धुंधलाती स्मृतियों का कोहरा : विनोद कुमार श्रीवास्तव / अशोक अग्रवाल

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सैलाब में बहते हुए दरख़्तों का क्या हो सोग

लहरों से बचे तो क्या हम ही कहीं टिके !’

उस व्यक्ति के बारे में कुछ बयाँ करना, जिसके बारे में आपको ग़लतफ़हमी हो कि आप आधी सदी से उसके अंतर्मन की एक-एक रग से अच्छी तरह परिचित हैं, एक वाक्य भी लिखना कितना जटिल है, इस संस्मरण को लिखते हुए महसूस हो रहा है। वार्तालाप के दौरान जिसकी जुबान से ‘कथासरितसागर’ की तरह किस्सों की सरिता कल-कल बहती हो, लिखते समय जिसकी क़लम एक भी फ़ालतू शब्द से परहेज करती हो, कुछ भी कह पाना असंभव सा प्रतीत होता है।

धुंधलाती स्मृतियों का कोहरा है, जिसके सहारे क्षीण सा ताना-बाना बुनने की एक नाकाम सी कोशिश। इसमें कोई क्रमबद्धता नहीं है। इसे स्मृतियों का एक कोलाज भर कहा जा सकता है।

विनोद कुमार श्रीवास्तव से पहली मुलाकात का स्मरण करने पर वर्ष 1985 में आयकर विभाग के मयूर भवन स्थित वीरेंद्र कुमार बरनवाल का कक्ष याद आता है। वार्तालाप के मध्य उन्होंने फ़ोन पर किसी को मेरे आने के बारे में सूचना दी। कुछ देर बाद एक अजनबी व्यक्ति का प्रवेश हुआ। बरनवाल बोले—‘‘यह विनोद कुमार श्रीवास्तव है, बहुत अच्छी कविताएँ लिख रहे हैं। समकालीन भारतीय साहित्य में इनकी कुछ कविताएँ प्रकाशित हो रही हैं।’’ बरनवाल की प्रशंसा के उत्तर में उसके चेहरे पर व्यंग्यभरी मुस्कान बता रही थी कि इस तरह परिचित कराना उसे कहीं नागवार गुज़रा है।

उठते समय विनोद कुमार श्रीवास्तव ने मेरा बाजू गर्मजोशी से पकड़ा और अपने कक्ष में ले आए। उस पहली मुलाकात ने आत्मीयता की उस सुगंध में अपनी गिरफ्त में ले लिया, जिसका अहसास जीवन में आप कभी-कभार करते हैं।

‘मयूर भवन’ की छठी मंजिल के गलियारे का आखिरी कक्ष उनकी कार्यस्थली थी। दाहिनी तरफ़ की खिड़की के बाहर कोका-कोला की फैक्ट्री में कार्यरत कर्मचारी और उसके पार शिवाजी ब्रिज का पुल, जहाँ से हापुड़ जाने के लिए मैं शटल ट्रेन पकड़ता।

उनकी मेज़ पर एक भी फ़ाइल न पाने पर मुझे विस्मित देख विनोद कुमार श्रीवास्तव ने कहा—‘‘मेरे पास जो भी फाइल आती है उसे तुरंत निपटा देता हूँ। फाइलों से जूझते व्यस्तता का ढोंग मुझे नहीं आता।’’

बरनवाल के कक्ष में उनके निस्पृह भाव और व्यंग्य भरी मुस्कान का रहस्य भी मेरे सामने खुला। बरनवाल ने कहा कि शानी का कहना है—‘‘वह अज्ञात कुलशील लेखकों की रचनाएँ प्रकाशित नहीं करता है।’’ यह बात वे और भी कई मित्रों के समक्ष कह चुके थे, जिसका निहितार्थ था कि उन्होंने अपनी संस्तुति के साथ कविताएँ शानी को प्रेषित की हैं। विनोद कुमार श्रीवास्तव एक दिन अचानक साहित्य अकादमी में शानी के कार्यालय जा पहुँचे और अपनी कविताओं को वापस लौटाने की मांग करते हुए कहा—‘‘मुझे किसी की संस्तुति पर अपनी कविताएँ नहीं छपवानी हैं। वैसे साहित्य में अज्ञात कुलशील की अवधारणा सामंती सोच है। आप शायद अज्ञात कुलशील होंगे मैं तो अपने ग्यारह पुश्तों का नाम और काम अभी बता सकता हूँ।’’ प्रत्युत्तर में शानी कह उठे—‘‘नये से नये कवि की महत्त्वपूर्ण कविताओं को छापने से पत्रिका और संपादक अपनी प्रतिष्ठा ही अर्जित करता है। तुम्हारी कविताएँ इसी अंक में प्रकाशित हो रही हैं। आगामी अंक के लिए भी अपनी कुछ और कविताएँ ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ के लिए उपलब्ध कराओ।’’

इस बेबाक वार्तालाप ने शानी और विनोद कुमार श्रीवास्तव के संबंध को प्रगाढ़ता में रूपांतरित कर दिया।

‘समकालीन भारतीय साहित्य’ के आगामी अंक में उनकी ‘बहनें’ शृंखला की अनेक अविस्मरणीय कविताएँ प्रकाशित हुईं, जो उनके पहले कविता संग्रह ‘सच मैंने बनाए नहीं’ का हिस्सा बनीं।

विनोद से पहली मुलाकात के बाद कब उनका कक्ष दिल्ली यात्र के दौरान मेरा स्थायी अड्डा बन गया, पता भी नहीं चला !

वीरेंद्र कुमार बरनवाल को यह अनकही शिकायत रहने लगी, कि मैं अब विनोद से मिलने के बाद वापस लौट जाता हूँ, जबकि उन्होंने ही मेरा परिचय उससे कराया था।

‘‘हर बार हापुड़ वापस लौट जाते हो, आज रात्रि मेरे साथ ठहरो...’’—कहते हुए विनोद मुझे काकानगर स्थित दूसरी मंज़िल के अपने सरकारी निवास पर ले आए। मीरा जी की आत्मीयता से भरी मुस्कान ने आगंतुक को सम्मोहित-आश्वस्त करने के साथ अपरिचित होने का संकोच उसी पल स्वाहा कर दिया।

विनोद ने मेरे आगमन की सूचना देते हुए अपने इलाहाबाद के सहपाठी सुरेश कुमार और युवा कवि संजय चतुर्वेदी को रात्रि-भोज के लिए आमंत्रित किया। सुरेश दिल्ली मंत्रलय के सूचना विभाग में संपादक थे। स्वभाव से अंतर्मुखी और संवेदनशील। साहित्य में गहन दिलचस्पी। विनोद ने इलाहाबाद के दिनों के सभी मित्रों से संबंध जीवित बनाए रखा था। वक्रोक्ति और व्यंग्य भरे वार्तालाप और अपने अनूठे शिल्प में रची कविताओं को सुनाने के अंदाज़ से संजय चतुर्वेदी ने पहली मुलाकात में आकर्षित किया। संजय चतुर्वेदी पेशे से वरिष्ठ बालरोग विशेषज्ञ थे। साहित्यिक माहौल और उसकी गिरोहबंदी से अत्यधिक खिन्न और नाराज़। कब विनोद के मित्र मेरे भी मित्र होते चले गए, मुझे आभास तक नहीं हुआ।

इस बीच नवीन सागर का भोपाल से तीन-चार बार आगमन हुआ। विनोद का निवास ठिकाना बना, जिसमें मेरा शरीक होना अनिवार्य होता। पहली मुलाकात से नवीन सागर और विनोदकुमार श्रीवास्तव एक-दूसरे के प्रशंसक और कटु आलोचक एक साथ बन गए। समकालीन कविता और कवियों को लेकर उनमें गर्मजोशी से वार्तालाप होता, जिसका समापन मयपान के उपरांत अपनी-अपनी असहमतियों को दर्ज कराने के साथ समाप्त हो जाता।

एक प्रसंग का आज भी स्मरण आता है। मयपान और साहित्यिक चर्चा के दौरान दोनों कवियों ने अपनी-अपनी कविताओं का पाठ किया। बतौर श्रोता बिना किसी प्रतिक्रिया के मैंने उनके कविता-पाठ का रस ग्रहण किया। रात्रिभोज के बाद अपने शयनकक्ष की ओर जाने से पूर्व विनोद ने नवीन सागर को सलाह देते हुए कहा— ‘‘तुम्हें अपनी कविताओं को विनोद कुमार शुक्ल की छाया और राजेश जोशी को अपना फोबिया बनने से बचाने की जरूरत है।’’ विनोद तो अपने कमरे में चले गए, लेकिन उनकी बातों से नवीन बेहद आहत और संतप्त हो गया। ड्राइंगरूम में बनी वार्डरोब में रखी बोतलों में थोड़ी-थोड़ी शराब शेष बची थी। वह पूरी रात उसे पीता रहा। उसके साथ मेरा भी यह रात्रि जागरण का समय था। सुबह होते ही ड्राइंगरूम में रखे फ़ोन से नवीन ने सुरेंद्र राजन से संपर्क किया, जो उन दिनों केंद्रीय विद्यालय के कमिश्नर के वसंत कुंज स्थित आवास में मेहमान बने हुए थे। काका नगर का पता बताते नवीन ने तत्काल उनसे साथ ले जाने का आग्रह किया।

एक घंटे बाद सुरेंद्र राजन स्कूटर चलाते हुए वहाँ आ पहुँचे। नवीन सीढ़ियाँ उतरता स्कूटर पर बैठ गया। उस समय तक विनोद अपने कमरे से बाहर आ गए थे। वह नवीन को इस तरह जाते देख हतप्रभ रह गए। मेरे साथ वह भी नीचे आए।

‘‘नवीन तो अपने होश में नहीं है, आपका लड़खड़ाता स्कूटर भी कह रहा है कि आपकी हालत भी भिन्न नहीं है। मेरी सलाह है कि नवीन कुछ समय यहीं विश्राम करते।’’—विनोद की बात का कोई उत्तर दिए बिना सुरेंद्र राजन का लड़खड़ाता स्कूटर आगे बढ़ गया।

वसंत कुंज पहुँच सुरेंद्र राजन का आक्रोश से भरा फोन आया। विनोद को देर तक गरियाते कुछ अनर्गल कहा। उत्तर में विनोद ने कहा—‘‘आप सामने होते तो मैं जवाब देता। नवीन सागर मर्मज्ञ और संवेदनशील कवि हैं। होश आने पर मेरे कहे का निहितार्थ वह भली-भांति समझ लेगा।’’

