धर्मपुत्र / आचार्य चतुरसेन शास्त्री / पृष्ठ 1
- भूमिका
कृश्न चन्दर को एक पार्टी दी गई थी। पार्टी दिल्ली के एक प्रतिष्ठित प्रकाशक ने दी थी। निमन्त्रण मुझे भी मिला। गो यह एक नई बात थी। आम तौर पर मुझे लोग पार्टियों में बुलाते-उलाते नहीं। नई दिल्ली के एक शानदार होटल में पार्टी का आयोजन था। पार्टी में अनेक प्रकाशक, साहित्यकार, पत्रकार और अध्यापक भी थे। और मैं तो था ही। पार्टी की धूमधाम और शान को मैंने देखा। कृश्न चन्दर को देखा—निपट बालक—सा तरुण है। मैं सोच रहा था—इसे भला क्यों पार्टी दी गई ? ऐसी शानदार पार्टी तो मुझे मिलनी चाहिए थी। इसके बाद अकस्मात मेरे मन में एक विचार पैदा हुआ कि क्या कारण है अब तक मुझे किसी ने ऐसी शानदार पार्टी नहीं दी। चालीस साल कलम घिसी, पैंसठ के देहलीज़ पर पहुंचा, ग्रंथों की संख्या एक सौ इक्कीस को पार कर गई, फिर क्या लोग अन्धे हैं, बहरे हैं, मूर्ख हैं या साहित्य को समझते नहीं हैं ? क्या बात है ? वास्तव में पार्टी यदि किसी और को मिलनी चाहिए थी, तो मुझी को मिलनी चाहिए थी। मैंने एक बार आंख और सिर उठाकर चारों ओर देखा, तो मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि उस जमघट में मुझसे बड़ा साहित्यकार तो कोई नज़र नहीं आ रहा है। फिर भी पार्टी मुझे नहीं, कृश्न चन्दर को ही दी गई थी। इसमें तनिक भी शुबहा न था।
बड़ी देर तक मैं इस बात पर विचार करता रहा। और अन्त में मेरे मन ने मान लिया कि मैं सिर्फ आयु में ही कृश्न चन्दर से बड़ा हूं, परन्तु साहित्कार कृश्न चन्दर ही है, गो बालक ही। अब मुझे इस बात का भी पछतावा हो रहा था कि मैं तो कृश्न चंदर के सम्बन्ध में कुछ जानता ही नहीं हूं। खुदा की मार मुझ पर कि मैंने उनकी कोई कहानी पढ़ी ही नहीं। निन्दा और स्तुति मैं साहित्यकारों की सुनने का आदी नहीं। अब मैं घबराने भी लगा था कि थोड़ी देर में भाषण होंगे—कृश्न चन्दर की और उनके साहित्य की प्रशंसात्मक आलोचना करनी होगी। संभवतः यह काम मुझे ही सबसे प्रथम अंजाम देना होगा, क्योंकि यहां सबसे बड़ा साहित्यकार तो मैं ही हूं; गो कृश्न चंदर से छोटा ही सही। मगर कहाँ ? प्रशस्तिगान आरम्भ कराया गया देवेन्द्र सत्यार्थी से। मानता हूं कि उनकी जैसी शानदार दाढ़ी दिल्ली-भर में नहीं मिल सकती, हालांकि इस वक्त दिल्ली दाढ़ियों का सबसे बड़ा मार्केट है। मगर मजलिस में मैं तो था ही; उग्र थे, जैनेन्द्र और भी अनेक थे। इन सबके सिर पर लम्बी दाढ़ी की यह था नेदारी मुझे बहुत नागवार प्रतीत हुई। गो दाढ़ी-बहुत ही शानदार थी, और कला की दृष्टि से वह भी साहित्य के अन्तर्गत आती है। निरालापन ही तो साहित्य की जान है—और यह दाढ़ी जरूर निराली थी। फिर भी हम लोग के रहते हुए सिर्फ दाढ़ी ही के जोर पर उसे साहित्यिक मजलिस की नाक का बाल बनाना अप्रैल की सिर्फ पहली तारीख को ही बर्दाश्त किया जा सकता है। उग्र भी शायद गुनगुने हो रहे थे—मैं सोच ही रहा था कि दाढ़ी के बाद अब मेरी बारी आएगी। परंतु कहां ? उग्र एकदम उठ खड़े हुए। अपना परिचय दिया, जो कहना-सुनना था, कह गए।
परन्तु मेरी बारी तो फिर भी नहीं आई। बारी जैनेन्द्र की। धत्तेरे की ! अब मुझे स्वीकार करना पड़ा कि जैनेन्द्र भी मुझसे बड़े साहित्यकार हैं—यद्यपि उम्र में वे भी छोटे हैं। जैनेन्द्र का भाषण आरम्भ हुआ—और मैंने कुछ सोचना आरम्भ कर दिया। पुरानी आदत है; जैनेन्द्र जब बोलने लगते हैं तो मैं किसी विषय का चिन्तन करने लगता हूं। ध्यान से सुनने-समझने पर भी कुछ पता ही नहीं लगता कि वे क्या कह रहे हैं। बस, यही सोचकर सन्तोष कर लेता हूं कि कुछ दार्शनिक बातें कह रहे होंगे—जिससे मैं प्याज की बू तरह घबराता हूं। इसलिए, जैनेन्द्र के भाषण के साथ ही मैं अपने किसी प्रिय को सोचने लगता हूं। परन्तु उस समय जैनेन्द्र ही की बात सोचने लगा। ज़रूर ही जैनेन्द्र मुझसे बड़े साहित्यकार हैं, तभी तो सब लोग मेरे रहते भी उन्हें आगे रखते हैं—जिसमें उन्हें भी कभी संकोच नहीं हुआ। अवश्य ही वे भी ऐसा ही समझते हैं। सोचते-सोचते मन ने कहा—प्रत्येक साहित्यकार का पृथक-पृथक् ब्रांड है। जैनेन्द्र जलेबी ब्रांड साहित्यकार हैं।
