दीवाना-ए-आज़ादी: करतारसिंह सराभा / भाग-19 /रूपसिंह चंदेल

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"मुझे जिस बात की आशंका थी, वही हुआ।" रासबिहारी बोस ने बीस फरवरी की रात गुप्त स्थान पर सराभा से कहा।

"दादा, अब किया क्या जाए?" पिंगले और सराभा ने एक स्वर में पूछा।

"हमें देश छोड़ देना होगा।"

सराभा चिन्ता में डूब गए. वह देश नहीं छोड़ना चाहते थे। जिस काम के लिए अमेरिका से चलकर आए और अपने साथ और पीछे हजारों गदर के लोगों को क्रान्ति के लिए लाए, उन्हें छोड़कर कहीं चले जाना उनकी आत्मा स्वीकार नहीं कर पा रही थी।

"कहां जाया जा सकता है?" पिंगले ने पूछा।

"मैं अभी बनारस जाउंगा और वहाँ से शायद जापान। वह अधिक सुरक्षित है। तुम लोगों के लिए उचित होगा कि काबुल चले जाओ. स्थितियां सामान्य होने के बाद पुनः प्रयास करना सही होगा।"

पिंगले भी सराभा की भांति चिन्ता में डूब गए.

तय हुआ कि अगले दिन रास बिहारी बोस और शचीन्द्र सान्याल बनारस चले जाएगें। सान्याल ने सोच लिया था कि वह वहाँ से कलकत्ता निकल जाएगें।

उस रात सराभा को नींद नहीं आयी। वह भावी योजना पर विचार करते रहे। उन्हें लग रहा था कि इतने दिनों की सारी मेहनत व्यर्थ जा रही थी। कुछ तो किया ही जाना चाहिए. लेकिन क्या, वह सोच नहीं पाए. सुबह उठकर उन्होंनें विष्णु गणेश पिंगले से पूछा कि क्या किया जाना चाहिए.

"मैं भी रातभर यही सोचता रहा हूँ। दादा और सान्याल का निकल जाना उचित है। लेकिन मुझे उन लोगों की चिन्ता हो रही है जो अब तब गिरफ्तार किए जा चुके हैं।"

"लेकिन मैं गिरफ्तार नहीं होना चाहता।"

"मैं भी। बिना कुछ किए गिरफ्तार किए गए तो अंग्रेजों के हौसले और बुलंद हो जाएगें।"

"तुम्हारा क्या खयाल है हरनाम और जगत सिंह? तुम क्या सोच रहे हो?"

"तुम जैसा कहोगे हम वह करेंगे।"

"रास दा को जाने दें उसके बाद विचार करते हैं।"

रास बिहारी बोस और सान्याल २१ फरवरी की ट्रेन से लाहौर से बनारस के लिए प्रस्थान कर गए. उन्होंने अपने वेश बदल लिए थे, जिससे जासूसों को उन पर बिल्कुल ही संदेह नहीं हो सकता था।

उनके जाने के बाद सराभा ने मित्रो के सामने फिर वही प्रश्न रखा, "अब क्या किया जाए?"

"तुमने क्या सोचा है?" पिंगले ने पूछा।

"मैंने सोचा है कि कुछ बम लेकर हम सभी मेरठ चलें और वहाँ की छावनी को उड़ा दें।"

"मेरठ ही क्यों?"

"क्योंकि कृपाल सिंह के कारण पंजाब में पुलिस अधिक सक्रिय है। मेरठ में शायद इतना खतरा न हो। वैसे वह छावनी बहुत बड़ी है।"

उसी रात करतार सिंह सराभा, पिंगले, हरनाम सिंह और जगत सिंह ने दिल्ली होते हुए मेरठ के लिए प्रस्थान किया। उन सभी के पास दस बम थे। उनका इरादा भारतीय सैनिकों को छावनी से बाहर निकालने के बाद छावनी को बम से उड़ा देने का था और भारतीय सैनिकों के साथ मिलकर मेरठ शहर पर कब्जा कर लेने का था। वहाँ से वे दिल्ली के लिए प्रस्थान करके उस पर कब्जा करना चाहते थे। इतिहास अपने को पुनः दोहराने की दिशा में अग्रसर था।

