दीवाना-ए-आज़ादी: करतारसिंह सराभा / भाग-3 /रूपसिंह चंदेल

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गांव और उसके आसपास उच्च शिक्षा के लिए किसी स्कूल के न होने से दादा जी ने करतार सिंह को लुधियाना के माल्वा खालसा हाई स्कूल में पढ़ाने का निर्णय किया। लुधियाना गांव से लगभग सोलह मील की दूरी पर था। करतार के लिए दादा जी ने शहर के अपने एक परिचित परिवार में रहने की व्यवस्था कर दी। परिचित का घर विद्यालय से एक मील की दूरी पर था। करतार सिंह पैदल स्कूल आते-जाते। पढ़ने में होशियार होने के कारण स्कूल के अध्यापकों और अपने साथियों के बीच उन्हें प्रेम और सम्मान मिलता था। पांचवीं कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते करतार सिंह सामाजिक कार्यों में हिस्सेदार लेने लगे थे। किसी की पीड़ा उस किशोर से बर्दाश्त नहीं होती थी। वह अपना नुकसान करके भी उसकी सहायता करने के लिए तत्पर रहता था। स्कूल न जा पाने वाले गरीबों और मजदूरों के बच्चों को देखकर उसमें पीड़ा जाग्रत होती और वह निर्णय करता कि बड़ा होकर वह उन बच्चों को शिक्षित करने के लिए कुछ करेगा अवश्य।

बात उस समय की है जब वह नवीं कक्षा में पढ़ रहा था।

सुबह के सात बज रहे थे। करतार को स्कूल पहुंचने में पन्द्रह से बीस मिनट का समय लगता था। वह निर्धारित समय से पन्द्रह बीस मिनट पहले स्कूल पहुंचता था। इसलिए वह लगभग साढ़े सात बजे स्कूल के लिए निकल लेता था। लेकिन उस दिन वह सात बजते ही स्कूल के लिए निकल पड़ा था। उस दिन स्कूल जाते हुए उसमें कुछ अधिक ही उत्साह था, क्योंकि उस दिन स्कूल में खेलकूद प्रतियोगिता का आयोजन था और वह एक धावक के रूप में उसमें शामिल हो रहा था। वह एक अच्छा धावक था। जब वह अपने गांव सराभा के स्कूल में पढ़ता था, तब भी दौड़ने में कोई उससे कभी जीत नहीं पाया था। छठीं कक्षा से आठवीं तक स्कूल की खेल-कूद प्रतियोगिता में वह सदैव धावक के रूप प्रथम आता रहा था। उस दिन भी मन में प्रथम आने का उत्साह लिए वह स्कूल की ओर बढ़ रहा था।

वह नवम्बर महीने के अंतिम सप्ताह का एक दिन था। उसदिन हवा अधिक ठंडी थी। सड़क लगभग सुनसान थी। केवल सड़क के इधर-उधर बने एकाध मकानों से लोगों की आवाजें आ रही थीं। लगभग आध मील की दूरी ही उसने तय की थी कि एक मकान से किसी के कराहने की आवाज उसे सुनाई पड़ी। उसके कदम रुक गए. उसने पीछे की खड़की से झांककर देखा। एक वृद्धा चारपाई पर लेटी कराह रही थीं। कुछ देर खड़ा वह सोचता रहा, लेकिन जब उसने देखा कि वृद्धा की मदद करने वाला शायद घर में कोई नहीं है तब वह दरवाजे की ओर गया। दरवाजा खुला हुआ था। वह अन्दर चला गया। वृद्धा के पास पहुंच कर उसने धीरे से पूछा-"मां जी, आपको क्या चाहिए?" वृद्धा ने आंखें खोलीं और धीरे से बोलीं–"बेटा पानी पिला दो। वहाँ बाल्टी में रखा है।"

उसने चारपाई के पास रखा गिलास उठाया और पानी वृद्धा की ओर बढ़ाया। वृद्धा ने उठना चाहा, किन्तु उनका शरीर जवाब दे गया। वह थोड़ा उठकर फिर अशक्त होकर चारपाई पर लेट गईं। करतार सिंह ने बाएं हाथ का सहारा देकर वृद्धा को उठाया और दाहिने हाथ से पानी पिलाने लगा। लेकिन उसे लग रहा था कि जैसे उस ठंड के मौसम में भी उसका हाथ जलने लगा है। उसे आश्चर्य हुआ। लेकिन क्षण भर में ही वह समझ गया कि वृद्धा को बहुत तेज बुखार था।

"बीजी, आपको बहुत तेज बुखार है। ...घर में कोई और नहीं है?"

