नारी और राजकपूर / राजकपूर सृजन प्रक्रिया / जयप्रकाश चौकसे
जयप्रकाश चौकसे
राजकपूर नारी को सृष्टि की सुन्दरतम रचना मानते थे, इसलिए प्यार भी करते थे। उनका पहला प्यार नारी से था या सिनेमा से यह मुर्गी और अंडे में से पहले कौन आया-सवाल की तरह अन्तहीन बहस है। इतना तय है कि राजकपूर नारी के मामले में लम्पट नहीं थे जैसे कि आजकल के युवा-प्रेमी 'बैंग-बैंग, थैंक यू मेम' को ही अपना जीवन-दर्शन समझते हैं। राजकपूर ने नारी को जयशंकर प्रसाद की तरह आदर तथा श्रद्धा का आसन दिया है।
जोकर के तीसरे भाग के एक दृश्य में कुमार (राजेन्द्र कुमार) साहब राजू (राजकपूर) से सवाल पूछते हैं, 'क्या आप मीना (पद्मिनी) से प्यार करते हैं?'
राजू-'सवाल यह नहीं है कुमार साहब...। सवाल है क्या मैं प्यार करता हूँ। जी हाँ, मैं प्यार करता हूँ इस दुनिया से, बच्चों से, बूढ़ों से, फूलों से, पत्थरों से, नदियों से...।'
'कुमार-क्या इन फूल, पत्थरों में मीना नाम की लड़की भी है?'
प्यार था। औरत को वे सृष्टि की राजकपूर को दुनिया की हर चीज से बहुत इसलिए प्यार भी करते 'काश! मैं इतना सुन्दर सुन्दरतम रचना मानते थे थे। अपनी पहली फिल्म आग में उन्होंने एक संवाद कहा है, न होता और इतनी आसानी से औरतों की ओर आकर्षित न होता और काश! मुझे नाटक (सिनेमा) का इतना शौक न होता।'
राजकपूर का पहला प्यार औरत से था या सिनेमा से यह प्रश्न उतना ही उलझा हुआ है, जितना कि पहले मुर्गी हुई या अंडा। राजकपूर ने जब से होश सँभाला, तब से प्रेम करना आरम्भ किया, परन्तु वे लम्पट नहीं थे। होश सँभालने की उम्र से भी थोड़ा पहले उन्होंने फिल्म और नाटक के विज्ञापन काटकर एक कॉपी में चिपकाना प्रारम्भ किया था और यह स्क्रेप-बुक आज भी श्रीमती कृष्णा कपूर के पास सुरक्षित है। सिनेमा और औरत से इश्क कमोबेश उन्होंने साथ-साथ ही शुरू किया।
सन् 1986 में एक दिन राजकपूर ने उन हल्के अमेरिकन शब्दों (स्लेंग) की ओर ध्यान आकृष्ट किया, जो आज की युवा पीढ़ी अपने प्यार के वर्णन में प्रयुक्त करती है-'बैंग', 'स्कू' इत्यादि। उनका कहना था कि इन शब्दों के अर्थ और ध्वनि पर अगर यकीन करें, तो आजकल प्यार करना सिर्फ लुहारों या लकड़हारों का कार्य रह जाता है। राजकपूर के लिए प्रेम करना कविता लिखने की तरह था। प्रेम, औरत और प्रकृति के प्रति राजकपूर का दृष्टिकोण छायावादी कवियों की तरह था। औरत के जिस्म के रहस्य से ज्यादा रुचि राजकपूर को उसके मन की थी। वह यह भी जानते थे कि कन्दराओं की तरह गहन औरत के मन की थाह पाना मुश्किल है, परन्तु प्रयत्न परिणाम से ज्यादा आनन्दायी था। उन्हें आज की पीढ़ी का 'बैंग बैंग, बैंक यू मेम' वाला दृष्टिकोण समझ में नहीं आता था। राजकपूर ने जिस युग में जवानी की दहलीज पर कदम रखा था, तब कोर्टशिप को कला का दर्जा हासिल था। यह अजीब इत्तफाक है कि जब राजकपूर जवान हुए, तो वह 'समर ऑफ फोर्टी टू' था-आँकड़ों की दृष्टि से भी। 'समर ऑफ 42' अंग्रेजी की एक ऐसी फिल्म है, जिसमें किशोरावस्था और प्रेम का काव्यमय वर्णन है। दरअसल हर युवा के जीवन में 'समर ऑफ 42' होता है, चाहे वह 2010 में ही क्यों न हो।
सौंदर्य से राजकपूर का पहला परिचय उनकी माता रमा सरनी के माध्यम से हुआ। उनकी माता अत्यन्त सुन्दर थीं। उनका बेदाग सौंदर्य शीतलता प्रदान करनेवाला शास्त्रीय सौंदर्य था। उसमें आग नहीं, आशीर्वाद था। कुछ महिलाओं का सौंदर्य ऐसा होता है कि बलात्कार करने का मन चाहे और कुछ का सौंदर्य ऐसा होता है कि मन में अपार आदर पैदा हो। रमा देवी का सौंदर्य आदरवाला था। आग में कमलकपूर को यह पसन्द नहीं था कि उनकी पत्नी उनके बच्चे पर ज्यादा ध्यान दे और उसे ज्यादा समय भी दे। राजकपूर के मन में भी ऐसी ही धारणा बन गई थी, परन्तु यह राजकपूर का बचपना था।
सौंदर्य एवं संगीत की राजकपूर की पहली गुरु माँ रथा सरनी देवी कर्नल ब्राउन स्कूल में अध्ययन
