दीवाना-ए-आज़ादी: करतारसिंह सराभा / भाग-2 /रूपसिंह चंदेल

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मंगल सिंह के यहाँ बालक जन्में छः माह व्यतीत होने को थे। बालक हृष्ट-पुष्ट और स्वस्थ था। दादा ने छः माह का होने पर अन्न प्रासन और नामकरण करने का निर्णय किया था। मंगल सिंह अपने पिता का बहुत सम्मान करते थे। उनके दोनों छोटे भाई, जिनमें एक उत्तर प्रदेश में पुलिस इंस्पेक्टर के पद पर तैनात थे और दूसरे उड़ीसा में वन विभाग में, वे भी पिता का बहुत सम्मान करते थे। बड़े होने के कारण प्रारंभिक शिक्षा लेकर मंगल सिंह ने खेती संभाली थी और दोनों भाइयों को आगे बढ़ने में सहयोग किया था। वह प्रायः कहा करते कि वह और उनका परिवार जो भी है पिता के श्रम और उदारता के कारण है, जिनका मान सम्मान आस-पास के दस गांवों में था। तय हुआ कि जिस दिन बालक छः माह का होगा एक बड़ा आयोजन किया जाएगा। गांव के लोगों को दावत दी जाएगी।

मंगल सिंह ने एक माह पहले से ही तैयारी प्रारंभ कर दी। घर के बाहर लगने के लिए शामियाने का आदेश दे दिया, हलवाई तय हो गया और लुघियाना की एक नर्तकी भी तय कर ली गयी। दोपहर तक पूजा-पाठ और नामकरण के बाद रात देर तक भोज और उसके बाद रात भर नृत्य का आनंद। पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार सब हुआ। पंडित की पूजा और अन्न प्रासन के समय तक बालक माँ साहिब कौर की गोद में रहा। चमकदार कपड़ों में गोल गालों वाला वह बहुत सुन्दर लग रहा था। माँ की गोद में ही दादा ने बालक के मुंह में खीर चटाई. लोगों ने बच्चे पर नेगों की बौछार कर दी। सारा गांव उस समय एकत्रित था। अन्न प्रासन के समय साहिब कौर ने बच्चे को दादा की गोद में दे दिया था। उन्हें ही उसका नामकरण भी करना था।

नवंबर का महीना था। दोपहर के दो बज रहे थे। भोजन के लिए मेहमान एकत्रित हो चुके थे। दादा ने पंडित से पूछा, "की नाम सोचा पंडित तुमने?"

"मुझे की सोचना—आपकी गोद में है बच्चा—हमारे यहाँ बड़े बुजुर्ग बच्चे का नाम देते हैं। आपने कुछ तो सोच ही रखा होगा। वैसे आपने मुझसे पूछा तो एक मिनट रुकना होगा।" पंडित बोला।

बुजुर्ग ग्रेवाल पंडित की ओर देखते रहे। वह पत्रा खोलकर कुछ विचार करता रहा फिर बोला, "पत्रा के अनुसार बालक का नाम महिन्दर बनता है गरेवाल साहब—सही नाम है। पिता का नाम मंगल सिंह और बेटे का महिन्दर सिंह।"

"हुंह" दादा बालक को गोद में पकड़े चुप कुछ देर तक सोचते रहे।

नवंबर की धूप चारों ओर खिली हुई थी और गुनगुनी धूप में बालक दादा की गोद में हाथ पैर चलाता हुआ मुस्करा रहा था। दादा ने सोचा शायद वह कह रहा है, ' दादा जी, मेरा नाम रखना आपके लिए चुनौतीपूर्ण हो रहा है। अरे रख दीजिए न कुछ भी—"

कुछ देर सोचने के बाद मंगल सिंह के पिता की गंभीर आवाज फूटी. अपना दाहिना हाथ बालक के सिर पर रखते हुए वह बोले, "नहीं पंडिता, महिन्दर सोहिन्दर नहीं—-रब ने मुझे इसका नाम सुझाया है करतार सिंह" ।