इस घटना की काव्यात्मक अभिव्यक्ति विनोद की ‘क्रूरता’ (‘कुछ भी तो नहीं कहा’ कविता-संग्रह) कविता में देखी जा सकती है।

गहराते नशे और लम्बे अन्तराल के बाद तुम्हारा बताना कि

अतिशय सच क्रूरता होती है ।

मैं सिर्फ़ सिर हिला पाया

पर तुम्हारे बेहोश होने से पहले कह भी पाया

हाँ, अतिशय सच क्रूरता होती है

जैसे अतिशय विनम्रता भी

कुछ दिन बाद मेरा भोपाल जाना हुआ। हमेशा की तरह नवीन के घर ठहरना। वार्तालाप के दौरान नवीन मुस्कुराते हुए बोला —‘‘तुम्हारा यह कवि मित्र विनोद कुमार श्रीवास्तव अपने हष्ट-पुष्ट शरीर और चेहरे से रूआब गाँठता लगता है, लेकिन तीक्ष्ण आँखों से सामने वाले व्यक्ति के अन्तर्मन को गहराई से खंगाल डालता है। उस समय वह मुझे किसी शरारती बच्चे की तरह प्रतीत होता है। उससे मिलकर ताज़्जुब हुआ कि वह साहित्य की छोटी से छोटी हलचल से कितनी अच्छी तरह वाक़िफ़ है। बातचीत में जितना शातिर क़िस्सागो है, कविताओं में शब्दों के प्रति उतना ही कंजूस।’’

मैं और विनोद अक्सर ही आपस में यह राय साझा किया करते थे कि नवीन सागर पूर्णतया नैसर्गिक और मौलिक कवि था। मित्रों और उनके आंतरिक संसार के प्रति अत्यंत संवेदनशील। अपने काव्य संसार में उसने जिस वितान की रचना की, वह अपने मौलिक व्याकरण और शिल्प की संरचना के कारण अपनी मृत्यु के बीस वर्ष बाद भी समकालीन कवियों में अलग से चिन्हित किया जा सकता है। उसके निजी मित्रों के लिए वह आज भी अपूरणीय क्षति है। भोपाल से रवाना होने के पूर्व नवीन सागर ने बड़ी ड्राइंगशीट पर निर्मित अपनी दो ड्राइंग्स मेरे हाथ में पकड़ाते हुए कहा—‘‘चाहिए तो यह था कि इनकी फ्रेमिंग करा कर तुम्हें देता। एक ड्राइंग विनोद के लिए है। इनकी फ्रेमिंग अब तुम्हें ही करानी होगी। फ्रेमिंग वाले को विशेष निर्देश देना कि फ्रेमिंग करते हुए वह कोई स्पेस न छोड़े और फ्रेमिंग के लिए बारीक से बारीक लकड़ी का चुनाव करे।’’

दोनों ड्राइंग्स सम्मोहित करने वाली थी। इन दोनों ड्राइंग्स में उसने श्याम रंग की सूक्ष्म रेखाओं से अपनी अंतरात्मा का रहस्यमय सृजन-संसार रचा था।

दिल्ली कनॉट प्लेस की प्रसिद्ध दुकान से फ्रेमिंग करा कर एक ड्राइंग मैंने विनोद को नवीन की ओर से भेंट स्वरूप प्रदान की। इलाहाबाद से सेवानिवृत होने के बाद जब वह नोएडा स्थित जलवायु विहार में रहने चले आए तो उनके ड्राइंग रूम की दीवार को सुशोभित करती नवीन सागर की उस पेंटिंग को देख मुझे सुखद अनुभूति हुई। विनोद ने उस पेंटिंग को अभी तक लगाव से संजोए रखा है।

विनोद का चीज़ों और चरित्रों को देखने और परखने का यही बेबाक नज़रिया बहुत से मित्रों को उनसे दूर कर देता, जबकि भीतर से वह उसके प्रति स्नेह और सम्मान से लबालब भरे होते।

हिमा से उनकी पहली मुलाकात त्रिवेणी कला संगम के तलघर में स्थित शिल्प कला विभाग में हुई, जहाँ 10-12 शिल्पकार अपनी-अपनी मेजों के इर्द-गिर्द शिल्पों का सृजन कर रहे थे। हिमा द्वारा बनाए जा रहे शिल्प की सूक्ष्मता से जांच-पड़ताल करते विनोद ने निर्माण में हो रही कुछ त्रटियों की ओर उसका ध्यान आकर्षित किया। हिमा को शिल्प के निर्माण में उत्पन्न अपनी उलझन का समाधान भी मिला। उसने दुबारा अधबने शिल्प की गीली मिट्टी को गूंथते हुए निर्माण नये सिरे से प्रारंभ किया। शिल्प कला विभाग की ओर से उसे दीवार से सटी वॉर्डरोब में एक छोटी अलमारी, अपने औजारों और शिल्पों को रखने के लिए आवंटित की गई थी। शिल्पों को रखने की समस्या से वह जूझ रही थी। उन दिनों खुद हौजखास में ‘आद्धा झा वर्किंग गर्ल्स हॉस्टल’ में रह रही थी। पहली एकल टेराकोटा शिल्पों की प्रदर्शनी के लिए श्रीधराणी आर्ट गैलरी बुक करा चुकी थी। विनोद ने विदा लेते सिर्फ इतना कहा—‘‘अशोक इस बार जब भी तुम आओ हिमा को साथ लाना।’’

रविवार का कोई दिन। हिमा और मैं विनोद के घर गए। विनोद घर की ऊपरी छत पर हमें ले आए। हम दोनों सम्मोहित रह गए। पूरी छत विभिन्न प्रजाति के रंग-बिरंगे डहेलिया के खिले-अधखिले फूलों के गमलों से आच्छादित। संख्या पांच सौ से अधिक ही रही होगी। छत पर एस्बेस्टस का एक शेड था। पानी की एक टंकी, नल और एक अधखुला यूरीनल भी।

‘‘चाहो तो इस जगह का इस्तेमाल तुम अपने शिल्पों को रखने और गढ़ने के लिए भी कर सकती हो।’’—विनोद ने हिमा को अनायास प्रस्तावित किया।

हिमा के शिल्पों को नया ठौर-ठिकाना मिला। अपनी समस्या का समाधान भी। कुछ शिल्पों ने उनके ड्राइंगरूम में भी चुपके से प्रवेश पा लिया।

हिमा ने शुरुआत में दो-तीन बार संकोचवश मेरे साथ, और बाद में अकेले दोपहरी के समय बिना किसी को बताए सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते उस छत पर जाना प्रारंभ किया। एस्बेस्टस का शेड शिल्प निर्माण के लिए उसकी दूसरी कार्यशाला बन गई। उस समय मीरा जी नींद में डूबी होतीं और उन्हें जगाना या सूचित करना उसे उचित प्रतीत नहीं होता। एकांत में दो-तीन घंटे वह अपने शिल्पों के निर्माण में व्यस्त रहती।

एक बार वह रंगे हाथ पकड़ी गई। हरिशंकर या शंभू के सूचित करने पर मीरा छत पर पहुँची और स्नेह भरी शिकायत करते बोलीं—‘‘मुझे आश्वासन दो कि भविष्य में मेरे साथ एक कप चाय शेयर किये बिना वापस नहीं लौटोगी?’’ मीरा जी और हिमा के बीच यह संबंध अंतरंगता में कब और किस समय रूपांतरित हो गया, इसका आभास मुझे और विनोद को नहीं हुआ।

इस बार जब विनोद के आवास पर जाना हुआ तो एक अजनबी बुजुर्ग को मीरा जी के साथ वार्तालाप में व्यस्त देखा। बीच-बीच में बाबूजी के संबोधन से मुझे अनुमान लगाने में विलंब नहीं लगा कि वे विनोद के पिता इकबाल बहादुर श्रीवास्तव थे। पिता और पुत्र के बीच एक अपरिचित तनाव की रेखा मुझे अस्पष्ट दिखाई दी। दोनों के संवादहीनता की पूर्ति मीरा जी भली भांति आदर के साथ कर रही थीं। हाईस्कूल करने के बाद विनोद के विज्ञान विषयों, विशेष कर गणित के प्रति अनिच्छा के बावजूद पिता की जिद के चलते, जो भविष्य में उसे डॉक्टर या इंजीनियर के रूप में देखना चाहते थे, उन्हीं विषयों का चयन करना पड़ा। जीवन के दो वर्ष व्यर्थ होने का संताप उसमें अभी तक शेष था। इसकी गांठ संभवतः उसी दिन पड़ गई थी, जब उसकी उम्र 12 वर्ष ही रही होगी और दिवंगत प्रधानमंत्र श्री लालबहादुर शास्त्रा, जो उस समय केंद्रीय गृहमंत्र थे, उनका भारतगंज स्थित हाई स्कूल में बतौर विशिष्ट अतिथि आगमन हुआ। निरीक्षण करते लाइन में खड़े हर बच्चे से शास्त्रा जी एक ही सवाल कर रहे थे कि भविष्य में तुम क्या बनना चाहते हो? सभी बच्चे अपने-अपने सपनों के अनुसार उत्तर दे रहे थे। विनोद स्कूल के हेड बॉय थे और शास्त्रा जी उनकी चाची के मामा थे साथ में ललिता शास्त्रा जी भी थी जिन्हें विनोद नानी कहा करते थे। अंत में विनोद का नंबर आया तो शास्त्रा जी शायद उत्साहित होकर कुछ ऊँची आवाज में पूछ बैठे—‘‘और तुम क्या बनना चाहते हो!’’ विनोद ने शायद आवाज की ऊँचाई के प्रतिरोध में कहा—‘‘जो बनना होगा बन लूँगा—सिफारिश की जरूरत नहीं पड़ेगी।’’ कुछ और होता उसके पहले ही प्रिंसीपल पिताजी द्वारा एक झन्नाटेदार थप्पड़ बायें गाल पर रसीद हुआ। बीच में ललिता जी कूद पड़ी—‘‘बच्चे पर क्यों हाथ उठाते हो! देखते नहीं, ऐसे पूछ रहे हैं जैसे जेब से निकाल कर अभी कुछ दे देंगे।’’ विनोद को प्रिंसीपल साहब की गरम सलाखों जैसी दो आँखों ने इशारे से दूर भगाया।

‘‘मैं इस तथ्य से अच्छी तरह वाक़िफ हूँ कि पिता मन ही मन मुझ पर गर्व महसूस करते हैं।’’—उस दिन विनोद ने सिर्फ़ यही एक छोटा सा वाक्य कहा।

