नसीर और ओम / व्यक्तिश: / नैनसुख / सुशोभित

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नसीर और ओम
सुशोभित


नसीरुद्दीन शाह और ओम पुरी की मित्रता के अनेक स्तर-उपस्तर रहे हैं। इन दोनों ने गुरबत के दिन साथ-साथ देखे, कुछ कर गुज़रने के सपने साथ-साथ सँजोए, दुःख-सुख में वे साथ रहे, फिर आगे चलकर समान्तर सिनेमा आन्दोलन के प्रतिनिधि चेहरे भी वे बने। उनकी मैत्री के निजी-पेशेवर अनेक पहलू हैं, इतिहास के एक चक्र में सहभागी होने की नियति के साथ। नसीर और ओम दोनों मध्यवर्गीय परिवारों से आए थे। मामूली नाक-नक़्श वाले। शबाना आज़मी ने प्रारम्भिक दिनों में उन्हें देखकर कुछ इस आशय की टिप्पणी की थी कि "कैसे-कैसे लोग हीरो बनने चले आते हैं।”कई बरस तक नसीर और ओम उस बात को याद कर ठहाका लगाते रहे थे।

दिल्ली के एन.एस.डी. में वे सहपाठी रहे। फिर पुणे के एफ़.टी.आई.आई. में भी साथ पढ़े। ओम हमेशा नसीर के अनुज की तरह रहे, उनके परिपूरक और स्थानापन्न। नसीर को फ़िल्मों में ओम से पहले ब्रेक मिला और तुरंत उन्हें सराहा गया। ओम को देर से अवसर मिले और अपनी जगह बनाने में भी उन्हें अपेक्षाकृत अधिक वक्त लगा। लेकिन पूरे समय जैसे नसीर का अदृश्य हाथ ओम की पीठ पर बना रहा था। अपनी आत्मकथा में नसीर स्वयं और दूसरों के प्रति अत्यंत कठोर रहे हैं, लेकिन ओम का उल्लेख हर बार उन्होंने अत्यंत स्नेह के साथ किया है। उन्होंने यह स्वीकारने तक में संकोच नहीं किया है कि ओम उनके लिए प्रेरणा रहे हैं। उन्होंने लिखा है कि एन.एस.डी. में तीन साल गुज़ारने के बाद मैंने पाया कि इस दौरान केवल मेरे दम्भ में ही इज़ाफ़ा हुआ है, जबकि दूसरी तरफ़ ओम ने अपने को एक अभिनेता के रूप में बहुत अच्छी तरह से तैयार किया। इसने नसीर को लगभग बेचैन कर दिया था, ईर्ष्या ने नहीं बल्कि आत्म-परिष्कार की भूख ने। इसी के लिए उन्होंने रेपर्टरी कम्पनी ज्वॉइन की, इब्राहिम अलकाज़ी और सत्यदेव दुबे के थिएटर में वे सक्रिय हुए, फिर एफ़.टी.आई.आई. चले गए। ओम हर मुक़ाम पर उनके साथ रहे।

एफ़.टी.आई.आई. में जब नसीर के नेतृत्व में छात्रों ने हड़ताल की, तो ओम उनके निकटतम और नि:स्वार्थ सहयोगी थे। 'मंथन' की शूटिंग के दौरान नसीर पर प्राणघातक हमला हुआ था। हमलावर थे राजेंद्र जसपाल ('अरविंद देसाई की अजब दास्तान' वाले)। वह नसीर की सफलता से ईर्ष्या और कुंठा से घिर गए थे। हमले के दौरान ओम नसीर के साथ थे। वही उन्हें अस्पताल ले गए, उनकी सेवा-सुश्रूषा की। नसीर आज भी यह कहने से झिझकते नहीं कि अगर उस दिन ओम न होते, तो वह शायद बच नहीं पाते। प्रारम्भ में ओम को छोटे-मोटे रोल मिलते थे। स्वयं नसीर की अनेक फ़िल्मों ('स्पर्श', 'अल्बर्ट पिंटो', 'भवनी भवई', 'पार' आदि) में ओम की छोटी-मोटी भूमिकाएँ हैं। 'स्पर्श' में नसीर केन्द्रीय भूमिका में थे, ओम के खाते में एक-दो दृश्य ही आए, पर उन्होंने अपनी छाप छोड़ी। यही कथा 'आक्रोश' की भी थी। ओम की भूमिका गौण थी, लेकिन फ़िल्म में उनके द्वारा प्रदर्शित आदिम, खुरदुरे क्षोभ से वह अपना प्रभाव स्थापित करने में सफल रहे। 'अर्द्धसत्य' के बाद यह परिपाटी जैसे उलटती हुई नज़र आती है। उस फ़िल्म में अब ओम मुख्य भूमिका में आ गए थे और नसीर की भूमिका गौण थी। 'अर्द्धसत्य' में एक दृश्य है, जिसमें ओम नसीर का उधार चुकाते हैं। लगता है जैसे इस दृश्य का एक प्रतीकात्मक महत्त्व भी है। इस फ़िल्म में जैसे ओम ने सचमुच नसीर का क़र्ज़ा चुका दिया था और फिर स्वयं समान्तर सिनेमा के केन्द्रीय अभिनेता बनने की ओर सधे हुए क़दम बढ़ा लिए थे।

1980 से 1985 के बीच के छह वर्षों में एक दौर ऐसा था, जब सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के चार राष्ट्रीय पुरस्कार नसीर और ओम ने आपस में बांट लिए थे, नसीर ने 'स्पर्श' और 'पार' के लिए, ओम ने 'अर्द्धसत्य' और 'आरोहण' के लिए। शायद, तब किसी शाम नसीर और ओम साथ-साथ बैठें हों और एन.एस.डी. के दिनों के अपने संघर्षों और सपनों को एक मीठे नॉस्टेल्जिया के साथ याद किया हो। दोनों में से निश्चित ही नसीर अधिक पूर्ण अभिनेता हैं, जैसे बाद के बरसों में इरफ़ान नवाजुद्दीन की तुलना में अधिक परिपक्व और बहुआयामी साबित हुए थे। लेकिन ओम में एक ख़ास क़िस्म की बनैली लपट है, तीक्ष्णता है। कुछ चरित्र ऐसे हैं, जिन्हें केवल और केवल वही निभा सकते थे।

नसीर और ओम समान्तर सिनेमा में एक-दूसरे के परिपूरक की तरह थे। बाद के बरसों में ओम अधिक रंग में आते गए। बाज़ दफ़े तो ऐसा भी हुआ, जब उन्होंने नसीर को निष्प्रभ भी कर दिया। इसकी बाक़ायदा शुरुआत 'अर्द्धसत्य' से हुई थी और 'मक़बूल' को आप इस परिघटना का एक ग़ौरतलब पड़ाव मान सकते हैं।