निरामय / खंड 2 / भाग-5 / कमलेश पुण्यार्क
उस दिन आंगन में खड़ा यूँ ही खोया सा न जाने कब तक निहारता रहता रूप लावण्य की उस प्रतिमा को और अतीत के पन्नों को बेतरतीबी से पलटते रहता कि अचानक कँधे पर किसी का स्पर्श पाकर चौंक उठा। पीछे मुड़ कर देखा तो गॉगल्स का शीशा पोंछते हाथ में रूमाल लिए मुस्कुराते हुए वसन्त को खड़ा पाया।
‘कहाँ खो जाते हो? किसे देख रहे हो इतनी हसरत से?’- कहता हुआ इधर-उधर देखने लगा था।
मैंने हाथ का इशारा बरामदे की ओर किया, जो अब विलकुल खाली हो चुका था। वहाँ बैठी सारी किन्नरियाँ भीतर कमरे में जा चुकी थी। माइक्रोफोन और स्पीकर के माध्यम से उनकी ही एक भिन्न
सांस्कृतिक लहरी कानों को तृप्त करने लगी। महाकवि जयदेव की पंक्तियाँ -पद्मापयोधरतटीपरिरम्भलग्नकाश्मीरमुद्रितमुरो मधुसूदनस्य।
व्यक्तानुरागमिव खेलदनङ्गखेदस्वेदाम्बुपूरमनुपूयरतु प्रियं वः। ।
(लक्ष्मी के आलिंगन से उनके कुचों पर लगे केसर कृष्ण के वक्षस्थल में लग गयी, यही मानों प्रत्यक्ष प्रेम है, वा लक्ष्मी ने भगवान के हृदय पटल पर मुहर लगा दिया ताकि बिना इनकी आज्ञा के उसका स्पर्श अन्य रमणियाँ न करें, ऐसी रतिक्रीड़ा से उत्पन्न पसीने से युक्त श्रीकृष्ण आपका मंगल करें) - ये सुमधुर स्वागत स्वर थे - भोजन के लिए उपस्थित वारातियों के लिए। कानों में पड़ते गीत के स्वर, स-रस होकर जिह्वा तक पहुँचने का प्रयास करने लगे। वसन्त की खोजी निगाहें इधर-उधर भटक कर वापस आ गयी थी, ‘अच्छा तो अब समझा, वह जो काले रंग की सलवार कुर्ते वाली गोरी परी थी, उसके बारे में ही सोच रहे थे तुम? यानी कि पहचाने नहीं उसे?
हाँ, अब तो पहचान ही गया। शक्ति है न, देवकान्त चाचा की दुलारी, जो कलकत्ते में छावडि़या निवास में रहती थी, जिसका हाथ हमने एक बार देखा था। --वसन्त की शंका का समाद्दान किया मैंने।
‘हाँ हाँ वही शक्ति है। पर अब बेचारी में वह शक्ति रही कहाँ! अब तो हर तरह से शक्तिहीन हो गयी है। ’- वसन्त कुछ उदास होकर बोला।
मैंने आश्चर्य से पूछा था - लेकिन वह यहाँ? क्या रिस्ता है उसका यहाँ पर?