"बेटा अब घर में कोई नहीं—-मैं ही हूँ बस—ये दिन देखने के लिए." कराहते हुए वृद्धा ने कहा।

"फिर दवा तो आपको मिल न पाई होगी।"

"दवा—" कराहते हुए वृद्धा बोलीं, "बेटे, क्या होगा अब दवा लेकर—अधिक जीना नहीं चाहती—बहुत कष्ट झेल लिए..."

"मैं अभी जाकर वैद्य जी को बुला लाता हूँ।"

"नहीं—नहीं बेटे, किसी बैद्द्य-वैद्य को मत लाना।" हाथ के इशारे से मना करती हुई वृद्धा ने कहा–"मेरे पास पैसे नहीं हैं बेटे—तुम स्कूल जा रहे हो न—हां, बस्ता तो स्कूल का ही है—जा—बेटे स्कूल जा। स्कूल का नुकसान न कर। भगवान तुम्हारा भला करे। मेरी प्यास बुझा दी तुमने बेटे—-अब तुम स्कूल जाओ."

उसे भी याद आया कि स्कूल के लिए देर हो रही थी। आठ बजे स्कूल पहुंच जाना चाहिए. वैद्द्य जी को लाने के बारे में भी उसने सोचा लेकिन उसे याद आया कि उसस समय उसके पास पैसे नहीं थे। कैसे ला सकता है उन्हें! वह सोच में पड़ गया। तभी उसे वृद्धा की आवाज सुनाई पड़ी—"अभी तक तुम यहीं खड़े हो बेटा, गये नहीं। जाओ बेटा स्कूल का हर्ज न करो।"

"अच्छा बीजी जी..." उसने एक नजर वृद्धा पर डाली और दरवाजा खोलकर बाहर आ गया और तेज कदमों से चलने लगा। अभी वह कुछ ही कदम आगे बढ़ा था कि पीछे से उसे किसी की आवाज सुनाई पड़ी। चलते हुए पीछे मुड़कर देखा। गुरुमीत दौड़ता चला आ रहा था।

उसके पास आकर गुरुमीत ने पूछा, "आज देर कैसे कर दी करतार?"

"बस ऎसे ही देर हो गयी।" :

"लेकिन परकासो दीदी तो कह रही थीं कि तुम्हें निकले बहुत देर हो गयी। अब तक तो तुम स्कूल भी पहुंच गए होगे। मैं तुम्हारे घर गया था।"

"परकासो दीदी ठीक कह रही थीं। मैं चला सही समय से था, लेकिन यहाँ से कुछ दूर पर पीछे एक मकान है, वहाँ एक वृद्धा के कराहने की आवाज सुनकर उधर चला गया।—सच गुरुमीत उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं इस संसार में और वह बहुत बीमार हैं।" करतार का स्वर दुखी हो उठा।

"कहीं तुम हरदेव की दादी माँ की बात तो नहीं कर रहे। वे भी उधर ही रहती हैं।"

"वही अपना साथी हरदेव, जो पिछले साल हैजा—" करतार आगे कुछ न बोल सका।

"हां, वही हरदेव। पिछले साल हैजे ने हरदेव सिंह को ही नहीं निगल लिया था, बल्कि उसके मां-बाप भी इसी बीमारी का शिकार हो गए थे। कितना अच्छा था हरदेव... अब तो उस परिवार में केवल उसकी बेसहारा दादी माँ ही बची हैं। होंगी कोई पचहत्तर-छिहत्तर साल के आसपास।"

"तुम ठीक कह रहे हो गुरुमीत। इनकी उम्र भी इतनी ही होगी। हो सकता है वे हरदेव की बीजी ही हों। हमें उनके लिए कुछ ज़रूर करना चाहिए."

"हां, लेकिन क्या?" गुरुमीत सोच में पड़ गया। साथ चलता करतार भी सोचता रहा। उपाय कुछ समझ में आ रहा था। गांव से चलते समय दादा जी ने उसे जो रुपए दिए थे वे सब खत्म हो गए थे। केवल एक रुपया बचा था। वह यह भी जानता था कि गुरुमीत भी कुछ मदद न कर पाएगा क्योंकि उसके घर की हालत खराब है। सुबह से शाम तक उसके बापू जब खूब परिश्रम करते हैं तब कहीं जाकर बड़े से परिवार के लिए भर पेट भोजन जुटा पाते हैं। दोनों साथी एक–दूसरे से बिना बोले सोचते हुए स्कूल की ओर बढ़ रहे थे। अभी वे स्कूल से कुछ कदम दूर ही थे कि घण्टी बज गई. अब दोनों को ही दौड़ लगानी पड़ी। जब वे पहुंचे तब प्रार्थना शुरू हो चुकी थी।

