निरामय / खंड 3 / भाग-7 / कमलेश पुण्यार्क

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“नाटक के कलाकारों को सूचित किया जाता है कि भोजन शीघ्र समाप्त करके मेकअप रूम में चले जाएँ। "

उद्घोघोषणा सुन कर मीना पहले ही जा चुकी थी। मैं भी वसन्त के साथ चल दिया।

नाटक का पंडाल दर्शकों से खचाखच भरा हुआ था। आगे की पंक्ति में सम्मानित पदाधिकारी, अभिभावक, अन्य अतिथिगण एवं शिक्षक गण कुर्सियों पर विराजमान थे। उनके पीछे बेंचों पर लड़के-

लड़कियों का समूह था।

उद्घोघोषणा पुनः हुयी- “माननीय जिला शिक्षा पदाधिकारी महोदय, प्रधानाचार्य महोदय, गण्यमान्य अतिथिगण, अभिभावक गण एवं छात्र-छात्राएँ! अभी-अभी आपलोगों के समक्ष एक प्रसिद्ध पौराणिक नाटक का मंचन किया जायगा। हर बर्ष की भांति इस बार भी हमारे प्रधान अतिथि एवं विद्यालय निरीक्षण-पदाद्दिकारी महोदय के करकमलों द्वारा कलाकारों को पुरस्कृत भी किया जायेगा। आज का नाटक है- सती सावित्री

नाटक प्रारम्भ होता है। दर्शक भाव विभोर हैं। खास कर नारी दर्शक। सावित्री वस्तुतः भारतीय नारी का रूपवान आदर्श है। एक वह भी नारी थी। एक आज की नारियाँ हैं- कोई तुलना नहीं तब और अब में। प्रेम का स्वरूप बदल चुका है। उसकी जगह प्यार यानी ‘लव’ने ले ली है। प्रेम आत्मिक तल पर होता है, समर्पण उसकी आधारशिला है। प्यार शरीर से शुरू होकर शरीर पर ही समाप्त हो जाता है। पर्दा उठता है। गिरता है। फिर उठता है। नाटक चलते रहता है।

दर्शकों के सामने जंगल का दृश्य है। वट वृक्ष की छांव में अन्धे राजा अपनी पत्नी एवं युवा पुत्र सत्यवान के साथ बैठे हैं। सत्यवान...कमल....कमल ही सत्यवान...।

सामने आसन पर बैठे नजर आ रहे हैं- मंत्री एवं राज पुरोहित सहित राजा - सावित्री के पिता अश्वपति अपनी पुत्री के साथ। सावित्री...मीना...मीना....सावित्री...।

क्या ही करूण दृश्य था वह। सावित्री घायल मृगी की तरह कभी पिता कभी पुरोहित कभी भावी स्वसुर - अन्धे राजा के चरणों में सिर टेक कर आँसु से उनका चरण पखार रही थी --

‘नहीं..नहीं...ऐसा अनर्थ नहीं हो सकता...मैंने एक बार जब वरण कर लिया है सत्यवान को, फिर चाहे जो भी हो, सब सहने को तैयार हूँ...। ’

राज पुरोहित कह रहे थे - ‘नहीं राजकुमारी नहीं, मूर्खता मत करो। अधिक भाउक मत बनो सावित्री बेटी। तुम जान चुकी हो कि राजकुमार सत्यवान की आयु मात्र एक बर्ष शेष है। ऐसा अनर्थ मत

करो...अन्धेर हो जायगा। ’

सावित्री कह रही थी- ‘नारी अपने पति का वरण सिर्फ एक बार ही कर सकती है गुरूदेव! सत्यवान को त्याग कर मेरा सतित्व रक्षित कैसे रह सकता है? आप राज पुरोहित हैं। स्वयं विचारें, सतीत्व

की परिभाषा...नारी धर्म की मर्यादा। ’

यवनिका सरक पड़ती है। दृश्य बदल जाता है।

पेड़ के नीचे सावित्री बैठी है। बगल में लकड़ी का गट्ठर पड़ा है, एक कुल्हाड़ी भी वहीं है। सावित्री की गोद में सत्यवान का सिर है, वह दर्द से कराह रहा है। सावित्री उसका सिर दबा रही है। राजपुरोहित की बातें याद आ जाती हैं उसे। एक बर्ष व्यतीत हो चुका है। सावित्री की आँखों से अश्रुधार फूट कर गोद में पड़े सत्यवान का मुख मंडल प्रक्षालित कर देती है।

