निरामय / खंड 2 / भाग-6 / कमलेश पुण्यार्क

Gadya Kosh से
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पिताजी ने कहा- ‘ आप ही इसे टहला लाईये। हमें जाना है एक दो लोगों से मिलने-जुलने। फिर कल ही वापस भी जाने का विचार है। रात दून एक्सप्रेस से निकल जाऊँगा। ’

‘ठीक है मेरे साथ ही घूम आएगा। ’- कहते हुए चाचाजी ने मुझे जल्दी से तैयार हो जाने का आदेश दिया।

मध्याह्न भोजन के बाद हमलोग निकल पड़े। छोटे बड़े कई जगहों पर मुझे ले गए चाचाजी। यहाँ तक कि शाम होने को आयी। अन्त में हमें लेकर पहुँचे बड़ा बाजार जोड़ासाकू के पास हाजी मुहम्मद बिल्डिंग।

सारा दिन यहाँ-वहाँ बहुत घूमा। नयी जगह, नयी बातें, नयी चीजें; किन्तु इसके बावजूद कुछ खास न लगा मुझे। न जाने क्यों मन उचाट सा रहा। कुछ भी तो नहीं दीखा जो बाँध सके मेरे मन को। न आम के

बगीचे न जामुन के पेड़, न कोयल की कूक, न तरबूज की बल्लरियाँ, और न मटर की छेमियाँ। हाँ जहाँ-तहाँ ठेले पर, खोमचे में या फिर ऊँची-ऊँची दुकानों पर करीने से सजे फल जरूर नजर आए, जिन्हें देख कर लगा कि उन्मुक्त गगन के पंछियों को पिंजरे में बन्द कर दिया गया है-‘पर’ काट कर। यहाँ न मेरा मोहन है न रामू और न भोला। मैना को भी दूर ही छोड़ आया था। जी चाहा कि चिल्लाकर रो पड़ूँ। किन्तु वह भी न कर सका। चारों ओर शोर-शराबा इतना कि कोई रोए भी तो सुन न पाए कोई।

तिमंजिले इमारत की छोटी-छोटी संकीर्ण सीढि़याँ चढ़ते हुए चाचाजी ने बतलाया- ‘इसी मकान के ऊपरी मंजिल में तुम्हारे मामा रहते हैं। इस इलाके का यह नामी मकान है। इतना बड़ा कि छोटा सा गांव समा जाए इस मकान में। ’

चाचाजी की यह सूचना मुझे थोड़ी देर के लिए पुलकित कर गई। मुरझाए मन के अन्धेरी गलियारी में विजली सी चमक उठी। मामा यहीं रहते हैं, तब तो वसन्त भी यहीं होगा।

पिछली बार यानी तब से कोई दो-तीन साल पहले जब उसके भैया की शादी में माँ के साथ नानी घर गया था तब वसन्त से भेंट हुई थी। उस समय तो वह बच्चा सा लगता था। बच्चा क्या, वह

तो मुझसे सिर्फ कुछ महीने ही बड़ा है। भेंट होते ही कलकत्ते का पूरा इतिहास-भूगोल पढ़ा गया था। और अन्त में कहा था-‘अरे कमल क्यों नहीं तुम भी वहीं नाम लिखवा लेते। कितना अच्छा होता, हमदोनों

साथ-साथ स्कूल जाते। खेलते, घूमते। बड़ा मजा आता। ’

मैंने मुंह विचकाते हुए कहा था -कौन पूछने वाला है मुझे वहाँ, इतने बड़े शहर में एक निरे देहाती गरीब बच्चे को?

‘क्यों?’- आँखें तरेर कर वसन्त ने पूछा था।

क्यों क्या? मेरे पिताजी के पास इतना पैसा कहाँ है, जो इत्तेबड़े शहर में रख कर पढ़ा सकें?- मैंने अपनी असमर्थता जाहिर की थी।

‘पैसा नहीं है तुम्हारे पिताजी के पास तो क्या हुआ? चले आओ किसी तरह, मेरे यहाँ रहना। वैसे भी यह तुम्हारी माँ की माँ का घर है। वहाँ सिंगल माँ है, यहाँ डबल मा – मामा। ’- हँस कर वसन्त ने कहा था।

