै।
नीरद प्रथम नीर के बूंदन मही रहित रज कीन्ही
ताप मिटाय सबै विधि धरनी आँगन सुख दै चीन्ही।
केतक चहुँ सोहत वन वागन जापै भृंग गुंजारै
गजरद से अति सेत मनोहर रागिन हृदय विदारै।
घन घन अवलि विघट्टन सों मनु खस्यौ खंड शशिकेरा
कृशित शिखा अति पथिक भृंग सम आवत गिरत घनेरा।
कुटज पराग सुमन कन निर्झर चारु बुंद मनु राजै
चूरन ललित दलित मोती सित अनुपम सोभा भ्राजै।
मनु दधि रेनु सुहात मनोहर पियत भृंग मकरंदा
पावस सुखद समीर डुलावत श्यामा तन सुखकंदा।”
मैं श्यामा की कविता सुनकर दंग हो गया, मैंने ऐसी अपूर्व कविता कभी किसी ललनागण के मुख से नहीं सुनी थी। मैं श्यामा और श्यामसुंदर की प्रेम कहानी सुन चुका था - बहुत जी में विचार किया। हाथ कुछ न आया मैंने कहा - “श्यामा, तुम्हारी कविता ने मेरे जी में छेद कर दिया - हाय रे दई! आज श्यामसुंदर न हुआ नहीं तो तुम्हारे रूप और गुण दोनों की बलिहारी होता, पर यदि उनके ओर से मैं यह कहूँ तो तुम्हैं कैसा लगै?
प्यारी पावस प्रबल प्रलय सम तुअ बिनु मुहि दुःखदाई
अब हूँ तो सुधि लेहु देत ए बादर विरह बधाई।
नूतन अवलि नीप बन दस दिसि वारिद पट सरि धारे
निज रज वसन समान दियो गुनि सखी भाव दुःख टारे।
गगन गहन गिरि गिरा गभीरन गरजत गरज गयंदा
बीच बीच विचरत बन बिजुरी विगल बक वृंदा।
भीम भयानक भौनहु भासत भांदो भामिनि भोरी
तेरे रहित अतन तरकस तै तीर तान तन तोरी।
मृगनैनी मृगांक मन मंदिर मुद्यौ मधुर मुख मोही
परम प्रीति परतीत पीर पिय प्यारो परवस पोही।
चतुर चलाक चपल चितचोर चोर चलु चीन्हो
छिप्यो छपाकर छितिज छीरनिधि छगुन छंद छल छीन्हो
झन झनात झिल्ली झंपावत झरना झर झर झाड़ी
ठसक ठसकि ठठकी ठसकीली ठाठ ठाठ ठकि ठाड़ी।
डरत डरत डग डगरी डगरहिं डगमगात डहकानी
थरथरात थर थर थिर थाकी थम्हिं थम्हिं थहरि थकानी।
दई दगा दर दर दिल दाह्यौ दाहकि दहन द्रुम दागा
जोहत जगी जगत जमजामिनि जगमोहन जन जाना।”
श्यामा ने कहा - “बस बस - मैं सब जान गई - पर तुम यह तो मुझै कहो कि तुम कौन हौ - मुझै बड़ा संदेह होता है - “
मैंने कहा - “अभी तुम अपनी कथा पूरी करो - अंत में कहूँगा जो कुछ कहना है - तुम्हारी कथा यद्यपि दुःखदायक है पर सुनने को जी ललचाता है। इस्से जब तक पूरी न सुनावोगी मैं कुछ भी न कहूँगा। जैसे इतनी दया कर इतनी कही वैसे ही शेष तक कृपा कर कह ढारो।”
श्यामा बोली - “श्यामसुंदर की प्रीति दिन दिन शुक्ल पक्ष के चंद्रमा सी बढ़ती गई - बार बार मुझसे समागम हुआ, बार बार मैंने उनकी तपन बुझाई। अब तो वे ऐसे विकल हो गये थे कि बिना मेरे एक छिन भी न रहते। जब देखो तब मेरी ही बात - मेरा ही ध्यान - मेरा ही मान - तान में भी मेरा नाम - कविता में भी मैं - श्यामसुंदर के नैनों की तारा - श्यामसुंदर के नैन चकोर की चंद्रिका - उनके हृदय-कमल की भ्रमरी - और कहाँ तक कहूँ उनकी जो कुछ थी सो मैं ही। उन्होंने ऐसा प्रेम लगाया जिस्का पारावार नहीं।
“जागत सोवत सुपनहू सर सरि चैन कुचैन।
सुरति श्यामघन की हिए बिसरे हू बिसरैन॥”
और मेरी भी यही दशा हो गई थी
“जहाँ जहाँ ठाढ़ो लख्यौ श्याम सुभग सिर मौर
उनहू बिन छिन गहि रहत दृगन अजौं वह ठौर।
सघन कुंज छाया सुखद सीतल धीर समीर
मन ह्वै जात अजौं वहै वह जमुना के तीर।”
एक दिन श्यामसुंदर प्रातःकाल स्नान को जाते थे, मै भी नहा के नदी की ओर से आती थी। हम दोनों गली में मिले। दिन निकल चुका था, पर उस समय वहाँ कोई न था। ज्यौंही उनके निकट पहुँची बदन कँप उठा, जाँघें भर आईं और पिडुरीं थरथराने लगीं - इतने में मेरी एक सखी सावित्री नाम की पहुँच गई, हाथ भी कँपने लगे और माथे की गघुरी गिर पड़ी। सावित्री ने मुझै थाम्ह लिया नहीं तो मैं भी गिर पड़ती। गघरी तो चूर चूर हो गई। श्यामसुंदर हँस के चले गए। यह भेद किसी ने नहीं समझा। श्यामसुंदर ने उसी दिन मुझै यह लिखा भेजा -
