दिया तले अंधेरा / दूसरा परिच्‍छेद / नाथूराम प्रेमी

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अनुमान दो महिने पीछे एक दिन सवेरे विमलप्रसाद के हाथ में चिट्ठी रसाने एक लिफाफा लाकर दिया। सिरनामा देखने से अपने बड़े भाई का पत्र जानकर उन्‍होंने उसे बड़ी आतुरता से खोला और पढ़ना शुरू किया। राजी खुशी के समाचारों के पश्‍चात् उसमें निम्‍नलिखित वाक्‍य लिखे हुए थे :

“ * * * पठन पाठन में अंतर न पड़े, इसलिये इतने दिन मैं तुम्‍हारे विवाह की झंझट में नहीं पड़ा था। परंतु अब तुम्‍हारा विवाह शीघ्र कर देना चाहिए, ऐसा मेरा विचार हो रहा है। और घर में तो इसका रात दिन तकाजा ही रहता है। तुम्‍हारा जिस में हित हो, मैं वैसा ही संबंध मिलाने की खोज में हूं। अभी-अभी तीन चार स्‍थानों से संबंध आया है, और उनमें से दो मैंने पसंद भी किये हैं। परंतु घर के लोग उन दोनों को ही पसंद नहीं करते हैं। क्‍योंकि वहां से दहेज वगैरह अधिक मिलने की आशा नहीं है। परंतु अपने को दहेज की आवश्‍यकता नहीं है, लड़की अच्‍छी होनी चाहिए। इसलिए सुशिक्षिता लड़की के लिये ही मैं प्रयत्‍न कर रहा हूं। और जब कोई ऐसा संबंध मिल जावेगा, तब ही मैं इस वर्ष विवाह करूंगा। अपना अनुभव अपनी दृष्टि के सम्‍मुख होते हुए मैं तुम्‍हारा संबंध अशिक्षिता के साथ कभी नहीं करूंगा। तुम्‍हारे विचार मुझे मालूम हैं। उन विचारों को आचार का स्‍वरूप देने में जिससे सहायता पहुंच सकै, तुम्‍हें वही पत्‍नी चाहिए। सो जब मैं वैसी पत्‍नी के साथ तुम्‍हारा संबंध करा सकूंगा, तब ही अपने कर्तव्‍य की पूर्ति समझूंगा।”

भाई साहब का पत्र पढ़कर विमलप्रसाद अंग में फूले नहीं समाये। भाई साहब ने अपने को छोटे से बड़ा किया, अपने पढ़ाने के लिये पानी की तरह पैसा खर्च किया और अब अपनी इच्‍छानुसार कन्‍या की भी शोध में हैं, यह जानकर विमलप्रसाद को आनंद होना ही चाहिए। “थोड़े दिनों में लक्ष्‍मीचंद्र के समान अपनी भी अत्‍यंत संतोषकारक स्थिति होगी। जिस प्रकार हम दोनों मित्रों के एक से विचार हैं, उसी प्रकार हम दोनों की स्त्रियों के भी होंगे, इससे हम अपने विचारों को शीघ्र कार्य में परिणत कर सकेंगे,” ऐसा उन्‍हें विश्‍वासपूर्वक जंचने लगा। इतने में भाभी साहबा के विचारों का जो चिट्ठी में इशारा था, उसका स्‍मरण हुआ। जिससे उन्‍हें शंका हुई कि, “कहीं भाभी साहबा कुछ उल्‍टा ही न कर धरें। परंतु उल्‍टा क्‍या करेंगी, विवाह तो मेरा होना है न? यदि कुछ गड़बड़ हुई, तो मैं एकदम इंकार कर दूंगा। बस झगड़ा मिट जावेगा। परंतु इस विषय में भाभी साहबा ऐसा उल्‍टा हठ करेंगी, ऐसा विश्‍वास तो नहीं है।” इस प्रकार के विचार करके विमलप्रसाद उठ खड़े हुए और कपड़े पहिनकर उन्‍होंने बाहर का रास्‍ता लिया।

पत्र का अभिप्राय मित्रवर को सुनाये बिना विमलप्रसाद को चैन कहां पड़ सकती थी। बस बोर्डिंग से निकलकर आप बिना कुछ यहां वहां देखे, सीधे लक्ष्‍मीचंद्र के घर पहुंचे। बड़े सवेरे ही आया देखकर लक्ष्‍मीचंद्र ने पूछा, क्‍यों विमलप्रसाद, आज तुम यहां कैसे? कुशल तो है?

