दीवाना-ए-आज़ादी: करतारसिंह सराभा / भाग-18 /रूपसिंह चंदेल
सराभा और पिंगले उन तमाम शहरों के दौरे पर लाहौर पहुंचने के अगले दिन ही निकल पड़े जिनके लिए रास बिहारी बोस ने उन्हें निर्देश दिए थे। इरादा था कि पंजाब से लेकर दिल्ली तक विद्रोह को सफल बना लिया जाए. सेना के जवान साथ होंगे तो वहाँ से विद्रोह को संयुक्त प्रांप्त और बंगाल, उड़ीसा तक आगे बढ़ाया जाएगा। हालांकि इसके खतरे थे, क्योंकि अंग्रेजों के पास विशाल सेना थी लेकिन उन दिनों जिस प्रकार वह विश्वयुद्ध में उलझी हुई थी उससे क्रान्तिकारियों को समस्त उत्तर भारत अपने कब्जे में दिखने लगा था।
फीरोजपुर, लुधियाना, मोंगा, अंबाला, दिल्ली और मेरठ आदि स्थानों में क्रान्तिकारियों और सेना के भारतीय अफसरों से मिलकर सराभा और पिंगले यथा समय लाहौर लौट आए. अब उन्हें सभा को सफल बनाने की चिन्ता थी। एक दिन दोनों विश्वविद्यालय के छात्रों से मिलने पहुंचे। यूनुस और हुसैन साथ थे। छात्रों के साथ सभा करने और उन्हें १५ फरवरी को क्रान्तिकारियों की सभा में उपस्थित रहने के लिए कहकर दोनों जैसे ही बाहर निकले उन्हें कृपाल सिंह मिल गया।
"आप?" दोनों को देखते ही कृपाल बोला।
"आप तो अमृतसर थे, यहाँ कैसे?" सराभा ने प्रश्न किया।
"आपने कहा था कि मैं १५ फरवरी के लिए लाहौर पहुंचूं। पहले ही आ गया।"
"ओ.के." सराभा बोले।
"हम लोग यहाँ कुछ छात्रों से मिलने आए थे।" पिंगले ने कृपाल सिंह के प्रश्न का उत्तर दिया।
"क्या योजना है?"
"योजना के बारे में १५ फरवरी को ही पता चलेगा।"
"आप लोग मेरे लिए भी कुछ आदेश दें। अभी तक मैं सड़कें ही नाप रहा हूँ।" सड़क पर दोनों के साथ चलते हुए वह बोला, "चलकर कहीं रेस्टारेंट में बैठकर बातें करें?"
"हमें कहीं जाना है।—हम अब पन्द्रह को ही मिल सकेंगे।" सराभा बोले
"मैं साथ चल सकता हूँ?"
"क्षमा करेंगे। हमें किसी गुप्त कार्य से जाना है, जहां हमें ही जाने के आदेश हैं। आप क्रान्तिकारियों के अनुशासन के विषय में जानते ही होंगे।"
"बेशक।"
"फिर, आप हमें यहीं सुबह नौ बजे १५ को मिलें। उस दिन दादा आपको भी काम सौंपेगें।"
"ओ.के." कृपाल सिंह के चेहरे पर निराशाभाव देखा सराभा ने।
कृपाल सिंह से हाथ मिलाकर उसे भ्रम में रखते हुए दोनों स्टेशन की ओर पैदल ही चले। कुछ दूरी जाने के बाद तांगा लिया और एक चौराहे पर उतरकर अनारकली के लिए मुड़ गए.
रासबिहारी बोस और शचीन्द्र सान्याल चौदह के बजाए तेरह फरवरी को ही लाहौर पहुंच गए थे। उनके पहुंचने से पहले ही पिंगले और सराभा ने बड़ी सभा के आयोजन की पूरी व्यवस्था कर ली थी। दूसरे शहरों से एक-दो की संख्या में क्रान्तिकारी शहर में पहुंच चुके थे। वे सब अलग-अलग ही ठहरे। पुलिस को शक न हो इसलिए कोई किसी से नहीं मिला। मीटिंग के लिए सराभा ने लाला अमरनाथ की कोठी में व्यवस्था की थी। लाला अमरनाथ कपड़े के बड़े व्यवसायी थे। उनकी कोठी चार हजार वर्गगज में बनी हुई थी। उसमें दो आंगन थे। लाला का परिवार पहला आंगन पार कर दूसरे आंगन वाले हिस्से में रहता था। लाला अमरनाथ कलकत्ता के अमन मजूमदार की भांति अंग्रेजों के साथ बनाकर तो रखते ही थे वह क्रान्तिकारियों के बहुत ही हमदर्द थे। उन्होंने कोठी के आगे के हिस्से का बड़ा हाल और कमरे ही नहीं सभा के लिए खोले बल्कि उनके खाने-पीने की व्यवस्था भी की। मीटिंग का समय दिन के बजाए रात नौ बजे के बाद का तय किया गया। लेकिन क्रान्तिकारी एक-एक कर दिन में वहाँ आने शुरू हो चुके थे। अमरनाथ के यहाँ व्यवसाय के सम्बन्ध में लोगों का आना लगा ही रहता था, इसलिए एक-एक कर क्रान्तिकारियों के आने से किसी के शक की गुंजाइश न थी।
जैसा कि सराभा ने कृपाल सिंह से कहा था वह उसे लेने के लिए सुबह नौ बजे ही विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर पहुंच गया। कृपाल सिंह सड़क की ओर मुंह करके खड़ा सराभा की प्रतीक्षा कर रहा था। उसे लेकर सराभा लाला अमरनाथ की हवेली में पहुंचे। वहाँ तब तक फीरोजपुर के केवल दो क्रान्तिकारी ही पहुंचे थे। सराभा उसे वहाँ छोड़कर चले गए.
