ध्वनि / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

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ध्वनि
ध्वनि / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

ध्वनि शब्द का व्यवहार चार पृथक्-पृथक् अर्थों में होता है-(1) जहाँ व्यंग्यार्थ में वाच्यार्थ से अतिशयता हो अर्थात् उत्तम काव्य, (2) जिसके द्वारा व्यंग्यार्थ व्यंजित हो, अर्थात् प्रधान व्यंग्य (3) रसादि की व्यंजना, (4) व्यंजित रसादि।

यहाँ यह शब्द पहले अर्थ में गृहीत हुआ है और उसका लक्षण इस प्रकार है-जिस काव्य में व्यंग्य अर्थ वाच्य अर्थ की अपेक्षा प्रधान या अधिक चमत्कारक हो वह ध्व्नि है। जिसमें व्यंग्य अर्थ गौण हो वह गुणीभूत व्यंग्य है।

ध्वनि के दो प्रकार हैं-

(1) लक्षणामूलक या अविवक्षित वाच्य और

(2) अभिधामूलक या विवक्षित वाच्य। (अविवक्षित=बाधित)।

लक्षणामूलक या अविवक्षित वाच्य ध्व्नि-अविवक्षितवाच्य ध्वधनि के दो प्रकार होते हैं-(1) अर्थांतरसंक्रमित वाच्य और (2) अत्यंततिरस्कृत वाच्य।

उदाहरण

अर्थांतरसंक्रमित वाच्य ध्वकनि - 'आम आम ही है, इमली इमली ही है, कोइल कोइल ही है, कौआ कौआ ही है। यहाँ आम, कोइल इत्यादि शब्दों के व्यवहार में उक्त ध्वनि है। दूसरे अर्थ की ध्वौनि लाक्षणिक है 'व्यंग्यार्थ' है 'मीठे स्वाद का, मीठे गानवाली' इत्यादि इत्यादि। ये लाक्षणिक अर्थ वाच्यार्थ से एकदम भिन्न नहीं हैं, प्रत्युत मुख्यार्थ का विशिष्ट रूप बतलाते हैं। व्यंग्य प्रयोजन है-उत्कृष्टता और निकृष्टता। अर्थांतर संक्रमित वाच्य में सामान्य विशेष भाव या व्यापक व्याप्य संबंध होना चाहिए। वाच्यार्थ को सामान्य या व्यापक होना चाहिए और लक्ष्यार्थ को विशेष या व्याप्य। दूसरे शब्दों में अर्थांतरसंक्रमित वाच्य ध्वयनि अजहत्स्वार्था वृत्ति पर आश्रित होती है।

अत्यंततिरस्कृत वाच्य ध्वअनि - अंधा दर्पण, कानी चारपाई, बेसिर पैर की बात।

न तो दर्पण के ऑंखें ही हुआ करती हैं और न बात के सिर पैर ही। इसलिए वाच्यार्थ अत्यंत तिरस्कृत है। अत्यंततिरस्कृत वाच्य ध्वसनि जहत्स्वार्था वृत्ति पर आश्रित होती है।

सूचना - केवल वैपरीत्य की सत्ता से अत्यंततिरस्कृत वाच्य ध्वथनि और अभिधामूलक ध्वननि में भ्रांति न होनी चाहिए। लक्षणा में वैपरीत्य स्वत: होता है और अभिधामूलक ध्वननि में वैपरीत्य की प्रतीति परिस्थिति का बोध हो जाने के अनंतर होती है। निम्नलिखित उदाहरण देखिए-'भगतजी बेधड़क घूमिए, उस कुत्ते को जो तुम्हें तंग किया करता था नदी किनारे उस कुंज में रहनेवाले सिंह ने मार डाला।'1

यह अभिधामूलक ध्व नि का उदाहरण है, विपरीत लक्षणामूलक अत्यंततिरस्कृत वाच्य ध्वअनि का नहीं। अत्यंततिरस्कृत वाच्य ध्वतनि के उदाहरण निम्नलिखित होंगे-