खेल-कूद प्रतियोगिता में इस बार भी पांच सौ गज की दौड़ में करतार सिंह प्रथम आया। शाम को इसके लिए उसे स्कूल के प्रधानाचार्य ने पन्द्रह रुपए का इनाम और एक प्रमाण-पत्र भेंट किया। साथियों ने उसे घेर लिया। वे उससे प्रथम आने की खुशी में मिठाई की मांग करने लगे। लेकिन करतार सिंह के दिमाग में तो कुछ और ही घूम रहा था। अपने साथियों से वह बोला, "मैं आप लोगों को मिठाई ज़रूर खिलाउंगा, लेकिन आज मुझे एक देवी के लिए कुछ करना होगा। मिठाई उसके बाद—-"

"मिठाई खिलाने से बचने के लिए लगे न अफलातूनी बात करने," एक साथी बोला।

"अरे हम लोगों ने झूठ थोड़े ही इसका नाम अफलातून रखा है। कभी जनाब गरीब जनता की बातें करते हैं, कभी देश की आजादी के लिए भाषण देने लगते हैं और जब कुछ नहीं करते तो श्रीमान जी गुमसुम होकर घण्टों कुछ न कुछ सोचते रहते हैं।" एक दूसरा साथी छेड़ने के उद्देश्य से बोला।

"आज किस देवी देवता के चक्कर में पड़ने जा रहे हो करतार?" एक और साथी बोला।

करतार सिंह को क्षणभर के लिए गुस्सा आ गया। उसका मुंह लाल हो गया। लेकिन गुस्से को पीकर सहज ही साथियों से बोला, "मित्रो! तुम लोगों की समझ में यह सब न आएगा। तुम लोगों ने कभी किसी प्रकार की तंगी नहीं झेली—इसलिए. यदि तुम लोग कभी यह सोच पाते कि जिस देश में हम रह रहे हैं वहाँ हम और हमारे बाप-दादे केवल अंग्रेजों का हुक्म बजा लाने के लिए हैं, हुक्म देने का अधिकार हमें नहीं है। यहाँ के अधिकांश लोग अनपढ़ और गरीब हैं और इन सबका कारण क्या है जानते हो?"

सभी साथी उसका मुंह ताकने लगे थे। कोई नहीं बोला।

"साथियो, इसका असली कारण है गुलामी।"

करतार सिंह ने साथियों के चेहरे पर दृष्टि डाली और आगे बोला, "जिन देवी की बात मैं कह रहा था वे एक बेसहारा वृद्धा हैं। शायद वे अपने दिवंगत साथी हरदेव की दादी माँ हैं। वे बहुत बीमार हैं। हमें उनकी मदद करनी चाहिए."

' तुम ठीक कह रहे हो करतार। हम भी तुम्हारे साथ चलेंगे उन्हें देखने।" सभी साथी एक साथ बोले।

गुरुमीत और अन्य साथियों को लेकर जब करतार सिंह उन वृद्धा के मकान में पहुंचा शाम हो रही थी। मकान को दूर से ही देखकर गुरुमीत ने पहचान लिया। वह हरदेव का ही मकान था। उसकी बात सच निकली। वे वृद्धा हरदेव की बीजी ही थीं।

दिन भर तेज हवाएं चलने के कारण ठण्ड कुछ बढ़ गयी थी। करतार सिंह ने देखा कि वृद्धा के पास सही सलामत रजाई भी नहीं थी। उसने तुरन्त गुरुमीत से कहा कि वह उसके कमरे से उसकी रजाई ले आए. तब तक वह किसी वैद्य की तलाश में जाता है। इस समय उसे पैसों की चिन्ता न थी, क्योंकि उसकी जेब में इनाम के पन्द्रह रुपए थे। उसने यह भी सोच लिया था कि यदि रुपए कम पड़े तो वह गांव जाकर बीजी से या बाब्बा जी से ले आएगा।

गुरुमीत के जाने के बाद वह वैद्य की तलाश में निकल पड़ा। अन्य साथियों को उसने विदा कर दिया, जिससे उनके घरवाले परेशान न हों। दूसरे मोहल्ले में पंडित गजाधर शर्मा नाम के एक अच्छे वैद्य रहते थे। करतार सिंह उनके पास पहुंचा। उसने हरदेव की दादी माँ की हालत के बारे में उन्हें बताया। सुनकर वैद्य जी उन्हें देखने के लिए चल पड़े।

हरदेव की दादी माँ यह सब देखकर बहुत ही परेशान थीं। उनके रोकने और मना करने के बावजूद करतार सिंह सब कुछ करता जा रहा था। जब वैद्यजी को लेकर वह पहुंचा तब ददी माँ ने कहा, "बेटा, तुम मेरे लिए क्यों इतना कष्ट उठा रहे हो? मैं कहाँ से लाउंगी वैद्यजी को देने के लिए पैसे?"

