विलक्षण अंतरंगता का क्लोजअप / राजकपूर सृजन प्रक्रिया / जयप्रकाश चौकसे
जयप्रकाश चौकसे
'बरसात' के निर्माण के समय नरगिस की माँ जद्दनबाई ने अपनी बेटी की आँखों में प्रेम को पढ़ लिया था और वे इस रिश्ते के विरुद्ध थीं, इसलिए उन्होंने राजकपूर को इजाजत नहीं दी कि वे 'बरसात' की एक माह लम्बी चलनेवाली शूटिंग कश्मीर में करें।उन्होंने राजकपूर को बाध्य किया कि शूटिंग खंडाला या महाबलेश्वर में की जाए ताकि नरगिस रोज रात घर आ सके।
राजकपूर और नरगिस के प्रेम सम्बन्ध को लेकर अनेक काल्पनिक बातें कही गई हैं क्योंकि अलगाव के बाद दोनों ने गरिमापूर्ण खामोशी बनाए रखी। सच तो यह है कि इस तरह के अंतरंग रिश्तों का सच उन दोनों के अतिरिक्त कोई तीसरा नहीं जानता और दोनों के अपने नजरिए में भी तटस्थता का अभाव बना रहता है पर नजदीकी लोग अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण से धुँध बढ़ा देते हैं। उनकी 'संगम' में एक टूटते रिश्ते की स्थिति में शैलेन्द्र रचित गीत था 'यहाँ गैर तो क्या अपनों तक के साए भी नहीं आ पाते हैं, यह धरती है इंसानों की, कुछ और नहीं इंसान हैं हम, ओ मेरे सनम ओ मेरे सनम, एक दिल के दो अरमान हैं हम!'
इस तरह के रिश्तों पर सारे बयान हमें तर्क की तराजू पर तोलकर किसी नतीजे पर पहुँचने का प्रयास करना चाहिए।
एक लोकप्रिय पुस्तक में कुछ इस तरह का आरोप है कि नरगिस ने अपने गहने बेचकर राजकपूर की फिल्म में धन लगाया था। उनकी पहली फिल्म 'आग' के निर्माण के समय उनके बीच प्यार नहीं था और केवल यह फिल्म राजकपूर ने आर्थिक तंगी के समय बनाई थी। उनकी दूसरी फिल्म 'बरसात' की शूटिंग के समय उनमें प्रेम हुआ, शायद उसी ऐतिहासिक शॉट को लेते समय जिसमें राजकपूर की एक बाँह में नरगिस झूल रही है और दूसरे हाथ में वायलिन है। यही शॉट उनकी फिल्मों का प्रतीक चिह्न बना और कालान्तर में चेहरों को सपाट बनाया गया परन्तु यह तथ्य नहीं बदल सकता कि नरगिस राजकपूर की सृजन प्रक्रिया का स्थायी उनके अलगाव के बाद भी रहीं। 'संगम' का खत वाला हिस्सा उनके अपने जीवन का यथार्थ था। यह अनुमान लगाना अनुचित नहीं होगा कि दूसरे हाथ का वायलिन कहीं कृष्णाकपूर का प्रतीक तो नहीं है?
'बरसात' के निर्माण के समय नरगिस की माँ जद्दनबाई ने अपनी बेटी की आँखों में प्रेम को पढ़ लिया था और वे इस रिश्ते के विरुद्ध थीं, इसलिए उन्होंने राजकपूर को इजाजत नहीं दी कि वे बरसात की एक माह लम्बी चलनेवाली शूटिंग कश्मीर में करें। उन्होंने राजकपूर को बाध्य किया कि शूटिंग खंडाला या महाबलेश्वर में की जाए ताकि नरगिस रोज रात घर आ सके।
जद्दनबाई बहुत दबंग औरत थीं। उनकी माँ का विवाह जमींदार घराने में हुआ था और शादी के दिन ही डाका पड़ा था और वह विधवा हो गईं। कई वर्ष उन्होंने अपने श्वशुर का जुल्म सहा और एक दिन वह एक तमाशा दल के साथ भागकर कलकत्ता आ गईं जहाँ उन्हें कोठे पर बैठना पड़ा। जद्दनबाई की माँ और दूसरे पति जो नरगिस के पिता थे, वे भी हिन्दू थे। उनका नाम मोहन बाबू था जो कलकत्ता से जहाज पकड़कर डॉक्टर बनने के लिए लन्दन जानेवाले थे परन्तु जद्दनबाई के प्रेम ने उनकी दुनिया ही बदल दी। उन दिनों जद्दनबाई के रुतबे और तेवर की वजह से यह संभव ही नहीं था कि नरगिस अपने गहने बेचकर राजकपूर की फिल्म में धन लगातीं। 'बरसात' की सफलता के बाद राजकपूर को धन की आवश्यकता नहीं थी। 'आवारा' के समय पुरी साहब उनके पूँजी निवेशक और भागीदार बन चुके थे। इन पुरी साहब ने ही 'इंडिया टुडे' की स्थापना की थी।
एक किताब में कुछ इस आशय की बात है कि नरगिस राजकपूर की घोस्ट डायरेक्टर थीं। राजकपूर ने अलगाव के बाद भी सफल फिल्में रची हैं। अगर नरगिस को दिग्दर्शन का इतना ज्ञान था तो उन्होंने अपने पति के लिए सफल फिल्में क्यों नहीं रचीं?
