निरामय / खंड 2 / भाग-4 / कमलेश पुण्यार्क

Gadya Kosh से
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परन्तु वह हो न सका जो बेचारा सोच रहा था। हमलोग भोजन कर ही रहे थे कि चाचाजी स्नान करके बाहर आ गए, ‘क्यों बेटे! कैसा रहा शक्ति का स्वागत?’

पिता की आवाज सुन कर शक्ति भीतर रसोई में चली गई थी, उनके लिए भोजन परोसने। इधर हमदोनों भोजन समाप्त कर रूमाल से हांथ पोंछ रहे थे।

वसन्त उठकर वहीं बगल के ड्राईंगरूम में जाकर सोफे पर पसर गया था। लम्बी डकार लेते हुए बोला, ‘ वाकयी आज शक्ति ने बहुत खिला दिया। अब घर जाना भी मुश्किल जान पड़ता है। ’

‘तो क्या आराम फरमाने की सोच रहे हो जनाब?स्कूल जाने का इरादा सही में नहीं है क्या?’- मैंने अकबका कर वसन्त से पूछा।

पिद्दी सा मुंह बिचका कर वसन्त ने कहा था- ‘ घड़ी देखो, अब क्या तुम्हारा स्कूल ग्यारह बजे से लगेगा? इतना कह कर उठा और कूलर ऑन कर फिर पसर गया सोफे पर। मैं मन ही मन घबड़ा रहा था, डेरे पर चाचाजी क्या सोच रहे होंगे।

करीब घंटे भर विश्राम करने के बाद हमदोनों चल पड़े थे वापस अपने-अपने वसेरे की ओर। देवकान्त चाचा भी कॉलेज जाने को तैयार हो गए थे। आज उनका क्लास बारह बजे से है। फिर हमें आने को आमन्त्रित करते हुए बोले, ‘ बेटा इसे अपना ही घर समझना। जब समय मिले चले आया करो। हाँ, याद रखना- परसों रविवार है न? दोपहर भोजन तुमलोगों का यहीं होगा। उस दिन जरा इत्मिनान से तुमसे बातें होंगी। तुम ज्योतिष और हस्तरेखा जानते ही हो। जरा मेरे पूरे परिवार का जन्म पत्र विचार करना है। ’

तीसरे दिन यानी रविवार को वसन्त जल्दी ही आ गया था, मेरे डेरे पर। उसे तो जल्दबाजी थी शक्ति के घर पहुँचने की। चलते वक्त चाचाजी से बोला था, ‘आज हमदोनों को देवकान्त चाचा के यहाँ जाना है। वापसी में देर हो सकती है। ’

पूर्व समयानुसार उस दिन भी साढ़े आठ बजे हमदोनों पहुँच गए थे छावडि़या निवास, शक्ति के डेरे पर। रास्ते भर वसन्त चुटकियाँ लेते रहा था- ‘आज तो बड़ी तैयारी से आए होगे राजज्योतिषी कमल जी? क्यों कि आज एक लब्ध प्रतिष्ठित प्राध्यापक श्री देवकान्त भट्टजी के यहाँ से सादर-सनुनय आमन्त्रण है, उनके पारिवारिक ज्योतिषी एवं तान्त्रिक श्री श्री 1008 कमल भट्टजी को। ’

‘क्या बकते हो फिजूल की बातें? जा रहे हो तुम अपनी प्रेयसी के घर। लड्डू फूट रहे हैं- तुम्हारे दिल में। मैं तो एक बहाना हूँ। ’- मैंने जरा झल्लाते हुए कहा।

उदास सा चेहरा बना कर वसन्त ने बड़े भोलेपन से कहा, ‘हाँ यार, कह लो। कह लो जितना कहना है। लम्बे अरसे से आँखें बिछाए हूँ मैं, और हांथ में हांथ थाम कर आँखों में आँखें डालकर आँख सेंकोगे तुम। ’

‘फिर वही बकबक। हाथ चाचाजी का देखना है, न कि...। ’ मैं कह ही रहा था कि उसने बीच में ही टांग अड़ा दी- ‘क्या याद नहीं है तुम्हें, आते वक्त चाचाजी ने क्या कहा था? पूरे परिवार का भविष्य विचारना है। तो वह क्या इस दायरे से बाहर है? नहीं न? साथ ही मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि उसे भविष्य विचार पर कितना भरोसा है। उसका बस चले तो फुटपाथी तोताछाप पंडितों के आगे भी हाथ पसारते चले। फिर तुम तो जा रहे हो उसके घर महामहोपाध्याय राज ज्योतिषी बन कर....। ’