(क) क्या भरा हुआ सरोवर है कि लोग लोट-लोटकर नहा रहे हैं।

(ख) यदि यमयातना से प्रेम है तो ईश्वर का भजन न करना।

पहले उदाहरण (क) में 'भरा हुआ' वस्तुत: 'सूखा हुआ' के अर्थ में है। इसी प्रकार दूसरे उदाहरण (ख) में निषेध बिना किसी खींचतान के विधि का बोध कराता है। 'भगतजी आदि' उदाहरण ऐसा नहीं करता। उसमें निषेध की प्रतीति प्रकरणादि के पर्यालोचन के बाद होती है। इसलिए उसमें लक्षणा नहीं है। नियम यह है कि जिस वाक्य में पदार्थों का संबंध अनुपपन्न होता है उसी में लक्षणा होती है। जहाँ पदों के मुख्य अर्थ का अन्वय हो जाने के उपरांत अवसर या प्रसंग के विचार से बाधा की प्रतीति होती है वहाँ लक्षणा नहीं हो सकती।

अभिधामूलक या विवक्षित वाच्य ध्व नि - इसके दो प्रकार होते हैं-असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य और संलक्ष्यक्रम व्यंग्य।

(क) असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य - रस, भाव, रसाभाव, भावाभास इसके उदाहरण हैं।

सूचना - इससे रसों और भावों की असंख्यता प्रकट होती है। लेखक (साहित्यदर्पणकार) ने चुंबन आलिंगनादि को भी इसी के अंतर्गत रखा है। किंतु विभाव और अनुभाव सदा वाच्य होते हैं व्यंग्य नहीं। केवल स्थायी और संचारी [ भाव ] व्यंग्य हो सकते हैं।

(ख) संलक्ष्यक्रम व्यंग्य ध्व्नि - के तीन प्रकार होते हैं-(1) शब्द शक्त्युद्भव ध्व नि, (2) अर्थशक्त्युद्भव ध्वकनि और (3) उभयशक्त्युद्भव ध्वकनि।

(1) शब्दशक्त्युद्भव ध्वयनि के दो प्रकार हैं-वस्तुरूप और अलंकाररूप।

(क) वस्तुरूप का उदाहरण-(स्वयंदूती वचन-पथिक, इन उठे हुए पयोधरों को देखकर यदि ठहरना चाहते हो तो ठहर जाव। 2) (पयोधर=मेघ और स्तन)।

1. भम धम्मिअ बीसत्थो सी सुणओ अज्ज मारिओ देण।

गोलाणईकच्छकुंडगबासिणा दरीऽसीहेण:॥

2. पन्थिअ ण एत्थ सत्थरमत्थि मणं पत्थरत्थले गामे।

उष्णअ पओहरं पेक्खिऊण जइ वससि ता वससु॥

-साहित्यदर्पण, पृष्ठ 176।

व्यंग्य वस्तु है 'यहाँ ठहरो और सहवास का सुख लूटो'।

प्रश्नय - क्या इस उक्ति में रसाभास व्यंग्य नहीं है। स्वयंदूती के कथन में (प्रथम अधयाय1) विश्वहनाथ ने रसाभास माना है। हम लोगों के सामने जो उदाहरण है उसमें श्लिष्ट 'पयोधर' शब्द केवल वस्तु व्यंजित करता है। अब प्रश्नज यह है कि क्या व्यंजना इसके आगे भी जाती है।

समाधान - हाँ, निश्चय ही। और इस प्रकार [ यह ] व्यंग्यार्थ में अर्थमूलक व्यंजना का उदाहरण प्रस्तुत करती है। इसलिए यह माना जाता है कि व्यंजना शक्ति के द्वारा एक के बाद एक वस्तुओं और भावों की माला व्यंजित हो सकती है। जैसे अनुभाव के द्वारा संचारी भाव व्यंजित हो सकता है और तदुपरांत संचारी के द्वारा स्थायी भाव। ठीक इसी प्रकार व्यंग्य वस्तु के द्वारा व्यंग्य भाव या रस व्यंजित हो सकता है।