यह सच है कि उनके रिश्ते और फिल्म निर्माण के शिखर दिनों में राजकपूर, नरगिस, शंकर, जयकिशन, शैलेन्द्र, हसरत, मुकेश और लता मिल-बैठकर फिल्म पर बहस करते थे। वह प्रेरणा और प्रतिभा के शिखर के टीम वर्क का कमाल या परन्तुइसका एकमात्र केन्द्र स्वयं राजकपूर थे।
ज्ञातव्य है कि 'बरसात' के प्रदर्शन के समय तक जद्दनबाई की मृत्यु हो चुकी थी। नरगिस के पास जद्दनबाई के प्रथम पति की सन्तानें थीं और उनके विरोध को नरगिस ने कभी महत्त्व नहीं दिया।
यह बात भी ध्यान देने की है कि महबूब खान ने ही नरगिस को पहली बार प्रस्तुत किया था और उनकी 'अन्दाज' में दिलीप कुमार, राजकपूर और नरगिस ने प्रेम तिकोण निभाया था। उन दिनों यह भी खबर थी कि स्वयं महबूब खान ही उस तिकोण का एक हिस्सा थे। ख्वाजा अहमद अब्बास ने 'आवारा' महबूब खान को सुनाई थी और उनका इरादा पृथ्वीराज कपूर और दिलीप कुमार को पिता-पुत्र की भूमिका में लेने का था। जबकि अब्बास अड़े थे कि पृथ्वीराज के साथ राजकपूर को लिया जाए ताकि यथार्थ जीवन में पिता-पुत्र का रिश्ता फिल्म को अतिरिक्त धार प्रदान करे। नरगिस ने ही राजकपूर को इस मुलाकात और मतभेद का विवरण दिया। राजकपूर ने उसी क्षण अब्बास साहब से मुलाकात करने और 'आवारा' के अधिकार खरीदने का निश्चय किया। 'आवारा' राजकपूर के जीवन और चिन्तन में निर्णायक परिवर्तन लाई जिसका कुछ श्रेय नरगिस को भी दिया जाना चाहिए।
राजकपूर और नरगिस का साथ 8 वर्ष रहा और लगभग 17 फिल्मों में काम किया। उनके अलगाव के अनेक कारण रहे होंगे परन्तु रिश्ते में पहली दरार उनकी दूसरी सोवियत रूस की यात्रा रही।
'आवारा' रूस की राष्ट्रीय फिल्म बन चुकी थी और अनेक रूसी लोगों ने अपने बच्चों के नाम 'आवारा' के प्रेमी युगल पर रखे थे। हर सफलता के बाद राजकपूर कहते थे, "यस वी हैव डन इट!"