वसन्त अभी न जाने कब तक बकता चला जाता, कि लिफ्ट ऊपर पांचवीं मंजिल पर आकर ठहर गई। हमदोनों उतर कर सीधे देवकान्तजी के कमरे की ओर चल दिए।

वहाँ बैठक खाने में बैठे देवकान्त चाचाजी कबसे हमदोनों की राह देख रहे थे। हमलोगों पर नजर पड़ते ही बोले- ‘आओ बैठो जल्दी से। शक्ति कब से प्रतीक्षा कर रही है। पकौडि़याँ भी ठंढी हो रही हैं। ’- और फिर भीतर की ओर गर्दन घुमाकर आवाज लगाए थे -‘शक्ति बेटे! ये लोग आगए हैं। ’

‘अरेऽरेऽरे! इतना कष्ट करने की क्या आवश्यकता थी? हमलोग नास्ता वगैरह से निश्चिन्त हो कर आए हैं। ’- हमदोनों एक साथ ही बोल उठे।

‘वाह! यह भी कोई बात हुई, शक्ति कितने शौक से तुमलोगों के लिए नास्ता बनायी है -बादाम की पकौडि़याँ और नारियल की चटनी, और तुम कहते हो कि नास्ता कर के आया हूँ?’- अन्दर से आती हुयी चाची ने कहा।

वसन्त के कान से अपना मुंह सटाते हुए मैंने आहिस्ते से कहा,

‘लाख नास्ता कर आए हो, पर शक्ति के हाथों की बनी पकौडि़याँ क्या प्लेट भी खा जाएगा वसन्त। ’- जिसे सुन कर धीरे से मुस्कुराते हुए, जोर से चिकोटी काट खाया मेरे गाल पर।

शक्ति नास्ता लेकर आ गई थी। चाचाजी ने पान का बीड़ा मुंह में सम्हाला और हमदोनों ने अपने-अपने आसन ग्रहण किए। शक्ति दो प्लेटों में भरपूर नास्ता रख कर चली गई। चाचीजी के एक इशारे पर ही वसन्त टूट पड़ा, चुरमुरी पकौडि़यों पर, मानों दुश्मन की फौज पर राष्ट्रभक्त सेना टूट पड़ी हो।

थोड़ी देर में हमलोग जब चाय-नास्ते से निश्चिन्त हो चुके, तब चाचाजी चित्रगुप्त के रोजनामचे की तरह अपने परिवार का जन्म-पत्र निकाल कर मेरे सामने फैला दिए। मेरा तो माथा ठनका, देखकर उस भारी भरकम रजिस्टर को, जिसमें एक-एक कर बड़े करीने से उनके परिवार के सभी सदस्यों की जन्मपत्री बनाई हुई थी।

सोचने लगा था मैं, क्या सचमुच इन्होंने प्रकाण्ड ज्योतिषी ही समझ लिया है मुझे? कहाँ मैं चौदह-पन्द्रह का छोकड़ा, और कहाँ यह विधाता की सी जन्मपत्री। क्या बता पाऊँगा? क्या कह पाऊँगा, इसे देख कर? बस इतना ही तो, जो इसके निर्माता ने गणित चक्रों के बाद थोड़ा बहुत फलित भी लिख छोड़ा है, उसे ही तो मात्र पढ़कर अपने शब्दों में कह सुनाऊँगा। अतः कुछ टालने के विचार से बोला- ‘गणित के साथ-साथ कुछ फलित तो लिखा ही हुआ है- कुछ हिन्दी, कुछ संस्कृत में। मैं समझता हूँ, यह तो मुझसे अधिक आप स्वयं ही पढ़कर समझ सकते हैं। मैं क्या इतना महान ज्योतिषी हो गया जो आप महानुभावों के सामने अपनी थोथी राग अलापूँ। रही बात हस्तरेखा की, सो जहाँ तक समझ पाऊँगा, विधाता-लिखित इस दुरूह लिपि को, यथासम्भव प्रयास करूँगा स्पष्ट करने का। वास्तव में अभी मेरा अनुभव और ज्ञान ही क्या है- इस गहन विद्या का। शायद प्रशान्त महासागर का एकाध बूँद ग्रहण कर पाया होऊँ, वह भी पूर्वजों के प्रसाद स्वरूप, और आप महानुभावों के आशीष से। ’

