दिया तले अंधेरा / चौथा परिच्छेद / नाथूराम प्रेमी
विवाह होने के छह महिना पीछे विमलप्रसाद ने लक्ष्मीचंद्र के पड़ोस में ही एक मकान किराये से लिया। रामदेई ने नर्मदाबाई के घर की पहले से ही सब तैयारी कर रक्खी थी, इसलिये उन्हें अपने नये संसार के लिये विशेष झंझटें नहीं उठानी पड़ीं। विमलप्रसाद का अपनी पत्नी से अन्य किसी विषय में वैमनस्य नहीं था। वे उसके साथ अच्छी तरह बर्ताव करते थे। परंतु लिखने पड़ने के विषय में कभी बात भी नहीं निकालते थे। विवाह के थोड़े दिन पीछे उन्होंने अपनी पत्नी से जरा निरसता के साथ पूछा था कि, “तुझे लिखना पढ़ना आता है, या नहीं? यदि नहीं आता है, तो आगे सीखने का विचार है, या नहीं?” इसके उत्तर में नर्मदाबाई ने कहा था, “मुझे कुछ भी नहीं आता है और उसके बिना मेरा कुछ अटका भी नहीं है।” विमलप्रसाद ने इस रूक्ष उत्तर से अपना बड़ा भारी अपमान समझकर पढ़ने लिखने की चर्चा करना छोड़ दी थी। विमलप्रसाद की यह उदासीन वृत्ति देखकर लक्ष्मीचंद्र और रामदेई को बहुत आश्चर्य होता था। वे सोचते थे, विमलप्रसाद का इस विषय में इतना हठ क्यों है? जो हुआ सो हुआ, अब वह वापिस नहीं हो सकता है। फिर इन्हें अपनी पत्नी को ज्ञानसंपन्ना करने का प्रयत्न क्यों नहीं करना चाहिये? एक दिन मौका पाकर उन्होंने कहा – विमलप्रसाद, यह तुमने कौन सा मार्ग स्वीकार किया है? विवाह से पहले के संपूर्ण विचार जान पड़ता है, तुम भूल गये! विमलप्रसाद ने कहा, “नहीं, अभी तो नहीं भूला हूं। परंतु यदि उन्हें जल्दी भूल जाता, तो अच्छा होता।”
“क्यों भला! तुम इतने हताश क्यों हो गये हो? कुछ भी प्रयत्न न करके इस तरह से कष्ट से काल बिताना मेरी समझ में ठीक नहीं है। और इसमें तुम्हारी बहू का भी क्या दोष है? अपने पूर्व में निश्चित किये हुए प्रयत्न में तुम फिर क्यों नही लगते?”
“भाई साहब, इस विषय में मैं अपने भाग्य की परीक्षा कर चुका हूं। मैं हताश हुआ हूं, सो कुछ करके ही हुआ हूं। मुझे चोखा उत्तर मिल चुका है कि- “मुझे लिखना पढ़ना नहीं आता है और उसके बिना मेरा कुछ अटकता भी नहीं है।” फिर जहां इच्छा ही नहीं है, वहां पर उपाय क्या हो सकता है?”
किवाड़ की ओट में खड़ी हुई रामदेई ये बातें सुन रही थी। इस विषय में वह अपनी इच्छा को रोक न सकी, और बोली, “परंतु लालाजी, वह इच्छा उत्पन्न करना क्या आपका कर्तव्य नहीं है? उसे पढ़ने लिखने का शौक आप नहीं लगावेंगे, तो और कौन लगावेगा? आज जब इस विषय में उसके साथ कठोरता का बर्ताव करते हैं, तब पढ़ने लिखने की अभिरुचि होना ही कष्टसाध्य है।”
यह सुनकर विमलप्रसाद ने बहुत देर तक स्तब्ध रहकर कहा - “भाभी साहबा, आप चाहे जो कहें परंतु मुझे इसमें कुछ लाभ नहीं दिखता है। और प्रयत्न करने की अब मेरी इच्छा भी नहीं है।”
