दोबारा नहीं / ट्‍विंकल रक्षिता

Gadya Kosh से
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क्या एक ज़िन्दगी काफ़ी है, इतने सवालों के लिए ?


आधी रात बीत चुकी है... मैं टेरेस पर खड़ी खड़ी सोचती हूँ, कि कूद जाऊँ... अगली सुबह मैं न होऊँगी, न ही मुझे पता होगा कि कौन है मेरे पास... या फिर मेरे पास कौन होना चाहिए। शादी के बीस साल बीत चुके हैं और अभी मेरी उम्र पैंतालीस वर्ष है... ऐसे तो 4 और 5 क़ायदे से नौ होते हैं, लेकिन उम्र की गिनती का अलग ही फंडा है...4 और 5 यहां पैंतालीस ही होते हैं। कायदे से सोचू तो आधी से अधिक उम्र ढल चुकी है... कोई खास फर्क नहीं पड़ता मेकअप प्रोडक्ट का... आंखे धंसी जा रही हैं... गले के नीचे धीरे धीरे मांस का लोथड़ा जमा होने लगा है, स्तनों में वो कसाव नहीं और लाख चाहने पर भी कमर के नीचे साड़ी नहीं बांध पा रही हूं क्योंकि कमर और कमरे के बीच कोई खास फर्क नहीं रहा। लेकिन मरने के लिए क्या इतना ही काफ़ी है?

तभी मोबाइल का रिंग बजता है और स्क्रीन पर सुनहरे अक्षरों में सबीर का नाम देखकर घबरा जाती हूं...इसी नाम से जुड़ने के कारण मुझे डबल कैरेक्टर की उपाधि मिली है...वो उसी बैंक में काम करता है जहां पहले मैनेजर साहब फिर मैं और अब सबीर... मुझसे बारह-पन्द्रह साल छोटा है सबीर।

फिलहाल मैंने मरने का इरादा बदल दिया है और वापस बेडरूम में आकर आईने के सामने खड़ी हो जाती हूं... और नाक-मुंह की अलग- अलग आकृतियां बनाके देखती हूं कि शायद कहीं से बीस साल पहले की एक झलक देख पाऊं... फ़िर अपनी नाईटी को कोसने लगती हूं कि इसकी वजह से मैं और बूढ़ी और मोटी लगने लगी हूं, तुरंत फैसला करती हूं कि अगले दिन से नहीं पहनूंगी, और अगली सुबह दो तीन फैशनेबल कपड़े खरीद आती हूं। बालों का ख्याल आते ही जी और कचोट जाता है, कैसे लंबे और घने बाल थे मेरे... वैसे ये सारे ख्याल मुझे अचानक नहीं आते, बल्कि तब-तब आते हैं जब किसी जवान लड़की को उसके दिन जीते देखती हूं और फ़िर ख़ुद से पूछती हूं कि मैंने क्या किया? क्या मैंने जीया?

नहीं...लेकिन अब जीना चाहती हूं...अतीत की यादें धूमिल पड़ने लगी हैं और अब वर्तमान अच्छा लगने लगा है... सारी इच्छाएं जगने लगी हैं और मेरे इर्द गिर्द घूमने लगी हैं... ठीक कह रहा था पुनीत, मैं निहायती गिरी हुई औरत हूं... जिसे कभी पैसा तो कभी दम भर सेक्स चाहिए... हेलो... तो ये है आपका नया रूप? अब आप एक मुसलमान के साथ घूम रही हैं? पापा को आपने मार दिया न? उनके मरने के बाद दो साल भी इंतज़ार नहीं हुआ आपसे.. आप पहले फैसला कर लीजिए आपको पैसा चाहिए या ... ओह फक!... पापा से आपने पैसे लिए और अब इस मुसलमान से मजे, अल्लाह बचाए उसे... कब से ये खेल रही हैं आप? आपने पापा को मारने के लिए बुलाया था न? शेम ऑन यू... मैं आ रहा हूं अगले महीने पापा की जितनी भी पॉलिसी हैं उसके कागज़ मुझे चाहिए.... मैं अपना घर भी बेचना चाहता हूं और उस शहर में अपनी कोई याद नहीं छोड़ना चाहता.... एक मिनट... कहीं आपने वो घर अपने नाम तो नहीं करवा लिया.. तुम जब चाहो आके ले जाओ सब... हां ले जाऊंगा, सब बेच दूंगा... आप पहले ही लूट चुकी हैं पापा को... अब और नहीं।