तन काँपे लोचन भरे अँसुआ झलके आय
मनु कदंब फूल्यौ अली हेम बल्लरी जाय।
हेम वल्लरी जाय कनक कदली लपिटानी
अति गभीर इक कूप निकट जेहि व्यालि विलानी।
निकसि जुगल गिरि तीर जासु पंकज जुग थापे
खेलत खंजन मीन तरल पिय लखि तन काँपे।
यह उन्हीं की रचना थी मैं पढ़ के समझ गयी और मनहीं मन मुसकानी लज्जित हुई। मैंने उनसे कहला भेजा कि इसका अर्थ समझा दो। वे बड़े आनंद से आये मुझै घर में न पाया मैं उस समय सुलोचना और वृंदा के साथ नहाने चली गई थी। श्यामसुंदर घर से फिरे और घाट की ओर चले - वहाँ पहुँचते ही मुझै वहाँ भी न पाया - कारन यह कि मैं तब तक नहा धो अपने घर चली आई। श्यामसुंदर निराश हुए घर लौट गए। ऊधो को बुलाके उरहना दिया -
तरसत श्रौन बिना सुने मीठे वैन तेरे
क्यौं न तिन माहिं सुधा वचन सुनाय जाय
तेरे बिनु मिले भई झाझर सी देह प्रान
रखि ले रे मेरो धाय कंठ लपिटाय जाय
हरीचंद बहुत भई न सहि जाय अब
हाहा निरमोही मेरे प्रानन बचाय जाय
प्रीति निरवाहि दया जिय में बसाय आय
एरे निरदई नेकु दरस दिखाय जाय।
ऊधो ने बहुत प्रबोध किया श्यामसुंदर रात भर विकल रहे। भोजन और नींद सपने हो गई। सुधि बुधि तन की भूलि गई। दूसरे दिन मैंने सुलोचना द्वारा सब वृत्तांत उनका सुना। बड़े सोच में रही - क्या करती कुछ उपाय नहीं था, पर उनके मन को संतोष करना मेरा मुख्य धर्म था, मैंने लिख भेजा कि वट-सावित्री के पूजन के पीछे भेट होगी। मैं - दिन सखी सहेलियों के साथ वट पूजने जाऊँगी तुम भी वहीं चलना। इतना ही लिख भेजा। मैं अपने जी में प्रसन्न हुई केसर का उपटन वदन में लगाकर केसर वदनी हो गई। शुद्ध स्नान कर पीत कौपेय की सारी पहिन बसंतवधूटी बन गई। वृंदा ने माँग गुह दी, सिंदुर की रेख धर दी। सीसफूल खोंस लिया, नागिन सी चोटी पीठ पर लहराती थी। नेत्रों में काजल की रेख मात्र लगा ली। कानों में कर्णफूल सोने के-कंठ में विद्रुम और हेम की कंठी, सोने की हँसुली - श्यामसुंदर की दी कांचनी माला - लिलार में टीका - पटियों में बंदनी - हाथों में गुजरियाँ - पैरों में पैजनियाँ-बाजूबंद इत्यादि पहन के पूजा करने को वृंदा, सुलोचना, सावित्री, सत्यवती, सुशीला, मालती, मदनमंजरी, चंपककलिका, सुरतिलतिका इत्यादि सबों के साथ चली। वट वृक्ष निकट ही तो था सब सहेलियाँ मंगलगीत गातीं चलीं। श्यामसुंदर ऊधो के साथ दूसरी ही वाट से पहुँचे। सैकड़ों के बीच में से उन्होंने मुझै चीन्ह लिया और उनके नैन किबिलनुमा की भाँति मेरे ही ऊपर छा गए -
“वाही पर ठहराति यह किबिलनुमा लौ डीठि”
और मेरी भी गति चातक चकोर सी हो गई थी -
'फिरै काक गोलक भयो देह दुहुन मन एक'
श्यामसुंदर मेरी छवि पर रीझ गए आँख आँख से मिली और मन मन से, पर हाय रे समय! हम लोग यद्यपि अति निकट थे बोलचाल न सके। पूजा समाप्त हुई। मैं उसी राह से अपने घर आई और वे भी उसी राह से गए। वर्षा का आरंभ हो आया था - श्यामसुंदर ने मुझै मिलने को लिख भेजा। मैंने भी यह उत्तर दिया -
तीर है न वीर कोऊ करैना समीर धीर
बाढ़यौ श्रमनीर मेरो रह्यो ना उपाव रे
पंखा है न पास एक आवन की आस तेरे
सावन की रैन मोहि मरत जियाव रे
संगम में खोलि राखी खिरकी तिहारे हेतु
भई हौं अचेत मेरी तपन बुझाव रे
जान जात जानै कौन कीजिए उताल गौन
पौन मीत मेरे भौन मंद मंद आव रे।”-
