प्रथम याम का स्वप्न / श्यामास्वप्न / ठाकुर जगमोहन सिंह
सोवत सरोज मुखी सपने मिली री मोहि
तारापति तारन समेत छिति छायो री।
मंडप वितान लता पातिन को तान तान
चातक चकोर मोर रोरहु मचायो री।।
कंजकर कोमल पकरि जगमोहन जू
अधर गुलाब चूमि मधुप लुभायो री।
चूकृत सों बैरिन कहा से खुली धों आँख
हाय प्रान प्यारी हाय कंठ ना लगायो री।।
आज भोर यदि तमचोर के रोर से, जो निकट की खोर ही में जोर से सोर किया, नींद न खुल जाती तो न जाने क्या क्या वस्तु देखने में आती। इतने ही में किसी महात्मा ने ऐसी परभाती गाई कि फिर वह आकाश संपत्ति हाथ न आई! वाह रे ईश्वर! तेरे सरीखा जंजालिया कोई जालिया भी न भी न निकलैगा। तेरे रूप और गुण दोनों वर्णन के बाहर हैं! आज क्या क्या तमाशे दिखलाए, यह तो व्यर्थ था क्यौंकि प्रतिदिन इस संसार में तू तमाशा दिखलाता ही है। कोई निराशा में सिर पीट रहा है, कोई जीवाशा में भूला है, कोई मिथ्याशा ही कर रहा है, कोई किसी के नैन के चैन का प्यासा है, और जल विहीन दीन मीन के सदृश तलफ रहा है - बस। इन सब बातों का क्या प्रयोजन! जो कहना है आरंभ करता हूँ - आज का स्वप्न ऐसा विचित्र है कि यदि उसका चित्र लिख लिया जाय तौ भी भला लगै। कल्ह संध्या को ऐसी बदली छाई कि मेरे सिर में पीड़ा आई। जो कुछ बन पड़ा व्यालू करके लंबी तान अपने बिछौनों में आ अड़ा। लेटते देर न हुई कि नींद ने चपेट ही लिया। पहले तो ऐसा सुख लगा कि दु:ख ही भगा। शीत की रात - अच्छे गरम और नरम बिछौने सोने के लिए - 'जाढ़ा जाय रुई कि दुई' - इसी पुरानी कहावत को स्मरण रख नींद का सुख अनुभव किया। पलकैं झपने लगीं' - अधखुली होकर बंद हो गई। कुछ काल तक स्मृति रही, जब तक स्मृति रही अपने कृत्य को शोचा, और फिर कुछ काल तक जगत का हाल बेहाल विचारते रहे - अब नहीं जानते क्या हुए - कहाँ गए, स्मृति कहाँ विलानी - जी में क्या समानी, पानी कि पौन - ईंट या पत्थर - मौन रहना पड़ा। जिधर देखा केवल शैल पर्वत ही देखे। मन में चिरकाल से ध्यान था कि यदि ईश्वर ज्ञान दे तो तम में से म्यान से तलवार की नाई भ्रम को निकाल अनन्य भाव से किसी पावन बिजन बन में धूनी लगा कर प्यारी श्यामा के नाम की माला टारैं - जीवन भी हारैं - तन मन धन सब वारैं - बरन उस 'मनोरथ मंदिर की नवीन मूर्ति' के चरण कमल युगलों पर सुमन समर्पण करते करते अपने शेष दिन बितावैं। गतागत इसी जोर में नींद की डोर ने मुझे फाँस कर गाँस लिया। गाँसना क्या साक्षात् निद्राप्रियता ने मुझै गाढ़ालिंगन करके अपनी जुगल वाहलतिकाओं से फाँस अंक में अंकही की भाँति लगा लिया। बस, देखता क्या हूँ कि मैं एक अपूर्व मनोहर भूमि पर विचरता हूँ, आमने सामने पर्वत, उत्तर भाग में एक बड़ी भारी नदी, कमल फूले हैं, कोकनद की पांती शोक को हटाती है। कुमुद भी एक ओर मुदयुक्त होकर निरख रहे हैं। इधर चातक पी पी रट रट कर अपने पुराने पातक का प्रायश्चित्त करता है। उधर काली कोयल भी अमराइयों में पंचम सुर से गा रही है। आम की मंजरी सभों को सकाम करती है। वक्र और अधखुले पलास अपने पलासों के गर्व में टेढ़े हो रहे हैं। मालती की लती-चमेली-पाटल-चंपा-इत्यादि सब के सब अपने-अपने राव चाव में मगन हो रहे हैं - पर्वत की अनूपम शोभा कही नहीं जाती। सरिता उसी की नव वधू सी हो उसकी गोद से निकलकर और भी प्रमोद को बढ़ाती है। पर्वत की कंदरा सिंह के नाद से प्रतिध्वनित हो रही है - इधर उस नाद को सुन गवय और गज भी भीत होकर पलीत के भाँति चिक्कार मार कर भागते हैं - हरिन अपनी प्यारी हरिणी के साथ - (हा हरिणयन!) कूदते जाते हैं - मयूरों के जूथ का वरूथ उड़ा जाता है - बादल छा गए - चंद्रमा छिप गए - पर बीच-बीच में उधर जाने से कभी कभी प्रकाश भी करते हैं -
कबहुँ जामिनी होत जुन्हैया डसि उलटी हो जात,
मंत्र न फुरत तंत्र नहिं लागत प्रीति सिरानी जात -
यह सूरदास का भजन स्मरण होता है इस प्रकार क्षण भर हेमंत में भी पावस का समाज हो गया था पर अंत को अकाल ही के मेघ तो थे क्षण में प्रवात से विथुर गए आकाश खुल गए।
यह हेमंत का समय था, गुलाब से करवाली उषा ने चित्रोत्पला के उर से अंधकार के मेघ दूर किये और उदय होते हुये भानु की किरणों का प्रतिबिंब लहरों में लहराने लगा। इस पुराने ग्राम के एक ओर नदी के तीर से पलास, आम, ताल और खजूर के महाबन पर्यंत प्रचुर शालि की भीत अपने सुनहले सिर कपाती थी - दूसरे ओर संपन्न गोचारण भूमि वज्रांग के गाय गोरुओं से आच्छादित थी। परंतु जब सूर्य्य का प्रकाश ऐसे मनोहर दृश्य पर ग्राम, मंदिर और महलों पर फैला उस डायन के भुइंहरे का कारागार अँधेरा ही रहा। उस भयानक स्थान के हतभागे बंदियों में से एक युवा को छोड़ जो विद्यार्थी के रूप में था किसी ने अपनी एकांत कोठरी की खिड़की पर दृष्टि नहीं डाली। इस भुइंहरे के एक कोने में प्याँर पर बैठा प्रथम किरण की आशा लगाये पहरा दे रहा था। छै दीर्घ मास उसी निर्जर कोठरी में सिसक सिसक के बिताये, समय बीता परंतु प्रत्येक दिवस और घंटों के साथ जो दुःख के बोझ के मारे मंद मंद पग धरते थे सब नित्य आशा का अंत हुआ, उसकी सब उमंगों को उस बंदीगृह समुद्र से निकलने के लिये मोक्ष की कोई नौका न दिखी। हाँ - छै महीने इसी आशा से उस नरक में काटे कि कभी तो कोई न्यायाधीश न्याय करेगा बहुतेरा रोया-गाया - प्रार्थना की, पर सब व्यर्थ, उस आधी रात सी खोह की अँधियारी में भी अपने विक्षिप्त चित्त पर परदा ढालने के लिये नेत्र मूँद लेता तौ भी वे मनोरथ हजारों भाँति के भयानक रूप देखते थे कि उसने अपने कोठरी के अंधकार से डर कर प्रकाश देखने की इच्छा की, इस युवा का अपराध क्या था? इसने प्रेम किया था अद्यापि प्रेम करता था एक उत्तम कुल की स्त्री - इसको यह मोह और उन्मत्तता से प्रेम करता था। आह प्यारी तेरी मूर्ति भी इस कारागार के अंधकार में कभी-कभी मुसकिरा जाती है - उस तारा की भाँति जो मेघ के बीच में चमक कर समुद्र के कोप में पड़े हुये निराश मल्लाहों को प्रसन्न करती है।
हा, तुझ पर वह अत्यंत प्रेम रखता था, ऐसे चाव से चाहता था। जहाँ तक मनुष्य की शक्ति है - क्या तेरा कोमल जी उसके उत्तर में न धड़कता होगा?
पहिले जुगों के राजों, लोगों और न्यायकारियों के दृष्टि में अपने से ऊँची जाति का आकांक्षी और विशेष कर ब्राह्मणियों पर नेत्र लगाने वाला पापी और हत्यारा गिना जाता था - वह कैसा ही सत्पुरुष और ऊँचे कुल का न हो ब्राह्मण की कन्या से विवाह करना घोर नरक में पड़ना या अग्नि के मुख में जलना था। मनु के समय में ब्राह्मणों की कैसी उन्नति और अनाथ शूद्रों की कैसी दुर्दशा थी नीचे लिखे हुए श्लोकों से प्रकट होगी। एक तो आकाश और दूसरा पातालवत् था। एक तो दूध दूसरा पानी -एक तो सोना दूसरा पीतल - एक तो स्वतंत्र दूसरा कैसा परतंत्र और आजीवांत सभों का दास, एक तो पारस दूसरा पाषाण - एक तो आम, दूसरा बबूर - एक तो सजीव दूसरा जड़, निर्जीव, केवल वृक्ष की भाँति उगने, फूलने और मुरझाने के लिये था। वाह रे समय! ब्राह्मणों ही के कर में कलम था मनमाना जो आया घिस दिया राजाओं पर ऐसा बल रखते थे कि वे इनके मोम की नाक थे, या काष्ठ पुत्तलिका जिसकी डोर उनके हाथ में थी -
शूद्रो गुप्तमगुप्तं वा द्वैजातं वर्णमावसन्।।
अगुप्तमंग सर्वस्वैर्गुप्तं सर्वेण हीयते।।374/8
अर्थ - यदि शूद्र किसी द्विज की स्त्री से गमन करेगा चाहै वह गृह में रक्षित हो वा अरक्षित इस प्रकार दंडय होगा - यदि अरक्षित हो तो उसका वह अंग काट डाला जायगा और धन भी सब ले लिया जायगा - यदि रक्षित हो तो वह सब से हीन कर दिया जायगा।
उभावपि तु तावेव ब्रह्मण्या गुप्तया सह।।
विप्लुतौ शूद्रवद्दराडयौ दग्धव्यौ वा कटाग्निना।।377/8
यदि वे दोनौं (वैश्य और शूद्र) ब्राह्मणी-गमन करै जो रक्षिता है तो शूद्रवत् दंड होगा वा सूखे भुसे के आग में जला दिया जायगा -
मौण्डयं प्राणान्तिको दण्डो ब्राह्मणस्य विधीयते।।
इतरेषान्तु वर्णानां दंड: प्राणान्तिको भवेत्।।379/8
न जातु ब्राह्मणं हन्यात्सर्वपापेष्वपि स्थितंम्।।
राष्ट्रादेनम्बहिष्कुर्य्यात्समग्रधनमक्षतम् ।।380/8
न ब्राह्मणवधाद्भूयानधर्मो विद्यते भुवि।।
तस्मादस्य वधं राजा मनसापि न चिन्तयेत्।।381/8
अर्थात् - ब्राह्मण का मूड़ मुड़वा देना यही दंड वध के तुल्य है पर और दूसरे वर्णों का वध केवल प्राण ही लेने से होता है।” वाह अच्छा वध है - ब्राह्मणों का अभ्यास तो नित्य ही मूड़ मुड़ाने का है - देखो गंगा के तीर पर हजारों मुंडी बैठे रहते हैं और नाऊ लोग रोज ही उनको मूड़ते हैं।