‘कोई बात नहीं कमल बेटे! जो भी थोड़ा-बहुत जानते हो सो ही बतलाओ। कुछ भी हो, उन सड़क छाप ढोंगियों से तो अच्छा ही बता पाओगे। ’- बड़े प्यार से कही थी चाची, और पास ही सोफे पर बैठ, अपनी हथेली पसार दी थी, यह कहती हुई - ‘ सबसे पहले मेरा हाथ देखो, मरूँगी सुहागिन ही न?’

‘यह क्या कह रही हो चाची जी! अभी आपको बहुत काम करने को पड़े हैं। चुनु-मुनु को पढ़ाना-लिखना है, फिर शक्ति की शादी भी तो....। ’- बीच में ही टपकते हुए कहा था वसन्त ने। अन्तिम शब्द ‘शादी’ कहते हुए वह खुद ही झेंप गया था। शक्ति लजाकर भीतर भाग गयी थी।

‘नहीं बेटे, मेरे कहने का मतलब यह है कि मरना तो एक दिन है ही, पर इनसे पहले मर जाती तब न अच्छा होता। हर भारतीय नारी की यही अरमान होती है। ’- चाची ने कहा था, और उनकी हथेली थाम कर मैं गम्भीर चिन्तन में निमग्न हो गया था।

फिर पलभर में ही उघाड़ कर रख दिया था- उनके भूत-वर्तमान-भविष्य को एक पेशेवर ज्योतिषी की तरह। न जाने उनमें कितनी बातें सही थी, कितनी गलत; पर गौर से मेरी बातों को सुनती हुई चाची कुछ गम्भीर अवश्य हो गयी थी। कुछ देर ठहर कर बोलीं- ‘अच्छा, अब जरा अपने चाचा का हाथ देखो। पता नहीं इनकी कैसी ग्रह-दशा चल रही है, जो हमेशा बीमार-बीमार से ही रहा करते हैं। ’ और खुद से ही खींच कर उनका हाथ मेरे सामने टेबल पर रख दी थी।

‘दिखलाइए न अपना हाथ, सोच क्या रहे हैं?’

‘कुछ तो नहीं सोच रहा हूँ। ’- के लघुत्तर के साथ चाचाजी ने अपना हाथ सरका कर मुझसे और समीप कर दिया; किन्तु अन्यमनस्क से ही बने रहे। पिछले तीन दिनों पूर्व चाचाजी के चेहरे पर जो चमक मैंने देखा था, जो अब से कुछ देर पूर्व तक भी विद्यमान था, न जाने क्यों किस अज्ञात कारण से अचानक ही गायब हो गया था।

मैं सोचने लगा था कि कहीं ऐसा कुछ उटपटांग तो नहीं बक गया मैं चाची के हाथ देख कर, जो स्नेहिल चाचाजी को इतना प्रभावित कर गया।

‘क्यों कमल बेटे! तुम क्या सोचने लगे? देखो न इनका हाथ। ’- चाची ने उकसाया था मुझे। उनके कहने पर मैं मानों नींद से जग पड़ा।

‘ऐं ऽ हाँ, देख रहा हूँ। देख रहा हूँ। ’- कहता हुआ, सामने पड़ी चाचाजी की हथेली पर अपनी दृष्टि जमा दिया था।

सूर्य से लेकर नेपच्यून-प्लूटो ग्रहों तक, मेष से मीन राशियों तक छोटी-बड़ी हर रेखाओं का गहन अध्ययन-चिंतन काफी देर तक करता रहा था। भय भी हो रहा था कि कहीं कोई गलत बात मुंह से न निकल जाए और पहले से ही खिन्न चाचाजी को और भी हतोत्साहित न कर जाए।