इसको पढ़ श्यामसुंदर आनंदरूप हो गए। बार बार इस कवित्त को पढ़ छाती से लगाया और 'धन्य भाग' कह किसी प्रकार से साँझ को नियत समय पर श्यामसुंदर पहुँच ही तो गए। इस बात के सुख का पारावार नहीं लिखती, मुझै तो मानौ साक्षात् बैकुंठ भी कुंठ जान पड़ता है। श्यामसुंदर की बड़ाई मैं कुछ नहीं कर सकी - मेरी रसना उनकी प्रशंसा और सुख कहते कहते थक गई थी। पर हाय मैं ऐसी बेकाज ठहरी कि उनको मुँह बताने की भी न रही। उनकी भलाई और मेरी बुराई - उनकी सौजन्यता और मेरी दुष्टता - उनकी दया और मेरी निर्दयता - उनकी कृपा और मेरी निठुरता - उनकी सचाई और मेरी झुठाई - उनकी दीनता और मेरी क्रूरता - उनकी हाय और मेरी हँसी - उनकी बड़ाई और मेरी नीचता - उनके दिल की स्वच्छता और मेरी कपटता - उनका तलफना और मेरा हँसना - इन दोनों पाटियों का सेतु हम दोनों की जीवन नदी में बाँधा जायगा और आचंद्रार्क दोनों की कहानी लोक में प्रसिद्ध रहैंगी। बस अब अधिक कहने का क्या होगा - संसार इसको जान बैठा। तो मैं अपनी कथा कहती हूँ, सुनो। इस विषय में श्यामसुंदर ने जो कविता की वह तुम्हैं बताती हूँ।
सोरठा
दूती वीजुरि रैन, सहचरि चिर सहचारिनी।
जलद जोतिषी वैन, सायत धरत पयान की॥
तिमिर सुमंगल वैन, तोम सदा झिल्ली रवै।
मुग्धे लहि मिलि चैन, छोड़ि लाज पियकंठ लगि॥
कुंडलिया
पैयां परि करि विनय बहु लाई वाहि मिलाय
जमुना पुलिन सुबालुका रही हिये लपिटाय
रही हिये लपिटाय मिटावत तनकी पीरा
मदनमंजरी चंपमालती अति रतिधीरा
सजनी राखे प्रान सींचि अधरामृत सैयाँ
मुरझत नव तन बेलि विरह तप सों परि पैंयाँ।
बरवै
सुभल सलिल अवगाहन पाटल पौन
सुखद छाहरे निदिया सुरभित भौन।
रजनीमुख सजनी सो अति रमनीक।
रमनी कमनी चुंबन बिनु सब फीक।
तनिक तनिक लै चूमा बकुलन भौंर।
अति सुकुमार डार पै मौंरन झौंर।
सदय दलित मधु मंजरि सिरिस रसाल
आलबाल नव जोबन द्रुमहु विशाल।
लैकर बीन बसंतहिं गीत बसंत
कोइ परबीन लीन ह्वै बाग लसंत।
कुंज चमेली बेली फैली जाय
श्यामालता नवेली फूली धाय।
एला बेला लपटी बकुल तमाल
मनु पिय सों आलिंगन करती बाल।
अमराई में कोकिल कुहकै दूर
धीर नीर के तीरहिं जीवन मूर।
वार ना लगाई सखी लाई सो मिलाई कुंज
जेठ सुदी सातैं परदोष की घरी घरी,
घेरि घेरि छहरि हिये व्यौम आनंदघटा
छाई छिन प्यासी छिति वरस भरी भरी।
थाह ना हरष को प्रवाह जगमोहन जू
गंगा औ कलिंदी कूल तीरथ तरी तरी।
हरी हरी दूब खूब खुलत कछारन पै
डारन पै कोइल रसालन कुहू करी।
अली शुभ तीरथ तीर लसै मलमांस पवित्र नदी जुग संग,
अनंग के घाट नहाय नसैं भलै पालक केंचुरी मानो भुजंग,
मनोरथ पूरन पुन्य उदै अपनावै रमा गहि हाथ उमंग,
गिरीश के सीस पयोज चढ़ैं जगमोहन पावन तौ सब अंग।
सातैं जेठ अधिक सुदी बुधवासर परदोष
सुरसरिं औ कालिंदिका कूल फूलमय कोष
कूल फूलमय कोष पुन्यतीरथ जो आवै
ताकि रमा गहि आपु दया करिकै अपनावै
बड़े भाग जो पाव परब मज्जन करि ह्यातैं
पातक विनसै मिलै सुपद जगमोहन सातैं।
यह कविता उन्होंने बाँचकर मुझै सुनाया और प्रत्यक्षरों का मनोहर अर्थ भी बताया। मैं उनकी कौन कौन सी कथा कहूँ यदि एक दिन का समाचार एकत्र करके लिखूँ तो महाभारत से भी बड़ा ग्रंथ बन जाय। पर वे सदा वियोगे के शंकी थे। नाना प्रकार के भाव और दाव जी में करते रहे - मुझै बड़ी दयापूर्वक एक अमोल वज्र की अँगूठी केवल स्मरणार्थ दे गए थे। पर मेरा वज्र हृदय न पसीजा, एक मन आवै कि लोक लाज छोड़कर अनन्य भाव से श्यामसुंदर को भजै, एक मन आवै कहीं निकल जाऊँ, एक मन आवै कि जोगिन बन वन वन धूनी रमाती रहूँ - पर थोरी वैस में ए बातैं असंभव थीं - हाँ प्रेमजोगिन बन श्यामसुंदर के वन में मदन अनल की धूनी रमाना संभव था - इतने में वज्र गिरा। हाय रे दई! मुझै गर्भ की शंका हुई, वह शंका काल के बीतने से रोज रोज पुष्ट हुई। आज और कल्ह कुछ और था। मैं घबड़ानी, चिहुँकी - जकी सी रह गई। 