चाहे कैसहू पाप न किया हो ब्राह्मण को कभी नहीं मारना पर सब धन को बचाकर (अक्षत) केवल राज से बाहर कर देना चाहिए।
संसार में ब्राह्मण वध से बढ़ कर और कोई अधर्म नहीं है इसलिए इसका वध राजा मन से भी न विचारे -
एतदेव व्रतं कृत्स्नं षण्मासान् शूद्रहाचरेत्॥
वृषभैकादशा वापि दद्याद्विपाय गा: सिता:॥130/11
मार्जारनकुलौ हत्वा चाषं मूण्डूकमेव च॥
श्वगोधोलूककाकांश्च शूद्रहत्याव्रतं चरेत्॥131/11
ब्रह्महा द्वाद्वशसमा: कुटीं कृत्वा वने वसेत्॥
भैक्षाश्यात्मविशुद्व्यर्थे कृत्वा शवशिरोध्वजम्॥73/11
शूद्र को मारने वाला छः मास (73-81) या तो उक्त व्रत करै अथवा 11 बैल या 11 श्वेत गैया ब्राह्मण को दे -130
फिर बिल्ली नेवरा इत्यादि के मारने का प्रायश्चित्त शूद्रव्रत् है - तो शूद्र बिल्ली के तुल्य हुआ इस बिचारे का जीव बड़ा सस्ता था परंतु ब्राह्मण को मारकर 12 वर्ष कुटी बनाकर वन में बसे और उसके मुर्दे के खपरोही में अपनी शुद्धि के लिये भीख माँगे। इससे ब्राह्मणों का कितना मान था जाना जायगा।
उसकी प्यारी के पिता के कारण यह बंदीगृह में पड़ा था यद्यपि कृत्रिम दोषों का आरोप भी न था। ऐसे ऐसे बलात्कार प्राचीन समय में जब कि छोटे छोटे भी राजों को अमित अधिकार था होते थे और उसी अंधाधुंदी में न्याय होने में विलंब हुआ।
इस हेतु इस निराशित सत्कुलोत्पन्न और सभ्य युवा के हृदय में उन प्रभुओं से बदला लेने की उमंगैं उठा करतीं, उसके दुःख और वेदना ऐसी प्रबल थी कि उसी उमंग में वह यह कह उठता क्या कोई शक्ति आकाश की वा पाताल की मेरा विनय नहीं सुनती? क्या मुझै त्राण न करैगी? क्या मैं अपनी प्रिया के प्रेम और बदला लेने की आशा तज दूँ? नहीं नहीं यदि मुझै क्षण भर भी कोई वैर भँजाने का अवकाश दे तो मैं वैकुंठ और प्रेम दोनों दे दूँ।
यह वाक्य उसने उसी पियांर पर बैठे बैठे सहस्रों बार कहता प्रकाश की आशा लगाए था कि भुइंहरे के कारागार के फाटक का अर्गल किसी ने पीछे खींचा, लोहे की सांकर खनखनाती बाहर पत्थर के गच पर गिरी और द्वारपाल हाथ में दिया लिये आया।
प्रकाश उस चिन्ता कवलित युवा के मुख पर पड़ा जिस्के भूरे बाल, काली आँख और विमल आनन उसके किसी सत्कुलीन क्षत्रिय होने के सूचित थे। "मुझसे क्या माँगते हो” युवा अपने कटासन से युगपत् चिहुकता हुआ पूरा खड़ा होकर बोला, “यह तो मेरे रातिव का समय नहीं है। सचमुच यह काम तो आप रात को करते हो। अब तो प्रातःकाल होता होगा, पर क्या आप यह कहने आये हो कि मैं बंदीगृह से मोक्ष हुआ,” युवा ने ये शब्द बड़ी जल्दी कहे और प्रसन्न होकर बोला “हाँ, मेरे मोक्ष की आज्ञा ल्याए हो तो कहो,” इतना कह हाथ बाँध खड़ा हो रहा।
जेलर ने कहा, “युवक! ऐसे स्थान में सुख समाचार सुनने की अपेक्षा दुःखदायक समाचार सुनने को सदा प्रस्तुत रहना चाहिए तौ भी आज है।”
युवक ने कहा, “क्या आज मैं यहाँ से छूटूँगा।” युवा का पीला मुख आनंद में प्रफुल्लित हो गया और मोक्ष की आशा के अंकुर उदय हुए।
जेलर बोला, “हे युवक मैं तेरे मोक्ष का समाचार नहीं लाया परंतु यह कहने आया हूँ कि आज जब सूर्य की किरनैं तेरी अँधेरी कोठरी को प्रकाश करैंगीं तब तक कोई न कोई तुझे तेरे अपराधों का निर्णय सुनवाने के लिए न्यायाधीश राजपुरुष के सम्मुख ले जायगा। इस्से तू अपने दोषों को मिटाने के लिए तत्पर रह।”
युवा आनंदमग्न होकर बोला, “भला आज यह दिन भी तो आया - आप नहीं जानते कि आप मेरे मोक्ष की आशा देने आये हो। मैं अपने अपराधों को भली भाँति सम्मार्जन करूँगा।”
जेलर ने उत्तर दिया, “भाई ऐसे व्यर्थ मनोरथों से मोक्ष की आशा मत कर -'आशा वै परमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम्' पर यह तो कह कि तेरे ऊपर कौन सा अपराध लगाया गया है?”
युवा ने प्रत्युत्तर दिया कि “यह सब कपटनाग की करनी है - उनके मित्र और कृपापात्र कार्य्याध्यक्ष वसिष्ठ जी की कन्या जो रूप की धन्या थी उसे निकाल ले जाने और बलात् विवाह करने का अपराध लगाया गया है। परंतु मेरा अविचल प्रेम उसके हेतु अत्यंत निर्मल, अत्यंत पावन और अत्यंत निःस्वार्थी था और अद्यापि है। आश्चर्य है कि इतने पर भी मैं ऐसा घात और बलात्कार करने का दोषी हुआ!”
जेलर बोला, “क्या तुम नहीं जानते कि उसकी सगाई जनम ही से जगत विदित रत्नधाम के प्रतिष्ठित श्रीमान् वर्णाश्रमाधीश महाराज प्रबोधचंद्रोदय के पुत्र से ही हो चुकी है?”
“मैं तो यह जानता हूँ पर मुझसे उस्से एक समय समागम हुआ और उसने मुझे केवल कृपापात्र ही नहीं वरन प्रेमपात्र भी बना लिया और पहले ही वार इस दीन को उसने अपना किया और कोई राजकुमार सा माना,” इतना कह युवा ने लंबी साँस ली।
जेलर ने पूछा, “तो क्या तुमने अपना अपराध स्वीकार कर लिया है?” युवा ने कहा, “हैं! क्या उन्हें अपराध गिनते हो। प्रकृति के अनुसार किसी को प्रेम करना जिस स्वभाव से बड़े बड़े अभिमानी मुनि भी नहीं छूटे हैं अपराध समझते हो?”
जेलर ने कहा, “प्रेम की दृष्टि से किसी ऐसी स्त्री को देखना जिसकी सगाई किसी महापुरुष से हो चुकी हो पाप है और इसका दंड केवल वध है।”
“वध!” अपने दिन निकट जान वह दुःखी बोला, “यह तो बड़ा भयानक है ऐसा नहीं हो सक्ता तुम स्वप्न देखते हो वा तुम्हारी भ्रांति है मनुष्यों का अन्याव और कुटिलता इस सीमा तक नहीं पहुँचती।”
“प्रबोधचंद्रोदय या कपटनाग से बलिष्ठ शत्रु हों तो ऐसा होना कुछ आश्चर्य नहीं। जिस दिन तुम कारागार में बैठे थे उसी दिन तुम्हारा अंत हो चुका था।”
युवा ने कहा, “तुम न्यायाधीश के चित्त को कैसे जान्ते हो तुम उसके एक चाकर हो वह ऐसे चित्त के विकारों को तुमसे कभी नहीं कहने का।”
जेलर ने कहा, “मैं इसे भुगत चुका हूँ और सच पूछो तो मैं अभी तक बंदी हूँ मेरे प्राण केवल इसी प्रतिज्ञा पर बचे कि जन्म भर मैं जेलर रह अपने शेष दिन बिताऊँगा।” युवा ने कहा, “तुम्हारा अपराध क्या था?” जेलर ने उत्तर दिया, “इसको क्या पूछते हो। पर पहिये के नीचे पिसकर मरना यही मुझपर दंड हुआ था।”
“तो इस प्रकार दासत्व छोड़कर बचने का क्या और कोई उपाय न था?” जेलर ने कहा, “कुछ नहीं, पर ठहरो एक बात भूल गया था एक बड़ा पाप इस्से भी बढ़कर था उस पर प्राय: आरूढ़ हो चुका था किंतु मेरे भले स्वभाव ने मुझे बचाया। इसी भाँति दास बनकर अपने दिन बिताना अच्छा पर उस पाप को करके यदि इंद्र या कुबेर हो जाऊँ तौ भी निषिद्ध है।”
युवा काँप कर बोला, “क्या वह ऐसा भयानक था?” जेलर ने उत्तर दिया, “बस मुझसे मत कहलाव,” इतना कह वह ऐसा ऐंठा और डरा मानो इसके भीतर कोई भूत या यमदूत हो। युवा ने प्रार्थना की, “दया कर इसे बताने का वरदान तो अवश्य दीजिये मेरा चित्त इसके सुन्ने को बड़ा व्यग्र और चिंताकुल हो रहा है देखो यह मेरी थैली है और उसकी द्रव्य सब तुम्हारी है। मैं तुझे देता हूँ कदाचित् इससे तुम्हारा कोई काम निकले पर मेरा तो कुछ भी नहीं।”
जेलर थैली को पंजों में पकड़कर बोला, “इस सुवर्ण के लिए अनेक धन्यवाद है। यह एक ऐसी बात है कि जिससे मेरी नाड़ी शिथिल और आँतें संकुचित हो जातीं तो भी सुनो यह बात प्रसिद्ध है पर केवल इसी कारागार के भीतों के भीतर ही। डेढ़ सै बरस पहिले एक विद्वान् जिसके रात दिन उस गुप्त महा-विद्या के रहस्य ढूँढ़ने में बीते थे इसी बंदीगृह का बंदी हुआ। वह तंत्र में ऐसा निपुण था और ऐसे ऐसे मंत्र जंत्र जानता था कि प्रेत, पिशाच, भूत, बेताल, डाकिनी, शाकिनी, योगिनी सब उसके वशीभूत हो गई थी। मेरी भाँति उसको भी पहिये के नीचे दब कर वध का दंड हुआ था परंतु केवल इसी विद्या के बल से बच गया क्योंकि उसने एक मंत्र पढ़कर नरक के एक पिशाच को सिद्ध किया और केवल स्वतंत्रता, धन, पौरुष, अधिकार और दीर्घायु के हेतु अपना तन, आत्मा और स्वयम् आप उसके हाथ बिक गया। वह मंत्र जो इसने सिद्ध किया था अद्यावधि इसी भीत पर गहरा खुदा है लोग कहते हैं कि यह उसी के हाथ का खोदा है और इसके मिटाने में मनुष्य जाति मात्र का परिश्रम व्यर्थ है। बस यही बात थी और अभी तक जो चाहे इतना बलिदान देकर सिद्ध कर ले।” ऐसा कहते जेलर सिर से पैर तक कँपता हाथ में दिया को उस ओर उठाया जिस भीत के मूल में इस युवा की सेज थी और बोला, “भाई बचाना देखो यह मंत्र अभी तक लिखा है।” युवा ने नेत्र उठाकर देखा पर जेलर ने डरकर कहा, “नहीं भाई इसे पढ़ना मत नहीं तो इसके बाँचते ही वह प्रेत अपनी भयावनी मूर्ति ले आ खड़ा होगा क्योंकि यह आकर्षक मंत्र है!”
