दू स्टेटस् मेरी शादी की कहानी / चेतन भगत / समीक्षा

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
चेतन भगत के उपन्यास की समीक्षा
समीक्षा:अशोक कुमार शुक्ला

चेतन भगत के उपन्यास टू स्टेटस का हिन्दी अनुवाद रूपा पब्लिकेशन ने 2012 में छापा है चेतन भगत के इस उपन्यास ‘‘दू स्टेटस् मेरी शादी की कहानी‘‘ की सबसे बडी विषेशता आज के युवा प्रेमियों को दिया गया धीरज और धैर्य का संदेश है। समूचे उपन्यास में धुर विपरीत परिस्थितियों में भी नायक का धैर्य के साथ परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाने का प्रयास करना है जो आज की उतावली पीढी को धैर्य के साथ परिस्थितियों से निबटने का संदेश देता है। आज का युवा जहां गजब की बुद्धिमत्ता रखता है वहीं उसमें धैर्य का अभाव है वह सब कुछ तुरंत ही पा लेना चाहता है । उसे मां बाप समाज और व्यवस्था की कोई परवाह नहीं है।

उपन्यास में शिक्षा ग्रहण करने के लिये शिक्षण संस्थान के हास्टल में रह रहे लेखक का अपनी सहपाठिनी छात्रा को प्रभावित करना और उसके बाद बेलौस दिनचर्या अपनाकर हाॅस्टल में रहते हुये शारीरिक संबंधो की सीमा तक आगे बढना भारत के प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानो में व्याप्त वातावरण की कलई जैसी खोलता हुआ प्रतीत होता है। ऐसे वातावरण में चेतन के उपन्यास में परिस्थितियों को अपने अनुकूल करने के लिये लगातार धैर्य पूर्वक किये गये प्रयास एक सभ्य शिष्ट और समझदार भारतीय युवा का प्रतिनिधित्व करते है।

जब चेतन ने अपने पिता पर हाथ उठाया ?

हममें से अधिकतर ने बचपन से लेकर बडे होने तक के काल में कभी न कभी अपने पिता से मार अवश्य खायी होगी लेकिन क्या कोई ऐसा अवसर गुजरा जब आपने अपने पिता पर हाथ उठाया हो? संभवतः समूचे हिदीं भाषी क्षेत्र में इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक ही होगा।

बेस्ट सेलर नावलिस्ट चेतन भगत के विवाह की गाथा के रूप में लिखी गयी पुस्तक ‘‘दू स्टेटस् मेरी शादी की कहानी‘‘ से एक किस्सा प्रस्तुत कर रहा हूं जिसमें अपनी मां पर हाथ उठाने वाले पिता के साथ उसने कैसा बर्ताव किया-

‘‘ मैने देखा कि मां की आंखों में आंसू बह रहे हैं। मेरा चेहरा गुस्से से तमतमा गया । वे पिछले पच्चीस साल से यह सब बर्दाश्त करती आ रही थीं। और मैं जानता हूं क्यों मुझे पाल पोसकर बडा करने के लिये । मुझे पता नहीं उन्होंने ऐसा कैसे किया। पापा ने मुझे मारने के लिये अपना हाथ उठाया। मैने बिना जाने बूझे उनकी कलाई कसकर पकड ली।

‘‘ओ, तो अब तुम अपने बाप पर भी हाथ उठाना चाहते हो, ‘‘ उन्होंने कहा।

मैने उनकी बांह मरोड दी।

‘‘उन्हें छोड दो । इससे वे बदल नहीं जायेंगे‘‘ मां ने हांफते हुये कहा ।

मैने उनकी बात सुनकर सिर हिला दिया। मैं अपने पिता को घूरकर देख रहा था। फिर मैने उन्हें एक तमाचा जड दिया। एक बार, फिर दूसरी बार। फिर मैने अपनी उंगलियों को भींचकर मुक्का बनाया और उनके चेहरे पर जोर से ऐक पंच मार दिया। मेरे पिता शाॅक्ड रह गयें। वे जवाबी हमला भी नहीं कर पाए। उन्हें इसकी उम्मीद नहीं थी।‘‘

जाहिर सी बात है कि यह किस्सा भी मां के प्रति पुत्र के प्रेम के रूप में प्रचलित अनेक किस्सों की तरह प्रेम का ही निरूपरण करता है लेकिन एक अलग तरीके से।

पिता पर हाथ उठाने के कारण मानसिक संत्रास

चेतन भगत का यह उपन्यास उसके पिता की क्रूरता के अन्य किस्सों के साथ आगे बढता है और अंत तक आते आते उसके पिता एक बडे खलनायक के रूप में उभरते हैं।

चेतन भगत के इस उपन्यास का नायक अपने पिता पर हाथ उठाने के कारण गहरे मानसिक संत्रास से गुजर रहा होता है तो संयोगवश उसे एक महात्मा मिलता जो उसके मानसिक संत्रास का हल इन शब्दों में सुझाता है -

कल्पना करो कि तुम एक मोटा सा लबादा पहने हुये हो और उसके बोझ तले दबे जा रहे हो । दूसरों ने तुम्हें जो नुकसान पहुंचाया , उसके लिये उन्हें माफ कर दो । जो कुछ हुआ उसे भूल जाओ । तुम्हें जो बात परेशान कर रही है, वह है तुम्हारी आज की चिंताऐं , जो तुम्हारे सिर पर रखे इस भारी बोझ के कारण उपजी हैं। उन्हें उतार दो।

अपनी मां से बेइंतहा प्यार करने वाले नायक के प्रेम की राह मे जब सबसे बडा रोडा उसकी मां की हठधर्मिता बनती है तो यही पिता चुपचाप नायक बनकर उभरता है और अपने बारे में व्याप्त असंवेदनशीलता के सारे मिथको को तोडकर गतिरोध को दूर करने के लिये सबसे बडा सार्थक प्रयास करता है। पिता के इस प्रसास से अनजान नायक के सामने जब सच्चाई आती है तो नायक बरबस ही कह उठता है-

‘‘दुनियां मां और बेटे के रिश्ते के बारे में बहुत बात करती है, लेकिन हमें पिताओं की भी सख्त जरूरत होती है। मैने अपनी आंखं बंद कर लीं और गुरूजी को याद किया। मै एक हरे भरे पहाड की चोटी पर खडे होकर खूबसूरत सूर्योदय देख रहा था ‘‘