देवयानी / भाग-5 / पुष्पा सक्सेना
“ओह गॉड। तुम सचमुच सबसे बहुत अलग हो, देवयानी। बाई दि वे, आपके जीवन का उद्देश्य क्या है ?” हल्के से मुस्कराते रोहित ने पूछा।
“हम अपने पापा के गाँव में काम करेंगे, रोहित। उस गाँव में पापा एक अस्पताल खोलना चाहते थे।” देवयानी के चेहरे पर उदासी की छाया घिर आई।
“अच्छा, क्या तुम्हारे अस्पताल में मुझे भी काम मिल सकेगा ?”
“तुम्हारे पापा का शहर में इतना बड़ा नर्सिंग-होम है। तुम्हें तो उनके काम में मदद देनी होगी।”
“ये तो वक्त ही बताएगा, मै क्या करूँगा। अच्छा, अब चलता हूँ। कल फिर मिलेंगे।”
कल्याणी के कार्यालय में उसकी योजना स्वीकृत हो गई। कल्याणी योजना का प्रथम चरण जल्दी शुरू करना चाहती थी। महिमा जी और देवयानी की सलाह थी, पहले चरण में औरतों को साक्षर बनाने के साथ कुछ घरेलू बुनियादी कामों को शुरू किया जाए। गाँव की औरतें चटाई-मूढ़े बनाती हैं, कशीदाकारी का हुनर भी शरबती, ज़मीला जैसी कई स्त्रियों के पास है। इन कामों के साथ लिफ़ाफ़े बनाना, टोकरी बुनना जैसे कामों को जोड़ा जा सकता है।
“माँ, हमारे पास एक कशीदाकारी वाला बेड-कवर है, अगर गाँव की स्त्रियाँ वैसे बेड-कवर, तकिया गिलाफ़, मेजपोश बना सकें तो शहरों में ऐसे सामान की खूब माँग होगी।” देवयानी का चेहरा चमक रहा था।
“हाँ, कल्याणी । देवयानी ठीक कह रही है अब शहरों में ही क्यों विदेशों में भी हाथ की बनी कलात्मक वस्तुओं की बहुत माँग है। मै तो कहती हूँ, साड़ियों और सलवार-सूट का भी काम शुरू कराना चाहिए।”
“हाँ, माँ। एक सलवार-सूट पर मेरे लिए भी बेल-बूटे कढ़वा देना।” देवयानी उत्साहित थी।
“घबरा मत, तेरी शादी के लिए तेरी माँ साड़ी पर भी कशीदाकारी करवा देगी। क्यों कल्याणी ठीक कहा न ? महिमा जी ने परिहास किया।
“छिः मौसी। अब तुम भी मज़ाक करने लगीं। हमें नहीं करनी है, शादी।” देवयानी तुनक गई।
“अच्छा भई, मत करना शादी। चल मौसी को एक कप बढ़िया चाय तो पिला।”
“अभी लाई, मौसी।”
कल्याणी और महिमा जी उदघाटन समारोह की योजना बनाने लगीं। दोनों समारोह को एक ख़ास कार्यक्रम बनाना चाहती थीं।
दो कप चाय के साथ देवयानी आ पहुँची। माँ और मौसी की बातें ध्यान से सुनती देवयानी को अचानक एक बात याद हो आई।
“माँ, मेरे दिमाग़ में एक और सुझाव है। इस काम की चाभी तुम्हारे पास है।
“मेरे पास कौन-सी चाभी है, देवयानी ?” कल्याणी सोच में पड़ गई।
“अपना बक्सा कभी खोला है, माँ ?” देवयानी मुस्करा रही थी।
“मेरे बक्से में क्या ख़ास है, देवयानी ? हमेशा ही खुला पड़ा रहता है।”
