दीवाना-ए-आज़ादी: करतारसिंह सराभा / भाग-4 /रूपसिंह चंदेल

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उड़ीसा में चाचा को वन विभाग की ओर से बड़ा बंगला मिला हुआ था। बंगले के चारों ओर चार फीट ऊंची दीवार थी और बंगला और दीवार के बीच सुन्दर लॉन और उसके चारों ओर हरे भरे पेड़-पौधे। वहाँ पहुंचकर करतार सिंह का मन प्रफुल्लित हो उठा। उसे वहाँ के एक हाई स्कूल में प्रवेश मिल गया। पढ़ाई में उसका मन लग रहा था, लेकिन एक उदासी हर समय उसे घेरे रहती थी। उदासी थी वहाँ के स्थानीय लोगों की स्थितियां देखकर। चाचा के बंगले में पेड़-पौधों, लॉन की देखभाल के लिए दो आदिवासी नौकर थे और घर में काम के लिए एक नौकरानी आती थी। वह भी आदिवासी थी और पास के गांव से आती थी। नौकर दूसरे गांव के थे। उनका गांव भी चाचा के बंगले से अधिक दूर नहीं था। करतार सिंह ने चाचा के यहाँ उपलब्ध पुस्तकों में दो ऎसी पुस्तकें खोज निकालीं, जिनमें उड़ीसा की आदिवासी जातियों और जन जातियों के बारे में विशद विवरण दिया गया था। वहाँ जुंआग, खोड़, भूमिक और खरिया आदिवासी जातियां थीं। उसके चाचा के बंगले में काम करने आने वाले भूमिज जाति के लोग थे। एक दिन शाम लॉन में कुर्सी पर बैठा वह सोचता रहा कि यह भूमिज शब्द भूमि से सम्बन्धित है। भूमि से जन्मे—-अर्थात मूमि के असली स्वामी। उड़ीसा के अतिरिक्त तत्कालीन बंगाल राज्य में भी यह जाति थी। १८३२-३३ में संत गंगानारायण के नेतृत्व में मेदिनापुर के डालभूम और जंगलमहल क्षेत्र स्थित इस जाति ने अंग्रेज सरकार के विरुद्ध विद्रोह किया था। 'इस धरती के असली स्वामी वास्तव में ही ये आदिवासी लोग ही हैं लेकिन ये इतने गरीब हैं, इतने गरीब हैं कि मात्र भोजन के लिए पूरे परिवार को मजदूरी करनी पड़ती है। कपड़ों के नाम पर इनके पास फटे-चीथड़े। दोनों नौकर चाचा के छोड़े कपड़े पहनते हैं और नौकरानी चाची के दिए उनके पुराने कपड़े। कैसी है यह विडंबना!' कर्तारा सिंह सोचते रहे। उनका मन हुआ कि वह आस-पास के गांवों में घूमकर आदिवासियों की दसा देखें।

एक रविवार चाचा-चाची को यह कहकर कि वह घूमने जा रहे हैं। वह सुबह दस बजे के लगभग जंगल की ओर निकल गए. चाचा ने कहा भी, "करतार, अकेले मत जा—मैं भूखन को तुम्हारे साथ कर देता हूँ। साथ में राइफल भी लेते जाना सही होगा। कुछ पता नहीं कहाँ आदमखोर छुपा बैठा हो।!"

चाचा के एक नौकर का नाम भूखन था। उसे राइफल चलानी आती थी। अपना नाम सुनकर भूखन चाचा के पास जा पहुंचा, "हुकम मालिक।"

"तुम राइफल लेकर करतार के साथ चले जाओ. वह जंगल घूमना चाहता है। अधिक दूर मत जाना।"

"चाचा जी, आप भूखन को क्यों परेशान कर रहे हैं! मैं बहुत दूर नहीं जाउंगा।"

"बाबू! जंगल खतरनाक है! कहाँ आदमखोर बैठा हो—पता नहीं। एक से दुई भले।!"

करतार सिंह ने एक क्षण सोचा और यह सोचकर कि 'सही ही एक से दो भले। फिर भूखन को जंगल के बारे में जानकारी भी है और उसके साथ गांव देखने जाने में सहायता ही मिलेगी। मुझे आदिवासियों की भाषा नहीं आती। मैं उनसे बातें क्या करूंगा!'

