दीवाना-ए-आज़ादी: करतारसिंह सराभा / भाग-16 /रूपसिंह चंदेल
करतार सिंह, पिंगले और कई क्रान्तिकारियों ने लाहौर के प्रधान पोस्ट आफिस का खजाना लूटने की योजना बनाई. काम आसान न था, हालांकि वहाँ के खजाने को जमा करने जाने के लिए अधिक पुलिस बंदोबस्त नहीं होता था। सभी ने पुलिस वर्दी की व्यवस्था की। एक दिन खजाना लेकर जब पोस्ट आफिस के दो कर्मचारी दो सिपाहियों के साथ बैंक की ओर जा रहे थे इन लोगों ने उन्हें रोक लिया। इनके साथ तीन क्रान्तिकारी बीस-इक्कीस वर्ष की आयु के थे। इनमें दो मोहम्मद यूनुस और जाकिर हुसैन थे। बग्घी रुक गई. बग्घी में सवार पुलिस वालों को नीचे उतरने के लिए कहा गया। पुलिस वाले भौंचक थे। वह नहीं समझ पा रहे थे कि सरकारी आदेश पर वे खजाना जमा करने जा रहे थे, फिर नए पुलिस वाले क्यों?
"आप लोगों के पास अच्छी राइफलें नहीं हैं" अपनी पिस्तौल दिखाते हुए करतार सिंह बोले, "आदेश आया है कि आज खतरा है। कुछ युवक कुछ गड़बड़ करने के इरादे से शहर में घुस आए हैं। आप लोग उन्हें नहीं संभाल पाएगें। इसलिए हमें भेजा गया है।"
सिपाही उतर गए. सराभा, पिंगले और दूसरे क्रान्तिकारी बग्घी में सवार हुए, लेकिन जगह कम थी, इसलिए दो को पैदल चलना पड़ा। सराभा ने बग्घी तेज गति से चलाने का आदेश दिया। पैदल चलने वाले साथी दौड़ रहे थे। लगभग एक मील दूर निकल जाने के बाद एक सुनसान जगह पर सराभा ने पोस्ट आफिस के दोनों लोगों से कहा, "बक्से की जाबी देना।"
"क्यों?" दोनों एक साथ बोले।
"इसका उत्तर चाबी देने के बाद मिलेगा।"
"वह तो बैंक में ही दूंगा।" कर्मचारियों को आशंका हुई कि कुछ गड़बड़ है।
सराभा और पिंगले ने पिस्तौलें निकाल लीं। दोनों कर्मचारी डर गए, लेकिन फिर भी चाबी देने को तैयार नहीं थे। पिंगले ने एक के हाथ हो निशाना साध पिस्तौल चला दी। गोली हाथ छूती निकल गयी। दोनों अब इतना डर गए थे कि प्राणों की भीख मांगते हुए चाबी निकाल कर दे दी। ताला खोला गया। पांच हजार से ऊपर की रकम थी बॉक्स में। अपने साथ लाए बैगों में रकम भरकर उन लोगों ने दोनों कर्मचारियों को नीचे उतार दिया। बग्घी के साथ चल रहे अपने साथियों को उन्होंने पहले ही रास्ते में कोई खतरा न देखकर हाथ का इशारा करके लौटा दिया गया था। उनका साथ चलना और वह भी बग्घी के साथ दौड़ना पुलिस को सतर्क कर सकता था।
पोस्ट आफिस के कर्मचारियों को नीचे उतारने के बाद सराभा, पिंगले, यूनुस और जाकिर हुसैन बग्घी को लगभग दो मील तक दौड़ाते रहे। उन्होंने एक बाग के पास बग्घी छोड़ दी। बग्घीवाला इतना डर गया था कि वह प्राण बचे लाखों पाए के भाव से इतनी तेज से बग्घी दौड़ा ले गया कि वे लोग हंसने लगे थे। दोपहर का समय था। लगभग एक बज रहा था। "अब?" पिंगले ने पूछा।