वसन्त ने कहा- ‘उसकी ननिहाल यहीं है न। तेरी होने वाली भाभी या अब कहो जो अभी-अभी हो चुकी है तुम्हारी भाभी, उसकी बुआ की लड़की है शक्ति। देवकान्त चाचा के असामयिक निधन के बाद वह प्रायः यहीं मामा के घर ही रहती है। वैसे कुछ दिन के लिए कानपुर अपने चाचा के यहाँ भी रही थी, पर चाचा आखिर चाचा ही होता है, पिता का स्थान...। ’
मैंने बीच में ही टोका, किन्तु अमर को तो ध्यान रखना चाहिए था छोटे भाई-बहन के प्रति।
मेरी बात पर वसन्त मुंह बिचका कर बोला, ‘देख ही रहे हो सपूत बेटे-बहू का रवैया। बहन पड़ी ननिहाल में गुजारा कर रही है, और वे मियां-बीबी चकल्लशबाजी में मशगूल हैं। खैर छोड़ो इन अतीत की बातों को। चलो सभी लोग भोजन पर बैठे हुए हैं। तुम्हारी राह देख रहे हैं। ’- कहता हुआ वसन्त मेरा हाथ पकड़ बाहर की ओर चल पड़ा। उसके साथ मैं भी बाहर बरामदे में आ गया।
सभी लोग पंक्तिवद्ध बैठ चुके थे- भोजन के लिए। लाउडस्पीकर अभी भी सुनाए जा रहा था, गीत गोविन्द की लडि़याँ-
“प्रलयपयोधि जले धृतवानसि वेदम्, विहित वहित्र चरित्र मखेदम्।
केशव धृत मीन शरीर...जय जगदीश हरे....। । "
कानों में गूँज रही थी, कोकिल कंठियों की मधुर ध्वनियाँ, सामने पत्तल पर पड़ा था छप्पन कोटि व्यंजनों का अम्बार, किन्तु मन था वहाँ से कोसों दूर कुलांचे मारता -कभी कलकत्ता कभी कानपुर तो कभी भीतर के बरामदे में।
विगत तीन बर्षों में परिस्थितियाँ कहाँ से कहाँ पहुंचा दी थी दुनियाँ को, सोच कर खुद ही ताज्जुब होने लगा था। उस बार वसन्त के साथ देवकान्त चाचा के घर गया था, पूरे परिवार का हाथ देखने। वहाँ से डेरे पर आते ही सूचना मिली थी कि मेरी दादी का स्वर्गवास हो गया है। फलतः चले आना पड़ा था वापस गांव में अपने चाचा-चाची के साथ।
श्राद्धादि सम्पन्न कर वापस गया था, करीब महीने भर बाद। वहाँ जाने पर मालूम हुआ कि दशहरे की छुट्टी में शक्ति का पूरा परिवार अपने गांव चला गया है। महीने भर बाद, जब छुट्टी समाप्त हो गयी थी, हम और वसन्त बड़ी बेसब्री से शक्ति के वापस कलकत्ता आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। इसी बीच चिट्ठी आयी थी, कानपुर से उसके चाचा की; जिसमें लिखा था कि उनकी द्वितीया पुत्री का द्विरागमन अगहन में होने वाला है। इस कारण पूरा परिवार घर से कानपुर जा चुका है।
परिणामतः हमलोगों की अधीरता एक माह और आगे बढ़ गयी। फिर पूरा अगहन बीता, पौष बीता और आधा माघ भी गुजर गया। हमलोगों की प्रतीक्षा बढ़ती जा रही थी। ट्यूशन से लौटते समय प्रायः छावडि़या निवास का चक्कर लगा लिया करता था। पर हमलोगों के स्वागत में हमेशा मुंह चिढ़ाता ताला ही उपस्थित रहता। फिर एक दिन पत्र मिला शक्ति के चाचा का, जिसके साथ ही वसन्त की भाभी का भी पत्र था- लिफाफे में लिफाफा। लिखी थी-‘प्रिय वसन्त बाबू! हम सब यहाँ कुशल से हैं। आप सब की मंगलकामना के लिए ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ। नीता का गौना हो गया, पिछले महीने ही। मैं अभी यहीं हूँ। आशा है, कुछ दिन और यहीं रहूँगी भी। पता नहीं आपके भैया मुझसे नाराज क्यों रहते हैं। कभी भूल कर भी पत्र नहीं देते। आपको तो कम से कम नहीं भूलना चहिए। आँखिर उन्हीं का दूसरा रूप तो आप भी हैं। शक्ति अभी यहीं है। इधर उसके पिताजी की तवियत बहुत खराब चल रही है। दिल का दौरा फिर पड़ गया है। इसी कारण कलकत्ता जाने से पिताजी ने मना कर दिया है। मुझे भी कलकत्ता आने की इच्छा हो रही है। शक्ति के साथ मैं भी जरूर आऊँगी;और आपके ज्योतिषी मित्र कमलजी से मैं भी हाँथ दिखलाऊँगी कि आपके भैया क्यों मुझसे रूठे रहते हैं। वश आज इतना ही। पत्रोत्तर की आशा में –
आपकी भाभी। ’
पत्र पढ़ कर वसन्त लिफाफा मेरी ओर सरका दिया था। यह कहते हुए, ‘लीजिए ज्योतिषीजी अब तो आपकी यश-कीर्ति कलकत्ते से सवा सात सौ मील दूर कानपुर तक पहँच चुकी है। शीघ्र ही और
आगे राजधानी भी पहुँच जायेगी। फिर आप प्रधानमंत्री के ज्योतिषी बन जायेंगे। आपका तो बश ‘परमोशन ही परमोशन’ है। परन्तु क्या आप जानते हैं कि यह सब शक्ति देवी की कृपा है?’