"दादी मां, आप मेरे साथी हरदेव की दादी माँ हैं।" करतार बोला, "यदि हरदेव होता और वह आपके लिए यह सब करता तो क्या आप उसे भी रोकतीं। आप मेरे साथी की दादी माँ होने के नाते मेरी भी दादी माँ हैं। आपकी सेवा करके मुझे उतना ही सुख मिल रहा है जितना अपनी दादी माँ की सेवा करके मिलता।" फिर कुछ रुककर वह बोला, "यदि आप मना करेंगी तो मुझे बहुत दुख होगा और रही पैसों की बात—उसकी चिन्ता आप न करें।"

वैद्य जी ने दादी माँ की नाड़ी देखी, माथा छूकर देखा और दवा की पुड़िया बांधने लगे। इसी समय गुरुमीत करतार की रजाई लेकर आ गया। वैद्य जी ने दूसरे दिन शाम तक के लिए पुड़ियां बांधकर दवा दे दी। आठ पुड़ियां रात में खानी थीं और चार अगले दिन। दवा के पैसे लेकर वैद्य जी चले गए. गुरुमीत को दादी माँ के पास बैठाकर करतार सिंह दुकान से शहद लेने चला गया। दवा शहद में मिलाकर देनी थी। शहद लाकर उसने दादी माँ को पहले दवा दी, फिर गुरुमीत से बोला, "गुरुमीत अब तुम घर जाओ."

"और तुम?"

"मैं यहीं रहूँगा रात में।"

"तुम भी घर जाओ बेटा। घर वाले परेशान होंगे।" हरदेव की दादी माँ बोलीं।

"दादी मेरे घर वाले यहाँ नहीं गांव में रहते हैं। मैं यहाँ दूर के एक रिश्तेदार के यहाँ रहता हूँ।"

"लेकिन बेटा..." दादी माँ कुछ कहते-कहते रुक गयीं।

वे कुछ नहीं बोलीं। करतार ने गुरुमीत की ओर देखा, जो घर जाने के लिए तैयार खड़ा था और बोला, "गुरुमीत तुम परकासो दीदी के घर की ओर से निकल जाना और उन्हें बता देना कि मैं आज रात न आ पाउंगा। क्यों न आ पाउंगा, उन्हें यह भी समझा देना।"

"ठीक है।"

"अच्छा—कल स्कूल में भेंट होगी।"

दरवाजे तक जाकर गुरुमीत वापस लौट आया और बोला, "कर्तार, तुम रात को खाना क्या खाओगे?"

"उसकी चिन्ता तुम न करो।"

"मैं घर से बनवाकर दे जाऊं?" गुरुमीत बोला।

"नहीं। मैं अभी बाज़ार जाकर कहीं छोले-भटूरे खा लूंगा। तुम अब लौटकर मत आना।"

"अच्छा।"

गुरुमीत के चले जाने के बाद करतार सिंह दादी माँ के सिरहाने बैठ गया और धीरे-धीरे उनका सिर दबाने लगा। दादी माँ को अच्छा लग रहा था। उन्हें नींद आ गई. जब वे सो गयीं तब वह दरवाजा बाहर से बन्द कर बाज़ार गया और ढाबे से छोले-भटूरे खाकर वापस लौट आया।

वह दादी माँ की चारपाई के पास पड़े टूटे खटोले पर एक चादर लेकर लेट गया। नींद उसे नहीं आ रही थी। फिर भी वह सोने की कोशिश करता रहा। बीच-बीच में ठंड और दादी माँ की कराहट से उसकी नींद उचटती रही। उसने रात भर में शेष खूराक दवा उन्हें दी। सुबह तक दादी माँ की तबीयत में कुछ सुधार हुआ। सुबह वे बोलीं, "बेटा रात भर तुमने मेरे लिए बड़ा कष्ट उठाया। अब तुम घर जाओ. स्कूल का हर्जा न करो। मैं खुद दवा ले लूंगी। अब तबीयत काफी ठीक है।"