'भइ गति साँप छछूँदर केरी' न किसी से कहने की और न सुनने की बात थी। कहती किस्से, कहती तो केवल श्यामसुंदर से और उनसे कहना ही पड़ा। पर वृंदा और सुलोचना दोनों जान गई थीं। त्रिजटा भी जानती थी, फैलते फैलते बात ऐसी फैली कि वज्रांग विष्णुशर्मा और मकरंद सभी जान गए। मुझै नहीं मालूम कि मेरे माता पिता भी इसे जानते थे। पर पिताजी जो घर में थे ही नहीं। उन दिनों कार्यवशात् पहले ही से पाताल को चले गए थे। उन्हैं मंत्र अच्छे अच्छे आते थे इसी से नागलोक में जाने में कभी शंकित नहीं हुए। और ब्राह्मणों की कहाँ अगति है। आकाश पाताल और मृत्युलोक तीनों में विचरते रहते हैं। मेरे पिता के परम हितैषी और संबंधी पंडित वज्रमणि थे। मेरे पिता पाताल जाने के पूर्व ही अपना कुटुंब उनके और श्यामसुंदर के भरोसे छोड़ गए थे। पर सच्चा हितैषी और कृपालु केवल श्यामसुंदर ही था जिसने कभी वंक दृष्टि से हम लोगों को नहीं देखा। दयाछत्र की छाया सदा हमारे दी मस्तकों पर किए रहे, शत्रुओं ने जब जब क्रोधाग्नि से हमारा दीन परिवार-वन जलाना चाहा वे सदा कवच से ही सहायता का शीतल जल बरसाते रहे। संसार में ऐसा कौन पदार्थ था जो उन्होंने मेरे माँगे और बिना माँगे नहीं दिया। कच ने भी इतनी सेवा देवयानी की न की होगी। राम और नल को भी सीता और दमयंती के विषय में इतने दुःख न झेलने पडे़ होंगे।
दुष्यंत भी शकुंतला के लोप हो जाने पर इतने विकल न भए होंगे। लोप! हाय लोप - यह क्या भविष्यबानी निकली। लोप और कोप दोनों।” इतना कह श्यामा रोने लगी। मैं इस विचित्र लीला को देख चकित हो गया। मुझसे कुछ कहा नहीं गया मन चिंता के झूले में झूलने और कुछ और वृत्तांत सुनने को फूलने लगा। पर अब सुनना कैसा अब तो प्रत्यक्ष देखना रह गया था। एक तो स्वप्न में भी प्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष पर भी परोक्ष, परोक्ष पर शब्द - और शब्द भी कैसा कि आप्त, सर्वथा विश्वास योग्य। रथयात्रा का मेला आया। प्राणयात्रा खूब हुई हाँ - तो रथयात्रा की बात - यह जगन्नाथपुरी के मेला का अनुकरण है। श्यामापुर में सभी रंग तो होते हैं। श्यामा और श्यामसुंदर इसी वज्र की खोरों में खेलते खाते रहे, पर कच्चे गऊ का मांस कभी नहीं खाया।
यह तो बड़ी कहानी है। कोई विश्वासपात्र और मित्र किसी राजा के पास अपने अंगरखे के भीतर दाती के निकट एक लवा को लपेट गया और युद्ध का समय आया बोला, “महाराज जो इस जीव को होगा सो आपको होगा।” यह कह वह अपने घर आया और उस लवे की ग्रीवा मरोर डारी। बिचारा छोटा सा पक्षी मर गया और उन लोगों ने मिलकर उस राजा का भी वही हाल कर दिया। बस, स्वप्न में सभी देखा, होनी अनहोनी सभी हस्तामलकी के समान जान पड़ी। यात्रा का सैर हुई, जगन्नाथ जी की पावन झाँकी हुई, पर मैं नास्तिक हूँ यदि नहीं भी हूँ तो लोग तो ऐसा ही समझते हैं। मैं तो शपथपूर्वक इस कोरे कागद पर लिखे देता हूँ कि आज लौं मेरे हृदय को किसी ने नहीं पाया। किसके माँ बाप और किसके पुत्र कलत्र, कोई किसी का नहीं, “जग दरसन का मेला है” मिल लो, बोल लो, हँस लो, खेल लो। “चार दिन की चाँदनी फेर अँधेरा पाख” - अंत को सब एक राह से निकलेंगे, राजा रंक फकीर सभी की एक सी गति होगी, जो पहले सरागी नहीं हुआ वह विरागी कैसे होगा। सच तो यही है -
नारि मुई घर संपति नासी
मूँड मुड़ाय भए संन्यासी।
संन्यासी नहीं सत्यानाशी हैं।
जपमाला छापा तिलक सरे न एको काम।
मन काँचे नाचे वृथा साचे राँचे राम॥
विषय-भोगतृष्णा - विषय करो, झंडा गाड़ के रो, पर तृप्ति न होगी।
“हविषा कृष्णावर्त्मेव भूय एवाधिवर्द्धते”-
संसार तुच्छ है, असार है इसमें संदेह नहीं - मैं कहता हूँ - यह मेरा पुत्र और वह मेरी पुत्री है - तो भला यह कहो - तुम कौन हो? तुम कहाँ से आए - कहाँ रहे -कहाँ-कहाँ हो - और फिर कहाँ चल बसोगे? कुछ जानते हो कि बिना कान टटोले कौव्वे के पीछे दौड़ चले? संज्ञा तुम्हारी कहाँ चली गई। ज्ञान तो तुम्हारा अपना कर वह देखो तुम्हैं छोड़ भागा जाता है - दौड़ो-दौड़ो पकड़ो जाने न पावै। भला, यह तो हुआ। तुम्हारा बल अपने शरीर पर है या नहीं? यदि कहो नहीं - तो बस तुम हार गए। फिर तुम्हारा बल और किस पर होगा? कर्म बंधन हैं - कर्म से मुक्ति नहीं होती - यज्ञ, जप, तप, वेद, पाठ, पूजा, फूल, चंदन, चावर, पाषाण मूर्ति, देवालय, तीर्थ - इन सभों से मुक्ति नहीं - 'ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः' - यही सर्वोपरि समझो - किसका ईश्वर और किसका फीश्वर - 'ईश्वरासिद्धेः' ईश्वर मुक्त है या बद्ध? मुक्त है - तो उसे सृष्टि बनाने का प्रयोजन क्या था - नहीं जी कदाचित् बद्ध है - तो बद्ध होने में मूढ़ है - फिर सृष्टि बनाने को सर्वथा असमर्थ है - क्यों क्या कुछ और बोलोगे। आत्मा का ध्यान करो 'नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोयं सनातनः' 'असंगोयं पुरुषः' इत्यादि देखो। शुभाशुभ कर्मो से कुछ प्रयोजन नहीं जब पुरुष प्रकृति से विलग होता है तभी मुक्ति है और पुनर्जन्म तभी बंद होगा - अब अधिक सुनोगे तो पूरे योगी ही हो जावोगे।
ज्ञान सूझ रहा है, क्यौं न हो मेरे मित्र क्यौं न हो मैं तुम्हारा दास हूँ - चलो अब कुछ तीर्थ सेवन करैं - बहुत हो गया। जाने दो - जाने दो जो चाहै सो करै करने दो, हमैं क्या पड़ी जो दूसरों के बीच में बोलैं। परमार्थ करो। हमको तो सदा गौतम जी का न्याय कंठ करना है, फक्किका फाँक के बैठ रहो वा चलो रथयात्रा का मेला देखैं, या गंगा जी चलो प्रयागराज चलैं, त्रिवेनी में बुड़की लगावैं, कुंभ का मेला देखो, कुंभज मुनि का दर्शन कर अपनी आत्मा शुद्ध करैं नहीं नहीं श्यामा न छूटे। श्यामा कहाँ गई - तो अब श्यामा रोने लगी - मैं बड़े घनचक्कर में पड़ा यह नहीं जानता था कि श्यामसुंदर भी यह कहानी निकट ही लतामंडप मैं छिपा छिपा सुन रहा था। मैं देखने लगा यह कौन आता है? श्यामसुंदर? श्यामसुंदर ही था। दौड़कर श्यामा के अभिमुख हुआ। श्यामा ने कहा, “हाय रे मनमोहन प्यारे - हाय हाय कहाँ था प्यारे” ऐसा कह श्यामसुंदर की ओर दौड़ी कि उसे धाय के कंठ में लगा ले त्यौंही आँसुओं का सागर उमड़ा जिधर देखो उधर जल ही जल दिखाने लगा। पानी बढ़ने लगा। पानी श्यामसुंदर के कमर तक था, श्यामा उसी शिखर पर खड़ी थी चिल्लानी “चलो चलो तैर आवो।
प्रेम समुद्र अथाह है पास न खेवनहार।
पास न नाव लखात गहि आस शिला लगु पार॥”
समुद्र में पाला पड़ने लगा उत्तर की हवा बही क्षण में श्यामा की मूर्ति देखते ही देखते बिला गई। उधर श्यामा ने सहारा देने को हाथ फैलाया इधर श्यामसुंदर ने पर भावी प्रबल है। सब श्रम निष्फल हो गया। बस वही दोहा हाथ रह गया। श्यामसुंदर रोने लगा भूमि पर गिर पड़ा मैंने उसे उठाया प्रबोध किया आँखैं पोछीं और धीरज धराया पर सच्चे नेही कब मानते हैं।
'डरन डरैं नींद न परै हरै न काल विपाक।
छिन छनदा छाकी रहति छुटत न छिन छबिछाक॥'
श्यामसुंदर मुझै अपना प्राचीन मित्र जान कहने लगा। संबंध, बस, जैसे देह और देही का - स्थूल और लिंग शरीर का हम लोगों में भेद नहीं था। इस मित्रता की कथा का स्वप्न नहीं हुआ इसी से इस स्थल पर नहीं लिखी। श्यामसुंदर का अनंत विलाप सुनो सुनने के लिए महाराज पृथु हो जावो ब्रह्मा से प्रार्थना कर उनसे उनका एक दिन भी उधार ले लेवो, वह बोला, “प्रिय पहले तो वह पत्र सुनो जो मेरे प्रियतम प्रेमपात्र ने लिखा था तब आगे कुछ कहूँगा।
प्रियतम - ! तुम्हारा पत्र बहुत दिनों पर आया जिसके विलंब का कारण तुमने किसी श्यामालता को बतलाया जो आज कल्ह तुम्हारे प्रेमतरु पर नित नव पल्लवित होगी। खैर - तुम्हारे प्रेम समुद्र की नौका तुमको आधार है - तुम्हारे आनंद के पाल उड़ैं पर ईश्वर तुमको उन निराश की चट्टानों और वियोग के तूफानों से बचावैं जिनने प्रायः प्रेम के सौदागरों की आशा भंग करके विध्वस्त किया है। तुम्हारे मनोरथ मंदिर की नवीनमूर्ति जिस्की पूजा तुमने प्रेम से की होगी - जिस्के चरणों पर सुमन समर्पित किये होगे - और जिस्के वरदानों से तुमको तृप्ति नहीं होती कृपा करके तुमको फिर फिर कृतार्थ करै!”