इतना कह जेलर ने दीपक हटा लिया और आप भी कुछ हटा; बोला, “ले भाई अब मैं जाता हूँ कोई आध घंटे के बीच में राजदूत आ पहुँचेंगे,” इतना कह जेलर दीप को ले चला गया और वह विचारा युवा फिर भी अंधकार में डूब गया।
एक बार फिर यह अकेला हुआ और बोला, “उसने अच्छा किया जो इस पर ध्यान नहीं दिया ईश्वर मुझे भी इस लोभ और मोह से बचावे - पर हा प्यारी! प्राणप्यारी क्या तू जानती है कि मैं तेरे लिये यह सब न करूँगा? देख इस आधी घड़ी में मेरा चित्त कैसा बदल गया इस भयदायक कथा को जो मेरे कान में घंटे की भाँति बजती और जिसकी झांईं मेरे हृदय में बोलती है, न सुनता तो अच्छा होता, मेरे चित्त में कैसे कैसे संकल्प उठते हैं वो मुझ को ऐसे भयानक कर्म करना सिखाते हैं कि जिनके निमित्त अंत में निरंतर नरक की अग्नि में बास करना पड़ेगा। हा प्रिये! मुझे छाती से लगाना, तेरी अमृत मई वाणी सुनना, तेरी दया दृष्टि की छाया में विश्राम करना और तेरे धड़कते हुए हृदय को देखना मेरे लिये बैकुंठ था - पर देख इस अभिमानी कपटनाग और न्यायाधीश से बैर भँजाना जिसने विचार के पूर्व ही यहाँ डाला - यह बैर लेना जो केवल तेरे प्रेम ही से घटकर है वह अविचल प्रेम और वह बैर जो तेरे पिता से लेना है यह भी मेरे लिये बैकुंठ है - हाँ प्यारी केवल तेरी प्रीति के लिये मैं बैकुंठ को कुंठ समझता हूँ और वैर भँजाने के लिये नरक का निरंतर बास बास भी स्वीकार करता हूँ।”
इसी समय द्वार खुल गया और एक अधिकारी हाथ में दीप लिये आ गया।
उसने कहा, “हे युवा मैं तुझको प्रधान न्यायाधीश के सन्मुख ले जाने आया हूँ; वे थोड़े काल में अभी धर्मासन पर बैठेंगे।”
जैसी तिजारी आवे इस युवा का बदन कँपने लगा बोला, “एक क्षणभर ठहरिये और मुझे अपने अंतकाल की दशा सोचने को तीन काष्ठा का अवकाश दीजिए।”
अधिकारी ने कहा, “जिसे बहुत घंटे नहीं जीना है उसकी प्रार्थना कभी नहीं टालूँगा,” इतना कह उसने प्रकाश वहीं धर दिया और चला गया। युवा फिर एकांत में बिचारने लगा, “जिसे बहुत घंटे नहीं जीना है! फिर मेरा भाग्य निश्चय ऐसे ही होगा। जेलर ने ठहक कहा था,” इस समय फिर भी उसको उसी प्रेत का स्मरण आया और कई बार घृणा की।
वह अधिकारी फिर आया और बोला, “समय तो हो गया चलो चलें।” युवा ने विषादपूर्वक प्रार्थना की, “भाई दो पल और ठहर देख हाथ जोड़ता हूँ - दो पल कुछ बड़ा समय नहीं है, चुटकी मारते जाता है। मुझे केवल भ्रमती हुई मनोवृत्ति को एकत्र करने दे।” उसने कहा, “मैं तेरे लिये अपने को न्यायाधीश के क्रोधाग्नि में डालता हूँ इधर तेरी भी प्रार्थना टाल नहीं सक्ता,” इतना कह वह अधिकरी फिर चला गया इतने में सूर्य की किर्नें बड़े कष्ट से भीतर आईं वह युवा उन्मत्त की भाँति इधर उधर चलता हुवा सोचने लगा, “हाय! नहीं नहीं मैं इस यौवन में कैसे प्राण दूँ और सब प्रिय पदार्थ कैसे पीछे छोड़ जाऊँ - प्यारी हम लोग फिर मिलेंगे और अपने प्रेम का कोप तेरे चरणारविंदों की भेंट दूँ तेरे पिता और दुष्ट न्यायाधीश से अपना बैर भँजा लूँगा -मेरे भाग्य में यही लिखा है, “मेटन हितु सामर्थ को लिखे भाल के अंक” - हाँ हाँ मैं केवल तेरे प्रेम और बैर लेने को अभी जीऊँगा।”
ऐसा कह उसने दीप उठाया और उस मंत्र की ओर चला। फिर भी सोचा - दास होने से मरना भला, क्या तीन पल बीत गये? देखो पैर का शब्द सुनाता है, जो हो फिर भी कदाचित् वह पलभर और ठहरे - हाय! मैं कैसे मरूँ मेरे तो अभी केवल 22 बसंत बीते हैं। उसके शरीर थरथराने लगा और मेधा चकरी हो गई अन्त में उसने सब मनोरथों को एकत्र कर अपने नेत्र उस मंत्र की ओर फेके उसने कहा बस अब एक बार कष्ट कर पढ़ लो और क्षणभर में सब कुछ और का और हो जायगा नरक में तो जाना ही है।
इतना कह दीप को मंत्र के सामने उठा बड़ी शीघ्रता से यह मंत्र पढ़ा -
“ओम् अं गं भं शं मं ऋं पं गिं भां सूं ऋपात्मजां श्यां श्यामा श्यामसुंदरी जं जगत्पालिनी मं मनोमोहनी सिं सिंहाधिरोहिणी अं रां भुजलतावकराठीं लं क्षां मां अमुकीमाकर्पय अमुकी माकर्षयस्वाहा।”
जिस समय यह उसके ओठें के बाहर हुआ एक मनुष्य का आकार सन्मुख खड़ा हो गया।
यह आकार कुछ भी भयानक न था वरन् शोचग्रस्त और चिंताकुल सा कुछ जान पड़ा, मानो कोई आग उसके चित्त को निरंतर दहन करती हो। किंतु उसके चारों ओर ऐसा प्रकाश हुआ कि कारागार का अंधकार बिला गया। यह पुरुष का नहीं पर स्त्री का आकार था। यह डाइन थी। वह तो साक्षात् भगवती भगमालिनी का रूप है -चंडा मुंडा करालिनी। देखते नहीं उसके बड़े बड़े दाँत किसको चर्वण न कर डालैंगे -'चर्वयत्यतिभैरवम्' रौरवंभी। उसके दंष्ट्राकराल के गोचर अनेक महापुरुष होकर कौर कर लिए गए। कुछ स्तुति तो करो “भगवती! चंडि! प्रेते! प्रेतविमाने! लसत्प्रेते! प्रेतास्थिरौद्ररूपे! प्रेताशिनि! भैरवि! नमस्ते!”
इतना कहते देर न हुई कि बस।
“काली करालवदना विनिष्क्रान्ताऽसिपाशिनी
अतिविस्तारवदना जिह्वाललनभीषणा।
निमग्ना रक्तनयना नादापूरितदिङ्मुखा
सा वेगेनाभिपतिता घातयंती महासुरान्॥”
इस प्रकार से और इस भाँति भगवती डाकिनी शाकिनी उपस्थित हुई, बंबई की किनारदार धोती पहने, मनुष्य का कपाल हाथ में, गटरमाला फटकारते, लंक लौ लटकती लंबी लटैं - लाल लाल नेत्र, अंतराल को सिर में लपेटे - निरास्थि की पुंगरी फूकती - बड़ी बड़ी लंबी टाँगें फेकती दो सुंदरी एक ओर ब्याही और एक ओर कुमारी कन्या को काँख में खोंसे थीं।
देवी ने कहा, “मुझसे क्या चाहते हो?” युवा बोला, “बचा, बचा, मुझे इस घोर कारागार से निकाल दे” - देवी बोली, “मैं तुझे निकालूँगी” और उसका हाथ पकड़ आकाश की ओर उड़ गई - वह युवा तो बेसुध हो गया। प्रातःकाल को जब जगा तो क्या देखता है कि अपनी पुरानी प्यारी सेज जो कविता कुटीर में थी उसी पर सोया है। आँख खोली और उसी प्राचीन ग्राम की गली देखी और जब उसके नेत्र उस कुटीर के ओर पड़े तो उस कारागार के दुःखद पाषाणों के स्थान के प्रतिनिधि अपनी वस्तु देखी एक टेबल पर कहीं कलम, कहीं स्याही, कहीं श्यामालता - कहीं सांख्य, कहीं योग - कहीं देवयानी के नूतन रचित पत्र इत्यादि पड़े हैं। बड़ा आनंद हुआ और युवा के नेत्र सजल हो आये, बोला, “यह बड़ा भयानक स्वप्न देखा था ऐसा जान पड़ा कि मैं किसी निर्जल कारागार के भुइंहरे में छे मास तक रहा प्रतिदिन आशा आई और गई फिर देखा कि किसी मंत्र के प्रभाव से एक चुड़ैल ने आकर मुझे निकाला उसी समय राजदूत भी मुझे न्यायाधीश के पास ले जाने को आया था। हे ईश्वर तेरी महिमा अपरंपार है तूने कैसा स्वप्न दिखाया। अब मैं अपने प्राण के पास जाऊँगा और स्वप्न का सब ब्यौरा कह सुनाऊँगा वह भी मेरे लिये क्या चार आँसू न गिरावेगी? तो बस अब उसी के पास चलूँ” -
ऐसा सोचता हुआ वह अपनी सेज पर ज्यौंही पौढ़ा डाइन आ गई और वह इसको फिर देख हक्का बक्का हो गया। कहने लगा, “नहीं, नहीं यह स्वप्न नहीं प्रत्यक्ष है” इसी को फिर फिर कहता रहा, डाइन बोली, “यह प्रत्यक्ष है क्या तू भूल गया। इस प्रत्यक्ष के प्रत्येक अक्षर ऐसे सत्य हैं जैसा कि वह सूर्य्य - इसमें तुझै अपना परलोक और भावी सुख सब मेरे हाथ बेच देना पड़ैगा। पर अभी कुछ बिलंब नहीं यदि चाहो तो छूट सक्ते हो पर फिर उसी कारागार में जाना होगा। अब तेरे होनहार सब तेरे ही हाथ में है जो चाहो कर।”
कमलाकांत बोला, “तो अच्छा तू जा मैं तेरी सहायता नहीं चाहता। तेरे हाथ परलोक और सुख कभी देने का नहीं।”
डाइन ने उत्तर दिया, “जो ऐसा ही है तो जाती हूँ पर एक बात और सुन - यदि तू मुझे छोड़ता है तो फिर उसी भुइंहरे में जाना होगा - वहाँ से फिर उसी न्यायाधीश के पास वहाँ से फिर सूली का मार्ग जाने का खुला ही है।” कमलाकांत ने कहा, “कुछ चिंता नहीं मुझै तुझसे बढ़के और कहीं पवित्र शक्ति पर जिसका प्रभाव सब जानते हैं बड़ा भरोसा है। यदि तू छोड़ देगी तो वह (आकाश की ओर दिखाकर) तो नहीं छोड़ेगा -
'हे सबसे समरथ्थ बड़ो प्रभु मारन हारे तैं राखनहारो'
जा-जो चाहै कर।”
डाइन व्यंगपूर्वक मुसकिराकर बोली, “अरे तुच्छ मूर्ख - वह तेरी प्यारी जो इतने बड़े की बेटी है तुझै मिली जाती है क्या! कहाँ तू और कहाँ वह? “कहाँ राजा भोज और कहाँ भुजवा तेली”, कहाँ सूर्य्य और कहाँ काँच, और फिर वह डेढ़ वर्ष तक क्या तेरे लिए बैठी है? वह नहीं जानती कि तू इस कारागार में है, उसे केवल तेरा विदेशगमन ही ज्ञात है और फिर मनुष्य इतने दिनों तक सत्यप्रेम नहीं निवाहता।”
कमलाकांत ने कहा, “यदि तुझमें शक्ति हो तो बुला दे तब मैं मानूँगा बुलाने की शक्ति ही नहीं तो व्यर्थ क्यौं बकती है।” डाइन बोली, “तो मैं इसका प्रमाण क्यौं दूँ जब तुम विश्वास ही नहीं करते।”
कमलाकांत ने कहा, “सुन, यदि तू इसका प्रमाण दे कि वह पक्की नहीं तो मैं सर्वतः तेरा हो जाऊँ।” डाइन ने कहा, “हाथ मार, देख - फिर न बदलना मैं दिखाती हूँ।”
युवा ने हाथ मारा और डाइन खिरकी की ओर अपना दाहिना हाथ पसार के यों कहने लगी -
“चल बे चल अब ल्याव बुलाय
जो यह मंत्र फुरै मम आय