हालाकि लाख ढूढ़ने पर भी कोई विशेष ग्रह स्थिति या रेखा मुझे न नजर आयी थी। हाँ, कुछ खास लक्षण अवश्य मिले थे- हृदय रोग के। उसे भी मैं अपेक्षाकृत सामान्य बनाकर ही कहा था।

फिर एक के बाद एक प्रश्न- कभी चाचा, कभी चाची, कभी वसन्त, करते जा रहे थे। यथासम्भव मैं उनके प्रत्येक प्रश्नों का उत्तर भी देता जा रहा था। इस प्रकार लगभग दो घंटे गुजर गए। घड़ी पर निगाह डालते हुए देवकान्त चाचाजी ने कहा था- ‘पौने ग्यारह बज गए। ’

फिर शक्ति को आवाज लगाए, जो प्रारम्भ में ही वसन्त के मुंह से अपनी शादी वाली बात सुन कर शरमा कर अन्दर जा चुकी थी। ‘शक्ति बेटे! एक बार और चाय चल जाती तो मजा आता। ’

उनकी बात अभी पूरी भी न हो पायी थी कि उधर से एक अपरिचित नवयौवना, हल्का सा घूंघट काढ़े हाथों में चाय की ट्रे लिए कमरे में प्रवेश की।

हम चारो के सामने चाय की प्याली रख कर वापस मुड़ना ही चाही थी कि चाची ने कहा, ‘आओ बहू, जरा तुम भी अपना हाथ दिखा लो। ’ और भाभी का हाथ पकड़ कर अपने बगल में बैठा ली थी। चाय का प्याला उठा, होठों से लगाती हुई चाची ने पुनः कहा-‘बड़ी ही सुशील है। भगवान ऐसी ही बहु सबको दे। आज के जमाने में सास-बहु के रिस्ते कितने कटु हो गए हैं। ’

‘हो क्या गए हैं, आज? प्रायः हर जमाने में ऐसी ही बात रही है, कभी कम कभी ज्यादा । बहू घर में आयी नहीं कि सासुजी का राग अलापना शुरु हो गया। दोष तो दोनों पक्ष में कुछ न कुछ होता

है। ’- चाची की बातों का जवाब चाचा ने दिया था।

आखिर कुछ कारण भी तो होता ही है। कहीं होता है दहेज का मामला, तो कहीं होता है बहू का स्वभाव और स्वास्थ्य। पर भगवान की कृपा कहो कि मेरी बहू के साथ ऐसी कोई बात नहीं है। बेचारा

बाप असमय में ही चल बसा था, बिन ब्याही बेटी को छोड़ कर। बड़े भाई ने शादी की। पिता की तरह पालन-पोषण किया था उसी ने। दहेज भी बिन मांगे मुंह मांगा दिया। साथ ही बहू का स्वभाव तो साक्षात लक्ष्मी सा ही है। ’- चाची अपनी भोली बहू की सराहना करते अघा नहीं रही थी।

‘अब देखो न आज कल के लड़कों को, यदि उनके अध्ययन काल में ही शादी कर दी जाए तो फिर नित्य उनके कॉलेज में हड़ताल और तालेबन्दी प्रारम्भ हो जाता है। शाहजादे ज्यादातर रहेंगे ससुराल या फिर घर - जब बहू यहाँ हुई। पढ़ाई-लिखाई जाए चूल्हे मे, । और ये बहुयें भी आजकल की ऐसी ही हैं। कर्तव्य बोध न लड़कों को है, और न इन आधुनिका पत्नियों को ही। फिर इसी प्रकार खींच-तान कर किसी तरह पढ़ाई पूरी हो जाय और सौभाग्यवश यदि नौकरी मिल जाय, बस मत पूछो उनका दिमाग चला जायेगा, सातवें आसमान में। बन जायेंगी सती-सावित्री और सीता; और चल देंगी अपने राम के साथ वनवास पर...अरे नहीं, प्रवास पर, लक्ष्मण को लिए वगैर ही। फिर कौन पूछता है- कौशल्या और दशरथ को?’- चाचाजी बहु पुराण सुनाने लगे थे।

उनके प्रवचन में दखल देती हँसती हुई चाची बोली- ‘आदत है न, लेक्चर देने की। घर में भी लेक्चर देने लगे। जाने भी दें, दुनियाँ के बहू-बेटों की बात। आपकी बहु राम के साथ वनवास नहीं गई है न?

