दीवाना-ए-आज़ादी: करतारसिंह सराभा / भाग-17 /रूपसिंह चंदेल
क्रान्तिकारियों के पास धन की कमी नहीं रही। आठ बम लाहौर में बने रखे थे। लेकिन वे ऊंट के मुंह में जीरा थे। सराभा और साथियों ने और बम बनाने का निर्णय किया। रिवाल्वर, गोलियां और दूसरी चीजें भी खरीदने की योजना बनी। इसके लिए एक बार पिर विष्णु गणेश पिंगले को सराभा ने बंगाल भेजने का निर्णय किया। वहाँ जतिन मुखर्जी और सत्येन सेन थे। उनकी सहायता से रिवाल्वर, गोलियां और दूसरे असलाह की व्यवस्था की संभावना थी। निर्णय हुआ कि पिंगले पहले बनारस जाएंगे और वहाँ शस्त्रों की संभावना देखेंगे। यदि वहाँ कुछ न मिला या कम मिला तो शचीन्द्र सान्याल को लेकर वह कलकत्ता जाएगें।
पिंगले के बनारस प्रस्थान के बाद करतार सिंह सराभा ने दूसरे कामरेडों के साथ मिलकर बम बनाने प्रारंभ किए. इसके लिए पहले लुधियाना के पास जबेवाल को चुना गया। बाद में लोहरबड्डी में उस कार्य को शिफ्ट कर दिया गया। पिंगले के लौटने तक काम इतनी तेजी से किया गया कि ८० बम बनकर तैयार हो गए, बीस जनवरी को पिंगले वापस लौट आए. अपने साथ वह पचीस रिवाल्वर और पर्याप्त मात्रा में गोलियां बोरियों में भरकर लेते आए थे। आने के बाद पिंगले ने बताया कि कुछ माल शचीन्द्र सान्याल रास बिहारी बोस के साथ लेकर अमृतसर पहुंचेगें।
समस्या यह थी कि क्रान्तिकारियों के पास बंदूकें नहीं थीं। बंदूकों से दूर तक मार संभव थी, लेकिन वे हताश न थे। कई छावनियों में उन्होंने भारतीय सैनिकों से इसके लिए संपर्क किया हुआ था और सैनिकों ने उन्हें आश्वस्त किया था कि बगावत के समय वे अपने गोला बारूद के साथ उनसे आ मिलेंगे।
अलग खेपों में झबेवाल और लोहरबड्डी में बनाए गए बमों को लाहौर पहुंचा दिया गया। पिंगले ने करतार सिंह को बताया था कि २५ जनवरी को रास बिहारी बोस शचीन्द्र सान्याल के साथ अमृत सर पहुंच जाएगें।
"हमें उनसे मिलना चाहिए." करतार सिंह ने कहा था।
और २६ जनवरी को पिंगले और सराभा अमृत सर में रास बिहारी बोस से मिलने पहुंचे। सान्याल ने बनारस से लाया असलाह सराभा को सौंप दिया, जिसमें दस पिस्तौलें और पांच सौ गोलियां थीं।
"दादा, हमारे पास अस्सी से अधिक बम हैं और पचास से अधिक पिस्तौलें हैं। हमें आगे की कार्यवाई के लिए योजना बनानी चाहिए."
"करतार अभी हमारे पास कुछ वक्त है। मेरी सलाह है कि तुम और पिंगले एक बार लाहौर, मियां मीर, फिरोजपुर, अंबाला, दिल्ली और मेरठ की छावनियों की यात्राएं कर आओ. लाहौर में तुमने अपना बेस बनाया हुआ है और वहाँ के क्रान्तिकारियों से तुम भलीभांति परिचित भी हो और वे तुम्हारा सम्मान भी करते हैं। मैं। जल्दी ही लाहौर पहुंचूंगा। जिन शहरों की बात मैंने की तुम्हें वहाँ के क्रान्तिकारियों से भी मिलना है। वहाँ बगावत के समय उन्हें ही आगे आना होगा। तिथि हम तुम्हारे लाहौर लौट आने के बाद तय करेंगे। तब तक मैं भी यहाँ की छावनी में सैनिकों से मिल लूंगा। जिन स्थानों के नाम मैंने बताए, उनके अलावा भी तुम जा सकते हो और क्रान्तिकारियों से मिलना तो आवश्यक है ही। स्थानीय काम उन्हें ही सौंपना होगा।"
"जी दादा।"
" हम लाहौर में १५ फरवरी को एक सभा करेंगे, जिसमें बगावत की तारीख तय की जाएगी। मैं १४ फरवरी तक लाहौर पहुंच जाउंगा और तुम लोग किसी भी कीमत में दस फरवरी से पहले वहाँ पहुंच लेना और १५ की सभा के आयोजन की व्यवस्था करना। जिन जगहों में क्रान्तिकारियों से मिलोगे, वहाँ के प्रमुख दो-तीन क्रान्तिकारियों को लाहौर पहुंचने के लिए कहना, जिससे उन्हें भावी योजना की जानकारी दी जा सके.