"गरेवाल साहब, यह नाम भी अच्छा है। पत्रा में क अक्षर भी आया था विचार में लेकिन मुझे लगा कि क से कोई नाम आपको पसंद नहीं आएगा। उत्तम नाम है। करतार दुनिया में आपका नाम रौशन करेगा।" पंडित ने उठकर बच्चे के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया।

दादा समझ रहे थे कि पंडित नेग लेने के लिए उनकी चाटुकारिता कर रहा था। वर्ना उसने पत्रा में नाम देखने की केवल खाना पूर्ति की थी। उसने नाटक करके एक नाम उनके सामने उछाल दिया था।

"जा करतारा, माँ की गोद में" साहिब कौर की ओर बालक को बढ़ाते हुए बुजुर्ग दादा ने कहा, "ले साहिब—भूखा है—" वह उठ खड़े हुए और मंगल सिंह को सम्बोधित करते हुए बोले, "समय बीतता जा रहा है मंगल—सबको खाने के लिए बैठाओ."

बलवंत सिंह दौड़कर शामियाने में बैठे लोगों के पास गया और पंगत में बैठकर भोजन करने के लिए सबको आमन्त्रित किया।

शाम छः बजे तक गांव के स्त्री, पुरुष, बच्चे, बूढ़े—-सभी जाति के लोग आते रहे और जीमते रहे।

अंधेरा होने के साथ ही गैस के हण्डे जल गए. घर के चारों ओर ऊंचे और मजबूत बांसों पर हंडे लटका दिए गए. चार हंडे शामियाने के अंदर लगाए गए जिससे शामियाने के नीचे का हिस्सा जगजगा उठा।

लुधियाना से आयी नर्तकी का नाम संतरा बाई था। संतरा बाई का परिवार कानपुर का रहने वाला था। उसकी माँ मौसमी बाई एक कुशल नर्तकी थी। कानपुर के मूलगंज में रहती थी और अन्य पेशेवर घरों से उसका घर बिल्कुल अलग था। वह परिवार कला की पूजा करता था। नृत्य और संगीत। हर दिन शाम आठ बजे से बारह बजे रात तक उसके यहाँ महफिल जमती थी। शहर के रईस और धन्नासेठ नृत्य और संगीत का आनंद लेने आते थे।

मौसमी बाई का मन नया गंज के सेठ बनारसी दास से रमा तो उन्होंने दूसरे की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा। कई सेठ ऎसे थे कि वह उसे सोना-चांदी से तौलने की बात करते लेकिन मौसमी ने बनारसी दास के साथ विश्वासघात कभी नहीं किया। पहले ही उन्होंने लाला जी से तय कर लिया था कि वह कभी भी उनकी कोठी में जाकर नहीं रहेंगी और कभी भी लाला जी उनकी कला में बाधा नहीं उत्पन्न करेंगे।

मौसमी बाई के यहाँ केवल कानपुर के रईस ही नहीं जाते दूसरे शहरों से व्यापार करने के लिए कानपुर जाने वाले रईस भी जाते थे। उनमें से ही एक थे मंगल सेन कपूर। कपूर का लुधियाना में कपड़े का बड़ा व्यवसाय था और कानपुर कपड़ा मिलों के लिए देश में मशहुर शहर था। उसे भारत का मैनचेस्टर कहा जाता था। कपड़ा मिलों के अलावा भी अपने अन्य उद्योगों के लिए यह शहर दुनिया में विख्यात था।

मंगल सेन कपूर थोक में कानपुर से कपड़े खरीदते थे। व्यवसाय के लिए शहर के कितने ही कपड़ा व्यवसाइयों से उनकी पहचान थी। उनमें से ही एक व्यवसायी के साथ वह मौसमी बाई के यहाँ नृत्य–संगीत का आनंद लेने एक बार जो गए तो दोबारा उस व्यवसायी की उन्हें आवश्यकता नहीं रही थी। वह जब भी कानपुर शहर में होते, मौसमी बाई के यहाँ रात नौ बजे के लगभग पहुंच जाते। बारह बजे तक रहते। मौसमी की बेटी संतरा उन्नीस पार चुकी थी और माँ की भांति कला पारंगत थी। मंगल सेन कपूर की नज़रें संतरा पर टिक गयीं। लंबे, भव्य व्यक्तित्व के धनी मंगल सेन ने भी संतरा को आकर्षित किया था। कानपुर के अन्य रईसों की दृष्टि भी संतरा पर थी और वे भी उसकी नथ का सौदा करना चाहते थे। कई ने तो मौसमी के सामने उसके सोलह की होते ही प्रस्ताव दिया था, लेकिन मौसमी, "यह संतरा को ही तय करना है—" कह लोगों की बात टाल दी थी।