तुम्हारा
प्रेम
सुनो इस पत्र के प्रत्येक अक्षरों का कैसा बल है - वाह रे प्रेम-पात्र तेरी बड़ाई क्या करूँ - तू तो मेरा परम सुहृद और आँखों का तारा है। तूने यह कैसी भविष्यवाणी भाषी। मैं तो इस विचित्र आत्मा के संयोग का उदाहरण देख चकित हो गया, आहा! इसी को सिद्धि कहते हैं। जीव एक है। देखो हजार कोस पर बैठा प्रेमपात्र हमारा भविष्य जान गया - जान ही नहीं गया वरंच लिख भी दिया। यही सच्चे प्रेम का प्रमाण है। ध्यान भी लगाना इसी का नाम है। समाधि भी इसे कहते हैं। मैं प्रेमपात्र का बड़ा भरोसा रखता हूँ। वे मेरे अद्वितीय मित्र और इस जगतीतल में मेरे मानस से एक ही हंस हैं। जैसे चकोर अद्वितीय भाव से चंद्र को - मयूर मेघ को - कोमल रवि को और कोइल रसाल को भजते हैं उसी प्रकार मैं साक्षात् मंगल मूर्ति प्रेमपात्र को भजता हूँ -
जिमि मंदर मथि सागरहिं पायो लोकानंद
चंद्र सरिस मंगल मिल्यौ जगमोहन सुखकंद।
जिमि अशेष जग को तिमिर नासत एक मयंक
मंगल मणि शशि हिय तिमिर जगमोहन जिय अंक।
उत फणि मणि वासुकि सिरहिं अहिपुर करहिं प्रकास
इत मंगल मणि मोर हिय पुर लहि दिपत अकास।
उनकी मूर्ति मेरे हृदय पर लिखी है - बस कहाँ तक लिखूँ उनकी हमारी प्रीति निबह गई। ईश्वर सभी की ऐसी ही निबाहै। मैं तो निराश हो गया। श्यामा ने क्या कहा - स्वप्न तो नहीं था। प्रत्यक्ष था कि स्वप्न मुझै कुछ भी नहीं मालूम -
सुख ना लखात नहीं दुःख हू जनात हमैं,
जागत कै सोवत बतात तुम सो दई।,
बैठयौ कै चलत चित्यौर में लिख्यौ कैधों चित्र,
देह सो विदेह कैधों अगति दई दई।
मातौ कै वियौग विषघूँट घूँटयौ मीत मैंने,
मोह सब इंद्रिन विचारत कहा नई।
जीवत कै मरत विकार भरमात अहो,
श्यामा बस कौन जगमोहन दशा भई -”
इतना कह श्यामसुंदर ने आँसू भर लिये। मैंने कहा -
“यही तेरे आँसू गिरत धरनी जर्जर कना
कहौं बातैं कासूँ विखर मनु मोती मन धना
भयो भारी तेरो विरह जिय घेरो घहरि कै
कहै चेतौ मेरो अधर तुअ नासा थहरि कै।”
श्यामसुंदर ने कहा - “भाई मैं क्या कहूँ मुझसे कुछ कहा नहीं जाता -
विरह अगिन तन बेदना छेद होत सुधि आय।
जियते नहिं टारी टरै चाह चुरैलिन हाय॥ -
बस अब मेरी कहानी, विनय और विलाप सुनना होय तो विनय पढ़ो -
कुंडलिया
दुसह विरह की आँच सों कैसे बचिहैं प्रान
बिनु संजोग रस के सिंचे श्यामा दरस सुजान
श्यामा दरस सुजान परस तन पाप नसावन
दरद दरल सुख करन अधर मधुपान सुपावन
श्री मंगल परसाद लजावत शरद इंदु कह
मुखमयंक तुअ बंक अलंक अरु भाल विदुंसह”
श्यामा श्यामा नाम को जीह रटत दिन रैन
श्यामा की मूरति अजो टरत न पलभर नैन
“टरत न पलभर नैन हियो निज धाम बनायो
बहुरि छुड़ायो खान पान प्रानन अपनायो
श्री मंगल परसाद तुही जग में सुखधामा
और सकल जंजाल तोहि बलि जाऊँ श्यामा”
पावस गइ झलकी शरद खंजन आगम कीन्ह
खजन गंजन लोचनी श्यामा दरस न दीन्ह
“श्यामा दरस न दीन्ह चंद वा मुख सम भायो
गए बहुत दिन बीत शरद पूनो चलि आयो
श्री मंगल परसाद जरै जियरा विरहा बस
नीर नैन ते झरत झरै झरना जिमि पावस।
लावनी
मिलैंगे प्यारी तुमसे कभी यह आस लगाए रहते हैं।
यहाँ वहाँ या और कहीं बस तलफ तलफ दुःख सहते हैं॥
किए करार अपार सार कुछ मिला न फल तुझसे प्यारी।
हार मान कर बैठे बस अब भई रैन मुझको भारी॥
कही बहुत कुछ सही पीर हम हाय धीर अब ना आवै।
सिसक सिसक कै आह आह कर सजल नैन दुःख तन तावै॥
कल न पैर पल एक कलपते आह आह करते बीते।