माँ की माँ का घर है, मेरी माँ का नहीं न? मैंने अपने अधिकार की स्पष्टीकरण दिया।

‘छोड़ो भी ये फिजूल की बातें। कहो तो मैं पापा से बात करूँ। ’- कहता हुआ वसन्त दौड़ा चला गया था मामा के पास दूसरे कमरे में। माँ भी वहीं बैठी थी।

वसन्त के भोले प्रस्ताव पर क्षणभर विचार करने के बाद मामा कुछ कहना ही चाह रहे थे कि उनके बदले माँ ने ही कहा था- ‘अभी हड़बड़ी क्या है? कमल अभी बहुत छोटा है। थोड़ा और बड़ा हो जाए, फिर देखा जाएगा। ’

और फिर समय बीतता गया था, एक-दो-तीन करके। बीच-बीच में मैंने कई बार कहा भी था-पिताजी से। मामा की चिट्ठी भी आयी थी। किन्तु मेरी गृह-परिधि ज्यों की त्यों बरकरार रही।

इस बार संयोग से चाचाजी का तबादला गोपालगंज से जब कलकत्ता हो गया, तब मेरा भाग्य-पट स्वतः खुल गया, समय के वयार से;और बर्षों की चाह सहज ही पूरी हो गयी।

अब तक हमलोग ऊपर तीसरी मंजिल पर पहुँच गए थे। रविवार होने के कारण मामा डेरे पर ही थे। वसन्त भी था ही। देखते के साथ ही आश्चर्य चकित हो गया।

‘कब आया कम?और कौन आया है घर से? फूफाजी?- एक साथ कई सवाल दाग दिए वसन्त ने, और मेरा हाथ पकड़ खीचता हुआ मामी के पास लिए चला गया था।

मैंने हर्षित होकर कहा –हाँ, पिताजी के साथ ही आया हूँ , और यूँही कलकत्ता टहलने नहीं, बल्कि पूरी तैयारी से। नाम यहीं लिखवाना है स्कूल में।

जान कर वसन्त ने खुशी जाहिर की- ‘तब तो बड़ा ही अच्छा है। किस स्कूल में नाम लिखवाने का इरादा है?’

मैं क्या जानूँ, कौन सा स्कूल। चाचाजी जहाँ लिखवा देंगे। - मैं कह ही रहा था कि मामा कहने लगे- ‘जब आ ही गए हो, तो चिन्ता किस बात की। मैं अपने ही स्कूल में तुम्हारा नामांकन करा दूँगा। वसन्त भी तो वहीं पढ़ता है आठवीं में। ’

‘वाह पापाजी। तब तो मजा आ जाएगा। हमदोनों साथ मिलकर स्कूल जायेंगे। ’-वसन्त खुशी से नाच उठा था।

‘हाँ-हाँ क्यों नहीं, चुहलबाजी का एक सदस्य बढ़ जाएगा। ’- कहकर मामाजी हँसने लगे। उनकी हँसी में चाचाजी ने भी हिस्सा लिया।

दूसरे दिन यानी सोमवार को मामा के साथ विवेकानन्द विद्यालय गया था। इसी स्कूल में मामाजी संस्कृत के शिक्षक थे। प्रधानाचार्य से उनकी बातचीत हुई। मेरे गत परीक्षा का अंकपत्र और स्थानान्तरणपत्र देखा उन्होंने। फिर मुंह चुनते हुए पॉकेट से सिगरेट निकाल होठों से

दबाते हुए बोले- ‘ओऽ बिहारी छेले...तोबे तो मुश्किल...। ’

मामा ने कहा था- ‘कोई रास्ता निकालिए। आपकी आपत्ति इसी बात पर है न कि बिहार का शिक्षास्तर बंगाल से बहुत नीचे है? यह तो जाँच-परख की बात है। जरा इसका ‘मार्क्सशीट’ तो देखिए, कितना हाई मार्क्स है हाफ इयरली में। इस पर भरोसा न हो तो ‘इन्ट्रेन्श टेस्ट’ ले लीजिए। सिर्फ बिहार के नाम से क्यों...। ’

मामा के इस तर्क पर प्रधानाचार्य श्री घोषाल मौन हो गए। जाहिर है कि उनके पास समुचित उत्तर नहीं है। जरा ठहर कर होठों से सिगरेट हटा, एक लम्बा कश छोड़े और तब इत्मीनान से तन कर बैठते हुए बोले- ‘किन्तु ऐई मोध्य सोत्रे की कोरे हऽते पारे?’

मामा कुछ उदास से हो गए-‘ तऽबे?’