राजकपूर ने देहरादून के किया था। 'जोकर' के पहले भाग की प्रेरणा वहीं से मिली है। राजकपूर ने कई बार उस सुन्दर महिला का भी जिक्र किया है, जो कलकत्ता में पृथ्वीराज की दी हुई दावत में पधारी थीं और किशोर राज के मन पर सफेद साड़ी में लिपटे हुए दैवी सौंदर्य की अमिट छाप छोड़ गई थीं। राजकपूर के मन से उस सजातीय बाला की छवि भी नहीं मिटी, जिसके साथ उनका विवाह सिर्फ इसलिए नहीं हो पाया कि कन्या के पिता को ऐसा दामाद नहीं चाहिए था, जो दिन-रात फिल्म के सपने देखे और पितृभक्त कन्या ने भी उन्हें ठेंगा दिखाकर कहा था, 'ये गलियाँ, ये चौबारा, यहाँ आना न दोबारा'। उस कन्या के अक्खड़पन और भोलेपन को राजकपूर ने मनोरमा (प्रेमरोग) के पात्र में प्रस्तुत किया था। उसी कन्या से दुबारा मिलने के लिए पृथ्वीराज ने उन्हें कश्मीर का खर्च नहीं दिया था और राज ने 'दुखियारा जीव' गाकर भीड़ लगा ली थी। इसके बाद वे कश्मीर भी गए और कन्या के हाउस बोट के पास डेरा भी डाला।
इसके बाद हेमवती से प्यार का प्रसंग चला, परन्तु हेमवती ने अभिनेता सप्रू से विवाह किया। बाद में डिड्डो के साथ प्रेम हुआ और कई फिल्में उनके साथ देखीं-हर शो में देर से प्रवेश करना और खत्म होने के पहले ही बाहर आ जाना, ताकि कोई जान-पहचानवाला देख नहीं सके। इन बातों का अर्थ यह निकलता है कि राजकपूर के प्रेम-प्रसंग होते रहते थे। राजकपूर इस कदर प्रेमल व्यक्ति थे कि बिना प्यार के जीवन की यात्रा दो कदम भी नहीं चल पाते थे। परन्तु यह प्यार उस अर्थ में नहीं लिया जा सकता, जिसमें आज की पीढ़ी 'बैंग बैंग, थैंक यू मेम' करती है। उन दिनों राजकपूर के लिए प्यार का अर्थ था, लड़की के कान में कविताएँ फूँकना। जूड़े में फूल लगाना। चाँदनी रात में नौका विहार करना अर्थात् उस जमाने के छायावादी किताबी इश्क को जीना। प्रेमाकुल लड़की के होंठों की थरथराहट से आत्मा में संगीत बज उठता था। प्रेम का यह पार्श्व संगीत ही प्रेम का पावना था- आज के सन्दर्भमें 'फुल एंड फाइनल पेमेंट ऑफ लव'। शरत, टैगोर, शैली, प्रसाद, पन्त और कीट्स के द्वारा रचे गए काल्पनिक संसार में भ्रमण कर प्रेमी निहाल हो जाता था।
प्रेम की पगडंडी पर चलते-चलते राजकपूर एकाएक विवाह की सड़क पर आ गए। पृथ्वीराज ने महसूस किया कि राज को कुछ समय के लिए बम्बई से बाहर भेज दिया जाए। उन्हें रीवां भेजा गया, जहाँ पृथ्वीराज के रिश्तेदार पुलिस के उच्चतम अधिकारी थे। उस समय तक पृथ्वी थियेटर में प्रेमनाथ से राजकपूर की मित्रता हो गई थी। रीवां पहुँचते ही राजकपूर ने अपने रिश्तेदार के घर के बाहर सितार की ध्वनि सुनी। घर में कदम रखते ही उन्होंने देखा कि सफेद साड़ी पहने एक अत्यन्त सुन्दर कन्या सितार बजा रही है। पैदाइशी रोमांटिक और कवि स्वभाववाले राजकपूर को लगा कि रवि वर्मा की पेंटिंग जीवित हो उठी है। कुमारी कृष्णा ने निगाह उठाई और एक अत्यन्त गोरे-चिट्टे और सुनहरे बालोंवाले युवक को अपनी ओर ताकते पाया। युवक की आँखों का रंग जाने कैसा तो है। उन्हें लगा, वह जो राग बजा रही थीं, उसका साकार पुरुष रूपान्तर सामने खड़ा है। पहली नजरवाले प्यार के एक क्षण में बयालीस वर्षों के लिए एक अटूट रिश्ता बन गया। 12 मई, 1946 को राजकपूर और कृष्णाजी का विवाह हुआ।
राजकपूर का यह पहला प्यार नहीं था, परन्तु पहली और आखिरी शादी थी। इस अडिग विवाह के कारण ही कोई और रिश्ता कभी परवान नहीं चढ़ पाया।
राजकपूर के मन में प्लेटॉनिक (वायवी) प्रेम और शरीर के स्तर पर किए गए प्रेम का द्वन्द्व हमेशा रहा है और 'बरसात' में उन्होंने इसे मूल कथा के रूप में प्रस्तुत किया है। राजकपूर आत्मा से प्यार करते हैं और प्रेमनाथ नारी शरीर के परे कुछ देख नहीं सकते। इसी फिल्म में एक बहुत ही मार्मिक दृश्य है। प्रेमनाथ अपने प्रेम से पीड़ित मित्र को तवायफ के यहाँ ले जाते हैं। भावुक कवि हृदय नायक तवायफ से पूछता है कि वह जिस्म क्यों बेचती है। भीतर से बच्चे के रोने की आवाज आती है। तवायफ के चेहरे पर ममता उभर आती है और नायक उसके चरणों में रुपए रखकर बाहर आ जाता है। जीवन में बहुत लम्बे समय तक राजकपूर का औरत के प्रति यही दृष्टिकोण रहा है-एक कवि का दृष्टिकोण।