बेचारा अमर चार साल से नौकरी कर रहा है, पर एक बार भी चूँ नहीं किया बीबी को साथ ले जाने के लिए। इधर कुछ दिनों से मैं ही जोर देकर साथ भेजने लगी। भगवान ऐसी ही बहु सबको दे। ’

मेरा तो जी चाहा था कह दूँ - ‘हाँ, क्यों ले जाये बेचारा आपकी बहू को अपने साथ। यह तो आयी है- आपकी दासी बन कर। फिर पति से क्या वास्ता। ’ किन्तु कह न सका था। भीतर ही भीतर भुनभुनाकर रह गया था। उनके विवेक पर अमल करता रहा था। क्या ही ढंग है सोचने का दुनियाँ के सासों का! बहु रहे हमेशा उनकी सेवा में हाजिर, क्यों कि वे माँ हैं बेटे की। किन्तु वही सास किसी बेटी की भी माँ होती है, जिसकी आकांक्षा होती है कि मेरी बेटी को मेरा दामाद हमेशा अपने सर आँखों पर रखा करे। परन्तु विडम्बना यह है कि हर सास और हर माँ ऐसा ही सोचती है। फिर सन्तुलन आये तो क्यों कर?

चाचा-चाची का तर्क-वितर्क बारी-बारी से कौवालों के प्रश्नोत्तर की तरह अभी चल ही रहे थे, और मैं भी अपने अन्तर तर्क धुन में गुम था कि बीच में ही शक्ति आ टपकी पके आम की तरह, और चहक

उठी- ‘माँ! भाभी अपना हाथ दिखायेंगी या मैं दिखाऊँ? बेचारी को बैठा ली हो और समाजशास्त्र पर परिचर्चा प्रारम्भ कर दी हो। ’

अपना हाथ दिखाने को उतावली शक्ति की बातों का जवाब चाची ने दिया, ‘नहीं.., नहीं..पहले जरा बहु को दिखा लेने दो, फिर सारा दिन बैठी दिखाती रहना तुम अपना हाथ-पैर। ’

शक्ति के प्रति चाची की टिप्पणी वसन्त को भीतर ही भीतर गुदगुदा सा गया। अपने पैर के अँगूठे से मेरे पैर को दबाते हुए बांयी आँख मिचका दिया। उसका भाव समझते मुझे देर न लगी। मैंने कहा

घबड़ाओ नहीं वसन्त, तुम्हें तो हाथ देखना और दिखना दोनों है न?’

‘तो क्या यह भी जानता है हस्तरेखा?’- चाची की उत्सुकता जगी।

‘नहीं चाची, आप भी इस पगले की बातों पर यकीन करने लगीं। मैं तो कितनी बार कहा इससे कि मुझे भी कुछ सिखलाओ अपना हुनर। पर इसे तो लगता है कि मैं इसका रोजगार ही हड़प लूँगा। ’- हँसते हुए वसन्त ने बातें बनायी।

‘इधर आ जाओ, पास में जरा। ’- कहती हुई चाची भाभी का हाथ पकड़ बगल की कुर्सी पर बिठा दिया, और उनका हाथ मेरे हाथ में देती हुयी- मानों मैं कन्यादान ग्रहण कर रहा होऊँ- बोली थी, ‘जरा देखो तो कमल! बहु की गोद कब तक भरेगी? बेचारी को आए पांच साल से ऊपर हो गए। पर भगवान न जाने कहाँ सोये हैं इसके लिए?’

मैं अभी कुछ कहना ही चाह रहा था कि एक झटके के साथ मेरे हाथ से अपना हाथ छुड़ा कर भाभी उठ खड़ी हुयी।

‘धत् मैं नहीं दिखाती हाथ-वाथ। ’- कहती हुयी वह झट से अन्दर चली गयी दूसरे कमरे में।

चाचाजी हँसने लगे थे - ‘अभी बचपना नहीं गया है। देखो न, बच्चे की बात पर कैसे भाग खड़ी हुई बच्ची की तरह। ’