“मैं उस बक्से की बात कर रही हूँ, जिसमें तुम्हारे बनाए चित्र रखे हैं, माँ। शायद तुम नहीं जानतीं आजकल मघुबनी पेंटिंग्स कितनी डिमाँड में हैं। तुम औरतों को अपनी ये कला सिखाकर कई आधुनिक चीज़े बनवा सकती हो।”
“सच, कल्याणी। तुम्हारी इस कला के बारे में तो मुझे पता ही नहीं था। पंद्रह दिन पहले एक प्रदर्शनी में साड़ियों, टाई, स्कार्फ़ो पर मधुबनी शैली के चित्र बने थे। चे चीज़े हाथो-हाथ बिक गई।” महिमा जी ताज़्जुब में थी।
“अगर ये संभव है तो मैं गाँव की औरतों को चित्र बनाने की कला ज़रूर सिखाऊँगी। घरेलू औरतें तीज-त्योहारों पर दीवारों और आँगन या दरवाज़ों पर अल्पना बनाती ही हैं। उन्के इस शौक को बस व्यावसायिक रंग देना होगा।” कल्याणी के चेहरे पर आत्मविश्वास था।
देवयानी के कॉलेज में इंटर- कालेज नृत्य प्रतियोगिता आयोजित की जानी थी। एक दिन बातों-बातों में देवयानी ने अपने साथ की लड़की नीता से कह दिया था, उसे नृत्य की शिक्षा नहीं मिली है, पर उसकी नृत्य में बहुत रूचि है।
“अगर तुने क्लासिकल डांस सीखा होता तो क्या स्टेज परफ़ारर्मेंस दे सकती थी, देवयानी ?”
“पता नहीं, पर कभी-कभी जी चाहता है, मै भी नृत्य-कला में प्रवीण होती।”
“अगर तुझे नृत्य-कला का इतना ही शौक़ है, तब तो फ़िल्मी गानों पर ज़रूर नाचती होगी?”
“नहीं, हमे लोक-गीतों पर नृत्य करना अच्छा लगता है। बचपन में गाँव में हम सब लड़कियाँ मिलकर त्योहारों पर खूब नाचते थे।” बचपन की मीठी याद की खुशी से देवयानी का चेहरा जगमगा उठा। कॉलेज के नोटिस-बोर्ड पर नृत्य-प्रतियोगिता के लिए देवयानी का नाम लिखा देख, रोहित चौंक गया।
“वाह ! मुझे तो पता ही नहीं था, संगीत के साथ-साथ तुम नृत्य-कला में भी एक्सपर्ट हो।”
“क्या....आ ? तुमसे ये किसने कहा ?” देवयानी ताज़्जुब में आ गईं।
“अरे पूरा कॉलेज जान गया है। अपना नाम नोटिस-बोर्ड पर नहीं देखा ?”
नोटिस-बोर्ड पर अपना नाम देख, देवयानी चौंक गई। ऑर्गनाइज़र ने देवयानी का नाम हटाने से साफ़ इंकार कर दिया। उसका नाम दूसरे कॉलेजों तक भेजा जा चुका था। बात अब कॉलेज के प्रेस्टिज की थी। दूसरी कोई लड़की लोक-नृत्य के लिए प्रस्तुत नहीं थी। आशा नाम की लड़की कत्थक नृत्य के लिए और सीता भरत-नाट्यम नृत्य-प्रतियोगिता में भाग ले रही थीं।
देवयानी समझ गई ये नीता की चाल है। नीता से जब पूछा तो उसने सहास्य जवाब दे डाला-
“देख, देवयानी, तेरी बातों से मैं जान गई तुझमें एक नृत्यांगना छिपी हुई है। एक बात समझ ले, गाँव की सोंधी माटी वाले गीतों पर तेरे पाँव उसी तरह थिरक उठेंगे जैसे कभी बचपन में थिरकते थे”
“नहीं, नीता। हमें अपनी हँसी नहीं उड़वानी है। गीत गाना दूसरी बात है, पर स्टेज पर नृत्य करना एकदम अलग बात है। हमसे नहीं होगा।”