(ख) शब्द शक्ति से अलंकार व्यंग्य - श्लेरष के द्वारा सादृश्य (उपमा) की व्यंजना इसका उदाहरण होगा। (अन्योक्ति कल्पद्रुम के पद उदाहरण में दिए जा सकते हैं।)

(2) अर्थशक्त्युद्भव ध्वतनि - यह या तो वस्तु के रूप में होती है या अलंकार के रूप में। इनमें से प्रत्येक या तो स्वत:सम्भवी होगी या कविप्रौढ़ोक्ति सिद्ध (कल्पित), जैसे 'कौओं को सफेद करनेवाली चंद्रिका' जो कहीं उपलब्ध नहीं होती।

इन चारों के विभिन्न प्रकार के मिश्रणों द्वारा बारह प्रकार की अर्थशक्त्युद्भव ध्व(नि हो सकती है। ये बारहों प्रकार प्रबंध (जैसे गृध्रगोमायुसंवाद) में भी हो सकते हैं इसलिए अर्थशक्त्युद्भव ध्वपनि के चौबीस भेद हो जाते हैं।

उदाहरण

स्वत:सम्भवी वस्तु से वस्तु व्यंग्य-'इस बालक के पिता इस कुएँ का खारा पानी न पीएँगे। मैं झटपट तमालाकुल सोते पर जाती हूँ। पुराने नरसल की गाँठें देह में खरोंट डालें तो डालें।'2 'नरसल की खरोंट' स्वत:सम्भवी वस्तु है। इसके द्वारा भावी रतिचिन्ह के गोपन की व्यंजना हो रही है।

स्वत:सम्भवी वस्तु से व्यतिरेक अलंकार व्यंग्य - 'दक्षिण दिशा में जाने से

1. अता एत्थ णिमज्जइ एत्थ अहं दिअसअं पलोएहि।

मा पहिअ रत्तिअंधिअ सज्जाये मह णिमज्जहिसि॥

-साहित्यदर्पण, पृष्ठ 20।

2. दृष्टिं हे प्रतिवेशिनि क्षणमिहाप्यस्मद्गृहे दास्यसि

प्रायेणास्य शिशो: पिता न विरसा: कौपीरप: पास्यति।

एकाकिन्यपि यामि सत्वरमित: स्रोतस्तमालाकुलं

नीरन्राय स्तनुमालिखन्तु जरठच्छेदा नलग्रन्थय:॥

-वही, पृष्ठ 178।

(दक्षिणायन होने से) सूर्य का तेज भी मंद हो जाता है। परंतु उसी दिशा में रघु का प्रताप पांडय देश के राजाओं से नहीं सहा गया।'1

यहाँ सम्भवी वस्तु है सूर्य की मंदता और रघु के समक्ष दक्षिण के नरेशों की पराजय'। यहाँ व्यतिरेक अलंकार व्यंग्य है। अर्थात् रघु का प्रताप सूर्य के प्रताप से बढ़कर है। (अलंकार कल्पित अर्थात् कविप्रौढ़ोक्तिसिद्ध है।)

स्वत:सम्भवी अलंकार से स्वत:सम्भवी वस्तु व्यंग्य - 'उस वेणुहारी को दूर से अपनी ओर झपटते देख बलराम ने भी सँभलकर पराक्रम के साथ उसे ऐसा देखा जैसे मत्त मातंग को केसरी देखे।2

स्वत:सम्भवी अलंकार से कविप्रौढ़ोक्तिसिद्ध अलंकार व्यंग्य - 'रण में क्रोध से ओठ चबाते हुए जिस राजा ने शत्रु-नारियों के ओठों को पति के प्रगाढ़ दंतक्षत की व्यथा से छुड़ा दिया।3 वह दूसरों के ओठों की रक्षा कैसे करेगा जो अपने ही ओठ चबा रहा है - स्वत:सम्भवी विरोधलंकार। समुच्चय अलंकार व्यंग्य है। इधर ओठ चबाए उधर शत्रु मारे गए।

