संकर और संसृष्टि ध्वनि / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल
संकर और संसृष्टि ध्वनि / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल
संकर-जहाँ विभिन्न प्रकार की ध्वेनियों का एक ही आश्रय (शब्द और अर्थ) हो या वे अन्योन्याश्रित हों तो संकर ध्वरनि होती है, 'जैसे पीनस्तनों से सुशोभित दीर्घ और चंचल नेत्रवाली प्रिय के आगमन के महोत्सव में द्वार पर खड़ी हुई मांगलिक पूर्ण कलश और कमलों की वंदनवार बिना यत्न के ही संपादित कर रही है।'1 यहाँ रूपक अलंकार (स्तन=कलश और नेत्र=कमल तोरण) तथा व्यंग्य श्रृंगार दोनों एक ही आश्रय में हैं।
गुणीभूत व्यंग्य
व्यंग्य अर्थ या तो अन्य (रसादि) का अंग होता है या काकु से आक्षिप्त होता है या वाच्यार्थ का ही उपपादक (सिद्धि का अंगभूत) होता है अथवा वाच्य की अपेक्षा उसकी प्रधानता संदिग्ध रहती है या वाच्यार्थ व्यंग्यार्थ की बराबर प्रधानता रहती है अथवा व्यंग्य अर्थ अस्फुट रहता है, गूढ़ अत्यंत अगूढ़ (स्पष्ट) या असुंदर होताहै।
उदाहरण
रसादि का अंग रस - स्मर्यमाण श्रृंगार करुणा का अंग। 'हा! यह वह हाथ है जो रशना का आकर्षण करता था, कपोलों का स्पर्श करता था'2 इत्यादि।
(यह ध्यारन में रखने की बात है कि ऐसे उदाहरणों में पूरा पद्य मध्यदम काव्य नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यहाँ निश्चय ही रस है और अप्रधान व्यंग्य उसका
अंग है। लेखक [ साहित्यदर्पणकार ] ने इसे स्वीकार किया है-(देखिए पृष्ठ 202)।3
1. अत्युन्नतस्तनयुगा तरलायताक्षी
द्वारि स्थिता तदुपयानमहोत्सवाय।
सा पूर्णकुम्भनवनीरजतोरणस्रक्
संभारमड्गलमयत्नकृतं विधत्ते॥
-साहित्यदर्पण, पृष्ठ 195।
2. अयं स रशनोत्कर्षी पीनस्तनविमर्दन:।
नाभ्यूरूजघनस्पर्शी नीवीविस्रंसन: कर:॥
-वही, पृष्ठ 196।
3. किं च यत्रा वस्त्वलंकाररसादिरूप व्यंग्यानां रसाभ्यन्तरे गुणीभावस्तत्रा प्रधानकृत एवं काव्यव्यवहार: तदुक्तं तेनोऽव
प्रकारोऽयं गुणीभूतव्यङ्गोऽपिध्वकनिरूपताम्।
धत्ते रसादि तात्पर्यपर्यालोचनया पुन:॥
वाच्यार्थ का उपपादक - 'हे राजेंद्र पृथ्वी और आकाश के मध्यण सर्वत्र प्रकाश करता हुआ वैरि वंश का दावानल रूप यह आपका प्रताप सर्वत्र जग रहा है।'1 (श्लेरष द्वारा शत्रु में बाँस का आरोप व्यंग्य है। पर यह व्यंग्य अलंकार वाच्यार्थ दावानल का साधक है।)
इसी प्रकार यदि व्यंजित सादृश्य के अनंतर उपमान शब्द द्वारा कथित होता है तो व्यंग्य का महत्त्व नहीं रह जाता और वह वाच्यार्थ का अंग हो जाता है।
अस्फुट व्यंग्य - 'संधि करने में सर्वस्व छिनता है और विग्रह करने में प्राणों का भी निग्रह होता है। अलाउद्दीन के साथ न तो संधि हो सकती है और न विग्रह।'2
'अलाउद्दीन के साथ केवल साम और दाम से काम बन सकता है' व्यंग्य है जो स्पष्ट नहीं है। उपमा अथवा दीपक तुल्ययोगिता इत्यादि में होनेवाला व्यंग्यसादृश्य गुणीभूत व्यंग्य का उदाहरण होगा ध्वलनि का नहीं।
जहाँ गुणीभूत व्यंग्य रस का अंग होता है वहाँ पूरा पद्य ध्व्नियुक्त माना जाता है। किंतु जहाँ यह रस का अंग नहीं होता प्रत्युत (नगरादि) के वर्णनों आदि का अंग होता है, वहाँ गुणीभूत व्यंग्य या माध्यहम काव्य होता है, जैसे-
जिस नगरी के ऊँचे-ऊँचे प्रासादों में जड़े लाल मणियों का गगनचुंबी प्रकाश यौवन मद से मत्त रमणियों को बिना संध्या्काल के ही संध्या का भ्रम उत्पन्न करके कामकलाओं से पूर्ण भूषणादिरचना में प्रवृत्त करता है।3
काव्य का तीसरा भेद जिसे चित्र कहते हैं, अस्वीकार कर दिया गया है।