राजकपूर और श्रीमती कृष्णा तूफान के बाद शाति
राजकपूर के जीवन में औरत के प्रति जो दृष्टिकोण रहा है, वही दृष्टिकोण उनकी फिल्मों में भी नजर आता है और परिवर्तन का ग्राफ भी हकीकत और अफसाने में एक-सा रहा है। 'आवारा' की रीता नायक को अपराध के दलदल से बाहर निकलने के लिए प्रेरित करती है। रीता अपने प्रेमी के लिए अपने पिता-तुल्य गुरु से टकरा जाती है और जब रघुनाथ को गवाह के कटघरे में खड़ा होना पड़ता है। इतना ही नहीं जज रघुनाथ को मन की अदालत में बतौर मुजरिम हाजिर होना पड़ता है। एक तरफ औरत नायक को प्रेरित करती है, तो दूसरी ओर नायक के प्यार के सहारे मौजूदा व्यवस्था को चुनौती भी देती है। राजकपूर के लिए औरत वह धुरी रही है, जिस पर और जिसके लिए सारा संसार घूमता है। आज की फिल्म समीक्षा के मुहावरे में आवारा को 'हीरोइन ओरिएंटेड' विषय नहीं कहा जा सकता, परन्तु नायिका के बिना आवारा का उद्धार नहीं हो सकता। आवारा के एक दृश्य में नायिका नायक का बचाव करते हुए अपने गुरु और पिता-तुल्य जज रघुनाथ को साफ कहती है कि अगर कानून राज को निरपराध नहीं मानता, तो उसका दिल भी किसी कानून को नहीं मानता। इसी दृश्य में नायक जज पर चाकू का वार करना चाहता है, परन्तु उसका हाथ दीवार पर लगी नायिका की तस्वीर से टकराता है और मौके का फायदा उठाकर जज रघुनाथ उससे चाकू छीनकर उसे मारना चाहते हैं कि नायिका उनका हाथ पकड़ लेती है। एक को नायिका की तस्वीर ने बचाया और दूसरे को स्वयं नायिका ने। राजकपूर की हकीकत और अफसाने दोनों ही में नायिका जीवन देनेवाली शक्ति है।
आवारा के प्रेम-दृश्य चर्चा के विषय थे, क्योंकि भारतीय रजतपट पर पहली बार नायक, नायिका को झंझोड़ता है, बाँह मरोड़ता है, पैर पकड़कर खींचता है और जंगली-आवारा कहे जाने पर लगभग मार ही डालता है। हिन्दी फिल्म की छुई मुई नायिका के साथ ऐसा आदिम व्यवहार पहले कभी नहीं हुआ था। बसन्त पोद्दार ने तो लिखा है कि हमारी पीढ़ी ने प्यार की अनुभूति राजकपूर से सीखी। यौवन की शिक्षा ही आवारा के समुद्र तट सीन से शुरू हुई। नरगिस के कपड़े बदलने के बाद राज ने तौलिया हटाया, और न हटाता, तो भी अनर्थ हो जाता।
नायक को इस बात का अहसास पूरी शिद्दत से है कि उसका बचपन अभाव और अपराध के वातावरण में गुजरा और उसे समान अवसर नहीं मिला। जब भी कोई उसे जंगली-आवारा कहता है, तब वर्षों से संचित अवहेलना की भट्टी में तपी हुई नफरत विध्वंसक शक्ति बनकर उभरती है। यह अन्धा गुस्सा लिंग भेद नहीं जानतां अतः नायिका भी पिटती है। यह प्यार का आदिम स्वरूप डरावना नहीं वरन् सेन्सुअल है। यह 'इरोटिक' भी नहीं है। छायावादी कवि, प्रगतिशील गीत लिख बैठा है।
श्री 420 की टीचर विद्या आजादी के बाद आजादी के पहले की आदर्शवादी-गांधीवादी महिला है। निहायत ही जानलेवा गरीबी भी उसको तोड़ नहीं सकती। नायक कस्बेनुमा शहर से आया है और महानगर की चकाचौंध में उसके जीवन-मूल्य खो गए हैं और बेईमानी के पैसे से वह अपना ईमानदारी का मैडल रद्दीवाले के यहाँ से छुड़ा सकता है। शराब से ज्यादा कामयाबी के नशे में धुत नायक पूँजीवादी मुखौटों को तोड़ देता है, 'गरीब से कहते हैं रूखी-सुखी खाकर जिन्दा रहो...। ईमानदारी का उपदेश हमेशा गरीब के लिए क्यों? दया, धर्म, पवित्रता के घोंसले से बाहर आकर देखो दुनिया सोने की चिड़िया का नाम है।' वह नोटों का ढेर लगाता है और नायिका जीवन और दौलत की क्षणभंगुरता की बात करती है, 'किस्मत की आँधी इन टुकड़ों को बहा ले जाएगी और तुम बेईमानी के कीचड़ में धँसते चले जाओगे- मैं इस अपराध में तुम्हारा साथ नहीं दूँगी।' आवारा की रीता की तरह श्री 420 की विद्या भी नायक को अपराध के दलदल से निकलने की प्रेरणा देती है। आवारा में नायिका, नायक के युद्ध में शामिल है और लड़ती भी है, परन्तु श्री चार सौ बीस में वह प्रेरणा देते हुए भी स्वयं नहीं लड़ती, क्योंकि मास्टर सैनिक तैयार कर सकते हैं, खुद तलवार लेकर लड़ने नहीं जाते। विद्या नाराज होने से ज्यादा दुखी है। दरअसल 'श्री 420' की नायिका अनन्य प्रेमिका है-उसका पोर-पोर प्रेम रस से पगा है। इस फिल्म का गीत 'प्यार हुआ इकरार हुआ' को दुनिया भर के समीक्षकों ने बहुत पसन्द किया है, परन्तु इस गीत का वर्णन प्रोफेसर आर.