रैन द्यौसहू चैन छिना नहिं सकल मोद मन ते रीते॥
मारो वा राखो मुहि प्यारी बार बार यह कहते हैं।
यहाँ वहाँ था और कहीं बस तलफ तलफ दुःख सहते हैं॥
बहुत कहा समुझाया मुझको कही न मानी सो तूने।
याद करो बस बात पुरानी, भए नए दुःख ए दूने॥
घाट वाट की सुरति न आवति कहा कहौं तेरी बतियाँ।
रीझि खीझि कै कंठ लगी तब दरक जात सुधि कै छतियाँ॥
रोय रोय हम नदी बहाई आँसुन की तहँ बहते हैं।
यहाँ वहाँ या और कहीं बस तलफ तलफ दुःख सहते हैं॥
पैंया परौं गुसैंया जाने जी में जो मेरे आती।
कहे से क्या अब लिख लिख भेजी सब कुछ हम तुमको पाती।
हाथ धरो या साथ तरक कर मैं न आह करनेवाला।
है कपोतवत गरदन तेरी कभी न हूँ टरनेवाला॥
प्रान जाय पै प्रन न नसावै कही तेरी हम करते हैं।
यहाँ वहाँ या और कहीं बस तलफ तलफ दुःख सहते हैं॥
छोड़्यौ तू मझधार हमैं कहु कौन पार करनेवाला।
तेरे सिवा नहिं धीर हमारी पीर कौन हरनेवाला॥
जौ तेरे सनमुख मर जाते तौ न सोच जी में करते।
एक नजर भर देख भला हम मौतहु से नाही डरते॥
श्यामा बिनै सुनो जगमोहन हियो प्रान तन दहते हैं।
यहाँ वहाँ या और कहीं बस तलफ तलफ दुःख सहते हैं॥
सवैया
दूर बसे बस भागन आँगन तौहू भज्यौ इक आस समीरन।
प्रीति की डोर न टूटै कबौं वरु बाढ़ै मनी सुनु द्रोपदी चीरन॥
वैरि ये कैसे कटै दुःख द्यौस दुःखी जिय होत हमैं कहुँ धीर न।
भोगत प्रान परे केहि पातक सो जगमोहन को हरै पीर न॥
आएँ सुधि धीरज बिलात विललात हियो
मीन जलहीन लौ तलफ तलफावतो।
कोंचत करेजन कजाकी कमजात काम
कानन कमान तान कानन दिखावतो॥
चंदहू चकोरपिय मंद गहि बानि हाय,
चोंच ना चकोर सुधा बंदून चुवावतो।
होती इक आस ना प्रबल जगमोहन जू,
तौ तौ पौन पावक ह्वै बन मुरझावतो॥”
मैं श्यामसुंदर का विलाप और अकथ कहानी सुन बोला, “भाई तुमने तो ऐसा वृत्त सुनाया जिसे मैं आजीवन नहीं भूलने का। तुम्हारे प्रेम के साखे चलैंगे, तुम्हारी प्रीति की अकथ कहानी इस लोक और परलोक तक कही और सुनी जायगी, मेरा हृदय पिघल के नवनीत हो गया, मेरे नेत्र सजल हो गए। मैं तुम्हारे दुःख में दुःखी हो गया। जो आज्ञा हो वह करूँ। कौन उपाय तुम्हारे फिर समागम के लिये जायँ। किस उपाय से श्यामा प्यारी के दर्शन हों। किस रीति से उसकी उपलब्धि होगी, हाय रे करुणावरुणालय! तुझै हमारे प्रिय श्यामसुंदर की दशा पर तनिक दया नहीं आई। हा दैव! तूने क्या करके क्या कर दिया। क्या तुझे किसी का समागम नहीं भाता? तभी तो कोई ने कहा है -
“मेल उन्हैं भावै नहीं हैं सबसे प्रतिकूल।
घूणन्याय सों मेल हू करत होत हिय सूल॥”
हाय रे विधना! क्या तेरे ऐसे ही गुण हैं? तुझै ऐसी ऐसी बातैं कह किसने किसने न कोसा होगा - पर तुझै लाज नहीं - सकुच नहीं - कपटी, कुटिल और दूसरों के दुःखों में सुखी होने वाला है। मुँह छिपाकर उसी सागर में क्यौं नहीं बिला जाता जहाँ से निकला था। ऐसे ऐसे कर्म और तिस्पर भी लोगों के बीच में चार चार मुख खोल कर दिखलाना। तुम सा भी निर्लज्ज कम होगा। इस लोक में तो कोई बोध न हुआ पर उस लोक में सिवा तेरे कोई नहीं है। दुष्ट! दुःशील! शील दावानल। दुश्शासन! पापी! पापात्मन्! पापकर्मा! अधर्मी! निर्लज्ज! निर्दयी कपटी! संयोग-कपाट! वियोगशाली! विपत्ति कल्पतरु! संपत्तिकाननकुठार! क्यों इतने दुर्वचन सहते हो? अपना स्वभाव क्यौं नहीं छोड़ते क्या तुम्हैं यश लेना अच्छा नहीं लगता? क्या सदा कलंक प्रिय ही बनना भाता है - “