सिगरेट का दूसरा कश खीच-छोड़ कर श्री घोषाल ने फिर कहा था-‘आगामी जोनवरी मासे टेस्ट नीए आमी नामाकन कऽरते पारबो, एखून सोम्भव नेंई। ’

मामा और महाशय घोषाल के बीच हुए बंगीय संवाद को तो मैं समझ नहीं पाया; किन्तु प्रधानाचार्य के गरिमामय पद-मर्यादा की खिल्ली उड़ाता सिगरेट का धुआँ और सिगरेटधारी होठों की मुद्रा कई प्रश्न चिह्न लगा गए मेरे बाल मस्तिष्क में- यह तो ‘छब्बीस जनवरी’ का घोर अपमान है! क्या हम सच में गणतन्त्र में रहते हैं?

हमदोनों बाहर आ गए चेम्बर से निकल कर। मामा ने कहा था- ‘कोई बात नहीं, कुछ तो रास्ता निकलेगा ही। पांच-छः माह की तो बात है। तैयारी में लग जाओ। दिसम्बर में टेस्ट दे देना है। नाम लिखा जाएगा जनवरी में। इस प्रकार साल भी बरबाद नहीं होगा। ’

तत्काल नाम न लिखाने का अफसोस तो जरूर हुआ, किन्तु उससे भी अधिक दुःख प्रान्तीय संकीर्णता का हुआ। अपने ही घर का एक कोना क्या अपना नहीं है --बाल मस्तिष्क इससे अधिक कुछ सोच न पाया, निकाल न पाया दिल में चुभ कर टूट गए कांटे को।

उसी दिन संध्या समय मामाजी मेरे लिए कुछ किताबें लेकर आए। मुझे आवश्यक निर्देश देते हुए चाचाजी से कहने लगे- ‘आप भी जरा ध्यान रखेंगे। मन लगाकर पढ़ाई करेगा तो नामांकन होना कठिन नहीं है। किसी न किसी तरह मैं रास्ता निकाल ही लूँगा। ’

अगले दिन से ही चाचाजी ने ट्यूशन लगवा दिया था- केदार सर के यहाँ। वसन्त भी वहीं जाया करता था। मेरी तैयारी जोर-शोर से चलने लगी। केदार सर ने बड़े मनोयोग पूर्वक पढ़ाया था मुझे। अगले कुछ ही माह में मैं अपने स्तर में काफी विकास अनुभव करने लगा था। एडमिशन टेस्ट में सफलता स्पष्ट झलकने लगी थी।

जनवरी महीने में नामांकन हो गया, नौवीं कक्षा में। स्कूल जाने का नियमित कार्यक्रम प्रारम्भ हो गया।

विगत सात-आठ माह का शहरी प्रवास काफी कुछ सिखा गया था- रहन-सहन, तौर-तरीका। फिर भी विद्यालय का वातावरण कुछ अजीब सा लगता था एक बन्धन सा। खाकी पैन्ट, सफेद कमीज, काला जूता, सफेद मोजा, नीली टाई, सुनहरा बैज-‘विवेकानन्द उच्च विद्यालय, कलकत्ता’ लिखा हुआ। कुल मिला कर यह सब साहबी ठाट ही तो था- एक ग्रामीण छात्र के लिए। एक और बात- विकट समस्या भाषा की। ऐसा नहीं कि हिन्दी भाषी नहीं थे। मगर प्रान्तीयता का एक ‘ठसक’। बंगला लिखना-बोलना सीखना निहायत जरूरी था।

फिर शनैः-शनैः सब सहल हो गया। परिवेश कुछ-कुछ अपना सा लगने लगा।

इतना कुछ तो मैं यूहीं कह गया। असल में कहना कुछ और है। चौदह की उम्र, नौवीं का छात्र- यही तो था वह समय। जब वातावरण से लगभग परिचित हो चुका था। फिर भी प्रेम क्या होता है, उसकी अनुभूतियाँ कैसी होती हैं- मुझे उस वक्त तक कुछ भी समझ न था। स्कूल जाना और वापस चले आना। शाम खेल-कूद का समय मैदान के वजाय कीचेन में चाची को हाथ बटाने में गुजर जाना.फिर