लेकिन पुनीत हमेशा ये बात भूल जाता है कि मैं तो पैसे कमाती हूं

और उस घर में भी नहीं रहती जो मैनेजर साहब का है... मैनेजर साहब के पैसे तो पुनीत की परवरिश और उनकी बीमारियों में ही लगते थे साथ ही तीन चार पॉलिसी जो की पुनीत के फ्यूचर के लिए था... सुनिधि! पुनीत के साथ मैंने अच्छा नहीं किया न? उसकी मां को मैंने... लेकिन तुम तो जानती हो न मैं पुनीत से कितना प्यार करता हूं, उसे लगता होगा उसके बाप को उसकी कोई चिंता नहीं लेकिन ये सारे पैसे उसी के लिए हैं सुनिधि.... तुम समझ रही हो न?? फाइनली इतने दिनो के बाद भईया का फोन भी आया... अरे मर क्यों नहीं जाती हो... पहले एक बूढ़े से शादी की तुमने और अब मुसलमान... अरे क्या चाहती हो तुम, एक काम करो अपने हाथों से ही जहर पिला दो... मेरे पास कोई जवाब नहीं था... पुनीत की बातों का, न भईया का।

फिर ठहर कर फ्लैश बैक में जाती हूं और पाती हूं नील बट्टे सन्नाटा... हालांकि ऐसा नहीं था कि मुझे मौके नहीं मिले, या कई बार मैंने मौके जबर्दस्ती छीने... जिसमें सबसे इम्पोर्टेंट था मैनेजर साहब से मेरी शादी, केवल इस एक फैसले के कारण मैं सबसे दूर हो गई और अब मैनेजर साहब से भी.. मुझसे बीस साल बड़े थे वो...साथ ही रोगों के चलते फिरते भंडार... शुगर, बीपी और हर्ट भी...लेकिन तब वो चालीस वर्ष के आस-पास थे... और लंबाई चौड़ाई के साथ-साथ चेहरा भी बेहद आकर्षक, रंग तो सांवला ही था पर आंखें बड़ी खूबसूरत थी। हालांकि वो रोमांटिक बिल्कुल नहीं थे या होंगे भी तो अपनी पहली पत्नी पर लुटा चुके थे। याद आता है कि शायद ही कोई रोमांटिक पहल उनकी ओर से हुई हो, अगर होती भी तो केवल अपने बंद होंठों को मेरे बंद होठों पर रख देते इससे ज्यादा नहीं... उससे आगे सब कुछ अपने आप और बड़ी जल्दी निपट जाता था।

मैनेजर साहब की पहली पत्नी से एक लड़का था पुनीत... नाक नक्श बिल्कुल बाप जैसा। जब तक मैनेजर साहब जिंदा थे पुनीत कभी-कभार आया करता था लेकिन दो साल हुए मैनेजर साहब के मरे तब से पुनीत नहीं आया, उस दिन भी आया था केवल और केवल मुझे नीचा दिखाने... आप इस हद तक गिर जाएंगी मुझे नहीं पता था... क्या आप हमें और पहले नहीं बता सकती थीं कि पापा की तबीयत खराब है... आप साबित क्या करना चाहतीं थी कि केवल आप ही उनकी खास हैं बाकी उनका अपना खून हवा में तैर रहा है... ओह गॉड... आप नहीं चाहती थीं कि पापा कभी हमसे मिलें, आप शुरू से यही चाहती थीं न? अरे कम से कम अब तो डूब मरिए... आपकी वजह से ही मैं मां को खो चुका हूं, आपने सब बर्बाद कर दिया, अब बताइए आप ही... मैं कहां जाऊं? आपने पापा को सबसे दूर कर दिया, क्या खिलाती थीं आप उन्हें? लाइए न देखूं जरा... अरे दिखाइए न, चुप क्यों हो गईं? चुप होकर आप बच नहीं सकती... सुन रही हैं न आप... हां, आप नहीं बच सकतीं... और भी न जाने कितनी बातें पुनीत मुझे सुना गया उस दिन, लेकिन मेरे पास कोई जवाब नहीं था... पुनीत का भी कोई दोष नहीं था। हमारी शादी से पहले ही मैनेजर साहब की पत्नी चल बसीं जिसकी वजह पुनीत केवल और केवल मुझे समझता था...