"अच्छा दादी मां। मैं घर नहीं सीधे स्कूल जाउंगा और वहाँ से आपको देखने आउंगा।"

वह स्कूल चला गया। साथियों ने उसे घेरकर हरदेव की दादी माँ के बारे में पूछा। उसने बताया कि अब उनकी तबीयत काफी ठीक है। स्कूल की छुट्टी के बाद वह दादी माँ को देखने गया। उसके साथी भी उसके साथ हो लिए. शाम तक दादी माँ की तबीयत ठीक हो चुकी थी। अब वे चारपाई से उतरकर स्वयं पानी भी पी सकती थीं। कुछ देर तक उसके साथी वहाँ रहे फिर वे लोग चले गए. उनके जाने के बाद वह भी गुरुमीत को लेकर वैद्यजी के पास गया। वैद्यजी को दादी माँ की तबीयत के बारे में बताकर उनसे दवा ली। गुरुमीत को वैद्यजी के घर से ही भेजकर वह दादी माँ के घर की ओर चल पड़ा। दवा दादी माँ को देकर उसने उन्हें समझा दिया कि दवा किस तरह खानी होगी। उसकी बात समाप्त होने पर दादी माँ बोलीं—"बेटा, मैंने अभी तक तुम्हारा नाम नहीं पूछा। क्या नाम है तुम्हारा?"

"मेरा नाम करतार सिंह है।"

"और तुम्हारे पिता का नाम—कहां के रहने वाले हो?"

" दादी मां, मेरे पिता का नाम था सरदार मंगल सिंह ग्रेवाल। माँ का नाम साहिब कौर। जब मैं छोटा था तभी मेरे पिता का देहान्त हो गया था। मेरे बाब्बा जी ने मेरा पालन-पोषण किया है। लुधियाना से कुछ दूर सराभा गांव का हूँ मैं जहां मेरी माँ और बाब्बा जी रहते हैं। खेती है जिसकी वे देखभाल करते हैं।

"बेटा और भी कोई भाई-बहन हैं तुम्हारे?"

"नहीं दादी मां, मैं अपने मां-बाप का इकलौता बेटा हूँ।"

"ओह! भगवान सबको तुम जैसी औलाद दे। खूब फलो-फूलो बेटा! देश को तुम जैसे होनहार बालकों की ही ज़रूरत है जो भारत माता की गुलामी की जंजीरें काट सकें।" उसके सिर पर हाथ फेरते हुए वे बोलीं।

करतार सिंह दादी माँ के मुंह से ये सब बातें सुनकर आश्चर्य चकित हुआ। वह बोला, "दादी मां, आप बुजुर्गों का आशीर्वाद चाहिए. शायद मैं देश के लिए कुछ कर सकूं।" कुछ देर चुप रहकर उसने पूछा, "लेकिन दादी माँ आपको इस सब में कैसे रुचि हुई?"

क्षण भर के लिए दादी माँ चुप रहीं फिर बोलीं, "लंबी कहानी है बेटा जिसका सूत्र सन अठारह सौ सत्तावन की क्रान्ति से जुड़ा हुआ है। तबीयत ठीक हो जाने के बाद कभी इत्मीनान से सुनाउंगी। अब आज तुम घर जाओ, रात काफी हो गई है।"

"आपके खाने के लिए कुछ बना दूं फिर चला जाउंगा।"

"नहीं करतार—अब हाथों और शरीर में ताकत आ गयी है। मैं बना लूंगीं—बल्कि तुम चौंकोगे—मैंने अपने लिए दो चपातियां बना ली थीं।"

करतारर सिंह चुप रहा।

"अब तुम जाओ—मैं अब बिल्कुल ठीक हूँ।"

"अच्छा दादी मां।" उन्हें प्रणाम कर वह घर से बाहर निकल गया। जब वह परकासो दीदी के घर पहुंचा तब उसे देखते ही वह बरस पड़ीं। "करतार दिन प्रतिदिन तू आवारा होता जा रहा है। जब-तब घर आने-जाने लगे हो। लगता है मुझे बाऊ जी से शिकायत करनी पड़ेगी।"

"दीदी जी, मैंने गुरुमीत से कहलवा तो दिया था। अब आप ही बताइए वे बिल्कुल अकेली हैं। ऎसी हालत में किसी की मदद करना ही वास्तविक इंसानियत हुई या नहीं।" विनम्रतापूर्वक करतार सिंह बोला।