कविप्रौढ़ोक्तिसिद्ध वस्तु से व्यंग्य वस्तु - 'युवतियों की ओर लक्ष्य रखनेवाले मुखों से युक्त नवपल्ल्वरूप पत्रा (पंख) वाले नए-नए आम के बौरों के बाण वसंत में कामदेव तैयार करता है।'4 यहाँ धनुर्धर काम के बाण कविप्रौढ़ोक्तिसिद्ध मात्र है जिससे 'कामोद्दीपन काल' वस्तु व्यंग्य है।

कविप्रौढ़ोक्तिसिद्ध वस्तु से अलंकार व्यंग्य - 'हे वीर, केवल रात्रि में ही चंद्रमा की किरणों से प्रकाशित होनेवाले भुवनमंडल को अब आपकी कीर्ति दिन रात शोभित कर रही है।5 यहाँ 'कीर्ति का प्रकाश' कविप्रौढ़ोक्तिसिद्ध वस्तु है जिससे व्यतिरेक

1. दिसि मन्दायते तेजो दक्षिणस्यां रवेरपि।

तस्यामेव रघो: पाण्डया: प्रतापं न विषेहिरे॥

-साहित्यदर्पण, पृष्ठ 178।

2. आपतन्तममुं दूरादूरीकृतपराक्रम:।

बलोऽवलोकयामास मातंगमिव केसरी॥

-वही, पृष्ठ 179।

3. गाढकांतदशनक्षतव्यथासंकटादरिवधूजनस्य य:।

ओष्ठविद्रुमदलान्यमोचयन्निदर्शयन्युधि रूषा निजाधरम्॥

-वही

4. सज्जेहि सुरहिमासोण दाव अप्पेइ जुअइजणलक्खमुहे।

अहिणवसहआरमुहे णवपल्लवपत्तले अणंगस्य सरे॥

-वही।

5. रजनीषु विमलभानो: करजालेन प्रकाशितं वीर।

धावलयति भुवनमंडलमखिलं तव कीर्तिसन्तति: सततम्॥

-वही, 180

अलंकार व्यंग्य है अर्थात् कीर्ति चाँदनी से अधिक प्रकाश करनेवाली है।

कविप्रौढ़ोक्तिसिद्ध अलंकार से व्यंग्य वस्तु - 'उस समय रावण की मुकुटमणियों के बहाने राक्षस-श्री के ऑंसू पृथ्वी पर गिरे।'1 मुकुट से मणियों का गिरना अपशकुन है। इसलिए अपह्नुति अलंकार के द्वारा श्री के ऑंसू गिराए गए हैं। श्री के ऑंसू कल्पित हैं, अत: कविप्रौढ़ोक्तिसिद्ध अलंकार है। इससे 'राक्षसों की शक्ति के विनाश' वस्तु की व्यंजना हो रही है।

कविप्रौढ़ोक्तिसिद्ध अलंकार से व्यंग्य अलंकार - 'हे त्रिकलिंग देशतिलक आपकी अकेली कीर्तिराशि इंद्रपुरी की स्त्रियों के अनेक भूषणों के रूप में परिणत हो गई-चोटी में मल्लिका के पुष्प हुई, हाथ में श्वेत कमल, गले में हार, शरीर में चंदनलेप।2 यहाँ आरोप के कारण रूपक अलंकार है, जो कविकल्पित है। इसके द्वारा 'आप पृथ्वी पर रहते हुए स्वर्ग के निवासियों का उपकार करते हैं' यह विभावना अलंकार व्यंग्य है।

(लेखक [ साहित्यदर्पणकार ] ने पात्रों (नायकादि) की उक्तियों के उदाहरण को पृथक् माना है। उनका कहना है कि कविप्रौढ़ोक्ति की अपेक्षा कविनिबद्ध वक्ता की प्रौढ़ोक्ति में विशेष चमत्कार होता है क्योंकि वे उक्तियाँ ऐसे व्यक्तियों की होती हैं जो स्वयं उसका अनुभव करनेवाले होते हैं। 'रसगंगाधर' ने यह बात नहीं मानी।)3