वे २३ फरवरी, १९१५ को शाम मेरठ छावनी पहुंच गए. छावनी के बाहर सन्नाटा था। वे लोग छावनी के निकट कंकड़खेड़ा नामक गांव के एक ईंख के खेत में छुप गए. सराभा और पिंगले छावनी का जायजा लेने के लिए छावनी की ओर गए, लेकिन वहाँ उन्हें केवल अंग्रेज सिपाही गन लिए टहलते दिखाई दिए. छावनी के बाहर न कोई अंग्रेज सिफाही था और न भारतीय। रेलवे लाइन के दूसरी ओर खड़े होकर उन्होंने देखा तो इक्का-दुक्का भारतीय सिपाही छावनी के अंदर चलते दिखाई दिए. उन्हें यह पता था कि छावनी की दूसरी ओर निवृत्त होने के लिए भारतीय सैनिक खेतों की ओर जाते थे। यह जानकारी उन्होंने पहले ही एकत्रित कर ली थी। उन दोनों ने लंबा चक्कर लगाकर गांव के दूसरे छोर यानी पश्चिम छोर से खेतों की ओर गए. बहुत देर की प्रतीक्षा के बाद शराब की खाली बोतलों में पानी भरे दो सिपाही उधर आते दिखाई दिए. खेत की मेड़ पर बैठकर उन्होंने उनके निकट आने की प्रतीक्षा की । निकट आने के बाद उन्होंने छावनी की स्थिति के विषय में पूछा तो ज्ञात हुआ कि वहाँ भी भारतीय सैनिकों को निरस्त्र कर दिया गया था। यही नहीं उनकी सूचना के अनुसार शहर के चार क्रान्तिकारियों को पुलिस ने दो दिन पहले ही गिरफ्तार कर लिया था।

सराभा को समझने में देर नहीं हुई कि वे उनके द्वारा प्रेरित क्रान्तिकारी ही होंगे।

वापस गन्ने के खेत में लौटकर आगे का कार्यक्रम तय करना था। तय हुआ कि देहरादून की ओर से आने वाली गाड़ी से वे दिल्ली निकल जाएंगे और वहाँ से काबुल चले जाएगें। कोशिश होगी कि काबुल के रास्ते वे रूस में प्रवेश कर जाएं। रूस अधिक निरापद था उनके लिए. दसो बमों को उन्होंने वहीं खेत में छोड़ दिया।

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दिल्ली पहुंचकर पिंगले ने कहा कि वह बंबई निकल जाएगें। पिंगले ने बंबई की ट्रेन पकड़ी और सराभा, हरनाम सिंह और जगत सिंह ने लाहौर जाने की एक्सप्रेस ट्रेन पकड़ी। जब वह लाहौर पहुंचे तो उस दिन के अखबार में समाचार पढ़कर हत्प्रभ रह गए. बंबई जाते हुए पिंगले गिरफ्तार कर लिए गए थे। अब उन लोगों के लाहौर से निकल भागने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। उन तीनों ने अपना सामान उठाया और लाहौर छोड़ दिया।

चार दिनों तक ट्रेन और पैदल चलकर उन तीनों ने भारतीय सीमा पार कर ली। आगे का रास्ता जंगल के मध्य से होकर जाता था। बीच में पर्वत श्रृखंलाएं भी थीं। लेकिन तीनों साथियों के उत्साह में कमी नहीं आई. सुबह सूर्य के निकलने के साथ उनकी यात्रा शुरू हो गयी। घने जंगल के बीच से होकर तीनों तेजी से बढ़ते जा रहे थे। उनका विचार जल्दी से जल्दी काबुल पहुंचने का था। दोपहर हो गई. किसी ने भी न तो कुछ खाया था और न ही पानी पिया था। जगत सिंह ने कहा, "करतार सिंह, हम लोगों को चलते हुए कई घंटे हो गए. ठंड के बावजूद प्यास लग आयी है।जहां कहीं पानी मिले वहाँ बैठकर कुछ देर आराम भी कर लेंगे और गला भी सींच लेंगे।"

"मैं भी यही सोच रहा था।" हरनाम सिंह बोले।

"मैं तो चाहता था कि किसी गांव या कस्बे में पहुंचकर ही विश्राम करेंगे लेकिन जैसी तुम लोगों की इच्छा।"

"गांव-कस्बा तो लगता है यहाँ कहीं आसपास है ही नहीं। उसके लिए कितना चलना होगा कहना कठिन है। हो सकता है कि आज की रात भी हमें जंगल और पहाड़ों के बीच बितानी पड़े।"

"हां, हो सकता है।—चलो तुम्हारे मन की बात हो जाए. देखो वह सामने पहाड़ी दिखाई दे रही है—हम लोग वहीं बैठेंगे। ज़रूर वहाँ झरना बह रहा होगा, क्योंकि यहाँ की हवा अधिक ही ठंडी है।"

तीनों पहाड़ी की ओर बढ़ गए. वहाँ वास्तव में एक झरना था। तीनों झरने के किनारे बैठ गए. करतार सिंह ने अपने साथ लाए चनों को थैले से निकाला। तीनों चने खाने लगे।

चना खाते-खाते एकाएक करतार सिंह बोले, "हरनाम एक बात बताओ."