एक दिन विनोद का फोन आया कि विभाग की ओर से किसी कार्यवश तीन दिन के लिए मुझे भोपाल जाना होगा। ‘‘बिना तुमसे सहमति लिए शताब्दी एक्सप्रेस से भोपाल आने-जाने का तुम्हारा आरक्षण करा लिया है। बी.एच.ई.एल. के भोपाल स्थित गेस्ट हाउस में रहने की व्यवस्था भी हो गई है। तुम्हारे लिए अब बच निकलने का कोई रास्ता नहीं।’’ बी.एच.ई.एल. के गेस्ट हाऊस में पहुँचने के तत्काल बाद ही विनोद अपने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के सहपाठी अश्विनी कुमार के निवास पर ले गए। उस समय अश्विनी भोपाल में आयकर विभाग में ही वरिष्ठ अधिकारी थे। अश्विनी कुमार ग्रामीण पृष्ठभूमि के सीधे-सादे सरल व्यक्ति थे। बातचीत में कहा उनका एक प्रसंग आज भी मेरे स्मृति-घर में बसा है। भावुक होते उन्होंने बताया कि जब पहली नियुक्ति के बाद अपने गाँव गये तो पिता के लिए गौरव के क्षण थे। एक गरीब अध्यापक के बेटे का अपनी खुद की कार चलाते हुए आना पूरे गाँव के लिए आश्चर्यजनक घटना थी। खुशी और गर्व से पिता की आँखों में आँसू छलक आए। अश्विनी कुमार कविता प्रेमी थे। विनोद से उन्होंने भोपाल स्थित उनके कवि मित्रों को अपने घर रात्रिभोज और काव्य पाठ के लिए आमंत्रित करने का आग्रह किया।

विनोद का नवीन सागर और राजेश जोशी से पूर्व परिचय था। एक-दूसरे की टांग खिंचाई और हास-परिहास पारस्परिक चलता रहता। राजेश जोशी को जगन्नाथपुरी में केन्द्रीय राजस्व विभाग के क्रीड़ा और सांस्कृतिक बोर्ड द्वारा आयोजित एक साहित्यिक कार्यशाला में शरीक होना था, जिसके निदेशक विनोद ही थे। विनोद को प्रतिवर्ष ऐसी ही तमाम नाटक, पेंटिंग, नृत्य और साहित्य इत्यादि की कार्यशालाएँ आयोजित करनी होती थी जिन्हें वे अपने सामान्य विभागीय कार्यों के अतिरिक्त किया करते थे। राजेश को पुरी के लिए एक रात पहले दिल्ली पहुँचना था, जहाँ से गोविंद मिश्र के साथ हवाई उड़ान भरनी थी। रात्रि निवास के लिए विनोद राजेश जोशी को अपने घर ले आए थे, जहाँ नवीन सागर और मैं पहले से उपस्थित थे। हमारे अतिरिक्त कुछ अन्य कवि भी अश्विनी कुमार के निवास पर एकत्रित हुए। विनोद का प्रस्ताव यह था कि हर कवि की कविताओं के पाठ के बाद उन पर बातचीत की जाये। यदि अच्छी लगे तो उसका भी कारण बताया जाये और न लगे तो उसका भी कारण। इसके बावजूद जैसे कि कविओं की फितरत है सब लोग कविता सुनने के बाद इधर-उधर की बात करते या चुप्पी लगा जाते। कविता के विषय में बात करना उन्हें शायद जरूरी नहीं लग रहा था। सभी ने अपनी-अपनी कविताओं का पाठ किया। राजेश जोशी ने अपनी प्रसिद्ध पोस्टर कविता ‘बच्चे काम पर जा रहे हैं’ का अत्यंत प्रभावशाली वाचन किया। विनोद ने इस कविता पर अपनी बेबाक टिप्पणी देते हुए कहा कि कविता में शब्द बहुत अधिक हैं और शब्दों का बाहुल्य कविता के अर्थ को सीमित कर रहा है। यह कहते हुए उन्होंने राजेश के सामने ही बहुत से शब्द काटे और कहा कि अब बचे हुए शब्दों का पाठ किया जाये। पाठ विनोद ने ही किया प्रत्युत्तर में वहाँ उपस्थित अन्य कवि मुँह फेरकर मुस्कुराते हुए दिखाई दिये लेकिन कविता पर जिस सार्थक विमर्श की आकांशा विनोद को थी वह कहीं नहीं थी।

गोष्ठी के उपरांत अश्विनी कुमार के निवास से बाहर निकलने पर राजेश जोशी ने हँसते हुए विनोद से कहा—‘‘पार्टनर मैं आज भविष्यवाणी करता हूँ कि एक साल के अंदर ही तुम कविता-आलोचना में तुम बहुत उठा-पटक करने वाले हो।’’ प्रत्युत्तर में विनोद ने तत्काल कहा—‘‘राजेश तुम्हारी इस भविष्यवाणी को मैं आज ही खारिज़ करता हूँ। कविता-आलोचना में मेरी कतई रुचि नहीं है।’’

वर्ष 1992 के दिसंबर माह के आखिरी सप्ताह में त्रिवेणी कला संगम स्थित श्रीधराणी आर्ट गैलरी में हिमा के टेराकोटा शिल्पों की प्रदर्शनी आयोजित हुई। कश्मीरी मछुआरों के दैनिक जीवन को ध्वनित करता हुआ शिल्पों का एक संयोजन दर्शकों के लिए विशेष आकर्षण था। इस प्रदर्शनी में आने वाले कला प्रेमियों की संख्या तो बहुत थी और प्रशंसक भी, लेकिन किसी शिल्प की बिक्री न होने से वह निराशाजनक मनःस्थिति से जूझ रही थी, विशेषकर दर्शकों की उस टीका-टिप्पणी से आहत, टेराकोटा के इन शिल्पों को इतने अधिक मूल्य पर कोई कैसे क्रय करेगा! हिमा को यह सब फुटपाथ पर अपना सामान बेचने के लिए किसी दुकानदार सरीखा होना प्रतीत हो रहा था।

विनोद ने उसके कंधे पर हाथ रख उसे आश्वस्त करते कहा—‘‘ये हमारे बनाए शिल्प हैं और इनके मूल्य निर्धारण करने का अधिकार कलाकार का अपना अधिकार है। जिसका मन चाहे इसी मूल्य पर क्रय करे, नहीं तो हमारे ठेंगे से। अधिक से अधिक यही होगा कि मंडी हाउस के चौराहे पर स्थित पार्क के पेड़ के नीचे या उनकी शाखाओं पर इन्हें लटका देंगे। जिसे पसंद आए वह बिना मूल्य चुकाए अपने घर ले जाए।’’ विनोद की इस बात पर हिमा खिलखिला कर हँस दी। विनोद की उपस्थिति या कुछ भी कहा उसे उस दीवार की तरह प्रतीत होता जिससे अपनी पीठ टिका वह किसी भी समय खड़ी हो सकती थी।

इलाहाबाद के क्रिश्चियन कॉलेज से अपना इंटरमीडिएट पूरा करने के बाद विनोद का इलाहाबाद विश्वविद्यालय का सफर वर्ष 1965 से प्रारंभ हुआ। पिता की जिद के चलते उसके दो वर्ष तबाह हो चुके थे, जिसका मलाल उसे आज तक है।

विश्वविद्यालय की पढ़ाई के चार वर्ष के दौरान अजय सिंह, नीलाभ, अमर गोस्वामी, प्रणब कुमार बंधोपाध्याय, रमेन्द्र त्रिपाठी, गिरधर राठी, मृणाल पांडे, वीरेन डंगवाल और कुछ अन्य जाने-माने लेखक उसके सहपाठी रहे। कोई दो साल आगे कुछ पीछे कुछ साथ में। विषय और कक्षाएँ भिन्न-भिन्न होने के बावजूद विनोद इन सभी को जानता पहचानता था। इनके निकट आने का प्रयास उसने कभी नहीं किया। वह अपने खेल-कूद और पढ़ाई में ही व्यस्त रहता उन दिनों वह नेशनल चैंपियन यू.पी. टीम का सदस्य था और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का भी चार वर्षों तक प्रतिनिधित्व करता रहा।

विश्वविद्यालय के दिनों में विनोद की ख्याति और छवि उस मेधावी छात्र के रूप में, जो हमेशा अपनी कक्षा में प्रथम आता, के साथ छात्रों के उस गिरोह से भी जुड़ी थी, जो किसी भी समय दबंगई के साथ मुठभेड़ के लिए तत्पर रहता। वर्ष 1969 में विनोद ने प्राचीन इतिहास,भारतीय संस्कृति और पुरातत्व में स्नातकोत्तर की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद इतिहास विभाग के विभागाध्यक्ष के अंतर्गत अपना शोधकार्य प्रारंभ किया जो कि इस टॉपर छात्र को कहीं बाहर जाने देना नहीं चाहते थे। इन्हीं दिनों वह प्रसिद्ध इतिहासकार,भारतविद और अनेक पुस्तकों के लेखक बाशम के संपर्क में आए। बाशम द्वारा लिखी गई अनेक किताबों में ‘द वंडर दैट वाज इंडिया’ की चर्चा विश्वव्यापी थी। 1950 और 1960 के दशक में ‘स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज’ के प्रोफेसर के रूप में उन्होंने अनेक भारतीय इतिहासकारों को पढ़ाया, जिनमें रोमिला थापर और रामशरण शर्मा जैसे प्रसिद्ध इतिहासकार भी रहे। विनोद से उन्होंने ताशकंद स्थित यूएनओ के उस इंस्टिट्यूट में, जो एशियाई देशों के प्राचीन इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व के क्षेत्र में कार्यरत था, अनुसंधानकर्ता और सर्वेयर के एक रिक्त पद पर आवेदन करने के लिए कहा, जिसकी संस्तुति वह करने को तैयार थे। उनकी संस्तुति का अर्थ ही था निश्चित नियुक्ति। इच्छुक होने के बावजूद वह अपनी घरेलू परिस्थितियों के चलते बाशम के प्रस्ताव को सहमति नहीं दे सके। चार साल छोटी इकलौती बहन उस समय ब्रेन ट्यूमर की असाध्य पीड़ा से गुजर रही थी। दो ऑपरेशन होने के बावजूद इलाहाबाद में उसका उपचार संभव न होते देख, विनोद ने बहन का उपचार दिल्ली स्थित एम्स में कराने का निश्चय किया।