मैं कुछ कहता, इसके पूर्व ही वसन्त ने मायूसी पूर्वक कहा, ‘एक संवेदनापूर्ण समाचार है - देवकान्त चाचा को दौरा फिर पड़ा है। यह दूसरी बार है। हे ईश्वर रक्षा करना! अभी बहुत कुछ करना शेष है, बिचारे को। ’
इस संवाद को मिले सप्ताह भर से अधिक हो गए। हमलोग सोच रहे थे कि स्वास्थ्य सुधर गया होगा, और शक्ति शीघ्र ही अपने माता-पिता और दीदी के साथ कलकत्ता वापस आ जाएगी। परन्तु शक्ति नहीं आयी, आया एक टेलीग्राम -
“Father hospitalized at Jashalok_Amar”
पढ़ते-पढ़ते टेलीग्राम हाथ से छूटकर नीचे जा गिरा। उसे उठाते हुए वसन्त ने कहा-‘लगता है स्थिति काफी गम्भीर हो गयी है। तभी तो कानपुर से बम्बई ले जाना पड़ा। आज रात बम्बई मेल से मुझे भी चले जाना चाहिए। ’
और रात आठ बजे वह रवाना भी हो गया। इच्छा तो मेरी भी हो रही थी, साथ निकल चलने को, किन्तु अपने चाचाजी से अनुमति मिलना नामुमकिन जान, मन मसोस कर रह गया।
चौथे दिन बम्बई से भेजा वसन्त का टेलीग्राम मिला था-चाचाजी अब सदा के लिए इस धरा-धाम को त्याग चुके थे। अन्त्येष्टि संस्कार के बाद वसन्त वहाँ से उनके गांव चला गया था।
करीब पन्द्रह दिनों बाद वापस आया था कलकत्ता, श्राद्धादि सम्पन्न करके, अकेले ही। बेचारी शक्ति अब आकर क्या करती वहाँ? क्या रह गया अब उसका इस महानगर में! कुछ यादें...। बस और क्या?
डेरे का सामान अमर भैया आकर लेगए थे। शक्ति अपनी माँ -भाभी के साथ गांव में ही रहने लगी थी। फिर सुनने में आया कि बर्षों से ननिहाल में ही रह रही है। पिता के देहावसान के थोड़े ही दिनों बाद माँ को साँप डंस लिया। शक्ति सर्वथा असहाय हो गई। भाई-भौजाई भी ध्यान न दिए। तब से गुजर करने चली आयी ननिहाल में ही.....।
वारातियों का भोजन समाप्त हो चुका था, और गीतगोविन्द भी। रमणियों का कंठस्वर अब दूसरा ही राग अलाप रहा था -‘जे न वरात पुरौ नृप दशरथ, काहे न लाये निज जनियाँ के, बहिनियाँ के, पितिअइनियाँ के, कोई हरत न उनकर जवनियाँ के....सुन के लागे न तीखो....। ’
बगल में बैठा वसन्त फिर मेरी तन्द्रा भंग किया था-‘कहाँ खो जाते हो? क्या सोचते रहते हो?’
सामने की भोजन पंक्ति में बैठे पिताजी भी टोक दिए थे-‘क्यों कमल! तबियत तो ठीक-ठाक है न? खाना सब पड़ा रह गया, कुछ खाये नहीं। क्या बात है?’
किन्तु उनकी बातों का क्या जवाब देता ? कहाँ खोया था और क्या हुआ है मेरी तबियत को ? परन्तु वसन्त इससे गैरवाकिफ न था। हाथ पकड़ कर खीचते हुए बोला- ‘ चलो उठो। बैठे झक क्या मार रहे हो? हाथ तो धो लो कम से कम। ’ और फिर कान में अपना मुंह सटाते हुए आहिस्ते से कहा था-‘इच्छा है, मुलाकात करोगे शक्ति से?’
विगत बातें याद आ-आ कर मन कसैला कर गया था। रोम-रोम में अजीब सिहरन सी हो रही थी। मुलाकात! क्या होगा करके? क्या
पूछुँगा, क्या कहूँगा शक्ति से? कहाँ से बात प्रारम्भ करूँगा? क्या कह कर सन्तोष- दिलाशा दूँगा कि मैं तुम्हें भुला चुका....?’