कविनिबद्ध वक्ता की प्रौढ़ोक्ति से सिद्ध वस्तु द्वारा व्यंग्य वस्तु - 'हे सुमुखि! इस सूए के बच्चे ने किस पर्वत पर कितने दिनों तक क्या तप किया है कि यह तुम्हारे ओठ के सदृश लाल बिम्बफल का स्वाद ले रहा है।'4 सुग्गे का तप कल्पित वस्तु है। व्यंग्य वस्तु यह है कि रमणी के अधरों की प्राप्ति बड़ी तपस्या से होती है। यद्यपि यहाँ पर प्रतीप अलंकार है तथापि वह-व्यंग्य वस्तु को व्यंजित नहीं करता।

वक्ता की प्रौढ़ोक्ति सिद्ध वस्तु से व्यंग्य अलंकार - 'हे सखि! वसंत में काम के बाणों ने करोड़ों की संख्या प्राप्त करके पंचता छोड़ दी और वियोगिनियों को पंचता

1. दशाननकिरीटेभ्यस्तत्क्षणं राक्षसश्रिय:।

मणिव्याजेन पर्यस्ता: पृथिव्यामश्रुबिन्दव:॥

2. धम्मिल्ले नवमल्लिकासमुदयो हस्ते सिताम्भोरुहं

हार: कण्ठतटे पयोधरयुगं श्रीखण्डलेपो घन:।

एकोऽपि त्रिकलिंगभूमतिलक त्वत्कीर्तिराशिर्ययौ

नानामण्डनतां पुरन्दरपुरीकामभ्रुवां विग्रहे॥ -साहित्यदर्पण, 180।

3. देखिए साहित्यदर्पण, विमला टीका, पृष्ठ 182।

4. शिखरिणि क्व नु नाम कियच्चिरं किमभिधानमसावकरोतप:।

सुमुखि येन तवाधरपाटलं दशति बिम्बफलं शुकशावक:॥ -वही, 181।

प्राप्त हुई।'1

कवि की कल्पना यह है-कामदेव के बाण करोड़ों की संख्या में हो गए हैं

जिससे वियोगियों की मृत्यु हो रही है। इससे उत्प्रेक्षा अलंकार व्यंग्य है। (बाणों की पंचता मानो वियोगियों को प्राप्त हो गई है।)

वक्ता के प्रौढ़ोक्तिसिद्ध अलंकार से व्यंग्य वस्तु - 'हे क्रोधशीले! चमेली की कली पर गूँजता हुआ भ्रमर ऐसा मालूम होता है मानो कामदेव की विजय यात्रा का विजयशंख बज रहा है।2 उत्प्रेक्षा अलंकार कविप्रौढ़ोक्तिसिद्ध है और इससे इस वस्तु की व्यंजना होती है कि यह प्रेम का समय है, मान का नहीं।

वक्ता के प्रौढ़ोक्तिसिद्ध अलंकार से व्यंग्य अलंकार - 'हे सुंदर! हजारों स्त्रियों से भरे हुए तुम्हारे हृदय में अवकाश न पाकर वह कामिनी और सब काम छोड़कर दिन-रात अपने दुर्बल शरीर को और भी दुर्बल बना रही है।3 यहाँ काव्यलिंग अलंकार (नायक के हृदय में स्थान न पाकर) कल्पित है। इससे दूसरा अलंकार विशेषोक्ति व्यंग्य है। वह दुर्बल और क्षीण होने पर भी हृदय में स्थान नहीं पा रही है।

(3) उभयशक्त्युद्भव ध्वहनि - इसके उपभेद नहीं होते। यह केवल वाक्यगत होती है। अन्य दो भेद (शब्दशक्त्युद्भव और अर्थशक्त्युद्भव) पदगत और वाक्यगत दोनों होते हैं। अन्योक्ति कल्पद्रुम में वसंत की अन्योक्ति उदाहरण का काम देगी।4 उस पद्य में 'माधव' और 'द्विज' शब्द के स्थान पर उनके पर्यायवाची नहीं रखे जा सकते। इसलिए शब्दक्त्युद्भव है, किंतु इन शब्दों को पर्यायवाची शब्दों से बदल सकते हैं।