सत्यवान कहता है- ‘रोओ मत सावित्री! तुम धैर्यवान नारी हो। विधि का विधान नहीं टल सका है आज तक। इसे सहन करना ही पड़ेगा। अन्धे पिता और बूढ़ी माता का ध्यान रखना। ’

सावित्री का अश्रुपात दर्शकों को अर्द्धस्नात कर चुका है। इतने में ही कर्कश ध्वनि सुनाई पड़ती है।

यमराज की भूमिका में वसन्त आता है। यमराज का कठोर स्वर मंच को प्रकम्पित कर देता है--

“हट जाओ सावित्री! हट जाओ मेरे सामने से। तुम्हारे सतित्व- तेज-पुंज से भस्म हो जाऊँगा मैं। छोड़ दो सत्यवान के शरीर को । नियन्ता के नियम को भंग मत होने दो। मुझे भी अपना कर्तव्य पालन करने दो। सत्यवान की आयु समाप्त हो चुकी है। आयु-शेष प्राणी इस मृत्यु भुवन में नहीं रह सकता। सृष्टि के नियम की मर्यादा रखना भी सती नारी का धर्म है। ’

‘सती का आदर्श...मर्यादा....’- सुन कर सावित्री कांप उठती है। फिर भुनभुनाती है- ‘सृष्टि के नियम का, सत्य और सतित्व की मर्यादा का निर्वाह करना ही पड़ेगा। ’

सत्यवान का सिर गोद से हटा कर, स्वयं एक ओर हट जाती है। सत्यवान के सूक्ष्म शरीर को मृत्यु-पाश में ग्रस कर यमराज चल पड़ते हैं।

कुछ आगे बढ़ने पर अनुगामिनी सावित्री का ध्यान आता है उन्हें और चौंक कर पीछे देखते हुए बोल उठे- ‘यह क्या, तुम मेरा पीछा कर रही हो?’

सावित्री कहती है- ‘हाँ महाराज! पीछा कर रही हूँ;परन्तु आप का नहीं अपने पति का। ’

‘जीवित प्राणी मेरे साथ नहीं जा सकता। अतः तुम लौट जाओ। ’- यमराज ने कहा था।

‘पत्नी पति की छाया समान है। काया से अन्योन्याश्रय सम्बन्द्द है छाया का। मैं भी विवश हूँ महाराज। ’- सावित्री ने कहा था।

‘तू नहीं मानेगी। अच्छा एक बात...’- कुछ सोच कर यमराज ने पुनः कहा- ‘कुछ वरदान माँग लो, परन्तु लौट जाओ। ’

स्वसुर की आँखें और नष्ट साम्राज्य - क्रमशः दो वरदान पाकर भी सावित्री यमराज का अनुगमन नहीं छोड़ती। कहती है -‘बूढ़ा स्वसुर क्या चला पायेगा राज्य? पुनः वह शत्रु के हाथ चला जायेगा। बिना समुचित अधिकारी के, कैसे होगा पूरा आपका यह वरदान?’

किंकर्तव्यविमूढ़ यमराज के मुंह से अचानक निकल पड़ा- तीसरा वरदान -‘औरस उत्तराधिकारी। ’

‘अनर्थ, घोर अनर्थ विधवा बहू और औरस उत्तराधिकारी? यह कैसा मजाक है भगवन? हा वैधव्य! हा सतित्व !’सावित्री की करूण चित्कार वायुमण्डल में गूँज उठी। त्रिलोक प्रकम्पित हो उठा।

यमराज को अपनी भूल का भान हुआ। किंकर्तव्यविमूढ़ता और गहरा गई। हाथ-पैर कांपने लगे। मृत्यु पाश ढीला पड़ गया। जड़वत स्थिति में सत्यवान का सूक्ष्म शरीर छूट गया- ‘लो तुम विजयी हुयी। नियन्ता का नियम निरर्थक होकर भी सार्थक हो गया। सुतर्क का एक स्तम्भ स्थापित हो गया। ’

पटाक्षेप के साथ-साथ पंडाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। कहानी पुरानी थी, परन्तु नई अनुभूति ने सबको रोमांचित कर दिया।

