निरामय / खंड 5 / भाग-13 / कमलेश पुण्यार्क
सभी एक साथ हँस पड़े।
मैंने गाड़ी आगे बढ़ायी, पर दायीं ओर काटती हुयी टॉमस अपनी गाड़ी आगे कर ली।
अब क्या देखोगी?-मीना की ओर देख कर मैंने पूछा।
‘तुम्हारा चेहरा, और क्या। ’- तपाक से उसने कहा और सिर मेरे कंधे पर टेक दी।
‘वे नहीं देख सकेंगे क्या, अब तुम्हारी हरकत?’-मैंने कहा।
‘ अब वक्त कहाँ रहा? ओ देखो, ऊपर पहाड़ी पर मन्दिर का गुम्बज नजर आ रहा है। ’
गाड़ी पूरी चढ़ाई पर थी। मैंने सामने देखा- कुछ दूरी पर स्पष्ट नजर आ रहा था, कालीवाड़ी का सुनहला गुम्बज, सूर्य की रौशनी में चमकता सोने का विशाल कलश।
पुलकित होते हुए मीना बोली-‘ अरे हमलोग पहुँच गए। ’
‘नहीं मीनू! अभी दूर है, पाँच किलो मीटर। -‘स्पीडोमीटर’ देखते हुए मैंने कहा।
पल-पल पास आते जा रहे चमकते गुम्बज को भावपूर्ण नेत्रों से
देखे जा रही थी मीना; तभी हिरन का एक झुण्ड चौकड़ी भरता हुआ बगल से गुजरा। झुण्ड में दो तीन बच्चे भी थे, जो बड़ों से कुछ पीछे पड़ गए दौड़ में।
‘कमल!ओ कमल! जरा गाड़ी रोको न। ’- मीना ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।
‘क्यों?’- एक्सीलेटर पर दबाव कम करते हुए मैंने पूछा।
‘देखो न कितना सुन्दर लग रहा है, वह मृगशानक!’
‘बच्चे सुन्दर होते ही हैं किसी प्राणी के। - मैंने कहा।
ठुनकती सी मीना फिर बोली- ‘गाड़ी रोको न कमल। मैं उन्हें पकडूँगी। ’
‘नहीं...नहीं...गाड़ी रोक कर घोर जंगल में उतरना उचित नहीं है। ’- मैंने गाड़ी की गति थोड़ी बढ़ा दी।
‘प्लीज कमल! रोको न। ’- मीना बच्चों जैसा जिद्द करने लगी।
‘जानती हो मीनू!’- मीना की ठुड्डी अपनी ओर घुमाते हुए कहा मैंने- ‘ऐसी ही मृगछौने की तृष्णा ने राम को संकट में डाल दिया था....फिर कितना तड़पना पड़ा था...नहीं बाबा, मैं यह संकट मोलने को तैयार नहीं हूँ। ’
‘क्या हो जाएगा? अच्छा तुम मत जाना, मैं जाऊँगी। ’- मीना रूआंसी हो कर बोली।
‘तब तो और गड़बड़ है...कहीं आस-पास झुरमुट में रावण न छिपा बैठा हो घात लगाए...और मेरी भोली-भाली सीता को उड़ा न ले जाए। ’
मेरी बातों पर मीना को हँसी आ गयी। राम और सीता की ‘जोड़ी’ की परिकल्पना शायद किन्हीं कल्पना लोक में उड़ा ले गया था। गेट के बाहर सिर निकाल कर भागती हिरनों को ललचायी नजरों से देखने लगी थी, और काफी देर तक देखती ही रह गयी थी। मैं भी किन्हीं काल्पनिक वादियों में भटकता रहा था।
कोई बीस मिनट बाद हमलोग कालेश्वर पहुँच गए। देखने में बहुत ऊँचा लग रहा था, पर गाड़ी आराम से चढ़ गयी वहाँ।
मन्दिर से कुछ हट कर एक छायादार जगह में दोनों गाडि़याँ लगा दी गयी।
‘ऐसे वक्त में यदि गरमागरम दो घूंट चाय मिल जाती तो सफर की थकान दूर हो जाती। गाड़ी से उतरते हुए वसन्त ने कहा।
इच्छा तो टॉमस की भी यही हो रही थी, किन्तु यहाँ अब यह झंझट कौन मोलने जाय, सोच कर रह गयी।
