दूसरे याम का स्वप्न / श्यामास्वप्न / ठाकुर जगमोहन सिंह
कवित्त
आनंद सहित कृष्णचंद्र द्वारका के बीच
रुकमिनी जू के महल पर जागे हैं सोय
सपने में देखो ब्रजराज ब्रजवासिन के
घर घर हाय ब्रजराज को विलाप होय
ख्वाब में मिलाप बाढ़ो मदन को दाब बोधा
परम प्रलाप हरि हिय में न सके गोय
हाय नंद बाबा हाय मैया हाथ मधुबन
हाय ब्रजवासी हाय राधे कहि दीन्हो रोय।
ग्रीष्म की रातैं कैसी सुखद होती हैं - पर सुख का समय बात की बात में कट जाता है। चाँदनी खिली थी तारे छिटके थे, दूसरा पहर रात का लग गया था मैं अपनी अकेली सेज पर बाहु का उपधान किए सोता था। श्यामा का ध्यान लगाकर मग्न था, इतने ही में कोई पहरेवाला गा उठा।
अहो अहो वन के रुख कहूँ देख्यौं पिय प्यारे।
मेरो हाथ छुड़ाय कहौ वह कितै सिधारो॥
उस ध्यान से विलग हो गया - फिर भी वही मोहिनी मूरति सामने दिखाई दी। मैं तो उसे देखते ही भूमि पर गिर पड़ा था। अब कुछ संज्ञा हुई सेवक ने धीरज धराया। मुझै बहुत समझा बुझा कर अपने आप में लाया और बोला -
“यह किस बखेड़े में पड़े - महाराज - सचेत होकर इसकी मनोरंजनी कहानी को जो पूरी सुनिए। यह क्या बात थी जो आपको उसका नाम सुनते ही मोह और मूर्छा आ गई।”
मैंने कहा - “मुझै भी इस मोह का कारण नहीं ज्ञात हुआ कि अकस्मात् क्यों ऐसा हो गया था” -
इतना कह मैंने श्यामा की ओर देखा। उसका मुख भी मलीन पड़ गया था। इसको देख मुझे और भी शंका हुई कि यह क्या विचित्र लीला है। भला मैं तो ऐसा हो गया पर यह भोली किस भ्रम में पड़ी है। हृदय के शोक को रोक पूछा -
“सुंदरी तुम्हारी यह क्या दशा है - तुम क्यौं मलीन पड़ती जाती हौं” -
श्यामा ने कहा, “कुछ नहीं, इसका सब वृत्त तुम आप धीरे धीरे जान जावगे। केवल चित्त लगाकर सुनौ, भला तुम क्यौं निःसंज्ञ हो गए थे - “
“क्या जानूँ यह क्या मुझै हो गया था - पर अब सुनता हूँ कहिए” इतना कह मैं चुप हो गया।
श्यामा बोली, “जब मैं छोटी थी मुझै माता पिता बड़े लाड में रखते थे - उनके कोई पुत्र न रहने के कारण मैं उनके नेत्रों की पुतरी थी और वे लोग मुझै सदा हाथ ही पर धरे रहते थे, रात दिन मेरे लालन और पालन ही में लगे रहते। थोड़े दिनों पर मेरे प्रथम के संस्कार करके मुझै मेरे माता पिता ने एक बाला पाठशाला में विद्याउपार्जन के हेतु भेज दिया। यह पाठशाला ग्राम के कारन बहुत भारी न थी - तौ भी 20 या 25 बालिकाओं से कम प्रति दिन इस शाला में पढ़ने को नहीं जातीं थीं। मेरे साथा अनेक बाला पढ़तीं थीं पर ईश्वर की दया से मैं इतने शीघ्र पढ़ गई कि मेरी बराबरी पुरानी विद्यार्थिनी भी न कर सकीं। हाँ - एक तो मालती और एक माधवी मेरी सहपाठिनी थीं। उनसे मेरा निरंतर स्नेह बना रहता, और एक दूसरे के घर उठने बैठने उत्सवों में और सहज रीति पर भी आया जाया करतीं। जब मैं पढ़ लिख चुकी पाठशाला को छोड़ घर बार के काम में तत्पर हुई और मेरे पिता ने मेरे विवाह की चिंता की। धनहीन होने के कारण कोई कुलीन ब्राह्मण नहीं मिला और मिला भी तो मुझ दीना का पाणिग्रहण करने को उपस्थित न हुआ। मेरे पिता की चिंता बढ़ी और उनने इस्का उद्योग किया। मेरे पिता यहाँ के विख्यात प्रतिष्ठित परिब्राजक राजकुल के मान्य कार्य्याध्यक्ष थे। उस कुल का नाम इस देश की पुरानी बुरी परिपाटी के अनुसार कपटनाग था। मैं नहीं जानती इस बड़े कुल का ऐसा बुरा नाम क्यौं पड़ा। इसका वृत्तांत न तो मैंने कभी पूछने की इच्छा रक्खी और न कभी मेरे पिता ने मुझसे कहा इसी से मुझे नहीं ज्ञात है - पर नाम से कुछ प्रयोजन नहीं। कुल देखना चाहिए। अभी तक पाटलीपुत्र के एक मुख्य नवाब के कुल का नाम 'नवाब गदहिया' है। कटपनाग का कुल इस देश में बड़ा मान्य और पूज्य था। इसकी गद्दी पुराने महाराजों के समय से अखंडित चली आती थी और इसमें अनेक पहुँचे पुरुष भी हुए। ए एक चालीसी के अधिपति थे। वहाँ से मेरे पिता ने बहुत कमाया था। और सामान्य रीति पर भोजन आच्छादन की कुछ कमती नहीं रहती थी।
इसी ग्राम में एक सुंदर कुलीन क्षत्रियवंश के अवतंश भी यहाँ के अधिपति थे। इनका लांछनरहित कुल देश देशांतरों में प्रसिद्ध था और इनकी बात का प्रमाण था। इनके माता पिता का हाल मुझै कुछ भी ज्ञात नहीं पर ये विद्या के सागर - सब गुणों में आगर - काव्य में कुशल - बल में प्रबल - नवल नागर लंबे बाहु - प्रशस्त ललाट काले काले नेत्र - काली कालीं भौहैं - गेहुँआ रंग - चतुराई के सदन - इसी ग्राम में बहुत काल से बसते थे। रात दिन पठन-पाठन में इनका चित्त रहता। काव्यकला ने हृदय का कपाट खोल दिया था। ये सब बातैं इनके ललाट ही से जान पड़तीं थीं। सुडौल अंग अनंग के आलय थे। चिकने और काले काले बाल युवतियों के मन को काल थे। मधुर मधुर बोली हमारी हमजोली के मन को नवनीत सरीखा पिघला देती थी। इनकी चितवन से प्रेम और विश्वास प्रकट होते थे। बड़े गंभीर और धीर-नीर के सदृश स्वच्छ निष्कपट चित्त असंख्य वित्त के आगार - मुझै बहुत भले जनाते थे। कोमल कमल से कर - छोटी छोटी दाढ़ी और मूछैं जवानी के आगम को सुचाती थी, विद्या और कविता तो इनके जिह्वा पर नाचती थी और इस दोहे को सार्थ करने वाले इनमें सभी गुण थे -
“तंत्रीनाद कवित्त रस सरस राग रति रंग।
अनबूड़े बूड़े तरे जे बूड़े सब अंग - ॥”
देश देशांतर के पंडित और गुणी इनका नाम सुयश और दातृत्व सुन स्वयं आते और उनका यथोचित कालानुसार मान पान भी होता। इनका नाम श्यामसुंदर था। इनकी वय केवल 26 वर्ष की थी। ये हमारे पड़ोसी थे। और मुझसे इनकी कुछ कुछ जान पहिचान भी रही। इस समय मेरी भी वय ठीक 14 की थी पर विद्यालाभ के कारन सभी बातैं कुछ कुछ समझ लेती थी।
श्यामसुंदर मेरे परोसी होने के हेतु दिन में दो चार बार भेंट करते। मै भी उन्हैं अपना हितू और सहायक जान प्रायः बोलचाल करती थी। एक दिन प्रातःकाल को जब मैं स्नान करके अपने अटा पर चढ़ी बाल सुखा रही थी श्यामसुंदर अपने कविताकुटीर के तीर बैठा कुछ बना रहा था। मुझै नहीं मालूम क्या लिखता था। द्वार पर लता छाई थी और उसके पता के फैलाव से उसका मुख कुछ ढका और कुछ प्रकट था, ऐसा जान पड़ता था कि उस मंडप में अकेला गुलाब का फूल खिला हो। मैं उनकी ओर सहज भाव से देखने लगी। वे नीचे मस्तक किए कुछ गुनगुनाते थे। कभी ऊपर देख कुछ लिख लेते और फिर कुछ सोचने लगते - मैं तो उनके स्वभाव को भली भाँति जानती थी - मैंने जान लिया कि वे कुछ कविता करते होंगे। एक बेर और मैंने उनको भली भाँति देखा और अचानक उनकी भी दृष्टि मेरे ऊपर पड़ी। वे मेरी ओर एक टक देखने लगे और मैं भी अनिमिष नैनों से उन्हैं निहारती रही।
“भए बिलोचन चारु अचंचल।
मनहु सकुचि निमि तज्यो दृगंचल॥”
यद्यपि मैं उन्हैं प्रतिदिन देखती थी तो भी उस दिन उनके मुखारविंद की कुछ और शोभा रही मैंने भी उनके निहारने से जान लिया कि वे भी आज मुझै किसी और भाव से देख रहे हैं। तौ भी मेरा जी विश्वस्त था। मैं उनके स्वभाव को जानती थी और परिचित भी थी। मैंने और कोई चेष्ठा नैन या कर से नहीं की, स्तब्ध सी वहीं खड़ी रही, पर हृदय में उस समय अनेक प्रकार के भाव आए, कुछ लज्जा भी हुई दृष्टि नीचे कर ली। फिर सिर उठा कर उसी जगन्मोहन को देखा। उनको देखकर मुसकिराई। वे भी मेरे हृदय के भाव अपने हृदय में गुन मुसकिरा गए। मेरी बहिनें सत्यवती और सुशीला यद्यपि मेरे साथ वहीं थीं पर कुछ न समझ सकीं - हाँ, वृंदा जब आई मेरी तन की बुरी दशा देख पूछने लगी।
“श्यामा - आज तेरे शरीर की यह दशा कैसी हो गई। तू तो कभी इतना बिलंब अटा पे नहीं करती थी आज क्या हो गया। देख मुझसे मत छिपावै, मैं सब अंत में जान ही जाऊँगी” - इतना कह उसने मेरी ओर देख श्यामसुंदर की ओर देखा।
“कुछ तो नहीं - मेरी क्या गति होगी। जो गति रोज की सोई आज की। विशेष आज क्या हुआ जो पूछती है” - इतना कह मैं अचंभे में आ उसकी ओर देखने लगी।
“सुन श्यामा - आज तेरे मुख पर कुछ और पानी है। केश छूटे और आँखैं लाल सजल सी दिखाई देती हैं - तन बदन की सुधि है कि नहीं। देख आँचर कहाँ और सिर का घूँघट कहाँ है” - वृंदा ने कहा।
मैं इस व्यवस्था को सच्ची जान लज्जित हो गई पर जहाँ तक बन पड़ा लाज को लुकाया और उत्तर सोचने लगी। उत्तर सोचने में तो सब भेद खुल हो जाता। झपट कर सुशीला को गोद में उठा चिढ़ी हुई सी बातैं करने लगी, “अभी गिर परती तो क्या होता इसी के मारे तो मैं कभी अटारी पर ज्यादा देर नहीं लगाती यह बुरी कही नहीं मानती जब देखो अटा के बाट ही पर बैठती है। गिर परेगी तो खाट पर धरी धरी रोवैगी,” इतना कह सुशीला के गाल पर एक चटकन जड़ी कि वह रोने लगी। वृंदा ने झट उसे मेरी गोद से ले लिया और चूम चाट उसे खूब सा पुचकारा। मेरी ओर तिउरी चढ़ा और नाक को सकोर 'क्यों मार दिया' ऐसा कह लंबी हुई। अपने प्रश्न का उत्तर भी न लिया। मैंने जाना बलाय टरी, अच्छा हुआ। सत्यवती के साथ वृंदा के पीछे ही उतर गई।”
मैंने टोका, “बाह री श्यामा 14 वर्ष में जब तुम इतनी चतुर थीं तब आगे न जाने क्या हुआ होगा। पर ढिठाई क्षमा करना मैं शुद्धभाव से तुम्हारी बुद्धिमानी की प्रशंसा करता हूँ फिर क्या हआ” - श्यामा ने उत्तर दिया, “दिन दिन नूतन नूतन शाखा वृक्ष से निकली। उस दिन वृंदा चुप रही। न जाने सचमुच भूल गई वा चतुराई से उसको भुलावा सा दे भुलाये रही, पर कभी कई दिनों तक उस प्रश्न की चर्चा तक ओठों पर न लाई। श्यामसुंदर तो फिर उस समय सब बातें ताड़ गया और मुसकिरा कर हट दिया। मध्याह्न के समय उसने सत्यवती को बुलाकर बहुत प्रीति दिखाई। फलादिक भोजन कराए और नवीन वस्त्र देकर एक सादी सी अँगूठी सत्यवती को दी। सत्यवती अपना भाग खुला जान बड़ी प्रसन्न हुई। घर आ पिता जी से सब कहा। श्यामसुंदर की उदारता कौन नहीं जानता था। दादा भी प्रसन्न हुए, और हम लोगों के श्यामसुंदर से समागम करने में तनिक रोक टोक नहीं करते थे। वरंच और भी हम लोगों को उनके पास आने जाने और गुण सीखने की आज्ञा दी। हम लोग सबके सब जब घर के काम से अवकाश मिलता उनके घर आया जाया करते। श्यामसुंदर ने बड़ी दया और मया दरसाई। हम लोगों की दरिद्रता दूर कर दी। हम लोगों का कई बार बुला चुला के न्यौता करते अनेक भाँति की कथा सुनाते और अनेक गुन और कला भी कभी कभी बताते। काव्य और नाटकों की छटा बताई। सिद्ध पदार्थ का विज्ञान दरसाया। रेखागणित और बीजगणित की परिपाटी सिखाई - मानो मेरे हृदय में विद्या का बीज बो दिया। चित्रकारी पर भारी वक्तृता करी। सरगम का भाव बतलाया। मेघ और इंद्र की विद्या सिखाकर इन्हों के सजीव पुरुष या महेंद्र होने का भ्रम मिटाया। मैं बिचारी क्या जानूँ - ए सब बातैं। यद्यपि ये सब बातैं उन्होंने किसी विशेष पुस्तक से नहीं पढ़ाई तौ भी जब जब उन्हैं अपने काम धाम से समय मिलता मेरे शून्य और अँधेरे हृदय में ज्ञान का बीज और दीप स्थापन करते। जितने विषय मैंने श्यामसुंदर से सीखे उतने पाठशाला में भी सीखे थे। हमारी शाला के गुरु यद्यपि बड़ी कृपा करके सिखाते तौ भी मुझे इतना चाव उनके मुख से कोई बात सीखने में नहीं हुआ। जब श्यामसुंदर कोई विद्या का विषय कहता उसके मुख से मानो फूल झरते थे। जब कोई मेघदूत सा काव्य या शकुंतला सा नाटक सुनाता मेरे कानों में अमृत की धारा सी चुवाता। वृंदा भी मेरे साथ रहा करती और उसे मुझसे अधिक उनकी बातों को सुन रस का अनुभव होता। वह तो कभी-कभी छेड़ भी दिया करती थी पर सत्यवती और सुशीला खेल में लगीं रहतीं थीं। यह बात नैसर्गिक है। इतनी थोरी उमरवालीं लड़कीं ऐसी ऊँचीं बातों में मन नहीं लगा सकतीं। यह उमर ऐसी ही है जिसमें सिवाय खुनखुना लट्टू-गुड़ियों के और कुछ नहीं सुहाता।
जब जब मेरी और उनकी चार आँखैं होतीं मेरा बदन कदंब का फूल हो जाता - आँखों में पानी भर आता और तन में पसीने के बूँद झलक उठते। जाँघैं थरथरा उठतीं बदन ढीले पड़ जाते और वसन शिथिल हो जाते थे। श्यामसुंदर भी कभी कभी कहते कहते रुक जाता - रसना लटपटा जाती। और की और बात मुँह से निकल परती। फिर कुछ रुक कर सोचता और कथा की छूटी डोर सी गह लेता। चकित होकर वृंदा की ओर देखता कि कहीं उसने यह दशा लख न ली हो। पर वृंदा बड़ी प्रवीन थी। बीच बीच में मुसकिरा जाती। सत्यवती भी कभी कभी कान देकर कोई कहानी सुना करती। ऐसे समय प्रतिदिन नहीं आते थे पर जब जब बैठक होती तीन चार घंटे के कम की कदापि नहीं होती थी। क्या करे श्यामसुंदर को अपनी जमीदारी के कारबार से इतना अवकाश मिलना दुस्तर था। धीरे धीरे उसका प्रेम बढ़ चला मेरे जी में प्रतिदिन प्रेम का अंकुर जम चला सोचने लगती कि कब उसे देखूँ। जब तक वह अपने कुटीर में बैठता किसी न किसी व्याज से मैं उसे देख लेती। वे भी मेरे लिए मेरी देहली पर दीठि दिए ही रहते। मेरे पैर की आहट को सुन तत्क्षण पलक के पाँवड़े बिछा देते। मेरे मुख को देख चकोर से प्यारे नैनों को बुझाते - पर यह सब ऐसी गुप्तता से हुआ कि घर के बाहर के वरंच परोसी भी कभी न जान सके। हाँ सेवकों के कभी कभी कान खड़े हो जाते - क्यौं कि रात दिन का झमेला एक दिन खुल ही पड़ता है - “अति संघर्ष करै जो कोई। अनल प्रकट चंदन से होई॥” - यह कहावत है। माता पिता का कुछ इस बात पर लक्ष्य न था - और मेरा भी मन का भाव अभी तक स्वच्छ था, पर बीज इसका बोया गया था और अभिनव अंकुर भी निकल चुके थे। मैं यद्यपि उनसे ढीठ थी तौ भी मान्य और पूज्य शब्दों को छोड़ कभी और प्रकार के वचन न कहे। उनका काम सब काम को छोड़ करती। जब कभी वे प्यासे होते और अपनी दासी को भी इंगित करते तो मैं ही उठकर शीघ्र उनको जल ला देती। ईश्वर जाने वे उस जल को अमृत या अमृत का दादा समझते थे, पर उनके प्रति रोम से यही प्रकट होता कि वे प्रेम के पथिक और मुझ पर दयालु हैं।