“होगा, ज़रूर होगा, बस एक बार ठान ले तो तू क्या नहीं कर सकती, देवयानी।”
“घर में नाच-गा लेना चलता है, पर हज़ारों की भीड़ में स्टेज़ पर जाना संभव नहीं होगा। माँ सुनेगी तो नाराज़ होगी, नीता।”
“माँ को मनाने और तेरे रिहर्सल की ज़िम्मेदारी मेरी है, देवयानी।”
दूसरे ही दिन नीता, कल्याणी से मिलने जा पहुँची। कल्याणी को मनाने में देर ज़रूर लगी, पर नीता के तर्कों के आगे, कल्याणी को हथियार डालने ही पड़े। नीता ने कॉलेज की कुछ लड़कियों को इकट्ठा कर लिया। देवयानी के गीतों को उन्हें स्वर देना था। कॉलेज की ऑकेस्ट्रा- टीम ने म्यूज़िक देना स्वीकार कर लिया।
एक बार फिर देवयानी का बचपन सजीव हो उठा। उत्साह के साथ वह लोक-नृत्य की तैयारी में जुट गई। कल्याणी भी बेटी को उत्साहित करती।
उसी व्यस्तता में कल्याणी की योजना का उदघाटन-दिवस आ पहुँचा। योजना का उदघाटन करने स्वयं ऑफ़िस के डाइरेक्टर आए थे। समारोह में महिमा जी, सुनीता, कुसुम से साथ देवयानी भी उपस्थित थी। गाँव की स्त्रियाँ कौतुक से तैयारी देख रही थीं। वे यह समझने में असमर्थ थीं कि उतना बड़ा आयोजन उनके लिए हो रहा था। चंदन और उसके नौजवान साथियों में ख़ासा उत्साह था। पुरूष-वर्ग के बीच ज़रूर फुसफुसाहट चल रही थी।
पारो और बन्तो के साथ गाँव की लड़कियों ने नृत्य प्रस्तुत कर समाँ बाँध दिया। नृत्य के बीच पारो, देवयानी को भी खींचकर ले गई। सचमुच लोक-संगीत की लय पर देवयानी के पाँव आसानी से थिरक उठे। नीता ठीक कहती थी, बचपन का नृत्य आज फिर साकार था।
स्त्रियों के सामने ‘उ‘ लिखकर कल्याणी ने समझाया, उसकी योजना स्त्रियों के ही नहीं उनके परिवार की ज़िंदगी में उजाला लाएगी। घूँघट की ओर से कुछ स्त्रियाँ मुस्कराईं और लड़कियों ने उतावली में ‘उ‘ लिखना शुरू कर दिया।
कल्याणी की योजना ने स्त्रियों की आँखों में सपने जगा दिए। उनकी समझ में आ गया आत्मनिर्भर बनकर ही वे सुखी हो सकती हैं। शुरू-शुरू में पढ़ने के नाम पर औरतों को संकोच होता, पर धीरे-धीरे वे खुलने लगीं। उन्हे पढ़ाने के लिए जया और नमिता नाम की दो हँसमुख लड़कियाँ आने लगीं।
जिस दिन पहली बार उन्होनें अपना नाम लिखा, उनकी खुशी देखते बनती थी। स्लेट पर सिर झुकाए पारो को लिखता देख, बन्तो ने छेड़ा-
“अरे ये क्या, पारो ने अपने नाम की जगह चंदन का नाम लिख दिया।”
“चल, झूठी कहीं की। हमने तो अपना ही नाम लिखा है, दीदी। हमें बंतो से बात नहीं करनी है।” पारो ने झूठा गुस्सा दिखाया।
“ओय होय। मन-मन भावे मुडिया हिलावे। सच कह, तेरे मन में बस चंदन का ही नाम बसता है या नहीं ?” पारो हंस रही थी।
“हाँ-हाँ, बसता है,तेरा क्या जाता है ? तू भी तो मनोहर पर मरती है।”