पुनीत की उम्र लगभग सात-आठ साल की थी... तभी से वो मौसी के यहां रहता था और मैनेजर साहब उसे हर महीने उसके खर्च के लिए बीस हजार रुपए भेज दिया करते थे। वो चाहते थे कि पुनीत उनके साथ रहे... लेकिन मेरे साथ रहना उसे बिलकुल पसंद नहीं था...जब आता भी तो केवल मेनेजर साहब से ही बातचीत होती थी उसकी...मैं भी उससे बचने की पूरी कोशिश करती थी... उसके सामने जाते ही दिल जोर-जोर से धड़कने लगता था और अजीब-सी घबराहट होने लगती थी...जितने दिन वो रुकता उतने दिन मैं और मेनेजर साहब एक अजनबी की तरह ज़िंदगी जीते थे...इन सबके बीच एक अच्छी बात यह थी कि पुनीत अपने पापा से बिल्कुल नफ़रत नहीं करता था... वो अपनी मां की मौत का जिम्मेदार केवल और केवल मुझे मानता था... जबकि उनकी मौत हार्ट सर्जरी के दौरान हुई थी...

तब मैनेजर साहब उन्हीं के साथ रहते थे और जितने दिन वो हॉस्पिटल में रहीं तब भी वो साथ ही रहे... एक बार मैंने भी इच्छा प्रकट की थी पुनीत की मां से मिलने की जब वो दिल्ली में भर्ती थी लेकिन मैनेजर साहब ने मना कर दिया था... उस दिन फ़ोन पर वो खूब फूट-फूट कर रोए... मैंने गलत किया सुनिधि... बहुत गलत किया मैंने उसके साथ... मैं अपनी गलती सुधारना चाहता हूं , नहीं रह पाऊंगा मैं तुम्हारे साथ, उसे छोड़ देना मेरे बस की बात नहीं है, पुनीत का क्या होगा? कैसे संभालेगी वो सब कुछ... मैंने तुम्हारे साथ भी बहुत गलत किया, मुझे ये सारी बातें पहले ही सोचनी चाहिए थी... मुझे माफ़ कर दो सुनिधि , लेकिन किसी तरह के मदद की जरूरत पड़े तो जरूर याद करना....

मैं उस दिन भी हकलाती आवाज़ में केवल इतना ही बोल पाई थी कि मैं आपके साथ हूं, आपके हर फैसले में... तब से मैंने पूरे तीन महीने उनकी कोई ख़बर न ली... न उन्होंने मेरी। लेकिन मैं उनको भूल कर आगे न बढ़ पाई थी, घर से शादी का बहुत ज्यादा दवाब था और सबको भनक लग गई थी उस बात की, लेकिन इससे पहले कि मैं सब कुछ भूला कर आगे बढ़ने की सोच पाती, पता चला कि मैनेजर साहब की पत्नी चल बसीं... खूब बारिश हो रही थी उस दिन जब भीगते हुए आए थे वो मेरे फ्लैट में और कस के लिपट गए थे मुझसे, बच्चों की तरह रो रहे थे ... सुनिधि सब खत्म हो गया, मैं कुछ नहीं कर पाया, हार गया मैं... बहुत बुरा हूं मैं, न उसे खुश रख पाया न तुम्हें... ऐसा पहली बार हुआ था जब वो लगातार चार दिनों तक मेरे साथ मेरे फ्लैट में रुके... वो बैंक नहीं जा रहे थे, पर मैं जा रही थी...