"दादा, एक बात बताना भूल गया था।" सराभा बोले।
"हां—हां—बोलो।" रास दा ने कहा।
"फीरोजपुर के एक हवलदार निहाल सिंह से मेरी मुलाकात लुधियाना से लाहौर लौटते समय हुई थी। वह किसी सरकारी काम से लाहौर आ रहे थे। बातचीत से पता चला कि वह हम क्रान्तिकारियों के प्रति न केवल सहानुभूति रखते हैं बल्कि उनकी हर कीमत में सहायता करना चाहते हैं। जब मैंने उन्हें कहा कि क्या वह अपने यहाँ के शस्त्रागार से हमें अस्त्र-शस्त्र उपलब्ध करवाने में सहायता कर सकते हैं। उन्होंने कहा था कि बगावत के ठीक समय वे अन्य भारतीय सैनिकों के साथ मिलकर शस्त्रागार पर कब्जा कर लेंगे और क्रान्तिकारियों के लिए उसे खोल देंगे।"
"यह बड़ी उपलब्धि है। इस बारे में तुम्हें फीरोजपुर के अपने साथियों को बताना होगा। हम एक साथ सभी जगहों में उपस्थित नहीं रह सकते।"
' जी दादा"सराभा के मुंह से इतना ही निकला था कि सान्याल, जो उस घर के बाहर सड़क पर पिंगले के साथ कुछ बातें कर रहे थे, अंदर आए और रास बिहारी बोस से बोले," दादा, एक युवक—कोई तीस से पैंतीस की आयु का—आपसे मिलने आया है। उसका नाम कृपाल सिंह है। अपने क्रान्तिकारी बता रहा है। "
"तुम आश्वस्त हो उसकी बातों से कि वह क्रान्तिकारी है?" दादा के मुंह से बेसाख्ता निकला।
' वह बता रहा है कि वह सीधे अमेरिका से आ रहा है। अमृतसर के किसी गांव का रहने वाला है और अमेरिका में न्यूयार्क के पास किसी फैक्ट्री में काम करता था। उसने यह भी बताया कि अमेरिका में उसने गदर पार्टी की कई सभाओं में शामिल हुआ था और वह लाला हरदयाल से परिचित था।"
रासबिहारी बोस के कुछ कहने से पहले ही सराभा बोले, "ले आओ उसे।"
युवक अंदर आया। उसके हाथ में गदर का पांच अगस्त का अंक था। परिचय के बाद उसने बहुत कुछ ऎसा बताया कि रास बिहारी बोस और सराभा को उसके क्रान्तिकारी होने में बिल्कुल ही संदेह नहीं रहा। देर तक वह अमेरिका के अपने अनुभव और क्रान्तिकारियों के साथ अपनी मीटिंग्स के बारे में बताता रहा। उसने जिन मीटिंग्स के विवरण दिए उनमें उस सभा का विवरण नहीं था जिनमें क्रान्तिकारियों के भारत प्रस्थान का निर्णय किया गया था।
"आप कब पहुंचे?"
"एक सप्ताह पहले।"
"अकेले?" सराभा ने पूछा। सराभा यद्यपि उसके सारे विवरण से आश्वस्त थे, लेकिन क्रान्तिकारी होने की पहले विशेषता यह थी और यह उन्हें न केवल सोहन सिंह ने बतायी थी और बाद में रास दा ने भी उसकी पुष्टि की थी कि कभी भी किसी भी व्यक्ति पर आँख बंद करके विश्वास नहीं कर लेना चाहिए. इसलिए कृपाल सिंह पर पूरी तरह न सराभा विश्वास कर रहे थे और न ही रास दा।
"आपके साथ और भी कोई आया?"
"नहीं, मैं अकेले आया।" एक क्षण के लिए रुका कृपाल सिंह, "मेरी माँ की तबीयत खराब थी—तार मिला—आना पड़ा। वैसे भी मैं आने का विचार कर रहा था। बहुत से क्रान्तिकारी देश की आज़ादी के लिए आ चुके हैं—एक सच्चा देश भक्त होकर मैं वहाँ अधिक दिनों तक अपने को नहीं रोक सकता था। बस इरादा यह था कि कुछ धन और एकत्र कर लिया जाए—-क्रान्ति जैसे महान काम के लिए धन की आवश्यकता तो होती ही है न! ।"
"अब क्या विचार है?"