इस प्रीति की रीति को कहाँ तक कहूँ। यह दइमारी साँपिन सी काटती है किसी मंत्र में सामर्थ नहीं कि इसका विष उतारै। एक दिन श्यामसुंदर भोजनोत्तर अपनी शय्या को सनाथ कर रहे थे कि सत्यवती किसी काम के लिए उनके पास ठीक दुपहर को गई और उनकी आज्ञा से उन्हीं के निकट बैठ गई। कुछ काल तक इधर उधर की बातैं हुईं, फिर उन्होंने मेरी चर्चा निकाली। सत्यवती बहुत कम बोलती थी। उन्होंने जो जो बातैं उस्से पूछीं उनका यथार्थ उत्तर न पाया क्यौंकि सत्यवती एक तो इतनी पुष्ट बुद्धि की न थी और दूसरे उसको लाज भी थी। हँसकर रह जाती। हार मान श्यामसुंदर ने एक दोहा मुझे लिख भेजा। वह यह है -
जो बाला अलि कुंतलन अँगुरिन सों निरुवार।
सो चुराय कै मो हियो गई कटारी मार॥
इस दोहे को उनने बड़े डर के साथएक कागद के टुकड़े पर लाल लाल अक्षरों से लिखा और कमल के कोप में रखकर सत्यवती के हाथ भेज दिया। सत्यवती ने मेरी माता मुरला के समक्ष देकर कहा, “जिजी! इस कमल का छतना कैसा पीला है टुक देख तो सही” इतना कह नैन मटकाए। मैंने पूछा “यह कहाँ से लाई है?” उसने कहा, “श्यामसुंदर ने बड़ी कृपाकर यह फूल तुझे भेजा है और मुझसे कहा कि श्यामा को देकर यह कहना कि “यह मेरा हृदय कमल का कोष है मैंने श्यामा को समर्पण कर दिया है” इतना कह चुप हो गई। मैंने जान लिया कि इसमें कुछ कारण है, और फूल को ले जाकर अपनी उसीसे की गदिया तरे दबा दिया और फिर अपने घर के कारबार में लग गई। माता कुछ ध्यान न देकर कुछ और कृत्य करने लगी। मैंने स्नान किए। तुलसी की पूजा कर हुलसी, भोजन कर शयनागार को गई। घर के संकीर्ण होने के कारन जिस कोठरी में मैं सोती थी उसी में पोथी पत्रा और लेखन के साधन धरे रहते थे। गरीब का घर कहाँ तक अच्छा हो। चित्त में तो फूल की समानी थी देह आनंद के मारे फूली सी जाती थी और यह तरंग उठै कि श्यामासुंदर के 'हृदय कमल के कोष' को देखूँ तो सही क्या है। उन्होंने तो 'समर्पण' ही कर दिया है। इस रूपक को घरवालों ने नहीं समझा था। जिस समय सत्यवती फूल लाई और श्यामसुंदर के कहे को कहा मेरे मन में तो चटपटी समानी थी। मैंने झटपट कमल को उठाया। बदन कदंब हो गया। पत्तों को टार के कोप में देखती क्या हूँ कि एक पाती जो प्रेम रस की काती थी लपेटी हुई धरी है। मैंने उसे -
“कर लै चूमि चढ़ाय सिर हिय लगाय भुज भेंट।
प्रियतम की पाती प्रिया बाँचत धरत लपेट॥”
मैंने उसके भीतर का दोहा पढ़ा। कई बार पढ़ा। पढ़ते ही पीरी पर गई और मन में जान गई कि मैं उनके नैनबानों का निशाना हुआ चाहती हूँ। हुआ क्या चाहती हूँ होई गई। मेरे तन में अतन का भाव कुछ कुछ आ चला था - यद्यपि मुग्धता बनी रही तौ भी ज्ञान की ढलक आ गई थी, इसी से सब कुछ थोड़ा थोड़ा समझ जाती। इस अनेक भाव उपजे एक मन हुआ कि पत्र का उत्तर लिख दूँ फिर एक मन हुआ कि न लिखूँ। अंत में श्यामसुंदर के विश्वास और प्रेम ने मुझसे लिखवा ही लिया और मैंने अपनी सीधी साधी मति के अनुसार एक पत्र लिखा जिसे मैं तुमसे कहती हूँ -
“आप ने जो लिखा सो सब ठीक है, पर प्रीति सदा निभा ले जाना। हमने क्या अपराध किया जो तुमने हमको फिर दर्शन नहीं दिया। अब हमारे अपराध को क्षमा कीजिए आप का पठन-पाठन देख हृदय प्रफुल्लित हो जाता है। विद्या सीखना ही अधर्म है घर का काम न करै तो हँसी जाय। मैं तुमको कहीं न कहीं से देख ही लेती हूँ। यद्यपि... घात लगाए रहते हैं पर क्या करैं, बिन देखे चैन नहीं पड़ता। कहीं न कहीं से आपके दर्शन हो ही जाते हैं तुमने मेरा जो भी उपकार किया उसको जनम भर नहीं भूलने की। मेरा सब अपराध क्षमा करना। द्वापर कृष्ण की लिखी।
तुम्हारी
श्यामा”
इस पत्र को लिखकर लौट के बाँचा भी नहीं और यह भी नहीं देखा कि क्या भूल चूक हुई। मैं लिखते समय अपने को भूल गई थी - इसी से दुबारा भी नहीं बाँचा। झटपट सत्यवती को देकर कहा इसे ले जा। वह भी शीघ्र ही लेकर श्यामसुंदर के हाथ में दे आई। श्यामसुंदर ने कहा, “इसका उत्तर पीछे भेजूँगा अभी तू जा” -सत्यवती लौट आई। श्यामसुंदर बाँचकर आनंदमग्न हो गए। कई बार मेरे अक्षरों की बनावट देखी। मैं कुछ बुरा नहीं लिखती थी पर श्यामसुंदर को नहीं पाती। दस बेर मेरी पाती उन्होंने फेर फेर बाँची, और न जाने क्या क्या कविता की। उन्हें कविता की बिमारी थी। मैं उसे बहुत नहीं समझती - इसी से उनने मुझै सदा सीधे साधे पत्र लिखे। मुझै जब वे पत्र लिखते या तो रात को जब किसी की बात भी न सुनाती - और या तो बड़े प्रातःकाल संध्यावंदन के उपरांत पर उनकी लगन मुझ पर लग गई। यद्यपि कई मास तक उनने अपनी मनोवांछा ढाँक रक्खी थी तौ भी मैं उनकी बोल चाल, डीठि, रहन बतरान और हँसन से सब कुछ जान गई थी पर मैं मौन रही। मान गहि लिया और मन चाहता कि कुछ और कहै पर लाज और स्वभाव के वश कुछ नहीं कह सकी। एक दिन वे अचानक मेरे द्वारे आन कढ़े। मैं अपनी अटा पै ठाढ़ी रही - वे मो तन देख हँस पड़े। पर मैं लाज के मारे भौन के भीतर भाज गई। उसी दिन से इन कुचाइन चवाइयों ने मिलि के चौचद पारा। मैं क्या करूँ इस विषय को जभी मन में करो तभी अलहन हो जाता है। मैंने बहुतेरा चाहा कि छिपै पर नर्म सखियाँ कभी कभी ताना मार ही देतीं थीं। नहाते, आते, जाते सभी मुझे वंक दृष्टि से देखतीं - पर मैं जान बूझ कर अजान बन जाती - पर वे क्या इस बात को न समझ जातीं होंगी। इस गाँव में एक से एक पड़ीं थीं। अब सुनिए दूसरे ही दिन नौ बजे दिन को सुशीला के हाथ सत्यवती को बुलाकर मेरे पत्र का पलटा उन्होंने दिया। मैंने अपने धन्य भाग मनाए, और उसे पढ़ने लगी। उसमें यह लिखा था -
“आज पहिला दिन है कि मैं तुमको लिखता हूँ इसी से भूलचूक होगी क्षमा करना। पहले तो मैं इसी बात में अटक गया कि तुम्हैं क्या कह के लिखूँ। जो मैं तुमको भली भाँति जानता हूँ और बहुत दिनों की परिचय भी है तो भी एकाएक तुम्हैं जैसा जी चाहता है लिखने में सकुच लगती है पर मुझे विश्वास है कि तुम सब समझ लोगी, और भी इसका ब्यौरा निपटाना तुम्हारा ही काम रहैगा। जब तक मुझै तुम आप लिख कर कोई राह न बताओगी मैं तुम्हैं सामान्य रीति पर ही लिखूँगा। तो बस - तुम्हारे पत्र के पढ़ते ही मैंने तुम्हारी बुद्धि की सराहना की मुझे आशा न थी कि तुम पहली ही बेर इस ढिठाई के साथ लिखोगी पर वह मार्ग ही ऐसा है कि कोई क्या करै। तुम्हारा पत्र तुम्हारे अंतरंग और मनोगत का सच्चा प्रमाण है। इस विषय में मुझै और कुछ नहीं कहना क्यौंकि तुमसे परिचित सुजन से और ढिठाई का कहना मेरा ही अपराध गिना जाएगा - ढिठाई - हाँ ढिठाई तुम न करोगी तो कौन करेगा और भी जितना अवकाश तुम मुझै कहने का दोगी उतना ही मैं भी कहूँगा - क्यौंकि “जहाँ तक खाट होगी पाँव भी वहीं तक फैलेंगे” - यह तो रहै - पर 'प्रीति' - हाँ - 'प्रीति' - इसके क्या अर्थ - और 'निवाहने' के क्या अर्थ है, यह जरा मुझै बतावो। ये दोनों शब्द मैंने आज तक किसी शब्दवर्ण में भी नहीं पाए।
तुम तो अवश्य ही जानती होगी तभी तो तुमने इन्हैं लिखा भी है, पर जब तक तुम इन शब्दों के लक्षण न बतावोगी मैं कुछ उत्तर नहीं दे सकता। आज तक मैंने जो 'प्रीति' के अर्थ समझे हैं वे ये हैं 'प्रीति' के अर्थ 'टेढ़ी' और 'निवाहने' के अर्थ 'अनहोनी' के हैं यदि तुम्हारे कोष में भी यही अर्थ हों तो मेरे अर्थ को पुष्ट करो नहीं तो स्याही फेर देना। मैं अपनी छोटी समझ से उस तुम्हारी पंक्ति का छोटा सा उत्तर देता हूँ के “यह सब तुम्हारे ही हाथ है।” सत्यवती के हाथ जब मैंने तुम्हैं कमल भेजा था तब उसने क्या कहा - याद है? उसने कहा होगा कि “यह - ने हृदय कमल का कोष, तुम्हैं समर्पण किया है” - क्यौं - यही बात है न - यदि यही हो तो इसको समझ लेना, मुझसे अधिक नहीं लिखा जाता। मेरा हाथ कुछ और लिखने में काँपता है। क्षमा करना।
“हमने दर्शन नहीं दिए” - ठीक है तुम्हारे आज कल दिन हैं कह लो जो चाहो, पर उस दिन कौन था जो चार घड़ी तक... के पास खड़ा रहा और आपने एक-बार भी आँख उठाकर नहीं देखा। क्या जाने आप न रहीं हों, तो बस यह मेरी ही दृष्टि का दोष है। क्या इस्से भी और कुछ प्रमाण लोगी, सुना चाहो तो कहैं, नहीं तो बस हो गया।
“तुम्हारा मेरा समागम हुआ करता तो समय कट जाता, और तुम्हैं सिखाने में मेरा भी जी लगता, पर इस दुःखदाई रीति से सभी हारा है परवश सभी सहना पड़ता है।
“यदि तुम मुझै इतना चाहती हो कि जैसा तुमने अपने करकमलों से लिखा है तो बस रहने दो, मैं इस विषय में कुछ नहीं कहता। यह आपकी सहज दया है, मन में आवै तो दो डड़ीचँ लिख भेजना, हाथ जोड़ता हूँ।”
द्वापर कृष्णयुग तुम्हारा शुभचिंतक
फाल्गुण श्यामसुंदर”
यह पत्र मेरे कलेजे में बान सा लगा। मैंने इसको कई बार बाँचा और मन ही में समझ गई। क्षणभर तनकी सुधि भूल गई। मन में बहुत सी बातैं सोचने लगी। श्यामसुंदर उत्तर की आशा लगाए रहे। जब मैं नहाने जाती मेरे पीछे आप भी नहाने जाते। कहते कुछ नहीं पर ध्यान मेरे पर लगा रहता। इधर उधर देखते पर छिन छिन पै टेढ़ी दृष्टि करके मुझै भी देख लेते। जब मैं घर लौट जाती वे भी दूसरी खोर से अपने कुटीर को चले जाते पर ऐसा जान पड़ता कि मेरे ध्यान से क्षण-भर विलग नहीं रहते। मैंने कुछ उत्तर न दिया क्यौंकि मुझै ज्ञान न था कि क्या लिखूँ। अंत को वे बीमार हुए। ज्वर आने लगा। एक तो बड़े आदमी के लड़के दूसरे सर्वदा सुख ही में रहे इस्से बड़े सुकुमार थे मुरझा गए। ज्वर दइमारे ने उन्हें थोड़े ही दिनों में निर्बल कर दिया, पर ओषधी अच्छी कीं। एक या डेढ़ सप्ताह में चंगे हो गए। चलने फिरने लगे, खाने पीने लगे। अब कुछ कुछ बल भी आने लगा पर भली भाँति अच्छे नहीं हुए। इस ग्राम के जलवायु ने उन्हें बहुत अशक्त कर दिया था। वैद्य ने उन्हैं मति दी कि एक मास तक दूर देश की यात्रा करो नहीं तो और शरीर बिगड़ैगा। वैद्य को उन्होंने हामी भर दी पर मुख पर पीरी आ गई उन्हैं मेरा वियोग सहना दुस्तर था। छन भर मेरे बिना रह नहीं सकते थे, पर शरीर की भी रक्षा मुख्य थी। थोड़ी देर में वैद्य के जाने पर उन्होंने सत्यवती को बुला के कहा कि “श्यामा से मैं कुछ कहूँगा तू जा उसे बुला ला” यह सुन सत्यवती ने आकर मुझसे कहा। मैंने सोचा आज क्यौं बुलाते हैं। कुशल तो है तौ भी जाने के लिए तत्पर हुई। सफेद कोसे की सारी पहन, और एक छोटी सी माला गले में डाल कर चली। अपनी देहरी पर जाकर ठठक गई, फिर मन में सोच आया कि कहाँ मुझै बुलाया है और मैं कहाँ जाती हूँ, यह बात तो मैंने सत्यवती से भी नहीं पूछी थी, कहाँ बे ठीक ठिकाने की उठ चली। हाय रे भगवान् बड़े कठिन की बात है - मैंने बड़ी भूल की थी। मैं बाहर निकल कर कहाँ जा ठाढ़ी होती। ऐसा सोच विचार के फिर लौट आई। सत्यवती से कहा, “मुझै कहाँ बुलाते हैं - जा पूछ आ” सत्यवती गई और एक क्षण में आकर कहा कि “उन्होंने तुझै कविता कुटीर में बुलाया है। अभी दुपहरी का समय है - कोई नहीं है चली जा” - मैं बाहर निकली और श्यामसुंदर के कुटीर के तीर ज्योंहीं पहुँची श्यामसुंदर उठकर बाहर आए और मेरा हाथ बड़े चाव से पकड़कर भीतर ले गए। ले जाकर मुझै बड़ी कोमल कुरसी में बैठाया और वे भी मेरे सन्मुख एक हाथ के दूरी पर बैठ गए। यह कुटीर बड़ा मनोहर था। इस कुटीर में चारों ओर के द्वारों पर माधवी लता छाई थी, चमेली की बेली अपने लंबे हाथ पसारे माधवी से मिल कर मुसकिराती थी। गुलाब भी अपनी अलौकिक आब फूलों के मिस दिखाता था। विलायती किते की कुरसियाँ मखमल और रेशम से मढ़ी करीने से धरी थी। गोल चौपहल और अनेक आकार के मेज जिन पर रंग बिरंग की बनातैं पड़ी थीं बीच में रखे थे। मनोहर और विचित्र विचित्र पूठों की पुस्तकें अच्छी रीति पर धरीं थीं। सामने और आजू बाजू अलेमारियाँ जिनमें सैकड़ौं पुस्तकैं अनेक विद्याओं को सिखानेवाली भरी थीं - शोभित थी। बीच में एक गोल छोटा सा मेज धरा था, उस पर श्यामसुंदर का चित्र हाथी-दाँत की चौखट में जड़ा धरा था इसको देख सभी दंग हो जाते। उसमें श्यामसुंदर हीरे का बड़ा सिरपेच बाँधे जिसमें बड़े बड़े बहुमूल्य के पन्ने लटकते थे हीरे ही की सुंदर कलगी दिए - हाथ में कश्वाल लिए बैठे थे। कंठ में बड़े मोतियों का कंठा - और मयूरहार उर में झूलता था। पछाहीं पगड़ी अड़ी थी। कानों में मोती के बाले कपोलों पर झलकते थे। चंद्रहार भी मन को चुराए लेता था। मैंने तो आज तक ऐसे बहुमूल्य रत्न कहीं नहीं देखे थे। कपटनाग की यद्यपि पुरानी गादी थी पर ए लोग सदा चाल से रहे और आश्चर्य नहीं कि इनकी चालीसी की चालीसी श्यामसुंदर के मुकुट के एक मणि के भी मोल को न पाती। इनके इस चित्र में मुख से वीरता और माधुर्य्यता दोनों पाई जाती जो इनके कुल और काव्य-कुशलता के हेतु थी। नेत्रों से प्रेम टपकता था। ललाट से अशेष विद्वत्ता जान पड़ती थी। उस समय ए दो और बीच बरस से अधिक न रहे होंगे। डाढ़ी पर एक एक अंगुल बाल थे। यह छबि मेरे जी में गड़ गई - और शोच किया कि उस समय मुझसे इनसे क्यौं परिचय न हुआ।
इसी गोल मेज के किनारे एक और चौपहल मेज धरा था। इस पर सुंदर काले काठ की मंजूषा में एक सुरीला बाजा रक्खा हुआ था। इस अरगन बाजा को श्यामसुंदर जब मौज होती बजाते और सुनाते। गाने बजाने का भी इनको व्यसन था। उसी कुटीर के पश्चिम भाग में एक परदा पड़ा था और उसके उस तरफ उनका पलँग बिछा था। एक नजर में जो कुछ देखा तुमको सुनाया - जब हमारे भेट का हाल सुनो। श्यामसुंदर मुझै बैठाकर सब काम छोड़ वार्त्तालाप करने लगे। उन्होंने पूछा, “कुशल तो है - “ मैंने उत्तर दिया, “आपके रहते हमैं अकुशल कैसी? आप तो भले हैं?”