"ठीक है।"

भूखन करतार सिंह के साथ हो लिया। हाथ में राइफल थामें वह करतार सिंह के पीछे चलने लगा। जहां से जंगल शुरू होता था, करतार सिंह ने भूखन से कहा, "आप पीछे क्यों चल रहे हैं?"

"नौकर को मालिक के पीछे ही चलना चाहिए."

"लेकिन मैं तो आपका मालिक नहीं—आप मेरे बराबर चलें जिससे आपसे बातें की जा सकें।"

"कैसी बातें कर रहे हैं बाबू—-हमारी औकात आपके बराबर चलने की नहीं।"

"भूखन" भूखन की ओर देखते हुए करतार सिंह बोले, "हम सब एक हैं। हमारे रगो में बहता खून एक है। हमारा खाना-पानी एक है—हम एक ही धरती में रहते हैं और एक ही आसमान के नीचे सोते हैं भूखन चाचा।"

"अंय! चाचा"

"क्यों? मैं आपको चाचा नहीं कह सकता!"

"बाबू! काहे को मेरी देह की चमड़ी उधड़वाने पर तुले हैं आप।"

"मैं आपको चाचा कहूँ या कुछ भी किसी को इससे क्या फर्क पड़ता है! क्या मेरे चाचा भी दूसरे अफसरों, ठेकेदारों और अंग्रेजों की भांति जुल्म ढाते हैं।!"

"न—न—बाबू—वो तो देउता मानुस हैं। पर दूसरे अफसरों को भनक लगी कि आप मेरे साथ घुलमिल कर बातें करने लगे हैं तो बहुत जुल्म हो जाएगा। मैं नौकर तो आपके चाचा का हूँ, लेकिन आपके चाचा तो अंग्रेजों के नौकर हैं न! और अंग्रेजों को यह बिल्कुल मंजूर नहीं कि कोई अफसर या उसके घर वाले यहाँ के निवासियों के साथ घुलमिलकर बातें करें—उन्हें तरजीह दें।"

"ऎसा क्यों?"

"क्योंकि बीच-बीच में कई बार बंगाल और दूसरी जगहों के आदिवासियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया। अंग्रेजों को मालूम है कि हम आदिवासियों पर नकेल न कस रखी गयी तो ये जंगल और दूसरी चीजें उनके हाथों से निकल जाएगीं। हम आदिवासियों के पास खोने के लिए कुछ नहीं सिवाय अपने इस शरीर के—-"

भूखन की बात पूरी होने से पहले ही करतार सिंह बोले, "भूखन चाचा, मुझे किसी की परवाह नहीं। मैं इन अंग्रेजों से उतना ही घृणा करता हूँ, जितना आप सब—-आप मेरे बगल में आकर चलें।"

करतार सिंह के पुनः कहने के बाद भूखन उसके बगल में चलने लगा। तभी एक खरगोश उछलता हुआ उनके सामने से सड़क पार कर एक ओर से दूसरी ओर चला गया। सड़क कच्ची, लेकिन समतल थी। जंगल बहुत घना था। कई स्थानों पर दिन में भी अंधेरा-सा मालूम होता, वैसा ही जैसा घने काले बादलों के आ जाने पर होता है। जंगल में दूर मोर के बोलने की आवाज कानों से टकराई तो सराभा को अच्छा लगा। अक्टूबर का महीना था और जंगल से मादक गंध आ रही थी।

"हां तो आप कुछ कह रहे थे।" कर्तार सिंह ने भूखन को टोका।

"कह रहा था कि हमारे पास शरीर के अलावा खोने के लिए कुछ नहीं—जो अमर होकर नहीं आया। हम सभी को मरना है, लेकिन पाने के लिए पूरा जंगल है। प्राकृतिक संपदा है।"

"ऎसा लगता है कि आप कुछ पढ़े-लिखे हैं।"

