धर्मपुत्र / आचार्य चतुरसेन शास्त्री / पृष्ठ 2

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धर्मपुत्र

मई के अन्तिम दिन। दिल्ली जैसे भाड़ में भूनी जा रही थी। पंखा आग के थपेड़े मार रहा था। डाक्टर अमृतराय ने अपने अन्तिम रोगी को बेबाक किया और कुर्सी छोड़ी। परन्तु उसी समय एक कार डिस्पेंन्सरी के सामने आकर रुकी। डाक्टर ने घड़ी की ओर नज़र घुमाई, एक बज रहा था। उसकी भृकुटी में बल पड़ गए—भुनभुनाकर उसने कहा,

‘‘नहीं, इस समय अब कोई मरीज़ नहीं देखा जाएगा।’

परन्तु उसने देखा—एक भद्र बूढ़ा मुसलमान कार से उतर हाथ की कीमती छड़ी के सहारे धीरे-धीरे डिस्पेन्सरी की सीढ़ियों पर चढ़ रहा है।

कार निहायत कीमती और नई थी। वृद्ध की आयु अस्सी के ऊपर होगी। लम्बा, छरहरा और कभी का सुन्दर कमनीय शरीर सूखकर झुर्रियों से भर गया था। कमर झुक गई थी। और अब जैसे वृद्ध की दोनों टांगे उसके शरीर के भार को उठाने मे असमर्थ हो रही थीं, इसीसे वह एक कीमती नाजुक मलक्का छड़ी के सहारे आगे बढ़ रहा था। बदन पर महीन तनजेब का चिकनदार कुर्ता, और उस अतलस की अद्धी। सिर पर डेढ़ माशे की लखनउवा दुपल्ली टोपी, पुराने फैशन के कटे बाल ! ढीला पायजामा और वसली के सलीमशाही जूते। वृद्ध का उज्जवल गौर वर्ण उसकी बगुले के पर जैसी सफेद दाढ़ी-मूंछों से स्पर्द्धा-सा कर रही था। बड़ी-बड़ी आंखों में लाल डोरे उसके अतीत रुआबदार जीवन की साक्षी दे रहे थे। उन्नत ललाट और उभरी हुई नाक तथा पतले सम्पुटित होंठ उसके व्यक्तित्व को प्रभावशाली बना रहे थे।

वृद्ध ने भीतर आकर मुस्लिम तरीके से दोनों हाथ बढ़ाकर डाक्टर के हाथ अपने हाथों में लेकर अभिवादन किया। फिर कुछ कांपती-सी धीमी आवाज़ में कहा,

‘‘मुआफ कीजिए, मैंने बेवक्त आपको तकलीफ दी। ओफ, किस शिद्दत की गर्मी है, आग बरस रही है। यह आपके आराम करने का वक्त है, लेकिन मैं भीड़ से बचने और तख्लिये में आपसे मिलने की खातिर ही देर से आया।’ इतना कहकर जेब से पर्स निकाला और बत्तीस रुपयों के नोट टेबल पर आहिस्ता से रखकर वह डाक्टर के मुंह की ओर देखने लगा।

नकद फीस को देख तथा वृद्ध के अस्तित्व से प्रभावित होकर डाक्टर ने नम्रता पूर्वक कहा,

‘कोई बात नहीं। मुझे तो रोज ही इस वक्त तक बैठना पड़ता है। फरमाइए, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं ! लेकिन आप कृपाकर बैठिए तो।’

‘अब इस वक्त नहीं, फिर कभी, जब आपको फुर्सत हो। जब कि हम लोग इत्मीनान से बातें कर सकें।’

‘तो कल, इसी वक्त।’

‘बेहतर, लेकिन इन गर्मी में तो मेरी जान ही निकल जाएगी।’

बूढ़ा भुनभुनाया। और उसी तरह डाक्टर के हाथों को अपने हाथ में लेकर उन्हें आंखों से लगाया और कहा,

‘खुदा हाफिज़।’

वह चल दिया। डाक्टर ने बाहर आकर उसे सादर विदा किया। कार के जाने के बाद डाक्टर बड़ी देर तक उसी की बात सोचता रहा—अवश्य ही यह बूढ़ा सनकी रईस किसी रहस्य से सम्बन्धित है।