वहां भी लगता था कि सब मुझे घूरे जा रहे हैं, मेरे लिए काम के वो छः सात घंटे काटना मुश्किल हो गया था, लेकिन पांचवें दिन से मैनेजर साहब भी जाने लगे... धीरे धीरे सब सामान्य होने लगा, इस बार हम दोनों पहले से अधिक करीब आने लगे थे और एक दिन हमनें शादी कर ली... बस तभी से मैं अपने घरवालों से दूर हो गई... पापा ने मुझे कभी फ़ोन नहीं किया और ना ही मैंने... मैनेजर साहब के माता-पिता भी अपनी बेटी के साथ दिल्ली चले गए और पुनीत मौसी के साथ कोलकाता... तब से हर महीने मैनेजर साहब साहब कोलकाता जाने लगे पुनीत से मिलने.... इस बीच कई बार वो दिल्ली भी गए लेकिन मैं कभी उनके साथ न गई... शायद उनमें भी हिम्मत नहीं थी मुझे सबके सामने ले जाने की...

हमारा कोई बच्चा नहीं हुआ... और ना कभी मेरी हिम्मत हुई मैनेजर साहब से बोलने की मुझे बच्चा चाहिए... या कभी ऐसा ख्याल आया भी तो पुनीत का चेहरा याद करने के बाद हिम्मत और जबाव दे गई। मैंने चार पांच वर्षों तक इंतज़ार किया कि शायद कभी वो इस बारे में मुझसे बात करेंगे लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ... वो उम्र से अधिक बूढ़े लगने लगे थे और उनके पीछे-पीछे मैं भी... इच्छाएं हज़ार थी, पर सब न जानें कहां खो दिया था मैंने, कभी-कभी ऐसा समय भी आता जब वो तीन चार दिन तक लगातार मुझसे बातचीत नहीं करते या मेरे साथ एक कमरे में सोते भी नहीं थे... दो महीने बीत चुके थे उनके रिटायरमेंट के और एक दिन उन्होंने अचानक कहा...

सुनिधि, मैं दिल्ली जाना चाहता हूं, कुछ दिनों के लिए। यहां अकेले दम घुटता है, तुम भी बैंक चली जाती हो...।

बुरी तरह डर गई थी मैं उस दिन... लगा था अब वो वापस नहीं आयेंगे मेरे पास...

लेकिन मैं क्या बोल के रोक सकती थी उन्हें... एयरपोर्ट पर इतना ही बोल पाई कि जल्दी आइएगा... मेरे जबड़े बैठने लगे थे, आसूं का गुबार गले तक पहुंचता और मैं उसे रोकने की कोशिश करती... जबड़ों पर भार बढ़ने लगा था और सब्र का बांध टूटने ही वाला था कि मैं पीछे मुड़ गई...इच्छा हुई थी कि उनके गले लगे जाऊं पर न जाने क्या मुझे रोक रहा था, शायद बहुत दिनों से हमारे बीच एक अजीब फासला बनने लगा था जिसे मैं चाहकर भी नहीं लांघ पाती... उनके बिना काटे गए वो डेढ़ महीने मेरी जिंदगी के सबसे खौफनाक दिन थे... जब मैं उस फ्लैट से एक बार निकलने के बाद वापस नहीं जाना चाहती थी, चार बजे बैंक से निकलकर मैं चुपचाप बगल वाले पार्क में बैठ जाती...