"ना बाबू! करिया अच्छर भैंस बरोबर—-आपके उधर यह कहा जाता है न अपढ़ लोगों को। अपना पढ़ाई लिखाई से कोई रिश्ता नहीं और न ही यहाँ दूर-दूर तक के किसी गांव में किसी ने अच्छर ज्ञान पाया। कभी पाएगें, यह भी पता नही।" कुछ देर के लिए रुका भूखन, "ज्ञान तो बाबू संगत से आवत है। मैं जब आपके चाचा के काम में आया तब बिल्कुल अनाड़ी था। लेकिन बीबी जी और बाबू जी ने हमें बहुत कुछ सिखाया। दोनों हम तीनों का बहुत खयाल रखते हैं, वहीं आपके चाचा के बंगले के पास एक दूसरे अफसर रहते हैं सचीन्दर बोस। बोस साहब के यहाँ भी दो नौकर हैं और उनके घर काम करने के लिए दो नौकरानियां। एक कलकत्ता की है और एक हमारे यहीं एक गांव से आती है। बाबू जी, आप सोच नहीं सकते कि कलकत्ता वाली नौकरानी को छोड़कर तीनों आदिवासियों के साथ कितना दुर्व्यवहार करते हैं वे लोग। नौकरानी को जूठा खाना देते हैं और नौकरों को दिनभर पानी तक के लिए नहीं पूछते और अगर बंगले के बगीचे का एक भी पौधा ग़लत कट जाता जाए, या कोई दूसरी मामूली-सी गलती हो जाती है तो समझ लो कि दोनों—-दोनों क्या उस नौकरानी को भी शामिल कर लेते हैं—कोड़े से पिटाई करते हैं बसु बाबू। बिल्कुल अंग्रेजों की तरह पेश आते हैं। का कहें बाबू! ये देसी अफसर अंग्रेजन से कम कसाई नहीं।"

"हूँ" करतार सिंह के मुंह से केवल इतना ही निकला। उस क्षण उन्हें लगा कि बसु मोसाय के कोड़े उनके नौकरों और नौकरानी के शरीर पर नहीं उसके शरीर पर पड़ रहे थे।

"बाबू, बात इतनी ही नहीं। बसु बहुत बदमाश आदमी है। ठेकेदारों के साथ मिली भगत है उसकी। उसके इशारे पर कितनी ही लकड़ी ठेकेदार चोरी से काटते हैं—बसु का घर भरता रहता है।"

"अंग्रेज अफसर को नहीं मालूम हो पाता।"

"वह भी बसु के साथ मिला हुआ है। बल्कि बसु की हिम्मत ही इस कारण पड़ती है। अंग्रेजन को खुश रखने के लिए वह क्या नहीं करता और भी तमाम बुराइयां हैं उसमें। अपनी मेम साहब को कलकत्ता भेज देता है और नौकरानी के साथ गुलछर्रे उड़ाता है। यही नहीं—-और भी बहुत कुछ—क्या बताई बाबू—आप अभी बहुत छोटे हैं!"

"मैं सब समझता हूँ भूखन चाचा।"

भूखन ने लंबी सांस खींची।

हिरणों का एक झुंड पास ही मैदान में चर रहा था। एक बच्चा कुलाचें भर रहा था। दूर एक पेड़ के साथ गेंडा खड़ा था। पेड़ों पर पक्षियों का कलरव उन्हें पूरे रास्ते सुनाई देता रहा था। करतार सिंह को जंगल मोहित कर रहा था। उनका मन हुआ कि वह वहीं अपना बसेरा बना लें—-दुनिया से अपने को काटकर। 'लेकिन, क्या यह सब इतना आसान होगा!' उन्होंने सोचा, 'बसु और उसके अंग्रेज अधिकारियों को यह कभी स्वीकार नहीं होगा।'

"गांव कितनी दूर है? हम लोग कम से कम दो मील तो चल ही आए होंगे।"

' ज्यादा दूर नहीं बाबू। हम गांव के नजदीक ही हैं। वह देखो उन पेड़ों के बीच से आपको वह घर दिखाई दे रहा होगा!

"हां दिख रहा, एक झोपड़ी-सी."