दर्शक-दीर्घा से उठ कर मुख्य अतिथि श्री बंकिम चट्टोपाध्याय दम्पति ऊपर मंच पर पधारे। बगल में खड़े प्रधानाध्यापक श्री घोषाल मैगनोलिया का गजला उनके गले में डालते हुए अभिवादन किए। एक बार तालियाँ फिर गड़गड़ायी।

फिर समापन गान, आशीर्वचन, पात्र परिचय आदि औपचारिकताएँ पूरी की गई। और अन्त में बारी आयी, पुरस्कार वितरण की।

सबसे पहले इस बर्ष अपनी कक्षा में प्रथम स्थान पाने वाले छात्र-छात्राओं को पुरस्कृत किया गया। फिर स्वागत गान और समापन गान गायिकाओं को पुरस्कृत किया गया। और तब बारी आई नाट्य कलाकारों की। उद्घोषक माइक्रोफोन पर आए। उद्घोषणा हुई -

“आज के नाटक में प्रथम पुरस्कार सावित्री की भूमिका निभाने वाली एकादश कक्षा की छात्रा सुश्री मीना चटर्जी को दिया जा रहा है। "- पंडाल तालियों से गूँज उठा। उद्घोषक ने पुनः उद्घोषणा की -

“द्वितीय पुरस्कार सत्यवान की भूमिका में कमल भट्ट को एवं यमराज की भूमिका में वसन्त उपाघ्याय को दिया जा रहा है। ’

करतल ध्वनि पुनः गूंजित हुई। फिर कुछ अन्य छोटे-मोटे पुरस्कार भी बांटे गए। अन्त में एक और उद्घोषणा हुयी- ‘आज के कार्यक्रम के समापन युगल गान के गायक-गायिका- जो पूर्व में सावित्री-सत्यवान की भूमिका निभा चुके हैं- कमल भट्ट और मीना चटर्जी को एक संयुक्त पुरस्कार हमारे विद्यालय निरीक्षण-पदाधिकारी श्री बंकिम चट्टोपाध्याय जी की ओर से व्यक्तिगत तौर पर दिया जा रहा है, अतः ये दोनों कलाकार पुनः पुरस्कार मंच पर आवें। ’

मंच के एक ओर से मीना, एवं दूसरी ओर से कमल यानी मैं। एक साथ दोनों के बढ़े हाथ, सामने खड़े श्री बंकिम जी के हाथों से संयुक्त पुरस्कार ग्रहण करते हुए -- आह! कैसा नयनाभिराम दृश्य था

वह, जिसकी परिच्छाया देखा था मैंने श्री बंकिम दम्पति की आँखों में। मगर उन नयनों को वाणी कहाँ, जो स्वर दे सके उस दृश्य को; और बेचारी वाणी को नेत्र कहाँ, जो देख सके उस अतुलनीय युगल छवि को। शायद ऐसा ही दृश्य मानसकार ने भी देखा हो कभी, और मुंह से बरबस निकल पड़ा होगा-

“गिरा अनयन, नयन बिनु बानी...। "

एक ही साथ कई कैमरे फ्लैश हुए-कुछ मानवी, कुछ मानव कृत। तस्वीरें कैद हुयी -कुछ आँखों में, कुछ रीलों में।

रात करीब दो बजे कार्यक्रम समाप्त हुआ था। वसन्त ने कहा-‘कमल! मैं यहाँ कुछ देर और ठहरना चाहता हूँ। तुम यदि चाहो तो जा सकते हो, किन्तु कालीघाट मत जाना। रात बहुत हो गयी है। मेरे डेरे पर ही चले जाओ। ’

मेरा भी विचार हो रहा था-वापस लौट चलने का। अतः चल दिया, कहाँ जाऊँ -निर्णय किये वगैर ही।

अभी विद्यालय प्रांगण से दस कदम आगे बढ़ा होऊँगा कि पीछे से आती किसी गाड़ी का प्रकाश देख थोड़ा किनारे होना पड़ा, फिर भी तेज हॉर्न बजता ही रहा। चौंक कर पीछे मुड़ा। देखा कि गाड़ी की

पिछली सीट पर बैठी मीना बाहर झांकती हुई, आवाज लगा रही है। ड्राईविंग सीट पर विराज रहे हैं- श्री बंकिम चट्टोपाध्याय जी, और बगल की सीट पर बैठी हैं- श्रीमती चट्टोपाध्याय।

मैं गाड़ी के करीब जाकर जिज्ञाशा पूर्वक पूछा - कहाँ जा रही हो मीना इन्सपेक्टर साहब के साथ?