जैसे-जैसे बाहरअंधेरा होता वैसे-वैसे मेरे भीतर भी एक घना कोहरा छाने लगता, एक ऐसा कोहरा जिसका अंत मुझे न दिखता... मैनेजर साहब से उन दिनों बात होना भी मुश्किल हो गया, वो जल्दी फोन नहीं करते या करते भी तो हाल चाल पूछने के अलावा हमारे पास कोई बात न होती कहने को... हम उन जोड़ों में से नहीं थे जो दुनियां जहान की बातें करते हों... जिनके पास अपने पड़ोसियों के गॉसिप हों या बचपन और जवानी के ढेरों किस्से... हम दोनों खुद को भूलने लगे थे, हम ये नहीं जानते थे कि हमारी खुशी कहां है और शायद मैंने कभी कोई कोशिश भी की तो उनकी सहमति के बिना वो अधूरी रह गई।

उन डेढ़ महीनों ने मुझे खूब थकाया... आधी थकान खुद से थी और आधी उनसे, फ़िर ये हुआ कि मैंने बिस्तर पकड़ लिया... बैंक जाना भी बंद हो गया था दो दिनों से, अकेली कुछ भी करने में असमर्थ थी, रिश्ते नाते कुछ न कमाए थे मैंने, जिन्हें इस वक्त बुला लेती... और शादी के बाद ऐसा पहली बार हुआ था जब मैं इतनी कमजोर और बीमार पड़ी होऊं... मैनेजर साहब की बीमारियों ने मुझे बीमार होने का मौका ही नहीं दिया कभी... संयोग देखिए कि जैसे ही वो और उनकी बीमारी दोनों साथ-साथ दिल्ली थे... मैं तब बीमार पड़ी, एकदम आराम से...मेरे पास अब उनको बुलाने के सिवाय कोई चारा नहीं था क्योंकि किसी भी हाल में मुझे जीना अच्छा लगता था और आज भी मैं जीना ही चाहती हूं... रोड पर चल रहे उन सैकड़ों लोगों में मुझे मेरी उपस्थिति अच्छी लगती है, बैंक आने वाले उन तमाम लोगों से जो हर महीने बैंक आते हैं उनसे बात करना अच्छा लगता है। ऐसे में मैं कैसे चुन सकती थी खुद का बीमार होना या मर जाना, हां मैंने बुलाया था उन्हें, और अब पछताती हूं कि बेकार ही बुलाया, अच्छा होता कि उनकी मौत अगर होनी ही थी तो वहीं होती, लेकिन मेरे सर ही बदते आ रहा था सबकुछ... शुरू से, फिर ये तो सबसे मजबूत कड़ी थी।

अकेली थी मैं उनकी मौत की गवाह... जब वो पूरी रात मेरे साथ एक बिस्तर पर सोए रहे थे और मुझे भनक तक न लगी थी... रात में दो बार नींद भी खुली पर वो सोए हुए थे... हमेशा के लिए। सोए और मरे हुए इंसान में फर्क ही कितना होता है और हम हमारे आस-पास सोए हुए अपनों को जगा जगा कर तो नहीं पूछते न..कि तुम मर गए हो या सो रहे हो। सुबह भी मैं हाथ मुंह धोकर चाय के लिए दूध चढ़ाने के बाद गई उनको जगाने... धक... हां ऐसा ही हुआ था कुछ उस समय... सीने में धक-धक और कानों के आस-पास केवल सायं-सायं की आवाज... अब जब उस दिन का उनका चेहरा याद करती हूं तब समझ पाती हूं कि होता है फर्क, मरे और सोए हुए इंसान में। कैसे मैनेजर साहब का चेहरा सूजा हुआ था... और दोनों आंखें अधखुली... थोड़ा-सा मुंह भी। मैं दो बार से ज्यादा उन्हें हिला डुला भी न पाई।

उन्हीं के फोन से मैंने सबीर और अनुज को फोन किया था, उसके बाद मुझे नहीं पता कि पुनीत को किसने खबर दी और भी बाकी लोग कैसे आए... लेकिन मेरे घर से कोई न आया था।

सोचती हूं कि अगर मैं उनकी ज़िंदगी में न आती तब भी उनका अंत ऐसे ही होता... जहां उनका कोई करीबी उनके साथ नहीं होता या फिर मैनेजर साहब ऐसे ही उलझे रहते जैसे मेरे साथ थे... जवाब कुछ नहीं ढूंढ पाती मैं... शायद उन्होंने कभी मुझे अपने बराबर नहीं पाया, न केवल उम्र का फासला आड़े आया होगा बल्कि परिस्थियां भी विपरीत होंगी...

