दिया तले अंधेरा / पाँचवाँ परिच्‍छेद / नाथूराम प्रेमी

Gadya Kosh से
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रामदेई बहुत गंभीर विचारवाली थी। अपने सिर पर लिया हुआ काम किस तरह सफल होता है, इसके विषय में वह निरंतर विचार किया करती थी। विमलप्रसाद की सहायता के बिना यह कार्य सिद्ध होना था भी कठिन। परंतु उस कठिनाई की रामदेई ने कुछ भी परवा नहीं की। पहले उसका विचार था कि, लक्ष्‍मीचंद्र की सम्‍मति से यह कार्य करना और इसका परिचय उन्‍हें देते जाना। परंतु पीछे यह सोचकर कि दोनों मित्र हैं, कहीं बातों-बातों में विमलप्रसाद से यह बात कह दी, तो सब आनंद किरकिरा हो जावेगा, उन्‍हें भी इसकी खबर न होने देने का निश्‍चय कर लिया। केवल भारत मित्र के विषय में जो नर्मदाबाई के साथ वार्तालाप हुआ था, वह उसने पति के कानों पर डाल दिया था। पीछे एक चित्त से उसने नर्मदाबाई के पढ़ाने में मन लगाया।

नर्मदाबाई और रामदेई का सौहार्द थोड़े ही दिन में अतिशय सघन हो गया। रामदेई की विनयता, नम्रता, सदाचारिता, उद्योगतत्‍परता, ज्ञान की अभिरुचि, सादगी और रंजायमान करने का स्‍वभाव देखकर नर्मदा को ऐसा मालूम पड़ता था कि, यह कोई विचित्र ही स्‍त्री है, इसलिये वह निरंतर उसके सहवास में रहना ही पसंद करती थी, और पढ़ना लिखना तथा और हजारों बातें सीखा करती थी। धीरे धीरे डेड़ वर्ष व्‍यतीत हो गया। इतने दिनों में क्‍या किया, इसकी कल्‍पना भी उसने अपने पति को न होने दी। उधर टर्म्स शुरु हो गया था, इसलिये दोनों मित्रों को पढ़ने के सिवाय इन बातों की ओर ध्‍यान देने का अवकाश भी नहीं मिलता था।

परीक्षा हो चुकी। परचे दोनों ने अच्‍छे लिखे थे, इसलिये उस दिन लक्ष्‍मीचंद्र और विमलप्रसाद एकत्र बैठे हुए आनंद से गप्‍पाष्‍टक उड़ा रहे थे। रामदेई और नर्मदाबाई भी किवाड़ों की ओट से इनकी गपशप सुन रही थीं। थोड़ी देर में स्‍त्री शिक्षा की चर्चा फिर निकली। जापान में स्‍त्री शिक्षा को अमुक रीति से उत्तेजना दी गई, राजा ने उसमें यों सहायता दी, धनवानों ने यों पारितोषिक दिये, पुरुषों ने यों उद्योग किया, आदि बातें अस्‍खलित रीति से चल रही थीं। इसी बीच में रामदेई ने धीरे से कहा - “आपकी बातों से मुझे एक बात का स्‍मरण हो आया। बहुत दिन से यह विचार मेंरे हृदय में आंदोलित हो रहा है कि, किसी अखबर में विज्ञापन (नोटिस) देकर स्त्रियों से किसी उपयोगी विषय पर निबंध लिखवाना चाहिये।”

यह सुनकर लक्ष्‍मीचंद्र ने हंसते हंसते कहा - “निबंध मंगाना! किसलिये? क्‍या कोई मासिक आसिक पत्र निकालने का विचार हुआ है?”

“यह आपने कैसे जान लिया? मैं क्‍या कहती हूं, सो तो आपने पूरा सुना ही नहीं और लंबा चौंड़ा अनुमान बांधने लग गये।”

बीच में विलप्रसाद ने कहा, “अच्‍छा भाभी जी, आप क्‍या कहना चाहती हैं, सो कहिए!”

रामदेई ने कहा - “यह निबंध केवल स्त्रियों को ही लिखना चाहिये। निबंध पर अपना नाम न लिखकर कोई कल्पित निशान करे भेज देना चाहिये। पीछे उस निशान के साथ अपना नाम एक दूसरे शीलमोहर किये हुए बंद लिफाफे में रखकर भेज देना चाहिये। इस प्रकार आये हुए सब निबंधों में जो उत्तम ठहरेगा, उसे एक उत्तम पारितोषिक दिया जावेगा।”

“ठीक! यह तो सब सुन लिया, परंतु किस विषय पर निबंध लिखवाया जावेगा, सो तो आपने कहा ही नहीं और इनाम की रकम कौन देगा?”

“इनाम पचास रुपये की रखनी चाहिये। और उसके लिये मैं अपनी माँ के दिये हुए रुपयों में से 25 रुपये देने को तैयार हूं! विषय की भी मैंने योजना कर ली है। परंतु लालाजी, उससे आप नाराज तो नहीं होंगे?”

“क्‍यों? मैं नाराज क्‍यों होऊंगा?”

“विवाहित स्त्रियों की शिक्षा इस विषय पर निबंध लिखवाने की मेरी इच्‍छा है, इसलिये!”

“इसमें मैं नाराज क्‍यों होने लगा? आप जिस विषय पर निबंध मंगाती हो, उसे बांचकर कुछ स्त्रियों के विार तो मालूम होंगे! इनाम में 15 रुपये मैं अपनी तरफ से भी दूंगा, परंतु इसमें शर्त यह है कि, निबंध तुम नहीं लिखना!” विमलप्रसाद ने कटाक्ष करके कहा।

लक्ष्‍मीचंद्र मुस्‍कुराते हुए बोले, “हां यह शर्त जरूर होना चाहिये। नहीं तो यदि श्रीमती का ही निबंध पसंद किया गया, तो फिर “गुड़ के गणेश और गुड़ का ही नैवेद्य” हो जावेगा। और इधर बाकी रहे हुए रुपये मुझे देना ही पड़ेंगे, ऐसा जान पड़ता है।”

रामदेई ने कहा - “मैंने यदि निबंध लिखा, तो भी ऐसा कुछ नहीं है कि, मुझे इनाम मिलेगा ही। तो भी आप लोगों के संतोष के लिये मैा यह शर्त स्‍वीकार करती हूं। इनाम किसको देना चाहिये, यह निर्णय करना आप दोनों की मुंसिफी पर है।”