हँस कर मीना ने कहा था- ‘तो किसके साथ जाऊँ, तुम्हारे साथ? मगर तुम पूरब के वजाय पश्चिम जा रहे हो, सो क्यों?’

मीना की बात पर साहब दम्पति भी हँस दिए थे। मुस्कुराते हुए साहब ने कहा- ‘क्यों कमल सिर्फ मीना को ही पहचानते हो, मुझे नहीं?’

‘ये इन्सपेक्टर होंगे तुम्हारे स्कूल के, मेरे तो पापा हैं। ’- परिचय कराती मीना कार का पिछला गेट खोल दी, जहाँ वह खुद बैठी थी। उसकी आँखों ने मौन आमन्त्रण दिया था मुझे। मेरी आँखें मीना को निहार कर पूछना चाह रही थी -क्या अन्दर आ जाऊँ?

मौन प्रश्न का मुखर उत्तर मिला उसकी माँ से- ‘ अन्दर आकर बैठो बेटा, संकोच किस बात का?’

मुझे कहीं जाना भी है -भूल गया, और जा बैठा अन्दर घुसकर मीना के बगल में। मेरे बैठते ही गाड़ी चल पड़ी। पल भर के लिए न जाने कहाँ-कहाँ घूम आया मेरा मन। ध्यान तब भंग हुआ जब

हरिशन-चितपुर चौराहे के सिगनल पर गाड़ी रूक गयी कुछ देर के लिए। हड़बड़ा कर बोला -कहाँ लिए जा रही हो मुझे?

‘अपने घर, और कहाँ?’- मीना चहकी।

इस समय?- मैंने टोका।

‘और किस समय? क्या यह समय है कालीघाट जाने का ? ’-मीना का सवाल था।

कालीघाट थोड़े ही जाता इतनी रात को। जा रहा था वसन्त के डेरे पर, यहीं पास में ही हाजी मुहम्मद।

‘आखिर जब डेरा जाना ही नहीं है, फिर चिन्ता किस बात की?’- उसके पापा ने कहा था।

अब तक हमलोग बागड़ी मोड़ पहुँच चुके थे। मार्केट से आगे बढ़ कर मुख्य मार्ग पर ही एक भव्य सजीले भवन के सामने गाड़ी खड़ी हो गई। लकदक सजीले रोबीले दरवान ने गेट खोल कर सलामी दागी। गेट पर ही ‘न्योन साइन’ बोर्ड लगा हुआ था- ‘मीना निवास’।

भवन की बनावट और सजावट दिलोदिमाग में अजीब सी तरावट भर गयी। आह! कितना सुन्दर, कितना सजीला। एक बड़े से लॉन के एक ओर बना विशाल भवन, और दूसरी ओर एक खूबसूरत बंगला। कम्पाउण्ड के चारो कोनों पर उच्चासीन ‘भेपर लाईट’ रात्रि का जरा भी आभास न होने दे रहा था। गेट के दोनों ओर पहरेदार से खड़े चिकने सुडौल यूकलिप्टस के पेड़। गेट के दोनों पीलरों को मिलाते हुए अर्द्धवृत्ताकार ग्रील, जिससे लटकता न्योन साईन बॉक्स एक गरिमामय नाम को संजोये हुए--मीना निवास ।

गाड़ी से नीचे उतर, बंगले की सीढि़याँ चढ़, हम सभी ऊपर आए। बैठकखाने में पहुँच कर मीना ने कहा-‘ तुम यहीं बैठो कमल। मैं तब तक चाय बना लाती हूँ। ’

‘इसकी क्या आवश्यकता है अभी?’- सोफे पर बैठते हुए मैंने कहा, किन्तु इसे सुनने वाली पीठ मोड़ चुकी थी, दूसरे कमरे की ओर, यह कहती हुयी कि अभिनय की थकान की विदाई जो करनी है।