और फिर क्षणभर में ही तीन-चार हथेलियों का दृश्य आखों के सामने नाच गया था -जटिल हृदय रोगी का हाथ, आसन्न वैधव्य का हाथ, बड़े खानदान की होनहार बहू का हाथ...और इसी तरह...।
आँसू की लडि़याँ बनकर लुढ़क आयी थी कपोलों पर। सामने खड़े वसन्त की आँख बचाते हुए अपनी जेब में हाथ डाला, और सहेज लिया था उन मोतियों की लड़ी को।
भोजन के तुरत बाद ही वारात की विदाई हो गई थी। ध्वनि-विस्फारक यन्त्र अभी भी अपना कर्तव्य निभाये जा रहा था -
“ बाबुल की दुआएँ लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले।
मैके की कभी ना याद आए, ससुराल में इतना प्यार मिले....। ’
और डोली चल पड़ी थी भैया-भाभी को साथ लेकर। मैं मन मारे पीछे-पीछे चलता रहा था। शक्ति जहाँ की तहाँ रह गई थी। न मैंने कुछ कहा, न उसने ही।
डायरी का एक और पन्ना फड़फड़ा कर अतीत द्वार का दूसरा पट खोल गया,
और मैं धीरे-धीरे पग धरता उस द्वार के भीतर बढ़ता चला गया...बढ़ता ही चला गया....
मई का महीना था। पन्द्रह या सोलह तारीख। स्कूल मौर्निंग चल रहा था। घंटे भर पहले स्कूल से लौटा था। दोपहर का खाना खाकर अभी-अभी विस्तर पर लेटा था, यह सोच कर कि घंटा भर विश्राम कर लूँ, फिर स्कूल का टास्क पूरा करूँगा। इसी बीच दरवाजे पर दस्तक हुई -खटऽऽटऽऽखट! डाकियाऽ...ऽ।
चौंक कर कच्ची नींद से जाग पड़ा। भुनभुनाते हुए हड़बड़ा कर उठ बैठा --कम्बक्त डाकिये को इसी वक्त आना था। इसे तो धूप भी नहीं लगती। भीषण गर्मी है। प्रचण्ड लू चल रही है। कहीं मार दिया लू तो हो जायेगी छुट्टी बच्चूराम की...।
और द्वार खोल दिया था, एक ही झटके में। सामने खड़ा डाकिया मुस्कुरा रहा था- ‘बहुत सोते हो कमल। ’
तो क्या मक्खियाँ मारूँ, बैठ कर जेठ की दोपहरी में या आपकी तरह मारा-मारा फिरूँ, इस गांव से उस गांव?--कहता हुआ उसके हाथ से एक लिफाफा और ‘कल्याण’ का मई अंक लेकर कमरे में आ गया।
कल्याण के मुखपृष्ट को पलट कर द्वितीय पृष्ट पर छपे रंगीन चित्र को सबसे पहले देखने की मेरी पुरानी आदत थी। उस मई अंक में छपा था चित्र- श्री राधाकृष्ण की युगल छवि।
ऑस्ट्रेलियन गाय सी सीना ताने, गोपाल के पीछे खड़ी थी एक सुन्दर सी गाय, और उससे टेका लगाए खड़े थे, राशविहारी वनमाली श्रीकृष्ण, जिनके एक हाथ में थी मुरली, जो उनके सुघड़-सलोने होठों से लगी हुई। दूसरा हाथ था- अपनी आह्लादिनी शक्ति राधा के वाम कुच-शृंग पर, और राधा के दोनों हाथ वर्तुलाकार होकर अपने प्रियतम को ग्रसे हुए था- वाहुपाश में। राधाजी मन्द-मन्द मुस्कुरा रही थी। पलकें मुंद कर कजरारे नयनों को ढके हुए थी, शायद इसलिए कि उनसे विंध कर कोई और ग्वाल-बाल घायल न हो जाए।
चित्र इतना सुन्दर था कि मैं खो सा गया कुछ देर के लिए उस युगल छवि में। ऐसा लगा मानों कृष्ण की वंशी की मद्दुर तान मेरे कानों में पड़ रहे हों। चित्र के ऊपर लिखा हुआ था-
“पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते। "
और बगल के पृष्ठ पर लिखा था-
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफल हेतुर्भूर्मा ते सङगोऽस्त्व कर्मणि। । "
बहुत देर तक टकटकी लगाए रहा उस दिव्य छवि पर, और फिर नीचे सरक कर नजरें जा लगी गीता के उस श्लोक पर, जिसमें कर्म की दुहाई दी गयी है-भाग्यवाद की धरा पर धर कर, कर्म की महत्ता सिद्ध की गयी है।
लोग कहते हैं- कृष्ण परब्रह्म हैं। परमेश्वर हैं। पूर्णावतार हैं। अर्जुन को उपदेश दिए थे- कर्म करने मात्र का। उसके फल की आकांक्षा को ‘कृष्णार्पणमस्तु’ कर देने का। हुंऽह...क्या ही अनोखा उपदेश है –कर्म करो, करते जाओ। फल देने वाला तो कोई और है। कौन है वह फलदाता- प्रारब्ध?भाग्य?या कृष्ण?