औरतें हँस पड़ीं। कल्याणी का ये केंद्र सिर्फ़ काम सीखने-सिखाने का ही केंद्र नहीं था बल्कि स्त्रियों के लिए वह मनोरंजन की भी जगह थी। हँसी-ठिठोली करतीं स्त्रियों को काम करना सहज लगता। कपड़ो पर फूल काढ़ते, उनके सपने खिलते जाते। उनके बनाए कलात्मक सामान को देख, लोग आश्चर्य करते। पारो और चंदन की शादी तय हो गई थी। पारो अपने लिए एक साड़ी पर कशीदाकारी कर रही थी। खुशी में समय बीतता जा रहा था।
देवयानी के कॉलेज में नृत्य-संध्या की तिथि आ पहुँची। कल्याणी ने देवयानी के लिए हल्के गुलाबी रंग का लहंगा-चुन्नी तैयार किया था। लहंगे-चोली और चुन्नी पर सुनहरे बूटे चमक रहे थे।
मंच पर गाँव का दृश्य बनाया गया था। कुएँ के पास पनिहारिन बनी देवयानी अपूर्व लग रही थी। धड़कते दिल से गीत के बोलों पर देवयानी ने नृत्य प्रस्तुत किया। नृत्य की समाप्ति पर एक क्षण के सन्नाटे के बाद हॉल तालियों से गूँज उठा। सपने से जगाए गए से लोग विस्मय-विमुग्ध थे।
प्रतियोगिता के निर्णय की घड़ी आ गई। कत्थक नृत्य में कॉलेज की आशा को तीसरा स्थान मिला, सीता किसी भी पुरस्कार से वंचित रही। देवयानी के प्रथम पुरस्कार की घोषणा का दर्शकों ने ज़ोरदार तालियों से स्वागत किया। नीता ने देवयानी को गले से लगा लिया-
“तूने आज कॉलेज का सम्मान बढ़ाया और मेरे विश्वास की रक्षा की है, देवयानी। अब किसी भी चीज़ को असंभव मत समझना।”
“थैंक्स, नीता। तूने मुझे नई हिम्मत और ताक़त दी है। तेरी बात हमेशा याद रखूँगी।
पुरस्कार ग्रहण कर मंच से उतरती देवयानी को रोहित ने रोक लिया-
“कांग्रेच्युलेशन्स। अब और कितने सरप्राइज़ेज़ दोगी, देवयानी। जितना ही तुम्हें जानता हूँ, मुग्ध होता हूँ।”
“शुक्रिया। वैसे हम इतनी तारीफ़ के लायक नहीं है, रोहित। हमें तो ये पता भी नहीं था हम स्टेज पर डांस कर सकते हैं।” शर्माती देवयानी ने कहा।
“आज की तुम्हारी इस सफलता के लिए मेरी ओर से ट्रीट तय रही। बोलो कहाँ चलना है।”
“कहीं नहीं, माँ घर में इंतज़ार कर रही होंगी।”
“ओह, मैं तो भूल ही गया। वो भी तो कम्पटीशन के रिज़ल्ट का इंतज़ार कर रही होंगी। चलो, मैं ड्राप कर देता हूँ।”
“नहीं, तुम्हारी मोटरबाइक से कही भी न जाने का माँ से वादा किया है। सॉरी, रोहित।”
“अजी आज हम देवयानी दि ग्रेट के लिए बाइक नहीं कार लाए हैं। अब तो चलें?”
सकुचाती देवयानी, रोहित के साथ आगे की सीट पर बैठ गई। घर पहुँची देवयानी के साथ रोहित भी उतर आया। देवयानी के विस्मय पर हँसते रोहित ने कहा-
“आज तो माँ जी से मिलकर ही वापस जाऊँगा। इजाज़त है ?”
“अपने आप निर्णय ले लिया फिर इजाज़त का सवाल ही कहाँ उठता है ?”
