दिया तले अंधेरा / तीसरा परिच्छेद / नाथूराम प्रेमी
प्रियवर मित्र लक्ष्मीचंद्रजी
उस दिन भाई साहब का अचानक तार आया, इसलिये मैं यहां चला आया। आठ बजे तार मिला और 10 बजे गाड़ी रवाना होती है, इसलिये मैं आपसे भी न मिल सका, और सीधा स्टेशन आकर गाड़ी पर सवार हो गया। इसके लिये मुझे क्षमा करें। यहां आकर देखा, तो मेरे विवाह की संपूर्ण तैयारी हो चुकी थी। बुधवार को पाणिग्रहण होने वाला था, और मैं सोमवार को सवेरे यहां आया। भोजनादि कर चुका, दो पहर हो चुके, परंतु तब तक मुझे यह भी मालूम नहीं हुआ कि, लड़की किसकी है। भाभी साहबा तैयारी की इतनी हड़बड़ी में थी, कि इच्छा होने पर भी मैं उनसे इस विषय में कुछ पूछ न सका। भाई साहब सवेरे से ही कहीं चले गये थे। आने पर उनकी सदा की नाईं मुझसे बोलने चालने की इच्छा नहीं दिखाई दी। इसके सिवाय उस समय उनके चेहरे पर थोड़ी सी उदासीनता की छाया भी दिखती थी। इससे उनके समीप यह चर्चा छेड़ने का मुझे साहस नहीं हुआ। तब मुझे एक युक्ति सूझी। मैंने सोचा कि, जो मैंने इलाहाबाद में उनके लिये पत्र लिखा था, और तार आ जाने के कारण डांक में नहीं डाला था, उसे उनके पास पहुंचा दूं। पत्र बांचने पर वे यह विषय छेड़ेंगे, और फिर मुझे जो कुछ पूछना होगा, मैं पूछ लूंगा। ऐसा विचार करके मैंने वह पत्र उनके पास भेज दिया। तत्काल ही उन्होंने मुझे अपनी एकांत कोठरी में बुलाया। मैंने जाकर देखा कि, भाई साहब मेरे पत्र को अपने संमुख रक्खे हुए और अतिशय खिन्नमुद्रा किये हुए बैठे हैं। मुझे दिखेते ही वे बोले, “विमल, यह पत्र तुमने मुझे पहले ही क्यों नहीं भेजा? तुम्हारे विवाह का निश्चय अवश्य ही हुआ है, परंतु मैं जानता हूं कि, उसमें मैंने हित के बदले तुम्हारा अहित ही किया है। मैंने अपनी ओर से शक्ति भर प्रयत्न किया, परंतु घर की ओर से जो हठ किया गया, वह नहीं छूटा। और अंत में लाला बिहारीलालजी की लड़की के साथ संबंध निश्चय करना पड़ा। लड़की खूबसूरत है। अवस्था भी योग्य अर्थात् 14-15 वर्ष की है। दहेज अच्छा मिलेगा। परंतु बिहारीलालजी का घराना बिल्कुल पुराने ढंग का है। स्त्री की शिक्षा की ओर उनका कुछ भी ध्यान नहीं है। बल्कि इसे वे एक पाप समझते हैं। स्त्रियों को बढि़यां बढि़यां कपड़ों और कीमती जेवरों से लदी हुई रखना, इसी को वे अपना कर्तव्य समझते हैं। सभा पाठशालादि कार्यों से उन्हें घृणा है। मंदिर बनवाने और प्रतिष्ठादि कराने में वे लाखों रुपए खर्च कर चुके हैं। लड़की स्यानी हो चुकी थी, एक महीने बाद सिंहस्थ लगती थी, आगे दूसरा मुहूर्त नहीं था, इसलिये उन्होंने बड़े आग्रह से मुझे दबाकर इस संबंध के लिए राजी किया है। इतना अच्छा है कि, उनका घराना बहुत कुलीन है। इतने बड़े धनिक होने पर भी उनके घर की कभी किसी प्रकार की अपकीर्ति नहीं सुनी है। ये सब बातें मैं तुम्हें किस तरह समझाऊं, इसी विचार में था कि तुम्हारा पत्र मिला।” भाई साहब का कथन समाप्त हो चुकने पर मैं अपने मुंह से एक भी शब्द निकाले बिना उठ खड़ा हुआ और बड़ी कठिनाई से अपनी कोठरी तक पहुंचा। मन में विचारों की उथल पुथल मच रही थी। अब क्या करना चाहिये? मेरे सब विचारों का अब क्या होगा? मेरे द्वारा समाज का क्या हित होगा? भाई साहब का जैसा जोड़ा मिला है, वैसा ही अब यह मेरा हुआ। इसकी अपेक्षा जबलपुर से हमेशा के लिये जुहार कर लेना क्या बुरा है? मेरी इच्छा के विरुद्ध उन्होंने यह इतना प्रपंचजाल क्यों फैलाया? पर इसमें उनका क्या दोष है? बेचारों ने निरुपाय होकर किया है। तब इस समय यहां से पलायन करके उनकी कीर्ति में बट्टा लगाना अच्छा नहीं है। जो हुआ है, सो भाग्य से हुआ है। अब तो इस विषय में उनकी सहायता करना ही मेरा कर्तव्य है। ऐसा विचार मेरे जी में आया, इस लिये मैं कन्या संबंधी कुछ अधिक शोध करने के झंझट में न पड़कर जो होगा, सो देखा जाएगा, यह निश्चय करके स्वस्थ हो रहा। तदनुसार कल मेरा विवाह हो गया! भाई साहब की इच्छा है कि, शीघ्र ही इलाहाबाद में घर लेना चाहिये। परंतु मुझे अब क्या करना चाहिये, वह कुछ भी नहीं सूझता है। उसकी शिक्षा की मुझे सर्वथा आशा नहीं है। और मैं इस विषय में कुछ भी प्रयत्न न करने का निश्चय कर चुका हूं। आप जहां रहते हैं, वहीं मेरे लिये एक जगह देख रखिये। आगे पीछे इलाहाबाद ले आने का निश्चय हुआ, तो वहीं रहूंगा। आप के साथ रहने से शायद भाभी साहबा के सहवास का कुछ असर पडे़, तो पड़ै। नहीं तो मेरे भाग्य में क्या है, सो तो दिखता ही है। आपके पूर्व के संपूर्ण विचार अब मुझे स्वप्न सरीखे मालूम पड़ते हैं। “यच्चिंतितं तदिह दूरतरं प्रयाति यच्चेतसापि न कृतं तदिहाभ्युपैति।”
इति शभ्
आपका दु:खी मित्र –
विमल