माँ भी उसके पीछे-पीछे चली गयी। पापा बगल कमरे में पहले ही जा चुके थे। मैं अकेला ही बैठा रहा वहीं सोफे पर।

आँखों में अभी भी बसा था- मंच का दृश्य -सावित्री की गोद में आँखें बन्द किए पड़े कराहते सत्यवान....। सच में जिस समय पड़ा था गोद में, बड़ा अजीब सा लगा था। पता नहीं क्यों, क्या हो गया है आज मुझे । कल तक बच्ची सी लगने वाली मीना, जो अभी भी वैसी ही तो है । फिर भी न जाने क्यों कैसा...कैसा तो लग रहा है मुझे आज के उस नाटक के बाद। बार-बार के प्रयास के बावजूद हटा

न पा रहा था, उस दृश्य को मस्तिष्क से। तभी मीना चाय लिए कमरे में उपस्थित हुई।

‘क्या सोच रहे हो?लो चाय पीओ। ’-कहती हुई मीना चाय का एक प्याला मुझे पकड़ा कर, बगल में ही सोफे पर बैठ गई। ऊपर नजरें उठाते हुए मैंने पूछना चाहा -‘तुम नहीं पीओगी?’- क्यों कि एक

ही प्याला लेकर आयी थी। किन्तु वह खुद ही बोल पड़ी- ‘अभी मेरी इच्छा नहीं है। ’

तो मुझे कौन सी बेचैनी थी इसके लिए -कहते हुए पीना शुरू भी कर दिया मैंने। मेरी इस हरकत पर वह मुस्कुराती बोली, ‘कुछ खाने का सामान भी लाऊँ क्या? तुमने तो स्कूल में भी ठीक से खाया नहीं था। ’

‘अभी क्या खाने का वक्त है? खाने से ज्यादा जरूरी है सोना। ’-कहते हुए म® चाय सुड़कने लगा।

‘तो फिर सो रहना, इधर ही पलंग पर। ’- बांयी ओर बिछे पलंग की ओर इशारा करके बोली। तभी बगल कमरे से निकल कर उसके पापा-मम्मी आ गए उसी कमरे में। और फिर गप-शप का सिलसिला ऐसा बना कि साढ़े चार बज गए। वैसे भी कलकत्ते में सबेरा कुछ जल्दी ही हो जाया करता है।

बातचित का मुख्य विषय था- आज का कार्यक्रम;साथ ही कुछ मेरा परिचय, कुछ उनका परिचय।

वार्ताक्रम में ही जानकारी मिली कि वे यहाँ के इने-गिने कुलीन परिवारों में एक हैं। पुस्तैनी जमीदारी तो ‘पटेल नीति’ में भेंट चढ़ ही गयी, फिर भी बहुत कुछ शेष है अभी संजोने को। मीना उनकी एकमात्र वारिस है। एक दो वच्चे पहले भी आए थे, किन्तु किसी को यह प्रपंच लोक पसन्द न आया, और अल्पावधि में ही सुरलोक सिधार गए।

‘नीरस जीवन में बहार का एक झोंका, मरूस्थल में प्रभु कृपा से गुलाब की क्यारी-मीना ही है। अब यह भी बड़ी हो चली है, कोई पन्द्रह की। सोचता हूँ- इसे भी यथाशीघ्र किसी योग्य के हाथों सौंपकर वानप्रस्थी जीवन व्यतीत करूँ। ’- कहा था श्री चटर्जी ने।

ऐसा कहते हुए, उनकी आँखें निहारने लगी थी सामने दीवार पर लगी कौशल्या नन्दन की युगल छवि को, जिसमें शायद आसन्न दर्शित नाटक का ही दृश्य नजर आ रहा था। तभी तो मुंह से अनायास ही निकल पड़ा था- ‘ नारी अपने पति का वरण सिर्फ एक ही बार कर सकती है गुरूदेव! सत्यवान को त्याग कर मेरा सतीत्व रक्षित कैसे रह पाएगा?’

