दीवाना-ए-आज़ादी: करतारसिंह सराभा / भाग-1 /रूपसिंह चंदेल

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उस वर्ष अप्रैल के मध्य से ही प्रचंड गर्मी प्रारंभ हो गयी थी। मई आते-आते लू के थपेड़ों के साथ दिन भर सूरज आग बरसाता रहता। उस दिन भी भयानक गर्मी थी। हवा सन्न थी। घर के सामने खड़े नीम के पेड़ पर पत्ता तक नहीं हिल रहा था। २४ मई, १८९६, रविवार का दिन था। लुधियाना के जट सिखों का गांव सराभा में मंगल सिंह ग्रेवाल के घर के सामने नीम के तीन पेड़ थे। पेड़ों पर कुछ पक्षियों ने अपने कोटर बना लिए थे। एक पेड़ पर कठफोड़वा पक्षी गर्मी की परवाह नहीं करता हुआ नया घर बनाने में व्यस्त था। चोंच से वह पेड़ पर कुट-कुट करता और कुछ देर बाद थक जाने या किसी आशंका को भांप सिर घुमाकर इधर उधर देखता और फिर अपने काम में व्यस्त हो जाता। एक डाल पर दो कौवे रुक-रुक कर कांव-कांव कर रहे थे। पेड़ के सामने अपनी चौपाल पर गांव के अपने कुछ सिख भाइयों के साथ बैठे गपशप करते सरदार मंगल सिंह ग्रेवाल कठफोड़वा अपने काम में व्यस्त देख रहे थे। आखिर उनसे रहा नहीं गया। सामान्य बातों के बीच बोले, "देखो, वह कठफोड़वा किस प्रकार अपने काम में व्यस्त है। वह एक कोटर बनाता है। कुछ दिन उसमें रहता है और फिर उसे छोड़कर दूसरा बनाने लगता है।"

"हां, बहुत कर्मठ पक्षी है।" गांव का एक किसान बोला, जो मंगल सिंह का पड़ोसी था।

"यह जो नया घर बनाएगा उसमें स्वयं रहने लगेगा और कुछ दिन बाद इसके पुराने घर में कोई और पक्षी अपना अड्डा जमा लेगा।" मंगल सिंह बोले।

"यह कुछ नहीं बोलता।" एक किसान बोला।

"जबकि हम हैं कि यह मेरा और यह तेरा में डूबे रहते हैं। हमें इससे सीखना चाहिए."

"हां—मनुष्य बहुत स्वार्थी होता है भ्रा जी." एक अन्य किसान ने अपनी बात कही।

"इसी स्वार्थ ने ही न हमें गुलाम बना दिया। अंग्रेजो ने इसका भरपूर लाभ उठाया—-एक दूसरे से लड़वाया और आज वे हम पर राज कर रहे हैं।"

जब मोहल्ले के अपने चार किसान भाइयों के साथ मंगल सिंह ग्रेवाल सबको पंखा झलते हुए बातें कर रहे थे उस समय उनके पिता एक ओर कुर्सी पर बैठे गुरु ग्रंथ साहब का पाठ कर रहे थे। घर के अंदर चहल-पहल थी। मोहल्ले की कई स्त्रियां एकत्रित थीं। उनकी चख-चख बाहर चौपाल तक पहुंच रही थी।

"जीना हराम कर दिया है इस कौम ने। हमारे राजाओं ने अगर सत्तावन में मुगल बादशाह का साथ दिया होता तो हम कब का आजाद हो चुके होते।" एक अन्य युवा पड़ोसी बोला, जिसने लुधियाना के मालवा हाई स्कूल से आठवीं की थी और इतिहास में अच्छी रुचि रखता था।

"तुम सही कह रहे हो बलवंत" मंगल सिंह ग्रेवाल बोले, "हमारे महाराजों को ऎय्याशी से ही फुर्सत नहीं थी। अंग्रेजों ने इनकी कमज़ोरी पहचान ली थी, तभी न इनके लिए सुरा-सुन्दरी का इंतजाम करते रहते थे। यहाँ तक जो अंग्रेज अपनी लड़कियों की ओर किसी भी रईस हिन्दुस्तानी की बुरी नज़र पड़ने पर उसे तबाह करने पर कोई कसर नहीं छोड़ते थे, वे अपने शासन को बचाने के लिए अपनी युवतियों को इनके हरम में भेजने में संकोच नहीं करते थे।"

"जो कुछ ये महाराजा लोग उनके लिए उपलब्ध करवाते थे, वे इनके लिए. क्योंकि वे जानते थे कि पंजाब में क्रान्ति की गूंज से उनके पैर उखड़ जाएंगे।" बलवंत, जिसका नाम बलवंत सिंह था, बोला, "नाना साहब और उनके सहायक क्रान्ति के लिए मेरठ, दिल्ली होते हुए पटियाला तक आए थे। महाराजा साहबान ने उन्हें गोलमोल जवाब दिया था और सत्तावन की क्रान्ति में सिख सैनिकों ने जिस प्रकार अंग्रेजों का साथ दिया था, उसका कलंक हम आज तक नहीं धो पाए भ्रा जी."