एस. यादव 'अजातशत्रु' ने उतना ही उच्चकोटि का किया है, जितना कि राजकपूर ने इसे रचा है। यह पहला और शायद आखिरी अवसर है, जब सर्जक और समीक्षक समान ऊँचाई पर खड़े हैं। अजातशत्रु कहते हैं, 'प्यार हुआ इकरार हुआ, विश्व सिनेमा में अपना स्थान रखनेवाली घटना है। उसे देखकर साफ लगता है कि राजकपूर एक संवेदनशील इन्सान था और संगीत-बोध के साथ उसका दृश्य-बोघ एक जीनियस के रचनात्मक अवचेतन से उत्पन्न होता था। याद कीजिए बरसात, पानी के झपाटे, गीला वातावरण, बारिश में भीगते लैम्पपोस्ट, चाय की केतली से निकलती भाप, आग में पानी का संकेत, प्रेमानन्द के कष्ट से नरगिस के थरथराते होंठ और आँख से बहते प्रेमाश्रु। लगता है राजकपूर का प्रेमी कलाकार और निर्देशक दुनियावी लॉजिक की फ्रेम को तोड़कर समस्त कष्टप्रद आनन्दानुभूति को किसी वैदेहिक माहौल में पहुँचा देना चाहता है। इस गीत और दृश्य की पीड़ा-पानी में आग का संगम शायद शब्दों से परे की चीज है। कई बार मुझे लगता है कि राजकपूर और जॉन कीट्स की सेन्सुअसनेस को अनुभूतने के लिए अभी वक्त लगेगा और फिल्मी समीक्षा का मुहावरा विकसित होना अभी बाकी है।' अजातशत्रु के फिल्म पर लिखनें से समीक्षा के मुहावरे का विकास प्रारम्भ हो चुका है।
कुछ महीनों बाद नायक एक सफल और अमीर आदमी हो चुका है और नायिका से उसी फुटपाथ पर, उसी चाय की दुकान पर मिलता है। आज नायिका के पास दो आने भी नहीं हैं, परन्तु उसने अपने जीवन-मूल्य को अपनी साड़ी के आँचल की तरह ही सँभालकर रखा है और वह कहती है, 'तुम्हें क्या हक था, मेरी गृहस्थी उजाड़ने का, मेरे बच्चे मुझसे छीनने का? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था? झूठी शान के लिए तुमने मुझे क्यों बर्बाद किया? नायिका उस गृहस्थी की बात कर रही है, जो नायक के भ्रष्ट होने के कारण बस ही न सकी, उन बच्चों की बात कर रही है, जो पैदा नहीं हो पाए। नायिका ने नायक के मन में परिवर्तन की प्रक्रिया आरम्भ कर दी। नायक घर आता है। सूट-बूट पहनकर आदमकद आईने के सामने खड़ा होता है। आईने में उसकी गरीबीवाली छवि दिखाई पड़ती है। उसके ठाठ-बाट के लिए मुबारकबाद देती है, परन्तु नायक दुखी है। बेईमानी से कमाए हुए धन ने उसे उसका घर परिवार छीन लिया है। परिवर्तन का चक्र तेजी से घूमता है। इस आईनेवाले दृश्य को मामूली हेर-फेर के साथ बहुत-सी फिल्मों में दिखाया गया है। दिलीप कुमार ने 'कोहिनूर' में और अमिताभ ने अमर अकबर एंथोनी में।
राजकपूर का औरतों के प्रति कविवाला दृष्टिकोण बहुत वर्ष कायम रहा। 'जिस देश में गंगा बहती है' से फिल्म के अमर साहित्यकार राजकपूर ने गद्य लिखना आरम्भ किया। कविता का दौर खत्म हुआ। प्रेमल राजकपूर मांसल हो गए। अब उन्हें आत्मा की गहराई में पहुँचने की चाह नहीं रही। 'जिस देश' तक आते-आते राजकपूर के लिए औरत की कविता, इतिहास की बात हो गई और औरत का भूगोल महत्त्वपूर्ण हो गया। इस वक्त तक नेहरू युग का भी लगभग अन्त हो चुका था। अतः आजाद भारत के प्रतिनिधि फिल्मकार राजकपूर का नजरिया भी बदलना ही था। मांसलता के इस दौर में भी कहीं-कहीं कवि जाग गया है और उसने नायिका की वेणी सजाने की कोशिश की है। नायिका उसे बन्दूक चलाना सिखा रही है और वह दुनाली में आँख लगाकर कहता है- 'कम्मोजी, मुझे तो जगह-जगह फूल ही नजर आते हैं।' कवि अभी भी जीवित है, पर इस फिल्म में आर.के. की नायिका की छवि बदली है। वह नायक को प्रेरित नहीं करती। नायक उसे प्रेरित करता है और दोनों कसम खाते हैं 'डाकुओं की जून सुधारने की।' अभी तक राजकपूर की नायिका नाचती कम थी, नचाती ज्यादा थी, परन्तु 'जिस देश' की नायिका की आत्मा तो उसके थिरकते पैरों में है। यह दौड़ रही है और पैर पर डफ लग गया। उसने बदले की कार्रवाई की और डफ को पीटने लगी। संगीत उत्पन्न हुआ, तो नाचने लगी। नायक रूठकर जा रहा है- 'बसन्ती पवन पागल' गाकर रोकने का प्रयास किया। वह नहीं रुका, तो देवी के सामने तांडव शुरू किया। नायक वापस आता दिखा, तो देवी से नृत्य के द्वारा ही क्षमा माँगी और आनन्द तांडव किया। जब नायिका की आत्मा उसके पैरों ही में है, तो नायक को झुकना लाजिमी हुआ। बसन्ती पवन पागल की धुन बरसात, आवारा, आह के पार्श्व संगीत में जगह-जगह बज चुकी थी।