संतरा माँ से कई गुना सुन्दर थी। बनारसी दास उसका विवाह धूमधाम से करना चाहते थे। उन्होंने उसके लिए बनियों में एक लड़का भी देख लिया था, जो मसालों का बड़ा व्यवसायी था। लेकिन संतरा को वह पसंद नहीं और पसंद न होने का मुख्य कारण यह था कि वह कला के साथ कोई समझौता नहीं करना चाहती थी, जबकि विवाह का अर्थ था अपनी मर्जी से नहीं पति की मर्जी से चलना। वह माँ की भांति ही कला के लिए समर्पित रहना चाहती थी और जब उन्नीस की होने पर मंगल सेन कपूर ने उसके सामने प्रस्ताव किया तब उसने दो टूक शब्दों में कहा था, "कपूर साहब, एक ही शर्त है?"

"वह क्या?" संतरा के संतरे जैसे चेहरे पर आंखें गड़ा कपूर ने पूछा था।

"मां के बारे में आपको पता है?"

"क्या?"

"उन्होंने कैसा जीवन जिया—-लाला बनारसी दास के अलावा अपनी कला से ही नेह जोड़ा और लाला जी कभी उनकी कला के समर्पण के आड़े नहीं आए. कभी अपनी कोठी में जाकर रहने के लिए नहीं कहा।"

"तुम कहना क्या चाहती हो संतरा?"

"मैं भी माँ जैसा ही जीवन जीना चाहती हूँ। आपकी देहरी से नहीं बधूंगीं। मैं कला की पूजा करती हूँ और आजीवन करूंगी। आपको मेरे लिए अलग रहने के लिए इंतजाम करना होगा, जहां मैं कला की पूजा कर सकूं। मेरा दरबार लगा करेगा और यदा कदा बाहर भी नृत्य-संगीत के लिए जाया करूंगी।"

"मुझे मंजूर है।"

' ऎसे नहीं कपूर साहब! "

"फिर कैसे?"

"सब कुछ कोर्ट में तय होगा। मेरे पिता लाला बनारसी दास, मेरी माँ और दूसरे गवाहों के सामने आपको शपथ पत्र देना होगा।"

"मंजूर है।" मंगल सेन कपूर संतरा की सुन्दरता में इतना मुग्ध थे कि उनके सामने वह और भी जो शर्त रखती मंजूर होती और संतरा की शर्त के अनुसार एक दिन संतरा मंगल सेन कपूर के साथ लुधियाना आ गयी थी।

शर्तों के अनुसार कपूर ने संतरा के लिए अलग एक बड़े मकान में उसके रहने की व्यवस्था की। शर्त में यह तय था कि वह मकान उसके नाम करवा देंगे उसके बाद वह उस पर अधिकार पा सकेंगे। मंगल सेन कपूर को उसके नाम अपना दूसरा मकान करना पड़ा था, जिसे उन्होंने गोदाम के रूप में रखा हुआ था। वह दओ सौ पचास वर्ग गज में बना बड़ा मकान था, जिसमें नीचे बड़ा हॉल था। संतरा के वहाँ जाने से पहले मंगल सेन कपूर ने उसे भलीभांति दुरस्त करवाया था। रंग रोगन करवाया था। वर्षों से उपेक्षित पड़ा वह मकान संतरा के आ जाने से चमक उठा था। कुछ दिनों बाद ही संतरा ने महफिल जमानी शुरू कर दी थी। कुछ दिनों में ही उसके नृत्य–संगीत की धूम मच गयी थी। दो वर्षों तक तो मंगल सेन कपूर का परिवार वह सब बर्दाश्त करता रहा, लेकिन एक दिन परिवार में विस्फोट हुआ और उनके घर वाले संतरा बाई पर घर खाली करने के लिए दबाव बनाने लगे। मामला कोर्ट में गया। मंगल सेन कपूर वह मकान उसके नाम कर चुके थे—-कागजात संतरा के पास सुरक्षित थे। संतरा के मुकदमा दायर करते ही और परिवार के दबाव में मंगल सेन कपूर को संतरा से अपने को अलग करना पड़ा। यद्यपि दोनों में से किसी ने भी एक-दूसरे से अलग होने का मुकदमा दायर नहीं किया था, लेकिन अपने बच्चों के बड़े होने और उनके विद्रोही होने के भय से मंगल सेन कपूर ने पूरी तरह संतरा से रिश्ता तोड़ लिया। मकान के मुकदमे का निर्णय संतरा के पक्ष में हुआ और संतरा की कला परवान चढ़ती रही।