उसकी बात सुनकर परकासो दीदी का गुस्सा शांत हुआ। लेकिन झुंझलाहट तब भी न गई. झुंझलाते हुए बोलीं—"चल जल्दी से खाना खा ले। अभी गरम-गरम चपातियां सेंकी हैं।"

कपड़े उतारकर हाथ मुंह धोकर वह खाने बैठ गया।

करतार सिंह रोजाना शाम को स्कूल से लौटते समय हरदेव की दादी माँ को देखने जाने लगा। उसे उनसे बहुत अधिक लगाव हो गया था। वे भी करतार को बहुत अधिक चाहने लगी थीं। धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य ठीक होता जा रहा था। घर की कुछ चीजें बेचकर उन्होंने कुछ पैसे इकट्ठे कर लिए थे। करतार सिंह उनकी ज़रूरत की चीजें बाज़ार से ला दिया करता था। ददी माँ उसे प्रतिदिन कोई न कोई कहानी सुनाया करतीं। कुछ देर उनके पास बैठकर वह घर चला जाता था।

इस प्रकार लगभग पन्द्रह दिन बीत गए. अब तक दादी माँ बिल्कुल स्वस्थ हो गईं थीं। एक दिन जब करतार सिंह स्कूल से उनके घर पहुंचा, उस समय वे सरसों का साग काट रही थीं। उसे देखते ही बोलीं, "आओ करतार, आज तुम यहीं खाकर जाना। मेरा मन था आज सरसों का साग खाने का। सो वही बनाने जा रही हूँ। तुम्हें पसन्द है न!"

"क्यों नहीं दादी मां। जाड़े में पंजाब में सरसों का साग और मक्के की रोटियों की ही बहार रहती है। फिर मैं हूँ गांव का, मुझे क्यों न पसन्द होगा।"

"हां, यह बात तो है, लेकिन हमारे पूरब में लोग सरसों का कम, चने का साग अधिक पसन्द करते हैं। चने के साग के साथ ज्वार की रोटी. लेकिन तकरीबन पचास साल मुझे इधर ही रहते हो गए, इसलिए अब यही अच्छा लगने लगा है। कहावत है न जैसा देश वैसा वेश।" साग को मिट्टी की हड़िंया में भरते हुए दादी माँ बोलीं।

" दादी मां, आप पूरब की रहने वाली हैं?

"हां, बेटा।"

"फिर यहाँ कैसे आयीं?"

"जब मैं बीमार थी तब यही सब एक दिन बताने की बात कही थी। याद है न!"

"हा दादी मां! मैं स्वयं पूछने वाला था। लेकिन..."

"आज वही बताउंगी।" दादी माँ का स्वर कुछ दुखी हो उठा।

करतार कुछ नहीं बोला। दादी माँ ने हांडी चूल्हे पर चढ़ाई और मक्के का आटा निकालकर गूंथने लगीं। अब करतार से चुप नहीं रहा गया, बोला, "सुनाइए न दादी मां।!"

"हां—सुनाती हूँ! मैं पुराने ख्यालों में खो गई थी। सुनो—बेटा यह तब की बात है जब मैं लगभग चौबीस-पचीस साल की थी। सन अठारह सौ सत्तवन की क्रान्ति हुई थी। अंग्रेज इसे गदर या सिपाही विद्रोह कहते हैं, लेकिन बेटा वह सचमुच आजादी के लिए लड़ी गई पहली लड़ाई थी। अंग्रेजों के खिलाफ पहली क्रान्ति थी। नाना साहब, तात्या टोपे, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, अजीउल्ला खां ने मिलकर एक योजना बनाई थी। नाना साहब का धन खर्च हुआ था और अजीमुल्ला खां का दिमाग लगा था उसे बनाने में। योजना थी कि एक निश्चित तारीख को सारे देश में अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया जाए. नाना साहब इसी बात का प्रचार करने के लिए तीर्थयात्रा का बहाना करके जगदीशपुर, लखनऊ, मेरठ, पंजाब, दिल्ली आदि जगहों के राजाओं से मिले थे। तारीख तय हुई थी अठारह सौ सत्तावन की इकतीस मई. लेकिन किसी तरह इसकी शुरूआत दस मई को ही मेरठ से हो गयी थी। बस यहीं हिन्दुस्तानी मात खा गए थे।" इतना कहकर ददी माँ चुप हो गई थीं।

"लेकिन आपका इससे क्या सम्बंध था?"