वर्ष 1969 में बहन को कांधे पर लादे, जिसका वजन घटते-घटते मात्र अठारह किलो रह गया था, वह दिल्ली जाने वाली ट्रेन में सवार हुआ। ट्रेन चलने ही वाली थी, जब उसकी निगाह अपनी ओर दौड़ते शाकिर अली पर पड़ी। वह उसकी वॉलीबॉल टीम में शामिल खिलाड़ी था। हाँफते हुए उसने जेब में रखी खरीज सहित सारी रकम विनोद की जेब में सरकाते शर्म से कहा—‘‘यार माफ करना, बहुत कोशिश करने पर भी इतना ही जुटा पाया।’’ ट्रेन चलने तक शाकिर अली वहीं विनोद के पास खड़ा रहा। विनोद ने अपने इस मित्र पर बाद के दिनों में एक मार्मिक रेखाचित्र ‘अनाड़ी की बंदूक’ शीर्षक से लिखा। अपने अंतिम समय में उसने विनोद से कहा कि वह ऐसे अनाड़ी की बंदूक था जो कभी दगी ही नहीं।

एम्स में मरीजों को भर्ती कराने के लिए लंबी कतार लगी थी। फुटपाथ पर ठिकाना बना रूग्ण बहन की चिकित्सा कराने को विवश होना पड़ा। आर्थिक रूप से भी यह गहरे संकट का समय था। डॉक्टर से बहन की ज़िन्दगी के बारे में नकारात्मक उत्तर पा, निराश वापस इलाहाबाद लौटना पड़ा।

1970 की सर्दियों का कोई एक दिन। साइकिल से घर लौटते उसकी दृष्टि एक घड़ीसाज के सामने खड़े अपने एक सहपाठी पर गई और वह उसके पास ठहर गया। सहपाठी के पूछने पर उसने बहन की असाध्य पीड़ा के बारे में बताया, जिसे वह बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। सहपाठी ने कहा—‘‘मैं स्वामी विमलानंदजी की खराब घड़ी को ठीक करा रहा था। घड़ी ठीक हो गई है, उसे पहुँचाने जा ही रहा था कि संयोग से तुमसे भेंट हो गई। विमलानंदजी सिद्ध योगी ही नहीं, आयुर्वेदाचार्य भी हैं। निश्चय ही उनके पास कोई औषधि होगी जो तुम्हारी बहन को स्वस्थ करने में मददगार होगी।’’

विनोद को सहपाठी की बात में आशा की किरण दिखाई दी। वह उसके साथ स्वामी विमलानंद जी के निवास पर पहुँचा जो गुफानुमा छोटा सा घर था। पहली दृष्टि में ही विनोद विमलानंदजी के बलिष्ठ शरीर, विशाल कद और चेहरे पर स्नेहिल मुस्कान भरे आभामंडल से सम्मोहित होकर रह गया। बहन के रोग की बात करते हुए विनोद ने गुहार लगाई। चलते समय स्वामी विमलानंदजी ने औषधि की पुड़िया पकड़ाते हुए सिर्फ़ इतना कहा—‘‘नियति की गति में कोई भी व्यवधान नहीं डाल सकता। यह औषधि तुम्हारी बहन की पीड़ा को कम करने में सहायक होगी।’’ उस औषधि ने बहन की असहनीय पीड़ा हरने में चमत्कारी असर दिखाया। विनोद का स्वामी विमलानंदजी के यहाँ नियमित रूप से आवागमन प्रारंभ हो गया।

वर्ष 1971 में जुलाई के पहले हफ़्ते में विनोद को अपनी बहन के साथ पहलगांव बुलाया और पहुँचने के दूसरे दिन ही विनोद को साथ लेकर अमरनाथ दर्शन के लिए निकल पड़े। 8 जुलाई सन् 71 को जब विनोद अमरनाथ गुफा के सामने झुके खड़े थे तभी एक घोड़े वाला स्वामी विमलानंदजी के नाम का तार लिए जिसे विनोद के पिता ने भेजा था, खोजता हुआ पहुँचा। दर्शन के बाद जब तार पढ़ा तो पता लगा कि 11 जुलाई को मसूरी स्थित भारतीय प्रशासनिक अकादमी में प्रशिक्षण के लिए पहुँचने का निर्देश दिया गया है। अवधि के मात्र दो दिन शेष बचे थे। उसे चिंतित देख स्वामी विमलानंद जी ने ढांढस बंधाते रात पंचतरिणि में गुजारी और सुबह तीस किलोमीटर की पैदल यात्र करते हुए शाम को पहलगांव पहुँचे जहाँ आधे घंटे में ही माँ और बहन से मिलकर विनोद को आगे जाना था। इसी बीच टैक्सी की व्यवस्था हुई और स्वामीजी अपने साथ उसे लेकर मसूरी के लिए निकल पड़े। रास्ते में बिना विश्राम किए निर्धारित समय से पूर्व मसूरी अकादमी के प्रवेशद्वार तक जा पहुँचे। प्रवेशद्वार के भीतर विनोद को धकेलते हुए सिर्फ इतना कहा—‘‘मैं अब विदा लेता हूँ। भविष्य का सफर तुम्हें अकेले पूरा करना है।’’

वर्ष 1972 में नागपुर स्थित भारतीय राजस्व सेवा की प्रशिक्षण अकादमी में प्रशिक्षण करने के दौरान उसे बहन के निधन की खबर मिली। संभावित होने के बावजूद, यह मर्माहत करने वाली त्रसदी थी। त्रसदियों की वह अटूट शृंखला जो उसके जीवन से आज तक जुड़ी है।

विनोद के मुंबई स्थानांतरण के बाद उसके आत्मीय निमंत्रण पर कई बार मुंबई जाना हुआ। मेरा बिस्तर ड्राइंग रूम में लगा था। जब भी नींद उचटती तो विनोद को छोटी सी बालकनी में बैठे पाता। किसी अनहोनी की आशंका से ग्रस्त वह रात उसकी जागरण करते व्यतीत हुई। कबूतरों की अंतराल में होती बार-बार की फड़फड़ाहट, उसकी आशंका में और वृद्धि कर देती।

तराशती हुई

छेनी सी

छीजती

सँवारती हुई

अँगरखे - सी

तार - तार

समय की खूँटी पर

आशँका - सी

टँग गई है माँ

(‘सच मैंने बनाए नहीं’ कविता-संग्रह की ’माँ’ कविता - शृंखला की छठी कविता)

वर्ष 2004 की 15 जनवरी से 24 जनवरी तक हिमा के शिल्पों की प्रदर्शनी त्रिवेणी आर्ट गैलरी में आयोजित हुई। प्रदर्शनी के सफल आयोजन से विनोद बेहद प्रफुल्लित थे। वर्ष 2004 के प्रारम्भ में विनोद मुम्बई से नागपुर स्थानांतरित होकर आ गए थे। इस बार मृत्युशय्या पर पड़ी माँ भी उनके साथ थी। वर्ष 2002 में पिता की मृत्यु के बाद बीमार माँ को विनोद अपने साथ मुम्बई ले आए थे।

विनोद के आवास जाने पर पहली बार विनोद की माँ के दर्शन हुए। लगभग अचेतावस्था में मृत्युशय्या से टिके रहने से उनकी देह में जगह-जगह ज़ख्म हो गए थे। मीरा जी कुशल नर्स की तरह उनकी देखभाल कर रही थीं। मलहम लगाने और ज़ख़्मों पट्टियाँ बाँधने तक का कार्य स्वयं कर रही थीं।

नागपुर रवानगी से पहले विनोद ने हिमा और मुझे सख़्त हिदायत देते हुए कहा— ‘‘दिल्ली पहुँचते ही एम्स या किसी बड़े अस्पताल में स्नायुतंत्र रोग विशेषज्ञ से अवश्य परामर्श करना। किसी भी क़िस्म की कोई लापरवाही नहीं।’’

वर्ष 2005 में विनोद का स्थानांतरण नागपुर से उसके गृह शहर इलाहाबाद के लिए कर दिया गया था। नागपुर की यात्र के बाद वह निरंतर हिमा के हाल-चाल पूछते रहते। यह जुलाई माह का कोई दिन रहा होगा जब विनोद का फोन आया और उसने जानकारी चाही कि एम्स के स्नायुतंत्र विशेषज्ञ किस निर्णय पर पहुँचे तो मैंने बताया कि केवल एम्स के ही नहीं, गंगाराम हॉस्पिटल और बत्र के स्नायु रोग विशेषज्ञ ने एक ही बीमारी निर्धारित की है—मोटर न्यूरॉन डिज़ीज़। विनोद लगभग चीखते हुए से बोले—‘‘तुम इसका अर्थ समझते भी हो!’’ फोन काटने से पहले सिर्फ इतना कहा—‘‘तुमसे कल बात करता हूँ।’’

आगामी दिन विनोद का फोन आया और जल्दी से जल्दी हिमा के साथ इलाहाबाद आने का निर्देश भी। यह भी कहा कि उनकी एकमात्र आशा की किरण स्वामी विमलानंदजी ही हैं। मेरी गुहार पर उन्होंने आश्रम में एक माह ठहरने की अनुमति दे दी है, बिना किसी ठोस आश्वासन के। स्वामी जी का कहना है कि उनकी उम्र 105 वर्ष की हो चुकी है। खुद भी इन दिनों अस्वस्थ चल रहे हैं। यद्यपि मोटर न्यूरॉन डिज़ीज़ के एक रोगी को 50 वर्ष पूर्व वह ठीक कर चुके हैं जो आजकल अमेरिका में निवास कर रहा है।

स्वामी विमलानंदजी का यौगिक इंस्टिट्यूट या आश्रम एक विशाल बंगले में स्थित था, जिसे उनके शिष्यों ने थोड़ा-थोड़ा पैसा जमा कर आश्रम के संचालन के लिए मित्र प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड से खरीदा था। बाहरी प्रांगण में कलात्मक सुरुचि से बनी क्यारियों में खिले डेहेलिया की विभिन्न प्रजाति के पुष्पों के साथ कुछ अन्य प्रजाति के फूल और वनस्पतियाँ देख मुझे विनोद के दिल्ली काका नगर स्थित निवास की छत का स्मरण हो आया, साथ ही विनोद के फूलों के प्रति आकर्षण का रहस्य भी। प्रकृति के प्रति उसका प्रेम स्वामी विमलानंद जी के साहचर्य से ही अंकुरित हुआ था। आश्रम के पीछे दो गाएँ एक झोंपड़ी में निवास करती, आश्रम के अतिथियों का स्वागत करती। आश्रम के रसोईघर की जिम्मेदारी दो महिलाओं के सुपुर्द थी, जिसका निर्वाह वे पूरे मनोयोग से करतीं। आश्रम की देखभाल और व्यवस्था के लिए कुछ पुरुष कर्मचारी भी थे। स्वामी विमलानंद एकांतवासी थे और शिष्यों का मजमा नहीं लगाते थे, जिसे आवश्यकता होती आता मिलता और जाता। आश्रम आने वाले अतिथियों के लिए एक कतार में कुछ कक्ष बने थे। एक कक्ष में हिमा के ठहरने की व्यवस्था हुई। मैं विनोद के साथ उसके निवास पर लौट आया।