दरवाज़ा खोलती कल्याणी देवयानी के साथ खड़े रोहित को देखकर ताज़्जुब में पड़ गई। कल्याणी का संशय खुद अपना परिचय देकर रोहित ने दूर कर दिया।
“माँ जी, रोहित। फ़ाइनल इअर कम्प्लीट कर रहा हूँ। देवयानी के गुणों का प्रशंसक हूँ। सोचा इतनी गुणवान लड़की की माँ से मिलना ज़रूरी है।”
“अच्छा-अच्छा। आओ।”
“माँ, मुझे लोक-नृत्य में फ़र्स्ट प्राइज़ मिली है।” खुशी से उमगती देवयानी ने माँ को बताया।
“चल, तेरी मेहनत सफल हुई।”
“बस, क्या इतना कहना ही काफ़ी है ? मैं तो मिठाई खाए बिना टलने वाला नहीं हूँ, माँजी।”
“ज़रूर, लेकिन आज तो बस घर का हलवा ही मिल सकेगा। पहले से पता होता तो मिठाई मँगाकर रखती।” कुछ संकोच से कल्याणी ने कहा।
“अरे वाह ! मज़ा आ गया। घर के हलवे के सामने बाज़ार की मिठाई कौन पसंद करेगा। जब तक मम्मी थीं, हर मंगल को हलवा बनाती थीं।” रोहित उदास था।
“तुम्हारी मम्मी को क्या हुआ रोहित ?”
“दो दिन की बीमारी में माँ ये दुनिया छोड़ गईं। पापा भी कुछ नहीं कर सके।”
“हाँ, बेटा। ऊपर वाले के सामने किसी की नहीं चलती। देवयानी के पापा की क्या जाने की उम्र थी ?” कल्याणी ने लंबी साँस ली।
“होनी को कोई नहीं टाल सकता, पर देखिए, देवयानी की वजह से माँ के रूप में आप मिल गईं। मैं आपको माँ कह सकता हूँ ?”
“क्यों नहीं, रोहित। जब जी चाहे हलवा खाने आ जाना।” कल्याणी हल्के से मुस्करा दी।
“ये हुई न बात। देवयानी तुम बस बातें ही सुनती रहोगी या मेरा हलवा भी लाओगी।”
हँसी-खुशी में वो शाम बीत गई। उस दिन के बाद से रोहित अक्सर देवयानी के साथ घर आ जाता। रोहित के आने से घर जैसे चहक उठता। कल्याणी की इजाज़त ले, रोहित कभी-कभी देवयानी को किसी रेस्ट्र या पार्क जैसी जगहों में भी ले जाता। न जाने क्यों देवयानी को रोहित के साथ देख, कल्याणी के मन में रोहित के लिए बहुत प्यार और ममता उमड़ आती।
दिन-महीने-साल, बीतते देर नहीं लगती। दो वर्षों में कल्याणी का केंद्र एक खुशहाल केंद्र बन चुका था। गाँव की औरतों का हुनर उनके बनाए सामान में चमकता। गाँव के प्रधान और ब्लॉक डेवलपमेंट अधिकारी भी प्रसन्न थे। उनकी मदद से औरतों का बनाया सामान शहर के बिक्री केंद्रों में जाने लगा। पहली बार जब औरतों के हाथों में पैसे आए तो सब खुशी में जी भर कर नाचीं। ज़मीला चाची ने चेतावनी दे डाली-
“याद रखो, ये हमारी मेहनत की कमाई है। इससे हम अपने बच्चों को पढ़ाएँगें, उन्हें अच्छा खाना खिलाएँगें। ये पैसा मरदों की दारू के लिए नहीं देना है।”
“हाँ, चाची। इतना ही नहीं, हम शराबी पति के लिए दरवाज़े नहीं खोलेंगे।” शरबती ने ज़ोरदार आवाज़ में घोषणा कर डाली।
“आज तुम सच्चे अर्थों में साक्षर बनी हो। बस इसी तरह तुम्हें आगे बढ़ते जाना है।” कल्याणी ने हौंसला बढ़ाया।
“हां दीदी, हम आपके साथ आगे ही बढ़ते जाएँगे, “ बंतो ने खुशी से कहा।
“तुम सबके लिए एक और खुशख़बरी है। अगले महीने तुम्हारे लिए हथकरधा आ रहा है। तुम्हें हथकरधे पर कपड़ा बुनना सिखाया जाएगा।”
“जुग-जुग जीओ बेटी। तुमने तो हमारे सपने सच कर दिए।” बूढ़ी काकी ने कल्याणी को सच्चे मन से आशीर्वाद दिया।
देवयानी मेडिसिन के तीसरे वर्ष की पढ़ाई पूरी कर रही थी। माँ की विजय-गाथा उसे विस्मित करती।
“माँ, तुम गाँव की औरतों की प्रेरणा हो। उनका जीवन तुमने बदल दिया, पर अपने लिए क्या कर रही हो ?”