" था बेटा वही तो बताने जा रही थी। मेरे पति ठाकुर गणपति सिंह नाना साहब के दरबार में थे। उस समय उनकी उम्र थी लगभग तीस साल। वे भी क्रान्ति में कूद पड़े थे। कानपुर और बिठूर से अंग्रेजों का नामोनिशान मिटा दिया गया था। नाना साहब कानपुर के राजा बने थे। लेकिन उनका राज्य अधिक दिनों तक न चल सका। कर्नल नील ने इलाहाबाद की ओर से एक विशाल सेना लेकर आंधी की तरह कानपुर पर आक्रमण किया था। पाण्डु नदी के किनारे सिउली नामक गांव के पास नाना साहब और नील की सेनाओं का घमासान युद्ध हुआ। दुर्भाग्य से नाना साहब की सेना हार गई. कर्नल नील महा क्रूर सैनिक था। युद्धोन्माद में डूबे नील ने कानपुर की ओर प्रस्थान किया जहां तब भी नाना का शासन था। कानपुर जाते हुए उसने सड़क के दोनों ओर

पड़ने वाले गांवों के किसानों को पेड़ों से लटका कर मारा था। गांवों में आग लगा दी थी। बच्चों को जिन्दा टांगों से चिरवा दिया था और औरतों को बेइज्जत किया था। उसने अपने सैनिकों को औरतों के साथ बर्बरता की खुली छूट दे दी थी। बर्बरता ऎसी कि सुनकर रोंगटे खड़े हो जाएं। खेतों में उन्हें दौड़ाकर कर उनका शिकार किया गया। बेइज्जती के बाद कितनी ही को संगीनें घोंपकर मार दिया गया था। गांव के गांव लाशों से पाट दिए थे उस हत्यारे ने।"

दादी माँ ने करतार सिंह के चेहरे की ओर देखा। उसका मुंह लाल हो रहा था। वह दत्तचित्त हो उनकी बात सुन तो रहा था, किन्तु उसका किशोर मन उत्तेजित होने लगा था।

थोड़ी देर चुप रहकर दादी माँ ने फिर बताना शुरू किया, "कर्नल नील की सेनाओं के साथ नाना साहब का दूसरा युद्ध कानपुर के पास बसे अहिरवां गांव के पास हुआ था। इसी युद्ध में मेरे पति ने वीरगति प्राप्त की थी। नाना साहब बची सेना लेकर लखनऊ की ओर चले गए थे। यह समाचार हमें बिठूर में आकर एक सैनिक ने सुनाया था। नाना साहब ने खबर भेजी थी कि हम लोग अपनी सुरक्षा स्वयं करें। मुझे पति की मृत्यु का जितना दुख हुआ उससे कहीं अधिक चिन्ता हुई अपने बेटे महादेव को बचाने की। मैं उसे लेकर नाना साहब के महल में जाना चाहती थी, लेकिन वह भी सुरक्षित न था। सभी जानते थे कि चिढ़े अंग्रेज उसे मिट्टी में मिला देंगे और बाद में उन्होंने किया भी यही था। परेशान मैं महादेव को गोद में समेटे बिठूर छोड़कर पैदल ही चल पड़ी थी। सुना था कि पंजाब में ऎसा कुछ नहीं है। सो इधर ही आने का मैंने निर्णय किया। मैं महादेव को बचाना चाहती थी। इसलिए नहीं कि वह मेरा बेटा था और बुढ़ापे का सहारा बनता। बल्कि इसलिए कि बड़ा होकर वह अपने पिता के काम को आगे बढ़ाए."

"बड़े कष्टों से गांव-गांव भटकते हुए किसी तरह लुधियाना आ पहुंची। यहाँ एक सज्जन व्यक्ति ने मुझे आश्रय दिया। मैं उनके यहाँ छोटे-मोटे काम कर दिया करती थी। किसी प्रकार महादेव बड़ा हुआ। बड़ा होकर उसने अपने बल पर छोटा-सा कपड़े का व्यापार शुरू किया। अपना घर बनाया। गृहस्थी बसाई. काफी दिनों बाद हमने पोते का मुंह देखा। हमारे घर हरदेव पैदा हुआ। तुम्हें यह भी बता दूं बेटा कि महादेव मेरे मन की बात जानता था इसीलिए क्रान्तिकारियों के साथ उसने सम्बन्ध बना लिए थे। लगने लगा था कि वह ज़रूर कुछ करेगा। लेकिन भाग्य में कुछ और ही लिखा था।" बताते-बताते वे सिसक उठीं।