तीन-चार दिन ही बीते होंगे कि मुझे पिता के हृदयाघात की घर से सूचना प्राप्त हुई। मैं वापस लौट आया। विनोद हर दूसरे दिन आश्रम जाते और हिमा के समाचारों से मुझे अवगत कराते। मीरा जी हर बार उनके साथ होतीं और देर तक हिमा से मीरा जी का वार्तालाप भी। आश्रम की परंपरा के अनुसार सभी एक कतार में बैठ भोजन ग्रहण करते। एक माह बाद जब हिमा की वापसी के लिए आश्रम पहुँचा तो उसे बेहद प्रफुल्लित पाया। वह आश्रम के वातावरण में पूरी तरह रम चुकी थी। महिला कर्मचारियों और अन्य आश्रमवासियों के साथ उसके स्नेह भरे संबंध विकसित हो गए थे। आश्रम के संध्या कीर्तन में वह हमेशा शरीक होने के साथ खुद भी संस्कृत में भजनों का गायन करती। उसका कंठ सुरीला और वाचन त्रटिरहित था। स्वामी विमलानंद उसके गायन की सराहना करते। हिमा भी अपने भीतर कुछ स्फूर्ति और बदलाव का अनुभव कर रही थी। उसे लगता कि उसकी बीमारी अब ठहर गई है। विदा होने से पहले स्वामी विमलानंद जी ने, उन योगासनों को जो उसने आश्रम में रहते सीखे थे, भविष्य में भी निरंतर जारी रखने का निर्देश दिया। उससे कहा कि मेरे लिखे पत्र का उत्तर तुम खुद अपनी अंगुलियों से पत्र लिखकर दोगी। औषधि के नाम पर उन्होंने सिर्फ़ जड़ों से उखाड़ी दूर्वा को सिलबट्टे पर पीसकर उसके निरंतर सेवन करने का परामर्श देते हुए कहा—‘‘दूर्वा का दूसरा अर्थ है — पुनर्नवा। पूरी तरह से जल चुकी दूर्वा भी बारिश की पहली बूंदों का स्पर्श पाकर फिर हरी भरी हो जाती है।’’

मार्च 2007 में विनोद मीरा जी के साथ नोएडा स्थित जलवायु विहार में रहने चले आए थे। सेवानिवृत्ति के ठीक 15 दिन बाद उनकी माँ का लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया था। माँ की अनुपस्थिति का अवसाद अभी भी विनोद के मन में बसा है।

नियमित रूप से, माह में कम से कम दो बार, उनके अपार्टमेंट में रात्रि गुजारना मेरे लिए अघोषित रूप से अनिवार्य हो चला था। मीरा जी के स्नेह और आत्मीयता से सातवीं मंजिल पर स्थित उस अपार्टमेंट ने मुझे भी परिवार के सदस्य के रूप में अंगीकार करने में कोई संकोच न किया। दिवंगत पिता का बरसों तक रहा सहचर महेन्द्र भी उनके साथ आ गया था। विनोद के पिता श्री इकबाल बहादुर श्रीवास्तव ने महेन्द्र का लालन-पालन पुत्रवत किया था, वह उनकी यात्रओं में भी हमेशा साथ रहता। महेन्द्र मीरा जी को मम्मी जी कहकर संबोधित करता। विनोद के दोनों पुत्र सौरभ श्रीवास्तव और गौरव श्रीवास्तव के विवाह हो चुके थे और दोनों परिवार सहित अपनी नौकरियों और कामकाज के चलते मुंबई में अपने-अपने निजी अपार्टमेंट में सुव्यवस्थित हो गए थे।

सुप्रसिद्ध नाट्य निर्देशक और कलाविद इब्राहिम अलकाजी ने त्रिवेणी कला संगम स्थित अपनी आर्ट हेरिटेज गैलरी में हिमा कौल के शिल्पों से प्रभावित होकर जून माह के अंतिम बीस दिनों तक हिमा के शिल्पों की प्रदर्शनी का आयोजन किया।

इब्राहिम अलकाजी के अनुरोध पर विनोद ने प्रदर्शनी का कैटलॉग लिखा। कैटलॉग की प्रस्तावना में हिमा के आंतरिक संसार के साथ उसके शिल्पों की सृजन भूमि पर गंभीर विवेचना करते हुए उन्होंने शिल्पों के वैशिष्ट्य को रेखांकित किया। मूलतः अंग्रेज़ी में लिखे गए उस आलेख में उनकी इन काव्य पंक्तियों का स्मरण आता है —

मुझे नहीं आता आंगन में उतरना

जहाँ मुझे देखते ही

बच्चे बंद न कर दें खेलना

बल्कि खेलते हुए

शुरू हो जाए

उनका खिलखिलाना भी

मुझे सीखना है

आना बगीचों में कुछ इस तरह

कि भाग न जायें उड़ती हुई तितलियाँ

फूलों से रस लेती मधुमक्खियाँ

गिलहरी भी घूमती रहे

वहीं कहीं

मुझसे बेखबर नहीं

मेरे होने के बावजूद।

प्रदर्शनी में बहुत कम समय शेष बचा था। जलवायु विहार में विनोद के आवास में बनी वार्डरोब में आराम कर रहे और इधर-उधर बिखरे शिल्पों ने त्रिवेणी कला संगम पहुँचना प्रारंभ किया। अल्काज़ी एक-एक शिल्प को कला की कसौटी पर परखते प्रदर्शनी के लिए शिल्पों का चयन कर रहे थे। अल्काज़ी के साथ निरंतर वार्तालाप, शिल्पों के फाइबर और कांस्य में ढलाई और शेष बचे शिल्पों को वापिस उनके ठिकाने तक पहुँचाने में विनोद की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही।

यह हिमा के जीवन का चरम आनंदोत्सव था जिसमें मीरा जी समान रूप से सम्मिलित थीं।

सफल प्रदर्शनी के 15 दिन बाद हिमा को अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान, जयपुर में भर्ती कराने के लिए जाना हुआ।

हिमा की देख-भाल करने के लिए विनोद मीरा जी के साथ जयपुर आ गए। वे अपने प्रवास के दौरान नियमित तौर पर हिमा से मिलते रहे इसलिए उन्होंने भी उसी आयुर्वेद संस्थान में पंचकर्म चिकित्सा के लिए दाखिला ले लिया। रोज सुबह आठ बजे विनोद और मीरा जी के साथ मैं भी आयुर्वेद संस्थान के लिए प्रस्थान करता। दोपहर का लगभग एक बज जाता जब हिमा और मीरा जी पंचकर्म की चिकित्सा से मुक्त होते। मैं संस्थान में ही ठहर जाता और विनोद मीरा जी दोपहर के भोजन के लिए वापस गेस्ट हाउस लौट जाते।

शाम के समय वे पुनः आयुर्वेद संस्थान आ पहुँचते और हिमा से मनोरंजक गपशप लगाते। वह भी विनोद और मीरा के आगमन से प्रफुल्लित हो अपनी हँसी से उनका स्वागत करती। रात्रि भोजन के समय तक यही दिनचर्या बनी रही। यह वर्ष 2009 का अक्टूबर माह रहा होगा, जब विनोद के साथ ऋषिकेश की पहली यात्र हुई। स्वर्गाश्रम ट्रस्ट द्वारा संचालित राम झूला के करीब दुमंजिला माहेश्वरी कुटीर में ठहरने की व्यवस्था हुई। इस यात्र में विनोद और मीरा जी के साथ छोटा पुत्र गौरव श्रीवास्तव और छोटे भाई विंग कमांडर रामकुमार श्रीवास्तव (रम्मू) शरीक थे। माहेश्वरी कुटीर की प्रत्येक मंजिल पर दो कमरे बने थे। नीचे की मंजिल पर बने कमरों में विनोद, मीरा जी और पुत्र गौरव तथा पुत्रवधू शालिनी ठहरे। शालिनी का स्वभाव एक पूरी पीढ़ी के अंतर के बावजूद मीरा जी से इतना मिलता था कि एक सुखद आश्चर्य हुआ। ऊपरी मंजिल का कमरा मेरा और रम्मू का ठिकाना बना। कुटीर की बालकनी से प्रवाहित गंगा का रम्य दृश्य दिखाई देता।

रम्मू प्रायः खामोश रहते और चेहरे पर विषाद भरी खामोशी छाई रहती। रम्मू का इकलौता पुत्र, जो नागपुर में इंजीनियरिंग कर रहा था, अपने एक मित्र को विदा करने के बाद स्टेशन से वापस लौट रहा था। रेड सिग्नल होने के कारण वह स्कूटर रोक कर खड़ा था, उसी समय एक बेकाबू ट्रक की चपेट में आकर आकाल मृत्यु का शिकार बना। अगले ही वर्ष 2008 में किडनी प्रत्यारोपण के बावजूद रम्मू की पत्नी का भी निधन हो गया था।

‘‘भाई साहब रात भर नींद नहीं आती। लड़के का चेहरा आँखों के सामने छाया रहता है। अभी तो उसने जीवन में कुछ भी नहीं देखा था।’’—रम्मू का यह वाक्य आज भी मन को उदास कर जाता है।

रम्मू के साथ मैं सुबह की सैर पर निकल जाता। गंगा के किनारे राम झूला से लक्ष्मण झूला के पुल को पार करते दूसरी ओर की सड़क से करीब दो घंटे बाद वापस लौटते। मूक रहकर सात आठ किलोमीटर की सैर कुछ समय के लिए उसे विषाद से मुक्त करने की दिशा में मेरा एक छोटा सा प्रयास भर था।