ऊपर रेलिंग के पास या पटेल कॉटन कम्पनी के क्वार्टरों के मुख्य द्वार पर, जहाँ कि हमलोगों का डेरा था, खड़े होकर राहगीरों को देखना- मानों चिडि़या घर के जानवरों या सरकस के जोकरों को देख रहा होऊँ। और मन ही मन उनके देश, वेष, जाति, कौम आदि का अनुमान लगाना;फिर अन्धेरा हो जाने पर अनचाहे ही टेबल-लैम्प के पास बैठ जाना- कोई किताब खोल कर घंटे दो घंटे के लिए;फिर खाना और सो जाना। यही दैनिक का रूटीन बन गया था मेरा।

हाँ.कभी कभार खास कर रविवार या अन्य अवकाश के दिनों, दोपहर में वसन्त आ जाता, तब उसी के साथ निकल पड़ता सैर सपाटे के लिए। काफी देर तक कलकत्ते की लम्बी-चौड़ी सड़कों की

खाक छानता। देर रात गए वापस आता। रात वहीं गुजरती वसन्त के साथ ही।

मामा के डेरे के बगल में ही एक तिवारी परिवार रहता था। उम्र में कुछ बड़े होने के नाते वसन्त उन्हें भैया कहता था। उनकी शादी अभी हाल में ही हुयी थी।

भाभी वहीं रहा करती थी। उनका मैके भी पास में ही था। वसन्त का अधिकांश समय उन्हीं भाभी के साथ हँसी मजाक में गुजरता था। वह भी सगे देवर जैसा वर्ताव करती थी। मेरा भी

मनबहलाव हो जाता था- भाभी के साथ हँस-बोल कर। सहोदर बड़ा भाई न होने के कारण सगी भाभी का अभाव हमेशा खटकता रहा।

तिवारी भैया गणित के प्रतिभाशाली विद्यार्थी विट्टल वागडि़या महाविद्यालय में स्नातक द्वितीय बर्ष के छात्र थे। आए दिन हमलोगों की गणितीय समस्या-समाधान में इनका सहयोग मिला करता था।

एक दिन वसन्त ने बड़ी गम्भीरता से कहा-‘जानते हो कमल तिवारी भैया भाभी को बहुत प्यार करते हैं। भाभी भी बहुत चाहती हैं उन्हें। ’

‘तुम कैसे जानते हो कि उनमें बहुत प्रेम है, एक दूजे के लिए?’- मेरे बचकाने प्रश्न पर वह मुस्कुराने लगा। गाल पर आहिस्ते से थपकाते हुए बोला- ‘इसीलिए स्कूल में तुम भोंदूमल कहलाते हो। कभी चुपके से देखो तो पता चल जाय कि कैसे करते हैं एक दूसरे को प्यार। ’

और फिर एक रविवार का प्रोग्राम बना। रविवार को मैं उसी के डेरे पर रूकता था। रात सोते भी हमदोनों साथ में थे। देर रात धीरे से चिकोटी काटकर मुझे जगा दिया, और ले गया बगल कमरे के दरवाजे के पास। कारीगरी की कमी से कई छोटे सुराख थे उस किवाड़ में। उन्हीं में से झांक कर वह अकसरहाँ उनलोगों की हरकतें देखा करता था। अभी भी एक छेद में आँखें डाल भीतर का दृश्य देखते हुए, मुझे भी दूसरे छेद की ओर इशारा किया।

उस समय जब मैं एक सूराख में आँखें डाला तो भाभी को भैया की गोद में बैठे पाया। छोटी बच्ची की तरह भाभी उनकी गोद में सिमटी पड़ी थी.और भैया की अँगुलियाँ कभी भाभी के बालों से, कभी गालों से खिलवाड़ कर रही थी। कभी यहाँ-वहाँ वदन के अन्य हिस्सों में भी भैया के हाथ चले जाते, सहलाते हुए। दोनों हँस-हँस कर बातें कर रहे थे। फिर एकाएक मैंने देखा कि हड़बड़ा कर अपनी बाहों में जकड़ कर होठों को चूम लिए। चटाक की आवाज इतनी तेज थी कि स्पष्ट सुनाई पड़ी;और खटाक से अपनी नजरें हटा लिया मैंने सुराख से। बगल की सुराख से वसन्त की आँखें अभी भी सटी हुई थी। पता नहीं क्या-क्या अभी आगे देखना चाह रहा था।