पदगत और वाक्यगत ध्ववनि-

पद्य के केवल एक पद में जो ध्वननि होती है वह पदगत कहलाती है, जो अनेक

1. सुभगे कोटिसंख्यत्वमुपेत्य मदनाशुगै:।

वसन्ते पंचता त्यक्ता पंचतासीद्वियोगिनाम्॥

-साहित्यदर्पण, 181।

2. मल्लिकामुकुले चण्डि भाति गुंजन्मधुव्रत:।

प्रयाणे पंचबाणस्य शंखमापूरयन्निव॥

3. महिलासहस्सभरिए तुह हिअएस्सुहअ सा अमाआन्ती।

अणुदिणमणण्णकम्मा अंग तणुअं पि तणुएइ॥ -वही।

4. हितकारी ऋतुराज तुम साजत जग आराम।

सुमन सहित आसा भरो दलहिं करौ अभिराम॥

दलहिं करौ अभिराम कामप्रद द्विजगुन गावैं।

लहि सुबास सुखधाम बातबर ताप नसावैं॥

बरनै दीनदयाल हिये माधव धुनि प्यारी।

श्रवन सुखद सुक बेन विमल बिलसै हितकारी॥ 4॥

पदों में होती है वह वाक्यगत कहलाती है (यह विभाजन तर्कपूर्ण नहीं जान पड़ता वस्तुत: विशिष्ट पद या पदों पर आश्रित व्यंग्य को पदगत ही कहना चाहिए)।

उदाहरण

अर्थांतर संक्रमितवाच्य ध्वटनि पदगत - 'उसी के नेत्र नेत्र होंगे जिसके सामने यह तरुणी होगी।'1

अर्थांतर संक्रमितवाच्य ध्वटनि वाक्यगत - 'देख! मैं तुझसे कहता हूँ यहाँ विद्वानों की मंडली है अपनी बुद्धि को स्थिर करके काम करना।'2 ल्क्ष्यार्थ-मैं-तुझसे ज्ञानवृद्ध और तेरा हितकारी; तुझसे=तू जो अनुभवी और विद्वान् नहीं है। व्यंग्यार्थ-मेरा उपदेश तेरे लिए हितकर है।)

असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य ध्वतनि पदगत - 'वह लावण्य! वह कांति! वह रूप! और वह वचनावली! उस समय तो ये सब अमृतवर्षी थे परंतु अब अत्यंत संतापकारी हो गए हैं।'3 (वह के द्वारा पहले तो असाधारण और अवर्णनीय सौंदर्य की व्यंजना होती है (वस्तु) और फिर विप्रलंभ श्रृंगार (रस) की। इसलिए असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य है। 'वह' पद यद्यपि कई बार प्रयुक्त हुआ है पर वह एक ही पद है अत: पदगत ध्व नि है)।

शब्दशक्ति मूलक वस्तुध्वहनि पदगत - 'एकांतवास की आज्ञा देने में तत्पर और भुक्तिमुक्ति देनेवाला सदागम (सच्छास्र अथवा अच्छे पुरुष का आना) किसे आनंदित नहीं करता4? यहाँ व्यंग्य वस्तु पुरुषसमागम है।

प्रश्नर - इसमें उपमानोपमेय भाव क्यों नहीं है जैसा कि अलंकार द्वारा व्यंग्य वस्तु के उदाहरणों में हुआ करता है?

समाधान - क्योंकि यह विवक्षित (इच्छित) नहीं है।

शब्दशक्तिमूलक पदगत अलंकार ध्ववनि - 'अलौकिक बुद्धि से युक्त संपूर्ण पृथ्वी को धारण करनेवाला यह कोई पुरुषोत्तम राजा सुशोभित है।'5 यहाँ सादृश्य विवक्षित है इसलिए उपमा व्यंग्य है।