राजकपूर के जीवन और सृजन में औरत के प्रति दृष्टिकोण का बदलना हिन्दी साहित्य के क्रम से संचालित नहीं हुआ। इसमें 'फ्लैश फारवर्ड' और 'फ्लैश बैक' बहुत है। फिल्म का एडिटिंग टेबल ही एकमात्र जगह है, जिसमें रील को उल्टा घुमाकर बाहर निकला हुए टूथपेस्ट ट्यूब में वापस डाला जा सकता है, सिगरेट का बाहर छोड़ा हुआ धुआँ, मुँह में वापस आ जाता है।
राजकपूर के भीतर रीतिकालीन कवि उनके छायावादी स्वरूप के बाद जाहिर हुआ। कम उम्र से ही आदतन इश्क में पड़ने की प्रवृत्ति के पीछे राधा, अनन्य प्रेमिका की तलाश तो थी और वह सारी उम्र रही। उम्र की ढलान पर उन्हें राधा मिल भी गई कृष्णा कपूर के व्यक्तित्व में-और इसका रहस्योद्घाटन भी, अन्य सभी चीजं की तरह राजकपूर को अपनी ही फिल्म में मिला- सत्यम् शिवम् सुन्दरम् में। सत्यम् का नायक काल्पनिक प्रेमिका के पीछे जंगलों में भटकता रहा और अन्तिम रील मे उसे मालूम पड़ा कि उसकी पत्नी ही उसकी प्रेमिका है, उसकी राधा है। कस्तूरी मृगवाला मामला है। मृग को कस्तूरी मिलने में तीस साल लग गए।
राजकपूर के अवचेतन पर तीसरे और चौथे दशक की तीन फिल्मों का प्रभाव बहुत गहरा था-विद्यापति, राजरानी मीरा और जोगन। उनके गुरु केदार शर्मा इन तीनों फिल्मों से जुड़े थे और अक्सर इनकी चर्चा भी करते थे। पृथ्वीराजकपूर का भी विद्यापति से सम्बन्ध था। राजकपूर के गुरु तो केदार शर्मा ही माने गए हैं, क्योंकि सबसे पहले उन्होंने ही मौका दिया था, परन्तु निर्देशन का गुण राजकपूर ने अमिय चक्रवर्ती के सहायक के रूप में सीखा था। उनके सिनेमाई काव्य में बंगाली प्रभाव स्पष्ट नजर आता है। 'जिस देश...' के निर्माणकाल के दरमियान ही भारत की फिल्मों में कलर आ चुका था। 'जिस देश' को रंगीन नहीं बनाने का मलाल तो राजकपूर को था ही, परन्तु रंगीन फिल्म बनाने का इरादा करते ही राजकपूर के जहन में राधा का नाम उभरा। रंग की बात करते ही भारतीय सर्जक के मन में राधा का ध्यान आना ही चाहिए। राजकपूर सीधे-सीधे राधा-कृष्ण तो बना नहीं सकते थे। यद्यपि प्रारम्भ ही में नारद की भूमिका (भालजी पेंढारकर की फिल्म वाल्मीकि) कर धार्मिक फिल्म का खेला तो वे समझ चुके थे।
रंग और राधा के विचार से उन्हें अपनी पहली पटकथा घरौंदा याद आई। लेखक इन्दरराज आनन्द उनके रिश्तेदार भी हैं। परम्परा बोध के कायल राजकपूर ने घरौंदा को नया नाम दिया संगम और पटकथा का नया संस्करण तैयार हुआ। कुछ लोगों को यह गलतफहमी है कि महबूब खान की अन्दाज का नया संस्करण संगम है। अन्दाज का उद्देश्य यह था कि पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से नारी के व्यवहार में खुलापन आता है, जिससे लोगों को गलतफहमी होती है। दिलीप और राज अन्दाज में बचपन के मित्र नहीं हैं। संगम एक अंग्रेजी कविता से प्रेरित पटकथा है।
संगम, राधा की तलाश का बहुत महत्त्वपूर्ण पड़ाव था, परन्तु कथा में दोस्ती के महत्त्व को बहुत प्रधानता दी गई थी। पटकथा के ताने-बाने इस ढंग से बुने थे कि राधा और रंग के साथ पूरा न्याय हो सके। प्रचार सामग्री में भी लिखा था 'पूर्व की तरह शाश्वत और पश्चिम की तरह नशीली।' फिल्म का कैनवास विशाल था, परन्तु राजकपूर भव्य दृश्यावली में गुम नहीं हुए। उन्होंने तीनों चरित्रों को पूरी तरह से विकसित किया और राधा को अत्यन्त स्नेह से सँवारा। शूटिंग के पहले नायिका को उबटन लगता था और दूध से नहलाया जाता था। राजकपूर ने जीवन, राजा की तरह नहीं, कवि की तरह जिया।