जो कुछ शक्ति होय गुरु दीन्ह
जौं सेवा बाकी मैं कीन्ह
तो आवे वह सेन समेत
अथवा जैसे होय अचेत।”
“छूः छूः छूः दुहाई वीर भैरों की, आव-आव-आव दौड़-झौड़, छूः छूः छूः” इतने में एक मेघ घुमड़ आया और खिड़की को ढाँक लिया, घर के भीतर मेघ घुस आया -मैंने प्रार्थना की और कहा -
“सन्तप्तानां त्वमसि शरणं तत्पयोदः प्रियायाः
संदेशं मे हर धनपतिक्रोधविश्लेषिंतस्य।
गन्तव्या ते वसतिरलका नाम यक्षेश्वराणां
बाह्योद्यानस्थित हरशिरश्चन्द्रिकाधौत हर्म्या॥”
इसके पढ़ते ही सब तिमिर में समा गया, सृष्टि के नूतन विधान का निशान फहराने लगा, “भयौ यथाथित सब संसारू” नील अंबर में भगवान् विभावरीनायक अपनी सोलहो कला से उदय हुए, दुर्जन के सदृश अंधकार का आकार ही लोप हो गया। स्वच्छता का बिछोना चाँदनी ने महीतल में बिछाया। कौमुदी ने चाँदनी तानी। उस समय की शोभा कौन कह सकता है।
“चञ्चच्चन्द्रकरस्पर्शंहर्षोंन्मीलित तारका॥
अहो रागवती संध्या जहाति स्वयम्बरम्॥
औषधियों के नायक ने सब औषधियों को अपने कर से सुधा सीच कर फिर जिलाया। कुमुदिनी प्रमुदित होकर अपने प्रियतम को सहस्र नेत्रों से देखने लगी। सौत नलिनी ने आँख बंद कर ली। परकीया कहीं स्वकीया की बराबरी कर सकती है। चंद्रमा से जगन्मोहन गुण की अभिरामता क्या सूर्य के तेज में है। इसी से चंद्रमा का नाम लोकानंदकर प्रसिद्ध। कोकनद से सेवक अपने नायक के वृद्धि पर हर्षित हुए। वन की लता पता पर प्रकाश क्रम से फैलने लगा। समभूमि से, वन - वन से उपवन - उपवन से द्रुम - द्रुम से पादप - पादप से वृक्ष - वृक्ष से गुल्म लतावल्ली आदि को आक्रमण करके महीधरकी मेखला - मेखलासे शैल - शैल से पर्वत - पर्वत से शिखर - शिखर से तुंग पर अपना सुयश फैलाकर फिर अपनी कीर्ति कहने के लिए स्वर्गगंगा मंदाकिनी में अवगाहन कर गोलोक - गोलोक से विष्णुलोक - विष्णुलोक से ब्रह्मलोक, वहाँ से चंद्रलोक को फिर लौट गया। मृत्युलोक में मानों एक वितान सा तान दिया हो। प्रथम तो सागर के किनारे से निकला। सागर की द्वितीय बड़वानल के सदृश अपनी किरनों से तरल तरंगों में फँसकर क्रम से व्यौम के किनारों को कुंदन से कलित किया। पर्वत के शिखर पर चाँदनी विखर गई। पत्तों पर एक अपूर्व शोभा दिखाने लगी। मंद वायु से कंपित होकर पत्र भी यत्र तत्र अपनी परछांही फेंकने लगे। नदी के लोल लहरों में मिलकर सौ चंद्रमा पैठे से जान पड़ते थे - झरनों का झरना कैसा मनोहर लगता था, मानौ मोती के गुच्छे पर्वत के ऊपर से छूट छूट कर गिरते हों। झिल्ली की झनकार - भेक का एक-सा शब्द निशिवर विहंगमों का विहार मन को चुराये लेता था। संजोगियों को सुखद और वियोगियों को दुःखद जान पड़ता था, संजोगियों का निधुवन प्रसंग और वियोगियों के विरह का कुढंग अपनी आँखों से देख देख साक्षी भरता था। इधर सारसों का जोड़ा उधर चकवा चकई का विछोड़ा संयोग और वियोग का उदाहरण दिखाता था। रात के कारण और सब पक्षी बसेरे में थे केवल उलूक से बेकाज के मनुष्य इधर उधर घूमते थे। इस समय देवजी का कहा याद पड़ा -
मंद मंद चढ़ि चल्यौ चैत निशि चंद्र चारु
मंद मंद चाँदनी पसारत लतन तैं॥
मंद मंद जमुना तरंगिन हिलौरै लेत
गुंजत मलिंद मंद मालती सुमन तैं॥
देव कवि मंद मंद सीतल समीर तीर
देखि छवि छीजल मनोज छन छन तैं॥
मंद मंद मुरली बजावत अधर धरैं
मंद मंद निकसो गुविंद वृंदावन तैं॥
और भी -
घटै बढ़ै विरहिनि दुःखदाई। ग्रसै राहु निज संधिहिं पाई॥
को शोकप्रद पंजक द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥
प्रकाश का पिंड धीरे-धीरे मही मंडल में अपनी कीर्ति प्रकाश कराता है। बड़े साधन लतामंडप के भीतर भी पत्रों के छेदों से चाँदनी की किरणें प्रवेश करती हैं। मैंने इस शोभा का, प्यारी चैत की रातों में कभी प्यारी के सहित कभी प्यारी से रहित नदी तीर में भीर निकल जाने के पीछे कई बार अनुभव किया है। ऊपर चाँदनी का स्वच्छ वितान, नीचे जल की चमक - इधर बालू की सुपेदी, उधर क्षितिज तक इसका फैलाव - ऐसा जान पड़ता है मानौ पृथ्वी और अम्बर एक-सा हो गया है। चंद्रमा का बिंब जल की लोल तरंगों के भीतर ऐसा दिखलाई देता है मानौ सहस्र नेत्रों से वह मूर्तिमान् हो मदन के साथ इस अपूर्व शोभा का अनुभव करता हो। जल जंतु भी ऐसे हर्षित होते हैं कि नक्र कुलीर सफरी इत्यादि उछल उछल कर इस शोभा पर अपने प्राण देते हैं। यह व्यौम का दृश्य भूलोकगत जनों को भी भाग्यवश दिखाई पड़ता है। पर हा! क्या वह इस समय हमसे वियुक्त रहै - हाय! 'दुर्बले बैवघातक:' यह कहावत प्रसिद्ध है - दिशा कामिनियों का मुकुर-मदन के बाणों को चोखा करने की शान -भगवान् उमापति के ललाट का अलंकार - व्यौम सागर का एक हंस तारागणों के मध्य में ऐसा सोहता था मानौ दिक्कामिनी चंद्र प्रियतम पर पुष्पवृष्टि करती थीं - शंख, क्षीर, मृणाल, कर्पूरादिकों की प्रभा को लजाता समुद्र को आकर्षण करता - जीव मात्र - स्थावर जंगम को सुख देता और लोकों के पाप को नाश करता हुआ विराजमान है। संसार में जो लक्ष्मी मंदराचल में - प्रदोष के समय सागर में - जल सहित कमलवन में - वास करती है वही लक्ष्मी आज निशा के समय निशाकर में देख पड़ने लगी।
वह रे चंद्र! मेरी महिमा कौन लिख सकता है।
तू अपनी चंद्रिका के द्वारा इतने ऊँचे पर से भी बिचारी चकोरी की चोंच को सुधा से भर देता है -
तू अभिसारिकाओं का भी बड़ा मीत है - देख एक कवि ने कैसी कविता की है -\
“चतुर चलाक चित्त चपला सी चंदमुखी
गिरिधरदास वास चंदन सी तन में।
सारी चाँद तारे की सुचद्दर चमकदार
चोली चुस्त चुभी चारु चंपकवदन में।
चामीकर नूपुर चरन चम चम होत
चली चक्रधर पै मिलन चाव मन में -
तारन समेट तारापतिहिं लपेट मानो
राकाराति चली जाति चाव से चमन में -”
तू समुद्र मंथन काल में समुद्र से निकला है यह पुराण की उक्ति ठीक जान पड़ती है - क्योंकि अभी तक तू उसी उदय पर्वत से बार बार निकला करता है।
तेरा बिंब मंडल अद्यापि अरुण है क्यौंकि तूने इंद्र की नायिकाओं का यावक का अधर चूमा है।
कहाँ तक तेरा प्रभाव गावैं। जितना तेरे विषय में कहैं वह थोड़ा उस शोभा को देखता ही था कि एक नवीन बाला गिरि के शिखर पर इस चंद्रमा को अपनी छवि से लजाती प्रकट हुई। इसकी सर क्या चंद्र कर सक्ता था? नहीं, जैसे चंद्रजोत के सामने दीप की कोई बात भी नहीं पूछता। सूर्य के सन्मुख खद्योत प्रकाश नहीं कर सकता वैसे ही इसके प्रभामंडल ने चंद्रमंडल को आक्रमण कर लिया। बाणभट्ट ने जो कादंबरी और महाश्वेता की प्रशंसा गुण रूप की की वह भी सब तुच्छ जान पड़ी। कालिदास ने जो कुमारसंभव में पार्वती की, वाल्मीकि ने जो सीता, मंदोदरी और तारा की बड़ाई की वह सब पीछे पड़ गयी। श्रीहर्ष वर्णित नल की दमयंती, कालिदास कथित दुष्यंत की शकुंतला, गोतम की अहिल्या, ययाति की देवयानी, अज की इंदुमती, चंद्र की रोहिणी इत्यादि इसको देख इस समय सब लोप हो गईं - इनका रूप और गुण सब केवल पुस्तकों में रह गया। अब छाया भी नहीं दिखाती। उसको देख मेरे हृदय में यह श्लोक उठा -
तन्वी श्यामा शिखरिदशना पक्व बिम्बाधरोष्ठी
मध्ये क्षामा चकितहरिणी प्रेक्षणा निम्ननाभिः।
श्रोणीभारादलसगमना स्तोकनम्रा स्तनाभ्यां
या तत्रस्याद्युवतिविषये सृष्टिराद्यैव धातुः॥
इतने से उसके सर्वांग का वर्णन संक्षेप हो गया तौ भी बिना कुछ कहे रहा नहीं जाता। इसलिए दो चार बातैं और भी सुनो। सर्वांगसुंदरी के रूप की कौन प्रशंसा कर सक्ता है? उपमा कौन सी दी जाय? जिये सोचते हैं वही जूठी मिलती है।
“सब उपमा कवि रहे जुठारी, केहि पटतरिय विदेह कुमारी॥”
(तुलसी)
उसने घन अंजन से काले काले केश वेष की शोभा बढ़ाते थे। उसकी अलि अवलि सी घूंघरवारी अलकै मुखचंद्र के ऊपर ऐसी जान पड़ती थी मानौ व्याल के छौने अमृतपान करने की चेष्टा कर रहे हैं। सुंदर सुभल ललाट द्विरद रद की स्वच्छता को लजाता था। बुद्धि और चतुराई का सूचक - मुनि के मन का मूपक - काव्य-कला का आलय - कुशलता का उदय - स्त्री चरित्र का केंद्र - बुद्धि और विश्वास निर्माण करने का ध्रुव - ये सब बातैं ललाट में लिखी सी ज्ञात होती थीं। निशाकर सा आनन प्रभा का आकार - जिसे देखे रमा सागर में श्यामसुंदर के शरणागत हो वही शेषशायी के साथ रम रही। कमल भी जिसको देख जल में छिप गया। केशकुंज से आवृत उसका मुख जलद-पटल के बीच मयंक की शोभा जीतता था। अथवा मधुकरों की शवली अवली नवली नलिनी के चारों ओर गूँजती जान पड़ती थी। पंकज को गुण न चंद्रमा में और न चंद्रमा का पंकज में होता है - तौ भी इसका मुख दोनों की शोभा अनुभव करता था। काली काली भौहैं कमान सी लगती थीं। धनुष का काम न था। कामदेव ने इन्हैं देखते ही अपने धनुष की चर्चा बिसरा दी। जब से इसे भगवान शंकर ने भस्म कर दिया तब से यह और गरवीला हो मिस इनसे धनुष का काम लेता था - विलोचन इंदीवर पे भ्रमरावली, मुख-मदनमंदिर के तोरन - रागसागर की लहरैं - ऐसी उस्की दोनों भौहैं थीं। उसके नैनों की पलकैं, तरुणतर केतकी के दल के सदृश दीर्घ किंचित चटुल और किंचित् सालस शोभायमान थीं। नैनों की कौन कहे, ये नैन ऐसे थे जिस्में नै न थीं जिन्हें देख हरिणी भी अपने पिछले पाँव के खुरों से खुजाने के मिस कहती थीं कि तुम अपने गर्व को छोड़ दो। हृदयवास के आगार में बैठे मदन के दोनों झरोखे - रागसहित भी निर्वाण के पद को पहुँचाने वाले कान तक पहुँचने में अवरोध होने से अपने लाल कोयों के मिस कोप दिखाते - अशेष जगत को धवल करते - फूले कमल काननों से गगन को सनाथ करते - सेकड़ों क्षीरसागरों को उगिलते - और कुंद और नीलोत्पलों की माला की लक्ष्मी को हँस रहे थे मानो मन के भाव के साक्षी होकर हृदयगार के द्वार पर अड़े हों।