"बस दो फर्लांग समझो। पेड़ों की ओट है इसलिए साफ नहीं दिख रहा। एक प्रकार से हम गांव की सरहद में हैं।"

♦♦ • ♦♦


वह एक छोटा गांव था पन्द्रह–सोलह घरों का। दोपहर बारह बजने वाले थे। धूप में गांव नहाया हुआ था। एक ओर पांच नंग धड़ंग बच्चे खेल रहे थे। घरों के बाहर झिंगला खटोलों पर बूढ़ी औरतें बैठीं थीं, जिनके बदन पर जगह-जगह थेगली लगी धोतियां थीं। अजनबी किशोर को एक आदिवासी के साथ देखकर वे फटने को तैयार उन साड़ियों से अपनी छातियां ढकने लगीं जो सूखकर उघरी पड़ी हुई थीं।

बच्चे करतार सिंह और भूखन को देखकर सहमकर एक ओर खड़े हो गए. भूखन ने अपनी भाषा में बच्चों को खेलने के लिए कहा, लेकिन वे छुप—छुपकर अजनबी करतार सिंह को देखते रहे।

"गांव में पुरुष नहीं दिख रहे।?" करतार सिंह ने पूछा।

"बाबू, वे गांव में दिखेंगे तो रात घर में चूल्हा कैसे जलेगा!"

"हुंह" ।

"आप पाएगें कि केवल बूढ़े लोग ही हैं या बच्चे—जवान औरतें भी आपको नहीं मिलेंगी।"

"वे कहाँ जाती हैं।"

"पेट की आग जहां न ले जाए. लड़कियां शहरों में बड़े लोगों के घरों में काम करने के लिए ले जायी जाती हैं—-और औरतें या तो यहाँ आस-पास किसी गांव में किसी जमींदार के यहाँ काम करने जाती हैं या पतियों के साथ जंगल काटने के काम के लिए."

"सभी इतनी मेहनत करते हैं, लेकिन मैं देख रहा हूँ कि गरीबी यहाँ टपक रही है।"

"यही तो बात है। औरतों को पुरुषों के बराबर वेतन नहीं मिलता। दूसरी तरह से उन्हें अलग सताया जाता है। लेकिन जिन्दा रहने और बच्चे पालने की मजबूरी में सब बर्दाश्त करना होता है।"

"जंगल काटने के लिए किसी को ठेका दिया जाता होगा?"

"हां, बाबू जी—ठेकेदार है न मोहित दास। वह रहता है भुबनेश्वर में, उसके कारिन्दा लोग हैं काम देखने के लिए—अपने बाबू जी——।"

भूखन की बात बीच में ही काटकर करतार सिंह ने पूछा, "कौन अपने बाबू जी?"

"आपके चाचा जी—उनके बंगले से एक फर्लांग की दूरी पर रहता है मोहित दास का कारिन्दा। मालिक जितना जालिम है कारिन्दा—उससे दस गुना अधिक जालिम है वह।"

"कैसे?"

"सुबह से शाम तक बिना रुके पेड़ कटवाता है और जब लकड़ी शहर भेजनी होती है तब इन गरीबों को हंडों की रोशनी में रात में भी काम में लगना होता है। अगर कोई बीमार होने के कारण या किसी और कारण से मना करता है तब लाठी और हंटर से पिटाई करता है उसकी और उससे पहले की मजदूरी भी नहीं देता।"

"सभी मजदूर उसे मार क्यों नहीं देते?" क्रोध से उफनते हुए करतार सिंह बोले।

"अरे बाबू जी, इतना आसान न बा—इन गरीबों में इस बात की ताकत नहीं। अगर कभी कोई ऎसा कर भी दे तो समझ लो कि उसे तो ये गोली से उड़ा ही देते हैं उसके परिवार को जिन्दा जला देते हैं झोपड़ी में और वह भी दिन दहाड़े। मज़ाल है कि कोई आदिवासी चूं कर सके."

बच्चों के खेलने के स्थान से दोनों कुछ दूर निकल गए तो बच्चे उचक-उचक कर दोनों को देखते हुए फिर खेलने लगे थे। जिन घरों के आगे से वे निकल गए थे उनकी बूढ़ी औरतें फिर अपनी पहली की स्थिति में आ गयी थीं।

वे एक घर के सामने खड़े थे। एक बूढ़ा व्यक्ति झिंगला खटोले में लेटा कराह रहा था। करतार सिंह यह देखकर हैरान थे कि किसी भी घर के सामने साबुत चारपाई नहीं थीं। घरों की छावन साबुत न थी। उसने भूखन से पूछा, "यहां कोई अस्पताल नहीं है?"