जोकर के तीन भागों में तीन असफल प्रेम प्रसंग हैं। पहली प्रेमकथा में नायक नायिका के बीच उम्र का अन्तर अवरोध बनता है- नायक सोलहं का और नायिका बाइस-चौबीस की। उम्र के सबसे नाजुक दौर का वर्णन राजकपूर ने कवि की तरह किया है और यह निर्देशक राजकपूर की अन्यतम रचना है। दूसरे भाग में नायक-नायिका के बीच भाषा और भौगोलिक सरहदें हैं। तीसरे भाग में नायिका इतनी महत्त्वाकांक्षी है कि सफलता के लिए प्रेम को ठुकरा देती है। पहले भाग में राजकपूर नायिका को कपड़े बदलते हुए दिखाते हैं, परन्तु पूरा प्रसंग इतने काव्यमय और सुन्दर ढंग से किया गया है कि कहीं किसी को बुरा नहीं लगता और सच तो यह है कि पूरा दृश्य ही पटकथा का आवश्यक भाग है-सन्दर्भ सही होने से नारी का शरीर पटकथा की नदी का सहज बहाव लगता है। जोकर के तीसरे भाग में 'अंग. लग जा बालमा' अश्लील लगता है, क्योंकि सन्दर्भ सही नहीं है। एक ही पटकथा के दो भागों में एक ही निर्देशक के दो रूप देखने को मिलते हैं-एक पटकथा की नदी में नारी के शरीर और आत्मा के दर्शन करता है, तो दूसरा नारी देह की नदी में कथा को डुबा देता है। एक तरह से जोकर में निर्देशक राजकपूर का औरतों के बारे में बदलते दृष्टिकोण का सारांश प्रस्तुत है। सन् 1947 से 1970 तक के तेइस वर्षों के सारे परिवर्तन का सार जोकर में प्रस्तुत है।
'जोकर' के बाद नायक राजकपूर ने फिल्मों को 'दसवीदानिया' कह दिया और अब केवल चरित्र भूमिका का स्वरूप उभरा और निर्देशक के रूप में चार सफल फिल्में अगले पन्द्रह वर्षों में बनाई। बॉबी, भारत की पहली किशोर प्रेमकथा है। आर.के. की नायिका का स्वरूप फिर बदला। बॉबी कहती है- 'मैं इक्कीसवीं सदी की लड़की हूँ। मुझसे छेड़छाड़ की तो आँखें नोंच लूँगी। मेरे नाखून देखे हैं।' बॉबी समानता चाहती है और दिल चाहती है, बदले में दिल के। बॉबी के द्वारा राजकपूर दर्शकों की नई पीढ़ी से तादात्म्य स्थापित करते हैं और नई पीढ़ी को उनकी पसन्द की 'बरसात' देते हैं।
'आवारा' और 'श्री 420' का कवि जिस देश में गद्य लेखक हो जाता है-संगम में रीतिकालीन प्रयास करता है और जोकर में पटकथा की नदी में नारी का भीतरी सौंदर्य खोजता है और साथ ही नारी देह की नदी में कथा डुबो देता है, तो बॉबी में नई पीढ़ी का चहेता बन जाता है, परन्तु सत्यम् शिवम् सुन्दरम् में वह गद्य, पद्य से दूर व्याकरण अर्थात् ग्रामर में उलझ जाता है। नारी के प्रति उसके दृष्टिकोण की चरम अवनति का प्रतीक है, सत्यम्। यह भाग्य की विडम्बना है कि जिस फिल्म में उसे नारी के संगीत को प्रस्तुत करना था, वह देह के व्याकरण और बॉक्स ऑफिस के आँकड़ों से भयभीत हो गया। उन दिनों फिल्म का पर्दा हिंसा से लहूलुहान था और उस भयावह वातावरण में नारी देह की नौका से उसने सिनेमा की वैतरणी पार करने का प्रयास किया। राजकपूर ने जीवन में पहली बार अपने बचाव में शब्दों की ढाल खड़ी की कि जो दर्शक सत्यम् की आत्मा नहीं महसूस कर सकते, उन्हें मेरी नायिका की देह का आकर्षण बाँध लेगा और शायद ऐसा हो भी सकता था, अगर नायिका नई होती। जीनत के अंग प्रत्यंग से दर्शक परिचित था, इसलिए उसे रूपा के रूप में प्रस्तुत करना रोज मिलनेवाले से नया परिचय पाने की तरह अर्थहीन हो गया।
'सत्यम्' की त्रासदी के पीछे क्या रहस्य है? राजकपूर, डिम्पल और राजेश खन्ना को लेकर फिल्म बनाना चाहते थे, परन्तु राजेश, डिम्पल के पुनः प्रवेश के लिए तैयार नहीं थे और स्वयं नायक की भूमिका करना चाहते थे, जिसके विरुद्ध पारिवारिक दबाव थे। जीनत के रूपा का रोल पाने के लिए ऐसां स्वाँग रचा कि निष्णात निर्देशक भी भ्रमित हो गया। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि फिल्म का आधार आधी हकीकत, आधा फसाना नहीं होकर, पूरी तरह अफसाना था। लता के चेहरे और आवाज ने फिल्म को अंकुरित किया था, परन्तु लता और राजकपूर के बीच प्रेम नहीं हो सकता था, क्योंकि लता में राजकपूर को साक्षात् माँ सरस्वती की छवि दिखती थी। तीसरा कारण था कि बॉबी के बाद और अधिक ऊँचाई पर पहुँचना जरूरी था। कई बार कामयाबी कितनी खतरनाक हो जाती है कि अनुभवी व्यक्ति भी साध्य और साधन के अंतर को नजरअन्दाज कर देता है।
