दिया तले अंधेरा / पहला परिच्‍छेद / नाथूराम प्रेमी

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“विमलप्रसाद, टौनहाल में आज जो स्‍त्री शिक्षा के विषय में व्‍याख्‍यान हुआ था, उसके विषय में तुम्‍हारी क्‍या राय है? महोपदेशक महाशय का यह विचार क्‍या ठीक है कि, लोग स्‍त्री शिक्षा को अच्‍छी नहीं समझते हैं और पुराने ढंग के लोग इसके विरुद्ध हैं, इसलिये स्‍त्री शिक्षा का यथेष्‍ट प्रचार नहीं होता है?”

“व्‍याख्‍यान तो अच्‍छा ही हुआ है। व्‍याख्‍याता की शक्ति भी प्रशंसा के योग्‍य है। परंतु उन्‍होंने जो इसी विषय पर ज्‍यादा जोर दिया कि, लोग स्‍त्री शिक्षा के विरुद्ध में हैं, सो मेरी समझ में ठीक नहीं। यह एक बाधक कारण अवश्‍य है, परंतु आज से 25 वर्ष पहिले इस विषय का जितना महत्‍व था, उतना अब नहीं रहा है। हमारे समाज में अब ऐसे लोगों की संख्‍या बहुत थोड़ी रह गई है, जो इसे बुरा समझते हैं और इसके विरुद्ध में कुछ प्रयत्‍न करते हैं। अब उद्योग करने का समय आ गया है। इस समय स्‍त्री शिक्षा का महत्‍व दिखलाकर लोगों को काम करने के लिये उत्‍तेजित करना चाहिए।”

यह सुनकर लक्ष्‍मीचंद्र ने कहा, “अच्‍छा आप ही बतलावें कि, स्‍त्री शिक्षा का प्रचार करने के लिये लोगों को किन किन कामों के लिये उत्‍तेजित करना चाहिये?”

विमलप्रसाद ने कहा, “मेरी समझ में प्रत्‍येक नगर और गांवों में स्त्रियों के लिये पाठशालायें खुलवाना चाहिये, और उनमें अच्‍छे लोगों की देखरेख में कुलीन सदाचारिणी शिक्षित स्त्रियों के द्वारा शिक्षा दिलवानी चाहिये। लोग अपनी बहू बेटियों को तथा कन्‍याओं को पाठशालाओं में पढ़ने के लिए भेजें, इस विषय में निरंतर उपदेश और प्रेरणा होना चाहिये। इसके सिवाय पढ़ी लिखी स्त्रियों का सत्‍कार करना, उन्‍हें पारितोषिक देकर उत्‍साहित करना, सभाओं तथा मेलों में शिक्षा की आवश्‍यकता पर उपदेश देना आदि अनेक उपाय हैं, जिनसे स्‍त्री शिक्षा का प्रचार हो सकता है।”

“ये प्रयत्‍न तो हमारे यहां बहुत दिन से हो रहे हैं। महासभा के और यंगमेंस एसोसियेशन के प्रत्‍येक अधिवेशन में स्‍त्री शिक्षा संबंधी प्रस्‍ताव रक्‍खे जाते हैं, अच्‍छे अच्‍छे पंडित और जेंटलमेन बड़े-बड़े लंबे चौड़े व्‍याख्‍यान फटकारते हैं, थोड़ी बहुत पाठशालायें भी खोली गई हैं, उनमें पारितोषिक वगैरह भी दिये जाते हैं, परंतु मुझे तो यह सब काम पोच ही दिखते हैं। स्‍त्री शिक्षा के प्रचार का सच्‍चा उपाय इनमें से एक भी नहीं है। पाठशालाओं में जो थोड़ी बहुत शिक्षा दी जाती है, वह स्‍त्री शिक्षा के असली उद्देश्‍य की पूर्ति नहीं कर सकती है। केवल हिंदी का लिखना बांचना आ जाने से अथवा ‘छोटे कंत का ख्‍याल’ वांचने योग्‍य विद्वता प्राप्‍त कर लेने से स्‍त्री शिक्षा लाभकारी नहीं हो सकती। हमारी समझ में तो इस अधकच्‍ची शिक्षा से उलटी हानि हो रही है, और होगी।”

विमलप्रसाद ने कहा - “आप जो कुछ कहते हैं, सो तो ठीक है, परंतु इसका उपाय क्‍या है? बिल्‍कुल नहीं होने से तो अच्‍छा है!”

“उपाय-उपाय क्‍या? वह तुम्‍हारे हाथ में है, मेरे हाथ में है - सबके हाथों में है। केवल इच्‍छा होनी चाहिये। प्रत्‍येक पुरुष को काम में लगना चाहिये। अभी तक यथार्थ में पूछो, तो अपने समाज में स्‍त्री शिक्षा के विषय में सच्‍ची स्‍फूर्ति नहीं हुई है। जो कुछ होता है, सब ऊपरी दिल से होता है। हमारे यहां प्रति वर्ष सैकड़ों सुशिक्षित लोग तैयार होते हैं, बीसों ग्रेज्‍युएट होते हैं और बीसों पंडित होते हैं, जो सारे देश का अथवा समाज का कल्‍याण करने के लिए कंठशोष करते हैं, परंतु विचार करो कि, यदि ये सब बातौनी जमाखर्च छोड़कर दुनियां भर की झंझटों से बरी होकर केवल एक अपने-अपने घर को ही सुधारने के लिये कटिबद्ध हो जावें, अपनी अपनी स्त्रियों को अपने समान विचारों वाली-सुशिक्षिता बनाने का प्रयत्‍न करें, तो कितना लाभ हो सकता है? परंतु हमारे भाइयों को यह विचार सूझे तब न? घर में अंधेरा रखकर हम बाहर उजेला करने के लिये दौड़ते हैं। जहां देखो, वहां ‘परोपदेशे पांडित्‍य’ दिखलाई पड़ता है।”