उसी संतरा बाई को मंगल सिंह ग्रेवाल बलवंत के सुझाव पर रात नृत्य गायन के लिए सुनिश्चित कर लाए थे। रात के भोजन के पश्चात रात भर संतरा के नृत्य का लुत्फ उठाते रहे थे सराभा और उसके आसपास के गांव के लोग। अगले दिन लुधियाना के लिए प्रस्थान करने के समय संतरा बाई ने साहिब कौर और करतार को बुलाया था। करतार को गोद में उठाए साहिब कौर संतरा से चौपाल में मिलीं तो संतरा ने दस सोने की गिन्नियां करतार की ओर बढ़ाते हुए साहिब कौर से कहा था, "भैन जी, यह इस बालक के लिए मेरी ओर से नेग।"

साहिब कौर ने मना किया लेकिन संतरा ने जबर्दस्ती दसो गिन्नियां करतार के ऊपर रख दीं, "आप इंकार नहीं करें। मुझे करतार में बहुत कुछ दिखाई दे रहा है। यह देश का नाम रौशन करने वाला बालक है।" और तेजी से संतरा मुड़ गयी थी लुधियाना जाने के लिए. वास्तव में संतरा ने भी ख्वाब देखा था कि मंगल सेन कपूर से उसे भी कोई औलाद होगी जिसे वह पाल पोस कर किसी योग्य बनाएगी, लेकिन वह साध पूरी न हुई थी। अब उसकी दृष्टि में हर बच्चा उसका अपना बच्चा होता था।

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करतार के जन्म के बाद मंगल सिंह ग्रेवाल के आंगन में किलकारियां गूंजने लगी थीं। खेतों में काम कर लौटने के बाद वह बेटे को गोद ले लेते और कभी घर के बाहर सड़क पर तो कभी गांव के दूसरे छोर घूमते रहते। उनकी अनुपस्थिति में करतार दादा के पास अधिक रहता। माँ साहिब कौर दिन भर घर के कामों में या खेती के मामलों में व्यस्त रहती थी। करतार के रोने की आवाज से जब अनुमान लगता कि वह भूखा है वह ससुर से बेटे को ले जाती और क्षुधा शांत होने के बाद जब करतार खेलने लगता वह उसे फिर दादा के पास खेलने के लिए छोड़ जाती।

घुटनों चलने लगने के बाद दादा उसे जमीन पर छोड़ देते। करतार घुटनों घर के सामने का पूरा सहन मझां आता। दादा देखकर मुस्कराते रहते। धूल से सन जाता तब वह उसे गोद उठा लेते और साहिब कौर को आवाज देकर कहते, "देख साहिबा, लाडले तो अभी से खेती करने लगा।"