"हुसैन और यूनुस, तुम दोनों कपड़े बदलकर घर चले जाओ. हम भी कपड़े बदलकर आगे की योजना पर विचार करते हैं।" करतार सिंह सराभा ने कहा।
मोहम्मद यूनुस और जाकिर हुसैन ने कपड़े बदले और पुलिस की वर्दी बाग में बने कुंआ में फेककर कम आमद रफ्त वाले रास्तों से अपने घरों को चले गए और लगभग एक सफ्ताह तक घर से बाहर नहीं निकले। यह निर्देश था उन्हें सराभा का।
सराभा और पिंगले ने भी अपने साथ लाए कपड़े बदले और पुलिस की वर्दी कुंआ में फेक बाग से होते हुए वे वहाँ से लगभग पांच मील दूर एक गांव के घने जंगल में जा छुपे। रात गहराई तो स्टेशन जाने का विचार किया, लेकिन ट्रेन पकड़ना भी खतरा मोल लेना था। पुलिस के स्टेशन और ट्रेन में होने की संभावना थी। वे उस गांव में एक सरदार जी के घर पहुंचे। दरवाजे पर एक बुजुर्ग सरदार को देखकर करतार सिंह ने पंजाबी में उनसे वहाँ रात बिताने का अनुरोध किया। सरदार जी ने उनका पूरा विवरण जानना चाहा और करतार सिंह ने स्पष्ट बता दिया कि वे दोनों अमेरिका से आए हैं और क्रान्तिकारी कामों में लिप्त हैं। उन्होंने सरदार जी को दिन की अपनी घटना भी बता दी। वह इतना समझ रहे थे कि शायद ही सरदार जी उनके साथ धोखा करेंगे और यदि करेंगे तो उनकी पिस्तौलें उनके काम आएंगी। लेकिन वह सही सोच रहे थे। वे क्रान्तिकारी हैं यह जानकर सरदार जी की बांछे खिल गईं। उनका बेटा भी अमेरिका में कैलीफोर्निया की किसी मिल में काम करने गया था और उनके अनुसार वह भी जल्दी ही बहुत बड़े जत्थे के साथ भारत पहुंचने वाला था।
रात सरदार जी के यहाँ बिताकर करतार सिंह सराभा और पिंगले जब शहर के लिए चलने लगे, पिंगले ने कहा,
"सरदार, (वह कभी-कभी सराभा को इस सम्बोधन से बुलाते थे) इस बैग को यहाँ छोड़ा जा सके तो कैसा रहे। इसके साथ लाहौर में प्रवेश अधिक खतरनाक होगा। कुछ दिन बाद हम इसे यहाँ से वापस ले जाएगें।"
"सही।" करतार ने केवल इतना ही कहा और बुजुर्ग सरदार जी की ओर मुड़कर बोले, "बाब्बा जी, आप इस बैग को कुछ दिनों के लिए यहाँ रख लें। दो चार दिनों में हम इसे ले जाएगें।"
"जैसी तुम्हारी इच्छा।" कहकर सरदार जी ने बैग ले लिया और उसे घर के अंदर रख आए. "जिस दिन मर्जी हो ले जाना। इसके साथ तुम लोगों का जाना सही नहीं होगा। आज पुलिस सरगर्मी से तुम लोगों की तलाश कर रही होगी।"
"एक सप्ताह बाद आउंगा।"
"ठीक" बुजुर्ग सरदार जी बोले।
करतार सिंह सराभा और पिंगले ने बुजुर्ग सरदार जी को प्रणाम किया और पगडंडी पर आगे बढ़ गए.