तो अब मैं क्या करूं?

अपने लिए कौन सी परिस्थिति बनाऊं?

मुझे अब मैनेजर साहब के साथ बिताए हुए एक भी अच्छे पल नहीं याद आते... याद आता है तो केवल उनका अंत समय , जब मैं बिल्कुल अकेली थी और पुनीत उनकी मौत का जिम्मेदार मुझे ठहरा रहा था, याद आता है जब उनके मरने के बाद फोड़ने के लिए मेरे हाथों में चूड़ियां पहले से ही नहीं थीं क्योंकि सजना संवरना मैनेजर साहब की उम्र के साथ-साथ मैंने पहले ही छोड़ दिया था। अब याद आता है मैनेजर साहब के बिना बिताए वो दो साल जो अभी बीत रहा है, जिसमें केवल और केवल मैंने ताने बटोरे... लेकिन ये कैसा अकेलापन था कि उनके मरने के बाद मुझे खूब अच्छी नींद आने लगी? हां अब मेरी नींद नहीं खुलती रातों में...

क्या ये सब सबीर के कारण हो रहा है?

क्या सबीर के कारण मैं मरना चाहती हूं?

क्या वाकई में मेरा शरीर मुझे नहीं संभल रहा...?

या फिर इसे संभालने के लिए किसी जवान कंधे की जरूरत पड़ रही है जो मैनेजर साहब के पास नहीं था..?

नहीं ढूंढ पाती हूं मैं इन सवालों के जवाब...

बस इतना समझ पाती हूं कि मैं अकेली पड़ गई हूं... ज़िंदगी के हर फैसले में। पर एक फैसला और करना चाहती हूं, हां मैं सबीर को कहना चाहती हूं कि दो महीने पहले हमारे बीच जो भी हुआ था उससे मुझे कोई आपत्ति नहीं, बल्कि इन दो महीनों में अपने शरीर पर पड़े उन सारे स्पर्शों की परछाईं को और ताजगी के साथ महसूस करने लगी हूं... मैं उससे पूछना चाहती हूं कि क्या वो मेरे साथ मेरे फ्लैट में रहेगा?

सबीर क्या बोलेगा? क्या झेल पाएगा मेरी उम्र...? मिटाना चाहेगा वो उम्र के उस फासले को जो कभी मैं मिटाना चाहती थी अपने और मैनेजर साहब के बीच...या वो हमारे रिश्ते से सबक लेकर कहेगा.... आप क्या चाहतीं हैं कि वही सब मैं दोबारा करूं जो आपने किया? क्या आप अपनी तरह मुझे भी बनाना चाहती हैं? तब क्या बोलूंगी मैं?

पर मैं पूछूंगी सबीर से... क्या वो अपने उम्र से थोड़ी उपर उठने की कोशिश करेगा? अगर हां तो अपनी उम्र से थोड़ी नीचे गिरने की कोशिश तो मैं भी करूंगी...कहीं वो मेरे हिंदू और अपने मुसलमान होने की दुहाई तो नहीं देगा? अगर ऐसा हुआ तब मैं क्या करूंगी? क्या ढूंढ पाऊंगी वो गली जहां मुझे और सबीर को धर्म के नाम पर नहीं बल्कि लोग उम्र के फासले से जानेंगे... और अगर वो गली मिल भी गई, तो मेरे बाद सबीर का क्या होगा? उससे पहले तो मैं ही मरूंगी, मैनेजर साहब की तरह। खैर, मैंने सबीर को बुलाया है आज रात खाने पर....