कथा की कमजोरी के कारण मधुर संगीत और नयनाभिराम दृश्यावली का कोई असर नहीं हुआ। हिन्दुस्तान का प्रेस हमेशा राजकपूर का दोस्त रहा, परन्तु सत्यम् पर प्रेस ने भीषण प्रहार किए। विवादों के बावजूद वितरकों को सत्यम् में लाभ ही हुआ। राजकपूर ने महसूस किया कि उन्हें अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता की ओर लौट जाना चाहिए। बॉबी और सत्यम् के बीच उन्होंने उस समय के लोकप्रिय तत्त्वों के साथ आवारा को उलटकर धरम-करम का निर्माण किया था, जिसमें आंशिक लाभहुआ था। अतः अपनी लीक पर लौटने का निश्चय किया।
कामना चन्द्रा की कहानी में समाज के दोहरे मानदंडों पर प्रहार की गुंजाइश थी, इसलिए उन्होंने प्रेमरोग को दोबारा लिखवाया और आर. के. पुराने मूल्यों की पुनर्स्थापना की फिल्म बनाई। प्रेमरोग में नारी पात्रों का चरित्र-चित्रण बहुत पूर्ण और गहरा हुआ। इस फिल्म में राजकपूर ने दूसरों की फिल्मों की मौजूदा स्तरहीनता की चिन्ता भी नहीं की। प्रेमरोग, सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ राजकपूर का धर्मयुद्ध सिद्ध हुई। राजकपूर ने अत्यन्त सावधानी के साथ मनोरमा, नन्दा और तनुजा के पात्र गढ़कर औरतों की दोयम दर्जे की स्थिति पर करारी चोट की। पटकथा की कसावट की दृष्टि से प्रेमरोग लगभग आवारा के स्तर की फिल्म है। प्रेमरोग में सेल्युलाइड का कवि राजकपूर साहित्य के महाकवि प्रसाद की ऊँचाइयों पर पहुँचने का प्रयास करता है ओर नारी को श्रद्धा के रूप में प्रस्तुत करता है:
एमस्टरडम में पद्मिनी कोल्हापुरे के साथ
नारी तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास रजत पग तल में।
पीयूष स्रोत-सी बहा करो
जीवन के सुन्दर समतल में॥
दुःख की बात है कि फिल्म समीक्षा जगत ने प्रेमरोग को लगभग अनदेखा कर दिया-वे लोग सत्यम् के 'हेंग ओवर' से मुक्त नहीं हुए थे, जबकि प्रेमल हृदय राजकपूर के सिर से अर्धनग्न देह का भूत उतर चुका था। साठ की उम्र में राजकपूर सठिया नहीं गया था वरन् एक और क्लासिक का निर्माण अत्यन्त विपरीत परिस्थितियों में कर चुका था। प्रेमरोग में नारी मन के चितेरे राजकपूर ने जिस साहस का परिचय दिया था, वह साहस हेमिंग्वे के उपन्यास 'द ओल्डमैन एंड द सी' की याद दिलाता है। हिन्दी सिनेमा के सागर में अनिश्चय की ऊँची उठनेवाली घातक लहरें चल रही थीं। हिन्दी फिल्म के दिग्गज किनारे पर खड़े रहकर हवा का रुख देख रहे थे। राजकपूर ने बूढ़े प्रतिबद्ध मछेरे की तरह, बिना परिणाम की परवाह किए अपनी कश्ती समुद्र में डाली और चल पड़ा। बूढ़े मछेरे ने अपने कर्म और धर्म का निर्वाह किया-उसका काँटा किसी बड़ी मछली को लगा। घायल मछली ने कश्ती को खींचा और अनुभवी मछेरे ने डोर ढीली छोड़ी। वह जानता था कि लम्बी लड़ाई के बाद जब वह मछली को लेकर किनारे की ओर लौटने लगेगा, तो छोटी मछलियाँ उसे शिकार का अधिकांश भाग खा लेंगी, परन्तु उसे अपने कर्म का निर्वाह करना था। इस लम्बी लड़ाई के बीच बूढ़े को सपने में खूँखार शेर दिखते हैं-पराजय की विभीषिका के बीच वह साहस से दिन-रात मेहनत करता है और ऐतिहासिक विजय दर्ज कर लौटता है। बूढ़ा मछेरा अपने साहस और कर्तव्य बोध से यह सिद्ध करता है कि दुनिया में लालच और डर के परे एक संसार है।
ठीक ऐसे ही राजकपूर ने किया। प्रेमरोग साहसिक यात्रा थी-हिंसा की अर्थहीन फिल्मों के बीच सफेद साड़ी में लिपटी एक युवा विधवा की कहानी। प्रेमरोग में भारतीय समाज का आर्थिक रूपक भी है। पंडित का अनाथ भाँजा, ठाकुरों की दया से महानगर में शिक्षा ग्रहण करता है और गाँव लौटकर उन ठाकुरों की कुरीतियों और अन्याय के खिलाफ युद्ध करता है। ठाकुरों की दया के पीछे उनका अहंकार है। समाज के सारे नियम बड़े लोग अपनी सुविधानुसार बनाते हैं और गरीबों को बाध्य किया जाता है, उन नियमों को मानने के लिए। शिक्षा गरीबों का एकमात्र शस्त्र है। साहब बीवी और गुलाम में भी यही आर्थिक रूपक है। गुलाम साहब की कोठी में उनकी दया के सहारे पढ़ा और अन्त में उसी कोठी को तोड़कर जनपथ बनाने का काम उस गुलाम को मिलता है।