आगामी वर्ष एक और यात्र विनोद के साथ हुई। यह यात्र स्मृतियों के भँवर में खुद की तलाश जैसी थी—किसी निश्चित मंजिल के बिना। कई प्रयाग पार कर हम कर्णप्रयाग पहुँचे। वहाँ पता लगा कि जोशीमठ जाने की अनुमति नहीं है। भारत के अंतिम गाँव माणा तक जाने की इच्छा थी परन्तु तीन दिन तक प्रयास करने के बाद भी अनुमति नहीं मिल सकी। रम्मूजी के रिटायर्ड विंग कमांडर होने के बावजूद भारतीय फौज के अधिकारियों के समक्ष हम अपनी विश्वसनीयता साबित नहीं कर पाये। तीन दिन तक उत्तराखंड टूरिज्म विभाग के गेस्टहाउस में पड़े कर्णप्रयाग के दो छोटे मंदिरों व शमशान घाट पर ध्यान करते हुए इधर-उधर घूम रहे थे कि गेस्टहाउस के एक केयरटेकर ने हमें सुझाव दिया कि आप वापिस लौटते हुए विष्णुप्रयाग से बायीं तरफ मुड़ जाये थोड़ा ही आगे चलने पर खिरसू नामक गाँव पड़ेगा वहाँ फारेस्ट विभाग का गेस्टहाउस भी है और उत्तराखंड पर्यटन विकास केन्द्र का दफ़्तर भी। कहीं न कहीं जगह मिल ही जायेगी। हम सबको यह सुझाव पसंद आया और हम खिरसू पहुँच गये। वहाँ उन दिनों चुनाव चल रहे थे बहुत मशक्कत करने के बाद फारेस्ट गेस्ट हाउस में एक रात बिताने की अनुमति मिल पाई। वहाँ रात के भोजन की कोई व्यवस्था नहीं थी इसलिए निर्णय लिया गया कि बाजार से कुछ पैकेट चिप्स और बिस्कुट के लाये जाए और उन्हें खाकर ही क्षुधा शांत की जाये। बाजार में एक दुकान पर कई तरह के चिप्स के पैकेट टंगे थे। विनोद ने खरीदने से पहले दुकानदार की सम्मति जाननी चाही उसने पूछा कि कौन-सा चिप्स अच्छा है? दुकानदार ने ताना-सा मारते हुए कहा—स्वाद का आपको ही पता होगा मैं तो 250 रुपये किलो का आलू नहीं खाता हूँ।

इस यात्र में रम्मू के साथ उसकी बेटी भी शरीक हुई। एक शाम वहाँ घूमते हुए एक टूटा हुआ पेड़ दिखाई दिया। विनोद उसे देर तक देखते रहे फिर यकायक बोले इस पेड़ को जरा सीधा खड़ा करो। उसे सीधा खड़ा किया गया वह पेड़ अब रिंग में उतरे किन्हीं दो मुक्केबाजों का दृश्य उपस्थित कर रहा था। इसी दृश्य का प्रयोग हिन्दू मुस्लिम समस्या पर केंद्रित उनके उपन्यास ‘वजह बेगानगी नहीं मालूम’ के आवरण के लिए किया गया।

अगले दिन खिरसू से निकलते हुए—वहाँ के जंगलों में आग फैल रही है—यह समाचार मिला लेकिन इससे अप्रभावित रहते हुए हम लैंसडाउन की तरफ बढ़ लिए। तकरीबन तीन-चार घंटे के सफर के बाद हम लैंसडाउन पहुँचे। वहाँ भी रुकने की कोई अग्रिम व्यवस्था नहीं थी। कहाँ रुका जाये यह सोचते हुए हम लैंसडाउन घूम ही रहे थे कि हमने देखा वहाँ एक चर्च में आग लगी हुई है और चर्च में घंटी बजाने वाला युवक आग बुझाने का प्रयास छोड़ सहायता के लिए इधर-उधर देख रहा है। उसकी असहायता देख विनोद और रम्मू हमें साथ ले उस चर्च में प्रवेश कर गए और तकरीबन तीन घंटे के अनथक प्रयास के बाद जब वह आग पूरी तरह बुझ गई हम वहाँ से निकले। अब रुकने के लिए किसी बेहतर जगह की तलाश हमें नहीं थी। रम्मू की सलाह पर हम एयरफोर्स के सिपाहियों के लिए बनी मैस में दो दिन के लिए ठहर गए।

वर्ष 2010 में विनोद कुमार श्रीवास्तव के उपन्यास ‘वजह बेगानगी नहीं मालूम’ के प्रकाशन के साथ संभावना प्रकाशन की दूसरी पारी का प्रारंभ हुआ। संभावना का सारा काम अब अभिषेक ने संभाल लिया था। ‘वजह बेगानगी नहीं मालूम’ का लोकार्पण समारोह त्रिवेणी कला संगम के सभागार में नामवर सिंह की अध्यक्षता में संपन्न हुआ। विश्वनाथ त्रिपाठी, भगवान सिंह और डॉक्टर आनंद प्रकाश मुख्य वक्ता थे। पूरा सभागार श्रोताओं से खचाखच भरा था, संभवतः नामवर सिंह के अध्यक्षीय भाषण को सुनना भी आकर्षण का केंद्र रहा हो। सभी वक्ताओं ने उपन्यास की सारगर्भित विवेचना करते उसे सांप्रदायिकता के विरुद्ध एक महत्वपूर्ण कृति के रूप में रेखांकित किया। एक वरिष्ठ समीक्षक ने उसे साम्प्रदायिकता पर लिखे हिंदी के पांच महत्वपूर्ण उपन्यासों में इसकी गणना की। वह एक सफल आयोजन रहा। इसके कुछ माह बाद का एक प्रसंग स्मरण आता है। विनोद के नोएडा स्थित अपार्टमेंट में ठहरा हुआ था, मेरी उपस्थिति में कथादेश संपादक हरिनारायण सिद्धस्थ कहानीकार शिवमूर्ति के साथ आए। शिवमूर्ति ने दोस्ताना लहजे में विनोद को सलाह देते हुए कहा—‘‘इस उपन्यास को थोड़ा भारी-भरकम होना चाहिए था। कुछ दिलचस्प चरित्र और घटनाओं को उसमें जोड़ा जाना था, जिससे पाठक की दिलचस्पी और अधिक बनी रहती।’’

विनोद ने तत्काल कहा—‘‘तब यह आपका उपन्यास हो जाता, मेरा नहीं। इस उपन्यास का एक-एक चरित्र मेरा जाना पहचाना है। उन्हीं के इर्द-गिर्द इस उपन्यास को लिखा गया है। फालतू चरित्रों और काल्पनिक घटनाओं को विस्तार देना मुझे नहीं आता। इससे अधिक एक वाक्य भी न लिख पाना मेरी नाकामी और विवशता दोनों रही होंगी।’’ विनोद का इस तरह कहना उसके बहुत से मित्रों को उसकी आत्ममुग्धता या अहंमन्यता प्रतीत होती, जबकि वह साफगोई से अपनी बात रख रहा होता।

वर्ष 2011 के मध्य में विनोद को मीरा जी के साथ नोएडा से मुंबई के लिए स्थानांतरण का निर्णय अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों के चलते करना पड़ा। मीरा जी स्वास्थ्य समस्या से जूझ रही थीं और कैलाश व फोर्टिस हॉस्पिटल की दिनों तक भाग दौड़ के बावजूद मूल समस्या का न तो अनुसंधान और ना ही कोई निदान हो पा रहा था।

मुंबई के जसलोक हॉस्पिटल में उनकी भर्ती हुई। मीरा जी ओवेरियन कैंसर की चौथी स्टेज पर पहुँच चुकी थी। यह सूचना उसके लिए किसी वज्रपात से कम नहीं थी। मीरा जी की कीमोथेरेपी प्रारंभ हुई। प्रत्येक कीमो के बीच का अंतराल अत्यंत कष्टकारी और पीड़ादायक था। इसी दौरान एक बार दीपावली के अवसर पर उनका नोएडा आना हुआ। सूचित करने पर मैं भी हरिनारायण के साथ पहुँचा। मीरा जी ने अपनी चिर परिचित मुस्कुराहट के साथ हमारा स्वागत किया, उससे विस्मित हो हरिनारायण ने धीमे से कहा—‘‘भला मीरा जी को देखकर कौन कहेगा कि वह कीमोथेरेपी के उपचार से गुज़र रही हैं?’’

मीरा जी के सिर के बाल उड़ गए थे। छोटी टोपी पहने वह किसी बौद्ध भिक्षुणी जैसी प्रतीत हो रही थीं, जिसने अपनी आंतरिक पीड़ा को सहज भाव से अंगीकार कर लिया था। यह नोएडा की उनकी आखिरी यात्र थी, घर के कोने-कोने में बिखरी स्मृतियों को सहजने के लिए।

मीरा जी को चालीस से अधिक कीमो की डोज दी जा चुकी थी। प्रत्येक कीमो के बाद उत्पन्न वेदना का उपचार होता कि दूसरे कीमो के लिए जसलोक में भर्ती होने का दिन आ जाता। विनोद ने मीरा जी की संपूर्ण तपश्चर्या का कार्य स्वयं संभाला हुआ था। मीरा जी कभी संकोच करतीं या अपने उपचार पर हो रहे भारी भरकम व्यय से चिंतित तो विनोद का सिर्फ़ इतना कहना होता, कि वह सिर्फ़ उनकी जिम्मेवारी है। उनके निदान में तनिक भी कोताही की तो यह मलाल उनके साथ ज़िन्दगी भर बना रहेगा।

मीरा जी के अवसान का स्मरण बाद में उन्होंने हिमा पर लिखे अपने स्मृति-आलेख ‘एक तस्वीर थी कुछ आपसे मिलती-जुलती’ (चिंतन दिशा, अंक 25-26 में प्रकाशित) में इन मार्मिक पंक्तियों से किया है।

‘‘हिमा ने कार्तिक अमावस्या (2014) यानी दीपावली वाले दिन शरीर छोड़ा और मीरा ने एक साल बाद, कार्तिक शुक्ल षष्ठी को। एक ने अंधकार के खिलाफ दीप जलाने वाले दिन, दूसरे ने सूर्य को अर्घ्य देने के समय। दोनों नितांत भिन्न प्रदेशों में जन्मे, पले बढ़े और दिल्ली जैसी कामकाजी, निर्मोही और सुविधापरस्त जगह में दोस्त बने, लगभग अंत समय तक निभाने के लिए। यह शायद एक दुरभि संधि थी और कार्तिक था दोनों का दुरभि-संधि-मास।’’

एक वर्ष के अंतराल में हिमा और मीरा जी का विदा लेना विनोद के लिए आंतरिक संसार से दो ऐसे आत्मीय प्राणियों की विदाई थी, जिसके साथ उनके स्वयं का भी एक हिस्सा हमेशा के लिए जाता रहा।