लक्ष्मीचंद्र बोले - “विमलप्रसाद, तुम अपने सुख पर स्वयं इस प्रकार से पानी फेरोगे, ऐसा मुझे विश्वास नहीं था। यह मैं मानता हूं कि, कभी उसने त्रासित होकर तुम्हें कुछ उल्टा सीधा उत्तर दे दिया होगा। परंतु क्या छोटी सी भूल पर ख्याल करके उसका अकल्याण और अपना अहित कर डालने को तैयार हो जाना बुद्धिमानी है? मुझे तो भाई यह खासा दिया तले अंधेरा दिखता है। “लोगों को प्रयत्न करना चाहिये। अपनी स्त्रियों को सुशिक्षित बनाना चाहिये, उन्हें विद्या पढ़ने का शौक लगाना चाहिये,” निरंतर इस प्रकार लंबी-लंबी स्पीचें झाड़ने वालों को अपनी पत्नी की एक थोड़ी-सी भूल से क्या इस प्रकार हताश होके बैठ जाना चाहिये? मुझे अपने घर के द्वारा जो कुछ परिचय मिला है, उससे यह भी ज्ञात नहीं हुआ है कि, तुम्हारी पत्नी कुछ अधिक हठीली है। ऐसी अवस्था में एक गई बीती बात का ख्याल करके अपने कर्तव्य का पालन नहीं करना, मुझे तो ठीक नहीं दिखता है।”
इसके उत्तर में विमलप्रसाद ने कुछ नहीं कहा। वे चुपचाप उठकर अपनी कोठरी में चले गये। उनके जाने पर रामदेई ने अपने स्वामी से कहा, “आपको यह विषय इतना नहीं बढ़ाना चाहिये था। मुझे तो ऐसा मालूम पड़ता है कि, उन दोनों के बीच में कोई ऐसी घटना हो गई है, जो अपने से कहने के योग्य नहीं होगी।”
“अपने से भी नहीं कहने योग्य घटना? भला ऐसी क्या बात होगी?”
“कुछ भी हो, उससे हमें कुछ मतलब नहीं है। अब तो मेरे जी में ऐसा आता है कि, जो विमलप्रसाद से न हुआ है, उसे मैं करके बतलाऊं।”
“अर्थात् आप उसे लिखना पढ़ना सिखला के पंडिता बनावेंगी!”
रामदेई ने कहा- “दूसरों को पंडिता बनाने के लिये स्वयं भी तो पंडिता होना चाहिये! केवल लिखना पढ़ना सीखने से ही यदि स्त्रियां पंडिता हो सकती हैं, तो फिर आप लोग इतनी परीक्षा पर परीक्षायें किस लिये देते हैं?”
“अस्तु इस बात को जाने दो, पर यह तो कहो कि, प्रयत्न करने का निश्चय तो हो चुका न?” लक्ष्मीचंद्र ने हंसते हुए पूछा।
“देखिये क्या होता है। मेरा विचार तो है कि, जो कुछ करूं विमलप्रसाद से छुपाकर करूं।”
रामदेई ने नर्मदाबाई को विद्या की अभिरुचि उत्पन्न कराने का निश्चय तो कर लिया, परंतु उसका प्रारंभ किस प्रकार से करना और उसमें सफलता होगी कि नहीं? यह सब छुपके कब तक होगा? आदि सब बातों का वह रात दिन विचार करने लगी। महीने भर तक ऐसा कोई भी अवसर हाथ न आया, जिसमें वह कुछ प्रयत्न करती। एक दिन रविवार को विमलप्रसाद और लक्ष्मीचंद्र दोपहर को अपने एक मित्र से मिलने को गये थे। और कह गये थे कि, हम लोग संध्याकाल तक लौट के नहीं आवेंगे। रामदेई अपनी कोठरी में भारतमित्र का ताला अंक पढ़ रही थी। उसमें कहीं का एक चित्र भी था। नर्मदाबाई का रामदेई की कोठरी में पैर रखते ही उसी पर ध्यान गया।
“क्यों जीजी, यह तुम्हारे हाथ में काहे की तसबीर है।”
रामदेई ने कहा, ‘कौन? यह जो मैं बांचती हूं? यह तो भारतमित्र है -‘
“भारतमित्र क्या, और उसमें यह तसबीर किसकी है? भला इसके पढ़ने से फायदा क्या होता है?”
“नर्मदाबाई, देखो, यह पत्र बहुत अच्छा है। इसके पढ़ने से मनोरंजन होता है, और सैकड़ों नई-नई बातें मालूम होतीं हैं। कभी कभी इसमें ऐसे ऐसे अनेक चित्र भी आते हैं। इसी को बांचने से मैं अपने देश की बनी हुई चीजों को बर्ताव में लाने लगी हूं। उस दिन तुमने पूछा था कि, तुम ये भद्दी चूडि़यां क्यों लेतीं हो, मेरी जैसी अच्छी नगीनें जड़ी हुईं क्यों नहीं लेती, सो उसका सबब यही था कि, तुम्हारी चूडि़यां विलायती और सरेस लगी हुई थी, और मेरी देश की बनी हुई थीं। यह पत्र न पढ़ती, तो मुझे ये बातें कैसे मालूम पड़तीं?”