इसका सुंदर नाशावंश मानो दशन रत्नों के तोलने का दंड अथवा नैन सागर का सेतुबंध, अथवा जोबन और मन्मथ रूपी मत्त मतगंजों का अगड़ है, मानो कंदर्प ने अपनी कला कौशल्यता दिखाने के लिए धनुष भौहों के कोनों में रूप के दोनों मीन बझा कर नाशादंड पर धर दिए हों अथवा पथिक कपोतों के फसाने के लिए भ्रू तराजू पर चुन की गोली धरी हों।
अमी हलाहल मद भरे सेत श्याम रतनार।
जियत मरत झुकि झुकि परत जेहिं चितवत इकबार॥
(बिहारी)
उसके पके बिंबोंष्ठ मुखचंद्र की निकटता के हेतु संध्याराग से रंजित हैं। दंतमणि की रक्षा के सिंदूर मुद्रा को अनुकरण करने वाले हृदय के राग से मानो रंजित राग सागर बिद्रुम के नवीन पल्लव से उसके अधर पल्लव थे।
दशन की अवली लाल ओठों के बीच में ऐसी जान पड़ती थी मानो मानिक के पल्लव में हीरे बगरे हों, विद्रुम के बीच में जैसे मोती धरे हों, प्रवालों के बीच सुमन अथवा ललाम लाल लाल पल्लवों पर ओस के कनूके हों।
मुसकिराहट के साथ ही चाँदनी चाँद की मंद पड़ जाती थी। निरखनेवालों की आँखैं बिजुली की चकाचौंधी के सदृश ढँप जाती थीं। नव जोवन का एक यह भी समय है जब लोग भोली हँसी पर तन मन वार देते हैं अथवा उसके सन्मुख बैकुंठ का भी सुख कुंठ समझते हैं। उसकी कंबु या कपोत सी ग्रीवा मृणाल की नम्रता को भी लजाती थी, उसके दोनों स्कंध प्रेम और अनुराग सम्हारने को बनाए गए थे, उसके पीन कुच पर छूटे चिकुर ऐसे लगते थे मानो चंद्रमा से पीयूष को ले व्यालिनी गिरीश के शीस पर चढ़ाती है। मदन के मानौ उलटे नगारे हों, मदन-महीप के मंदिर के मानो दो हेम कलस, बेलफल से सुफल - ताल फल से रसीले - कनक के कंदुक - मनोज-वाल के खेलने की गैदैं - ऐसे अविरल जिन में कमल तंतु के रहने का भी अवकाश नहीं। गरमी में शीतल और शीत में ऊष्म ऐसे अग्नि के आगार जिसको हृदय से लगाते ही ठंढे पर दूर से दहन करने वाले - शरीर सागर के दो हंस - पानिप पानीके चक्रवाक मिथुन - कमल की कलीं - मन मानिक के गह्वर शैल जिन पयोधरों को विश्वकर्मा ने अपने हाथों से खराद पर चढ़ा कर रचा था इस त्रिभुवन मोहिनी के तनतरु के मनोहर और मधुर फल थे। पतन के भय से मदन ने इन पर चूचुक के छल से मानो कीलै ठठा दी थीं। बस कहाँ तक कहूँ।
इनके नीचे नवयौवन के चढ़ने के हेतु मनोज की सीढ़ी सी त्रिवली की अवली शोभिज थी। अमृतरस का कूप नाभी का रूप था।
उसकी कटि छटिकर छल्ला सी हो गयी थी केहरी भी जिसे देख अपने घर की देहरी के बाहर कभी नहीं निकला, ऐसी सुकुमारी जो बार के भार से भी लचती थीं। ऐसी पतरी जौ मुठी में भी आ जाती थी। कई तो उसे देख भ्रम में पड़े थे कि लंक है या नहीं या केवल अंक ही का शंक है। नवजोबन नरेश के प्रवेश होते ही अंग के सिपाहियों ने बड़ी लूट मार मचाई इसी भौंसे में सभों के हौंसे रह गए किसी ने कुछ पाये किसी ने नितंब बिंब - पर यह न जान पड़ा कि बीच में कटि किसने लूट ली। लंक के लूटने की शंका केवल कुच और नितंबों की थी क्यौंकि जोबन महीप ने जब इस द्वीप पर अमल किया तब डंका बजा कर क्रम से केवल ये ही बढ़े। सुंदर वर्तुलाकार जाघैं कनककदली के खंभों की नाईं राजती थीं मानो किसी ने उलटे स्तंभ लगा दिए हों। कलभ की शुंड भी गुड़ी मार कर उसके पेट तरे छिप जाती थी। कालिदास को भी कोई उपमा नहीं मिली, तभी तो उनने कहा है -
नागेन्द्रहस्तास्त्वचि कर्कशत्वात्
एकान्त शैत्यात्कदलीविशेषा:।
लब्ध्वापि लोके परिणाहि रूपं
जातास्तदूर्वोरुपमानबाह्या॥
इसकी गति के अनुसारी राजहंस भी मानस सरोसर को उड़ गए, इसके चरणसरोरुह ऐसे शोभित थे मानो स्थलारविंद हों, नखों की छटा ऐसी थी मानो सूर्य की किरणों से पंकज खिला हो। जहाँ जहाँ यह अपने चरनों को धरती ऐसा जान पड़ता कि ईंगुर वगर गया है। यह सर्वांगसुंदरी नख से सिख तक एक साँचे कैसी ढरी चित्र की छबि सी प्रकट थी। अथवा किसी ने जैसे मणि की पुतरी बनाकर गौर उपलों के पर्वत पर धर दिया हो। केशों में जिसके विचित्र विचित्र सुमन खचित थे, माँग में मोती की लर, अलकों के अंत में चमेली के फूल, जूड़े पर शीश फूल के स्थान में गुलाब -
“काको मन बाँधत न यह जूड़ा बाँधनहार”
और चोटी के अंत में कदंब का फूल देखने वालों के हिए में कटारी सी हूल देकर करेजे में शूल उपजाता था। घन केशपाशों पर दामनी दामनी सी छटा छहराती थी।
“तमके विपिन में सरल पंथ सातुक को
कैधौं नीलगिरि पै गंगा जू की धार है।
कैधौं बनवारी बीच राजत रजत रेख
कैधौं चद कीन्हौ अंधकार को प्रहार है।
नापत सिंगार भूमि डोरी हाँसरस कैधौं
वलभद्र कीरत की लीक सुकुमार है।
पयकी है सार घनसार की असार माँग
अमृत की आपगा उपाई करतार है॥”
यह तो उसके माँग का हाल था। उसकी बेसर की महिमा कौन विचारा कह सक्ता है, तौ भी इस प्रकार की कुछ शोभा थी।
एहो व्रजराज एक कौतुक विलोको आज
भानु के उदै में बृषभानु के महल पर।
बिनु जलधर बिनु पावस गगन धुनि
चपला चमकै चारु घनसार थल पर।
श्रीपति सुजान मनमोहन मुनीसन को
सोहै एक फूल चारु चंचला अचल पर।
तामें एक कीर चोंच दावे है नखत जुग
शोभित है फूल श्याम लोभित कमल पर॥
अथवा यह जाना पड़ता था कि पृथ्वी की गोलछाया चंद्र पर पड़ी है। नाक का मोती ऊपर कजरारे लोचन के प्रतिबिंब से और नीचे प्रवाल अधरों की आभा से आधा श्याम और आधा लाल जान पड़ता है - यदि लाल गुजा की उपमा दी जाय तौ भी संगत हो। सादी सादी सूरत भोली भाली भौहैं - मनुष्यों के हिए में मूरत सी गड़ गई थी, मुख निशाकर पर शीतला के छोटे छोटे बिंदु ऐसे जान पड़ते थे जैसे देव ने कहा है-
“भाग भरे आनन अनूप दाग सीतला के,
देव अनुराग झिया से झमकत है।
नजर निगोड़िन की गड़ि गाड़े परे,
आड़े करि पैन दीठ लोभ लपकत है॥
जोबन किसान मुख खेत रूप बीच बोयो,
बीच भरे बूँदन अमंद दमकत है।
वदन के बेझे पै मदन कमनैती के,
चुटारे सर चोटन चटा से चमकत है॥”
चाँदतारे का दुपट्टा पीत कौषेय की सारी यद्यपि भारी थी तौ भी समय के अनुसार कुछ कुढंग नहीं लगती थी। आधा सिर खुला, दक्षिणी रीति के बसन पहिने, अति सुकुमार रति का रूप। दूर से देख मेरे मुख से अकस्मात् यह निकल पड़ा कि यह 'वनज्योत्स्ना' किस श्यामा का रूप है। मैंने तो ऐसी मोहिनी मूरति कभी नहीं देखी थी। यद्यपि मेरी आयु अभी दो हजार आठ सौ वर्ष से अधिक न थी तौ भी यह मदन मोहिनी कीसी और पहले कोई ललना नहीं लखी थी। मेरी इच्छा हुई कि इसके चरण युगलों की यदि आज्ञा हो तो सेवा कुछ दिन करूँ। इसी सोच विचार में चार हजार बरस व्यतीत हो गए, अंत को जब आँख खुली तो फिर भी उसी मूरत का ध्यान, वही सामने खड़ी, वही आँखों में झूलने लगी। विमान तो आज्ञाकारी था। मन में सोचते ही उसी की ओर मुड़ा निकट जाने से और भी चरित्र देखे। यह 'मनोरथ-मंदिर की नवीन मूर्ति' नवनीत के कोमल सिंहासन पर बैठी है - इसकी तीन सखी निरंतर सहचरी होकर इसके सुख दुःख की भागिनी सी बनी रहती हैं। ये दोनों ऐसी जान पड़ती थीं मानो इसकी भगिनी हों, क्योंकि बोलचाल मुख का बनाव अंग का ढाल - विल मयंक सा आनन - वस्त्र और आभूषण सब तद्विषय के सूचक थे। मुझै इनकी मुसक्यान बड़ी सुंदर लगी। एक तो 11 और दूसरी 6 वर्ष की थी। तीसरी इसकी सखी कुछ ऐसी रूपवती तो नहीं थी, पर हाँ - संगत की आँच लग ही जाती है - देह इसकी गोरी - मानो छोटे छावले की छोरी हो।
गजराज सी चाल - गले में चमेली की माल - बड़ी चतुर पर मदनातुर -गंगाजमुनीवाल - तौभी मन्मथ के जाल को लिए - “मिस्सी के वदनामी का पर खोसे” - अधरों को द्विजों से दबाए - दाँतोंकी बत्तीसी खिलाए सुमार्गसे कुमार्ग पहुँचाने की मशाल - दुष्टपथ की परिचारिका, विलासियों की सहचारिका - द्रव्यके लिए तन और मन की हारिका - सुमतिवाली बालाओं के मन में कुमति की कारिका - 'बुढ़ियाबखान' सी पुस्तकों की सारिका - अपने भक्तों पर जीवन की हारिका - अच्छे अच्छे कुलों का चौका लगानेवाली-अभिसारिकाओं की नौका - ऐसी प्रगल्भ मानौ डौका - मदनपाठशाला की बालाओं को परकीयत्व धर्मशास्त्र सिखाने की परिभाषा - 'परपतिसंगम' रूप को कंदर्प व्याकरण से सिद्ध कराने वाली - रति वेदांत की परिपाटी सिखानेवाली - सुमति-लोप-विधायक सूत्र को कंठ करानेवाली - कुपंथसरिता की सेतु - मदनगीता महामाला मंत्र की ऋषि - सुरति सिद्ध कराने की आचार्य - कामानल में हवन कराने को होता -परपुरुष आलिंगनतीर्थ में उतरने की सीढ़ी - संभोग की शिला - स्थूल काय - बलिष्ठ जंघा - सिंदुर रहित माँग - कंकन शून्य हाथ - स्वेत दुकूल पहने - ऐसा स्वाँग किए उसी नववधू के पीछे खड़ी है।