‘आप महानुभावों की थकान मैं अभी मिन्टों में दूर करती हूँ। ’-कहती हुयी मीना गाड़ी से नीचे उतरी- हाथ में लटकाए एक डोलची।
वरगद की छांव में बैठ गयी, पसर कर बड़े इत्मिनान से। हमलोग भी समीप आ गए।
‘क्या है भानुमति के इस पिटारे में?’- वसन्त ने डोलची की ओर इंगित किया।
मीना मुस्कुरायी- ‘इसमें है चुस्ती की दवा। ’-और ढक्कन हटा थर्मसफ्लास्क और टी पॉट निकाल बाहर रख दी।
सबने चाय की चुस्की ली।
‘चुस्ती तो चाय में जरूर है, पर दिमाग में सुस्ती हो, तो उसका क्या उपाय है? किसी को ध्यान आया था- इस व्यवस्था का?’- चाय का लुफ्त लेते हुए मैंने कहा।
‘हाँ यार, मीना के दिमाग की दाद देनी चाहिए। रीयली यह बड़े तेज दिमाग की है; आई.ए.एस ब्रेन है। ’- हँसते हुए वसन्त ने कहा।
‘दाद-खुजली तुम्हें ही मुबारक हो। ’- कहा मीना ने, और सभी हँस पड़े ठहाका लगा कर।
टॉमस ने कहा -क्यों न पहले मन्दिर घूम लिया जाए।
‘यूँ ही, बिना स्नान किये’-मीना ने कहा।
गाड़ी लॉक कर दी गयी। आवश्यक कपड़े वगैरह लेकर हमसभी जलप्रपात की ओर चल पड़े।
मन्दिर से हट कर चढ़ाई फिर शुरु हो गया। चारों ओर बेर और मकोय की झाडि़याँ बहुतायत से फैली हुयी थी। सूर्य काफी ऊपर उठ आए थे। मीना पके बेर और मकोय तोड़-तोड़ कर खाती चल रही थी। टॉमस को कुछ अजीब सा लग रहा था, उसका यह ढंग। उसे घूरती हुयी देख मीना ने मकोय का एक गुच्छा तोड़, उसे देती हुयी बोली- ‘खाकर देखो इस ‘रसभरी’ को अंगूरों का सा मजा आएगा इन जंगली फलों में। ’
मीना के हाथ से एक मकोय लेकर टॉमस अपने मुंह में डाल ली। हम सभी हँसने लगे टॉमस की बेवकूफी पर।
‘यह जापानी अंगूर है मैडम! छिलका उतार कर खाया जाता है। मीना ने छिलका हटा कर दिखया।
पहाडि़यों पर करीब सौ गज चढ़ने के बाद, नीचे उतरने का मार्ग बना हुआ था। हालाकि प्रकृति ने इन रास्तों को स्वयं ही सजाया था, किन्तु एक नजर देखने पर जरा भी गुमान न होता था कि ये मानव निर्मित सीढि़याँ नहीं हैं। लगता था कि कु्शल शिल्पी ने अनगढ़ पत्थरों को करीने से तराश कर बड़े कलात्मक ढंग से सजा दिया हो सीढि़यों के रूप में। सभी पायदान समतुल्य थे, और लगभग सभी पायदानों के बगल में एक ना एक पेड़ उगा हुआ था। ऐसा लगता था मानों किसी प्रकृति प्रेमी ‘फॉरेस्टर’ ने सजाया हो इन्हें।
सीढि़याँ उतरते गए, उतरते ही गए। करीब डेढ़ सौ सीढि़यों के बाद नीचे नजर आने लगा- ‘बाथ पोल’। काफी ऊँचाई से, न जाने किधर से आकर, अचानक छिपा-छिपा सा एक सोता सीधे पचहत्तर का कोण बनाता हुआ उस पोल में गिर रहा था। सूर्य ऊपर उठ कर अपने किरणों को सीधा डाल रहा था, उस प्रपात-जल पर जो तरल चाँदी का भ्रम पैदा कर रहा था।
