निरामय / खंड 1 / भाग-3 / कमलेश पुण्यार्क
“कार्यक्रम चलता रहा। महात्मा भट्ट ने पूरे हर्षोल्लास से दिल खोल कर स्वागत किया औघड़ का।प्रेम पूर्वक दोनों साथ बैठ कर खाये-पीए-सोये, गप्पें लड़ायी, अन्यान्य विषयों की चर्चा होती रही। मानों कोई सामान्य गृहस्थ अपनी गृहस्थी गाथा सुन -सुना रहा हो।
“अगले चार दिनों तक यही क्रम जारी रहा। तुम्बा-लोटा एक ओर, औघड़ महात्मा दूसरी ओर।दोनों जोड़े अपने-अपने धुन में मस्त।
“औघड़ को विन्ध्यगिरी पर आए नौ दिन हो गए थे।वही प्रातः काल का समय था।दोनों अपनी-अपनी शैय्या त्याग कर प्रातः
कृत्य के लिए प्रस्थान करने ही वाले थे कि एकाएक जोर का धमाका हुआ।ऐसा लगा मानों कोई बारूद की गोदाम में आग लगा दिया हो ।इस भयंकर आवाज के साथ ही बेचारे औघड़ की भी चीख निकल गई थी -‘साऽऽला मार डाला मुझे।फाड़ डाला मेरे तुम्बे को, सिद्ध गुरू के सिद्ध तुम्बे को, साधित तुम्बे को।’
“औघड़ की चित्कार सुन महात्मा भट्ट ने सौम्य भाव से कहा था-‘ईश्वर तुम्हें अब भी सद्बुद्धि दें।’
दोनों वहाँ से चल कर उस कन्दरे की ओर बढ़े, जहाँ चार दिनों से तुम्बा-लोटा शास्त्रार्थ कर रहे थे।
एक झटके के साथ कन्दरे की टाटी खोल अन्दर आया वह औघड़, और पछाड़ खाकर गिर पड़ा, औंधे मुंह -‘हाय मेरा तुम्बाऽऽ।’
लोटा अभी भी पूर्ववत घनघना रहा था।आगे बढ़ कर महात्मा विक्रम ने उसे अपने हाथों से स्पर्श किया तो वह पल भर में ही नाचना भूल, सरक कर उनके चरणों में आ लगा था, मानों शिष्य गुरू के चरणों में शरणागत होकर कृतार्थ हो जाना चाह रहा हो।लोटे को स्नेह पूर्वक उठाते हुए महात्मा विक्रम ने कहा, ‘पछताने के सिवा अब हो ही क्या सकता है? रोने कलपने से कोई लाभ तो है नहीं, न तुम्बा ही वापस मिलने को है।तुम्हारे लिए श्रेयस्कर अब यही है कि लौट जाओ वापस अपने धाम को, और याद रखना सदा इस बात को।फिर कभी नादानी न कर बैठना, किसी से उलझने की।
किन्तु अगले ही पल दांत पीसता हुआ वह औघड़ उठ खड़ा हुआ।पास बिखरे हुए, टूटे तुम्बे के टुकड़ों को अपने हाथों में उठाकर शेर सी दहाड़ लगायी।अभी महात्मा सम्हलते कि वह औघड़ प्रहार कर दिया, उन टुकड़ों को मन्त्र पूरित कर-‘जाओ, मैं तो जा रहा हूँ वापस।मेरा सिद्ध तुम्बा तो तेरी वजह से चौपट हो ही गया, पर याद रखना, अपने तन्त्र की वंश-परंपरा भी समाप्त ही समझना।आज से तुम्हारे कुल में फिर कोई ऐसा न होगा जो स्वयं को तान्त्रिक कह सके।तन्त्र का ज्ञान तेरे साथ ही दफन हो जायेगा।जय गुरूदेव!जय बाबा गोरखनाथ!!
‘ओफ! इतना भयंकर श्राप! औघड़ का श्राप सुन, तिलमिला उठे महात्मा विक्रम-‘क्या मेरी कुल परम्परा ही लुप्त हो जायेगी? मेरी विद्या मेरे साथ ही चली जायेगी?