(साँस लेकर) “हाँ बहुत अच्छे और अब तुम्हैं देख और भी अच्छे हो गए - तुम तो देखतीं थीं मैं कैसा बीमार हो गया था। वैद्य ने ओषधी की, अब अच्छा हो गया। पहले से कुछ अच्छा हूँ - पर एक वज्र पड़ा,” इतना कहकर एक लंबी साँस ली।
मैंने कहा, “क्या? कुशल तो है - ईश्वर ऐसा न करै - “ मैं तो कुछ जान गई थी कि वही यात्रा की बात होगी, पर मुझै भी उनके बिना कैसे चैन पड़ता यही सोचती रही।
श्यामसुंदर ने उत्तर दिया, “वज्र यही कि अब कुछ दिनों के लिए हमको तुमसे विलग होना पड़ैगा। वैद्य ने मेरे शरीर की अवस्था देखकर कहा है कि जलवायु दूसरे देश का सेवन करना होगा नहीं तो शरीर और भी बिगड़ जायगा, शरीर की रक्षा मुख्य है - तो अब मैं दो एक दिन में जाऊँगा, तुम्हारा तो मेरे साथ जाना नहीं हो सक्ता और इधर तुम्हारा वियोग। अब नहीं मालूम क्या होगा” - इतना कह आँखों आँसू भर मेरे दोनों हाथों को अपनी छाती से लगा लिया और चुप हो गये। सिसकी भर रोने लगे और फिर कुछ भी न कहा।
मैंने उनके नेत्र आँचर से पोंछ दिए और उनके सिर को छाती से लगा कर उन्हें समझाया। पर उनके नैन सावन भादों हो गए थे। सावन भादों की सरिता कहीं रुकती हैं। उनके नैनों से ऐसा धारा-प्रवाह उमड़ा कि मेरा आँचर भींज गया गया। मैंने उसास ली और रोने लगी। प्रीति की नदी उमड़ आई मैंने मन में कहा कि अंत को यही होता है - पर अब तो लग ही गई थी छूटती कैसे। मैंने श्यामसुंदर से कहा, “कुछ कहोगे भी कि बस रोते ही रहोगे, मुझै भी तुमने अपने दुःख दिखाकर दुःखी बना दिया। तो अब तुम्हैं कौन समझावै” - “मुझसे क्या पूछती हौ। मैं तुम्हैं छोड़ कैसे जा सकूँगा - जिसको नैन प्रतिदिन देखते थे उसको अब बहुत दिनों तक न देखैंगे। अधिक कहता हूँ तो अभी द्वारे पर भीर लग जायगी, और समय भी अधिक इसमें नहीं लगाना चाहिए। तो सुनो, मेरा जाना तो अब ठीक हो चुका। इस शरीर के लिये जाना ही पड़ा। मेरी तुमसे यही विनती है कि तुम इस दीन और मलीन अपावन जन को मत भूलना। मैं तुम्हैं अपना पता लिखकर कई लिफाफे दिए जाता हूँ तुम इसके भीतर पाती लिखकर बंद कर देना और मेरे विश्वास-पात्र हरभजना को दे देना वह मेरे पास पहुँचा दिया करै या तो डाक द्वारा भेजा करैंगा और मेरे भी उत्तर तुम्हैं उसी के द्वारा मिला करैंगे - पर यह मेरी बारंबार विन्ती है कि भूलना कभी नहीं और एक बेर प्रतिदिन मुझ दीन का स्मरण करना। यदि मेरी कोई सहायता का कभी काम पड़ै तो मुझै खबर पहुँचाने में विलंब न करना - यदि मेरे बिना कोई काम ऐसा आन पड़ै कि न हो तो मैं सब छोड़ कै आ जाऊँगा। दया रखना - देखो - पर बस, अब लोग आवैंगे तो तुम जाव - हाय रे वज्र हृदय! फट नहीं जाता और उलटा 'जाव' ऐसे वचन कहवाता है” - इतना कह फिर भी आँखैं भर लीं।
मैं तो निःसह होकर श्यामसुंदर के अंक में गिर पड़ी। श्यामसुंदर ने मुझै सम्हार लिया। यदि वे सहारा न बन जाते तो मैं कबकी भूमि पर गिर पड़ती। श्यामसुंदर ने अपने वस्त्र से लोचनों को पोंछ उरई के व्यजन से व्यजन करने लगे। गुलाब जल की पिचकारी मेरे नैनों में मारी और मुझै चुंबनों से आच्छादित कर दिया। मुझै कुछ संज्ञा हुई। मैंने अपनी सकपकानी दृष्टि उनके मुखारविंद पर फेकी। बरौनी में मेरे आँसू लटके थे। उन्होंने फिर भी इस बार पलकों का चूमा लेकर उन्हैं पोंछ दिया और बोले, “तुम क्यौं रोती हौ आज सब प्रेम खुल गया, न तो तुम हमसे दुरा सकी और न मैं ढाँक सका। कैसे ढाँकता, प्रेम क्या सूजी है जो छिपै, पर यदि हमी तुम जानैं तो अच्छा है। प्रीति प्रकट नीकी नहीं होती।” इतना कह उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया और फिर बोले - “आज यदि तुम्हारी आज्ञा पाऊँ, तो 'प्यारी' - कह के तुम्हैं टेरूँ।” मैं चुपकी रही। “तुम कुछ देर तक मौन रहीं, मुझै ढाढ़स हुआ, मैं तुम्हैं अवश्य प्यारी कहूँगा, क्षमा करना तो - प्यारी! प्रानप्यारी! मैं तुम्हैं जी से चाहता हूँ मोह करता हूँ - सुंदरी मेरे हृदय में तेरी गाढ़ी प्रीति भरी है। जगन्मोहिनी! मैं तेरे मूरति की पूजा करता हूँ, तू मेरी इष्ट देवी है और मैं तेरा भक्त हूँ। मैंने तुम्हारी मूर्ति की पूजा उसी दिन से आरंभ की थी जिस दिन पहले तुम्हैं उस दिन अटारी पर बार बगराते देखा था।” इस वाक्य को भली भाँति बल दे के कहा, वह कहन मेरे हृदय में गड़ गई - उतनी गहिरी कि अद्यापि मेरे हृदय के उत्तर दायक तार झनझनाते हैं। मैंने भी उन्हें कहा, “प्यारे जो हाल तुम्हारा था सोई मेरा भी था पर गुप्त ही रखना पड़ा, आज अच्छा हुआ जो दोनों के जी की सफाई हो गई।” इतना सुनाय मैंने उनके करकमल पकर अपने हृदय से लगाए - उनने मेरे हाथ को ले अपने ओठों से लगाया। मैंने झींका भी नहीं, मेरा हृदय तनिक भी उस अपूर्व आनन्द को स्मरण कर न मुड़ा और मुझै उस समय ऐसा सुख हुआ जो मैंने पहले कभी अनुभव नहीं किया था। ज्यौंही मैं उस समय की तरंगों के बल से आगे झुकी उनका अनुपम मुख निरखने लगी - और उनके काले नैनों की गंभीरता में उनके उस प्रेम को बाँचने लगी जो अभी उनके अधर पल्लव से निसरा था - त्यौंही उन्होंने मुझै गलबाही देकर हृदय से लगा लिया - हम लोगों के अधर मिले और बड़े विलंब में चुंबन का अनुकरण शब्द निकला। उन्होंने बिदा दी और मुझे इस प्रतिज्ञा पर छोड़ा कि “चलते समय एक बेर और दिखाई देना।”
आह! उस क्षण का सुख कैसे कहूँ ये वे भाव थे जो मेरे गंभीर हृदय के कुंड से अमृत की नाईं झरने लगे थे। यह मेरा शुद्ध और पावन प्रेम था जो श्यामसुंदर के लिए अंकुरित हुआ था। मैं उसे टटोल भी चुकी थी। जान भी गई कि यह ऐसा ही था। 'प्रेम' - प्रेम जिससे इंद्रियों से कुछ संबंध नहीं - प्रेम - जिस पर इंद्रियों का धक्का नहीं लगा था, प्रेम - जो आत्मा के दृष्टिगोचर हो चुका था।
“मैं घर गई, बैठी उठी, पर श्यामसुंदर की झलक आँख की ओट न हुई। फिर भी इच्छा हुई कि जाकर भेंट करैं पर सोचा कि बार बार का जाना अच्छा नहीं होता। कदाचित् कोई कुछ कहने लगे तो भी ठीक नहीं। इसको सोचा तो सही पर न रहा गया। अंत में कागद कलम लेकर एक छोटा सा पत्र जहाँ तक लिख सकी लिख भेजा। वह यह था -
“मनमोहन प्यारे,
आपने जो जो कहा था सो सब याद है। आपके बदन और मुख हमारे दोनों आँख के सामने झूलते रहते हैं। पर आपके कुटीर के द्वार की जाली नैनों को तुम्हारे तक पहुँचने को रोक देती है - क्या मोह कमती हो गया? बस अब नहीं लिखा जाता - जो मन में है मन ही में रहने दो। “ऐ बाग के माली अपने बाग के फलों की भली भाँति रक्षा करना - तकना - कोई पक्षी चोंच न लगाने पावैं” - चलते समय अटारी पर से भेंट होगी, बस”।
द्वापर फाल्गुण।
इस पत्र को भेज दिया। उत्तर नहीं मिला और उत्तर की अपेक्षा भी तो नहीं थी। दूसरे दिन श्यामसुंदर के जाने की तैयारी हुई। डेरा डंडा सब पहले ही चला गया था। अकेले वे ही रह गए थे। भोर होते ही उठे स्नान-ध्यान कर कुछ कलेवा किया और सात बजे तक जाने के लिए उपस्थित हो गए। रथ बड़ी देर से कसा खड़ा था। उनके नर्मसखा मकरंद भी संग हो गए। इनकी सकुच मुझै बहुत लगती थी और सच पूछो तो अनेक कारणों से लाज और भय भी रहा आता था। ये सब बातैं श्यामसुंदर को पहिले से ज्ञात थीं - इसीलिए उन्होंने मकरंद को पहले ही रथ के निकट भेज दिया था - और वे चलते समय अकेले रह गए। मैं भी अपनी प्रतिज्ञा पालने के लिए अटारी पर चढ़ गई, सत्यवती और सुशीला भी मेरे संग में थीं। मैंने श्यामसुंदर को निकलते देखा, मेरी उनकी चार आँखैं भईं, उन्होंने मेरा प्रान अपने साथ ले लिया - बार बार मुरक मुरक मेरी ओर दृष्टि फेकते थे। मैं भी मुर मुर देखती थी - अपने नेत्रों में जल भर लिया। मेरी भी वही दशा हो गई। सूख साख काठ हो गई, मुख से वचन न निकला। ज्यौंही मेरे घर के नीचे आए मुझसे रहा न गया - मैंने झट दोहा पढ़ा -
“चलत चलत तौ लै चले सब सुख संग लगाय।
ग्रीषम वासर शिशिर निशि पिय मो पास बसाय॥”
इस दोहे को उन्होंने नीचा सर करके सुन लिया और एक दोहा उसी समय बना कर पढ़ा -
जौं शरीर आगू चलत चपल प्रान तुहि जात।
मनौ वातवस फरहरा पाछे ही फहरात॥
जो कुछ उन्होंने कहा सब सत्य था। मैंने अपने जी में बहुत धीरज धरा पर एक भी काम न आया। मेरी दृष्टि उनके पीछे चली, वे गए - नदी के तट पर पहुँचे, रथ पर चढ़ चले। मेरा भी जी मन के रथ पर बैठ कर उनके पीछे हो लिया। वे जाते हैं, मझधार में पहुँचे। इधर मेरा भी जी प्रीति की नदी के मझधार पहुँचा। केवट तो चला जाता था, मुझै कौन बचाता, पर आशा वृक्ष की शाखा पकड़ कर लटक गई। श्यामसुंदर गए, उस पार हुए पर मैं इसी पार थी। एक मन हुआ कि घर की कुल कान छोड़ दौड़ जाऊँ - पर लाज के लगाम ने मुँहजोरी रोक दी। नदी के तीर तक मैं भी गई। श्यामसुंदर उस पार पहुँचकर ऊँचे टीले पार बैठ पारदर्शक यंत्र को अपने नैनों से लगा - मुझे देखने लगे। क्या जानै मैं उन्हैं दिखी या नहीं पर मैं उन्हें जहाँ तक दृष्टि गई बराबर देखती रही। वन की लता पता मेरे ऐसे बैरी भए कि उन्हैं शीघ्र ही लोप कर दिया। रथ चला, पहिए के धूर दिखाने लगी। इधर भी मेरी धूर ही धूर दिखाती थी। कहावत है कि “दिलों पर खाक उड़ती है मगर मुँह पर सफाई है, “अंत को मैंने अपने जी से यह दोहा पढ़ा -
वह गए बालम वह गए नदी किनार किनार।
आप गए लगि पार पै हमैं छोड़ि मझधार॥
स्नान करके घर आई। घर के कुछ काम न अच्छे लगे। माँ से कहा, “माँ आज मेरा माथा पिराता है।” माँ ने पूछा, “क्यौं” - मैंने उत्तर दिया, “क्या जानूँ - शरीर तो है।” माँ बोली, “तौ जा सो रह” - यह तो मेरे ही मन की कही। मैं शीघ्र जा सेज पर सो रही और मूड़ को ढाँक खूब रोई - भूख प्यास सब भूल गई। तन से मन निकल कर मनमोहन के पास चला गया। खाट पर केवल शरीर धरा रहा। माँ ने बहुत कहा, “बेटा कुछ खा ले!” पर मैंने कुछ उत्तर न दिया। अंत को माँ ने मुझै सोई जान फिर हूँत न कराया - वृंदा ताड़ गई पर मुझसे कुछ भी न कहा। यद्यपि वह मुझै बहुत चाहती थी पर उसका श्यामसुंदर पर गुप्त प्रेम रहने के कारन मुझसे कुछ कुछ बुरा मानती थी। श्यामसुंदर उस्से भी हँस के बोलते पर उनका सब प्रेम मेरे ही लिए था। वे अपने प्रान को भी इतना नहीं चाहते थे। नैनों की तारा मैं ही थी। प्रेम-पिंजर की उनकी मैं ही सारिका थी। ब्रह्म, ईश्वर, राम, जो कुछ थी मैं थी, वे मुझै अनन्य भाव से मानते थे, पर हाय री मेरी बुद्धि अब कहाँ विलाय गई। भद्र! मैं अब वह नहीं हूँ जो पहले थी अब वह बात ही चली गई। मैं श्यामसुंदर के मुख दिखाने के योग्य नहीं हूँ। श्यामसुंदर अभी तक मुझै उसी भाव से मानता जानता है और अनन्य भाव से भजता है पर मैं - हाय - अब क्या कहूँ, मेरी कपट रीति विश्वासघात - हाय रे दई - मैं सब कुछ एक कुवचन सहूँगी। जगत की कनौड़ी बनूँगी - हाय रे दई - मुझै जो चाहै दंड दे - मेरी गर्दन झुकी है ले जो चाहै सो कर - मैं हूँ तक न निकालूँगी। मार मार जार डार जैसा मैंने उन्हैं जराया है तू भी मुझै जलाकर क्वैला कर दे - हाय रे ईश्वर - हाय हाय रे करम - क्या मैंने सब धरम बहा दिया। किस भरम में पड़ी शरम भी नहीं आती - हा हा” ऐसा बिलाप करते करते गिर पड़ी। सत्यवती और वृंदा ने सम्हार लिया। अपनी ओली में बैठाकर मुख पोंछा हवा करने लगीं। चूमा लिया।