हस्तफलाकांक्षिओं में अगली और अन्तिम बारी थी शक्ति की। भाभी का अन्दर जाना था कि शक्ति खिलखिलाती हुयी ड्राईंगरूम में चली आयी, जो थोड़ी देर पहले चाची के आदेश पर अन्दर से पनबट्टा लाने चली गयी थी। एक हाथ में पान का बीड़ा और दूसरे में डब्बा

पकड़े माँ के बगल में आकर बैठ गयी। बांकी चितवन का मधुर फुहार मेरी ओर छोड़ती हुयी बोली- ‘क्या कह दिया आपने भाभी को जो हाथ दिखाए वगैर ही वापस भाग गयी? नहीं दिखाना था तो इतनी देर बैठी क्यों रही? अब तक मैं दिखा ली होती। ’

‘तो अब देर किस बात की? आ जाओ सामने। अब तो तुम्हारी ही बारी है। ’-कहा था चाचाजी ने।

हाथ का पान-बीड़ा माँ को देती, पानडब्बा तिपाई पर रख कर, शक्ति पास की कुर्सी पर धब्ब से बैठ गयी, जहाँ अब से पूर्व भाभी बैठी हुई थी। अपना दायाँ हाथ आगे बढ़ाती हुई हँस कर पूछी थी-

‘जरा देखिए तो ज्योतिषी जी! भतीजा कब तक होने का योग है?’

उसके इस प्रश्न के मसखरापन से एक बार सबके सब ठठाकर हँस दिए। पर्दे की ओट में खड़ी भाभी फिर एक बार शरमा कर भीतर कमरे में भाग गयी। हँसी का दौर कुछ देर तक चलता रहा।

बाहर टपक आयी पान की पीक, जो ठहाके के दौरान चाची की साड़ी पर अचानक गिर आयी थी. पोंछती हुई चाची ने कहा-‘बड़ा ही शोख है शक्ति। हाथ दिखलाएगी ये, और फलादेश होगा इसकी भाभी का। ’

‘तो क्या हो गया इसमें, हाथ में जब सारी बातें लिखी होती हैं, तो भतीजे की रेखा भी जरूर होगी? ’- शक्ति पुनः मचलती हुई बोली थी।

‘हाँ कमल! इसका हाथ जरा ठीक से देखो। पता नहीं सिर्फ शैतानी ही करती रहेगी या कुछ पढ़े-लिखेगी भी। पढ़ने में बहुत ही कमजोर है । जरा भी मन नहीं लगता इसे पढ़ने-लिखने में। सारा दिन सिर्फ रेडियो सुनते रहती है। ’- चाचा ने शिकायत की थी।

वसन्त जो इतनी देर से चुप बैठा था, मजाक का नुख्ता पा गया-‘हो सकता है चाचाजी इसके हाथ में विद्या रेखा के बदले रेडियो-स्टेशन की रेखा ही हो। ’

वसन्त की बात पर फिर एक बार जोरों की हँसी का पटाका फूटा, और इस बार तो चाची के मुंह में भरे पान की पीक उनकी साड़ी को ही सराबोर कर गयी थी।

अपने हाथों के मृदु स्पर्श से शक्ति फिर मेरा ध्यान आकर्षित की थी अपनी हथेली की ओर- ‘देखिए न हाथ। आपलोग तो सिर्फ मजाक कर रहे हो। भतीजे की रेखा का पता नहीं, और रेडियो-टी.वी.सब मौजूद है मेरे हाथ में। ’

इस बार मैंने उसका हाथ सामने करते हुए कहा- ‘जरा अपना बायां हाथ इधर बढ़ाइये शक्तिजी! आपने तो दायां हाथ पसार रखा है। आप लड़की हैं या लड़का?’

‘यह भी पता नहीं चल रहा है तुम्हें? लड़की होती तब न बायां हाथ दिखाती। ’- वसन्त को फिर मौका मिल गया चुटकी लेने का।

‘मैं नहीं समझती, दायें-बायें का अन्तर। दोनों हाथ मेरे ही हैं। और रेखायें भी दोनों में हैं ही। ’-शक्ति थोड़ा तुनक कर बोली। और दूसरा हाथ भी सामने फैला दी- ‘अब देखिये जो देखना हो। ’

