नवाँ दृश्य / अंक-3 / संग्राम / प्रेमचंद

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स्थान : गुलाबी का मकान।

समय : संध्या, चिराग जल चुके हैं, गुलाबी संदूक से रूपये निकाल रही है।

गुलाबी : भाग जाग जाएंगे। स्वामीजी के प्रताप से यह सब रूपये दूने हो जाएंगे। पूरे तीन सौ रूपये हैं। लौटूंगी तो हाथ में छ: सौ रूपये की थैली होगी। इतने रूपये तो बरसों में भी न बटोर पाती। साधु-महात्माओं में बड़ी शक्ति होती है। स्वामीजी ने यह मंत्र दिया है। भृगु के गले में बांध दूं। फिर देखूं, यह चुड़ैल उसे कैसे अपने बस में किये रहती है। उन्होंने तो कहा है कि वह उसकी बात भी न पूछेगी। यही तो मैं चाहती हूँ । उसका मानमर्दन हो जाये, घमंड टूट जाये। (भृगु को बुलाती है।) क्यों बेटा, आजकल तुम्हारी तबीयत कैसी रहती है ? दुबले होते जाते हो?

भृगु : क्या करूं ? सारे दिन बही खोले बैठे-बैठे थक जाता हूँ। ठाकुर कंचनसिंह एक बीड़ा पान को भी नहीं पूछते। न कहीं घूमने जाता हूँ, न कोई उत्तम वस्तु भोजन को मिलती है। जो लोग लिखने-पढ़ने का काम करते हैं उन्हें दूध, मक्खन, मेवा-मिसरी इच्छानुकूल मिलनी चाहिए । रोटी, दाल, चावल तो मजदूरों का भोजन है। सांझ-सबेरे वायु-सेवन करना चाहिए । कभी-कभी थियेटर देखकर मन बहलाना चाहिए । पर यहां इनमें से कोई भी सुख नहीं यही होगा कि सूखते-सूखते एक दिन जान से चला जाऊँगी।

गुलाबी : ऐ नौज बेटा, कैसी बात मुंह से निकालते हो ? मेरे जान में तो कुछ फेर-फार है। इस चुड़ैल ने तुम्हें कुछ कर-करा दिया है। यह पक्की टोनिहारी है। पूरब की न है। वहां की सब लड़कियां टोनिहारी होती हैं।

भृगु : कौन जाने यही बात हो, कंचनसिंह के कमरे में अकेले बैठता हूँ तो ऐसा डर लगता है जैसे कोई बैठा हो, रात को आने लगता हूँ तो फाटक पर मौलसरी के पेड़ के नीचे किसी को खड़ा देखता हूँ। कलेजा थर-थर कांपने लगता है। किसी तरह चित्त को ढाढ़स देता हुआ चला आता हूँ। लोग कहते हैं, पहले वहां किसी की कबर थी।

गुलाबी : मैं स्वामीजी के पास से यह जंतर लायी हूँ। इसे गले में बांध लो, शंका मिट जाएगी। और कल से अपने लिए पाव-भर दूध भी लाया करो। मैंने खूबा अहीर से कहा है। उसके लड़के को पढ़ा दिया करो, वह तुम्हें दूध दे देगा।

भृगु : जंतर लाओ मैं बांध लूं, पर खूबा के लड़के को मैं न पढ़ा सकूंगा। लिखने-पढ़ने का काम करते-करते सारे दिन यों ही थक जाता हूँ। मैं जब तक कंचनसिंह के यहां रहूँगा, मेरी तबीयत अच्छी न होगी। मुझे कोई दुकान खुलवा दो।

गुलाबी : बेटा, दुकान के लिए तो पूंजी चाहिए । इस घड़ी तो यह तावीज बांध लो।फिर मैं और कोई जतन करूंगी। देखो, देवीजी ने खाना बना लिया ? आज मालकिन ने रात को वहीं रहने को कहा है।

भृगु जाता है और चम्पा से पूछकर आता है गुलाबी चौके में जाती है।

गुलाबी : पीढ़ा तक नहीं रखा, लोटे का पानी तक नहीं रखा । अब मैं पानी लेकर आऊँ और अपने हाथ से आसन डालूं तब खाना खाऊँ । क्यों इतने घमंड के मारे मरी जाती हो, महारानी ? थोड़ा इतराओ, इतना आकाश पर दिया न जलाओ।

चम्पा थाली लाकर गुलाबी के सामने रख देती है। वह एक कौर उठाती है और क्रोध से थाली चम्पा के सिर पर पटक देती है।

भृगु : क्या है, अम्मां ?