पर मैं तो इस लीला को देख दंग हो गया। स्तब्ध होकर भीति की सी चिचौर बन गया, अनिर्वाच्य हो गया। आश्चर्य करने लगा कि ऐसे मनोहर शरीरवाले भी जो केवल पुण्य के पुंज हैं, दैहिक, दैविक और भौतिक तापों की ताप में तपते हैं आश्चर्य है कोटिवार आश्चर्य का आस्पद है, मैंने कुछ सुरीली तानें भरीं, श्यामादेवी की आँखैं खुलीं। वृंदा विजना झलती थी। वह इन सब बातों की प्रत्यक्ष देखने वाली थी सब कुछ समुझ बूझकर सासैं भर भर के रह गई। देवी को संज्ञा हुई, मैं हाथ जोड़कर बोला।
“कमलनयनी! तू क्यौं इतनी अधीर हो गई। अभी तो कहानी पूरी भी नहीं हुई इतने ही में ऐसा हाल हुआ, पूरी होते न जाने तेरे प्रान बचैंगे कि नहीं - वृंदा तनिक देवी को समझा दे शोच न करै, क्या ऐसे जनों को भी दुःख का लेश चाहिए।”
श्यामा देवी गद्गद स्वर और स्खलित अक्षर से बोली, “सौम्य! तुम बड़े सभ्य हो। यह स्थल ही ऐसा है कि यदि तुम इस सब वृत्तांत के साक्षी होते तो न जाने तुम्हारी कौन सी गति होती, पर तुम्हारा चित्त इस कहानी को पूरी कराने में लगा है तो लेव सुनो। मैं रोते गाते सब कुछ कह सुनाऊँगी,” इतना कह सुख से सिंहासन पर बैठ गई। चंद्रमा की प्रभा ने मुख कोकनद का विकास कर दिया था। दंत की छटा मंद मंद कौमुदी में मिली जाती थी। वृंदा पंखा झलने लगी, सत्यवती ने पान का डब्बा खोलकर सामने धर दिया और सुशीला रात बहुत हो जाने के कारण सोने लगी। देवी ने मुख पोंछा दोनों हाथ पसार ईश्वर से मंगल कुशल के साथ पूरी कथा कहने के शक्ति का आवाहन किया, सरस्वती से हाथ जोड़े भगवती के पदकमल स्पर्श करके यों कहने लगी -
“सुनो जी मेरी बड़ी बुरी दुर्दशा हुई। मुझै श्यामसुंदर का वियोग सताने लगा। उनके उठने बैठने के ठौर मुझे काटे खाते थे और मैंने बार बार यह छंद पढ़ा -
खोर लौं खेलन जाती न तौ कहुँ
आलिन के मति में परती क्यौं।
देव गुपालहिं देखती जौ न तो
वा विरहानल मैं बरती क्यौं॥
बावरी आम की मंजुल वाल
सुभाल सी है उर मैं अरती क्यौं।
कोमल क्वैलिया कूकि कै झूर
करेजन की किरचैं करती क्यौं॥
बस मेरी ठीक यही दशा हो गई थी, परवश में पड़ी थी। प्रान तो श्यामसुंदर के पास थे शरीर मात्र यहीं रह गया था। उधर श्यामसुंदर भी बेचैन थे। मकरंद से अपना दुःख का रोना रोया करते। संसार उन्हैं सूना हो गया। अन्न जल में स्वाद नहीं लगता। साँप की साँस सी समीर लगती, शरीर में ऐसी पीर उठती मानौ भुजंग की मैर हो, नेत्र नरगिस के भाँति हो गए, पीरीं पीरीं पत्तियों की भाँति तन सूख गया था। बदन सूखि के किंगड़ी और रगैं तार हो गई थीं, रोम रोम से सुर उठकर मेरा ही नाम बजता था। यद्यपि अभी उन्हैं गए दो चार दिन से अधिक नहीं भए थे तथापि विरह ने व्याकुल कर दिया था। दिन भर मेरा गुन गाते और रात को मेरा स्वप्न देखते। वन वन धूर छानते फिरे वन पर्वत की कंदराओं में मेरे ही वियोग की तान गान कर कर झाँईं से हुँकारी झराते थे।
देखी कहूँ मृगनैनी अहो वन पर्वत निर्झर सो मुहि भाखो
वात सों कंपित पादप हाय कहो किहि आतप को दुःख चाखो।
हौं जगमोहन श्यामा विहाय फिरौं विलगाय इतै मन माखो
दै जु बताय कहाँ गई मोहिनी मुरत आरत को जिय राखो॥
देखी कहूँ सरिता गिरि खोह कहूँ मनरंजनि मोहिनी मूरति
सो गई पंकज लेन कै खेलत कै बहलावत है मनहूँ अति।
कै कहुँ प्रेम प्रकासिबे काज लुकाय रही वन पल्लव सूरति
हौं जगमोहन देहु बताय वियोग शरीर अजौ मुहिं झूरति॥
इसी प्रकार के अनेक गीत अभीत हो वन में गाते फिरते। इस चौपाई को बार बार कहते, मकरंद ही केवल इन्हैं साहस देता रहता।
सो तन राखि करब मैं काहा। जिन न प्रेम पन मोर निबाहा॥
हा रघुनंदन प्रान पिरीते। तुम बिनु जियत बहुत दिन बीते॥
और कभी कभी यह भी -
मुसौवत खीचले तस्वीर गर तुझमें रसाई हो।
उधर शमशीर खींची हो इधर गरदन झुकाई हो॥
ये रस की भीनीं तुकैं गा गा कर आँसू भर लेता। अंत को उसने मुझे एक पत्र भेजा - जिसको मैं तुमसे कहती हूँ।
“प्रानप्यारी,
“रटत रटत रसना लटी तृषा सूखिगे अंग।
तुलसी चातक प्रेम को नित नूतन रुचि रंग॥”
इसे समझ लेना जब से मैं तुम्हारी दया दृष्टि से दूर हुआ दर दर घूमा पर ऐसा कोई न मिला जो तुम्हारे विरहताप की ताप मिटाता। वन के रम्य रम्य मनोहर स्थलों को देख तुम्हारे बिना करेजा टूक टूक हो जाता है। प्रतिकुंज में तुम्हैं देखता हूँ - पर स्वप्न सा जान पड़ता है। इस साल श्यामापुर में मेरी फाग नहीं हुई, कारण तुम जानती हो, लिखने का प्रयोजन नहीं, बस - समझ जावो। इसी से मैंने टर दिया सो देखो इस साल की फाग ने मेरे बदन में आग लगा दी है, तन में वियोगाग्नि की भस्म रूपी अबीर लगी है, नैन पिचकारी हो गए हैं और ताप की ज्वाला में तन जरा जाता है। शोक और चिंता रूपी जुगल कपोलों में पीर की राख लगी है। अधिक क्या लिखैं, तुम्हारा वियोग सहा नहीं जाता। इस पावन वन में केवल मैं ही अपावन होकर विचरता हूँ। मुझै वन के जंतुओं ने भी दीन मलीन और पापी जान तज दिया। जब तुमसे विलग हुए तब हुए तब और कौन जगत में मेरे संग लग सक्ता है। मुझै पक्षी भी देख भागते हैं। शुक सारिका भी क्रूर शब्द सुनाते हैं - अब कहाँ तक कहैं। इसका उत्तर देना, मैं भी कुछ दिनों में आ पहुँचता हूँ धीरज धरना और मुझै कदापि अपने जी से न टारना।
दोहा
चातक तुलसी के मते स्वातिहु पियै न पानि।
प्रेम तृषा बाढ़त भली घटे घटैगी कानि॥
इस पावनारण्य से मैं मार्जारगुहा को जाऊँगा, वहाँ से वीरपुर होते वाणमर्य्यादा नामक ग्राम में दो दिन निवास करूँगा, वहाँ पहुँचकर मार्ग का वृत्त लिखूँगा पर तुम इस पत्र के उत्तर देने में विलंब न करना। पूर्वोत्तर युक्ति से पत्र मुझै अवश्य मिलैंगे। इन वनों का भी संपूर्ण वर्णन - पर संक्षेप यदि हो सका तो तुम्हारे मनोरंजन के लिए भेजूँगा - कृपा रखना।
द्वापर-फाल्गुण तुम्हारा वही अपावन
पावनारण्य श्यामसुंदर - “
यह पत्र मुझै वृंदा के द्वारा मिला - उसे हरभजना ने दिया था। मैंने पढ़कर छाती से लगाया और बार बार चूमा। मैंने उसी क्षण इसका उत्तर लिखा।
उत्तर
“श्यामसुंदर!
वृंदा ने हमैं आपकी पाती दी। आप हमारे विरह में क्यौं - अब क्या लिखूँ? भूल गई! क्षमा करो। चलते समय मैंने कुछ कहा था न? उत्तर क्यौं नहीं दिया, दूर निकल गए, क्या चिंता -
“हिरदे सै जब छूटि हौ मरद बदौंगी तोहि”
दोहा
पंच द्यौस दस औधिकर गए नाथ केहिं देश।
सो बीती अब प्रान कहु रहैं सु किमि तन लेश॥
वीर धीर मुहिं तजि गयो लै गौ असन रु पान।
हा प्यारो क्यौं छोड़िगो दइमारे सठ प्रान॥|
तुम तो चतुर हो इसे सत्य जान जो उचित हो सो करना -
द्वापर-फाल्गुण। श्यामा”
यह पत्र उसी रीति पर भेज दिया और उनके पास भी पहुँच गया। उसके उत्तर में उन्होंने एक लंबा पत्र पीतवन से लिखा, उसमें प्रति दिन का वृत्तांत था।
“प्राणप्यारी, तुम्हारा पत्र मुझै पीतवन में मिला मुझै इतना सुख हुआ कि मैं अपने को भूल गया। जिस समय दूत ने तुम्हारी पाती मुझै दी मैं शिवरूप साक्षात् हो गया। इधर उधर ढूँढ़ने लगा कि इस दूत को क्या दूँ। पाती से आधी भेंट होती है। उसके प्रत्यक्षर मेरे लिए रामनाम थे। बड़ी देर तक उलट पलट बाँचा और सोने के संपुट में मढ़कर हृदय-कपाट के द्वार पर लटका। पत्रवाहक को सकुच कर चार सहस्र स्वर्ण पारितोषक दिये। उस गरीब का काम ही हो गया। हमारी तुम्हारी जय मनाते घर गया। पावनारण्य से बुधवार के दिन सायंकाल मकरंद और मधुकर के साथ चलकर मार्जारगुहा में पहुँचे, आज केवल एक कोस चलना पड़ा। इस अनूप देश का अधिपति एक वृद्ध भील जिसका नाम विराध है मार्जारगुहा में बास करता है, इसके दो चार तुरंग और हाथी सदा संग में रहते। इसके विकट आयुध भाला और फरसा थे। तलवार कटि में लटकी रहती - हाथी का सा भारी मस्तक - कराल दंष्ट्रा - सिर पर फूल की कलगी खुसी - वृक्ष से भुजा विकट गह्वर सा उदर - अजगर से दोनों पाँव चट्टान सी छाती - हाथी पर सवार तरवार आगे धरे ऐसा भयानक लगता था मानौ भयानक रस आज मूर्तिमान् होकर सजीव पर्वत पर बैठा चला आता है। यहाँ बहुधा वन दूर-दूर पर हैं। यह महीप मेरी अगुआनी के लिए महासागर तक आया। आज मनुष्य और पशु की वार्त्तालाप जो पुराने ग्रंथों में लिखी हैं ठीक ठीक सत्य और प्रत्यक्ष देखने में आईं।
“नर बानरहि संग कहु कैसे”
इस चौपाई का मानो अर्थ खुल गया। इस ग्राम में एक दिन चूतवाटिका में डेरा लगा कर रहा। अतिथि-पूजन भली भाँति हुई है और चलते समय मधुकर के हाथ गरम कर दिए। यह एक ब्राह्मण हैं, यहाँ यही लेखा लगा।
“वृहस्पति के दिन हम लोग वीरपुर पहुँचे। यहाँ का ग्रामपति विराध से कुछ सभ्य है इसका नाम खर है - यहाँ मलयज नामक वन निकट है यह खर उस वन का केसरी सा दिखता था। इसका रूप विराध से कुछ थोड़ा ही अच्छा है इसलिए अधिक नहीं लिखते। यह ग्राम मैदान में है। जलप्राय वन के निकट ही यह बसा है। यहाँ के जलवायु दोनों भले नहीं इसी से दूसरे ही दिन कूच कर गए। शुक्र के दिन तुम्हारे ही पत्र की आशा लगी रही।”
“शनिवार का दिन वाणमर्यादा में बीता, यहाँ से पर्वत पाँच कोस पर रहे। यहाँ अच्छा सरोवर जिसके किनारे कदली का उपवन है शोभित है, भगवान् भवानीपति का मंदिर यहाँ के ग्रामीणों को अवलंब है। यहाँ के 'रसालाराम' में तंबू तना था। ग्राम भी कुछ छोटा नहीं और ग्रामाधिप भी ऊँचे जात का पुरुष है। आज होली जरी - मेरी शरीर तुम्हारे बिन आप होली हो गया है। झोली में अबीर भर भर हमजोली की भीर में घुस रसाल रसाल कबीर गाते हैं। इन वन में होली का उत्सव कुछ विचित्र सा जनाता है, जैसे दूध में मिरचा, विलायत के गिरिजाघर में कुरान की आयत का पढ़ना या रामचंद्र के मंदिर में प्रभु ईशु-मसीह का नाम लेना और बेंड बजाना तथा मसजिद में शंखध्वनि का होना इत्यादि जैसे असंभव और असंगत बनाते हैं वैसे ही इस देश में ऐसे उत्सव थे।”
“रविवार के दिन मैंने चातकनिकुंज जाने का विचार किया। यह उत्कल देश का द्वार है और यहाँ का स्वामी बड़ा नामी पुरुष है, पर यह देश तुम्हारे पूर्व पुरुषों का निवास था इसी से वर्णन नहीं किया। तुमने अपने माता पिता से इसका सब वृत्तांत सुन ही लिया होगा - निदान यहाँ से प्रातःकाल ही को रथ पर बैठा और सायंकाल तक देख भाल फिर बाणमर्यादा को लौट आया। इस ग्राम से यह केवल चार कोस पर था। इस राज्य में रसाल के रसाल रसाल विशाल वृक्ष बहुत हैं, इसका नाम मैंने कोकिलकुंज रख दिया है। इस ग्राम का स्वामी जब मैं गया उपस्थित न रहा पर उसके प्रतिनिधि ने बड़ा सत्कार किया और यहाँ के मुख्य मुख्य निवास और कार्यालय दिखलाए। वश का सघन वन इसके चारों ओर लगा है और राजा के महल एक पर्वत पर बने हुए हैं जो सजल होने के हेतु अति मनोहर लगते हैं। निर्झरों का घर्घर शब्द -वनजंतुओं का गर्जना - सिंह व्याघ्रों का तरजना जिसे सुन विचारी कोमल बालाओं के हृदय का लरजना - इस दुर्ग के गुर्जों ही से बैठे सुन लो। सुंदर सरोवर बरोबर जिन पर तरोवर झुके हैं शोभा बढ़ाते हैं। यहाँ से लौट कर बाणमर्यादा के 'रसालाराम' में रात भर विश्राम किया। तुम्हारा स्वप्न आधी रात को देखा। ऐसा देखा मानो तुम्हारे पिता ने तुम्हें कहीं भेज दिया हो और ज्यौंही मैं उन्हैं निवारने लगा मेरे नेत्र खुल गए करेजा काँप उठा। होनहार प्रबल होती है। पर भावी वियोग यद्यपि स्वप्न ही था तथापि शोक का अंकुश कुश का भाँति हृदय में गड़ गया था कुछ गड़गड़ तो नहीं हुआ, लिखना। पर तुम्हारी प्रीति की कथा यहाँ तक विदित है।”