रात नौ बजे रास बिहारी बोस, सान्याल और सराभा लाला की हवेली में पहुंचे। उनका सभी बेशब्री से इंतजार कर रहे थे। उन लोगों के पहुंचते ही हवेली का मुख्य द्वार बंद कर दिया गया। हवेली में एक तहखाना था। लाला ने पहले ही दिन सराभा और पिंगले को तहखाने का रास्ता समझा दिया था और कहा था कि किसी भी प्रकार के खतरे की स्थिति में वे तहखाने में चले जाएगें। वहाँ पहले से ही रोशनी की व्यवस्था कर दी जाएगी। तहखाने से एक रास्ता लाला अमरनाथ की हवेली के पीछे बने बाग में खुलता था। तहखाना में प्रवेश का रास्ता उसी हॉल में पड़े एक पलंग के नीचे बिछी ईरानी कालीन के नीचे था और वह इस प्रकार बनाया गया था कि तहखाने में उतरने के बाद उसे ढक देने और उस पर कालीन डाल देने के बाद किसी को भी यह पता लगाना कठिन था कि उसके नीचे तहखाने में जाने का रास्ता था। सराभा ने पीछे बाग में खुलने वाला रास्ता भी दे लिया था, जो उस जगह खुलता था जहां लाला की बग्घी खड़ी होती थी। वहाँ निकल कर कोई भी आसानी से बाग की दीवार फांदकर बाहर जा सकता था। लेकिन बाहर निकलने वाले रास्ते पर रखे पत्थर पर बाकायदा जंजीर और ताला की व्यवस्था थी। लाला ने ताले की चाबी सराभा को दे दी थी।
लेकिन बिना किसी व्यवधान के रात तीन बजे तक मीटिंग चलती रही। ठंड कड़ाके की थी। बाहर तेज ठंडी हवा चल रही थी। हाल में मद्धिम रोशनी जल रही थी, जिससे केवल लोगों के चेहरे ही देखे जा सकते थे। रात दस बजे सभी के भोजन की व्यवस्था लाला अमरनाथ ने की थी और सबको उसी हॉल में भोजन परोसा गया था। भोजन करते हुए भी मीटिंग चलती रही थी। मीटिंग में हरनाम सिंह दुराड़ा, भाई परमानंद और जगत सिंह भी थे।
मीटिंग में तय किया गया कि २१ फरवरी को मियां मीर, लाहौर, फीरोजपुर, अंबाला, लुधियाना, जालंधर, अमृतसर, राववलपिंडी, दिल्ली और मेरठ में एक साथ विद्रोह किया जाए. विद्रोह की शुरूआत वहाँ की छावनियों से किया जाए. सभी क्रान्तिकारी लौटकर उन छावनियों के उन सिपाहियों से संपर्क करके इस बात की सूचना दे देंगे और सुबह ही विद्रोह कर दिया जाना चाहिए. अंग्रेज अधिकारियों को उनके बंगलों में ही घेर लिया जाना चाहिए और अंग्रेज सिपाइयों को मार दिया जाना चाहिए. उसके बाद कोतवाली, कोर्ट आदि स्थानों पर कब्जा कर लिया जाए और विरोध करने वाले लोगों को गोली मार दी जाए. जो विरोध न करके आत्म समर्पण कर दें उन्हें छोड़ दिया जाए. औरतों, बच्चों और बूढ़ों पर गोली नहीं चलायी जाए.