मैं सोचने लगा था - मैं भी तो जब कभी अपनी माँ की गोद में होता हूँ, वह मेरे बालों और गालों पर अँगुलियाँ फेरने लगती है। न जाने क्या ढूढ़ने लगती है मेरे वदन पर। यूँही हाथ फेरती-फेरती कभी जूएँ ढूढ़ने लगती है। और बालों के खींच-तान से उब कर मैं भाग खड़ा होता हूँ।

छोटी मुन्नी जब कभी मेरी गोद में होती है, मैं उसे चूम लेता हूँ। कभी-कभी इतने जोरों से कि वह रो पड़ती है। क्या इसी को वसन्त के शब्दों मे प्यार कहते हैं? यदि हाँ तो फिर यह प्यार एक विशालकाय व्यास-निर्मित परिधि है। भैया-भाभी, माँ-मुन्नी और मैं में इसे संकुचित नहीं किया जा सकता। स्पर्श, बाहु- भरण और चुम्बन -ये तो वाह्य प्रतीक है, अभिव्यक्ति है। यह अजूबापन नहीं। सहज मानव स्वभाव है।

विस्तर पर आकर देर तक इन्हीं विचारों में उलझा रहा। नींद आ न रही थी, वसन्त की हरकत ने उचाट कर दिया था।

अगले ही रविवार फिर एक और घटना, कुछ-कुछ उसी प्रकार की घट गयी, जो प्यार की अनबूझ परिभाषा में कुछ और कडि़याँ जोड़ गई।

उस दिन घंटों से गणित का एक प्रश्न हल करने में उलझा हुआ था। पर प्रश्न भी मेरी परीक्षा ले रहा था। रात्रि के ग्यारह बज रहे थे। सुबह टास्क पूरा करने का समय नहीं मिलता। किसी प्रकार इसे इसी वक्त हल करना ही पड़ेगा। यह सोचकर चल दिया तिवारी भैया के कमरे की ओर, क्यों कि वसन्त से मैंने सुन रखा था कि कैसा भी जटिल सवाल तिवारी भैया चुटकी बजा कर हल कर देते हैं।

बाहर की आहट से भान हुआ कि भैया अभी सोए नहीं हैं। कमरे का किवाड़ यूँही भिड़काया हुआ था। सहज धक्के से सपाट खुल गया। पलंग पर से वे हड़वड़ा कर उठने लगे। पांव उलझ गए भाभी की साड़ी में। सिल्क साड़ी सर से सरक गई काफी ऊपर तक। मेरी आँखें जा टकरायी उनकी संगमरमरी सुडौल जंघाओं से। उल्टे पांव वापस आ गया। कह नहीं सकता, पर लगा कुछ अजीब सा। फेफड़ा धौंकनी सा चलने लगा। विस्तर पर पड़ा घंटों छत निहारता रहा। भाभी की नग्न जंघा अभी भी आँखों से ओझल न हो रही थी। सोचता रहा - आखिर भैया इस कदर क्यों सोए हुए थे, उठे भी तो इतनी लापरवाही पूर्वक। भाभी कितना शरमा गयी होंगी।

इसी प्रकार भय, लज्जा और ग्लानि से भरा रहा। कई दिनों तक उनका सामना न कर सका।

वसन्त प्रायः ऐसी ही चर्चा छेड़ देता। मैं चुप सुन लेता, क्यों कि समुचित जवाब न था मेरे पास। और फिर एक नयी बात - हमदोनों बाजार जा रहे थे। सायकिल मैं चला रहा था, और वसन्त आगे रॉड पर बैठा हुआ था। आदतन वह वैसी ही बातों की धुन में, मुझसे कहा- ‘जानते हो कमल, एक बात?’

‘क्या?’- मेरे प्रश्न के जवाब में उसने फिर प्रश्न ही रख दिया-‘लड़कियों के गाल इतने मुलायम और चिकने क्यों होते हैं, चाहे गोरी हों या काली?’

वसन्त की बात पर मैं जोर से हँसते हुए कहा -ये भी कुछ पूछने वाली बात है? अरे उन्हें दाढ़ी-मूंछें जो नहीं होती।

मेरा उत्तर सुन कर वह खिलखिला कर हँसते हुए बोला- ‘बुद्धु कहीं के। अभी तेरे गाल भी तो बिना दाढ़ी-मूंछ के ही हैं;किन्तु क्यों नहीं हैं वैसे? कभी सोचा?’

मैं निरूत्तर हो गया था। आखिर क्या जवाब लगाता उसके बेढंगे प्रश्न का?