गुलाबी : है क्या, यह डाकून मुझे विष देने पर तुली हुई है। यह खाना है कि जहर है ? मार नमक भर दिया । भगवान् न जाने कब इसकी मिट्टी इस घर से उठाएंगी। मर गए इसके बाप-चचा। अब कोई झांकता तक नहीं जब तक ब्याह न हुआ था।, द्वार की मिट्टी खोदे डालते थे।इतने दिन इस अभागिनी को रसोई बनाते हो गए, कभी ऐसा न हुआ कि मैंने पेट भर भोजन किया हो, यह मेरे पीछे पड़ी हुई है?

भृगु : अम्मां, देखो सिर लोहूलुहान हो गया । जरा नमक ज्यादा ही हो गया तो क्या उसकी जान ले लोगी। जलती हुई दाल डाल दी। सारे बदन में छाले पड़ गए। ऐसा भी कोई क्रोध करता है।

गुलाबी : (मुंह चिढ़ाकर) हां-हां, देख, मरहम-पट्टी कर। दौड़ डाक्टर को बुला ला, नहीं कहीं मर न जाए। अभी लौंडा है, त्रिया-चरित्र देखा कर । मैंने उधर पीठ फेरी, इधर ठहाके की हंसी उड़ने लगेगी। तेरे सिर चढ़ाने से तो इसका मिजाज इतना बढ़ गया है। यह तो नहीं पूछता कि दाल में क्यों इतना नमक झोंक दिया, उल्टे और घाव पर मरहम रखने चला है। (झमककर चली जाती है।)

चम्पा : मुझे मेरे घर पहुंचा दो।

भृगु : सारा सिर लोहूलुहान हो गया । इसके पास रूपये हैं, उसी का इसे घमंड है। किसी तरह रूपये निकल जाते तो यह गाय हो जाती।

चम्पा : तब तक तो यह मेरा कचूमर ही निकाल लेंगी।

भृगु : सबर का फल मीठा होता है।

चम्पा : इस घर में अब मेरा निबाह न होगी। इस बुढ़िया को देखकर आंखों में खून उतर आता है।

भृगु : अबकी एक गहरी रकम हाथ लगने वाली है। एक ठाकुर ने कानों की बाली हमारे यहां गिरों रखी थी। वादे के दिन टल गयेब ठाकुर का कहीं पता नहीं । पूरब गया था। न जाने मर गया या क्या ! मैंने सोचा है तुम्हारे पास जो गिन्नी रखी है उसमें चार-पांच रूपये और मिलाकर बाली छुड़ा लूं । ठाकुर लौटेगा तो देखा जाएगी। पचास रूपये से कम का माल नहीं है।

चम्पा : सच !

भृगु : हां अभी तौले आता हूँ। पूरे दो तोले है।

चम्पा : तो कब ला दोगे ?

भृगु : कल लो। वह तो अपने हाथ का खेल है। आज दाल में नमक क्यों ज्यादा हुआ ?

चम्पा : सुबह कहने लगीं, खाने में नमक ही नहीं है। मैंने इस बेला नमक पीसकर उनकी थाली में उसपर से डाल दिया कि खाओ खूब जी भर के । वह एक-न -एक खुचड़ निकालती हैं तो मैं तो उन्हें जलाया करती हूँ।

भृगु : अच्छा, अब मुझे भी भूख लगी है, चलो।

चम्पा : (आप-ही-आप) सिर में जरा-सी चोट लगी तो क्या, कानों की बालियां तो मिल गयीं ? इन दामों तो चाहे कोई मेरे सिर पर दिन-भर थालियां पटका करे।

प्रस्थान।