"हम अनारकली नहीं जाएगें—सीधे लुधियाना चलते हैं। वहाँ कुछ और योजना सोचते हैं।"
पिंगले चुप रहे। सराभा के साथ स्टेशन की ओर बढ़ते रहे।
लुधियाना पहुंचकर करतार सिंह सराभा ने वहाँ के गदर के सदस्यों को एकत्रित किया और अपनी योजना बतायी कि शहर के प्रमुख बैंक को लूटा जाए. अगले ही दिन एक-दो के गुट में सभी क्रान्तिकारी कुछ इस अंदाज में बैंक के अंदर दाखिल हुए कि कर्मचारियों को लगे कि बैंक में उनके खाते हैं। कुछ साथी बाहर खड़े पहरेदारी करने लगे। सुरक्षा के लिए एक गार्ड बैंक के बाहर तैनात था। साथियों के अंदर जाते ही बाहर खड़े साथियों ने पिस्तौल के बल पर गार्ड को गार्ड रूम में बंद कर दिया और बाहर से ताला लगाने से पहले उसे क्लोरोफार्म सुंघा करके बेहोश कर दिया। उन लोगों ने किसी भी ग्राहक को अंदर जाने से रोक दिया यह कहकर कि अंदर चेकिंग चल रही है—वे लोग एक घंटा बाद आएं।
अंदर के साथियों ने अंदर से मेन गेट बंद कर दिया और गेट के पास चार क्रान्तिकारी पिस्तौल लेकर खड़े हो गए जिससे कोई कर्मचारी बाहर न जा सके. उन्होंने कर्मचारियों को आदेश दिया कि कोई भी अपनी सीट से हिलेगा नहीं। वे लोग उन्हें कोई क्षति नहीं पहुंचाएगें, लेकिन यदि किसी ने कोई हरकत की तो वे उसे मार देंगे। कर्मचारी डर गए. कर्मचारियों में दो अंग्रेज भी थे। वे थर-थर कांपने लगे। एक की तो पैंट तक गीली हो गयी। करतार सिंह सराभा और पिंगले अंग्रेज बैंक मैनेजर के पास गए और उसे खजाने की चाबी देने के लिए कहा। मैनेजर ने आना-कानी की तो सराभा ने पिस्तौल चला दी। गोली मैनेजर की कनपटी के पास से निकल गयी। उनका उद्देश्य उसे मारना नहीं था। डराना भर था। मैनेजर इतना भयभीत हुआ कि उसने जान खतरे में डालना उचित नहीं समझा और खजाने की चाबी सराभा के हवाले कर दी। मैनेजर को साथ लेकर सराभा और पिंगले उस कोठरी में गए जहां उस दिन लाया गया खजाना रखा हुआ था। लगभग दस हजार रुपए और कुछ सोने की मोहरें लेकर सराभा ने मैनेजर को उसके कमरे में बंद किया और ताकीद की कि एक घण्टे तक वह पुलिस को सूचित नहीं करेगा। करेगा तो वे अगले दिन उसे मार देंगे।
सराभा, पिंगले और बैंक के अंदर उपस्थित सभी क्रान्तिकारी बाहर निकले। उन लोगों ने बाहर से बैंक में ताला बंद किया और बाहर तैनात सभी साथियों को अलग-अलग दिशाओं को निकल जाने के लिए कहकर अपने लिए विशेषरूप से लायी बग्घी में बैठकर वे निकल गए. डकैती के दौरान अंदर के सभी लोगों ने अपने चेहरे छुपा लिए थे, इसलिए उनकी कोई पहचान न थी। उनके निकल जाने के लगभग दो घंटे बाद गार्ड को होश आया। सच बात तो यह कि उसे होश तो पहले ही आ गया था, लेकिन वह इतना डर गया था कि उसने सांस न ली थी। वह समझ गया था कि बैंक में डकैती के उद्देश्य से उसे वहाँ बंद किया गया था और डकैती डालने वाले क्रान्तिकारी युवक थे। उसकी सहानुभूति पहले से ही क्रान्तिकारियों के साथ थी, लेकिन जब उन लोगों ने उसे मारा नहीं केवल बेहोश कर बंद कर दिया तब वह उनका भक्त हो गया था। दो घण्टे बाद जब उसे इस बात का अहसास हुआ कि अब चारों ओर सन्नाटा है तब उसने गार्डरूम के अंदर से चीखना शुरू किया।