सब्जी मंडी करीब आगया। भीड़ सघन हो गयी थी। सोच ही रहा था कि अब सायकिल से उतर जाऊँ; तभी अचानक सन्तुलन खो बैठा, बगल से गुजरते कुत्ते से टकराकर। और हड़बड़ाहट में मेरी सायकिल जा टकरायी एक लेडिज सायकिल से। नतीजा यह हुआ कि हमदोनों लुढ़क पड़ें। वह बेचारी भी सम्हल न सकी। एक ओर वह भी जा गिरी, और होठों से कड़ुआहट भरे बोल फूट पड़े- ‘कैमोनअसभेऽर लोग...सायकेल चालाते जानेन नेईं...आपनेउ पोड़लेन...आमाकेउ पोड़ालेन...। ’

मैं घबड़ा गया था, क्यों कि गलती मेरी ही थी। मैं उठ कर पहले उसकी सायकिल उठाने लगा। वसन्त भी पैंट झाड़ता उठा, और अपनी सायकिल सम्हालने लगा। ?फिर हमदोनों की नजरें तीसरी से जा टकरायी।

‘ओ तूमी कऽमऽलऽ?’-आश्चर्य और खेद भरे शब्द थे उसके। मेरे समीप आकर, मेरी ठुड्डी छूकर शर्मिन्दगी पूर्वक बोली- ‘येमनी भूल हऽए गालो...मऽधेऽ कुकूर देखे आमीऊ भऽय खेलाम...भीड़ छिलोई ...पोड़े गैलाम। ’

और फिर सायकिल सम्हालती सर झुकाए आगे बढ़ भीड़ में कहीं खो गयी। वह थी हमलोगों की क्लासफेलो - मीना चटर्जी।

उसके आगे बढ़ते ही मेरे मनचले वसन्त ने कहा- ‘देखे न, कितना भोलापन था उसमें? गुस्से में सलोने गाल की चिकनाहट लहु की ललायी से कितना निखर गया था। तुम तो ....। ’

सो कैसे?- मैंने बीच में ही टोका।

‘कैसे नहीं? गिराए भी बेचारी को और अपनी गाल भी छुलवाए उसकी नाजुक अँगुलियों से। ’- वसन्त ने कहा था।

अगले दिन स्कूल में मुलाकात हुई थी, मीना चटर्जी से। सामने पड़ते ही मैंने पूछा- बुरा मान गयी थी कल? मैंने जान बूझ कर धक्का नहीं दिया था। रास्ते में पड़ कर उस कुत्ते ने...।

शर्म से झुकी गुलाबी पलकें कुछ ऊपर उठीं। धीरे से मुस्कुरा कर बोली- ‘मैं क्यों बुरा मानने लगी, बुरा तो तुम माने होगे। मुझे लगा था कि कोई अवारा छोकरा जानबूझ कर टक्कर मार दिया है। इसीलिए गुस्से में ‘असभ्य’ शब्द निकल पड़ा मुंह से। बाद में तुमलोगों पर नजर पड़ते ही मैं शर्म से पानी पानी हो गई। गलती तो मेरी ही थी, जो राँग साइड चल रही थी। ’

इसे मैं उसका भोलापन कहूँ या उसकी महानता?बातें करते हमदोनों हरिशन रोड के चौराहे पर आ पहुँचे। उसका आवास करीब ही था बागड़ी मार्केट के पास। वह चली गयी अपने डेरे की ओर और मैं ट्राम पकड़ कर चल दिया कालीघाट, अपने डेरे की ओर।

उस दिन के बाद फिर हमदोनों का सानिध्य बढ़ने लगा। गपशप के साथ-साथ किताब-कॉपी-नोट्स आदि का आदान-प्रदान आरम्भ हो गया।

मुझे सायकिल चलाने का बहुत शौक था, वह भी लेडिज सायकिल चलाना ज्यादा अच्छा लगता था। मीना से परिचय-प्रगाढ़ता से सर्वाधिक प्रसन्नता इसी बात की हुयी थी। कम से कम नित्यप्रति मौका तो मिलेगा ‘रीशेस’ में ।

रोज इन्टरवल में उसकी सायकिल लेकर दौड़ाता रहता स्कूल -ग्राउण्ड में। कभी-कभी वह चुपके से आ बैठती कैरियर पर। मैं अपनी धुन में मस्त रहता। कुछ देर बाद मुझे निश्चिन्त देख.पीठ में गुदगुदी करती तो चौंक कर पीछे झांकता। वह खिलखिलाती हुई उतर कर भाग जाती; और कहती, ‘इत्ती देर से बैठी हूँ तेरे पीछे कैरियर पर, और तुझे पता भी नहीं?’