राजकपूर का नारी के प्रति दृष्टिकोण इस फिल्म में परिपक्व होकर उभरा है। नारी के शोषण के खिलाफ उसने आवाज उठाई है। वह अब मात्र प्रेमिका नहीं है, राधा नहीं है, उसके जुड़े में फूल नहीं लगाना है वरन् अब उसके जख्मी पाँवों पर मरहम लगाना है, उसे समानता और न्याय दिलाना है। राजकपूर ने तनुजा से कहलाया है- 'जन्म से यही सिखाया जाता है कि पति परमेश्वर है, चाहे वह पैर की जूती समझे, उसके खिलाफ एक भी शब्द कहा तो जीभ गिर जाएगी। अमीरों के इन महलों की ऊँची छतों और संगमरमरी दीवारों के बीच सड़ाँध है।'
नन्दा अपनी विधवा बेटी को समझाती है- 'बेटी, तुझे बचपन से यही सिखाया गया है कि धर्म, आचार, नीति, समाज की मर्यादा और पवित्रता का पालन करो। तू इन बड़े-बड़े शब्दों के जाल में उलझी रही और तूने यह स्वीकार किया कि तुझे हँसने का हक नहीं है।'
प्रेमरोग में राजकपूर के नारी पात्र इतने प्रखर और मार्मिक होकर उभरे हैं कि समाज का ढाँचा ही चरमरा जाता है। प्रेमरोग, राजकपूर का श्रद्धा गीत है। नारी के प्रति राजकपूर का यह नया स्वरूप उन्हें भारत का प्रतिनिधि फिल्मकार सिद्ध करता है।
राम तेरी गंगा मैली एक माने में प्रेमरोग की ही अगली कड़ी है, जिसमें राजकपूर नदी और नारी पर अत्याचार की कहानी कहते हैं। समाज की कुरीतियों ने नदी और नारी दोनों ही को प्रदूषित कर दिया है। यह प्रदूषण केवल भौतिक नहीं है, पूछे, समाज की आत्मा कलुषित हो चुकी है। नेता और उद्योगपति की मिली-जुली हरकतों ने एक कुचक्र रचा है- 'पैसे से सत्ता, सत्ता से पैसा' और हर अनाचार का पहला वार औरत की छाती पर होता है, फिर धरती पर। गंगा नदी और नारी को राजकपूर का नमन है।
गंगा की प्रेरणा राजकपूर को रवीन्द्र जैन के गीत से मिली थी-'एक थी राधा, एक थी मीरा, दोनों ने कृष्ण को चाहा, एक दरस दीवानी, एक प्रेम दीवानी।' फिल्म पर विचार का प्रारम्भ इसी गीत से हुआ, परन्तु राजकपूर ने न राधा का पात्र विकसित किया और न ही मीरा का। दरअसल उनकी गंगा समाज के शोषण का शिकार है। एक लम्पट पुजारी प्रयास करता है। फिर एक कुटनी के हाथों वह नारी मांस की दुकान पर बेची जाती है और अन्त में एक नकली अन्धे दलाल के द्वारा कोठे पर पहुँचा दी जाती है, जहाँ से एक नेता उसे खरीदकर अपनी बगानवाड़ी ले आते हैं। इस यात्रा में दो जगह से सहानुभूति मिलती है-एक मरघट का डोम और एक पुलिसवाला। मरघट के डोम से वह कहती है कि 'बाबा, मुर्दों से क्या डरना-डर तो जिन्दा लोगों से लगता है।' गंगा, प्रेम दीवानी राधा नहीं है, वह दरस दीवानी मीरा भी नहीं है। गंगा एक माँ है, जो अपने बच्चे को न्याय दिलाना चाहती है। वह अपनी पवित्रता से एक दलाल का मन बदल देती है।
राजकपूर की आखिरी फिल्म 'हिना' में उन्होंने नायिका के द्वारा यह प्रतिपादित किया है कि त्याग, प्रेम का उच्चतम शिखर है। दूसरी नायिका जरूर राधा
है- प्रेम दीवानी है। आज समाज टुकड़ों में बँट गया है। हिंसा ने जीवन दूभर कर दिया है। समाज में इतनी असुरक्षा है कि हर किसी की पीठ पर हवा में ठहरा हुआ एक चाकू है। धर्म, रंग और जाति के नाम पर स्वार्थी नेताओं ने अलगाव का अलख जगाया है। हिना, सरहदों के भीतर और सरहदों के बावजूद पनपते इंसानी रिश्तों की कहानी है। हिना (मेहंदी) और औरत की किस्मत में पत्थरों पर घिसना ही लिखा है। प्रेम और त्याग की भावनाओं का प्रतीक है हिना।
आग से हिना तक राजकपूर ने नारी के कई स्वरूप प्रस्तुत किए हैं और फिल्म-दर-फिल्म उनकी दृष्टि पैनी हुई है। उन्होंने नारी पर कविता भी की है, गद्य भी लिखा है और व्याकरण में भी उलझे हैं, परंतु अंतिम फिल्म तक प्रेम के ढाई आखर पढ़ने का प्रयास किया है।