मीरा जी विनोद की रचना प्रक्रिया से भली-भांति वाक़िफ थीं। लिखने के दौरान विनोद को अनिद्रा का शिकार हो डिप्रेशन से संबंधित औषधियों की भारी डोज पर निर्भर रहना होता, जो उनकी सेहत पर भी प्रभाव डालती। प्रकारांतर से इसका दुष्परिणाम उन्हीं के हिस्से में आता।

विनोद पर लिखा कोई भी स्मरण मीरा जी के बिना अधूरा ही रहेगा। लगभग 35 वर्ष के दीर्घ सामीप्य में मैंने हमेशा उन्हें प्रफुल्लित पाया। अपने सहचरों के प्रति भी उनका स्नेह मातृवत था। दोपहरी के विश्राम के क्षणों में वह उन्हें लिखना - पढ़ना सिखातीं। शम्भु को उन्होंने हाई स्कूल की शिक्षा पूर्ण करने में न सिर्फ मदद की, बल्कि उत्तीर्ण करने के बाद उसे आयकर विभाग में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी के पद पर नियुक्ति में भी भूमिका का निर्वाह किया। उनके सहचर हमेशा उन्हें मम्मीजी कह संबोधित करते। नोएडा से मुंबई स्थानांतरित होने से पूर्व उन्होंने महेन्द्र को जमुना पार के इलाके में एक भोजन का ठेला लगाने में भी भरपूर सहायता की। महेन्द्र कुशाग्र बुद्धि का था। उसने शीघ्र ही आसपास के घरों में टिफिन पहुँचाने का कार्य भी प्रारंभ कर दिया। गाँव से अपने साथ छोटे भाइयों और कुछ मित्रों को भी साथ ले आया। धीरे-धीरे उसने अपना ढाबा स्थापित कर लिया और कारोबारी रूप में खासी सफलता प्राप्त की। मीरा जी के अवसान की सूचना पाकर वह तत्काल हवाई जहाज से मुंबई पहुँचा और मीरा जी को अश्रुपूरित नेत्रों से श्रद्धांजलि अर्पित की। यह मीरा जी की अपनी अर्जित कमाई थी।

मीरा जी के अवसान के बाद हृदयेश मयंक द्वारा संपादित ‘चिंतन दिशा’ के अंक 23-24 में प्रकाशित मीरा जी के कवि और कहानीकार के रूप में उपस्थिति मेरे लिए किसी आश्चर्यलोक में प्रवेश करने जैसा था। लगभग 35 वर्ष के घनिष्ठ सान्निध्य के बावजूद उनका यह कवि रूप मेरी आँखों से ओझल रहा, इसका अफसोस मैं अब महसूस कर पा रहा हूँ। अपने कवि रूप को प्रकाशित करने के प्रति उतावलेपन की महत्वाकांक्षा के विरुद्ध स्वयं को इतने निरासक्त भाव से गोपनीय बनाये रखने की भाषा मीरा जी से सीखी जा सकती है। चर्चा के दौरान उपस्थित रहते हुए भी अनुपस्थित रहना मीराजी का स्वभाव था।

मीरा जी की एक-एक कविता उनके आसपास की दुनिया और अंतर्मन के संघर्ष की, बिना किसी अलंकरण और बनावटी शिल्प के सरल भाषा में सहज भाव से रची, ऐसी कविताएँ हैं, जिन्हें एक सिद्ध कवि को भी लिखने के लिए तपस्या करनी होती है। इन कविताओं में माँ की चिंता, जो अपने बच्चों को जीवन के चक्रव्यूह में परास्त हुए देखती है, प्रार्थना के रूप में, तो कई कविताओं में घनीभूत प्रेम के अंतरंग क्षणों की अभिव्यक्ति, ‘वसंत’, ‘नई पत्तियों की लोरी’, ‘अन्न’ और ‘आम’ में प्रकृति के प्रति उनके लगाव की उपस्थिति भी। ‘रोग’, ‘विवशता’, ‘पीड़ा’, ‘एक इच्छा अपने मंदिर के नाम’, ‘विदाई’ और ‘ले गई अग्नि तुम्हें’ यह उनके आखिरी दिनों की व्यथा को रेखांकित करती हैं।

मीरा जी की दो कहानियाँ भी इस अंक में प्रकाशित हुई हैं, जो बताती हैं कि उनका सरोकार अपने आसपास की दुनिया से संलग्नता से जुड़ा रहा है। पिता का अपनी सरकारी नौकरी के चलते स्थानांतरण होता रहता था, उसी के साथ मीरा जी का विकसित हुए पुराने संबंधों को अलविदा कह दूसरे शहर की यात्रओं पर निकलना। इस जिं़दगी से जुड़ी उनकी आत्मीय स्मृतियाँ डायरियों में दर्ज़ हैं, जिन्हें पढ़ पाने का सौभाग्य मुझे कभी प्राप्त नहीं हुआ। संभवतः विनोद की आँखों से भी यह तथ्य ओझल रहा हो। आज के साहित्यिक माहौल में यह आशा रखना कि वह अपनी ओर से कोई पहल करके उनकी संवेदनशील डायरियों को प्रकाशित कराने का उद्यम करें, मुझे असंभव सा लगता है। विनोद तो अपने स्वभाव के चलते कोई भी पहल करने से रहे। अभिषेक की अपनी विवशता और प्राथमिकताएँ हैं, जिसमें मेरा कोई हस्तक्षेप नहीं। विनोद इस फ़र्क को महसूस करते हैं। कभी भी अपने और मेरे बीच के संबंधों में तीसरे की उपस्थिति उसे बर्दाश्त नहीं। यह सूक्ष्म दृष्टि उन्हें दूसरों से पृथक करती है और संबंधों की नींव को मजबूत करने का भी।

वर्ष 2018 के किसी दिन विनोद का प्रफुल्लित स्वर में फोन आया। यह सूचित करने कि नवी मुंबई के किसी फार्महाउस में निर्मित स्मृति-वन में मीरा जी की याद में जो आम्र-वृक्ष रौंपा था, उसकी शाखा पर पहला फल अंकुरित हुआ है। यह आम्र वृक्ष मीरा जी द्वारा ही एक गमले में रोंपा गया, जिसे उनकी मृत्यु पश्चात उस स्मृति वन में लगा दिया गया था। संभवतः उस क्षण विनोद उस वृक्ष में मीरा जी को अंकुरित होते देख रहे थे।

पिछले दिनों जब मैंने उस स्मृति-वन के बारे में पूछा तो उदासीन स्वर में सिर्फ़ इतना कहा—‘‘पिछले साल मुंबई में जो बाढ़ आई थी, उसका खारा पानी स्मृति वन के भीतर भी प्रवेश कर गया था। पानी बाहर निकलने के साथ वह आम्र वृक्ष भी पूरी तरह सूख गया था।’’

मीरा जी के अवसान के बाद वह दीपावली के आसपास अपने छोटे पुत्र गौरव श्रीवास्तव और उनके परिवार के साथ नियमित रूप से नोएडा स्थित अपने अपार्टमेंट में आते रहे। साल भर बाद घर का ताला खुलता और कुछ दिन घर में जमा हुई गर्द, खराब हो चुके इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की नये सिरे से मरम्मत का कार्य प्रारंभ होता। इसी के साथ घर के कोने-कोने से जुड़ी मीरा जी की स्मृतियों को बटोरना भी। उनका पुराना सहचर महेन्द्र भी इन दिनों उनके साथ रहने के लिए चला आता।

इन्हीं दिनों उनका एक सप्ताह के लिए ऋषिकेश निवास का प्रोग्राम बनता। वानप्रस्थ आश्रम में निर्मित अपार्टमेंट्स में ठहरने की व्यवस्था उन्होंने पहले ही आयोजित कर ली होती। मेरी और रम्मू की उपस्थिति अनिवार्य रूप से होती। विनोद जलवायु विहार, नोएडा से और मैं हापुड़ से वानप्रस्थ के लिए प्रस्थान करता। नागपुर स्थित एक्टिविस्ट और लेखक गोपाल नायडू, लखनऊ में निवास कर रहे दैनिक हिन्दुस्तान के भूतपूर्व स्थानीय संपादक रहे राजीव मित्तल तो कभी हिमा के सहकर्मी शिल्पकार गोविंद बालाकृष्णन भी इस यात्र में शरीक होते। एक बार जितेंद्र भाटिया भी अपने दंत चिकित्सक बड़े भाई जो लंदन में रहा करते हैं, के साथ उन्हीं दिनों ऋषिकेश आए। विनोद को मित्रों की संगत बहुत पसंद थी और उनके अपार्टमेंट में बीच-बीच में बैठकी चला करती। गोपाल नायडू के एक्टिविस्ट दिनों के दौरान की लिखी स्मृतियों का पाठ भी सुना जाता।

पाँच वर्ष पूर्व तक ये यात्राएँ नियमित रूप से चलती रहीं। वानप्रस्थ आश्रम स्थाई ठिकाना रहा, सिर्फ़ अपार्टमेंटस संख्या और सहयात्री बदलते रहे।

रात्रि के भोजनोपरान्त विनोद और मैं वानप्रस्थ आश्रम के बाहर गंगा के किनारे बने संगमरमर के विशाल बरामदे में बिना किसी संवाद के साथ-साथ चलते और फिर अलग-अलग संगमरमर की बनी बेंच पर बैठ जाते। अंधेरे में डूबी गंगा की सम्मोहित करती कल-कल की ध्वनि, दूर पहाड़ियों के घरों में टिमटिमाती रोशनी और पहाड़ियों के रास्ते गुजरते वाहनों की जलती-बुझती हैडलाइट के अक्स। इस शून्यकाल में उन प्रियजनों की स्मृतियाँ साथ-साथ आवागमन कर रही होतीं, कुछ समय पूर्व जिनके साथ आप क़दमताल कर रहे थे और इस समय गंगा की लहरों में समाहित हो चुके हैं। वानप्रस्थ आश्रम के मुख्य द्वार के बंद होने के समय वापस लौटते, अपने-अपने संसार में खोए हुए।

इन सबका स्मरण इसलिए कि विनोद कुमार श्रीवास्तव के संपूर्ण लेखन का ताना-बाना इन्हीं संबंधों के अदृश्य धागे से सृजित हुआ है। कुछ भी अतिरिक्त ऐसा नहीं, जो उनके जीवन के ताप घर से होकर न गुज़रा हो।