"दूर है बाबू। फिर गरीबों के पास पैसा कहाँ कि वे अस्पताल जा सकें और वहाँ अंग्रेज डाक्टर हैं जो इन गरीबों को दिनभर बैठाकर रखते हैं और कभी देखते हैं कभी नहीं। कहते हैं कि इनके शरीर से बदबू आती है।"

"इस गांव के लोग अधिक जाते हैं ठेकेदार के काम में।"

"इस गांव के तो सभी जवान जाते हैं, दूसरे गांवों से भी जाते हैं।"

"उनके घर वालों के इलाज की जिम्मेदारी ठेकेदार नहीं उठाता?"

"बाबू का बात करत हैं" खीसें निपोरते हुए भूखन बोला, "इनका वश चले तो ये एक पैसा न दें मजदूरों को—आप इलाज की बात करते हैं। ये उन मजदूरों का इलाज भी नहीं करवाते जो काम करते हुए घायल हो जाते हैं। कई बार ऎसा हुआ कि कोई मजदूर पेड़ से गिर गया। उसे उठवाकर ये घर तक नहीं भेजवाते। वह कराहता वहीं पड़ा रहतता है दिन भर। शाम जब दूसरे मजदूर लौटते हैं घरों को तब उसे उठाकर लाते हैं।" रुका भूखन, फिर बोला, "बाबू, हम लोग जंगल के लोग हैं। हमें बहुत-सी जड़ी बूटियों की जानकारी है—हमारे पुरखों से ये गुन बच्चों को मिलते हैं और आगे की पीढ़ी को हमसे मिलेंगे। हम अपना इलाज उन जड़ी बूटियों से कर लेते हैं।"

"लेकिन फिर भी डाक्टर के बिना—।"

"बाबू, बताया न कि डाक्टर हैं अंग्रेज—और उनका व्यवहार जब आम हिन्दुस्तानियों के प्रति खराब है—उनके प्रति भी जो पढ़े लिखे हैं तब हमारे लोगों के खिलाफ तो और भी होना है। वे हमें कीड़ा मकोड़ा समझते हैं।"

"और ठेकेदार—मोहित दास—।"

"वह अंग्रेजों का बाप है। एक दम जालिम—-जब भी आता है कारिन्दा के घर पर सभी मजदूरों को बुलाता है। कारिन्दा से उनके काम के बारे में पूछता है और जिससे कारिन्दा चिढ़ा होता है बस उस पर हंटर बजाता है। कई बार खाल तक उधेड़ देता है।"

"उफ" चीख निकल गयी करतार की, "इन्हें गोली मार देनी चाहिए."

"कौन मारे बाबू?"

"अब इन जालिमों के अत्याचार अधिक दिन नहीं रहेंगे।"

"पता नहीं वे दिन कब आएगें—हमारे जिन्दा रहते आएगें भी या नहीं और आ भी गए तो कैसे कहा जाए कि मोहित दास जैसे लोगों के दिन लद जाएगें। भ्रष्ट लोग अपना रास्ता खोज ही लेते हैं बाबू।" क्षणभर तक चुप रहने के बाद भूखन बोला, "मोहित दास जब भी आता है उसके पीछे अंग्रेजों की एक टीम भी आती है। तब बोस का काम बढ़ जाता है। ये मजदूर तब उनकी सेवा में लगा दिए जाते हैं और मोहित दास और बोस के इशारे पर मजदूरों की औरतों को अंग्रेजों के मनोरंजन के लिए भेजा जाता है।" लंबी आह भरकर भूखन बोला, "बाबू जी, बहुत जुलुम हो रहा है इन आदिवासियों पर। इन जालिमों ने हमारे जंगलों पर तो अधिकार कर ही लिया है। हमारी बहन बेटियां सूखी लकड़ी तक नहीं ले सकतीं और लेने जाने पर उन्हें ज़लालत का सामना करना पड़ता है, जबकि बोस की मिली भगत और अंग्रेजों को दावतें देकर ठेकेदार ठेके के पेड़ों के अलावा पेड़ कटवाता है और कुछ नहीं होता।"

"ओह!" क्रोध से नथुने फड़फड़ाने लगे करतार सिंह के. उनका मन हुआ कि वह घर वापस लौट लें और वह भूखन को कहने ही वाले थे कि वह लौट लें, तभी उस बुजुर्ग आदिवासी के जोर से कराहने की आवाज ने उसके कदम रोक लिए. 'देखना चाहिए उन्हें' सोचकर करतार सिंह उस बुजुर्ग की ओर बढ़ गए.