इससे पहले बैंक मैनेजर ने सराभा के आदेश का पालन करते हुए एक घण्टा तक चुप्पी साधे रखी थी। वह क्रान्तिकारियों से बहुत डरा हुआ था और उसे इस बात की जानकारी थी कि पंजाब में उन दिनों क्रान्तिकारी सक्रिय थे। उसे अपनी जान प्यारी थी। एक घंटा बाद उसने कमरा खोलने के लिए शोर मचाया। कर्मचारी भी चुप थे। उन्हें भी क्रान्तिकारियों ने चेतावनी दी थी कि एक घंटा वे चुप रहेंगे और बाहर निकलने के लिए शोर नहीं मचाएगें। उनमें दो अंग्रेजों को छोड़कर सभी भारतीय थे, जिनकी हमदर्दी क्रान्तिकारियों के साथ थी। मैनेजर की चीख सुनकर दोनों अंग्रेज क्लर्क दौड़कर गए थे और उसे कमरे से बाहर निकाला था। बाद में खिड़की खोलकर बाहर सड़क पर जा रहे लोगों से कर्मचारियों ने बैंक का ताला खोलने का आग्रह किया था। उसके कुछ देर बाद सभी को गार्ड की चीख सुनाई दी थी। गार्डरूम का तोला तोड़कर उसे बाहर निकाला गया। पुलिस को सूचना दी गई. पुलिस ने सबसे पहले गार्ड को पकड़ा और पूछताछ शुरू की, क्योंकि बैंक के अंदर के लोगों ने कह दिया था कि सभी डकैतों ने मास्क पहन रखे थे, इसलिए पहचाने नहीं जा सके. इतना उन लोगों ने अवश्य बताया कि लुटेरों में अधिकांश सिख थे। केवल तीन युवक गैर सिख थे।
गार्ड ने भी यही कहा कि वह किसी को पहचान नहीं पाया। उन लोगों ने चेहरे छुपा रखे थे और उसे तो बेहोश करके गार्ड रूम में बंद कर दिया था। उसे कुछ देर पहले ही होश आया।
शहर में पुलिस ने छान-बीन शुरू कर दी, लेकिन तब तक क्रान्तिकारी बहुत दूर निकल गए थे।
अगली योजना जमींदारों के घर डकैती दालने की बनी। दो गांवों की पहचान की गई. ये थे सहनेवाल और मंसूरन गांव। मंसूरन गांव का जमींदार अंग्रेज भक्त था और किसानों के प्रति बहुत ही बेरहम। क्रान्तिकारियों ने पहले उसके यहाँ डकैती डाली। वहाँ से उन्हें नकदी कम सोना-चांदी की जेवर मिली। दो दिन की प्रतीक्षा के बाद सहनेवाल गांव के जमींदार के यहाँ रात एक बजे सभी ने धावा बोल दिया। इस जमींदार के यहाँ अधिक माल नहीं मिला क्रान्तिकारियों को। किसी क्रान्तिकारी ने सराभा को बताया कि रब्बो गांव के जमींदार के घर अकूत धन मिलने की संभावना है। रब्बो का जमींदार सहनेवाल गांव के जमींदार से अधिक क्रूर और अंग्रेज भक्त था। अगले दिन कड़कड़ाती ठंड में दस क्रान्तिकारियों और पिंगले के साथ करतार सिंह सांझ ढलने से पहले ही रब्बो गांव के किनारे जा पहुंचे। रात होने तक वे लोग एक घने बाग में छुपे रहे। जब रात गहरा गई और इन लोगों ने समझा कि गांव वाले गहरी नींद में सो गए होंगे तब करतार सिंह और उनके साथी गांव में प्रविष्ट हुए.
