देवी का अंतरंग प्रसंग / मुक्तक / नैनसुख / सुशोभित
सुशोभित
फ़िल्म 'देवी' में एक अन्तरंग प्रसंग था, लेकिन सत्यजित राय उसे फ़िल्माने से कतरा रहे थे। दयामोयी (शर्मिला ठाकुर) और उमाप्रसाद (सौमित्र चटर्जी) के दुःखों का पारावार न था, पति-पत्नी होने के बावजूद उन्हें एक-दूसरे से अलग कर दिया गया था। तब एक रात, शयनकक्ष में चोरी-छिपे आया उमाप्रसाद दयामयी को सांत्वना देता है, दुलारता और चूमता है। पृष्ठभूमि में अली अकबर का गहन रागात्मक संगीत बजता है।
किन्तु सत्यजित को चिंता थी कि इस दृश्य पर सिनेमा हॉल में अग्रपंक्ति के दर्शकों द्वारा सीटियाँ बजाई जा सकती हैं, जिससे वह ख़ूबसूरत, नाज़ुक दृश्य चौपट हो सकता है। तो उन्होंने अपने कैमरामैन (सुब्रत मित्र) को निर्देश दिया कि आप कुछ दूरी से यह दृश्य इस तरह फ़िल्माएँ कि दया और उमाप्रसाद की पीठ या साइड प्रोफ़ाइल कैमरे की तरफ़ नज़र आएँ। वे जिस पलंग पर बैठे हों, उस पर महीन जाली लगा दी जाए। ऐसे में यह दृश्य दो परछाइयों के धुंधले आलिंगन की तरह नज़र आएगा और दुर्दैव के दिनों में उदासी भरे प्रणय के जिस रागात्मक मूड की रचना करना चाहते हैं, वह दर्शकों के अति उत्साह से क्षत-विक्षत होने से बच जाएगा।
अनेक फ़िल्मकार सीन लिखते समय इस बात की फ़िक्र करते हैं कि फलाँ-फलाँ दृश्य या संवाद पर तालियाँ कैसे पड़ें, सिक्के कैसे बरसें और सीटियाँ कैसे बजें, सत्यजित की चिंता इससे बिलकुल विपरीत थी। लेकिन यह प्रसंग सिनेमा की 'पब्लिक व्यूइंग' की समस्या की ओर फिर से हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। अमित दत्ता ने 'पब्लिक व्यूइंग' बनाम 'लैपटॉप व्यूइंग' के बारे में बात की थी। वास्तव में सिनेमाघर एक अजब मनोवैज्ञानिक-भावनात्मक प्रयोगशाला की तरह होता है। महीन अंधेरे में सैकड़ों लोग दम साधे फ़िल्म देखते हैं और फ़िल्मों का अनिवार्य दायित्व उनकी विभिन्न भावनाओं को उभारना होता है। तरह-तरह के दर्शक फ़िल्म को अपनी-अपनी तरह से 'पर्सीव' करते हैं। इस तरह एक फ़िल्म अनेक में 'डी-कंस्ट्रक्ट' होती रहती है। वे उस पर लगे हाथों प्रतिक्रिया देने से नहीं चूकते, कभी हूटिंग, कभी कमेंट्स। फ़िल्म देखी हो तो उसकी कहानी समीप बैठे मित्र को सुनाने की फ़ितरत, नहीं देखी हो तो ऊँचे सुर में पूर्वानुमान लगाने की आदत। दृश्य अनुकूल न होने पर बेचैनी उजागर करना, खाँसना-खखारना, फ़ोन पर बतियाना। बीच-बीच में उठकर बाहर चले जाना, बीड़ी फूँककर लौट आना।
एक संवेदनशील दृश्य-योजना की कल्पना करनेवाला फ़िल्मकार सार्वजनिक प्रदर्शन की इन रीतियों से विक्षुब्ध होकर अपने सीन को स्वयं ही किंचित दूरी से निहारने लग जाए, तो आश्चर्य क्या?