लाला अमरनाथ के नौकर रात भर जागकर क्रान्तिकारियों को निरन्तर चाय देते रहे थे। सुबह तीन बजे मीटिंग समाप्त होने के बाद सभी को एक बार फिर चाय सर्व की गई. चार बजे एक-एक कर क्रान्तिकारी कंबलों से अपने को ढके हवेली से बाहर निकलने लगे। बाहर शरीर को चीर देने वाली ठंड थी। स्थानीय क्रान्तिकारियों को छोड़कर सभी का एक ही गंतव्य था—रेलवे स्टेशन। सबके थैलों में बम थे। ये वे बम थे जिन्हें सराभा के साथियों ने बनाया था। क्रान्तिकारियों को भारतीय सैनिकों द्वारा विद्रोह किए जाने के बाद उन बमों से छावनियों में अंग्रेज सैनिकों को उड़ाने के साथ कोतवाली आदि स्थानों में विस्फोट करना था।
सोलह को दोपहार रास दा ने सराभा को बुलाया और बोले, "सरदार, मुझे लगता है कि हमें विद्रोह की तिथि में परिवर्तन करना चाहिए."
"क्यों?" सराभा, पिंगले और सान्याल एक साथ बोले।
"लाला अमरनाथ की हवेली से लौटने के बाद मुझे नींद नहीं आयी—।"
रास दा की बात पूरी होने से पहले ही सान्याल बोले, "दादा, आपकी आंखें बता रही हैं।"
"यह कोई बड़ी बात नहीं। आदत है।"
"लेकिन दादा—।"
"वही कहने जा रहा हूँ। मुझे उस नए व्यक्ति पर भरोसा नहीं हो रहा है। मुझे वह संदेहास्पद लग रहा है।"
"कौन? कृपाल सिंह?"
"हां, वही। जब वह अमृतसर में हमसे मिलने आया था तब ही मुझे उस पर संदेह हुआ था।—मेरी आत्मा कहती है कि वह सरकारी जासूस है।"
"दादा, मैं उसे आज ही ऊपर पहुंचा दूंगा।"
"तुम उसे अब कहाँ खोजेगे? उसका मतलब हल हो चुका है। उस पर भरोसा करके उसे मीटिंग में बुलाना हमारी बड़ी भूल रही। मैं जो सोच रहा हूँ यदि सही है तो अब वह तुम्हारी पकड़ से बाहर है। वह पकड़ में नहीं आएगा। हमें एक काम करना होगा और इसके लिए तुम्हे ही नहीं तुम सबको आज ही उन शहरों में जाकर वहाँ के क्रान्तिकारियों को नई तिथि बतानी होगी।"
सराभा, पिंगले और सान्याल रास बिहारी बोस के चेहरे की ओर देखने लगे।
"लखविन्दर सिंह यहीं पढ़ता है?"
"जी, दादा।"
"और मोहम्मद यूनुस और जाकिर हुसैन भी यहीं हैं?"
"जी दादा।"
"लखविन्दर को उसके शहर भेजो। साथ यदि दूसरे शहर का काम भी सौंपना चाहो तो सौंप दो। तुम दोनों मेरठ, दिल्ली, अंबाला चले जाओ. जालंधर और लुधियाना, मोंगा आदि को भी देखना है। मियां मीर और रावलपिंडी भी है। अब यह तुम देखो कि कौन कहाँ जाएगा और यह काम आज ही से शुरू करना होगा।"
"लेकिन नयी तारीख क्या होगी दादा?"
"१९ फरवरी।"
दोपहर को ही सभी को शहर सौंप दिए गए. सभी प्रस्थान कर गए. समय कम था, लेकिन करना था। उन लोगों को जो भी साधन मिले वे उन शहरों में गए और बिना विश्राम किए १८ फरवरी की सुबह लाहौर लौट आए. उस दिन उन्हें लाहौर की छावनी में सेना के भारतीय सिपाहियों से संपर्क करना था।
लेकिन देर हो चुकी थी।
मोहम्मद यूनुस और जाकिर हुसैन रावल पिंडी और मियां मीर जाने पर गिरफ्तार कर लिए गए. सराभा और पिंगले जब शाम लाहौर छावनी में भारतीय सेना के अधिकारियों से मिलने पहुचे तो ज्ञात हुआ कि सभी भारतीय सैनिकों से उनके अस्त्र–शस्त्र छीन लिए गए थे। छावनी में मरणासन्न सन्नाटा व्याप्त था। चारों ओर अंग्रेज सैनिक घूम रहे थे और शहर में पुलिस उन लोगों की तलाश में छापे मारी कर रही थी।
लाला अमरनाथ की हवेली की सघन तलाशी ली गई, लेकिन पुलिस को कुछ भी संदिघ नहीं मिला। लेकिन पुलिस ने लाला को पूछ-ताछ के लिए हिरासत में ले लिया।
रास बिहारी बोस, सान्याल, पिंगले, हरनाम सिंह दुराड़ा, जगत सिंह और सराभा भूमिगत हो गए. उन्हें पकड़ने के लिए पुलिस ने आसमान सिर पर उठा रखा था, लेकिन वे पकड़ से बाहर थे। परन्तु भाई परमानंद गिरफ्तार कर लिए गए थे।