गांव में प्रवेश करते ही सबसे पहले कुत्तों ने उनका स्वागत किया। एक कुत्ता करतार सिंह की दाहिनी टांग से आ चिपका। उसने दांत तो भरपूर गड़ाए लेकिन करतार सिंह ने मोटे कपड़े की पतलून पहन रखी थी, इसलिए बच गए. उन्होंने रिवाल्वर की मूठ से कुत्ते के सिर पर हल्की चोट की तो कुत्ता कों—कों करता हुआ दूर भाग गया।
वे लोग जमींदार की हवेली में पहुंचे। दरबान उस समय बैठा ऊंघ रहा था। करतार सिंह ने पीछे से उसे धर दबोचा। दूसरे साथियों ने उसके मुंह में कपड़ा ठूंस दिया और रस्सियों से बांधकर उसे एक ओट में लिटा दिया।
करतार सिंह ने सात साथियों से कहा कि वे साथ लाए रस्सों के सहारे हवेली में ऊपर चढ़ जाएं। विष्णु गणेश पिंगले और दो अन्य साथियों के साथ वे दरवाजे के बाहर खड़े रहे। साथियों के हवेली पर चढ़ जाने के बाद उन्होंने मुख्य द्वार की कुंडी खटखटाई. थोड़ी देर बाद आवाज आई, "कौन इतनी रात गए तंग कर रहा है?"
"खोलिए हुजूर, मैं कलक्टर साहब का नुमाइन्दा हूँ।"
"ओह, अभी खोलता हूँ।"
जैसे ही जमींदार ने दरवाजा खोला, करतार सिंह और उनके साथियों ने उसे दबोच लिया। पिंगले ने पूछा, "करतार इसका क्या करूं?"
एक साथी बोला, "काम तमाम कर देते हैं इस जालिम का।"
"नहीं, हमारा उद्देश्य हत्यांए करना नहीं है। वह भी किसी भारतीय की। हमें तो इसके लूट के धन से मतलब है।" फिर जमींदार की ओर मुड़कर बोले, "बोलो, कहाँ है खजाने की चाबी."
करतार सिंह ने उसे खंभे से बांध दिया और एक साथी को पिस्तौल लेकर वहाँ खड़ा कर दिया जिससे जमींदार शोर मचाकर गांव वालों को एकत्रित न कर सके. जीने से ऊपर जाकर उन्होंने जीने का छत पर खुलने वाला दरवाजा खोल दिया जिससे छत पर चढ़े उनके साथी नीचे आ गए. अब करतार सिंह और पिंगले जमींदार की पत्नी के पास पहुंचे। उसने बिना किसी विरोध के चाबी करतार सिंह को थमा दी। करतार सिंह साथियों के सहयोग से नकद रुपए तथा जेवर इअकट्ठा करने लगे। लेकिन जब वह धन एकत्र कर रहे थे, उन्हें किसी की चीख सुनाई दी। काम साथियों को सौंपकर वह आंगन की ओर दौड़े। देखा, उनका एक साथी जमींदार की युवा बेटी का हाथ पकड़कर कोठरी की ओर खींच रहा था। जमींदार की पत्नी खड़ी कांप रही थी, क्योंकि साथी उसे निकट आने पर रिवाल्वर से मार देने की बार-बार धमकी दे रहा था।
करतार सिंह का खून खौल उठा। पिंगले भी अपने को रोक नहीं सके. दोनों बिजली की गति से वहाँ पहुंचे और साथी के सिर पर रिवाल्वर तानकर पहले उसे रिवाल्वर दे देने का आदेश दिया। उसने रिवाल्वर करतार सिंह को दे दी। अब सिंह की भांति गरज़कर करतार सिंह बोले, "पामर! तेरा अपराध बहुत भीशण है। इसके लिए तुझे तुरन्त गोली से उड़ा देना चाहिए. लेकिन प्रायश्चित के लिए तुझे एक अवसर दे रहा हूँ। दुष्ट, तेरी भलाई इसी में है कि तुरन्त इस युवती के पैरों पर सिर रखकर माफी मांग कि बहन तुझ पापी को माफ कर दे।"
उस साथी ने वैसा ही किया। अब करतार सिंह ने कहा, "उधर माँ के चरण पकड़कर भी क्षमा मांग। यदि वे तुझे क्षमा कर देंगी तो तुझे जिन्दा छोड़ दूंगा, नहीं अभी गोली से उड़ा दूंगा।"
उस साथी ने वैसा ही किया। यह सब देख जमींदार की पत्नी और बेटी की आंखें छलछला आईं। जमींदार की पत्नी ने करतार सिंह को सम्बोधित कर कहा, "बेटा, ऎसे उच्च विचार रखकर भी तुम डकैती जैसा जघन्य कार्य क्यों करते हो?"