श्यामसुंदर कपोल पर हाथ रख कराहने लगा, मूर्छित हो भूमि पर गिर पड़ा। ज्ञान आँसुओं के साथ बह गया, विज्ञान का प्रदीप जो हृदय में जलता था बुझकर वाष्प हो आह के साथ निकल गया। केवल आह की बतास मात्र भर गई।
“साँसन ही सो समीर गयो अरु आँसुन ही सब नीर गयो ढरि
तेज गयो गुन लै अपनो पुनि भूमि गई तन की तनुता करि।
देव जिये मिलबे ही की आस सु आसहूपास अकास रह्यौ भरि।
जा दिन तै मुख फेरि हरैं हँसि हेरि हियौ जु लियौ हरिजु हरि।”
“पटी एको न जाकी कही जितनी जेहि नेह निबाह्यौ न एको घटी,
घटी लाज सबै कुल कान भटू कहिए अब कासो कहे से लटी
लटी रीति सखी मनमोहन की कवि देव कहैं व्रज में झगटी
गटी ग्वालिन की लटी बाँधे फिरै बसिए ना भटू कपटी की पटी।”
अधिक कौन कह सक्ता है। केवल मन में मसूसि रह जाना पड़ता है। मैं सोचने लगा कि देखो श्यामसुंदर नदी के इस पार खड़ा रहा - इस ईश्वर श्यामा कहाँ लोप हो गई। अंतर भी दोनों के बीच में कुछ ऐसा न था कि जिस्के कारण श्यामसुंदर को श्यामा के निकट पहुँचना असंभव होता। पर विधाता की अनीति कही नहीं जाती। मैंने श्यामसुंदर से कहा, “भाई धीरज धर - देख यह आशानदी मनोरथ के, जल से भरी तृष्णारूपी तरंगों से आकुल है, इस में राग के अनंत ग्राह कलोल करते हैं, इसके किनारे वितर्क के विहंगम उड़ रहे हैं और यह स्वयं धर्म के द्रुम को ध्वंस करती है। इसमें मोह की दुस्तर भौंरी पड़ती है और यह चिंता की अति गहन और ऊँची तटी के बीच से बह रही है। इसके पार जाना काम रखता है - “ इसको सुन श्यामसुंदर उठ खड़ा हुआ। आगे देखा तो वही नदी बहती दिखी जिसने मनमोहिनी प्रानधन श्यामा को तरंग हाथों के बीच छिपा लिया था और इस्से वियोग कराया था। उस नदी के बीच में वही शिखर मात्र दिखाता था जिस पर श्यामा का सिंहासन धरा था। श्यामसुंदर मुझसे बिना पूछे और उत्तर दिए कूद पड़ा, सैकड़ों गोते खाए। मेरा करेजा उछलने लगा।
मैं उसे थाम्ह कर गया। एक तो श्यामा गई दूसरे श्यामसुंदर भी उसी के पीछे चला - मैंने सोचा कि जीना मेरा भी व्यर्थ है - यही जान विमान को छोड़ कूदा - आँखैं बंद हो गईं कानों में पानी समा गया। अब तो नदी में मग्न हो गए - क्या जाने कहाँ गए - कुछ सुधि न रही - विवश थे - सुधि वुधि भूल गई - पाताल गए कि आकाश - बस, आँख मूँद के रह गए।
श्यामसुंदर की दूर से धुनि सुन पड़ी और वह यही कहता गया -
प्यारी जीवन मूरि हमारी। दीन मोहि तजि कहाँ सिधारी॥
तुअ बिनु लगत जगत मुहि फीको। गेह देह सर्वस नहिं नीको॥
कह तो वह गुलाब सो आनन। तेरे बिना गेइ भी कानन॥
हाय हाय लोचन की तारा। हा मम जीवन जीवनधारा॥
हाय हाय रति रंग नसेनी। हा मृगनैनी नागिनीवेनी॥
हा मम जीवन प्रान अधारा। हा मम हृदय कमल मधुवारा॥
हा मम मानस मान सरोवर। पंकज विहँग शरीर तरोवर॥
हा मम दृग चकोर शशि चांदनि। हा विधुवदनि सुकोइल नांदनि॥
दोहा
हा मम लोचन चंद्रिका, हा मम नैन चकोर।
हा मम जीवन प्रानधन, कहा गई मुख मोर॥
बाँह गहे की लाज तो, करियो तनिक विचारि।
तिन सी तोरी प्रीति क्यौं, काहे दियो बिसारि॥
“तलफत प्रान तुम सामरे सुजान बिना
कानन को बंसी फेर आयकै सुनाय जाहु,
चाहत चलन जीय तासो हौं कहत पीय
दया करि कैहूँ फेरि मुख दिखराय जाहु,
रहि नहिं जाय हाय हिय हरिचंद्र हौस
विनवत तासौ ब्रज और नेकु आप जाहु,
कसक मिटाय निज नेहहिं निभाय हा हा
एक बेर प्यारे आय कंठ लपिटाय जाहु।
इति तीसरे याम का स्वप्न।