उनके साहित्य में जलेबी जैसा कुछ चिपचिप चिपकता, कुछ टपकता, कुछ गोल-गोल उलझा, कुछ सुलझा—मीठा-मीठा साहित्य-रस रहता है। बासी होने पर प्रसाद कहकर बेचा जाता है। फिर मेरा ध्यान सामने बैठे उग्र पर पड़ा। निस्संदेह उग्र डंडा ब्रांड साहित्यकार हैं—सीधी खोपड़ी पर खींच मारते हैं। फिर वह बिलबिलाया करे, अस्पताल जाए या चूना-गुड़ का लेप करे। और मैं हूं लाठी ब्रांड साहित्यकार—चोट करूंगा को ठौर करके धर देना ही मेरा लक्ष्य है, सांसें आने का काम नहीं। सामने नजर उठी तो बनारसीदास चतुर्वेदी रस-गुल्लों पर हाथ साफ कर रहे थे। भई वाह, ये हैं बल्ली ब्रांड साहित्यकार। जिसका जी चाहे नापकर देख ले। लीजिए साहेब, मैं तो सोचता ही रहा और लोग उठ-उठकर घर चलने भी लगे। हड़बड़ाकर देखा—पार्टी खत्म हो चुकी थी। भाषण और भी हुए थे। कृश्न चन्दर ने जवाब में भी कुछ कहा-सुनी की थी। पर मेरी हिमाकत देखिए—मुझे कुछ पता ही नहीं लगा। अब मैं समझ गया कि क्यों लोग मुझे बुलाते-उलाते नहीं। परन्तु अब क्या हो सकता था ? पछताता-पछताता घर चला आया।
बहुत गुस्सा आ रहा था सब लोगों पर। क्यों नहीं लोग मुझे ऐसी पार्टियां देते ? परन्तु कहूं किससे ? मन ही मन खीझ रहा था कि मन ने एक धक्का दिया, कहा—अपनी इतनी पूजा करता है तो दुनिया से क्या ? तू खुद अपनी ओर देख, अपना साहित्य रचे जा, अपनी कलम चलाए जा, अपने आंसू बिखेरे जा। अपनी रचना आप ही पढ़। अपनी सम्पदा से आप ही सम्पन्न रह। मगन रह। पार्टी-वार्टी को गोली मार, और उठा अपना कलम। अभी उठा। इस वक्त दिल चुटीला है—ऐसी ही चोट खाकर साहित्यिक वेदनाएं मूर्त होती हैं। खींच तो एक ‘दर्द की तस्वीर’।
क्या कहा जाए, अपने ही मन की बात, टाली नहीं जा सकी। लो साहेब, हद हो गई। हाथ आप ही कलम पर आ पड़ा। कलम था फाउंटेन पेन। इसी साल मेरे चौंसठवें जन्म-नक्षत्र पर दिल्ली की प्रगतिशील साहित्य-परिषद् ने मुझे स्नेह-भेंट के रूप में दिया था। इस सम्बन्ध में भी कुछ कहना पड़ा। आज तक किसी भी साहित्यकार, साहित्य-संस्था या साहित्य संघ ने कभी मेरे पास आकर नहीं कहा—कि आ, तुझे हम सम्मानित करें। तेरा जन्म-नक्षत्र मनाएं, तेरी कुछ धूम-धाम करें, पब्लिसिटी करें। न कभी किसी सम्मेलन का सभापति ही मुझे बनाया गया।
जारी बहुत की। सभापति बनाना तो दूर—साहित्य सम्मेलन के अधिवेशवन में कभी मुझे निमन्त्रण तक नहीं मिला। पिछली बार मेरठ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन था। वहां मैं बिना बुलाए ही चला गया—इसलिए कि पास तो है ही, बहुत-से साहित्य-बन्धुओं के दर्श-पर्श हो जाएंगे। देखा सबने, पर किसी ने भीतर मंच पर चलकर बैठने तक को नहीं कहा। दो दिन बाहर ही बाहर घूमकर चला आया। सो ऐसी हालत में हर साल मैं ही अपना जन्म-नक्षत्र मना लिया करता हूं। बन्धु-बांधव, मित्र और कुछ साहित्य-परिजन आ जाते हैं—मेरे घर को जुठार जाते हैं, मेरे प्राणों को आनन्द दे जाते हैं। पर भेंट-उपहार कभी कोई नहीं देता। इस बार न जाने यह क्या एक बदपरहेजी ही हो गई कि प्रगतिशील मंडल ने हरिदत्त भाई के हाथ मुझे एक कलम भेंट दी। उस समय मैंने यह स्वीकारोक्ति की थी कि इस कलम से पहली बार एक उपन्यास लिखूंगा। और यह भी लिख दूंगा कि—कि यह उपन्यास इस कलम से लिखा हुआ है। सो हाथ इस कलम पर आ पड़ा और वह स्वीकारोक्ति भी याद पड़ गई। बस, एक पन्थ दो काज। उसी कलम से ‘दर्द की यह तस्वीर’ खींची गई है। इस तस्वीर में दर्द जितना है वह मेरे कलेजे का है, और प्यार जितना है वह प्रगतिशील साहित्य-मंडल के सदस्यों का—जो उन्होंने अपने कलम से भरकर मेरे जन्म-नक्षत्र पर भेजा था।
26 अगस्त, 1954