दूसरी यात्रा के समय राजकपूर के मुँह से बरबस निकला, "यस आई हैव डन इट।" इसी छोटे से वाक्य के एक शब्द में अन्तर के कारण रिश्ते में दरार आई। नरगिस का समर्पण सम्पूर्ण था। प्रायः पुरुष इस तरह का समर्पण नहीं कर पाते। राजकपूर के सृजन अहंकार ने ही उनकी टीम में दरार डाली! यह भी संभव है कि उन्होंने अनायास यह कहा। बिमल मित्र के 'साहब बीबी गुलाम' में नीम बेहोशी के क्षण में ज़बा के मुँह से सुपवित्र का नाम सुनकर ही भूतनाथ ने विचित्र फैसला लिया और गाँव से लौटकर ज़बा को बताया कि बचपन में उनका विवाह जिस भूतनाथ से हुआ, वह मर चुका है।
राजकपूर नारी केन्द्रित 'अजंता' नरगिस के लिए बनाना चाहते थे परन्तु पटकथा से सन्तुष्ट नहीं थे और नरगिस को लगा कि वे ताउम्र पुरुष प्रधान फिल्में ही रचेंगे। ज्ञातव्य है कि राजकपूर के तत्कालीन सहायक लेख टंडन ने इसी पटकथा पर आधारित असफल 'आम्रपाली' रची थी।
नरगिस के हृदय में प्रबलतम इच्छा माँ बनने की थी और वे राजकपूर की उनके लिए सुविधाजनक इस बात को जानती थीं कि राजकपूर की फिल्मों की माँ नरगिस हैं और बच्चों की श्रीमती कृष्णाकपूर। यद्यपि यह बात उन्होंने दो दशक बाद कही है।
यह भी संभव है कि नरगिस उस समय तक यह बात जान गई थीं कि राजकपूर का प्रथम और असल प्रेम सिनेमा से है। नरगिस को दूसरा या तीसरा स्थान कैसे पसन्द आ सकता था। राजकपूर और नरगिस द्वारा दिया गया अन्तिम शॉट 'जागते रहो' का था जिसमें नरगिस नायक को पानी पिलाती है। फिल्म में यह सांस्कृतिक प्यास का प्रतीक था। यह बात अलग है कि राजकपूर ताउम्र प्यासे ही रहे और नरगिस प्रेम तृष्णा की सन्तुष्टि से वंचित ही रही!
उनके अलगाव के बाद एक अन्तर्राष्ट्रीय समारोह में भाग लेने दोनों पहुँचे थे परन्तु सीधे कोई भेंट नहीं हुई। एक दिन होटल कक्ष में अपने प्रिय नाश्ते को टेबल पर लगा देखकर राजकपूर को अनुभूति हुई मानो इसका आयोजन उसी होटल में ठहरी नरगिस ने किया हो।
उन दोनों की भेंट ऋषि कपूर के विवाह के अवसर पर हुई जब ऋषि कपूर के आमंत्रण पर नरगिस, सुनीलदत्त वहाँ आए। कुछ क्षणों के लिए उनकी आँखें टकराईं।
सुनीलदत्त तो अत्यन्त संयत रहे परन्तु राजकपूर भावना के आवेग से भीतर ही भीतर हजारों भूकम्प को सह रहे थे। श्रीमती कृष्णा कपूर ने पूरी गरिमा और स्वागत की ऊष्मा के साथ व्यवहार किया। नरगिस को वे अपने साथ ले गईं। नरगिस ने उनसे कहा कि आज माँ होकर वे कृष्णा जी के उस समय के त्रास का अनुमान लगा सकती हैं और उन्होंने क्षमा भी माँगी परन्तु श्रीमती कृष्णा ने उन्हें उनके मिथ्या अपराधबोध से मुक्ति दिलाते हुए कहा कि इसमें उसका कोई दोष नहीं है, वह तो उनके भाग्य में बदा था।
वर्षों बाद नरगिस की मृत्यु हुई। राजकपूर वहाँ गए और श्रद्धांजलि प्रदान की। सुना है कि नरगिस के भाई जिद पर थे कि उनकी आपां की अन्तिम इच्छा अनुरूप उन्हें जद्दनबाई के निकट सुपर्दे-ख़ाक किया जाए।
विशाल हृदय सुनीलदत्त ने शवयात्रा हिन्दू रीति-रिवाज से निकाली और उसका अन्तिम चरण वैसा ही किया जैसा कि आग्रह था। उस शवयात्रा में राजकपूर शामिल थे परन्तु अंतिम चरण के परिवर्तन से नाखुश थे।
राजकपूर 2 मई, 1988 को दादा फाल्के पुरस्कार लेते समय बेहोश हुए और लगभग एक माह उन्हें तकनीकी तौर पर जीवित रखा गया। उन्हें 2 जून, 1988 को मृत घोषित किया गया परन्तु मृत्यु से सारा संघर्ष शायद एक जून को समाप्त हो गया होगा जो नरगिस का जन्मदिन था।
यह एक अद्भुत प्रेमकथा थी जिसमें शामिल सभी लोग विलक्षण थे !