“भाई साहब, आपका यह विचार बहुत ही उत्‍तम है। बेशक यदि आज हम सब सुशिक्षत लोग अपने अपने घरों के सुधारने का बीड़ा उठा लेवें, तो आशातीत लाभ हो सकता है। हमारी भाभी साहबा को आपने जिस प्रकार से सुशिक्षिता बनाई हैं, उसे देखकर आपकी जहार मुख से प्रशंसा करने को जी चाहता है। किसी ने सच कहा है कि हजार बकबक करनेवालों से एक काम करनेवाला अच्‍छा होता है।”

“खैर, यह तो गई बीती बात है, अब चिंता तुम्‍हारी है। देखना है कि, तुम्‍हारा भाग्‍य कैसा चमकता है। तुम किसी सुशिक्षित भार्या को पाकर धन्‍य होते हो, अथवा मेरे ही समान अशिक्षिता को पाकर परिश्रम करने में दत्तचित्त होते हो। तुम्‍हारे भाईसाहब अच्‍छे विद्वान हैं, इससे तुम्‍हारा जीवन संबंध किसी बुद्धिमती के साथ ही जोड़ा जावेगा, ऐसा जान पड़ता है। मैं उस दिन बहुत प्रसन्‍न होऊंगा, जब तुम्‍हारे जोड़े को एकसा सुशिक्षित और कार्यदक्ष देखूंगा।” विमलप्रसाद के मुख पर किचिंत मुस्‍कुराहट तथा लज्जा की छाया दिखलाई दी। वे इसका कुछ उत्तर दिये बिना ही लक्ष्‍मीचंद्र के घर से उठकर चले आये। चलते-चलते लक्ष्‍मीचंद्र ने कहा - “खैर, टाइम बहुत हो गया है। इस समय जाओ, कल मैं इस विषय में और भी अपने विचार प्रकट करूंगा।

लक्ष्‍मीचंद्र और विमलप्रसाद में अतिशय गाढ़ स्‍नेह था। दोनों ही अच्‍छे, सुशिक्षित, सदाचारी, विचारशील और परोपकारी युवा थे। देश और समाज के हित की ओर उनका निरंतर लक्ष्‍य रहता था। दोनों ही इलाहाबाद कालेज में एल.एल.बी. का अभ्‍यास करते थे। दोनों ने निश्‍चय किया था कि, अंतिम परीक्षा में उत्‍तीर्ण होकर देश और समाज के लिये अपने जीवन का बहुत-सा भाग व्‍यय करेंगे। विमलप्रसाद बोर्डिंग हाउस में रहते थे, और लक्ष्‍मीचंद्र शहर के एक अच्‍छे मुहल्‍ले में कोठरी लेकर अपनी स्‍त्री रामदेई सहित रहते थे। विमलप्रसाद प्राय: हर रोज लक्ष्‍मीचंद्र के यहां आया करते थे, और घंटे आध घंटे देश हित की, समाज हित की तथा अन्‍यान्‍य उत्तमोत्तम विषयों की चर्चा किया करते थे। आज की बैठक में टौनहाल के व्‍याख्‍यान के संबंध में जो चर्चा हुई, उसे पाठक ऊपर बांच चुके हैं।

विमलप्रसाद बोर्डिंग को लौटे, परंतु उनके हृदय में विवाह संबंधी विचार तरंगों की प्रतिध्‍वनि उठने लगी। वे सोचने लगे - जीवन में विवाह करना सबसे महत्त्व का, जोखम का और सुख दु:ख की भवितव्‍यता का प्रश्‍न है। लोग इसे पुतला पुतलियों का खेल समझते हैं, परंतु यथार्थ में यह बड़े ही विचार का विषय है। देखो, लक्षमीचंद्रजी अपनी ही जैसी भार्या को पाकर कैसे सुखी हैं? मैंने उन दानों को अनेक ऊंचे विषयों पर विवाद करते देखा है। घर में कभी उदासीनता की अथवा लड़ाई-झगड़े की छाया भी नहीं देखी। दोनों सदा प्रसन्‍नचित्त रहते हैं। और उधर हमारे विद्वान भाईसाहब की दशा देखो। बेचारे कैसे दु:खी हैं? हमारी भाभी रूपवती है, बोलचाल में अच्‍छी है, बड़े घर की लड़की है, तो भी भाईसाहब कभी प्रसन्‍न नहीं रहते। क्‍यों? इसलिये कि, व‍ह शिक्षिता नहीं है। अशिक्षित भार्या से शिक्षित पुरुष को स्‍वप्‍न में भी सुख नहीं मिल सकता है। क्‍या मेरा विवाह किसी शिक्षिता के साथ होगा? होगा क्‍यों नहीं? मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि, अशिक्षिता के साथ मैं कभी विवाह नहीं करूंगा, चाहे जीवनभर अविवाहित रहूं। मुझे धन दौलत से - दहेज से कोई मतलब नहीं है। किसी गरीब की ही लड़की क्‍यों न हो, यदि वह वय: प्राप्‍त निरोगी सुंदरी और शिक्षिता होगी, तो मैं प्रसन्‍नता से विवाह कर लूंगा। इस प्रकार विचार तरंगों में आंदोलित होते हुए विमलप्रसाद बोर्डिंग में जा पहुंचे। उस रात और कुछ लिखना पढ़ना नहीं हुआ। इसी विषय में संकल्‍प विकल्‍प करते हुए उन्‍होंने निद्रादेवी का आश्रय ले लिया।