ये सब गुण उसके प्रत्यंग देखने से प्रकट होते थे। ऐसी ही सखी कुलवधू को लकार लोप का आकार बना देती है। ईश्वर इनसे बचावै।
मैंने इनके रूप भलीभाँति अनिमिष नयनों से देखे पर स्वप्न में भी स्मरण न हुआ कि इन्हैं पहले कभी देखा था। बार बार यही कहना पड़ा - 'अहो मधुरमासां दर्शनम्' उस एकादश वार्षिकी कन्या का रूप भी विचित्र था। साँवरा मुख-काले नैन और काले चिकुर-वाल्यावस्था की भूमि में मदन किसान ने ऐसा श्रम किया था कि यौवन बीज की अंकुर निकल रहे थे। बालापन में भी चतुराई, कुंद सी हँसी भुराई और चतुराई दोनों सूचन करती थीं, आँखैं अमृत और विष की कटोरी थीं, आँचर यद्यपि सामान्य रीति से नहीं ढाँकती थीं तौ भी किसी-किसी को देख अनेक हाव-भाव करतीं थीं। बालक और बालिकाओं के क्रीड़ा-स्थल पर जाती और कभी किसी को देख मुसकिराकर और लाज बताकर घर में छिप जाती। सब बातैं जो रसीलीं नवोढ़ा जानती हैं - यद्यपि उसे इनका तनिक भी अनुभव न था वह जानती थी, मानौ काम की चटशाल में उसने हाल में रति की परिपाटी ली हो। रस का अनुभव कुछ नहीं तौ भी सुन-सुन के अभी से परिपक्व हो रही थी। रस की बातैं सुन कर ऐसी मुसकिराती कि अधर पल्लव के बाहर मुसकिरान कभी नहीं निकलती। प्रेम की धाँतैं सुन मुँह नीचा कर लेती। फल मूल मिष्ठान्न आदि उसको बहुत अच्छे लगते थे। रजतलोह की चुंबक, मतलब की पूरी, काम की धुरी नेह में जुरी मानौ किसी ने उसी की डुरी से बाँध दिया हो।
तीसरी कन्या, रूप की धन्या, यद्यपि केवल 6 वर्ष की तौ भी कुशल और प्रवीनता की अंकुर सी जनाती थी।
इन दोनों को देख मन में यही उठता कि 'होनहार विरवान के होत चीकने पात' जिनके रूप के केवल अवलोकन मात्र ही से इतने गुणों का संभव और अनुमान होना प्रत्यक्ष है तो चरित न जाने कैसे-कैसे होंगे। यही बड़ी देर तक सोचता रहा। जी में आया कि निकट जाकर उस लक्ष्मी का जो ऐसी पश्यन्मनोहरा उस पर्वत के शिखर पर आविर्भूत हुई थी कुछ वृत्तांत पुछैं और सुनैं। इतने ही में ऐसी पवन चली कि विमान डगमगाने लगा कहीं सिर कहीं धड़ कहीं टोपी कहीं जूते रातदिन का ज्ञान चला गया, न जाने किस मंदराचल के खोह में उलूक के समान जहाँ बेप्रमान अंधकार है जा छिपा। निकट जाने का विचार करते ईश्वर ने क्या अनाचार कर दिया कि सोचा विचारा सब नष्ट हो गया। पर यह तो घर की खेती थी। उस फूस ने तो सभी युक्तियाँ बतला ही दी थीं अब कुछ चिंता की बात नहीं थी। मैं ने सोचा कि जहाँ फिर एक गोता लगाया तहाँ ज्ञान और भान का पोता का पोता गगनगंगा के सोता से निकला चला आवैगा फिर कोई सोता भी हो तो जग जाय, पहरे की बात नहीं। इतनी नहरैं कि उसकी लहरैं बड़ा शब्द करती हैं। फिर तो 'प्रबोधयत्यर्णव एव सुप्तम्' यह गगनगंगा कहाँ से आई इसका कुछ ठीक पता नहीं लगता। पर सुनते हैं कि महादेव नंगा के जो सदा भंग में मग्न है झंगा से निकलती है पर इसका क्या प्रमाण?
पुराण।
पुराण-सुराण क्या?
वाहजी! कुराण (पुराण) नहीं जानते।
नहीं।
तो अधिक क्या कहैं, गंगा उस नंगा के जटाजूट में छूट कर नाचती है, फिर मर्त्यलोकवासी सत्यानासी उसके कनूकों को लूटकर क्षीरसागर के वासी होते हैं। वहाँ उन्हैं साक्षात् लक्ष्मी जी की झाँकी होती है।
क्या वे वहाँ अकेली रहती हैं?
नहीं रे मूर्ख, क्या तू ने अभी लक्ष्मी को नहीं जाना, वह कभी अकेली रहीं हैं कि रहैंगी, वे बड़ी चंचला हैं। भगवान् शेषशायी श्यामसुंदर के साथ शयन करती हैं। लिखा भी तो है 'एका भार्य्या प्रकृतिमुखरा चंचला च द्वितीय' पर क्या हम ऐसी बातैं उस देवी के विषय में कह सक्ते हैं - नहीं नहीं भाई - वह तो हमारी पूज्य है। तौ भी सच्ची बात के कहने में क्या डर, 'सत्यमेव जयते नानृतम्' साँच को आँच कहाँ। बस, अब युक्ति सोचने बैठे कि कौन सी युक्ति करैं जिसमें उस अलक्ष्य देवी के दर्शन फिर भी हों और कुछ बातचीत करैं, सोचते सोचते एक बात याद पड़ी पर लिखैंगे नहीं, लिखने की कौन बात कहैंगे भी नहीं। उसी युक्ति से फिर आँख मूदीं और क्षण भर ध्यान किया तो फिर भी उसी के सामने पहुँच गए वही मूर्ति फिर भी नैनों के सामने नाचने लगी। ऊमर के फूल सरीखे दर्शन हुए, उसकी सुंदरता देखते ही मेरी इंद्रियाँ शिथिल पड़ गईं, पलकैं झपने लगीं। हाथ पैर ढीले पढ़ गए मैं तो जक गया। उसी समय मूर्छित हो गिरा जाता था और भूमि ले लेता यदि मेरा हितकारी सेवक मुझे अपना सहारा न देता। उसके कंधे पर अपना सिर डाल कर बैठ गया। आँखैं मुकुलित हो गईं, तन की सब सुधि बुधि जाती रही। गुलाब जल के अनेक छींटे मीठे मीठे मेरे मुख पर सींचे, धीरे धीरे संज्ञा आयी। नेत्र आधे खुले, साँस बहुरी, सिर उठा कर देखा प्रणाम मन ही में किया। हृदय में हाथ जोड़े, इच्छा हुई कि कुछ बोलै और अपना जी खोलै या कहीं को डोले सेवक ने सहारा दिया। बल पूर्वक इंद्रियों को सम्हार सरस्वती को मनाय वचन की शक्ति को तोल बोलने लगा।
'भगवति तेरे चरणकमलों को प्रणाम है', इसको सुन भगवती मौन हो रही मैं ने फिर भी कहा -
“नारायणि प्रणाम करता हूँ, भला इस दीन दास की ओर तनिक तो दया की कोर करो” -
देवी ने देखा, ऐसी दृष्टि की मानो सेतकमल की श्रेणीं बरसाईं हों। केवल दृष्टि मात्र से मेरा प्रणाम ग्रहण किया और अपनी पूर्वोक्त सखियों की ओर निहारी। सखीं सब मुसकिराकर रह गईं। मैं और अचंभे में हो गया सोचने लगा यह कैसी लीला करती है। भला कुछ और इससे पूछना चाहिए। ऐसा मन में ठान फिर भी कुछ कहने को उत्सुक हुआ और निकट जा बोला।
“चंद्रमुखी यदि तुझै कष्ट न हो तो कुछ पूछूँ, मेरा जी तुझसे कुछ बात करना चाहता है।”
“भद्र कहो क्या कहते हो, जो इच्छा हो पूछो।” ऐसा कह चुप हो गई।
मैंने कहा, “भद्रे - यदि क्लेश न हो तो कहो तुम किस राजर्षि की कन्या हो कहाँ तुम्हारा देश है और इस शिखरपर किस हेतु फिरती हो?”
उसने कहा, “मेरी कथा अपार है, सुनने से केवल दुःख होगा। कहना तो सहज है पर सुनकर धीरज धरना कठिन जनाता है। ऐसा कौन वज्र हृदय होगा जो उसे सुन फूट फूटकर न रोवैगा - यह मेरी अभागिनी के चरित किसने न सुने होंगे और सुनकर कौन दो आँसू न रोया होगा,” इतना कह लंबी साँस लेकर नेत्रों में जल भर लिया। मैं तो सूख गया कि हा देव इस देवी को भी दुःख है क्या ऐसी धन्य और सुंदरी को भी दुर्भाग्य ने नहीं छोड़ा। वाह रे विधाता तेरा विधान धन्य है। धिक्कार है तुझै जो तूने इस पुण्यात्मा जीव पर भी दया न की। न जाने यह अपनी कथा कह कर कौन कौन विष के बीज बोवैगी और क्या क्या हाल कह कर बेहाल करैगी। फिर भी ढाढ़स बाँध बोला।
“सुंदरी मैं बहु शोकग्रस्त हुवा क्या मैंने तुम्हैं कष्ट तो नहीं दिया। जान पड़ता है कि पूर्व दुःख के घटा फिर से हृदय गगन पर छा गए। तो अब कही देना भला है क्योंकि 'विवक्षितं ह्यनुक्तमनुतापं - जनयति' और भी किसी परिचित या सज्जन के सामने जो दुःख और सुख का समभागी हो कहने से दुःख बट जाता है।
“स्निग्धजनविभक्तं हि दुःखं सह्यवेदनम्भवति।”
“स्वजनस्य हि दुःखमग्रतो विवृतद्वारमिवोपजायते।”
“मुझे अभागिन की कहानी भी क्या किसी को सुहानी है परंतु तुम्हारा यदि आग्रह है तो सुनो। मैं शुद्धभाव से तुम्हारे सन्मुख सब यथास्थित कहती हूँ,” इतना कह कई बार लंबी लंबी सांसैं भर आकाश की ओर दृष्टि कर यौं बोली।
“भूमंडल में जो आखंडल के चाप के सदृश गोलाकार है जंबू द्वीप नाम का प्रदीप जो दीपक समान मान को पाता है प्रसिद्ध क्षेत्र है। उसी में भारतखंड में अपने हाथों से बनाया हो वर्त्तमान है। भारतखंड में अनेक खंड हैं पर आर्य्यावर्त्त सा मनोहर और कोई देश नहीं। पृथ्वी के अनेक द्वीप द्वीपांतर एक से एक जिनका चित्र ही मन को हर लेता है वर्त्तमान है पर आर्य्यावर्त्त सी पुण्य भूमि न तो आँखों देखी और न कानों सुनी। इसके उत्तर भाग की सीमा में हिमालय सा ऊँचा पर्वत जो पृथ्वी के मान दंड के सदृश है भूलोक मात्र में ऐसा दूसरा नहीं। गंगा और यमुना सी पावन नदी कहाँ हैं जिनके जल साक्षात् अमृतत्व को पहुँचानेवाले हैं। त्रिपथगा की जो आकाश, पाताल और मर्त्यलोक को तारती है, कौन समता कर सक्ता है। सुर और असुरों के मुकुटकुसुमों की रजराजि की परिमलवाहिनी, पितामह के कमंडलु की धर्मरूपी द्रवधारा, धरातल में सैकड़ों सगरसुतों सुरनगर पहुँचाने की पुण्य डोरी - ऐरावत के कपोले घिसने से जिसके तट के हरिचंदन से तरुवर स्यंदन होकर सलिल को सुरभित करते हैं, लीला से जहाँ की सुर सुंदरियों के कुचकलशों से कंपित जिसकी तरल तरंग हैं नहाते हुए सप्तर्षियों के जटा अटवी के परिमल की पुन्यवेनी -हरिणतिलक - मुकुट के विकट जटाजूट के कुहरे भ्रांति के जनित संस्कार की मानो कुटिल भौंरी, जलदकाल की सरसी, गंध से अंध हुई भ्रमर माला, छंदोविचित की मालिनी, अंध तमसा रहित भी तमसा के सहित भगवती भागीरथी हिमाचल की कन्या सी जगत् को पवित्र करती हुई, नरक से नरकियों को निकारती इस असार संसार की असारता को सार करती है।