“सोमवार 2 - आज मैं बाणमर्यादा से वाराहगर्त्त को आया। छोटे-छोटे ग्राम बहुत से विराम के लिए पथ में मिले पर कहीं नहीं ठहरा। वाराहगर्त्त नामक वन अच्छा सुहावना लगता है। यहाँ के पर्वत और शैल आकाश को अपने अपने श्रृंगों से छूते जान पड़ते हैं। यह तराई का प्रदेश आगे बढ़ने से ऐसा लगाता है मानों अघासुर के उदर में हम लोग ग्वाल बाल के नाईं घुसे जाते हों, दोनों ओर सघन शैल की श्रेणी - बीच में सूक्ष्म मार्ग - मानों घन चिकुर में सेंदुर भरी माँग - यहाँ की मृत्तिका लाल होती है। मध्याह्न के उपरांत आखेट के लिए गए थे। 40 मनुष्यों ने मिलकर खेदा किया पर केवल एक शशक निकला सो भी हे शशांक-बदनी तुम्हारे नाम के प्रथमाक्षर सरीखा जान छोड़ दिया गया। आज का दिन अच्छा कटा सभी लोग डेरे में बैठे वनों की नाना कथा कह रहे हैं।
“मंगल 3 - आज मंगल ही मंगल है। लोग कहते हैं 'जंगल में मंगल' - सो ठीक हैं - यहीं पर होली का दंगल भी आज हुआ और इसी पीतवन में तुम्हारे प्रेमपत्र ने मुझै सनाथ किया। मैं आज कुछ और हूँ। मेरा शरीर और मन पीररहित हैं। मृगया के अनंतर मैं इस सर्ज के तरे बैठा हूँ। धीर समीर मेरे श्रम को मिटाती है - तुम्हारे शरीर को स्पर्श करके आती अवश्य होगी, तभी तो मेरे ही तल को शीतल करती है। तुम्हारी पाती ने आज जो मुझै आनंद दिया - ईश्वर ही साक्षी - सब व्यवस्था तो पूर्व पत्र में लिख ही चुके हैं।”
“बुधवार 4 - आज पीतवन में डेरा है। आगे नहीं बढ़े।”
“वृहस्पति 5 - पीतवन से आज चल के पुष्पडोल में डेरा हुआ, यहाँ कुल्लुक नाला सघन वन से निकला है। इसी के तट पर आज विकट कटक पड़ा। बनैले जंतुओं के भयानक रव का दव कैसा सुनाई पड़ता है। आधी रात में सब सून सान परा है केवल हूँमा की हुँकारी की झाँईं पर्वत के कंदरों में बोलती है।”
“शुक्र 6 - आज भी पुष्पडोल में रहे काम बहुत था।”
“शनिवार 7 - पुष्पडोल से रत्नशिला। यह शैलमय वनोद्देश ऐसा सघन और विचित्र है कि ऐसा मैंने इस प्रदेश में पूर्व नहीं देखा था। शार्दूल गज गवय भालू इत्यादि समूह के समूह इतस्ततः घूमते दिखाई देते हैं। यहाँ केवल पगडंडी राह है। मन चलता है कि विजन वन में एकांक हो केवल तुम्हारे ध्यान में मग्न हो बैठें।”
“रविवार 8 - रत्नशिला से सरलपल्ली। इस पल्ली में केवल तीन घर हैं। दूध दही कुछ नहीं मिलता, वन का अंत भी दुर्लभ है। किसी प्रकार से निर्वाह कर लिया। यह दंडकारण्य का प्रदेश दर्शनीय है। हा देव हमारी श्यामा को क्यौं बिलग कर दिया।”
सोमवार 9 - सरपल्ली से यमपुरी यह पुरी साक्षात् यम की पुरी है। यहाँ का जल बड़ा दुखःदाई और ज्वरादिक अनेक रोगों को उपजाता है। नागरिक लोग यहाँ आते ही यमसदन सिधारते हैं। हम लोग सहे वहे हैं। किसी प्रकार से दिन काट ही लेते हैं। यहाँ से निकट ही मतंगवाटी नाम की घाटी प्रसिद्ध है। इसकी उतरने की परिपाटी ऐसी दुस्तर और अटपटी है कि शाटी आदि बसन बदन पर नहीं रह सकते। यहाँ के वासी लाटी बोलते हैं। इस वन के बाँस की सांटी (सोंटा) प्रसिद्ध है। लोग बड़े कुपाटी - नट नटी से कूद कूद वन में विचरते रहते हैं। सुनते हैं कि यहाँ एक वृद्ध व्याघ्र बुद्धि का भरा किसी अन्य देश से आया है। यह ऐसा ढीठ है कि ग्राम के पशुओं को दिन थोसे धर खाता है।”
“तुम्हारा केवल - बस - वही।”
“यहाँ से चल श्यामसुंदर मान्यपुर की ओर मुड़े। मेरे लिखे अनुसार कंचनपुर के पंथ में पाँव भी न धरा। उन्हैं अब चटपटी पड़ी और मेरी सूरति की सूरत करते करते मग्न हो जाते। किसी प्रकार से दो दिन और गली में भली भाँति लगाए। पर इसका हेतु बिजली और मेह था। बदली छाई रहती। अकाल के मेघ दुर्दिन के सूचक थे। सुदिन के सूर्य ने अंत में वियोग तम फाड़ दिया। हंसमाल में आ पहुँचे। बसंत झलकी आम के मौर लगे जिन पर भौंर के डेरा जमे। धमार की मार होने लगी। सरसौं के खेत फूले - धान पकी - कोइल कुहकने लगी। जिधर देखो उधर उत्सव ही उत्सव था इस अवसर पर केवल श्यामसुंदर ने निरुत्सवता की समाधि लगा ली थी। आँख मूँद के मेरा ही ध्यान लगा लेते और यदि कोई बीच में बोलता तो - “श्यामा-श्यामा” कह उठते, उन्हैं उनके एक प्राचीन प्रियतम का कवित्त बहुत प्यारा लगता और बार बार उसी को अकेले दुकेले कहते रहते।
आवत बसंत आली कंत के मिलाप बिनु
मदन भभूकैं अंग अंग आन फूकैंगी।
हरीचंद फूछैंगे पलाश कचनार वन
त्रिविध समीर की झकोरैं चारु झूकैंगी॥
गावत बहार ह्वै है जीव को निकार आजु
एक एक तन प्रान लेन को न चूकैंगी।
करैगो कसाई काम वाम कतलाम बिना श्याम
बैठि डार हाय कोइलैं कुहूकैंगी॥
हंसमाला में उनके पहुँचने का समाचार मेरे पास पहुँचा, मैं तो आनंदरूप हो गई। तन वदन की सुधि तक न रही, कोई कुछ पूछता तो कुछ का कुछ कह उठती। द्वार में वंदनवारे बाँधे, हर्ष गात में नहीं समाता था। माता पिता ने पूछा, “आज तोरन क्यौं सँवारे हैं” मैंने उत्तर दिया, “बसंत पूजा है न - माधव का उत्सव करती हूँ।” इस यथोचित उत्तर को पा सभी मौन रहे। तुलसी की माला बनाकर पहिनी, केशपाश सँवारे, माँग मोतियों से भरी, नैनों में काजर की ढरारी रेख लगाई। पीतांबर धारन कर प्रफुल्लित वदन पीत पंकज सा फूल उठा - जिस मग से वे गए थे उसी मग में उनके आने की आस बाँध टक लाय रही। आशा थी कि साँझ नहीं तो सबेरे तक अवश्य पधारैंगे और मेरे द्वार को सनाथ करैंगे। दिन बीता, साँझ हुई। श्यामसुंदर न आए। रात को आने की तो कुछ आस थी ही नहीं, भोर ही शीघ्र उठने के लिए साँझ ही सब काज पूरा कर चुकी और जल्प आहार कर आठ बजे तक लंबी तान सो रही जिसमें सकारे नींद खुलै। रैन से चैन नहीं मिला - नैन प्रान प्रियतम के दर्शन के लिए प्यासे रहे। नींद न लगी ज्यौं त्यौं कर निशा काटी। इस पाटी से उस पाटी करोंटे लेती रही। झपकी भी न ले पाई थी कि रात रहतेई बड़े भोर तमचोर बोला। घर के सब सोए थे। वृंदा को जगाया और तरैयों की छाया रहते स्नान को चली। घाट तो निकट ही था - सूधी वाट धर ली। मेरी एक और परोसिन थी, उस्से मैं सब अपने मन का भेद कह देती और वह मेरी तथा वृंदा की भी प्रणोपम सखी थी। मेरी ही जाति होने के कारन और भी घनी प्रीति लग गई थी। जब समय पाती वह मेरे घर और उसके घर बैठने आती जाती। इसका नाम सुलोचना था - सुलोचना क्या यदि इसका दुःखमोचना भी नाम धरते तो भी कुछ सोचना न था, यह मेरे लिये सचमुच दुःखमोचना थी। वृंदा ने इसे भी जगाया और जब हम तीनों नहाने चलीं। हम तीनों पढ़ी थीं - यह और आनंद था - रास्ते में वृंदा ने छेड़ा - “क्यौं गुइयाँ आज हमें अवश्य पेड़ा खाने का मिलेगा न - अचरज नहीं कि भोर ही कलेवा के समय मेवा मिलै।”
सुलोचना ने कहा - “पेड़ा तो नहीं पर भेड़ा अवश्य मिलैगा। भला कहु तौ आज पेड़ा की भोरही को सूझी - क्या पेड़ा ही पेड़ा तो नहीं सपनाती रही?”
वृंदा बोली - “नहीं गुईं, इसमें बड़ा भेद है, उसे सुनोगी तो छाती में छेद हो जायगा पर मैं कुछ नहीं जानती - श्यामा से पूछ इसका भेद वही बतावेगी।”
मैं त्यूरी चढ़ाके बोली - “ऐसी हँसी मेरे मन नहीं भाती। भला मैं क्या जानूँ, वृंदा बड़ी ठठोल है।”
सुलोचना बोली - (हँसकर) “ठठोल है तभी तौ ढोल पीटेगी। मैं क्या जानूँ - वृंदा से पूछ वही आज सवेरे से 'पेड़ा पेड़ा' बक रही है।”
वृंदा हँस पड़ी, कहने लगी - “यह कलजुग का तो पहरा है - जिस्के हित की करै वही उलटा चिढ़ती है। भला गियाँ! तू ही सोच मैंने श्यामा के विषय में कुछ बुरा कहा” - मैं जी मैं जान गई कि इन दोनों ने जान लिया - क्या करूँ कुछ कहा नहीं गया। कहा कैसे जाय - सच्ची बात को झूठी करने में बीस और झूठ मिलानी पड़ती है और सखियाँ जान भी गई तो क्या हानि, लोक जानता है और जानैगा तो इस्से भला यही है कि सखीं जान जायँ। भला ए तो बने बिगरे में काम आवैंगीं और लोग क्या साथ देंगे - ऐसा सोच विचार मन में कहा, “कुछ चिंता नहीं।” मैं बोली, “राम राम तुम कभी मेरे लिये बुरा कहोगे वा करोगी, यह तुम्हारी बड़ी भूल है जो ऐसा सोचती हो, भला अब तुम्हीं कहो क्या बात है?”
सुलोचना ने कहा - “मैं क्या जानूँ वृंदा पेड़ा पेड़ा चिल्लाती है, उसी से पूछ” -
वृंदा हँसी - बड़े जोर से खख्खामार के हँसी और बोली - “बुरा न मान तो अब कही डारूँ, कहने में क्यौं रुकूँ।” मैंने कहा - “भला तुझ से कभी बुरा माना है कि आज ही मानूँगी - कह न जो कहना हो”' छाती धरक उठी - करेजा कँप उठा - साहस कर सुनने लगी।
“उस दिन अटारी का ब्यौरा अब तूही कह डार - क्या हुआ। मैंने क्या नहीं देखा। पर तू मुझसे आज तक छिपाये गई - क्या मैं मिट्टी पत्थर की थोड़ ही बनी हूँ जो इतना देख सुन के भी न जानूँ - मैंने तुझसे कुछ नहीं कहा - आज तक चुप रही पर सुलोचना से सब कुछ कह दिया था - विश्वास न हो तो पूछ ले। फिर जब तेरे चितचोर ने तुझे जाते समय बुलाया और विलाप किया - क्या वह सब मैं नहीं जानती, मैं तो तेरे अनजाने में इसी छेद (छेद को उँगली से दिखाकर) से सब कुछ देख लिया था। कुछ चिंता की बात न थी। मुझसे कहती तो क्या मैं दगा देती, पर तेरा सुझाव सदा का कपटी है। जनम भर एक साथ रही तौ भी जी की मुझसे न कही। भला कुछ हानि नहीं - आज तुम मुझै न खिलावोगी। मैंने कल्ह संध्या को टोले में श्यामसुंदर के आने की चर्चा सुनी - सो क्या तू नहीं जानती। कैसी अज्ञान बन गई है - देख तो सुलोचना तू इसकी चतुराई नहीं परखती क्या? तो आज तेरा इतना सवेरे स्नान करने का क्या प्रयोजन था। और दिन तो ऐसा नहीं होता था। आज यह नवीन ठाठ। वाह री भोरी! क्यौं न हो!”इतना कह आगे बढ़ी।
मैंने कहा, “क्या तूने मुझसे कभी पूछा भी था कि वृथा कपट का कलंक लगाती है?”
वृंदा ने कहा - “ठीक है री श्यामा ठीक है - क्यौं न हो, तू ऐसी न पढ़ी होती तो ऐसी बातैं क्यौं बनाती। भला जो कुछ हुआ सो हुआ। अब यह बताव कि यदि आज श्यामसुंदर आवै तो मेरा मुख मीठा करैगी वा नहीं - सत्य ही कह दे। आज मैं क्या इनाम पाऊँगी। सत्य ही कहना। तिल भर भेद न रखना” -
सुलोचना बोली - “मेरा भी उस इनाम में भाग रहैगा कि नहीं - फिर तेरा सब काम तो हमीं लोग सुधारैंगे” मैंने कहा - “जो चाहो तुम लोग कह लो अब तो फँस ही गई। तुम लोगों से कुछ असत्य थोड़ ही कहना है, सब तो जान ही गईं अब मेरे ही मुख से सुनने में क्या बात लगी है। क्या तुम्हारे ऊपर कभी नहीं बीती?”