“क्षण भर की आलोड़न के बाद मौन होकर स्वयं को जरा संजोया महात्मा विक्रम ने, और फिर नीचे झुक कर चुटकी भर धूल उठाकर एक ही झटके में फेंक दिया औघड़ के शरीर पर, यह कहते हुए- ‘अरे नीच! पापिष्ट!! अब भी नहीं मानता तो भोग अपनी करनी का फल।जिस शरीर और साधना पर तुझे इतना दम्भ है, उसे क्षण भर में ही मैं धूल में मिला दे रहा हूँ।’
महात्मा विक्रम के हांथ की धूल सामने खड़े औघड़ के पूरे शरीर पर विखर गई थी, और देखते ही देखते उसका दिव्य शरीर वर्फ सा गलने लगा।ऐसा लग रहा था मानों जलजोंक के शरीर पर नमक-हलदी छिड़क दिया गया हो।
‘रूक जाओ...ठहर जाओ...ऐसा अनर्थ न करो...बड़ा ही पाप लगेगा तुम्हें...ब्रह्महत्या का पाप...। ’ तड़पते हुए औघड़ ने कहा था।
‘आखिर करूँ ही क्या? तू तो मेरा वंश वृक्ष ही काट कर धराशायी कर दिया। तन्त्र के अभाव में क्या अस्तित्त्व रह जायगा मेरे बाद की पीढ़ी का? मैं तो सिर्फ तेरा शरीर ही लिया हूँ। ’- श्री विक्रम ने कहा था।
‘ नहीं...नहीं...ऐसा न करो...ऐसा अनर्थ न करो...मैं तुम्हारे श्राप को सीमित किए दे रहा हूँ... अगली बीस पीढ़ी...। ’-आतुर औघड़ गिड़गिड़ाने लगा था।
“विक्रम भट्ट ने भी कुछ वैसा ही किया-‘तो ठीक है, मैं भी तेरी सिर्फ अंगुलियाँ दुरूस्त किए दे रहा हूँ। ’
फिर इसी प्रकार दोना तरफ से अपने-अपने अभिशाप का विमोचन होता रहा था काफी देर तक, और अन्त में आकर ठहर गया था छठी पीढ़ी पर। औघड़ ने कहा था-‘अब इससे नीचे मैं कदापि नहीं उतर सकता, क्यों कि तुझे भी तो कुछ याद रहना चाहिए। प्रत्युत्तर में महात्मा विक्रम ने कहा था-‘तो ठीक है, मैं ही कहाँ कम करने जा रहा हूँ, तेरे उर्ध्वभाग के गलान को। जा, अब शीघ्र ही हट जा, दूर हो जा मेरे सामने से। मुझे भय है, कहीं फिर मुझमें नरमी न आ जाए, और अपने वंश के लिए तुझ नीच से मैं आग्रह न कर बैठूँ। ’
‘ठीक है, चलता हूँ। ’- कहते हुए औघड़ धीरे-धीरे भारी कदमों से पहाडि़याँ उतरने लगा।
इस प्रकार तब से छठी पीढ़ी में हुए तुम्हारे दादाजी, सातवीं में तुम्हारे पिताजी, एवं आठवीं पीढ़ी पर हो तुम। यानी तुम्हारे पिता से पुनुरूजीवित हो पायी तन्त्र परम्परा तुम्हारे कुल में। "- बड़े ही दर्प से कहा था, श्री देवकान्त जी ने मेरी ओर देखते हुए।
इतनी लम्बी कहानी बिना हूँ-हाँ किए, हम सभी चुपचाप सुनते रहे थे अब तक। हालाकि मेरी निगाहें प्रायः घूरती रही थी पास बैठी
शक्ति को ही, जिसका ध्यान अपने पिता के श्रीमुख से निकलते प्रत्येक शब्द-सार को पीने में लगा था।
कहानी समाप्त होने के साथ ही मेरी निगाह फिर एक बार जा लगी थी शक्ति से, परन्तु तुरन्त ही चौंक पड़ा, दीवार-घड़ी की टनऽऽ की आवाज मेरी नजरें ऊपर खींच ली और अनायास ही मुँह से निकल गया, ‘अरे साढ़े दस बज गए । ’ और फिर वसन्त की ओर देखते हुए कहा था-‘तो वाकयी आज स्कूल नहीं जाओगे? मेरे प्रश्न के बावजूद वसन्त मौन बना सोफे से चिपका ही रहा।
देवकान्त जी ने कहा- ‘देखो न शक्ति, भोजन में कितनी देर है। ’
पिता का आदेश पा शक्ति भीतर चली गई रसोई की ओर, और इधर भट्टजी फिर मेरी ओर मुखातिब हुए- ‘ अरे वसन्त! तूभी अजीब है। इतना कुछ सुन सुना गए, परन्तु अभी तक तुमने नाम नहीं बतलाया अपने मित्र का। ’ मेरी ओर देखते हुए देवकान्त जी ने वसन्त को टोका था, जो मेरे बगल में ही सोफे पर बैठा किसी कल्पना लोक में विचरण कर रहा था। मुझे उकसाते हुए उसने कहा- ‘कमल! क्यों नहीं बतलाते, चाचाजी को अपना नाम?’