थोड़ी देर के लिए अजीब भ्रमजाल में उलझ गया था, अपरिपक्व बाल मस्तिष्क। तभी ध्यान आया लिफाफे का, और चट खोल डाला उसे। यह पत्र था, कलकत्ते से चाचाजी का भेजा हुआ, पिताजी के पास। अन्य समाचार कोई खास महत्त्व पूर्ण नही था मेरे लिए। हाँ, था महत्त्व तो सिर्फ एक बात का-‘....उस बार घर आया था तो कह रहे थे तुम कि गांव के स्कूल में कमल की पढ़ाई-लिखाई अच्छी नहीं हो पाती। यदि उसकी छमाही परीक्षा हो गयी हो तो स्थानान्तरण प्रमाणपत्र के साथ शीघ्र कमल को लेकर यहाँ आजाओ। मैंने यहाँ रेलवे स्कूल के इन्सपेक्टर से बात की है। एडमीशन हो जायगा। ‘
मेरे लिए इस पत्र का काफी महत्त्व था। बहुत दिनों से लालसा लगी थी, शहर में जाकर पढ़ने की। लगता है अब भाग्य जगा है। कुछ पल पूर्व देखी गयी, राधाकृष्ण की युगल छवि की ओर बरबस ही ध्यान चला गया, जो अभी भी वहीं विस्तर पर खुली पड़ी थी। मुस्कुराते हुए उसे उठाकर माथे से लगा लिया। ईश्वर के प्रति कृतज्ञता के भाव उत्पन्न हो गए। वास्तव में तू कितना दयावान है। कितनी कृपा की है तूने मुझ पर;और फिर गुनगुनाने लगा था-‘कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन...। ‘ हाथ में पत्र लिए कमरे से बाहर निकल, दौड़ता हुआ चल दिया माँ के पास, जो बरामदे में बैठी चावल बीन रही थी। थिरकता हुआ उसे सुसंवाद दिया- माँ! चाचाजी की चिट्ठी आयी है। लिखा है उन्होंने
कि जल्दी से भेज दो कमल को। यहाँ नाम लिखा जाएगा। ...किसके साथ जाऊँगा माँ? कब जाऊँगा?
माँ ने कहा था- ‘पिताजी के साथ जाओगे और किसके साथ। ’
कब जाऊँगा माँ? - मैंने फिर सवाल दोहराया।
‘जब वे कहेंगे। ’- संक्षिप्त सा उत्तर था माँ का। मैंने गौर किया - ममता की मूर्ति माँ की आँखों के किनारे गीले हो आए थे। तेरह बर्ष के ‘बूढ़े’ गोद के बच्चे को पास से हटा कर पढ़ाई के लिए इतना दूर भेजना, माँ को अच्छा न लग रहा था। तभी तो गीले हो आए आँखों के किनारों को आँचल से पोंछती हुयी माँ, लपक कर मुझे गोद में खीच ली थी। मुझे अपने मजाकिया मामा की बात याद आ गयी- ‘ भाँजे राम जानते हो मेरी माँ- यानी तुम्हारी नानी क्या कहा करती थी मुझसे?’