इस संदर्भ में उनके तीसरे कविता संग्रह ‘कुछ भी तो नहीं कहा’ के आमुख को देखा जा सकता है— कृ

‘‘अभी भी मैं कविता से अपना रिश्ता परिभाषित नहीं कर सकता। यह जरूर लगता है कि कविता अपनी समझ साफ करने और संवेदनाओं के प्रेत से निसृत होने में मेरी मदद करती रही हैं। कोई भी पीड़ादायक मोह या कोई विदारक घटना या फिर चारों ओर दिन-रात घटती असह्य यातनाएँ मेरी कविता की भट्टी से ही गुज़रती हैं। जो भस्म होने से बच जाती हैं, वह साझा होती हैं, पर राहत सभी देती हैं। ये मेरी पीड़ा का फल रही हैं, मेरे प्रयत्नों की उपज नहीं।

मेरे पास शब्दों की तंगी बहुत रही है। जो काम आए उनका ऋणी हूँ।

भूगोल, इतिहास और वर्तमान ने जो कुछ मुझे दिया उसके लिए श्राद्ध-पिंड स्वरूप मेरी बहुत थोड़ी सी कविताएँ ही हैं। मेरी प्रेत बाधाओं का अन्य कोई मेरे पास उपाय नहीं।

मेरा जो रिश्ता अपने आप से है, वही कविता से भी।’’

‘कुछ भी तो नहीं कहा’ के विमोचन समारोह की अध्यक्षता करते हुए प्रसिद्ध कहानीकार और पहल संपादक श्री ज्ञानरंजन ने अपने उद्‍बोधन में कहा था —‘‘विनोद कुमार श्रीवास्तव की कविताएँ समुद्र में तैरते उस ग्लेशियर की तरह हैं, जिसका नब्बे प्रतिशत तह के नीचे छिपा रहता है, जो दस प्रतिशत आँखों को दिखाई देता है, उसी के सहारे कविता के मर्म तक पहुँचना होता है।’’

विनोद के सबसे पसंदीदा और प्रेरक कवि अन्तोलिया पोर्चिया रहे हैं। पोर्चिया किशोरवय में इटली से अर्हेतीना आ गए थे।

पोर्चिया से बुढ़ापे में निरंतर मिलने वाले महान अर्हेतीनी कवि रोबेर्तो ख्वारोस उनके बारे में बताते हैं कि उन्हें कभी छोटी नौकरी से शिकायत नहीं रही और न ही अपनी कृतियों के स्वीकार के प्रति जल्दबाज थे। एकांतवास करने वाले पोर्चिया ‘बाइनोसाइरेस’ के साहित्यिक परिदृश्य से दूर रहकर अनोखी कविताएँ रच रहे थे।

ख्वारोस लिखते हैं—‘‘हम उनके जिन घरों में जाते थे, वह छोटे होते जाते थे—ठीक उनकी कविताओं की तरह जो धीरे-धीरे एक या दो पंक्तियों में सिमट गई थीं— सूक्तियों की तरह। एक छोटे से कमरे में सिर्फ़ वे चित्र रखे थे जो उनके चित्रकार मित्रों ने उन्हें भेंट किए थे।’’

पोर्चिया का इस संस्मरण में ज़िक्र इसलिए क्योंकि इसके माध्यम से विनोद के जीवन और कवि कर्म को समझने की एक महत्वपूर्ण कुंजी हाथ लगती है।

पिछले लगभग 4 वर्ष से विनोद अपनी विभिन्न बीमारियों के चलते लगभग शय्या से टिके हैं। अपनी छड़ी के सहारे अपार्टमेंट से नीचे उतर सामने के पार्क में एक -आध किलोमीटर के भ्रमण में व्यवधान आया है। हर तीसरे चौथे दिन डॉक्टर के यहाँ जाने की विवशता और विभिन्न प्रकार की व्याधियों के अनुसंधान हेतु टेस्टों की वजह से लगभग अपने अपार्टमेंट में क़ैद होकर रह गए हैं। मुंबई में होने वाले स्थानीय साहित्यिक समारोहों से दूरी पहले से ही बना रखी थी, उन्हें अब कोई आमंत्रित भी नहीं करता।

मित्रों से लगभग उन्होंने दूरी बना ली है। प्रत्येक दिन आने वाला उनका फोन अब कभी-कभी ही सुनाई पड़ता है, वह भी उस समय, जब यह प्रयास मेरी ओर से किया जाता है जो बहुत कम शब्दों के साथ समाप्त हो जाता है। सभी संबंधों और वस्तुओं के प्रति निस्पृहता का भाव दिन प्रतिदिन गहराता जा रहा है।

जबकि, मैं जानता हूँ इन्हीं दिनों उन्होंने एक लघु उपन्यास पूरा किया है, जिसे आग्रह के बावजूद पढ़ने के लिए उपलब्ध नहीं कराया है। उनकी डायरियाँ पढ़ने से भी अभी तक वंचित रहा हूँ, जिसमें अपने भीतरी द्वंद्व को वह अपनी अनूठी काव्यात्मक भाषा और शिल्प में लिखते रहे हैं। यदा-कदा कोई टिप्पणी फोन पर सुनने को मिल जाती है। प्राचीन भारत के इतिहास और संस्कृति में दिलचस्पी विनोद को प्रारंभ से रही है। मिर्जापुर के समीप बहती गंगा के दक्षिणी तट का स्पर्श करती और तैमूर पर्वतमाला के ऊंचे टीले पर निर्मित चुनार के क़िले के रहस्यमय राजमहलों के खंडहर, घने जंगल और राजवंश (देवकीनंदन खत्र के सुप्रसिद्ध और अत्यंत लोकप्रिय उपन्यासोंदृ’चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ की सृजन-भूमि) के बारे में उन्होंने बड़ी मशक्कत से नोट्स एकत्रित किए थे। भविष्य में लिखे जाने वाले किसी उपन्यास के लिए। मेरी हर जिज्ञासा का उत्तर सिर्फ़ उनकी खामोशी होती है। संभवतः यह निस्पृहता स्वामी विमलानंद के दीर्घकालिक सामिप्य का फल रहा हो।

विनोद से बात करने पर उसका कहना यही होता कि उसके लिखने से भी कोई ऐसा विशेष क्या घटित हो जाएगा, जो न लिखने से हो रहा है। मनुष्य की स्मृति इतनी क्षीण है कि आत्मीय जनों की यादों से भी बहुत जल्दी अनुपस्थित हो जाता है। खुद को कालजयी लेखक मानने का भ्रम कभी नहीं हुआ।

पिछले साल वर्ष 2023 के मई माह के मध्य में विनोद मुंबई से नोएडा आए। यह पहली दफा था कि वह जलवायु विहार के अपार्टमेंट से पृथक किसी होटल में ठहरे। जलवायु विहार के अपार्टमेंट की रजिस्ट्री उसके नये स्वामी के नाम स्थानांतरण के लिए। उनके साथ दोनों पुत्र सौरभ श्रीवास्तव और गौरव श्रीवास्तव भी आए। उनका उद्देश्य मुझसे भी मिलना था। सूचित करने पर जितेंद्र भाटिया भी जयपुर से चले आए।

अगले दिन विनोद जितेंद्र भाटिया के साथ हापुड़ आए। उनके दोनों पुत्र मुंबई के लिए रवाना हो गए थे। विनोद के हाथ में पकड़े गत्ते से निर्मित खूबसूरत बैग में शहद का बड़ा मर्तबान और तुलसी के अर्क की शीशी रखी थी। मैं पूरे चार माह कोमा की स्थिति में रहने के बाद इस योग्य हुआ था कि किसी के सहारे उठकर बरामदे में आकर बैठ सकूँ। बैग को टेबल से निकालते विनोद ने कहा—‘‘हल्दी और काली मिर्च साथ लाना मुझे ग़ैरजरूरी लगा। एक कप पानी में चाय की पत्तियों के बजाय चुटकी भर हल्दी डालकर पानी को गर्म करो। उसमें 8-10 तुलसा के अर्क की बूंदें और एक चम्मच शहद। स्वाद के लिए कुछ काली मिर्च और काले नमक का भी प्रयोग कर सकते हो। सुबह और शाम दो समय इस चाय का सेवन करो। यह शरीर में उत्पन्न विजातीय तत्वों को दूर करने में सहायक होगी।’’

विनोद के कहे अनुसार बनी चाय का स्वाद इतना अनोखा था, कि उसी दिन से दूध और चाय पत्तियों से बनी पुरानी आदत जाती रही। विनोद ने जाने से पूर्व कहा, कि हम अक्टूबर में ऋषिकेश में पुरानी परिचित जगह वानप्रस्थ में फिर मिलेंगे। मैं मुंबई से जॉली ग्रांट सीधे पहुँचूँगा और वहाँ से ऋषिकेश। तुम्हें भी इस यात्र में शरीक होना है। अभी अक्टूबर में 5 महीने शेष बचे हैं और तब तक तुम्हें उठ खड़ा होना पड़ेगा।

जितेंद्र ने कहते ढांढस बंधाया कि अशोक यह तुम्हारा पुनर्जन्म है। इसका तुम्हें उत्सव मनाना है। प्रकृति का संकेत है कि तुम्हें उन अधूरे कामों को अंज़ाम देना है, जो अभी शेष रह गए हैं।

मुंबई लौटने के कुछ दिनों बाद विनोद के फेसबुक पर विनोद की नई कविता ‘घर’ शीर्षक से पढ़ने को मिली। कविता पढ़ते ही समझ में आ गया कि यह जलवायु विहार के घर से विदाई का शोकगीत था। इस कविता की आख़री पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार हैं —

कि सलाम कहना और विदा देना

बहते जाना है

भारी होती जाती स्मृतियों

और अलविदाओं के

उच्छवासों की धारा में

घर को विदा कहना

अनगिनत घरों में

खो जाना है।

विनोद को जब भी पलट कर देखता हूँ तो उसे स्वनिर्मित किले में कैद पाता हूँ। एक ऐसे किले में जिसमें प्रवेश करने की कुँजी प्रेम, स्नेह और आपसी समझ है। अच्छा लगता है यह जानकर कि मैं उन दरवाजों को खोल पाया।

अक्टूबर कब आया और कब बीत गया, पता ही नहीं चला। नया साल आ गया। क्षीण सी आशा के साथ वह अक्टूबर अभी भी मन में बसा है। शायद विनोद के मन में भी।

’विनोद कुमार श्रीवास्तव की किताब ‘कुछ भी तो नहीं कहा’ से।