मैं कहता- पता क्या चले मुझे, कोई भारी गठरी हो तुम?

‘वाह रे तुम्हारा बोझ, अब क्या दो मन की हो जाऊँ मैं, तब पता चलेगा तुम्हें?’-हँसती हुई कहती, और फिर उचक कर बैठ जाती। जी में आता कि कह दूँ- फूल की एक छोटी सी डलिया रख ही दी जाय पीछे, तो क्या पता फर्क पड़ता है?

समय इसी तरह अठखेलियाँ करता सरकता रहा।

बर्ष में एक दिन ऐसा आता, जब हमलोगों को छूट मिलती थी, अपनी पसन्द की पोशाकों में स्कूल जाने की, स्कूल-ड्रेश के बन्धन से मुक्त होकर। इस दिन का इन्तजार न जाने क्यों सबको रहता। वह दिन था- ‘विद्या देवी’ की उपासना का दिन, यानी सरस्वती-पूजा। बर्ष भर के उल्लास को अन्तस्थल में दबाए लड़के-लड़कियाँ, सभी उस दिन एक से बढ़ कर एक रंगीन पोशाकों में सज-धज कर आती थी, रंगीन तितलियों की तरह, जो एक से दूसरे फूल पर उड़-उड़कर पराग चूमती चलती हों। लगता था कि उस दिन पोशाकों की बड़ी प्रदर्शनी लगी हो हमारे स्कूल में।

सारा दिन पूजा-अर्चना और आगन्तुकों-आमन्त्रितों की आवभगत में गुजर जाता। रात्रि में प्रीति भोज का आयोजन होता। फिर सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रारम्भ होता, जो लगभग पूरी रात जारी रहता।

इच्छानुसार छात्र-छात्रायें इस कार्यक्रम में भाग लेते, और अपनी कला का प्रदर्शन करते। इस बार रात्रि भोजनोपरान्त एक पौराणिक नाटक का आयोजन निश्चित था।

भोजन सामग्री में वहाँ की परम्परानुसार ‘माछेर भाजा’ और नमकीन पुलाव की व्यवस्था रहती, जिसे हम खिचड़ी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं। भोजन निर्माण से परिवेशन तक का दायित्व प्रायः

लड़कियों पर ही सौंपा जाता; शायद इसलिए कि आगे चल कर उन्हें कुशल गृहणी जो बनना होता है।

भोजन तैयार हो चुका था। लड़कों का समूह लम्बे वरामदे में विराज चुका- लम्बी भोजन-पट्टिकाओं पर। काम से जी चुराने वाली कुछ लड़कियाँ भी इसी समूह में आ घुसी थी।

खिचड़ी मुझे बिलकुल अच्छी नहीं लगती। घर में संयोग से जिस दिन खिचड़ी बन जाती, उस दिन रूठ कर मेरा ‘उपवास-व्रत’ हो जाता। पर न जाने स्कूल के उस उत्सव के अवसर पर बनी खिचड़ी क्यों इतनी स्वादिष्ट लगती कि बर्ष भर उसकी प्रती7 रहती थी।

खिलाने-परोसने में मीना चटर्जी भी शामिल थी। खिचड़ी परोसी जा चुकी थी। अगले ‘आइटम’ की थाल- तली हुयी छोटी मछलियों का‘भाजा’ लिए मीना ज्यों ही मेरे पत्तल की ओर झुकी, अचकचा कर मेरे मुंह से निकल पड़ा - मुझे मछली मत देना मीना, सिर्फ खिचड़ी ही खाऊँगा।

माँ वागीश्वरी के प्रसाद रूप में भी मछली न खा सकना, मेरे खानदानी संस्कार के धूमिल छाप का अवशेष था, जो बंगाल प्रवास के दूसरे बर्ष तक भी समाप्त न हो सका था। जब कि वहाँ छोटी मछली ‘इचना’ तुलसी पत्र सा पवित्र माना जाता है। प्रसाद की पूर्णता इसके वगैर असम्भव है।

मेरे ‘नऽऽनन’ के बावजूद बारम्बार के आग्रह को थोथा करार देती हुयी मीना ने मछली का भुजिया डाल ही तो दिया मेरे पत्तल पर, जिसे देख मेरा मन भिन्ना उठा। किन्तु वह बेपरवाह लड़की कनखी