सीढि़याँ समाप्त हो गयी थी, पर उतरना अभी शेष ही था, सहारा सिर्फ अनगढ़ ढोंको का था। लगता था यहाँ आकर अचानक प्रकृति के उस दिव्य कलाकार की सारी कला खो गयी हो, प्रपात के सौन्दर्य में और भूल गया हो सीढि़यों का सृजन करना।
‘बाप रे! अब कैसे उतरा जायेगा, यहाँ से इतना नीचे?’- एक ही साथ मीना और टॉमस की चिन्तातुर आवाज निकली।
‘कैसे नहीं ऐसे। ’- कहता हुआ वसन्त अपने बायें हाथ से टॉमस का हाथ पकड़, दायां हाथ बढ़ाया था मीना को पकड़ने के लिए।
‘नहीं... नहीं... छोड़ो भी मुझे, मैं यूँही चल चलूँगी। ’- वसन्त से दूर छिटक गयी थी मीना, मानों अस्पृश्य हो वह; और बगल के साखू के पेड़ से एक छड़ी तोड़ हाथ में ले ली।
‘मुझे मारोगी क्या इससे?’- डरने का सा भाव बनाते हुए वसन्त ने कहा और मीना से कुछ परे हट गया।
‘नहीं बाबा, मैं क्यों मारने लगी तुम्हें? तुम अकेले हो क्या?’-कहती हुयी छड़ी टेकती धीरे-धीरे सम्हल-सम्हल कर नीचे उतरने लगी।
वसन्त को फिर मजाक सूझा- ‘देखो कमल! बुढि़या नानी चली सफर को
‘मैं क्या टॉमस हूँ, जो पांव रहते हुए भी दूसरे के हाथों का सहारा लूँ?’- मीना पीछे मुड़ कर वसन्त की बातों का जवाब दे रही थी, और आगे कदम बढ़ाए जा रही थी। मैं उससे चार-पांच पग नीचे था। तभी अचानक संतुलन बिगड़ गया, और लुढ़क पड़ी। मैं झट ऊपर बढ़ कर उसे पकड़ना चाहा, किन्तु लुढ़कती हुयी आ टकरायी मुझसे।
अचानक के आघात से मैं भी सम्हल न सका। नीचे मैं, ऊपर मीना- दोनों साथ-साथ गिरे।
अभी न जाने कितनी सीढि़याँ यूँही बेसहारा लुढ़कते गिरते आगे चलते जाते कि एक साथ वसन्त और टॉमस झपट कर हमदोनों को सम्हाल लिए।
चोट कुछ खास नहीं आयी, पर अपनी भूल पर ग्लानि जरूर महसूस कर रही थी मीना।
टॉमस को मजाक का मौका मिल गया-‘क्यों मीना! देखी न मजा हाथ न थामने का?ओ रे...क्या
बोलता इंडिया में- नारी को तो पुरुष का हाथ थामने का परमीसन गॉड ने खुद ही दे रखा है, फिर इसमें हिचक कैसी?’
‘तो थामा करूँ हाथ यूँही जिस तिस की?’- अपनी झेंप मिटाने को उसने कहा।
‘जिस-तिस का कौन कहता है? थामना ही है तो कमल भट्ट का हाथ थामो। ’- वसन्त ने चुटकी ली, और मीना लजा कर नजरें झुका ली।
मीना का हाथ पकड़ उठाते हुए मैंने कहा- ‘अबकी सम्हल कर चलो, वरना खुद भी गिरोगी, मुझे भी गिराओगी। ’
धीरे-धीरे चलकर करीब आधे घंटे में हमलोग झरने के पास पहुँचे। टॉमस को तैरने का शौक था, फलतः ‘स्वीमिंग सूट’ लेती आयी थी। लायी तो मीना भी थी।
वसन्त ने कहा- ‘अब हमलोग यहीं स्नान करें, एक साथ सभी। ’ फलतः मीना संकोच में कुछ बोली नहीं चुप खड़ी रही।
‘क्यों मीना नहाने का विचार नहीं है?’- ऊपर के कपड़े उतारती हुयी टॉमस ने पूछा।
‘है क्यों नहीं। ’- कहती हुयी मीना मेरी ओर देखने लगी। मैं उसका आशय समझ गया।
‘तो फिर संकोच किस बात का? तुम दोनों यहाँ नहाओ। मैं और वसन्त उधर नहा लेंगे। ’ - कहता हुआ वसन्त का हाथ पकड़ कर एक ओर चल दिया।