भगवान् मदन मथन के मौलि की मालती की सुमन माला, हालाहलकंठ वाले के काले बालों की विशाल जाला, पाला के पर्वत से निकल कर सहस्र कोसों बहती विष्णु से जगत्व्यापक सागर से मिलती रहती है। इसकी महिमा कौन कह सक्ता है। पद्माकर ने ठीक कहा है -
“जमपुर द्वारे के किवारे लगे तारे कोऊ
हैं न रखवारे ऐसे वन के उजारे हैं।
कहै पदमाकर तिहारे प्रनधारे जेते
करि अधभारे सुरलोक के सिधारे हैं।
सुजन सुखारे करे पुन्य उजियारे अति
पतित कतारे भवसिंधु ते उवारे हैं।
काहू ने न तारे तिन्हैं गंगा तुम तारे आजु
जेते तुम तारे तेते नभ में न तारे हैं॥”
“लाए भूमिलोक तैं जसूस जवरेई जाय
जाहिर खबर करी पापिन के मिश्र की।
कहै पदमाकर विलोकि जम कही कै
विचारो तो करमगति ऐसे अपवित्र की।
जौलौं लगे कागद बिचारन कछुक तौलौं
ताके कानपरी धुनि गंगा के चरित्र की,
वाके सीस ही ते ऐसी गंगाधारा बही जामे
बही बही फिरी बही चित्रहू गुपुत्र की॥”
“गंगा के चरित्र लखि भाषै जमराज ऐसे
एरे चित्रगुप्त मेरे हुकुम में कान दै।
कहै पदमाकर ए नरकनि मूदि करि
मूदि दरवाजन को तजि यह थान दै।
देखु यह देवनदी कीन्हे सब देव याते
दूतन बुलाय के विदा के वेगि पान दै।
फारि डारि फरद न राखु रोजनामा कहूँ
खाता खतजान दै बही को बहि जान दै॥”
यम की छोटी बहिन यमुना से सख्यता करने से यमराज-नगर के नरकादि बंदियों को मुक्ति कराने में कुछ प्रयास नहीं होता। प्रयागराज में यमुना की सहचरी होकर इस भाव को दरसाती है। इसका समागम इस स्थल पर उनकी श्याम और सेत सारी से प्रकट होता है।
कहूँ प्रभा श्यामल, इंद्रनीली
मोती छरी सुंदर ही जरीली।
कहूँ सुमाला सित कंज जाला
विभात इंदीवरहू रसाला॥1॥
कहूँ लसैं हंस विहंग माला
कहूँ सुकाला गुरुपत्र राजै
मनो मही चंदन शुभ्र छाजै॥2॥
कहूँ प्रभा चंदहि की विभासै
जथा तमौ छाय मिली विलासै।
उतै शरत् मेघ-सुपेत लेखा
जहाँ लख्यौ अंबर छेद मेखा॥3॥
कहूँ लपेटे भुजगो जु काले,
भस्मांग सो शंकर केर भाले।
लखो पियारी बहती है गंगा
प्रवाह जाको यमुना प्रसंगा॥4॥
इसके दक्षिण विंध्याचल सा अचल उत्तर और दक्षिण को नापता भगवान् अगस्त्य का किंकर दंडवत् करता हुआ विराजमान है। इसके पुण्य चरणों को धोती मोती की माला के नाईं मेकलकन्यका बहती है, यह पश्चिमवाहिनी, जिस्की सबसे विगल गति है, अपनी बहिन तापती के साथ होकर विंध्य के कंदरों की दरी में तप करती, सूर्य के ताप से तापित, सौतों के सदृश अपने बहुवल्लभ सागर से जा मिलती है नर्मदा के दक्षिण दंडकारण्य का एक देश दक्षिण कोशल के नाम से प्रसिद्ध है।
याही मग ह्वै कै गए दंडकवन श्रीराम।
तासों पावन देश यह विंध्याटवी ललाम।
विंध्याटवी ललाम तीर तरुवर सों छाई।
केतिक कैरव कुमुद कमल के वरन् सुहाई।
भज जगमोहन सिंह न शोभा जात सराही।
ऐसो वन रमनीय गए रघुवर मग याही॥
शाल ताल हिंतालवर सोभित तरुन तमाल।
विलसत निंब विशाल इंगुदी अरु आमलकी।
सरो सिंसिपा सीसम की शोभा शुभ झलकी।
भन जगमोहन सिंह दृगन प्रिय लगत पियाला।
वर जामुन कचनार सुपीपर परम रसाला॥
डोलत जहँ इत उत बहुत सारस हंस चकोर।
कूजित कोकिल तरु तरुन नाचत जहँ तहँ मोर।
नाचत जहँ तहँ मोर रोर तमचोर मचावत।
गावत जित तित चक्रवाक विहरत पारावत।
भन जगमोहन सिंह सारिका शुक बहु बोलत।
बक जल कुक्कुट कारंडव जहँ प्रमुदित डोलत॥
बहत महानदि, जोगिनी, शिवनद तरल तरंग।
कंक गृध्र कंचन निकर जहँ गिरि अतिहिं उतंग।
जहँगिरि अतिहि उतंग लसत श्रृंगन मन भाए।
जिनपै बहु मृग चरहिं मिष्ठ तृन नीर लुभाए।
सघन वृच्छ तरुलता मिले गहवर धर उलहत।
जिनमें सूरज किरन पत्र रंध्रन नहिं निवहत।
मैं कहाँ तक इस सुंदर देश का वर्णन करूँ। कहीं कहीं कोमल कोमल श्याम-कहीं भयंकर और रूखे सूखे वन - कहीं झरनों का झंकार, कहीं तीर्थ के आका र-मनोहर मनोहर दिखाते हैं। कहीं कोई बनैल जंतु प्रचंड स्वर से बोलता है - कहीं कोई मौन ही होकर डोलता है - कहीं विहंगमों का रोर कहीं निष्कूजित निकुंजों के छोर - कहीं नाचते हुए मोर - कहीं विचित्र तमचोर - कहीं स्वेच्छाहार बिहार करके सोते हुए अजगर, जिनका गंभीर घोष कंदरों में प्रतिध्वनित हो रहा है - कहीं भुजगों की स्वास से अग्नि की ज्वाला प्रदीप्त होती है - कहीं बड़े बड़े भारी भीम भयानक अजगर सूर्य के किरणों में घाम लेते हैं जिनके प्यासे मुखों पर झरनों के कनूके पड़ते हैं - शोभित हैं -
जहाँ की निर्झरिनी - जिनके तीर वानीर के भिरे, मदकल कूजित विहंगमों से शोभित हैं - जिनके मूल से स्वच्छ और शीतल जलधारा बहती हैं - और जिनके किनारे के श्याम जंबू के निकुंज फलभार से नमित जनाते हैं - शब्दायमान होकर झरती हैं।
जहाँ के गिरि विवर के तिमिर से छाये हैं। इनमें से भालुनी थुत्कार करतीं निकलकर पुष्पों की टट्टियों के बीच प्रतिदिन विचरतीं दिखाई देती हैं। जहाँ के शल्लकी वृक्षों की छाल में हाथी अपना वदन रगड़ खुजली मिटाते हैं और उनमें से निकला क्षीर सब वन के सीतल समीर को सुरक्षित करता है।
ये वही गिरि हैं जहाँ मत्तमयूरों का जूथ वरूथ का वरूथ होकर वन को अपनी कुहुक से प्रसन्न करता है। ये वही वन की स्थलीं हैं जहाँ मत्त मत्त हरिण हरिणियों समेत विचरते हैं।
मंजु वंजुल की लता और नील निचुल के निकुंज जिनके पता ऐसे सघन जो सूर्य की किरनौं को भी नहीं निकलने देते इस नदी के तट पर शोभित हैं।
कुंज में तम का पुंज पुंजित है, जिस्में श्याम तमाल की शाखा निंब के पीत पत्रों से मिलीं हैं। रसाल का वृक्ष अपने विशाल हाथों को पिप्पल के चंचल प्रबालों से मिलाता है, कोई लता जंबू से लिपट कर अपनी लहराती हुई डार को सबसे ऊपर निकालती है। अशोक के ललित पुष्पमय स्तबक झूमते हैं, माधवी तुषार के सदृश पत्रों को दिखलाती है, और अनेक वृक्ष अपनी पुष्पनमित डारों से पुष्प की बृष्टि करते हैं। पवन सुगंध के भार से मंद मंद चलती है केवल निर्झर का रव सुनाई पड़ता है कभीं-कभीं कोइल का बोल दूर से सुनाता है और कलरव का कल रव निकटस्थित वृक्ष से सुनाई पड़ता है।
ऐसे दंडकारण्य के प्रदेश में भगवती चित्रोत्पला जो नीलोत्पला की झाड़ी और मनोहर मनोहर पहाड़ी के बीच होकर बहती है, कंकगृध्र नामक पर्वत से निकल अनेक अनेक दुर्गम विषम और असम भूमि के ऊपर से बहुत से तीर्थ और नगरों को अपने पुण्यजल से पावन करती पूर्व समुद्र में गिरती है।
यच्छ्रीमहादेव पदद्वयम्मुहुर्महानदी स्पर्शति वै दिवानिशम्।
तदेव तन्नीरमभूत्परं शुचि नवद्वयद्वीपपुनीतकारकम्॥
इसी नदी के तीर अनेक जंगली गाँव बसे हैं। वहाँ के वासी वन्य पशुओं की भाँति आचरण करने में कुछ कम नहीं हैं। पर मेरा ग्राम इन सभों से उत्कृष्ट और शिष्टजनों से पूरित है - इसके नाम ही को सुन कर तुम जानोगे कि वह कैसा ग्राम है।” कह चुप हो रही। मैंने कहा, “धन्य है सुंदरी तूने बड़ी दया की जो इतना श्रम कर इस अपावन जन के कानों को ऐसा मनोहर वर्णन सुना के पावन किया। यदि कष्ट न हो तो और सुनावो।” देवी मुसकिरा के बोली, “भद्र सुनो कहती हूँ” इसकी मुसकिराहट ने मेरे हृदय गगन का तिमिर तुरंत ही मिटा दिया और बोली, “इस पावन अभिराम ग्राम का नाम श्यामापुर है। यहाँ आम के आराम थकित पथिक और पवित्र यात्रियों को विश्राम और आराम देते हैं - यहाँ क्षीरसागर के भगवान् नारायण का मंदिर सुखकंदर इसी गंगा के तट विराजमान है। राम लक्ष्मण और जानकी की मूरतैं सी झलकती हैं। ऐसा जान पड़ता है मानो अभी उठी बैठती हों। मंदिर के चारों ओर गौर उपल की छरदिवाली दिवाली की शोभा को लजाती है। मंदिर तो ऐसा जान पड़ता है मानो प्रालेय पर्वत का कंदर हो भगवान् रामचंद्र के सन्मुख गरुड़ की सुंदर मूर्त्ति कर कमल जोरे सेवा की तत्परता सुचाती है। सोने का घंटा सोने ही की सौंकर में लटका धर्म के अटका सा झूलता दीन दुःखी दर्शनियों के खटका को सटकाता है। भटका भटका भी कोई यद्यपि किसी दुःख का झटका खाए हो यहाँ आकर विराम पाता है, और मनोरंजन दुःखभंजन-गंजन विलोल विलोचनी जनकदुलारी के कृपाकटाक्ष को देखते ही सब दुःख दारिद्र छुटाता है। राम और लक्ष्मण की शोभा कौन कह सकता है -
“शोभा सीवैं सुभग दोउ वीरा। नील पीत जलजात सरीरा॥
मोर पंख सिर सोहत नीके। गुच्छे बिच बिच कुसुमकली के॥
भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए। श्रवण सुभग भूषण छबि छाए॥
विकट भृकुटि कच घूँघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे॥
चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मन मोला॥
मुख छवि कहि न जाय मो पांही। जो बिलोकि बहु काम लजाही॥
उर मणिमाल कंबु कल ग्रीवा। कामकलभ कर भुजबल सीवा॥
राजत राम समाज महँ कोशल राजकिशोर।
सुंदर श्यामल गौर तनु विश्वविलोचन चोर।
शरद चंद्र निदंक मुख नीके। नीरज नैन भावंते जी के॥
चितवनि चारु मार मनहरनी। भावति हृदय जाति नहिं वरनी॥
कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदुबोला॥
कुमुद बंधु कर निंदक हासा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा॥
भाल विशाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं॥
पीत चौतनी सिरन सुहाई। कुसुमकली बिचबीच बनाई॥
रेखैं रुचिर कंबु कलग्रीवा। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवा॥
कुंजर मणिकंठाकलित उर तुलसी की माल।
वृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु विशाल॥”
ऐसा सुंदर ग्राम जिस्में श्यामसुंदर स्वयं विराजमान हैं - मेरा जन्मस्थान था। वाग भी राग और विराग दोनों देता है। देवालयों की अवली नदी के तीर में नीर पर परछाहीं फेकती है - ऐसा जान पड़ता है कि जितने ऊँचे कगूरों से वह अंबर को छूती है उसी भाँति पाताल की गहराई भी नापती है - जहाँ विचित्र पांथशाला - बाला और बालक पाठशाला - न्यायाधीश और प्रबंधकों के आगार - बनियों का व्यापार जिनके द्वारे फूलों के हार टँगे हैं जहाँ की राजपथों पर व्योपारियों की भीर सदैव गंभीर सागर सी बनी रहती है चित्त पर ऐसा असर करती है जो लिखने के बाहर है।
चौड़े चौड़े राजपथ संकीर्ण वीथी अमराइयाँ और नदी के तट सब अभिसारिका और नागरों के सहायक हैं! बिलासियों का सहेट अभिसारिकों का झपेट अनंगरंग का लपेट सपत्न जनों का दपेट सबका सब मन को प्रफुल्लित करता है।
पुराने टूटे फूटे दिवाले इस ग्राम के प्राचीनता के साक्षी हैं। ग्राम के सीमांत के झाड़ जहाँ झुंड के झुंड कौवे और बकुले बसेरा लेते हैं गवँईं की शोभा बताते हैं, प्यौ फटते और गोधूली के समय गैयों के खिरके की शोभा जिनके खुरों से उड़ी धूल ऐसी गलियों में छा जाती है मानो कुहिरा गिरता हो। ये भी ग्राम में एक अभिसार का अच्छा समय होता है।
“गोप अथाइन तें उठे गोरज छाई गैल।
चलु न अली अभिसार की भली सझोखी सैल॥”
यहाँ के कोविद थरथरी - गोपीचंदा - भोज - विक्रम - (जिसे 'विकरमाजीत' कहते हैं) लोरिक और चदैंनी - मीराबाई - आल्हा - ढोला-मारू - हरदौल इत्यादिकों की कथा के रसिक हैं - ये विचारे सीधे साधे बुड्ढे जाड़े के दिनों में किसी गरम कौड़े के चारों ओर प्याँर बिछा बिछा के अपने परिजनों के साथ युवती और वृद्धा बालक और बालक और बालिका युवा और वृद्ध सबके सब बैठ कथा कह कह दिन बिताते हैं।
कोई पढ़ा लिखा पुरुष रामायण और व्रजविलास की पोथी बाँचकर टेढ़ा मेढ़ा अर्थ कह सभों में चतुर बन जाता है, ठीक है।
“निरस्थपादपे देशे एरण्डोऽपि द्रुमायते”
कोई लड़ाई का हाल कहते कहते बेहाल हो जाता है - कोई किसी प्रेम कहानी को सुन किसी के प्रबल विरहवेदना को अनुभव कर आँसू भर लेता है - कोई इन्हैं मूर्ख ही समझकर हँस देता है। अहीर अहिरिनों के प्रश्नोत्तर साल्हो में हुआ करते हैं। यह भोली कविता भी कैसी होती है - अनुप्रास भी कैसा इन ग्रामीणों को सुखद होता है -
“देख बुढ़ौंना के गोठ परोसिन मोला कथै चलकोलामा”
करमा
आमा डार कोइली सुवा बोलै कागा - ध्रुव -
पर्रा में लालभाजी छानी मा आदा
तोर मुटियारी मजा भेंगै राज” - आमा
धानों के खेत जो गरीबों के धन हैं इस ग्राम की शोभा बढ़ाते हैं। मेरा इसी ग्राम का जन्म है। मेरे पिता का वंश और गोत्र दोनों प्रशंसनीय हैं। मेरे पुरुषा प्रथम तो ब्रह्मावर्त्त से उत्कल देश में जा बसे थे। वहाँ बिचारे भले भले आदमियों का संग करते करते कुछ काल के अनंतर उत्कल देश को छोड़ राजदुर्ग नामक नगर में जा बसे। उत्कल देश के जलवायु अच्छे न होने के कारण वह देश तजना पड़ा, ऋषि वंश के अवतंस हमारे प्रपितामहादिक पूजा पाठ में अपने दिन बिताते रहे, कई वर्षों के अनंतर दुर्भिक्ष पड़ा और पशु पक्षी मनुष्य इत्यादि सब व्याकुल होकर उदर पोषण की चिंता में लग गए उन लोगों की कोई जीविका तो रही नहीं, और रही भी तो अब स्मृति पर भ्राँति का जलदपटल छा जाने के हेतु सब काल ने विस्मरण करा दिया। नदी नारे सूख गए, जनेऊ सी सूक्ष्मधार बड़े बड़े नदों की हो गई। मही जो एक समय तृणों से संकुल थी बिलकुल उससे रहित हो गई। सावन के मेघ भयावन शरत्कालीन जलदों की भाँति हो गए। प्यासी धरनी को देख पयोदों को तनिक दया न आई। बिचारे पपीहा के पीपी रटने पर भी पयोद न पसीजा और उसके चंचुपुट में एक बूँद निचोया। इस धरनी के भूखे संतान क्षुधा से क्षुधित होकर व्याकुल घूमने गले। गैयों की कौन दशा कहे ये तो पशु हैं। खेत सूखे साखे रोड़ोंमय दिखाने लगे। शालि के अंकुर तक न हुए किसानों ने घर की पूँजी भी गँवा दी। बीज बोकर उसका एक अंश भी न पाया।
'यह कलिजुग नहीं करजुग है इस हाथ ले उस हाथ दे' - इस कहावत को भी झूठी कर दिया अर्थात् कृषी लोगों ने कितना ही पृथ्वी को बीज दिया पर उसने कुछ भी न दिया। छोटे छोटे बालकों को उनकी माता थोड़े थोड़े धान्य के पलटे बेचने लगी। माता पुत्र और पिता पुत्र का प्रेम जाता रहा। बड़े बड़े धनाढय लोगों की स्त्रियाँ जिनके पवित्र घूँघट कभी बेमर्य्यादा किसी के सन्मुख नहीं उघरे और जिन्हैं आर्य्यावर्त्त की सुचाल ने अभी तक घर के भीतर रक्खा था अपने पुत्रों के साथ बाहर निकल पथिकों के सामने रो रो और आँचर पसार पसार एक मुठी दाने के लिए करुणा करने लगीं। जब संसार की ऐसी गति थी तो हमारे पूर्व पुरुषों की कौन रही होगी ईश्वर जानै। मैं न जाने किस योनि में तब तक थी। जब वे लोग राजदुर्ग में आए किसी भाँति अपना निर्वाह करने लगे। ब्राह्मण की सीधी साधी वृत्ति से जीविका चलती थी। किसी को विवाह का मुहूर्त धरा - कहीं सत्यनारायण कथा - कहीं रुद्राभिषेक कराया - कहीं पिंडदान दिलाया और कहीं पोथी पुरान कहा। द्वादशी कर सीधा लेते लेते दिन बीते। इसी प्रकार जीविका कुछ दिन चली। मेरे पितामह पितामह के वंश के हंस थे। उनका नाम अवधेश था। उनके दो विवाह हुए। उनकी दोनों पत्नी अर्थात् मेरी पितामहीं बड़ी कुलीना थीं। एक का नाम कौशल्या और दूसरी का अहल्या था। अवधेश जी को कौशल्या से एक पुत्र हुवा। उसका सब सिष्टों ने मिल कर इष्ट साध वसिष्ठ सा वलिष्ठ नाम धरा। ये मेरे पूज्यपाद परमोदार परम सौजन्य-सागर सब गुणों के आगर जनक थे। कुल काल बीतने पर कौशल्या सुरपुर सिधारी, उस समय मेरे पिता कुछ बहुत बड़े नहीं थे। शोकसागर में डूबे, पर दैव से किसका बल चलता है।
थोड़े ही दिनों के उपरांत भगवान चक्रधर की दया से अहल्या को एक बालक और एक बालिका हुईं। बालक का नाम नारद और बाला का गोमती पड़ा। यह वही गोमती मेरे पीछे बैठी है। इस अभागिन के कुंडली में ऐसे बाल वैधव्य जोग पड़े थे कि यह बिचारी अपना सुहाग खो बैठी। इसकी कथा कहाँ तक कहूँगी। अभागिनियों की भी कहानी कभी सुहावनी हुई है? मेरे पिता जब युवा हुए अवधेश जी ने राव चाव से उनका विवाह शारंगपाणि की बेटी मुरला से कराया। शारंगपाणि का कुल इस देश के ब्राह्मणों में विदित है, “यथा नामा तथा गुणा:” अतएव उनका कुछ बहुत विवरण नहीं किया, कुछ काल बीते माता गर्भवती हुई। इस समय मेरे पितामह काल कर चुके थे। अपने नातीपंती का सुख न देख सके अहल्या भी अनेक तीर्थों का सलिल बंद पान करते - अपने तन को अनित्य जान तीर्थाटन में लग गई थी। इसलिए इस समय घर में न थी। नौ मास के उपरांत दशम मास में मेरे पिता के एक कन्या हुई, इसे लोग साक्षात् रमा का रूप कहते थे। यह जेठी कन्या थी। इसके अनंतर एक कन्या और हुई। उसका नाम सत्यवती पड़ा। फिर कई वर्षों में भगवान् ने एक सुत का चंद्रमुख दिखाया। सब भवन में उजेला छा गया। गाजे बाजे बजने लगे जो कुछ बन पड़ा दान पुण्य भिखारी और जाचकों को दिया। पुन्नाम नरक के तारने वाले बालक ने मेरी माता की कोंख उजागर की। पर हाय मेटन हितु सामर्थ को लिखे भाल के अंक' - विधाता से यह न सहा गया। सुख के पीछे दुःख दिखाया - अर्थात् कुटिल काल ने इसे कवल कर लिया।
“धिक धिक काल कुटिल जड़ करनी।
तुम अनीति जग जाति न वरनी॥”
माता बिचारी डाक मार मारकर रोने लगी। घर में छोटे बड़े और टोला परोसियों के उत्साह भंग हो गए। जितने लोग पहले सुखी हुए थे उस्से अधिक दुःखी हुए। आँसुओं से सब घर भर गया। पिता हमारे ज्ञानी थे, आप भी ढाढ़स कर सबों को जेठे की भाँति प्रबोध किया और बालक का मृतक कर्म्म करने लगे। काल ऐसा है कि दुस्तर दुःख के घावों को भी पुरा देता है। जो आज भी सो कल न रहा। कल्ह सा परसों न रहा। इसी भाँति फिर सब भूल गए - पर पुत्रशोक अति कठिन होता है। पिता के सदैव इसका काँटा छाती में समा गया। कभी सुखी न रहे - इन दानन मितामी को मना कर फिर तो काजल नैनों में मजा हमारी की दशा देख विलाप करने लगते। फिर गिरस्ती में लोग लगे - कुछ काल के के अनंतर उन्हैं एक कन्या और हुई। इसका नाम पत्रिका के अनुसार सुशीला पड़ा सो हे भद्र! देखो यहीं सत्यवती और सुशीला मेरी दोनों भगिनी सहोदरी हैं और मुझ अभागिन का नाम श्यामा है” - इतना कह चुप हो रही इस नाम के सुनते ही मेरा करेजा कँप उठा और संज्ञा जाती रही - हाय हाय! कहता भूमि में गिर पड़ा और स्वप्न-तरंग में डूब गया।
इति प्रथम स्वप्न!