"तुम सही कह रहे हो बलवंत।" मंगल सिंह ग्रेवाल ने कहा। वह भी पढ़े लिखे किसान थे। शेष तीन किसान चुपचाप उन्हें सुन रहे थे। उन्हें इतिहास के बारे अधिक मालूम नहीं था। जो कुछ सुना वह उन दोनों से ही सुना था। लेकिन वे अंग्रेजों और उसके जमींदारों के सताए हुए लोग थे। वही क्यों, गांव का किसानों का बड़ा वर्ग ऎसा था जो जब तब सताया जाता था। हालांकि मंगल सिंह सम्पन्न किसान थे और उनके साथ वैसा कुछ न था जैसा साधारण किसानों के साथ होता था, लेकिन उनके लिए किसी के अधीन गुलाम की-सी स्थिति में रहना अपमानजनक था। आए दिन उन्हें अंग्रेजों और जमींदारो और जागीरदारों की ज्यादितियों की जानकारी मिलती रहती थी। वह स्वयं कई बार देखते थे, लेकिन अवश देखते रह जाते थे। खून खौलता और सोचते कि वह कुछ कर पाते, लेकिन 'उनका साथ कौन देगा' यह सोचकर चुप रहते।

"आपको पता ही है भाई जी" बलवंत आगे बोला था, "अंग्रेजों ने हमारे सिख सैनिकों किस प्रकार इस्तेमाल किया था?" बलवंत सिंह आगे बोला, "युद्ध के दौरान वह उन्हें आगे रखते थे, जिससे क्रान्तिकारियों की गोली उन्हें लगे और यही नहीं जहां-जहां उन्होंने तबाही मचाई उसमें भी हमारे भाइयों को आगे रखा।" बलवंत का स्वर तेज हो उठा था।

"जानता हूँ बलवंत—लेकिन उस दौरान जो कुछ हुआ वह सब हमारे शासकों के कारण, लेकिन अब स्थितियां कितनी बदल गयी हैं। आज हमारे भाइयों में कितने ही क्रान्तिकारी गतिविधियों में शामिल हैं। मुझे लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब इन फिरंगियों को यहाँ से भागना होगा।"

मंगल सिंह का अंतिम वाक्य समाप्त हुआ ही था कि घर के अंदर से थाली बजने की आवाज आयी। आवाज सुनते ही बड़े ग्रेवाल साहब ने गुरु ग्रंथ साहब में सिर झुकाते हुए कहा, "वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरु जी की फतह"

मंगल सिंह के सभी साथी किसानों ने उन्हें बधाई दी। धन्यवाद देकर भी वह चुप रहे। उन्हें इंतजार था कि अंदर से कोई आएगा और शुभ समाचार बताएगा।

"टेंट ढीली करो भ्रा जी" एक किसान साथी बोला।

"करूंगा। सब को छककर मिठाई खिलाउंगा। लुधियाना चलकर—धीरज तो धर।" मंगल सिंह बोले।

"भाई जी, सही सूचना का इंतजार कर रहे हैं।" बलवंत सिंह ने कहा।

"अरे सूचना की—रब की मेहरबानी से घर का चिराग आया है। जमकर दावत होगी मंगल।" दूसरा किसान बोला।

"होगी भाई—ज़रूर होगी।"

तभी एक अधेड़ पड़ोसन लपकती हुई आई. बोली, "मुंह मीठा करावन खातिर गरेवाल जी मिठाई मंगा लो—-बेटा जनमा है।" अब हम तभी अपने घर जाएगें जब आप मुंह मीठा करवाओगे।

मंगल सिंह ग्रेवाल के चेहरे पर लाली दौड़ गयी। वह कुछ करते कि उनके पिता गुरु ग्रंथ साहिब बंद करके उनके पास आए और जेब से चांदी के दो रुपए देते हुए बलवंत से बोले, "जा बेटा हलवाई की दुकान से इतने की जितनी मिठाई मिले ले आ।"

बलवंत नंगे पैर हलवाई की दुकान की ओर दौड़ गया।