मैं उत्सुकता पूर्वक पूछता - क्या कहती थी मेरी नानी आपको मामाजी? ‘कहती थी- बासी विद्यानासी। ’- मामाजी कहते।
क्या मतलब हुआ इसका?- मैं तपाक से पूछता।
‘मतलब यह कि सदा बासी भात खाया करो, ताकि विद्या कभी न आवे। विद्या पाने के लिए दूर जाना पड़ता है। पढ़ने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है। पढ़-लिख कर नौकरी करनी पड़ती है। इसमें भी मेहनत है, और घर से दूर भी जाना पड़ता है। माँ से दूर हटना पड़ता है। मैं इसी कारण हमेशा बासी खाया, मौज से माँ के पास रहा। ’- मामाजी की वे ही बातें आज याद आ कर पल भर के लिए गुदगुदा गयी थी।
सच में अब विद्या पाने के लिए ही तो माँ से दूर जा रहा हूँ। और पुलकित होते हुए बाहर भाग गया था, माँ की गोद से उठ कर; अपने यार-दोस्तों को बतलाने।
दूसरे ही दिन पिताजी के साथ जाकर स्कूल से नाम कटा लिया था, और तीसरे दिन चल पड़ा था, टी.सी. लेकर कलकत्ता की ओर पिताजी के साथ।
गांव की सीमा को पार कर, सुदूर शहर में जाने का यह पहला अवसर था। शहर क्या, महानगर -अपने प्रान्त को छोड़ दूसरे प्रान्त में। विहार को छोड़ बंगाल में।
गांव के स्कूल में एक तो पढ़ाई अच्छी नहीं होती थी, दूसरी बात कि निरंतर विषाक्त होता जा रहा ग्रामीण माहौल, और इसका खमियाजा भुगतती नयी पीढ़ी। कितनों को यह साधन-सुविधा उपलब्ध है जो दूर जा सकें पढ़ने के लिए?
माँ-पिताजी, प्यारी सी एक छोटी बहन, भोला, रामू, मोहन, सुधीर आदि लंगौटिया यार-दोस्त, सोणभद्र के तट पर मीलों फैले बगीचे-जिनमें आम, अमरूद, जामुन, कदम्ब आदि पेड़ सुस्वादु फलों से लदे हुए, सोन की तराई में बल्लरियाँ –तरबूज, खरबूज, ककड़ी, खीरा; अपनी गृह-वाटिका में भरे पड़े पेड़-पौधे –लीची, अंगूर, केला, संतरा, नासपाती, शरीफा, शहतूत यह सारा कुछ तो था मेरे गांव में, मेरे घर में...। फिर क्यों, इन सब को पराया कर, सिर्फ एक उद्देश्य - पढ़ाई के लिए चल देना पड़ा उजाड़ नीरस नगरी में?
हाँ, सर्वगुण सम्पन्न कलकत्ता महानगर मेरे लिए वास्तव में नीरस नगरी ही थी, जहाँ मेरा वह कुछ नहीं है, जो मेरे गांव में उपलब्ध है।
ऐसा ही कुछ सोचता हुआ चला जा रहा था- स्यालदह-जम्बू-तवई एक्सप्रेस के द्वितीय श्रेणी के डब्बे में बैठा हुआ। काफी देर तक गुम-सुम बैठा देख पिताजी ने कहा था- ‘क्यों कमल! क्या सोच रहे हो? माँ याद आ रही है क्या या मुन्नी?’
पिताजी के इस प्रश्न को सुनते ही देर से दबाए आँसू जबरन लुढ़क आए गालों पर । स्थिति को भांपते हुए पिताजी ने पास बुला कर अपनी गोद में बैठा लिया, जो सामने की सीट पर बैठे हुए थे।
अपने गमछे से मेरा मुंह-आँख पोंछते हुए बोले- ‘बस, कलकत्ता पहुँचने भर की देर है, फिर तो भूल जाओगे सब कुछ वहाँ की चकाचौंध में। फिर न याद रहेगी मुन्नी और न माँ। ’
मैं सोचने लगा था- क्या सच में भूल पाऊँगा माँ और मुन्नी को? अभी कोई डेढ़-दो माह बाद ही तो रक्षाबन्धन का त्योहार आना है। उस दिन कौन बाँधेगा मुझे राखी? कलाई सूनी ही रह जायेगी?
तभी याद आ गया था एक और भोला मुखड़ा। घर से चलने से घंटे भर पहले गया था -पड़ोसन मुंहबोली बहन मैना के यहाँ। मैना बाल-सहचरी थी मेरी। साथ खेलना, साथ खाना, यहाँ तक कि कभी-कभी
रात में खाना खा कर उसके साथ ही सो जाना, ऐसा ही तो होते आया था अब तक।
मुन्नी का जन्म तो बहुत बाद में हुआ था। उसके जन्म के पहले जब भी रक्षाबन्धन आता, रो-रो कर आँखें सुजा लेता अपनी - कौन मुझे राखी बाँधेगा?