साहिब कौर बेटे को दादा की गोद से लेकर धूल झाड़ती और ज़रूरत पड़ने पर नहला देती।

सुबह से रात देर तक घर में रौनक रहती। करतार तेजी से बड़ा हो रहा था। गांव में स्कूल था, इसलिए पिता मंगल सिंह ने सोचा कि उसे कुछ विद्या प्रारंभ करवायी जाए. वह लगभग तीन साल का होने वाला था। पिता ने उसे गुरुमुखी में कक्का, खखा, गग्गा—प्रारंभिक अक्षर ज्ञान करवाना प्रारंभ किया। लेकिन तभी एक दिन वह बीमार पड़ गए. बीमारी ऎसी कि तमाम डाक्टरों, हकीमों, वैद्यों की दवा से लाभ नहीं हुआ और एक दिन मंगल सिंह ग्रेवाल का निधन हो गया। घर में कोहराम मच गया। बालक करतार समझ नहीं पा रहा था कि आखिर हंसते मुस्कराते चेहरे अचानक चीख पुकार क्यों कर रहे थे। वह गुमसुम-सा अच्छे स्वच्छ कपड़ों में घर के एक खंभे से टिका खड़ा सबको रोते बिलखते देख रहा था। वह माँ को दहाड़ मारकर छाती पीटते देख सहम रहा था और चाहता था कि जाकर पूछे कि बीजी तू रो क्यों रही है। लेकिन घर के आंगन में भीड़ इतनी थी कि वह जाने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। वह यह देखकर भी परेशान था कि उसके दादा जी भी आंगन में चादर ढके उसके पिता पर बार-बार झुककर रो क्यों रहे थे। लेकिन वह अपनी जगह चुपचाप खड़ा रहा। तभी पड़ोस की एक महिला ने उसे पुचकारते हुए कहा, "करतारा तू मेरे साथ आ। मेरे घर चल। वहा सुरिन्दर के साथ चलकर खेल। यहाँ से चल बेटा।"

खड़े खड़े करतार के पैर थक गए थे। पड़ोसी महिला के बुलाने पर वह उसकी गोद में उसके घर चला गया। रात देर वह महिला उसे उसके घर छोड गयी, लेकिन रात भी घर का माहौल उसे और दिनों जैसा नहीं लगा था। वह थका हुआ था और जल्दी ही सो गया था। कई दिनों तक घर में अजीब-सा माहौल देखकर आखिर बच्चे से रहा नहीं गया तो उसने दादा जी से पूछ लिया, "बाब्बा जी, सब लोग दुखी क्यों हैं। कोई हंस नहीं रहा। बलवंत चाचा भी चुप-चुप हैं। मेरे चाचा लोग भी आए हैं लेकिन उनके चेहरे पर खुशी नहीं और दादा जी मेरे भापा जी कहाँ हैं? कहीं काम से गए हैं?"

पोते की बात सुन कर दादा जी के आंसू निकल आए, लेकिन उन्होंने आंसू छुपाए और बोले, "बेटा तेरे भापा जी भगवान के पास गए हैं।"

"बाब्बा जी, भगवान के पास जो जाता है कभी वापस नहीं आता न!"

दादा जी के फिर आंसू निकल आए. इस बार उन्होंने आंसू छुपाए नहीं। बह जाने दिए और करतार को गोद उठाकर सिर हिलाते हुए बोले, "तू सच कह रहा बेटा—अब वह कभी नहीं आएगें। भगवान को उनकी हमसे अधिक ज़रूरत थी—-लेकिन तू चिन्ता न कर मेरे बेटे हम हैं न! मैं हूँ और तेरी माँ हैं—-।"

करतार चुप रहा। वह सोचता रहा कि वह कैसे अपने भापा से मिल सकता है। आसमान में उड़कर पिता से मिलने जाने की कल्पना में वह खो गया।

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कुछ माह लगे परिवार को मंगल सिंह ग्रेवाल की मृत्यु के दुख से उबरने में। करतार ने समझ लिया था कि दादा जी ने सही कहा था, पिता अब कभी उसके पास नहीं आएगें। उसके स्कूल जाने का समय हो गया था। गांव में स्कूल था, जहां उसे प्रवेश दिला दिया गया। करतार पढ़ने में होशियार था। दादा जी उसे घर में पढ़ाते थे। प्रारंभिक शिक्षा उसने गांव में ली। गांव के आसपास कोई हाई-स्कूल नहीं था, इसलिए उसे पढ़ाने के लिए लुधियाना भेजने पर विचार किया जाने लगा।