मैंने उसकी शंका का समाधान किया- ‘ हस्तरेखा विज्ञान का नियम है कि स्त्रियों का बायां और पुरुषों का दायां हाथ विशेष महत्त्व पूर्ण होता है। सिर्फ विशेष परिस्थिति में ही इस नियम का उलंघन होता है। ’- इतना कह कर मैं अपना ध्यान उसकी हथेली पर केन्द्रित कर दिया। काफी देर तक उलझा रहा उसकी हस्तरेखाओं में।

बीच-बीच में हथेली को कभी सीधा, कभी उलटा करता, कभी हथेली के विभिन्न भागों पर अपनी अंगुली का हल्का दबाव डाल कर ग्रह पर्वतों का जायजा लेता। मेरी यह हरकत वसन्त के लिए बड़ा भारी पड़ रहा था। अतः वाध्य होकर टोक दिया।

‘क्या नजरें गड़ाये हो? कुछ बोलो भी तो। ’-जिसके जवाब में चाचाजी ने कहा -‘नहीं..नहीं हड़बड़ी की कोई बात नहीं है। नजरें तो गड़ानी ही पड़ेंगी। ग्रह-पर्वों को जाँचना ही पड़ेगा। वस्तुतः हस्तरेखा

विचार इतना आसान नहीं है, जितना लोग समझ लेते हैं। दो-चार पुस्तकें पढ़ लिए और स्वयं को ‘वशिष्ठ-पराशर और कीरो समझ लिए। मैं तो कई बार इसमें हाथ डालने का प्रयास किया, परन्तु हर

बार निष्फल ही रहा। खैर छोड़ो। शक्ति बहुत उतावली हो रही है। जल्दी से कुछ बतलाओ इसे। क्या है इसके भाग्य में?’

मैं फिर एक बार क्षणभर के लिए ध्यानस्थ हुआ, और तब कहना शुरू किया- कैसे कहते हैं कि शक्ति पढ़ती नहीं? इसकी हथेली पर तो सूर्य और सरस्वती दोनों ही रेखायें हैं। साथ ही प्रखर है मणिबन्ध का विद्या स्थान। इतना ही नहीं भक्ति रेखा, लक्ष्मी रेखा, गुरू पर्वत सबके सब तो बलिष्ठ ही दृष्टिगोचर हो रहे हैं। इसकी बुद्धि काफी कुशाग्र होनी चाहिए। ’

मेरा फलादेश सुन कर चाचाजी कहने लगे-‘बिलकुल ठीक कह रहे हो, इसकी बुद्धि कुशाग्र है ही। स्मरण शक्ति इतनी तेज है कि हर फिल्म के नायक-नायिका, गीतकार-संगीतकार, सबके सब पहाड़े की तरह याद हैं इसे। ’

‘धत् पापा! आप भी बड़े वो हैं। कभी कभार रेडियो क्या सुन ली कि आप ढिंढोरा पीटने लगे। ’-बड़ी नजाकत से शक्ति बोली।

मैंने अपनी बात आगे बढ़ायी - अरे हाँ, इसके हाथ में तीर्थरेखा, मीन रेखा, छत्र रेखा आदि भी हैं । चन्द्र पर्वत बतलाता है कि इसे संगीत का प्रेमी भी होना चाहिए। साथ ही साहित्य का भी। ’

‘ठीक कहते हो बेटा! संगीत से बहुत लगाव है। हमेशा कुछ न कुछ लिखते भी रहती है। अपने विद्यालय की पत्रिका में कई दफा इसकी कहानियाँ और कवितायें छप चुकी हैं। ’- चाची आत्म गौरव

से बोल रही थी।

‘देख लिए न, मेरे कमल ज्योतिषी का कमाल? पल भर में ही आपकी शक्ति का पैथोलोजीकल टेस्ट कर दिखया। वह भी बिलकुल सही और स्पष्ट रूप से। ’- वसन्त ने जरा चमचागिरी की मेरी।

चाची थोड़ा अधिक भाउक हो उठी। बोली, ‘ अच्छा बेटा ! सब कुछ तो विचार कर ही लिए। जरा यह भी देख कर बतलाओ कि घर-वर कैसा मिलेगा मेरी शोख विटिया को?’