से मेरी ओर देखती आगे बढ़ गयी- अन्य पत्तलों पर प्रसाद डालने- यह कहती हुयी कि इसे भी खाना ही होगा, अन्यथा सरस्वती नाराज हो जायेंगी।

मैं नहीं समझ पाया कि इचना और सरस्वती में क्या सम्बन्ध है। जी चाहा था उठ जाऊँ छोड़ कर, पर यह भी सम्भव न था। समाज और समूह, साथ ही चिर प्रतीक्षित प्रसाद। ‘मीन-मेष’ विचार में ही उलझा हुआ था कि बगल में बैठा वसन्त आदतन चुटकी लिया, ‘कितना मजेदार है, सोच क्या रहे हो? चट कर जाओ आँख मूंद कर। चाचाजी से नहीं कहूँगा। या फिर मछली को किनारे लगा दो, और खिचड़ी तो खा ही सकते हो। वह तो पत्तल पर अलग पड़ा है। प्रसाद त्यागने का पाप भी नहीं लगेगा, और मछली खाने की मजबूरी से भी बच जाओगे। किन्तु एक बात और है...। ’

और क्या बात है? -मैंने उत्सुकता से पूछा, जिसके जवाब में वह मेरे कान में अपना मुंह सटाते हुए धीरे से बोला- ‘अरे यार, जरा उन कोमल कलाईयों पर तो रहम करो। ’

मैं खाऊँ-त्यागूँ के द्वन्द्व से अभी उबर भी न पाया था कि वह अल्हड़ लड़की फिर आगयी, क्यों कि उसका परोसना पूरा हो चुका था। मेरे सामने बैठती हुयी बड़े प्रेम से पूछी-‘क्या सच में नहीं खाना

है? इन्सान से तो नहीं, भगवान से तो डरो। ’

‘नहीं मीना। जिद्द न करो। मुझे धर्म-भ्रष्ट न करो। प्रसाद आदरणीय है;किन्तु धर्म भी...। ’-कातर दृष्टि से उसकी ओर देखते हुए बोला।

‘धर्म...कौन सा धर्म?’- हाथ मटका कर मीना ने कहा, ‘विद्यार्थीधर्म’अपने आप में एक सनातन धर्म है, जो पूर्णतः स्वतन्त्र धर्म है, और हर धर्म और सम्प्रदाय से कहीं उच्च श्रेणी का है। विद्यार्थी का अलग से कोई धर्म नहीं होता। ’

मेरे धर्म की दुहाई का जम कर खण्डन किया मीना ने। कुछ देर मेरी आँखों में झांकने के बाद फिर बोली- ‘एक बार खाकर तो देखो इसका स्वाद’ फिर मछली क्या, पत्तल भी चट कर जाओगे।

इसका जवाब मैं सोच ही रहा था कि मछली का एक टुकड़ा उठाकर अपने मुंह में धर ली, और, दूसरा टुकड़ा मेरा जबड़ा दबाकर मेरे मुंह में ठूँस दी- ‘अब जरा देखो मजा मछली का। कितना स्वादिष्ट है, और तुम कहते हो कि खाऊँगा ही नहीं। ’

इस जोर जबरदस्ती में अनजाने में ही मेरा मुंह उसके कपोलों से जा टकराया। वह शरमा कर बगल के स्टोर रूम में भाग गई। इधर सभी लड़के-लड़कियाँ ठहाका लगाकर हँस दिए। वसन्त को मजाक का सुनहरा अवसर मिल गया।

‘क्यों कमल! ‘सावित्री-सत्यवान’ का रिहर्सल चल रहा है?’

मुझे अजीब सी सिहरन हो आयी थी। माँ-बहन जैसी ममता...जोर जबरदस्ती खिलाने-पिलाने में...। फिर याद आ गयी भाभी, जो भैया को नापसन्द की चीजें कैसे जबरन खिलाया करती हैं। बिजली की धारा सी रग-रग में पुनः प्रवाहित हो गयी थी। सिहरन की इस अनुभूति को आखिर क्या कह सकता हूँ, जो अनचाहे ही हृदय की धड़कनों को बढ़ा देती है?

अभी इन्हीं विचारों में उलझा हुआ था कि लाउडस्पीकर पर एनाउन्समेन्ट होने लगा।