"मां, रुपए के लिए हमने डाका नहीं डाला। हम अंग्रेज सरकार के खिलाफ क्रान्ति की तैयारी कर रहे हैं। शस्त्र आदि खरीदने के लिए रुपया चाहिए. वह कहाँ से आए. उसी कार्य के लिए यह करने के लिए हमे बाध्य होना पड़ा है।"
जमींदार की पत्नी ने आंखों में आंसू भरकर कहा, "बेटा, लड़की की शादी करनी है। उसके लिए रुपए चाहिए. कुछ देते जाओ."
तब तक सारा धन एक गठरी में बांधा जा चुका था। करतार सिंह और पिंगले ने गठरी जमींदार की पत्नी के सामने फैला दी और बोले, "मां, जितना धन चाहिए ले लें।"
जमींदार की पत्नी काफी देर तक करतार सिंह को सजल नेत्रों से निर्निमेष देखती रही, फिर बोली, "बेटा जमींदार साहब ने मेरे मना करने के बावजूद किसानों को खूब लूटा है। यदि बेटी की शादी न करनी होती तो मैं इसमें से एक कौड़ी भी न लेती। लेकिन—-।"
"मां, आप बहन की शादी के लिए आवश्यकता भर धन ले लें—।" करतार सिंह ने कहा।
तभी जमींदार की बेटी आगे बढ़ आयी और माँ को रोकती हुई बोली, "आपने मुझे बहन कहा—भाई, मेरे लिए शादी से बड़ी बात भारत माँ की आज़ादी होगी। आप यह सारा धन अपने कार्यों के लिए ले जाएं—जब तक भारत माँ गुलाम है—मैं कुंआरी रहना पसंद करूंगी। आप जैसे भाई जिस माँ को आज़ाद करवाने के लिए इतना सब कर रहे हों उसकी बहन क्या इतना त्याग नहीं कर सकती!"
करतार सिंह सराभा, पिंगले और दूसरे सभी साथियों की आंखें गीली हो गयीं। वह बेहद भावुक क्षण था। जो साथी उस लड़की के साथ बलात्कार करना चाह रहा था वह आगे बढ़कर उस लड़की के पैरों पर गिरकर फूट फूटकर रोने लगा, "मुझ अपराधी को गोली मार दो बहन।"
"नहीं, भाई—आप क्षण भर के लिए अपने उद्देश्य से भटक गए थे—-आप में भी देश की आज़ादी की वही तमन्ना है जो आपके साथियों में है। आप उठें और इस धन को लेकर तुरंत चलें जाएं इससे पहले कि गांव के लोग जाग जाएं—-" इतना कह वह लड़की कोठरी के अंदर चली गयी।
जमींदार की पत्नी ने गीली आंखों से कहा, "बेटा, मेरी बेटी ने मेरी आंखें खोल दी हैं। आप इस धन के साथ तुरंत गांव से दूर चले जाएं"
करतार सिंह सराभा, पिंगले और अन्य क्रान्तिकारियों ने उस देवी के चरण छुए और गठरी उठाकर रात के अंधेरे में खो गए.