देवकान्त भट्टजी ने मुस्कुराते हुए कहा- ‘सो तो अब तुमने कह ही डाला। वह क्या दुबारा बतलायेगा अपना नाम?’ फिर मेरी ओर देखकर बोले, ‘ हाँ तो बेटा कमल! वाकयी आज बड़ी प्रसन्नता हुई तुमसे मिल कर। ’
कुछ झेंपते हुए से मैंने धीरे से कहा- ‘मिले तो हम आज से पहले भी कई बार हैं। ’
इस पर खेद प्रकट करते हुए उन्होंने कहा था- ‘ हाँ, आये तो तुम कई बार मेरे यहाँ। देखा भी है मैंने तुम्हें। पर क्या पता था कि ...। ’- अपनी गलती पर स्वयं ही पश्चाताप सा हो आया था उन्हें।
जरा ठहर कर कहने लगे-‘ दरअसल बात यह है कि हर काम का एक मुहूर्त होता है, एक संयोग होता है। बिना संयोग के कभी भी कोई घटना नहीं घटती। अब जरा सोचो न उस बार की बात, जब मैं तुम्हारे चाचा के डेरे पर गया था, किन्तु उस वक्त तुमसे भेंट नहीं हो पायी थी। अभी नाम बोले तो याद आगयी बात, उस दिन भी तुम्हारी ही चर्चा चल रही थी वहाँ। डेरा तो वही है न अभी भी?’
मैंने उन्हें नये डेरे की स्पष्ट जानकारी देते हुए कहा- ‘ नहीं, अब हमलोग पटेल कॉटन कम्पनी के क्वॉटर में आ गए हैं पिछले महीने में ही। ’
‘तब तो बहुत करीब आ गए हो पहले से अब। क्यों नहीं आ जाया करते हो शाम में इधर ही घूमते-फिरते?’- नए डेरे की जानकारी पर प्रसन्नता जाहिर करते हुए उन्होंने कहा था।
‘नहीं चाचाजी, शाम में घूमने का वक्त ही कहाँ मिलता है। ’- हमदोनों एक साथ ही बोल पड़े। वसन्त के साथ साथ मैं भी उन्हें चाचाजी पुकार बैठा, जब कि वास्तव में रिस्ते में वे हमारे फूफा होते थे। वसन्त के भी वे सगे चाचा नहीं थे। रिस्ता यूँ था कि वसन्त के बड़े भाई की शादी देवकान्त भट्टजी की भांजी से हुयी थी, और इस
प्रकार वे वसन्त के भाई के चचेरे स्वसुर हुए। फलतः चाचा ही तो कहे जाते। पर अचानक मेरे मुंह से भी ‘चाचा’ संबोधन निकल कर स्वयं को ही शरमा गया। उनकी बातों का और आगे क्या जवाब दूँ, सोच ही रहा था कि भीतर से शक्ति की माँ आ गई, जो कुछ ही देर पहले कहानी समाप्त हो जाने पर शक्ति के साथ ही दूसरे कमरे में चली गई थी। कमरे में आते ही उन्होंने कहा- ‘चलो बेटे, खाने चलो। ’
चाची के कथन पर मेरी निगाहें चाचाजी पर चली गयी, मानों पूछना चाहता होऊं, मौन नेत्र-स्वर से ही - क्या आप नहीं साथ देंगे भोजन में? किन्तु मेरी आँखों की भाषा को पढ़ लिया था उन्होंने। अतः बोले- ‘जाओ, तुमलोग भोजन करो। मैं तो अभी स्नान भी नहीं कर पाया हूँ। मुंह हांथ द्दोने के बाद चाय पी ही रहा था कि वह साधु प्रकट हो गया, जो घंटों वक्त जाया कर गया। खैर उसके आने-जाने का अब पश्चाताप क्या। इसी बहाने आज तुम्हारा परिचय जो मिल गया। ’