फिर लम्बी उच्छ्वास के साथ कहा था उन्होंने, ‘ओफ! कितनी करूणामयी वाणी थी उस वक्त सावित्री की। मुझे जरा भी उम्मीद नहीं थी कि मीना इतनी अच्छी भूमिका निभा सकती है। जरा भी नहीं लग रहा था कि नाटक के संवाद बोल रही है मीना। सच में लगता था कि सावित्री ही है यह, और सत्यवान के लिए वास्तविक तड़पन है, इसके हृदय में। ’

‘तुम्हारा अभिनय भी तो कमाल का था कमल। ’- मीना की मम्मी मेरे पीठ पर हाथ फेरती हुयी बोली। उनके स्नेहिल स्पर्श से मैं अभिभूत हो गया, बिलकुल ‘माँ वाला’ स्पर्श। वैसा ही प्रेम पूर्ण सम्बोधन मेरे मुंह से भी निकल पड़ा- ‘चाची आप भी मेरी झूठी प्रशंसा कर रही हैं। मेरा संवाद ही कितना था?

असली अभिनय तो मीना का ही रहा। सही में अनुभव नहीं हुआ होगा किसी को कि नाटक खेला जा रहा है। अन्तिम दृश्य में मैं जब आँखें मूंदे कराह रहा था, मीना की गोद में; इसकी आँखों से चलती अविरल अश्रुधार ने तो मेरे चेहरे का मेकअप ही धोडाला। ’

‘ये क्यों नहीं कहते कि तुम डूब चुके थे मेरी आँखों की सरिता में। ’- इठलाती हुयी मीना बोली।

मेज पर फैला कर पांव सीधा करते हुए बंकिम चाचा ने कहा था- ‘ठीक कह रहे हो कमल, बड़ा ही करूण दृश्य था उस समय। मैंने भी गौर किया था, प्रायः दर्शकों के रूमाल जेब से बाहर, हाथों में आ गए थे। तुम्हारी चाची तो हुचक कर रो पड़ी थी। ’

‘रोयी क्या केवल मैं ही थी? आप भी तो...। ’- कहती हुयी चाची की आँखें कभी मुझे कभी मीना को निहारती हुई पुनः सजल हो आयी थी.और मुंह से उच्छ्वास निकल पड़ा था - ‘काश.....। ’

किन्तु आगे कुछ कह न सकी थी, जो उस समय उद्वेलित किया था उनके मन को। कुछ देर मौन रही, फिर बोली- ‘अब थोड़ा विश्राम कर लिया जाय। वैसे सोने का अब वक्त तो है नहीं। तुम कमल को आराम करने की व्यवस्था कर दो। ’- कहते हुए चाचा-चाची दोनों उठ कर दूसरे कमरे की ओर चल दिए।

‘इन्तजा़म क्या करना है, यह मेरे रूम में सो जाएगा, मैं यहीं पर सो रहूँगी। ’- कहती मीना बगल कमरे की ओर चली गई, शायद विस्तर ठीक करने के लिए।

करीब पांच मिनट बाद वह पुनः ड्राईंग रूम में आयी-‘चलो तुम्हारा कमरा दिखा दूँ। ’

मैं उसके पीछे मिनिस्टर के पी.ए. की तरह चल दिया।

बैठकखाने के बगल में ही पूरब की ओर था, चाचाजी का शयन कक्ष और पश्चिम की ओर मीना का अध्ययन एवं शयन कक्ष। अखरोट की बेशकीमती लकड़ी पर खूबसूरत कारीगरी का बेजोड़ नमूना –मेज, कुर्सी, आलमीरा और दीवान...सुरूचिपूर्ण कमरे की सजावट...आलमीरे के ऊपरी खाने में टू-इन-वन रेडियो-रिकॉर्डर, रेकॉडप्लेयर, कैमरा आदि...नीचे के खाने में कुछ किताबें -अधिकांश जासूसी और कुछ फिल्मी... रंगीन तस्वीरें -फिल्म तारक-तारिकाओं की, चारो ओर से डिस्टेम्पर्ड वाल पर... एक ओर ब्रैंन्जो और एक निहायत बेशकीमती ‘माउथ आरगन’ भी रखा हुआ...यही था मीना का कमरा।

पल भर में ही पूरे कमरे का मुआयना कर गया था मैं, एक कुशल पर्यवेक्षक की तरह। क्या यह एक स्कूली छात्रा का अध्ययन-कक्ष है या....?-- सोच ही रहा था कि उसने कहा- ‘खड़े क्या हो, अभी सोने की इच्छा नहीं है क्या?’