वृंदा और सुलोचना बोलीं - “नहीं थोड़ ही कहते हैं - सभी पर बीतती है, पर हम तो तेरे कपट पर इतना कहा नहीं तो जैसा चाहती वैसा ही होता - “
मैंने कहा - “तो अब क्षमा करना - श्यामसुंदर आज आते होंगे। मुझे उनके दरसन का बड़ा चाव है। सखी सुलोचना कैसा करूँ रहा नहीं जाता -
सखी हम कहा करैं उनके बिन।
वह मोहिनि मूरति छिन छिन में झूलति नैनन निसिदिन॥1॥
उठत बैठत निसिवासर डोलत बोलत जितवत।
घर के काज अकाज किए सब जग सुख दुःखमय बितवत॥2॥
कुछ न सुहात बात सुनु एरी मात पिता परिवार।
हिए में बसत एक उनकी छबि वे पवि हृदय विचार॥3॥
हँसनि कहँनि बतरानि माधुरी खटकत जिय दिन रैन।
पै उनके बिनु कल न परै पल अलि औरौ निशि चैन॥4॥
सोवत जगत डगत मनमोहन लोचन चित्र मझार।
आधी रात सुरति जब आवति हूलै विरह कटार॥5॥
कैसी करौं सुलोचनि वृंदा - कटै न श्यामा रात।
कही सुनी जो श्यामसुंदर ने सो खटकत दिन जात॥6॥
यदि आज आ गए तो अच्छा होगा - नहीं तो मेरा दुःख फिर दूना हो जायगा - पर देख अभी मेरी बाईं आँख और भुजा दोनों फरके, सगुन हुआ अब चिंता गई - तो चल शीघ्र ही स्नान करके घर चलैं नहीं तो माँ खीझैगी, इतने में काक का बोल सुन श्यामा (मैं) ने कहा -
“सुनि बोल सुहावने तेरे अटा यह टेक हिए में धरों पै धरों।
मढ़ि कंचन चोंच पखौवन ते मुकता लरें गूथि भरों पै भरों॥
तुहि पाल प्रवाल के पींजरा में अरु औगुन कोटि हरों पै हरों।
बिछुरे पिय मोहि महेश मिलैं तुहि काक ते हंस करों पै करों॥”
सुलोचना ने कहा - “आज श्यामसुंदर का आना ध्रुव है टोले में तो कल्ह से उनके आने की चर्चा हो रही है।” वृंदा सुलोचना और मैं नहा धो घर आईं - गृह के कृत्य किए - और ऊपर की खिरकी से उनकी अवाई की प्रतीक्षा करने लगीं - भोर हुआ, चिरैयाँ चहचहाने लगीं, गाय और बछरू का शब्द सुनाने लगा। अहीर लोग गैयाँ दुहने लगे। अरुणोदय हुआ। मारतंड का मंडल दिखने लगा। लोग भैरवी गाने लगे। सब लोग अपने अपने इष्टदेवता की मूर्ति पूजते थे पर मैं श्यामसुंदर की समाधि लगाकर उन्हैं ध्यान मैं पूजती थी। इस प्रकार की पूजा सबसे उत्तम होती है, एक घंटा दिन चढ़ा, दो घंटा बीता, तीसरी घड़ी में नदी के उस पार कुछ मनुष्य दिख पड़े - फिर कुछ घोड़े दिखाने - मेरे जी में तो धक्का सा लगा। मैं हक्का बक्का हो गई, जी कूद उठा। छिन भर डिरा सी गई, फिर खड़ी होकर देखने लगी। मेरे घर की अटारी बहुत ऊँची थी, उस पर से बहुत दूर का दिखाता था, उसी पर से देखने लगी। घोड़ा ज्योंहीं निकट आता था मुझे यही जान पड़ता था कि वे ही हैं। अंत को नदी के उस तीर पर आया। पानी टिहुँनी तक रहने के कारन नाव की अपेक्षा कुछ न थी। घोड़ा पानी में हिला, पानी पीने लगा। फिर साँस लेने को सिर उठाया, फिर ग्रीवा झुकाई और कुछ पीपा के आगे चला। वह आया - वह आया - जी में इतना हर्ष हुआ कि वृंदा न होती तो मैं कब की नीचे दिखाती। वे इस पार आए, अचानक आ गए। किसी प्रतिष्ठित को यहाँ से आगे जाने का अवकाश न मिला कि आगू चल के ल्यावै - वे कदाचित् यही चाहते थे - घाट पर आए, घाट से उनके कुटीर की दो राहैं फूटी थीं - एक तो सूधी वंशीवट के तरे से होकर, दूसरी सूधी मेरे घर के तरे से होकर उनके घर को जाती थी। यह दूसरी राह टेढ़ी थी-पर उन्हें इसकी क्या चिंता जो सोचते। यह तो राह ही टेढ़ी थी जो उनने धरी। सूधी वाट छोड़ मेरी ही गली से निकले।
“जहाँ तल्वार चलती है उसी कूचे से जाना है”
यहाँ पहुँचते ही उनकी आँखैं कोने कोने दौंड़ीं मानौ मुझे ही ढूँढ़ती थीं - मैं तो ऊपर की खिरकी से उन्हैं निहारती थी। वे तो घोड़े पर थे। खोर में इधर उधर देखा -कोई न दिखा तब अपने कलेजे से पलाश की डार मय गुच्छे के मुझै हाथ से चौंका दिया - बोले कुछ नहीं पर चार आँखें हो गईं - हिये से हिया, दूर ही से मिल गया, ललाट खुजाने के मिस मुझै प्रणाम किया, वृंदा को देख हँस पड़े। सुलोचना की ओर टेढ़ी दृष्टि कर चले गए। घर के सन्मुख घोड़ा खड़ा कर दिया उतरे और कई भले आदमियों से कुछ सूक्ष्म वार्तालाप कर भीतर चले गए। वह दिन तो किसी प्रकार से कट गया पर होनहार न जाने क्या थी। श्यामसुंदर कई दिन तक मुझसे न मिले - मैं एक दिन सोचने लगी - 'हाय मुझसे क्या कोई अपराध हो गया है जो श्यामसुंदर सुधि तक नहीं लेते' - ऐसे सोच विचार करते करते कई घड़ी व्यतीत हो गईं। मैं नहीं जानती थी कि श्यामसुंदर भी उधर विरह अगिन में पच रहे हैं और केवल मेरे प्रेम की परीक्षा लेने की कोई युक्ति विचारते हैं। थोड़ी देर के उपरांत उन्ने मेरा स्मरण किया, पूर्ववत् सत्यवती को बुलाके मुझै बुलवाया और मैं उसी कविताकुटीर में गई। श्यामसुंदर मुझै देख उठ खड़े हुए - मेरा हाथ धर लिया और बड़े प्रेम से अपने कुरसी के निकट मुझे भी कुरसी दी, पर मेरी देह झुरसी सी देख खेद करने लगे और बार बार मेरा कुशल प्रश्न पूछा। नैन सजल हो गए - मैं भी सिसकने लगी। कुछ समय तक यही लीला रही। अंत को उनने कहा - “क्यौं अब मैं प्यारी कह सकता हूँ न - हाँ - तो प्यारी तुम्हारा अंत का पत्र मुझै दो दिन हुए मिला था” - इस पत्र को खीसे से निकाल पढ़ने लगे -
इस जगह को किताब से स्कैन करके भरना है... पेज - 69
इसको बाँच कर कहा - “क्यौं यह तुम्हारी ही लिखी है न?”
मैंने उत्तर दिया - “हाँ - है तो” -
श्यामसुंदर ने कहा - “फिर अब क्या मरजी है?”
मैंने कहा - “क्या मरजी - मरजी तो सब आप ही की चाहिए मैं तो तुम्हारी दासी के तुल्य हूँ” -
उन्होंने कहा - “मुझै इस बार यात्रा में बड़ा दुःख हुआ - प्राणयात्रा केवल प्राण बचाने को होती थी नहीं तो सचमुच आज तक प्राण की यात्रा हो जाती, तब तुम्हारे मुखचंद्र का कौन दरसन लेता।
नाम पाहरू रात दिन ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद यंत्रित जांहि प्रान केहि बाट॥
श्यामा श्यामा सामरी श्यामा सुंदर श्याम।
श्यामा श्यामा रट लगी श्यामा प्यारो नाम॥
बस इतने ही से सब समझ जाना।”
मैं कुछ विलंब तक सोचती रही कि क्या उत्तर दीजिए, पर श्यामसुंदर ने उठकर मेरा चुंबन लिया और बोले, “अब क्या विलंब करती हो - कुछ तो कहो -
हौं अधीर तुअ सामरी तुम बिनु जी अकुलात।
देह दसा तेरे सुमुख क्यौं न पसीजत जात - ॥”
मुझे तो कविता बनाना ज्ञात न था - उत्तर में पुराने दोहे कहे -
“प्रीति सीखिए ईख सौं जहँ जो रस की खान।
जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं यही प्रीति की बान॥”
श्यामसुदंर झटपट बोले -
“प्रीति सीखिए ईख पै गाँठहिं भरी मिठास।
कपट गाँठ नहिं राखिए प्रीति गाँठ दै गाँस॥
और भी प्यारी देखो विहारी ने कहा है -
दृग अरुझत टूटत जुरत चतुर चित प्रीति।
परत गाँठ दुरजन हिए दई नई यह रीति॥”
मैं हाथ जोर के बोली - “तुमसे कौन बराबरी करै - तुम पंडित और सर्वज्ञ हौ - जो चाहो सो कहो - पर कुछ लोक लाज, वेद तो समझो तुम्हैं कौन सिखावे”- श्यामसुंदर खड़े कँपते थे, बदन का थरथराना मैंने लखा। लिलार, कपोल और हाथों में पसीना आ गया, स्वर भंग और प्रलय के लक्षण लक्षित थे - पलकों में आँसू झलके -बैन सतराने लगे - रोमांच हो आया, मुख विवर्ण को प्राप्त हुआ, गात्र भी स्तंभ हो गया। श्यामसुंदर गिरने लगा - मैंने सम्हारने को किया पर तब तक वह भूमि पर आ गया मेरे चरण के नीचे गिर पड़ा, मैं अपने को ऐसी भूल गई कि मंच से न उठी, मेरा भी वही हाल हो गया था, पर शरीर में बुद्धि बनी रही। श्यामसुंदर को हूँत कराया - पर वे न बोले, मैंने फिर बुलाया, वे बड़े कातर हो गए थे, गद्गद स्वर से कुछ बोले पर मैं कुछ समझी भी नहीं, कातर नैनों से मेरी देखने लगे। मैंने अपने तन की ओर देखा फिर उनको देख, लज्जित हो गई। मुख नीचे कर लिया, एक पोथी के पत्र गिनने लगी, भूमि को पद के अँगूठे से खोदने लगी। आँख में आँसू की धार चलने लगी, ऊपर देखा न जाता था - साहस कर ऊपर निहारी, फिर मुख नीचा कर लिया। लंबी साँस ली, नैनों का जल आँचर से पोंछ डाला और श्यामसुंदर के मुख की ओर एक बार और साहस कर बोली - “मान्यवर! प्यारे! यह क्या व्यापार है? यह किस वेद का मार्ग है, यह किस न्याय की फक्किका है - किस वेदांत शास्त्र का मूल है - वा मोक्ष का उपाय हैं - कै तप का नियम है - वा स्वर्ग जाने की नसेनी है - मैं तुम्हारी दशा भली भाँति समझती हूँ पर इसी से तुम जान लोगे जब मैं कहोंगी कि 'ईश्वर की ओर ध्यान लगावो' - कि मैं स्त्री जाति और बाला भी होकर निर्बुद्धि नहीं हूँ - मुझे भी तो किसी का डर भय है कि नहीं - अकेली तो नहीं हूँ - माता पिता सुनके क्या कहैंगे - तुम तो निर्भय हो - पर मैं तो परवश हूँ - क्या ए सब तुम नहीं जानते - और भी धर्म अधर्म कुछ विचार है कि नहीं - कहाँ तुम और कहाँ मैं वर्णों में कुछ भेद है कि नहीं, भला इन सबों को तो सोचो - कहो क्या कहना है?”
श्यामसुंदर आँसू भरकर बोले - यदि शास्त्र तुमने बाँचा हो तो मैं कहूँ - न्याय वेदांत और वेदों का भेद यदि तुम जानती हो तो कहो? मेरी बात का प्रमाण करोगी वा नहीं? मेरी दशा देखती हौ कि नहीं? धर्म अधर्म की सूक्ष्मगति चीन्हती हो तो कहो? सुनो - धन्य है तुम्हारे वज्रमय हृदय को जो तनिक नहीं पिघलता मेरी ओर देखो और अपनी ओर देखो। मेरी करुणा और अपनी वीरता देखो। वेद शास्त्र की बात का यह उत्तर है - जो मेरे प्रवीन मित्र ने कहा है -
लोक लाज की गाठरी पहिले देहु डुबाय।
प्रेम सरोवर पंथ में पाछे राखो पाय॥
प्रेम सरोवर की यहै तीरथ गैल प्रमान।
लोकलाज की गैल को देहु तिलंजुलि दान॥
सो यह तो तुम कर ही चुकी हो। न मानो तो अपने पत्रों ही को देख लो। भला अपने लिखे का प्रमाण मानोगी कि नहीं? (संदूक से निकाल कर) भला देखो तो ये किसके हस्ताक्षर हैं? तो बस तुम्हारे मौन ने मेरे वचन को पुष्ट कर दिया - अब रहा धर्म अधर्म, उसका भी एक प्रकार से उत्तर हो चुका - नलदमयंती-दुष्यंतशकुंतला-राधाकृष्ण-विद्यासुंदर - इत्यादि गांधर्व विवाह के अनेक उदाहरण मिलैंगे - द्वापर में विशेष करके - और यह भी तो द्वापरयुग है न जहाँ भगवान् यदुनाथ स्वयं यादवों के सहित विराजमान हैं तो फिर अब क्या रहा - जब कहोगी यदुकुलचंद्र से स्वयं पुछवा देंगे।
यह ग्राम का नाम भी तो श्यामापुर किसी भले पुरुष ने धरा है - यहाँ की गली और खोरों में - यहाँ के वनों में - यहाँ के आराम अभिराम में - यहाँ के शेल पर्वतों में - यहाँ के नवग्राम और पुरातन ग्राम में - यहाँ के विलासी और विलासिनियों के सहेट निकुंज में - यहाँ के नदी नालों और निर्झरों के वाट में - जब तक सूर्य्य चंद्र हैं श्यामा श्याम सुंदर के प्रीति की कहानी चलैंगी, तौ प्यारी इतनी दूर चढ़ा के अब क्यौं हटती हौ! वर्णों के संबंध में कुछ दोष नहीं, देवयानी और ययाति के पावन चरित अद्यापि भूमंडल को पवित्र करते हैं। बस यह सब समझ लो - मुझ दीन के अनुराग और भक्ति को क्यौं तुच्छ करती हौ; यदि हमारी सेवा तुम्हैं भली न लगी हो तो उसकी बात ही निराली है - नहीं तो - बस अब आज्ञा दो” - इतना कह मेरे चरणों पर लोट गया। मैंने उसका सिर उठा कर दोनों जाँघों के बीच में रख लिया। बहुत प्रबोध दिया उन्हैं उठाय छाती से लगाया और बोली - “सुनो प्रान - तुम हमारे जीवन धन हौ, इनमें संदेह नहीं - मेरे तुम और मैं तुम्हारी हो चुकी। तुम्हारी प्रीति की परीक्षा हो चुकी - पर शीघ्रता मत करो - मैं तुम्हैं अवसर लिख भेजूँगी - सुलोचना और वृंदा सहाय करैंगी। सत्यवती न जानै - तब तक न जानै जब तक कार्य की सिद्धि न हो। तो मुझे विदा दो, सोचने का अवसर दो - और मेरे सुंदर उत्तर का पंथ जोहते रहो -अब मैं जाती हूँ -” इतना कह चलने को उद्यत हुई कि श्यामसुंदर ने मेरे हाथ धर एक बाहु मेरे गले में डाल दिया, अधरों को मेरे अधरों के पास ला बोला - “यदि आज्ञा हो तो एक बार सुधारस पीलें” - मैं चुप रही। श्यामसुंदर मेरा चुंबन ले बोले - “लो प्यारी हमारी तुम्हारी शुद्ध प्रीति का अंतिम चुंबन है - लो - बार बार लो।”
मैंने बड़े प्रेम से चूमा लिया पर लाज के मारे फिर सिर न उठा सकी - और चादर ओढ़ नैनों को छिपा घर के ओर चली।
श्यामसुंदर तब तक देखते थे जब तक मैं उनके नैनों के ओट न हुई। अंत को मोड़ के पास पहुँचते ही एक बार हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और वे ललचौंही नजर से मुझै देखते रहे। अब तो संध्या हो गयी थी। गली चलती थी - दीप प्रज्वलित थे - मुझै नाहक श्यामसुंदर इतनी देर विलमाए रहे थे - पर यह तो प्रेम का झोंका था - प्रेम कथा की धारा कभी रुक सकी है - ज्यौंही मैं मोड़ से अपने घर की ओर मुड़ी विष्णुशर्मा आ पहुँचा, लाल बनात का कानों को ढकनेवाला टोपा दिये रंगीन कौपेय का दोगा पहिने हाथ में कमंडलु लटकाए - श्वेत धोती पहिने - गटर माला गले में - पनाती बस्ते में पाठ की पोथी काँख में दबाए - नंगे पैर त्रिपुंड धारन किए - भस्म चढ़ाए - लंबी लंबी छाती को छूनेवाली श्वेत डाढ़ी फटकारे तांत्रिक का रूप बनाए आ पहुँचा - इसे देख मैं ऐसी डरी जैसे बाज की झपेट में लवा लुक जाता है वा सिंह को देख हरिनी सूख जाती है - बलिपशु जैसे यजमान को देखै - सर्प के सन्मुख छछूँदर - सिंचान के आगे मुनैया इनकी ऐसी गति मेरी भी उस समय हुई। आगे पाँव न उठे -कँपने लगी - करेजा धड़क उठा - पीली हरदी के गाँठ सी सूख गई - यद्यपि उन्होंने अभी तक कुछ भी नहीं कहा था तौ भी भयभीत हो काँपती थी - सच पूछो तो चोर का जी कितना - विष्णुशर्मा मुझे देख ठठके गृध्र दृष्टि से मुझे देखा और चीन्ह लिया, इनने मुझे श्यामसुंदर के कुटीर से निकलते देख लिया था या धनेश नाम के महाजन के द्वारे से देखा यह नहीं कह सक्ती पर जैसा मैं अभी कह चुकी मैं सूख तो गई थी। विष्णुशर्मा से और मुझसे कुछ नाता भी लगता था पर संबंध बहुत दिन पहले से टूट गया था। यही तो और भी भय का कारण था - विष्णुशर्मा बोला - “बाई कहाँ गई थी?”