“हां! कुशल ही है,” यह कहकर विमलप्रसाद ने चिट्ठी निकालकर लक्ष्‍मीचंद्र के हाथ में दे दी। पत्र बांच चुकने पर विमलप्रसाद ने कहा - “देखा आपने, भाई साहब को मेरे विषय में कितनी चिंता है? अब तो आपकी इच्‍छा पूर्ण होने में कोई संदेह नहीं है?”

“इस चिट्ठी में संदेह के निराकरण के योग्‍य तो कुछ बात मुझे नहीं जान पड़ती। बल्कि इससे तो शंका बढ़ती है। जब तुम्‍हारी भाभी साहबा का हठ होगा, तब मुझे आशा नहीं है कि, तुम्‍हारे भाई उसमें जय प्राप्‍त कर सकेंगे। यदि हठ की मात्रा थोड़ी भी बढ़ी, तो भाभी साहबा की ही जीत होगी। इसलिये इस विषय में तुम्‍हें निश्चिंत नहीं रहना चाहिये - एक चिट्ठी के द्वारा अपने विचार स्‍पष्‍ट शब्‍दों में भाईसाहब को प्रकट कर देना चाहिये। उन्‍होंने जब स्‍वयं इस विषय को छेड़ा है, तब तुम्‍हारी ओर से उत्तर जाने में कुछ हानि नहीं है।”

विमलप्रसाद को यह सम्‍मति अच्‍छी जंची, परंतु भाई को पत्र में क्‍या लिखना चाहिये, यह उन्‍हें नहीं सूझा। “तेरे हित का सब प्रकार से खयाल किये बिना मैं कुछ भी नहीं करूँगा।” ऐसा वे लिखते हैं, इतने पर भी मैं उन्‍हें इसी विषय में लिखूं, यह उनका अपमान नहीं तो और क्‍या है? वारंवार यही विचार विमलप्रसाद के मन में आता था। इसलिये आज कल आज कल करते करते एक सप्‍ताह निकल गया। आठवें दिन उन्‍होंने कई घंटे में एक पत्र लिखा। उस समय उनके पास कागज की चिंदियों का ढेर पड़ा था, जिससे मालूम होता था कि, आप पहले 10-20 चिट्ठियां लिख लिखकर फाड़ चुके हैं! पत्र लिख चुकने पर आपको बड़ा भारी समाधान हुआ। मानों आपने एक बड़े भारी कार्य को समाप्‍त किया! लिफाफे को बंद करके डाकखाने में डालने के लिये आप तैयार ही हो रहे थे कि, तार के सिपाही ने एक तार लाकर हाथ पर रख दिया। तार भाई के पास से ही आया होगा, ऐसे विचार से उनका चित्त कुछ अस्‍वस्‍थ हुआ? उन दिनों जबलपुर में प्‍लेग हो रही थी, इससे “तार में क्‍या समाचार होंगे?” विमलप्रसाद ने कई मिनिट इसी की चिंता में निकाल दिये, परंतु बार बांचे बिना छुटकारा नहीं था, इसलिये उसे खोलना ही पड़ा। उसमें लिखा था –

“बहुत जल्‍दी चले आओ, तुम्‍हारे विवाह का निश्‍चय हुआ।”

तार का समाचार पढ़कर विमलप्रसाद ने लिखा हुआ पत्र पाकेट के हवाले किया और घड़ी में आठ बजे देखकर भोजनादि शीघ्रता से समाप्त करके वे 10 बजे की गाड़ी से जबलपुर को रवाना हो गये।