“क्या मतलब है, तेरा ?”
“यही कि तुम समाज-कल्याण में एम.ए. क्यों नहीं कर लेतीं। सबके विकास के साथ तुम्हें अपना भी विकास करना चाहिए, तभी पापा की आत्मा को संतोष मिलेगा।” दृढ़ स्वर में देवयानी ने कहा।
“तू ठीक कहती है, मैं आज ही से पढ़ाई शुरू करूँगी। तेरी मेडिसिन की पढ़ाई पूरी होगी और मैं भी एम..ए कर लूँगी।”
“चलो अब घर में दो-दो विधार्थी हो गए।” प्यार से देवयानी ने माँ के गले में हाथ डाल दिए।
दूसरे दिन देवयानी को अपनी प्रोन्नति का आर्डर मिला। उसे वरिष्ठ समाज कल्याण अधिकारी बनाया गया था। डाइरेक्टर ने सबके सामने कल्याणी की प्रशंसा करते हुए कहा-
“हमारे समाज को कल्याणी जैसी कर्मठ स्त्रियाँ चाहिए। कल्याणी ने तो गाँव की स्त्रियों तक उजाला पहुँचाया है। मैं कल्याणी के उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ।”
उस दिन रोहित देवयानी के साथ कल्याणी को भी जबरन रेस्ट्रा लेगया। वर्षो बाद कल्याणी ने बाहर की जगमगाहट देखी थी। उसके संकोच पर रोहित हँस पड़ा-
“अपने को पहचानिए, माँ। आज आप भले ही लोगों से अपरिचित हैं, पर जल्द ही लोग आपको एक समाज-सेविका के रूप में सम्मान देंगे। उस दिन आपको ट्रीट देनी होगी।” रोहित की आवाज़ में विश्वास था।
देवयानी और कल्याणी अपनी-अपनी पढ़ाई में जुट गईं। कार्यालय, घर के दायित्वों के साथ कल्याणी गाँव की औरतों के प्रति पूरी तरह सजग थी। हथकरधा- केंद्र चालू हो गया था। पारो अपने चंदन के लिए एक दोशाला बुन रही थी। पाँच दिन बाद पारो की शादी थी, उसके पहले उसे दोशाला पूरा कर लेना था।
पारो और चंदन की शादी में खूब धूम-धड़ाका रहा। बंतो और उसकी सहेलियों ने पूरी रात नाच-गाकर खूशी मनाई। चंदन के जूते बंतो ने चुराकर अच्छी रकम वसूल की। कल्याणी और देवयानी के साथ रोहित भी शादी में शामिल होने आया था। बंतो ने देवयानी को छेड़ा-
“ऐ दीदी, तुम्हारे साथ तुम्हारा दूल्हा आया है, क्या ? एकदम राजकुमार-सा लगे है।”
“छिः, जोक मुंह में आया बक देती है माँ से तेरी शिकायत करनी होगी, बंतो।” देवयानी का चेहरा लाल हो आया। रोहित हल्के से मुस्करा दिया।
पारो की शादी की धूमधाम ख़त्म होने के बाद औरतें अपने काम में लग गईं। उनका केंद्र अब “चेतना” के नाम से जाना जाता था। कुछ पत्रकारों ने आकर जब ‘चेतना‘ केंद्र की प्रगति देखी तो अपने अख़बारों में कल्याणी की भूरि-भूरि प्रशंसा कर डाली। अख़बारों की ख़बर ज़िले और राज्य तक पहुँची। सर्व सम्मति से उस गाँव को सर्वश्रेष्ठ गाँव का पुरस्कार देने का निर्णय लिया गया।