मैंने कहा - “दर्शन के लिए।”
विष्णु - “अकेली रात को क्यौं गई?”
“अकेली तो नहीं थी वृंदा, सत्यवती, सुलोचना इत्यादि सभी तो रहीं - वे अगुआ गईं मैं पीछे रह गई थी” - इतना कहकर मैं शीघ्र चली और फिर उसको और पूछने के लिए अवसर न दिया। विष्णुशर्मा कुछ हकलाता था, इसी से दूसरा प्रश्न करने में विलंब लगा। इतने में तो मैं घर पहुँची और माँ के पास बैठी। माँ ने उस दिन कुछ पपची इत्यादि पक्वान्न बनाए थे। मुझसे खाने को कहा और मैं उधर सुमुख हुई। विष्णुशर्मा अपने घर गया पर मन में ये सब बातें गुनता गया। उसके मन में भरम पड़ गया था पर कोई प्रमाण न होने के कारण मौन रह गया तब भी जब अवसर पाता आपुस के लोगों में निंदा कर बैठता। श्यामसुंदर के भय से सभी काँपता था। जानबूझकर भी सभी अनजान सा बन जाता। यहाँ के एक और ग्रामाधीश महाशय थे। उनका नाम वज्रांग था। जैसा नाम वैसा ही गुण भी था, उनका नाम सुनते ही सब दुष्ट थर्रा जाते। प्रजा तो उनके हाथ की चकरी थी। भले और दुष्ट सभी मैन के नाक थे, जैसा कहते वैसा करते, उनके डर से शत्रुओं की अबला सदा रोया करतीं, शत्रु लोग स्वयं इधर निःशंक भ्रमन करने में शंकित रहते थे। इनका कुल सदा से उद्दंडता में विख्यात चला आया है। इनके पिता द्विजेंद्रकेसरी की कहानियाँ अद्यापि कही और गाई जाती हैं - जिस सुबली की संधि के निमित्त विदित शूरवीर कंचनपूराधीश ने भी पयान किया। बहुत कहाँ तक कहूँ -
“इंद्र काल हू सरिस जो आयसु लाँघै कोय।
यह प्रचंड भुजदंड मम प्रतिभट ताको होय॥”
ये महाशय श्यामसुंदर के परम मित्र और सहायक थे। सब विद्या लौकिक इन्हैं आती थी। सब बातों में कुशल-मुशल से उद्दंड भुजा - सदा कुशलपूर्वक सकुटुंब यहीं रहते थे। विष्णुशर्मा ने वज्रांग से सब कुछ कह दिया। वज्रांग ने हँस कर इन्हें डाटा और कहा, “तुम मौन रहो - तुमसे कुछ संबंध नहीं - अपनी सूधी राह आया जाया करो -” उस दिन से विष्णुशर्मा ने अपना मुँह सी लिया। पर चार कान होते ही बात बिजुली की चिनगारी की भाँति चारों ओर विथर जाती हैं। मेरे पिता ने भी किसी भाँति सुन लिया। इधर उधर अपने सखों से पूछताछ की पर कुछ जीव न पाया इसी से चुप रहे - पर मुझै संदेह है कि क्या वे हमारा और श्यामसुंदर का प्रेम नहीं जानते थे। क्यों नहीं? अवश्य, पर क्या प्रेम रखना बुरा है? प्रेम न रक्खै तो क्या द्वेष? अब उस बात से कुछ प्रयोजन नहीं। जिसके जी की वही जानैं - मुझै क्या पड़ी थी जो खुचुर करती। किंचित् काल में सब भूल गए - मैं तो यही जानती थी कि किसी को कुछ ज्ञात नहीं, इसी में भूली रही। क्या करूँ ऐसे समय में ऐसा ही होता है। इसी से सब कहते हैं प्रीति अंधी होती है। इसमें उपहास और निंदा सभी होती हैं पर जो मनुष्य इसमें फँसता है उसै कुछ भी नहीं सूझता। सूझै कैसे - आँख हों तब तो सूझै -
नेकु अवलोकँ जाके लोक उपहास होत
ताही के विलोकिबे को दीठि ललचात है।
जाही विरहागि से दमार सी लगी है देह
गेह सुधि भूली नेह नयो दिन रात है।
कैसे धरो धीर सिंह विकल शरीर भयो
पीर कहा जानै री अहीर बाकी जात है
मन समुझाय कीन्हौ केतिक उपाय तऊ
हाय कथा एते पर वाही की सुहात है॥
गतागत कई दिन बीते, श्यामसुंदर मेरे उत्तर का मग जोह रहे थे। मैं ऐसी निठुर हो गई कि कुछ नहीं लिखा। कारन इसका कुछ कपट या दगा नहीं था - केवल सकुच और लाज थी और ए दोनों स्वाभाविक थीं - अंत को श्यामसुंदर ने मुझै एक पत्र लिखा -
“प्रानप्यारी,
दोहा
“बरखि परुख पयद पंख करी टुक टूक।
तुलसी परी न चाहिए चतुर चातकहिं चूक॥
मग जोहते एक कल्प बीत गया। मन का मनोरथ सब मन ही में रीत गया। यह अनरीत कहाँ सीखी। परतीत देकर यह विश्वासघात! बलिहारी है! धन्य है। लाज नहीं लगती है? “चिरी को मरन बालकन को खेल है” - क्यों - ऐसा ही है न? हम इस पाती में तुम्हारी उस दिन की बात कुछ भी नहीं लिखते, वह तो सब तुम्हारे स्मृति के फलक पर लिखी ही होगी। तो सब विलंब क्यौं करती हौ। मैं अपनी दशा क्या लिखूँ - जो न जानती हो तो लिखूँ। प्रेम का हमारा तुम्हारा तत्व एक तो है, मन मेरा तुम्हारे पास है। सो प्यारी तुम मेरे मन को जानती हो, उसी पूछोगी तो सब खुल जायगा। बस पर इस दोहे को समझ के उत्तर शीघ्र देना - नहीं तो इधर कूच है,
दुखित धरनि लखि बरसि जल
घनउ पसीजे आय -
द्रवत न तुम घनश्याम क्यौं,
नाम दयानिधि पाय -
तुम्हारा
तृपित,”
इस पत्र का मेरे पर बड़ा असर हुआ। मेरे हृदय में सब बातैं व्याप गईं। मैं हाथ पर हाथ धरे रह गई। मन शोच-सरोवर में पड़ गया क्या लिखूँ और क्या न लिखूँ, यही जी में समानी। समय और अवसर के ओर विचार किया। मन कोई भाँति नहीं मानता था और मैं ये दोहे एक बेर श्यामसुंदर के पास कह चुकी थी -
मन बहलावत दिन गए महा कठिन भइ रैन।
कहा करौ कैसी करौ बिनु देखे नहिं चैन॥
छिन बैठे छिन उठि चलै छिन छिन ठाढ़ी होय।
घायल सी घूमत फिरे मरम न जानत कोय॥
और सत्य भी था। अब क्या उत्तर देवँ यही सोचती थी। यह तो जान गई कि जो उत्तर मैंने अपने जी में विचारा है वह कदापि उन्हैं भला न लगेगा पर जो काज रह के होता है वह अच्छा होता है। मैंने यह पत्र अंत में लिखा।
“प्राणधन! जीवन आधार! मेरी रात राम अंतःकरण से लेव तुम शीघ्रता बहुत करते हो। अवसर को नहीं परखते, यहाँ के भी वृत्तांत पर कुछ ध्यान धरो। मैं सब भाँति तुम्हारी ही हौं, लेव - अब प्रसन्न हुए? मैं तुमसे अवश्य मिलूँगी। बस बात दे चुकी हार दिया। “प्राण जायगा पर प्रन नहीं जायगा” दो बेर थोड़े ही जन्म होगा कि बात बदलैं। पर मेरी विनय यही है जो आप मानिए।
दोहा
कारज धीरे होत है काहे होत अधीर।
समय पाय तरुवर फरै केतिक सींचो नीर॥
क्यों कीजे ऐसो जतन जाते काज न होय।
परवत पर खोदै कुओं कैसे निकसै तोय॥
सुधरी विगरे वेगही विगरी फिर सुधरै न।
दूध फटे कांजी परैं सो फिर दूध बनै न॥
मैं फिर लिखूँगी। क्षमा करना।
तुम्हारी नेह देह तरुवर की
श्यामालता।”
इसपत्र को बाँचते ही श्यामसुंदर को हर्ष विषाद दोनों एक संग ही उपजे। हँसे और आँसू गिराए। सुलोचना से कहा जाव मेरी दशा कह देना और क्या कहूँ - इतना कह मौन हो गए। पत्र को फिर फिर बाँचा। हृदय में लगाकर कहा -
“श्लिष्यति चुंबति जलधर कल्पम्
हरिरूपगत इति तिमिरमनल्पम्।
निराश से हो गए। मुख से कुछ नहीं कहा भीतर चले गए। फिर बाहर आये। वसन धारन कर निकल पड़े, अकेले थे कोई अनुचर को भी साथ में न लिया। नदी के तीर घूमने लगे। चक्रवाक के जोड़े देखकर रोने लगे। फिर आँसू पोंछ आगे बढ़े, दूर ही से मुझै घाट में नहाते देख ठठुके। मैंने भी उन्हैं देख लिया, विलंब किया अंत को जब सब घाटवारी नहा धो के चली गईं - श्यामसुंदर आगे बढ़े, जहाँ मैं थी वहाँ तो कोई न था पर यदि दूसरे ओर कोई रहा भी हो तो मैंने देखा, उन्होंने भी नहीं देखा, बस मेरे पास आ गए, ऐसे दीन हो बोले कि मेरा जी नवनीत सा पिघल गया। मैं उन वचनों को क्या कहूँ - कहे नहीं जाते - छाती फटी जाती है, सुधि करते ही जी टूक-टूक होता है मुझै स्मरण मत करावो -” इतना कह श्यामा की बुद्धि भ्रंश हो गई - पुरातन वृत्तांत मन नेत्रों के सन्मुख नाचने लगा - मैंने कहा, “श्यामा - तुम्हारी संज्ञा कहाँ गई - इस विचारे श्यामसुंदर अभागे की कथा पूरी कर”- इतना कह प्रबोध किया।
श्यामा बोली - “मैं उनका विलाप नहीं कर सक्ती - अपने को अभागिनी तो कही दिया है। श्यामसुंदर मूर्छित होकर गिर पड़े - मैंने सोचा यह क्या अनर्थ हुआ। घाट की बाट - कोई न कोई आ ही जावै तो मेरी कितनी भारी दुर्दशा हो, और इधर इन्हैं छोड़ चली जाऊँ तो भी तो नहीं बनता। मैंने मन में कुछ ठान उनका हाथ पकड़ बोली - “उठो तो सही। मैं क्या भगी जाती हूँ जो तुम इतने अधीर हो गए। वाह - तुम तो पुरुष और मैं स्त्री हूँ - पर तुम में मुझसा भी धीरज नहीं है - उठो यह क्या करते हो -” ऐसा कह के उठाया। श्यामसुंदर उठे और मेरे कंधे के आसरे से खड़े हो गए। मैंने कहा, “यह क्या करते हो - मुझै घाट पर मत छुवो कोई दुष्ट देख लेगा तो वही विष्णुशर्मा - याद है न - उसी दिन सा हाल होगा।”
श्यामसुंदर ने उत्तर दिया - “मैं तो जानता हूँ - पर सुनो अब मुझै अधिक न सतावो। धीर नहीं धरा जाता।” इतना कह मुझै छाती से लगाया - मेरे कटि को बाँह में ले भली भाँति चुंबन कर अति गाढ़ आलिंगन किया। मैं तो जल का कलस माथे पर धरने लगी थी न तो इसे उतार सकी और न धर सकी। श्यामसुंदर ढीठ तो थे ही - मुझै एक परग भी आगे बढ़ने न दिया - मैं उनसे हार गई थी। कितना समझाया पर उनके मुख से यही निकला।
अधर कुसुम कोमल ललित तृषित मधुप रस लीन।
पिय न वाहि दै मधुर मधु गुनि ता कहँ अति दीन -॥
मैं हैरान हो गई इनसे, इनके मारे घाट भी छूटा सा जान पड़ैगा, मैंने चिरोरी किया “यह क्या करते हो।” इतना ज्यौंही कहा कोई दूर से ठुमरी की धुनि में यह कवत्ति गा उठा। हम लोग ठठक गए और एक दूसरे की ओर निहारने लगे - मुख से बात भी न निकली। ओठों पर हम दोनों के लखौटा लग गया और गीत सुनने लगे।
“छूटो गृह काज लोक लाज मनमोहिनी को
भूलो मनमोहन को मुरली बजायबो
देखि दिन द्वै में रसखान बात फैल जैहैं
सजनी कहाँ लौं चंद हाथन दुरायबो
काल ही कलिंदी तीर चितयो अचानक हू
दोहन को दोऊ मुरि मृदु मुसिक्यायबो
दोऊ परैं पैयाँ दोऊ लेत हैं बलैयाँ उन्हैं
भूलि गईं गैयाँ इन्हैं गागरि उठायबो।”
मैंने धीरे से कहा, “मैं तो कहती थी कि कोई देख लेगा भला अब कहो क्या होगा यह तो दुष्ट मरकंद की सी भाँख लगती है। जो वह हुआ तो बड़ा अनर्थ हुआ पर तुम अब ऐसा करो कि आगे हो जाव और मुझै अपने पीछे कर लेव, गली में मेरे ओर न देखना और न मकरंद की ओर जिस्में जान पड़ै कि तुम्हारा ध्यान किसी ओर नहीं है। वह छोटी सी पुस्तक जो तुम्हारे खीसे में है निकालकर बड़े ध्यानपूर्वक पढ़ते चलो, नैन वहीं गड़ा दो। यदि कोई मिलै भी तो बुलाने पर भी मत बोलना। जुहारै तो सिर भर हिला देना, ऊपर कदापि न देखना नहीं तो नैन अंतरंग भाव के सदा साक्षी रहते हैं छिपते नहीं और समय पर जैसी बनै वैसी चतुराई करना, तो चलो मेरे तुम्हारे साथ चलने में कोई दोष नहीं, ऐसा तो कई बार हुआ है और मेरे पिता ने भी कई बार देख लिया है पर कुछ नहीं बोले।”
इतना सुन वे भी यथोपदिष्ट रीति से चले। मकरंद मिला। बड़ी देर तक इस जुगल झाँकी के दरसन किएए पर श्यामसुंदर ने देखा भी नहीं, ऊँचे चढ़कर गली ही के पास नारद मिले, वे मुझसे कहने लगे - “क्यौं इतनी देर लगाई चल भौजी बुलाती है उसके ओषधि का समय है न - “श्यामसुंदर नारद की ओर तनिक न देखे और मैंने भी नारद को उत्तर न दिया। मैं नारद को सदा घृणा करती। उसका मुख मुझे नहीं सुहाता केवल दाद की आन से कुछ नहीं बोलती। किंचित् आगे बढ़कर श्यामसुंदर पढ़ते पढ़ते खड़े हो गए गली रुक गई। मैंने कहा, “चलिए मुझै जाने दो”, यह सुनकर चिहुँक से पड़े बोले, “कौन है? (ऊपर देखकर) श्यामा मैं पुस्तक पढ़ रहा था, तू कहाँ से आ गई प्रसंग टूट गया।” इतना कह हट गए, मैंने कुछ भी उत्तर न दिया और सूधी घर को चली गई। श्यामसुंदर ने भी अपने घर का मग लिया। भगवान् का दर्शन किया और उधर से सब मंदिरों की झाँकी झाँक फिर लौट आए। इतने में आठ बज गए। रात सापिन सी आई। बिना साथिन के काटना था पर उलटा वही इन्हैं काटने लगी, सेज बिछी थी। मैं थी कुछ व्यारी करके चिंता में मग्न - गरमी के दिन तो थे ही अटारी पर वृंदा और सत्यवती के साथ सोने के लिए बिछौने बिछाकर लेटी। चाँदनी छिटकी थी, मैं भी चाँदनी की शोभा आपनी चाँदनी पर से देखती थी, वृंदा और सत्यवती दोनों मेरे पास बैठीं थीं और कुछ बात चीत कर रहीं थीं। नीचे सुलोचना अपने आँगन में सोई सोई वृंदा से और कभी कभी मुझसे बातैं करती। जहाँ मैं सोई थी वहाँ से श्यामसुंदर के बिछौने स्पष्ट दिखाते थे। श्यामसुंदर ने उस दिन कुछ भी भोजन नहीं किया और चुप आकर सूनी सेज पर सो रहे। थोड़ी देर में रामचेरा और उद्धव दोनों पहुँचे, एक पंखा करने लगा और दूसरा पाँव मीजने लगा। श्यामसुंदर ने ऊपर देखकर कहा, “कुछ मत करो - न हमैं पंखा चाहिए न संवाहन तुम लोग जावो,” यह सुन रामचेरा और ऊधो दोनों सूधो मग धरे बाहर आ बैठे, झरप पड़ी थी। श्यामसुंदर अकेले लेटे थे, इतने में ऊधो ने जा हाथ जोड़ कर कहा।
“महाराज एक सितारिया आया है और चाहता है कि महाराज को अपना गुन दिखावै यहीं बाहर खड़ा है जैसी आज्ञा हो।”
श्यामसुंदर ने सुन लिया, कुछ सोच कर कहा, “आने दो पर मकरंद को भी बुला लेना।” ऊधो बोला, “जो हुकुम” यह कह मकरंद और सितारिया को साथ ले फिर जा उनके सन्मुख बोला, “महाराज, ए लोग सब आ गए।” परदा उठाई और वे सब कविता कुटीर में घुस गए मकरंद उनके उसीसे के निकट बैठा और सितारिया भी सन्मुख अपना वाद्य आगे धर सलाम कर बैठ गया।
श्यामसुंदर ने सितारिये की ओर देखा और मकरंद से कहा, “ए गुनी कहाँ से आए हैं और इनका गुन जस कैसा है?”