"आपके साथ रहना चाहता हूँ और आप जो आदेश देंगे उसे पूरा करना चाहता हूँ।"
"मैं आपसे बहुत छोटा हूँ—मैं आपको कोई आदेश कैसे दे सकता हूँ।"
"क्रान्ति की राह पर कोई छोटा-बड़ा नहीं होता सराभा भरा जी. काम बड़ा होता है। आप जो कर रहे हैं वह इतना बड़ा है कि उसके सामने मैं बहुत छोटा हूँ। मैंने अभी तक कुछ नहीं किया। लेकिन अब करना चाहता हूँ।"
"ओ.के. किरपाल सिंह—" रास बिहारी बोस बोले, "आप पन्द्रह फरवरी को लाहौर में हमसे मिलें।"
"वहां कहां?"
"आप विश्वविद्यालय गेट पर सुबह नौ बजे खड़े मिलें। कोई न कोई आपको ले लेगा।"
"जी सही।" क्षणभर रुका कृपाल सिंह, "यहां मेरे लिए कोई सेवा?"
"नहीं शुक्रिया।" सराभा बोले, "आपकी बीजी की तबीयत कैसी है?"
"पहले से बेहतर है।"
"ठीक है।" रास दा ने कहा, "हम १५ फरवरी को लाहौर में मिलेंगे और आपके लिए कुछ महत्त्वपूर्ण काम सोचकर रखेंगे। लेकिन बरखुरदार यह सोच लें कि क्रान्तिकारी काम बहुत कठिन होता है।"
"दादा, मैंने सोच लिया है। अमेरिका से चलने के समय सिर पर कफ़न बांध लिया था।"
"तब तो आप हमारे लिए काम के सिद्ध होंगे।" रास बिहारी बोस कुर्सी से उठ खड़े हुए और आगंतुक को विदा करने की दृष्टि से हाथ आगे बढ़ा दिया। तब तक पिंगले और सान्याल भी अंदर आ गए थे।
"ओ.के. दादा" कृपाल सिंह उठ खड़ा हुआ, जो उठना नहीं चाहता था।
लेकिन तभी सराभा के मन में जो प्रश्न लगातार उथल पुथल मचाए हुए था जुबान पर आ गया। पूछा, " आपको यह सूचना कहाँ से मिली कि रास दा यहाँ हैं?
"मुझे बनारस के एक मित्र ने सूचित किया और पता भी उसी ने दिया।"
"क्या नाम है उसका?" प्रश्न सराभा ने ही किया। आशंका बेचैन कर रही थी।
कृपाल सिंह ने बी.एच.यू. के उस युवक का नाम बताया जिससे बनारस पहुंचने पर पहली बार सराभा और पिंगले मिले थे और जो दोनों को लेकर रास बिहारी बोस से मिलवाने के लिए लंका के उस राजपूत परिवार में ले गया था।
सराभा की आशंका कुछ शांत हुई.
कृपाल सिंह के जाने के बाद रास बिहारी बोस ने सान्याल से कहा, "हमें इसी वक्त यहाँ से शिफ्ट होना होगा।"
"क्यों दादा?"
"यह जो कृपाल सिंह आया था—यद्यपि यह लग क्रान्तिकारी रहा है। बातों से बिल्कुल नहीं लगा कि कोई छद्म है इसमें, लेकिन हमें एहतियात के तौर पर अड्डा बदल लेना उचित होगा।"
"इतनी जल्दी—सान्याल सोच में पड़ गए."
"सोचने की ज़रूरत नहीं।" सराभा बोले, "बहुत निरापद जगह है स्वर्ण मंदिर। वहाँ अतिथियों के लिए कुछ कमरे हैं। फिलहाल वहाँ जाना उचित होगा।"
"तुमने सही सुझाया करतार। लेकिन तत्काल निकलना भी सही नहीं। एक घंटा प्रतीक्षा कर लेना सही होगा। यदि यह पुलिस इन्फ्रार्मर होगा या जासूस तो एक घंटे में पता चल जाएगा। तुम सबकी रिवाल्वर तैयार हैं न!"
"जी दादा—" सराभा और पिंगले एक साथ बोले।
एक घण्टा से अधिक बीत जाने के बाद सभी एक साथ निकले। सीधे स्वर्ण मंदिर गए. वहाँ सराभा ने रास बिहारी बोस और सान्याल के लिए कमरे की व्यवस्था करवा दी। वहीं सबने लंगर खाया और सराभा और पिंगले लाहौर की ट्रेन पकड़ने के लिए स्टेशन की ओर चले गए.