वैसे ही एक त्योहार के दिन मैना की माँ ने हाथ पकड़ कर मेरे सामने हाजिर कर दिया था- ‘लो, यह है तुम्हारी बहना। बँधवालो राखी जितना बँधवाना है। मगर रोओ मत। ’
फिर मैना ने भी न आव देखा न ताव। पास पड़े रंगीन धागे को उठा कर मेरी कलाई पर बाँध ही तो दी थी, और मैं खुशी से नाचता हुआ माँ के पास चला गया था - देखो माँ मैना ने राखी बाँध दी है मुझे। लाओ न देने के लिए उसे राखी का दक्षिणा।
माँ ने दिया था, उस समय का प्रसिद्ध बेहतरीन ‘अलपाका ’ का एक टुकड़ा मैना के फ्रॉक के लिए, और साथ ही नगद दो रूपये, मिठाई खाने के लिए। हाथ में रूपया और कपड़ा लिए दौड़ता चला गया था मैं मैना के पास, और उसके ना नुकूर के बावजूद जबरन दे आया था उसके हाथों में।
वही मैना आज चलते वक्त रूआँसी होकर बोली थी- ‘इस बार तो तुम जा रहे हो भैया, राखी किसको बाँधूँगी? कहीं भूल तो न जाओगे इस बहना को?’
‘नहीं मैना, ऐसा हरगिज नहीं होगा। ’-मैंने आँखें पोछते हुए कहा था।
मैना फिर पूछी थी- ‘अच्छा यह बतलाओ कि मेरे लिए कलकत्ते से क्या लाओगे?’
मैंने कहा था -जो भी अच्छा लगेगा, तुम्हारे लायक, उसे लेता आऊँगा।
तभी बाहर से पिताजी की आवाज आयी थी- ‘कमल! गप्पें ही मारते रहोगे? जल्दी करो। यात्रा का मुहूर्त बीता जा रहा है। ’
मैं घबराया हुआ सा बाहर आ गया था। मैना वहीं खड़ी सिसकती रह गयी थी।
इन्हीं बातों में उलझा पड़ा रहा था कुछ देर तक पिताजी की गोद में सिमटा हुआ सा। फिर पूछा था - गाड़ी कलकत्ता कब तक पहुँचेगी पिताजी?
‘यही कोई तीन-साढ़े तीन बजे शाम तक। ’- कहते हुए पिताजी कलाई पर बँधी घड़ी देखने लगे। मैंने फिर पूछा -कलकत्ता जाने वाली गाड़ी है, और नाम है- सियालदह जम्बू तवई -ऐसा क्यों?
पिताजी ने मेरी शंका-समाधान किया- ‘ कलकत्ता का प्रधान स्टेशन है- हावड़ा; और उसके पूर्वी छोर पर है- स्यालदह। यह गाड़ी वहीं जाती है। ’
वहाँ से कितनी दूर है, चाचाजी का डेरा?- मेरे पूछने पर पिताजी ने अपने बैग से निकाल कर कलकत्ते का ‘गाइड-मैप’ मेरे सामने फैला दिया था; और समझाने लगे थे- ‘ यहाँ देखो हावड़ा स्टेशन है, और यहाँ पूर्वी छोर पर है स्यालदह। वहाँ से करीब तीन-चार किलो मीटर की दूरी पर है, कालीघाट। वही पटेल कॉटन कम्पनी के क्वाटर में रहते हैं तुम्हारे चाचाजी। ’
इतनी दूर पैदल चलना पड़ेगा क्या?-मैंने सवाल किया।
‘ पैदल क्यों?शहरों में सवारी की काफी सुविधा होती है। लोग दस कदम भी पैदल नहीं चलते हैं। कलकत्ते में तो और अधिक सुविधा है। ट्राम, बस, तांगा, टैक्सी, रिक्शा, डबलडेकर आदि बहुत से साधन हैं। ’- पिताजी ने सवारियों की सूची और निर्धारित किराया, उसी नक्शे में एक ओर छपा दिखलाया था।
यह डबलडेकर क्या होता है?- मैंने फिर सवाल किया।
‘यहाँ लोगों को देखते हो न, ट्रेन-बस की छतों पर जान जोखिम में डालकर, और कुछ हीरो छाप शौकीन भी सफर करते हैं। न जनता को परवाह है, न सरकार को चिंता। कभी-कभी प्रशासन के कान पर जूँ रेंगती है। धर पकड़, मारपीट होती है। फिर प्रशासन कान में तेल डाल कर सो जाता है, और जनता जनार्दन ‘कुत्ते की दुम’ टेंढ़ी की टेढ़ी रह जाती है। ’- हाथ के इशारे से पिताजी ने डिब्बे में एक जगह लिखा हुआ दिखलाया- ‘ रेल आपकी सम्पत्ति है’ ‘जीवन अनमोल है’ किन्तु हम समझते कहाँ हैं। कितने लोग पढ़ते होंगे इस‘स्लोगन’ को? और पढ़ने वालों में अमल कितने लोग करते होंगे?’