भूखन से उस बुजुर्ग की पीड़ा के विषय में पूछवाया। पता चला कि जवानी की चोट का कष्ट अब उसे सता रहा था।

भूखन ने बुजुर्ग की बात करतार को बतायी।

"पूछो कि कैसे चोट लगी थी।"

भूखन के पूछने पर बूढ़ा संकोच में पड़ गया, लेकिन जब भूखन ने उसे करतार सिंह के विषय में बताया तो बुजुर्ग ने खुलकर अपनी पीड़ा कह दी और फफक कर रोने लगा। उसने बताया कि वह भी जंगल में पेड़ों की कटाई करता था। उसकी जवान बेटी भी उसके साथ लकड़ी उठाकर ढेर में रखने का काम करती थी। पत्नी भी उसी काम में लगी रहती थी। बेटा पैदाइशी अपाहिज था। एक दिन मोहित दास का पिता सोहित दास आया।मोहित तब किशोर था और उसका पिता कारोबार देखता था। उसके दो दिन बाद कुछ अंग्रेज आए. जंगल में शिकार किया और दावतें हुईं। हमें परिवार के साथ मेहमानों की सेवा में रहना पड़ा। उनकी जूठन उठाने से लेकर उनके घोड़ों की सेवा करने के लिए. एक अधेड़ अंग्रेज की नज़र मेरी बेटी पर पड़ गयी। उसने सोहित दास को उसे अपने पास उसके पैर दबाने के लिए भेजने के लिए कहा। सोहित दास ने बूढ़े को कहा। बूढ़ा गिड़गिड़ा उठा, "मालिक बेटी को छोड़ दें—-मैं साहब के पैर दबा दूंगा।"

"नहीं—तुम्हारी ज़रूरत नहीं—उसे ही भेजो।"

"हम न भेजब मालिक—"

"तुम नहीं भेजोगे?"

"न" कहते ही सोहित दास कमरे में दौड़कर गया था और हंटर नहीं लाठी लेकर आया था। उसने मेरे बेहोश होने तक लाठी बरसायी थी मुझपर और बेहोश होने के बाद मुझे घर से दूर एक ओर फेकवा दिया था और आदिवासियों को आदेश दिया था कि जो भी उसके पास जाएगा, उसका भी वही हाल होगा और उसके बाद—-उसके बाद वही हुआ था साहब जो सोहित और उस अंग्रेज ने चाहा था। अगले दिन सुबह मुझे होश आया था। किसी तरह घिसटकर मैं घर पहुंचा था—सब कुछ लुटा गंवा कर। मेरे पहुंचने के कुछ देर बाद बिटियां लुटी पिटी घर आयी थी और बेसुध गिर गयी थी—-और उसी दिन शाम बिटिया ने गांव के तालाब में कूदकर जान दे दी थी। गांव वालों को तब पता चला जब उसकी लाश फूलकर पानी पर ऊपर आ गयी थी।"बूढ़ा कुछ देर के लिए रुका था—आंसू पोंछे थे और बोला था," यह उसी मार का दर्द है बाबू—उस उमिर में सह गया—ठीक हो गया था—बिटिया की पीड़ा दिल में दबाए जीता रहा। पत्नी भी बेटी की पीड़ा न सह सकी और उसने भी आत्महत्या कर ली थी। बेटा तो पहले से ही बीमार था—-वह भी नहीं रहा। मैं ही नरक भोगने के लिए बचा हूँ बाबू।" और बूढ़ा फिर रोने लगा।

करतार की आंखों में भी आंसू आ गए. किसी प्रकार अपने को रोका उन्होंने और भूखन से बोले, "वापस लौट लें—गांव वालों के कष्ट सुनने और देखने का साहस अब मुझमें नहीं भूखन—-इन धूर्तों से इन भले लोगों को कैसे मुक्ति मिले यह सोचना होगा।" और करतार सिंह वापस लौट लिए थे।