मकरंद ने कहा, “सौम्य - मुझसे इनसे प्राचीन परिचय है। ये एक बड़े भारी गुनी के पुत्र हैं जिनका नाम गान और वाद्य में इस देश में चिरकाल से विख्यात है, उनकी विद्या ऐसी उत्कृष्ट थी मानी गंधर्वों से गान नारद मुनि से बीना और तुंबुर से तंबुरा सीखा हो। मलार का जब कभी अलाप करते कुऋतु में भी बादल छा जाते। दीपक राग के टेरते ही आपसे आप दीप भी प्रज्वलित हो जाते थे। इनने बहुत कुछ राज दरबारों से कमाया था। उनका नाम रागसागर था। ये उन्हीं के पुत्र प्रेम लालित वीणाकंठ हैं। उनका निवास पहले क्षीरसागर के द्वीपांतर में था अब इसी श्यामापुर में अपने दिन काटते हैं। मैंने भी एक दो चीजैं इनसे ले ली हैं। आपका नाम और यश सुन चले आये हैं, आज्ञा हो तो अपना गुन सुनावैं।”
श्यामसुंदर बोला, “यह तो अच्छी बात है मेरा भी मन बहलेगा। तो अब होने दो पर तुम तबला ले लो।”
मकरंद तबला के बजाने में क्षिप्रकर था और सम विषम तालों का ज्ञान भी था। उधर वीनाकंठ ने भी सितार ठीक किया और श्यामसुंदर के आज्ञानुसार यह गजल गाई और बजाई।
ऐ तबीबो मेरे जीने के कुछ आसार नहीं
मत करो फिक्रो दवा
उस मसीहा को दिखा दो तो कुछ आजार नहीं
अभी हो जाए शिफा
कितना चाहा कि तेरे इश्क में मर जाएँ हम
पर निकलता नहीं दम
सच तो यों है कि हमैं इश्क सजावार नहीं
तेरी तकसीर है क्या
ऐ सनम तू ही मेरी शक्ल से रहता है रुका (रुसा)
है अजल भी तो खफा
बेवफा तुझसा जहाँ में कोई दिलदार नहीं
कीजिए किससे गिला
फस्ले गुल की न कफस में मुझे दे खुशखबरी
यां है बे बालो परी
लायके सैरे चमन अब ए दिलफगार नहीं
क्यौं रुलाती है सबा
सब वजादार तेरे आके कदम चूमते हैं
मैं तो आशिक हूँ तेरा
अपनी नजरों में कौन तुझसा तरहदार नहीं
है कसम खाने की जा
शमारुख का तेरे ऐ गुल! कोई परवाना नहीं
और अगर हूँ तो महीं
दामे काकुल का तेरे कोई गिरफ्तार नहीं
पेंच हम पर ए पड़ा
कतल ही गर मेरा मंजूर है ऐ उरविदा साज
खैर हाजिर है गुलू
कोई अरमाँ मुझै बुज हसरते दीदार नहीं
रुख से परदा तो उठा
देख पछतायगा मूनिस न तू दे मुफ्त में जाँ
तर्क कर इश्के बुताँ
फायदा इस्में सिवा रंज के ऐ यार नहीं
रख नजर सू ए खुदा -
इसको बडे़ ध्यानपूर्वक सुना, लंबी साँस ली और उन्हैं किसी प्रकार विदा दे आप अकेले ही लेट गए, अब दस बज गया था। गीत सुनते सुनते मेरी आँख नहीं लगी थी। अंत को जब सब उठ गए श्यामसुंदर विलाप करने लगा -
“आज की रात कैसे कटेगी इस गीत ने तो और मुझै बेकाम कर दिया - रह रह के मुझै प्रानप्यारी की सुधि आती है। यह रात मुझै साँपिन सी हो गयी मुझै कुछ भी नहीं सुहाता है। हाय रे ईश्वर! क्या करूँ कहाँ जाऊँ। मैं अब जी नहीं सकता। प्यारी! प्रानप्यारी! हाय! क्या तुम्हैं दया नहीं आती बस हो चुका, इतना व्यर्थ क्यों सताती हौ। हाय री पापिन! मैं कुछ भी न कर सका। तूने मेरी कुछ दया न देखी उस दिन की करुणा भूल गई? ठीक है इष्ट देवता का मन पाषाण से भी कठोर होता है। अब मेरे लिए कौन सी दिशा रह गई है जिधर जाऊँ।” इतना रोकर हाथ में तलवार उठाकर कहने लगा, “हाय रे निर्दई काम! तूने मुझै क्या-का-क्या कर डाला। देवी! अब तू ही मेरे कंठ में लग जा और मेरे दुःख का अंत कर। तू भी आज लौं ऐसे कोमल कंठ में न लगी होगी। आज इस विरही की गलबाहीं दे विरह को हटा, तेरी धार न बिगड़ैगी मैं फिर सान धरा दूँगा। पर मेरी कही तो कर - चांडालिन चंडिके! क्या तू भी मेरी वैरिन हो गई? लोग तो देवी की स्तुति और पूजा करके अपने सब दोष छुड़ाते हैं - मैंने इतनी तेरी स्तुति की, तू तनिक भी न पिघली; ठीक है - 'दुर्बले देवघातक:!' - मैं आज दुर्बल हूँ न।” इतना कह तलवार की धार ज्यौं ही गले से लगाया विचारा ऊधो पहुँच कर हाथ रोक लिया। श्यामसुंदर चिहुँक पड़े कि यह आधी रात को और कौन आपत्ति आई, ऊधो को देख बोले - “तू इतनी रात को कहाँ आ गया मैं तो अब” - ऊधो ने बात काटी और कहने लगा - “इसलिए तो आया - देखिए श्यामा वह अटारी पर चढ़ी चढ़ी आपकी सब व्यवस्था देखती थी सो उसने मुझै सुलोचना के द्वारा कह कर शीघ्र पठाया - वह आपका तरवार उठाना देखती थी -”
श्यामसुंदर ने बड़ी प्रीति से पूछा - “कहो क्या श्यामा का संदेसा है? वह काहे को कुछ कही होगी। मैंने उसे चीन्ह लिया - वह बड़ी पापिन और कपटिन हो गई है। न जाने उसके मन में क्या सूझा है जो मेरे से दीन की तनिक सुधि नहीं करती -”
ऊधो ने कहा - “महाराज आप ऐसे शीघ्र ही अधीर हो जाते हैं तो फिर कैसे काम होगा। उस दिन क्षण भर श्यामा के पत्र के आने में विलंब हुआ तो आपने निर्जन स्थान में मकरंद के गले से लग कितना विलाप किया -”
“हाँ किया तो सही था पर इसका कौन देखने वाला है - 'वन में मोर नाचा किसने देखा' इतने पर भी तो उस कोमल चित्तवाली को दया न आई,” यह श्यामसुंदर ने उत्तर दिया।
ऊधो बोला - “महाराज सुनिए श्यामा ने यह कहा है कि तुम जाकर उन्हैं समझा देव मैं अवश्य उन्हैं मिलूँगी और धीरज धरैं कल्ह कोई-न-कोई उपाय निकाल ही लूँगी।”
श्यामसुंदर ने कहा, “कह दे कि यदि कल्ह तक उत्तर न आया तो मेरी तिलांजुलि ही देनी पड़ेगी। तू जा मैं अब जैसी नींद लूँगा रात और सेज दोनों साक्षी रहैंगी।”
ऊधो चला आया। श्यामसुंदर मुख ढाँक बड़ी देर तक सोचते रहे, राम राम कर रात काटी इस पाटी से उस पाटी कराह कराह समय बिताया। मैं उनकी दशा कहाँ तक लिखूँ। उन्हैं मेरे बिना एक छिन दिन की भाँति और एक दिन कल्प के समान बीतता था। भोर हुआ। सब लोग अपने अपने काम में लगे पर वे अभी तक सेज ही पर पढ़े हैं। रामचेरा ने बरबस उठाया, मुख हाथ धुलाया, कुछ दुग्ध पान करके फिर भी लेट रहे राजकाज सब छूटा। ध्यान मेरा लगा के हृदय का कपाट बंद कर लिया। मुझे भी चिंता हुई। आज जो कुछ बात नहीं होती तो वे अवश्य आत्मघात कर लेंगे। इतना सोच भोजनोत्तर सुलोचना के घर गई और एक पत्र श्यामसुंदर को लिखकर उसी के द्वारा भिजवा दिया। यह पत्र कुछ विचित्र नहीं था, केवल सहेट का सूचक था। प्रकाश करने का प्रयोजन कुछ नहीं, समय तो साँझ का ठहरा था - स्थान 'धीर समीर' - वंशीवट के उस पार। ग्रीष्म के दिनों की साँझ कैसी मनोहर होती है, यही समागम का उत्तम समय था। चित्रोत्पला मंद मंद बहती थी। तरल तरंगों में सफरी उछलतीं थीं, हँसी की श्रेणी - चक्रवाक के जोड़े, कुररियों की कतार पार पार पर बैठी शोभित होती थी।
सुभल सलिल अवगाहन पाटल संगम सुरभि वन की पौन।
सुखद छहारे निदिया दिवस अंत रमनीय न भौन॥
तनिक तनिक करि चुंबन केसर सुकुमार डारन पै भौंर
सदय दलित मधु मंजरि सिरिसा सुमन पर रहैं झौर॥
ऐसे समय में श्यामसुंदर का और मेरा समागम विधि ने रचा था। दिनकर-कर ने पश्चिम दिशा के मुख में गुलाल लगा दिया। संध्या समय के पश्चिम दिशावलंबी मेघ नाना प्रकार के वर्ण दिखलाने लगे। सूर्य के रथ का पिछला भाग ही केवल दृष्टि पड़ता था। पूर्वाशा को छोड़ सूर्य नायक ने पश्चिमदिगंगना को सनाथ किया; वह भी इस नायक को पाकर रजनीपट मंडप में जा छिपी मानो मुझै समागम की पाटी सिखा दी; मैं अपने जी में डरी कि प्रथम समागम का आगम कैसे होता है - हँसी - मुसकिरानी - संध्या के समान जाप के सदृश लाल वसन धारन किए, सुलोचना आगे और वृंदा पीछे बीच में दोनों के मैं हो गई, जैसे दिन और रात्रि के बीच में संध्या हो। श्यामसुंदर ने दूर ही से देखा - उठे बैठे इधर उधर देखा, फिर मेरी ओर देख कर खड़े हो गए, मैं अब निकट पहुँची जाती थी। मेरा भी सकुच के मारे मुँह नीचा होता जाता था - पर श्यामसुंदर को बिन देखे लोचन कल नहीं लेते थे। सखियों के बीच में बार बार किसी न किसी मिस से देख लेती थी। अब बहुत ही निकट गई। उनकी मेरे तन को देख चिरकाल की प्यास बुझाई और मुझे झपट कर अंक से लगा लिया - वाह रे दिन - धन्य है वह घरी जिसमें इस आनंद की लूट हुई। मैं उनके और वे मेरे बदन को देख देख भी नहीं अघाते थे। मैं चंपकमाल सी उनके हृदय से लपट गई। प्रथम समागम में भी इतनी ढिठाई स्वभाव वश - या केवल चतुराई के कारन होती है, पर मैं इस नवीन संगम के दिन यद्यपि नवोढ़ा रही तौ भी मुझे श्यामसुंदर ने पहले से सब कुछ सिखा दिया था। मैंने कहा - “प्यारे अपने जी की पीर मिटा लो” पर उनने कुछ उत्तर न दिया वे अवाक्य हो गए उन्हैं कोई उत्तर न सूझा, केवल ललचोहीं और प्यासी दृष्टि से मेरी दृष्टि पर टकटकी लगाए रहे। जुगल त्रिलोचनों पर जुगल कमल सनाल समर्पण किए अथवा तन सरोवर में पैठ चक्रवाक के दो बच्चों को हाथ से पुचकारते। चुंबन किया आलिंगन किया - मेरा तो बस अब वही हाल हो गया था जैसा पजनेस ने कहा है।
“बैठी विधुवदनी कृशोदरी दरीची बीच
खीच पी निसंक परजंक पर लै गयो।
पजन सुजान कवि लपटी लला के गरे
झपटी सुनीवी कर जंघन सबे गयो।
गोरो गोरो भोरो मुख सोहै रति भीत पीत
रति क्रम रक्त ह्वै अंत सो रजै गयो।
मानो पोखराज ते पिरोजा भयो मानिक भो
मानिक भए पै नील मनि नग ह्वै गयो।”
अधिक क्या कहूँ श्यामसुंदर ने मनभाई कर लिया। मुझै भी उनका इतना मोह लगा था कि रात दिन समागम की कथा मुख से नहीं छूटती थी।
श्यामसुंदर ने मुझै अपनी अंक से वियुक्त नहीं किया। वे तो मुझै अपने हृदय से चपकाए रहे - बार बार चुंबन का लेना देना होता था मानौ जोबन की हाट आज सेंत में लुटी जाती हो। वे मुझे गले से लगा बोले - “सुनो प्यारी -
जियतें सो छबि टरत न टारी
मुसकिराय मो तन गलबाहीं दै चूम्यौ जब प्यारी। ध्रुव।
करि इक ठौर बैठि रस बातें भुजा भुजा सो मेली
मुख में मुख उरसो उरझान्यो उरज गेंद अलबेली।
ताहीं समैं निसंक अंक मधि भरि भुज जबै लगाई
ह्वै ससंक करि बंक नैन मनु डक मारि लपिटाई।
अधर अधर धर धरकत हियरो कच धर जबै बटोप्यौ
कदली चाँपि चारु रस सुंदर सिसकी भरति निहोप्यौ।
लाय लंक कर कंपित छतियन मुतियन माल गिरानी
बाल बेलि मदनासव छाकी सुरत सीच तन पानी।
श्यामा हू तन पुलकित पल्लव अगुरिन मुख निज ढाँपी
चूमत मोहि निवाप्यौ ता छन मनौ प्रेम रस नापी
जलकन कलित सरीर सरोरुह झलकत बुंद सुहाते
विलुलित अलकन लपटि ललाटहिं पौनहु सुखद बहाते।
तीर नीर ग्रीषम के वासर सिकता सेज सुहाई
मनौ मदन निज काम जानि कै मुक्त कूर बगराई।
ता पर बहत वयार सुपावन सुरत परिश्रम टारी
जगमोहन सो दुर्लभ सपने सुख संगम बलिहारी।”
इसका मेरे सामने एक चित्र सा लिख गया। श्यामा के विराम लेती ही वह प्रचंडा देवी जिसका वर्णन कर चुके हैं और जो हमें स्वप्न में मंत्र बता गई थी प्रकट हुई, बड़े बड़े स्वेत दाँत चमके 'दुर्दर्शदशनोज्ज्वला' - विटप की शाखा से लंबे लंबे बाहु पसार जादू की छड़ी ज्यौंही निकाल श्यामा की चोटी से छुवाया बादल छा गए अंधकार छा गया और वह मनमोहिनी प्रानप्यारी जीवन अवलंब की शाखा श्यामसुंदरी श्यामा लोप हो गई - तिमिर ने सब लोप कर दिया। जिधर देखो उधर अंधकार।
इति द्वितीय स्वप्नः।