मैंने नजरें उठाकर देखा -एक जगह और भी एक स्लोगन था-
‘धूम्रपान निषेध’ और ठीक उसके नीचे बैठा, एक शूटेड-बूटेड मुसाफिर सटासट चुरूट पी रहा था।
मैंने गर्व पूर्वक कहा -पिताजी मैं जब बड़ा होऊँगा तो दो मंजिला रेल बना दूँगा, ताकि लोगों को कठिनाई न हो। जिसे सुन कर पिताजी हँसते हुए बोले- ‘इसीलिए तो कलकत्ते में भीड़भाड़ को देख कर सरकार डबलडेकर यानी दो मंजिला बस चला दी है। ’
मेरे दिमाग में फिर एक प्रश्न उभरा -‘ पिताजी! जब यहाँ प्लेटफार्म पर बिना भीड़-भाड़ के टिकट मिल ही रहा था, तब आप इतनी परेशानी क्यों उठाए? यहीं क्यों नहीं लिए?
मेरी बात पर पिताजी मुस्कुराते हुए बोले-‘रेल विभाग ने टिकट खिड़की तो वहीं बनाई है। वहाँ प्लेटफार्म पर हाथ में डायरी लिए जो काला कलूटा आदमी देखा था तुमने, जैसा शरीर वैसी पोशाक और वैसा ही मन-मस्तिष्क भी। ये सब रेल विभाग के ‘घुन’ हैं, जो भीतर-भीतर खाए जा रहे हैं। उनकी डायरी में नाम लिखा दो, दो रूपये किराये के बदले अठन्नी-चवन्नी कुछ थमा दो बस। टिकट लेने के धक्काधुक्की से भी बच गए और हो सकता है कि बैठने के लिए सीट भी मिल जाए। देश रसातल में जाए। ये विभाग के सेवक, रक्षक और पहरेदार नहीं हिस्सेदार या कहो खुद को मालिक समझ बैठे हैं। कहने की जरूरत नहीं यह व्यवस्था का ‘घुन वाला कीड़ा’ सर्वत्र मिल जाएगा। कमाल की बात तो यह है कि यह संक्रामक कीड़ा नीचे से चढ़ कर ऊपर की ओर नहीं गया है, वल्कि ऊपर से नीचे की ओर शनैः-शनैः सरकता हुआ बढ़ा है। और राष्ट्रकाय को नष्ट-भ्रष्ट करने पर तुला हुआ है। ’
पिताजी की लम्बी समालोचना के बीच में मैं अपना मनोभाव स्पष्ट किया-यह तो बहुत गलत बात है। फिर इस पर ध्यान क्यों नहीं दिया जा रहा है?
उन्होंने कहा-‘किसे सोचने-विचारने की फुरसत है? दिल-दिमाग , कर्म-स्वभाव चाहे कैसा भी क्यों न हो, कपड़े लकदक हों, खादी हो तो और उत्तम, फिर सौ खून माफ। समाज में उसकी ही प्रतिष्ठा है;बाकी तो प्रतिष्ठा के काउण्टर पर सबसे पीछे धक्के खाते नजर आयेंगे.....। ’
रास्ते भर फिर ऐसी ही बातें होती रही थी। करीब घंटा भर लेट गाड़ी पहुँची स्यालदह स्टेशन पर। और वहाँ से डेरा पहुँचे थे हमलोग करीब पांच बजे शाम को। चाचा-चाची बहुत ही प्रसन्न हुए हमें देख कर।
अगले दिन रविवार था। चाचाजी ने पिताजी से कहा, ‘आज स्कूल का कोई काम होना नहीं है। अच्छा होता कमल को अपने साथ घुमा-फिरा देते। कलकत्ते के चहल-पहल से थोड़ा परिचित हो जाता तो मन लग जाता। ’