‘अन्यथा कब तक बाहर खड़े कबूतर गिनना पड़ता। ’- बीच में ही वसन्त की टिप्पणी से हम सभी हँस पड़े।
चाचाजी ने आगे कहा था- ‘ आज से तुम मेरे परिवार के ज्योतिषी हुए। ’
‘हाँ हाँ, ऐसा उद्भट्ट ज्योतिषी आपको भला मिल भी कहाँ सकता है?’- कहता हुआ वसन्त मेरे पेट में अपनी अंगुली गड़ा दिया था। सबके सब फिर एक बार हँसने लगे थे। मैं अपने आप में शर्मिंदगी महसूस कर रहा था। मुझ अति सामान्य को इतना गरिमामय पद प्रदान किया चाचाजी ने।
वसन्त ने चिढ़ाते हुए फिर कहा था-‘सिर क्यों झुकाए हुए हो, ज्योतिषी जी महाराज? चलिए भोजन कीजिए। और फिर धीरे से बुदबुदाते हुए भगवान को धन्यवाद दिया था-‘धन्य हो प्रभु! अच्छा है, चाचाजी अभी नहाए नहीं हैं। खाना तो शक्ति ही खिलायेगी। चाची तो पान चबाती बैठी रहेंगी, एक ओर कोने में कहीं।
अगले ही पल चाचाजी ने जलपात्र सम्हाला था, स्नानागार में जाकर, और हमलोगों ने तिपाई सम्हाला भोजनागार में।
क्या ही सुसंस्कृत ढंग था रहन-सहन का- एक ओर भव्य सजावट ड्राईंग रूम का- अत्याद्दुनिक ढंग का, तो दूसरी ओर था पुरानी सांस्कृतिक साज-सज्जा रसोई और भोजनालय का। न था वहाँ
गैस का चूल्हा, और न चांदी की याद दिलाने वाले धोखेवाज लोहे (स्टील) के बरतन ही। बनाने से लेकर खाने तक के लिए पुराने ढंग के पीतल और फूल के बरतन, जो सभ्यता की पंक्ति में कुछ और पीछे जाकर
स्वर्ण युग का आभास पैदा कर रहे थे। लकड़ी जलाने वाला, मिट्टी का चूल्हा एक ओर कोने में बना हुआ था। बैठने के लिए आसन - ‘शीतलपाटी ’ लंबा सा एक ही नहीं प्रत्युत मनुस्मृति का पोषक, अलग-अलग छोटा-छोटा, हर व्यक्ति के लिए स्वतन्त्र आसन।
आह! कहाँ खो गयी है, हमारी भारतीय संस्कृति? उलझ कर रह गयी है, मात्र पाश्चात्य टेबुल-कुर्सियों पर रखे स्टील और फाइवर प्लेटों में चमचमाते छूरी-चम्मच-कांटों के बीच।
पान चबाती हुयी चाची जाकर लेट गयी थी, बगल कमरे में पलंग पर यह कहती हुयी- ‘ शक्ति बेटे! जरा ठीक से इन लोगों को खाना खिला देना। ’ और उनकी भारी बोझ से बेचारा पलंग कराह उठा था। प्रारम्भ से ही शायद कुछ आलसी स्वभाव की रही होंगी, तभी तो इतना भारी पुलिन्दा सा शरीर पाल रखी थी।
दो थालियों में करीने से भोजन सामग्री सजाकर, हमदोनों के लिए ले आई शक्ति। फिर एक के बाद एक छोटी-छोटी कटोरियों, और तस्तरियों से घेर डाली थी पूरी थाली को। कई प्रकार की सब्जियाँ, कई प्रकार की चटनियाँ, रायता, स्लाद, भुजिया, पापड़, अचार, दही, कढ़ी....। ऐसा लग रहा था कि भगवान गोवर्धन धारी श्रीकृष्ण के सामने व्रजवाला छप्पन कोटि व्यंजनों का अम्बार लगाकर अन्नकूट का त्योहार मना रही हो।
मैं हड़बड़ा कर बोल पड़ा था- ‘सब दिन के बदले क्या आज ही खिला दोगी शक्ति?’