आंचल से आंसू पोंछकर बोलीं, "तुम्हें भी पता होगा बेटा कि पिछली गर्मियों में हैजे ने महादेव, हरदेव और बहू तीनों को ही निगल लिया था। इससे चार दिन पहले ही महादेव बनारस से लौटकर आया था। कुछ करने की क्रान्तिकारियों की योजना थी—। लेकिन—लेकिन—" दादी माँ आगे कुछ न बोल पाईं। केवल सिसककर रह गयीं।

करतार सिंह ने भी एक लंबी आह भरी और बोला, "दादी माँ इन फिरंगियों से देश को आजाद करने का एक ही तरीका है सशस्त्र क्रान्ति। आपकी बातों से मेरा रक्त खौल उठा है-है दादी मां। आप यकीन रखें एक न एक दिन इन्हें यहाँ से जाना ही होगा। वह वक्त अब अधिक दूर नहीं है।"

"लेकिन बेटा मुझे लगता है अभी भी हजारों आजादी के दीवानों की कुर्बानी के बाद ही कहीं वह दिन आएगा।"

"आज की पीढ़ी वह कुर्बानी देने के लिए तैयार है दादी मां।"

दादी माँ चुप हो गयीं। उन्होंने चूल्हे में आंच तेज की और रोटी सेंकने लगीं। गर्म-गर्म साग और रोटी करतार सिंह के सामने परोसकर बोलीं, "लो खाओ, बेटा! तुम्हें आज फिर देर हो गई."

करतार सिंह बिना बोले खाने लगा। इस समय वह एक ही बात सोच रहा था। अंग्रेज़ी शासन का नाश कैसे हो! ।

♦♦ • ♦♦


गर्मी में परीक्षा देकर दादी माँ से मिलकर वह गांव चला गया। जब वह शहर लौटा तब दो बातें उसे सुनने को मिलीं। पहली यह कि वह नवीं कक्षा उत्तीर्ण हो गया था और दूसरी यह कि पूरे लुघियाना शहर में जो उसे सर्वाधिक चाहने लगा था, वे अब इस संसार में न थीं। गुरुमीत ने जब बताया कि उसके गांव जाने के बाद एक दिन अचानक जब वह आदी माँ को देखने गया तब वे बहुत अधिक बीमार थीं। उसने वैद्य जी से दवा भी दिलवाई लेकिन कोई लाभ न हुआ। केवल चार दिनों की बीमारी के बाद वे चल बसीं। गुरुमीत ने उसे यह भी बताया कि मरते समय वे केवल उसी को याद कर रहीं थीं।

समाचार सुनकर वह फूट-फूटकर रोने लगा। कई दिनों तक गुमसुम रहा। एक दिन अचानक ही वह बिना किसी मित्र को कुछ बताए गांव लौट गया। उसने दादा जी से घोषणा कर दी कि अब वह लुधियाना में पढ़ाई नहीं करेगा। दादा जी ने उसे बहुत समझाया किन्तु उसने निर्णय कर लिया था वहाँ न पढ़ने का। वह अपने निर्णय पर अटल रहा। माँ ने कहा, "करतार तू एक साल और वहाँ पढ़ ले, उसके बाद जहां मर्जी हो वहाँ चले जाना।"

"नहीं बीजी, मैं अब पढ़ने के लिए लुधियाना नहीं जाउंगा। केवल अपनी टी-सी लेने जाउंगा–बस—।"

आखिर निर्णय हुआ कि वह संयुक्त प्रान्त (अब उत्तर प्रदेश) चला जाए. वहाँ उसके चाचा पुलिस सब इंस्पेक्टर थे। लेकिन उसने उनके पास जाने से भी इन्कार कर दिया। दादा जी द्वारा कारण पूछने पर उसने कहा, "दादा जी, चाचा जी हैं पुलिस महकमें में—उनके साथ मेरी पटरी ठीक न बैठेगी। बिना मतलब मेरी पढ़ाई खराब हो जाएगी।"

"ते तू किये जाना चाहन्दा?" (तो तू कहाँ जाना चाहता है?) गुस्से में दादा जी बोले।

"मैं उड़ीसा वाले चाचा जी के पास जाना चाहता हूँ। वहाँ से हाई स्कूल कर लूंगा।"

"ठीक है, तैयारी कर।" दादा जी गुस्से में ही बोले।

करतार सिंह के दूसरे चाचा उड़ीसा में मुहकमा जंगलात (वन विभाग) में एक ऊंचे अफसर थे। लुधियाना के मालवा खालसा कॉलेज से नवीं पास का प्रमाण पत्र लेकर एक दिन वह उड़ीसा के लिए रवाना हो गया था।