1. धन्य: स एव तरुणो नयने तस्यैव नयने च॥

युवजनमोहनविद्या भवितेयं यस्य समुखे सुमुखी॥ -साहित्यदर्पण, पृष्ठ 183।

2. त्वामस्मि वच्मि विदुषां समवायोऽत्रा तिष्ठति।

आत्मीयां मतिमास्थाय स्थितिमत्रा विधेहि तत्॥ -वही, पृष्ठ 183।

3. लावण्यं तदसौ कान्तिस्तद्रूपं स वच:क्रम:।

तदा सुधास्पदमभूदधुना तु ज्वरो महान्॥ -वही, पृष्ठ 184।

4. भुक्तिमुक्तिकृदेकान्तसमादेशनतत्पर:।

कस्य नानन्दनिष्यन्दं विदधाति सदागम:॥ -वही, पृष्ठ 185।

5. अनन्यसाधारणधीर्धृताखिलवसुन्धर:।

राजते कोऽपि जगति स राजा पुरुषोत्तम:॥ -वही, पृष्ठ 186।

अर्थशक्तिमूलक स्वत:सम्भवी वस्तु से वस्तु ध्वानि - 'तूने अभी सायंकाल स्नान किया है। शरीर में शीतल चंदन का लेप किया है, सूर्य अस्त हो गया है (धूप भी नहीं है और आराम से धीरे-धीरे तू यहाँ आई है; तेरी सुकुमारता अद्भुत है जो इस समय तू ऐसी क्लांत हो गई है')1। तूने परपुरुष के साथ संभोग किया है-यह वस्तु व्यंग्य है। यहाँ अत्यंत व्यंजक शब्द 'अधुना' (इस समय) है, इसलिए यह पदगत है।

असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य ध्व'नि में प्रकृतिगत, प्रत्ययगत, उपसर्गगत, ध्व नि -(उदाहरणों के लिए देखिए-साहित्यदर्पण, पृष्ठ 191, 192, 193)।2

सूचना

(उदाहरणों से यह स्पष्ट नहीं है कि पदांशगत केवल असंलक्ष्यक्रम में ही हो सकता है।)

अभिज्ञानशाकुंतल से दिए गए उद्धरण चलापाक्षं दृ्रूष्ट इत्यादि में हता: (मरा) शब्द प्रकृतिगत ध्वतनि का उदाहरण बताया गया है। (हन्=मारना)। किंतु यह शब्द लक्ष्यार्थ के अनंतर व्यंग्य को व्यंजित करता है इसलिए यहाँ लक्षणामूलक ध्वेनि है। किंतु असंलक्ष्यक्रम अभिधामूलक ध्व नि के अंतर्गत है, लक्षणामूलक ध्व नि के अंतर्गत नहीं।

निम्नलिखित उदाहरण के रूप में गृहीत हो सकते हैं-

(क) प्रत्यय या अव्ययगत-चमारों तक ने चंदा दिया।

(ख) मुखड़ा सधुक्कड़। वर्ण और रचना में व्यंग्यों के उदाहरण वैदर्भी रीति

1. सायं स्नानमुपसितं मलयजेनाक्ष् समालेपितं

यातोऽस्ताचलमौलिमम्बरमणिर्बिस्रब्धमत्रागति :।

आश्चर्यं तवसौकुमार्यमभित:क्लान्तासि येनाधुना

नेत्रद्वन्द्वममीलनव्यतिकरं शक्नोति ते नासितुम्॥

-वही।

2. प्रकृतिगत-

चलापाक्षं दृष्टिं स्पृशसि बहुशो वेपथुमतीं

रहस्याख्वायीव स्वनसि मृदु कर्णान्तिकचर:।

करौ व्याधुन्वत्या! पिवसि रतिसर्वस्वमधुरं

वयं तत्त्वान्वेषान्मधुकरहतास्त्वं खलु कृती॥

प्रत्ययगत-

मुहुरक्ष्लिसंकूताधरोष्ठं प्रतिवेधाक्षरविक्लवाभिरामम्।

मुखमसविवर्ति पक्ष्मलाक्ष्या: कथमप्युन्नसितं न चुम्बितं तु॥

उपसर्गगत-

'न्यक्कारोह्ययमेव', देखिए पृष्ठ 220 की पाद टिप्प्णी सं. 3।

के माधुर्यव्यंजक वर्णों आदि में तथा अन्यत्र खोजने चाहिए।