मुस्कुराती हुई शक्ति ने कहा था- ‘कहाँ कुछ अधिक बन पाया है? मैं तो कहानी सुनने में लगी रही, आपके पूर्वज श्री विक्रम योगी की। अकेली भाभी ने ही तो थोड़ा कुछ कर पायी है सिर्फ। आज आप पहली बार खाने पर पधारे हैं मेरे यहाँ, और यह सादा-सादा सा भोजन...। ’
शक्ति अभी शायद और कहती जाती। प्रकट करती जाती अपनी अकिंचनता, पर बीच में ही वसन्त ने मस्खरापन कर दिया- ‘दरअसल यह जरा कमजोर हाजमे का है। कलकत्ते का पानी भी इसे सूट नहीं करता। ’
अपने होठ काटती, मुस्कुराती हुई शक्ति मुझसे पूछने लगी-‘कितने दिनों से यहाँ हैं आप कमल जी?’
‘कमल जी!’- स्वर ऐसा लगा मानों संतूर को छेड़ दिया हो किसी मंजे हुए कलाकार ने, और अजीब सा गूंज पैदा कर गया मेरे मस्तिष्क में। उसकी बातों का जवाब देने ही वाला था कि पुनः
मेरे बदले वसन्त ही बोल पड़ा-‘अभी क्या, जुम्मे-जुम्मे आठ दिन हुए होंगे। निरे देहात का नया छोकरा, निकला भी पहली बार घर से तो सीधा चला आया महानगरी में। देखती नहीं कितना शर्मीला है, दुल्हन जैसा...। ’ कनखियों से मेरी ओर देखते हुए वसन्त आँख मार दिया, और फिर शक्ति की ओर ही देखने लगा, जो आज उसके वजाय मुझसे ही ज्यादा उलझ रही थी। शायद भीतर ही भीतर ईर्ष्या हो रही थी उसे, इस बात के लिए। हमदोनों भोजन पर जुट गए थे। एक सामान समाप्त नहीं हो पारहा था कि दूसरा आ पड़ता थाली में। वसन्त आज छक कर खानेपर तुला था। शक्ति - उसकी काल्पनिक प्रेयसी, आज सौभाग्य से स्वयं खिला रही थी सामने बैठ कर।
आज से पहले भी कई बार आया था यहाँ, शक्ति के आवास पर;किन्तु कहाँ मिल सका था इतना मौका सामने बैठने-बोलने का। शक्ति को मन ही मन बड़े गहरे रूप में चाहने लगा था, वसन्त। तब से ही जब पहली बार अपने भैया की शादी में आया था, दुल्हे के साथ ‘सहबाला’ बन कर, और शक्ति ने काफी परेशान किया था उस छोटे दुल्हेमियाँ को। उसके बार-बार के हँसी मजाक से तंग आकर उसकी दीदी ने कहा था- ‘क्यों शक्ति! ज्यादा पसन्द आगया है क्या सहबाला? कहो तो इसी मण्डप में तुम्हारी भी...। ’ और इस बात पर शरमाती शक्ति वहाँ से भाग खड़ी हुई थी। बेचारा वसन्त तब से ही अपनी भावनाओं की सहचरी माने हुए है, उस किशोरी को, और कोई न कोई बहाना बना कर आ जाता शक्ति के घर। भाभी तो यहाँ रहती भी नहीं हमेशा। वह तो अपने पति के साथ घर पर होती, या फिर अपने पिता के साथ कानपुर। यहाँ चाचा के साथ कभी कभार ही आ पाती थी। पर वसन्त क्या अपनी भाभी के प्रेम में यहाँ आता था? नहीं, यहाँ तो उसका दिल चुरा लिया था शक्ति ने, शक्ति पूर्वक।
कई बर्ष गुजर गए उस पहली मुलाकात के, भैया की शादी के। पर वेचारे वसन्त का इकतरफा प्यार जहाँ के तहाँ पड़ा कराहता रहा। आहें भरता रहा। मुझे तो वसन्त देहाती कहता है, पर आज तीन बर्षों के बावजूद कहाँ साहस कर सका है-कहने का शक्ति से कि वह उससे प्यार करता है। बस यूँ ही प्रायः हर रोज यहाँ आना उसका रूटीन सा बन गया था। कभी कभार दो चार बात उसकी माँ से कर, चाय पी कर खिसक जाना पड़ा है उसे आज तक। किन्तु आज शायद अवसर मिल सका है कुछ जाहिर कर पाने के लिए। अपने दिल की हालात बता सकने के लिए।