नर्मदाबाई ने कहा- “मैं तुम्हें प्रत्येक रविवार को यही पत्र पढ़ती हुई देखती हूं। सो तुम इसे रविवार को ही क्यों बांचती हो? क्या एक पत्र बांचने का इतने रविवार लगते हैं? फिर और दूसरे पत्र जो तुम्हारे यहां आते हैं, उन्हें कब बांचती होगी?”
यह प्रश्न सुनकर रामदेई को हंसी आई जाती थी, परंतु उसे उसने बड़े प्रयत्न से दबा कर कहा - “अजी! मैं कुछ एक ही पत्र हर रविवार को नहीं बांचती हूं। किंतु हर रविवार को इसका एक नया अंक निकलता है और इसके प्रत्येक अंक में नवीन नवीन समाचार रहते हैं।”
“क्यों जीजी! तुम्हें क्या सूत्र सहस्रनाम भक्तामर भी बांचना आते हैं?”
“हां आते हैं!”
“बिल्कुल मर्दों सरीखे?”
“नहीं, वैसे तो नहीं, परंतु लिखना बांचना अच्छा आता है। सूत्र सहस्रनाम भक्तामर बांचने से मुझे उनका अर्थ भी समझ पड़ता है। परंतु यह सब मुझे पहले से नहीं आता था। विवाह के पश्चात् मुझे घर ही में यह सब सिखलाया है।”
“किसने? क्या बाबूजी ने तुम्हें सिखलाया है? परंतु क्यों जीजी! इतनी पुस्तकें पढ़कर अपना स्त्रियों को क्या करना है? इसके बिना अपना कुछ अटकता थोड़े ही है!”
“नर्मदाबाई, यह तुम क्या कहती हो? देखो, मुझे थोड़ा सा लिखना पढ़ना आता है, तो मेरा कैसा मनोरंजन होता है? आनंद से दिन कट जाता है। काम के समय अपना काम करना और जब न हो तब कोई अच्छी सी पुस्तक पढ़कर मन बहलाना। इससे बहुत सी नई-नई बातें मालूम पड़ती हैं। देखो, कल ही मैंने स्त्रीशिक्षा नाम की पुस्तक बांचकर पूरी की है। उसमें अपने रोज के व्यवहार की कैसी अच्छी अच्छी बातें लिखी हैं। अपना घर कैसा होना चाहिये। सफाई के लिये अपने को क्या क्या खबरदारी रखनी चाहिये, अमुक पक्कान्न कैसा बनाना चाहिये; अमुक तरकारी में क्या क्या मसाले पड़ते हैं, चोली कुरती के काट कैसे करना चाहिये, आदि अनेक जानने योग्य बातें उसमें लिखी हैं। और यह भी तो सोचो कि, जब अच्छी अच्छी पुस्तकें बांचने से पुरुषों को फायदा होता है, तब स्त्रियों को क्यों नहीं होगा?”
“जीजी! इस पर अब मैं क्या कहूं? परंतु मेरी माँ तो कहती थी कि, जो लड़कियां किताबें बढ़ना सीख लेती हैं, वे उद्धत हो जाती हैं, घमंडिन हो जाती हैं और बुरी भली चालें सीख जाती हैं। परंतु तुम में तो वैसा एक भी अवगुण नहीं दीखता है।”
"बहिनी, तुम यह क्या कहती हो? क्या लिखना पढ़ना सीखने से ही ये अवगुण आ जाते हैं, और मूर्ख रहने से नहीं आते? क्या मूर्ख स्त्रियां बुरी चाल नहीं सीखती हैं?”
“सो तो कुछ नहीं है, परंतु मेरी मां ने एक बार ऐसा कहा था, इसलिये मैंने तुमसे कह दिया। तुम्हारी भलमंसी देखकर तो वह बात निरी झूठ मालूम पड़ती है। अस्तु, अब तो मैं जाती हूं, परंतु कल दोपहर को जब मैं आऊंगी, तब यह अखबार थोड़ा सा मुझे बांचकर सुना दोगी क्या?”
“हां! हां! बड़ी खुशी से। तुम जब आओगी, मैं तुम्हें तब ही बांचके सुना दूंगी।” रामदेई से यह समाधानकारक उत्तर पाकर नर्मदाबाई हर्षित होती हुई अपनी कोठरी में चली गई।