पुरस्कार समारोह में कई पत्रकार, कलक्टर महोदय के साथ कई गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे। कल्याणी को मंच के बीच में स्थान दिया गया था। ग्राम-प्रधान ने ईमानदारी से स्वीकार किया कि उसके गाँव की औरतों के विकास का श्रेय कल्याणी को जाता है। आज गाँव की सभी स्त्रियाँ साक्षर बन चुकी हैं। पत्रकारों ने जब कल्याणी से ‘चेतना‘ के भविष्य की योजनाओं के बारे में पूछा तो उसने सच्चाई से जवाब दिया-
“सरकार ने पंचायत में तैंतीस प्रतिशत स्थान स्त्रियों के लिए नियत किए हैं। मैं चाहती हूँ चेतना की स्त्रियाँ सच्चे अर्थों में पंच बनकर फैसले सुनाएँ। वे किसी को दबाव में काम न करें।”
“आपकी इच्छा पूरी होगी, दीदी। इस बार पारो और ज़मीला चाची पंचायत में जाएँगी, ये हमारा फैसला है।” शरबती ने पूरे विश्वास से कहा। औरतों ने तालियाँ बजाकर शरबती की बात का अनुमोदन किया।
“मैं ये भी चाहती हूँ कि स्त्रियाँ अपना बैंक चालएँ। जिस दिन वे ऐसा कर सकेंगी, मैं समझूंगी, मेरा कार्य सफल हुआ।”
तालियों की गड़गड़ाहट के साथ कल्याणी का अभिनंदन किया गया। दूसरे दिन समाचार पत्रों में कल्याणी के चित्र के साथ उसके कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई थी।
समाचार पत्र पढते कमलकांत का सीना गर्व से फूल उठा। पत्नी को बुलाकर कहा-
“जिस बहू का हमने तिरस्कार कर घर से निकाल दिया। आज उसकी वजह से हमारा खांदान गौरवान्वित है, सरस्वती।”
पत्नी की कोई प्रतिक्रिया न देख, उन्होंने फिर कहा-
“चलो, हम चलकर अपनी बहू ओर पोती को घर ले आएँ। अब तो देवयानी डॉक्टर बनने वाली होगी। हमारे परिवार का नाम और सम्मान हमारी पोती ने बढाया है।"
“क्या वे हमारे साथ आएँगी ?”
“हम अगर कोशिश करेंगे तो वो क्यों नहीं आएँगी, सरस्वती। आखिर देवयानी हमारा खून है। हमारे अमर की निशानी है।”
सास-ससुर को अचानक अपने घर आया देख, कल्याणी चौंक गई। उनके पाँव छू, आदर से बैठाया। कमलकांत ने बिना किसी भूमिका के कहा-
“हम तुम दोनों को लेने आए हैं, बहू। अपने घर चलो।”
“हम अपने घर में ही हैं, पापा जी। आप किस घर में ले जाने की बात कर रहे हैं ?” शांत स्वर में कल्याणी ने कहा।
“ये तुम्हारा घर नहीं है, बहू। किराए का घर अपना नहीं हो सकता। अमर का घर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।”
“नहीं, पापा जी। इस घर ने हमें वो सब कुछ दिया है, जो आपका बेटा हमे देना चाहता था। वैसे भी अमर का घर तो वो गाँव है, जहाँ देवयानी जाकर उनके अधूरे सपने पूरे करेगी। हमें क्षमा करें, पापाजी। हाँ हमारे इस छोटे से घर में आपका हमेशा स्वागत रहेगा।”