धर्मपुत्र / आचार्य चतुरसेन शास्त्री / पृष्ठ 3
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दूसरे दिन ठीक समय पर बूढ़ा आ पहुँचा। इस समय कार की खिड़कियों में दुहरे शीशे जड़े थे और भीतर गहरे आस्मानी साटन के पर्दे लगे थे। डाक्टर बूढ़े के अभिप्राय को कुछ-कुछ समझ गया और उसने पहले से ही यहां एकान्त की सब सम्भव व्यवस्था कर रखी थी।
डिस्पेन्सरी में आकर बूढ़े ने उसी भांति मुस्लिम पद्धति से डाक्टर का अभिवादन किया; एक बार डिस्पेन्सरी पर सतर्क दृष्टि डाली और बत्तीस रुपये मेज पर रखकर कहा,
‘‘क्या यहां हम इत्मीनान से बातें कर सकते हैं ?’
‘यकीनन,’ डाक्टर ने जवाब दिया।
तो मैं बताऊँ ! उसने साभिप्राय दृष्टि से डाक्टर की ओर देखा।
डाक्टर की आंखें कार की नीले साटन से ढकी हुई खिड़कियों की ओर उठ गईं। उसने आहिस्ता से कहा,
‘जैसा आप मुनासिब समझें।’
बूढ़ा उसी भाँति छड़ी टेकता हुआ कार तक गया। कार का दरवाज़ा खुला और कीमती काली सिल्क का बुर्का ओढ़े हुए एक किशोरी ने हाथ बढ़ाकर अपने चम्पे की कली के समान कोमल उंगलियों से बूढ़े का हाथ पकड़ लिया। हाथ का सहारा लेकर वह नीचे उतरी और धीरे-धीरे लाल मखमल के जूतों से सुशोभित उसके चरण आगे बढ़कर डिस्पेन्सरी की सीढ़ियों पर चढ़ने लगे।
बाला का सर्वांग बुर्के से ढका था। केवल उन मखमली जूतों के बाहर उसके उज्ज्वल चरणों का जो भाग खुला दीख पड़ता था—तथा चम्पे की कली के समान जो दो उँगलियां बुर्के से बाहर बूढ़े के हाथ को पकड़े थीं—उसी से उस अनिन्द्य सुन्दरी की सुषमा का डाक्टर ने अनुमान कर लिया। वह भीता-चकिता हरिणी के समान रुकती-अटकती सीढ़ियां चढ़ रही थी। उसका सीधा-लम्बा और दुबला-पतला शरीर और बहुत संकोच-सावधानी से छिपाया हुआ प्रच्छन्न यौवन डाक्टर को विचलित कर गया। उसकी बोली बन्द हो गई। उसके मुंह से बात ही नहीं निकली।
सबसे यथास्थान बैठ जाने पर वृद्ध ने एक बार छिपी नज़रों से बाला की ओर, फिर डाक्टर की ओर देखा तब कहा :
‘शायद आपने मेरा नाम सुना हो, मेरा नाम मुश्ताक अहमद है।’
‘आप रंगमहल वाले नवाब मुश्ताक अहमद सालार जंग बहादुर हैं ?’’ डाक्टर ने कुछ झिझकते हुए और आदर प्रदर्शित करते हुए कहा।
‘जी हां, और आपके वालिद मरहूम-खुदा उन्हें जन्नत दे—मेरे गहरे दोस्त थे। मेरी ही सलाह से उन्होंने आपको विलायत पढ़ने को भेजा था।’
‘मैं अच्छी तरह हुजूर के नाम से वाकिफ हूं। पिताजी ने मुझसे अक्सर आपका जिक्र किया है, और यह भी बताया था कि आप ही ने मेरी विलायत की तालीम का कुल सर्फा उठाया था। वे मरते दम तक आपका नाम रटते रहे, लेकिन मुलाकात न हो सकी। आप शायद यहां अरसे से नहीं रहते हैं ?’
‘जी हां, मैं अरसे से कराची में रह रहा हूं। कल ही हम लोग मसूरी से आए हैं। इधर कई साल से मैं गर्मी में मसूरी ही रहता हूं।’
‘आपने दर्शन देकर कृतार्थ कर दिया। अब फरमाइए, आपकी क्या सेवा मैं कर सकता हूं ?’
‘शुक्रिया !’ नवाब ने अजब अन्दाज से सिर झुकाया, आंखें बन्द कीं और क्षण-भर कुछ सोचा, फिर जैसे एकाएक साहस मन में लाकर कहा, ‘यह मेरी पोती शहजादी हुस्नबानू है। मां-बाप इसके कोई नहीं हैं। मेरी भी अब कोई दूसरी औलाद नहीं है। यही वारिस है। बात, इसी के मुतल्लिक होगी।’
‘मर्ज़ क्या है ?’ डाक्टर ने सहज स्वभाव से पूछा।
‘मर्ज़ ? मर्ज़ बेआबरुई।’
डाक्टर कुछ भी समझ न सका। उसने अचकचाकर बाला की ओर देखा जो इस समय बुर्के के भीतर पीपल के पत्ते के समान कांप रही थी, फिर उसने प्रश्नसूचक दृष्टि नवाब के चेहरे पर अटक गई।
बूढ़े ने अब अकंपित वाणी से कहा,
‘शायद इस नये मर्ज़ का नाम आपने अभी न सुना हो। आप बड़े डाक्टर तो ज़रूर हैं, पर नये हैं, नौजवान हैं। ज़िन्दगी सलामत रही तो आप देखेंगे कि ऐसी बीमारियां आम होती हैं, खासकर बड़े घरों में तो बेहद तकलीफ देह हो जाती हैं।’ एक दार्शनिक-सा भाव उसकी आंखों और होंठों में खेल गया। डाक्टर उलझन में पड़ गया। उसने कहा,
‘मिहरबानी करके ज़रा साफ-साफ कहिए, मामला क्या है ?’
‘यही मुनासिब भी है। लड़की हामिला है। उम्र बाईस साल की है। और इसी नवंबर में इसकी शादी वज़ीर अलीखां से होना करार पा चुका है।’