"हां, बोलो।" मुंह चलाना बंद कर हरनाम बोले।

"क्या हम लोग भगोड़े न कहलाएंगे! भगोड़े ही नहीं उन साथियों की नज़रों में विश्वाघाती और कायर भी हो जाएगें, जिनको मैंने कान्तिकारी कार्यों में लगाया और आज वे पुलिस की दरिन्दगी झेल रहे हैं।" फिर कुछ रुककर वह बोले, "हरनाम भागकर हम दुनियां को कौन-सा मुंह दिखाएगें। भावी पीढ़ियां क्या हम पर थूकेंगी नहीं?"

करतार सिंह के दोनों साथी चुप थे। कोई उत्तर नहीं सूझ रहा था उन लोगों को।

सराभा ही बोले, "अब मैं एक कदम भी आगे न जाउंगा। तुम लोग यदि जाना चाहो तो जा सकते हो। मैं वापस लाहौर जाउंगा और सरकार के चंगुल में फंसे साथियों को छुड़ाने का प्रयत्न करूंगा।"

"करतार, मैं तो पहले ही कह चुका हूँ कि हम तुम्हारी आज्ञा का पालन करेंगे। तुम वापस लौटना चाहते हो, हम भी लौटेंगे।—तुम सही सोच रहे हो। मुझे तो अब यहाँ तक चलकर आने पर ही अपने पर शर्म आ रही है। इंसान दूसरों की नज़रों से पहले अपनी नज़रों में गिरता है। हम क्रान्तिकारी हैं—हमें अंतिम दम तक ब्रिटिश हुकूमत से लड़ना होगा।" जगत सिंह ने कहा।

चने खाकर और भरपेट पानी पीकर तीनों ने कुछ देर वहाँ विश्राम किया। उसके बाद आज़ादी का दीवाना करतार सिंह सराभा अपने दोनों साथियों के साथ वापस देश के लिए लौट पड़ा। कई दिनों की यात्रा के बाद वे २ मार्च, १९१५ को सरगोधा पहुंचे, जहां घुड़सवार सेना अवस्थित थी। उन्हें रिशालदार गंडा सिंह की याद आयी। उन्होंने गंडा सिंह को समाचार भेजा। वह उनसे मिलने के लिए चक नं। ५ पहुंचा, लेकिन पुलिस को गंडा सिंह पर पहले से ही संदेह था। जब घोड़े पर सवार गंडा करतार सिंह सराभा से मिलने पहुंचा, सादी वर्दी में पुलिस वाले उसके पीछे चले। चक नं। ५ में सराभा अपने दोनों साथियों सहित गंडा सिंह की प्रतीक्षा कर रहे थे। जैसे ही गंडा सिंह गोड़े से नीचे उतरा और सराभा की ओर बढ़ा, पुलिस ने चारों से उन्हें घेर लिया। सभी पुलिस वालों के हाथों में पिस्तौलें थीं। यद्यपि पिस्तौलें सराभा और उनके साथियों के पास भी थीं और वे स्वयं को गोली से उड़ाने के लिए उन्हें निकाल ही रहे थे कि पुलिस ने तेजी दिखाते हुए उन चारों को पकड़ लिया।

पिंगले को पहले ही लाहौर जेल लाया जा चुका था। करतार सिंह सराभा, हरनाम सिंह, जगत सिंह और गंडा सिंह को भी वहाँ बंद कर दिया गया। उन सभी पर—उन पर ही नहीं जितने भी क्रान्तिकारी पकड़े गए थे उन पर अप्रैल, १९१५ को लाहौर षडयंत्र केस के लिए मुकदमा शुरू हुआ। यह पहला लाहौर षडयंत्र मामला था। ६३ क्रान्तिकारियों को पुलिस गिरफ्तार करने में सफल रही थी। उनके विषय में १३ सितम्बर, १९१५ को लाहौर सेण्ट्रल जेल में जजमेण्ट सुनाया गया। २४ गदर के क्रान्तिकारियों को फांसी की सजा सुनाई गयी, करतार सिंह सराभा और विष्णु गणेश पिंगले उनमें से थे। शेष क्रान्तिकारियों को काला पानी की सजा दी गयी थी।

सराभा के विषय में जज ने कहा था, "इस क्रान्तिकारी को अपने किए का कोई पश्चाताप नहीं है। इसका यह कहना कि उसने जो किया वह अपने देश की आज़ादी और अंग्रेज़ी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए किया, इसे अत्यंत खतरनाक सिद्ध करता है, इसलिए अदालत इसके प्रति किसी भी प्रकार की रियायत देने के पक्ष में नहीं। इसे और इसके साथी विष्णु गणेश पिंगले को इनके प्राण निकलने तक फांसी पर लटकाया जाए."

जजमेण्ट के दो दिन बाद अर्थात १६ जवम्बर, १९१५ को लाहौर सेण्ट्रल जेल में करतार सिंह सराभा और पिंगले को सुबह छः बजे फांसी दे गयी थी। उस समय पूरब में सूरज अपनी लाली बिखेर रहा था।