‘इच्छा तो थी, पर अब न रही। ’- मेरा संक्षिप्त उत्तर सुन कर कुछ चौंकती हुयी सी बोली-‘क्या देख रहे हो इस प्रकार?’

‘कुछ नहीं यूँही...देख रहा हूँ एक अभिनेत्री का कमरा। ’- कहता हुआ, टेबल पर उलटी पड़ी एक अधखुली किताब को हाथों में लेकर पलटने लगा। किताब थी - फिल्मों में प्रवेश कैसे?

‘क्या कहा अभिनेत्री का...क्या मैं तुम्हें कोई हीरोइन नजर आ रही हूँ?’- मीना का इठलाता हुआ सवाल था।

‘और नहीं तो क्या, यूंही इतना अच्छा अभिनय कर गयी सावित्री का? मैं तो डर रहा था मंच पर जाने में ही। किन्तु वसन्त और तुम्हारे जिद्द से स्वीकारना पड़ा। ’- कहता हुआ मैं किताब को पुनःमेज पर रख दिया।

‘अभिनय मैं भले ही थोड़ा बहुत कर लूँ, पर तुम्हारे जैसा गायक तो नहीं बन सकती। ’-कहा मीना ने, और रेकॉर्डर प्ले करने के बाद कुर्सी पर बैठ गयी। पाश्चात्य संगीत लहरा उठा।

मैंने पूछा था -तो क्या तुम्हें भी नींद नहीं आ रही है?

‘अब क्या सोने का समय है? वैसे तुम चाहो तो सो सकते हो। मैं चलती हूँ। ’-कह कर मीना कुर्सी से उठने लगी थी कि अनचाहे ही मेरे हाथ बढ़ गये उसकी ओर। उसके हाथ को पकड़ते हुए मैंने बैठने का आग्रह किया।

कह तो दिया, पर खुद ही झेंप गया। पता नहीं क्या सोचेगी। बगल कमरे में पापा-मम्मी शायद सो चुके थे, क्यों कि उधर की कोई आहट नहीं मिल रही थी।

मीना के उठे पग थम गए। इतमिनान से बैठ गयी दीवान पर ही। और बड़े आग्रह से बोली-‘वह जो गीत आज गाए थे-विदाई वाला, उसे जरा फिर सुनाओ न। ’

विस्फारित नेत्रों से उसे देखते हुए, इच्छा हुयी थी पूछने की कि सोने का समय नहीं है तो क्या गाने का समय है? पर पूछा था कुछ और ही - ‘ ओ...तो गीत सुनाऊँ? परन्तु अकेले तो नहीं गाया था वह गीत, साथ में सावित्री भी तो थी।

‘तो क्या हुआ, यहाँ मीना जो है। ’- मीना अपनी स्वीकृति दी।

‘पर पापा-मम्मी क्या सोचेंगे?’- मैंने संशय व्यक्त किया। जिसका जवाब मीना ने तपाक से दिया- ‘ मेरा बंगला दकियानूसों का कबाड़खाना नहीं है। और उससे भी बड़ी बात यह है कि वे सो चुके;और उससे भी महत्व पूर्ण बात है कि उनकी नींद गाने से क्या, नगाड़े से भी खुलने वाली नहीं है। ’

मीना के इस टिप्पणी पर हमदोनों एक साथ खिलखिला उठे। हँसी का फौब्बारा देर तक परावर्तित होते रहा कमरे में।

पाश्चात्य संगीत का वह कैसेट जो देर से चल रहा था, पूरा हो चुका था। मैंने प्लेयर बन्द कर दिया। मीना उठी, और आलमीरे के बगल में रखे काठ के बक्से से हारमोनियम निकाल कर ऊपर दीवान पर

रखती हुयी बोली- ‘इसके वगैर थोड़े जो अच्छा लगेगा। ’

मगर इसे बजायेगा कौन? मैं तो सिर्फ ताली बजा सकता हूँ। - मैंने अपनी असमर्थता जाहिर की, किन्तु तभी देखा कि मीना की अँगुलियाँ थिरकने लगी थी ‘रीड’ पर। मेरी ओर देखते हुए मुस्कुरा कर बोली- ‘अब यह मत समझ लेना कि मैं ‘लक्ष्मी सुब्रमण्यम्’ हूँ। यूँ ही थोड़ा बहुत गा-बजा लेती हूँ। ’