माँ की बात सुन कर शक्ति एकबारगी शर्म से लाल हो गई;किन्तु भाभी की तरह हाथ छुड़ा उडंछू नहीं हुई। मैंने उसकी हथेली का पुनः गौर से निरीक्षण किया। उलट-पुलट कर अँगुलियों के पोरूये

देखे, और कनिष्ठिका के जड़ को निहारा, मन ही मन कुछ नाप-जोख भी किया;फिर कहने लगा - चाचीजी! शक्ति का दाम्पत्य जीवन बड़ा ही सुखमय होना चाहिए। किसी बड़े खानदान की होनहार बहू बनेगी आपकी शक्ति बिटिया।

चाचा ने पूछा था काफी उत्सुकता पूर्वक, किन्तु कुछ चिन्तित मुद्रा में- ‘इसके विवाह का समय संयोग कब तक जुट रहा है?’

शक्ति की पलकें एक बार फिर झुक आयी, लाल हो आयी गालों की ओर। तलहथी पर पसीने की बूंदें छलक आयी थी। उन्हें आहिस्ते से पोंछते हुए मैंने पुनः स्वयं को केन्द्रित किया उसकी हथेली पर। कुछ देर मौन योगायोग गणित विचार के बाद बोला-अब से करीब पांच बर्षो बाद। अभी उमीद करता हूँ कि शक्ति की उम्र चौदह के करीब होगी। यानी पांच बर्षों बाद, उन्नीश साल की उम्र में इसकी शादी होनी चाहिए।

‘बाप रे! अब से पांच बर्ष बाद हो सकेगी इसकी शादी! इतना लम्बा समय...पता नहीं कैसे गुजरेंगे ये वक्त ? इतने दिन कौन रहेगा कौन नहीं?’- चाचाजी ने लम्बी सांस छोड़ते हुए कहा था।

उनकी बातों को बीच में ही काटती हुई चाची बोली थी- ‘आप बस यूँ ही व्यर्थ की चिन्ता में घुले जाते हैं। पांच बर्ष गुजरने में देर ही कितनी लगती है? और अभी शक्ति बिटिया की उम्र ही क्या है, जो इतना घबड़ा रहे हैं ?’

कहने को तो चाची सान्त्वना देदी थी चाचाजी को, पर इस लंबी अवधि की चिन्ता रेखा उनके चेहरे पर स्पष्ट उभरती नजर आयी।

चाचाजी ने पुनः कहा- ‘नहीं, अमर की माँ! पाँच बर्ष का समय कोई कम नहीं होता है। वह भी मेरे जैसे रूग्ण व्यक्ति के लिए। कमल की बात पर लगता है तुमने ध्यान नहीं दिया। ’

चाची ने आश्चर्य भरा प्रश्न किया- ‘कमल की कौन सी बात?’

चाचाजी कहने लगे- ‘तुमने भले न ध्यान दिया हो, पर मैंने गौर किया था, मेरे हृदय रेखा और रोग रिपु रेखा पर विचार करते समय कमल एकाएक गम्भीर हो गया था। भीतरी घबड़ाहट को सम्हालते हुए कहा था -कोई खास बात नहीं है, फिर भी रोग और शत्रु के प्रति निश्चिन्त नहीं होना चाहिए। सावधानी और संयम वरतना ही चाहिए। - इसके चेहरे के उतार चढ़ाव को परखने में क्या मैं इतना नादान हूँ? जबकि इसने बहुत बनने की कोशिश की थी। ’

चाचाजी अभी कहे ही जारहे थे- ‘तुम खुद सोचो- जिसके हृदय के चार में दो कपाट- एक ऑरिकल और एक भेन्ट्रिकल वाल्भ पूरी तरह प्रभावित हो चुके हैं, उसे ‘लैसिक्स, ल्यूनैक्सीन, पोटोक्लोर’ आदि कब तक सम्हाल सकते हैं? मेरा एक पांव मृत्यु-द्वार के चौखट पर धरा हुआ है और दूसरा उसके नीचे, और तुम कहती हो पांच साल?

चाचाजी अभी और कुछ कहते जाते, किन्तु आँचल के छोर से अपने आँसू पोंछती चाची, आगे बढ़ कर उनके मुंह पर अपना हाथ रख दी थी।

और फिर समय का एक बड़ा सा टुकड़ा फुरऽऽऽ... से उड़ गया था।

स्मृतियों के वयार में अतीत डायरी के पन्ने फड़फड़ाते रहे...।