एक झाड़ी से आगे बढ़ कर हमलोग भी कपड़े उतार, झरने में उतर पड़े। काफी देर तक पानी में उछल कूद करते रहे। अचानक मुझे खुराफत सूझा। मैंने वसन्त से कहा - हमलोग डुबकी लगाकर पानी में अन्दर-अन्दर चलेंगे। देखते हैं- किसमें कितनी शक्ति है-प्राणायाम की।
‘तो शुरू हो जाइए योगी जी। ’- कह कर लम्बी सांस भरने लगा वसन्त। मैंने भी वैसा ही किया।
थोड़ी देर में ही मेरा दम घुटने लगा, फलतः निकल पड़ा। वसन्त अभी जलमग्न ही था। मैं झट बाहर आ एक ढोंके की आड़ में छिपा लिया खुद को।
कुछ देर बाद वसन्त जल से बाहर निकला, तो मुझे वहाँ न पा कर, अपनी हार स्वयं ही स्वीकार लिया- ‘कमल बाजी मार ले गया। अभी तक डुबकी लगाए ही है। ’
कुछ देर तक प्रतीक्षा में रहा। पर देर होता देख, उसकी स्थिति बदल गयी। चहरे का रंग उड़ गया- मैं आड़ में छिपा उसे स्पष्ट देख रहा था। चहक- चिन्ता में बदल गयी। प्यारा दोस्त, ममेरा भाई - वसन्त की हालत अजीब हो गयी। रोनी सी सूरत बना, जोर-जोर से पुकारने लगा-
‘कमल! ओ कमल! कहाँ हो कमल....बोलते क्यों नहीं.....। ’- किन्तु उसकी खुद की आवाज ऊँची-ऊँची पहाडि़यों से परावर्तित हो-होकर सुनाई पड़ती रही।
उसके बार-बार की व्यग्रतापूर्ण आवाज से चौंक कर टॉमस दौड़ी चली आयी, जो पास ही झाड़ी की आड़ में मीना के साथ नहा रही थी, और बहाना ढूढ रही थी- शायद इस ओर आने के लिए।
‘क्या हुआ वसन्त ! कमल कहाँ चला गय। ?’- मुझे वहाँ न देख टॉमस घबरायी हुयी बोली।
‘पता नहीं, अभी-अभी तो यहीं डुबकी लगाए थे हमलोग। मैं निकल आया, उसका कहीं पता नहीं। ’- वसन्त की आवाज कांप रही थी, जिसे सुन टॉमस और भी घबड़ा गयी। वह भी आवाज लगाने लगी-
‘कमल! कहाँ चले गए कमल?’-- पर परिणाम वही हुआ, जो पहले हुआ था - ....परावर्तन- अपनी ही आवाज का।
टॉमस की आवाज, पास में ही झाड़ी के बगल में मछलियों सी तैरती-बलखाती मीना के कानों में पड़ी तो वह भी व्यग्र हो उठी। उसे आशंका हुयी- किसी दुर्घटना की। क्यों की वह जानती थी कि मुझे तैरना नहीं आता ठीक से; पानी से डर भी लगता है।
‘क्या हुआ तुमलोग कमल...कमल क्यों चिल्ला रहे हो?’- हाँफती हुयी मीना दौड़ी चली आयी, जहाँ ये लोग थे- वही मीना, जो कुछ देर पहले साथ में नहाने में झिझक रही थी- स्वीमिंग ड्रेस की अर्द्ध नग्नता के कारण अभी हड़बड़ी में आकर खड़ी हो गयी, गीली देह-यष्टि लिए -वसन्त और टॉमस के सामने रोनी सूरत बनाए।
वसन्त और टॉमस सधे हुए तैराक हैं। डुबकी लगाकर फिर मुझे ढूढ़ने का प्रयास करने लगे। पर आखिर उस अथाह जलप्रपात में एक छः फुटी काया को कहाँ ढूढ़ पाते- वह भी तब, जब कि वहाँ है भी नहीं विद्यमान।
वे दोनों ढूढ़ते रहे, कस्तूरी मृग की तरह- पास के सुवास को, और मीना पत्थर की प्रतिमा बनी खड़ी रही, किंकर्तव्यविमूढ़ सी। यहाँ तक की, अन्त में चीख मार कर रो पड़ी-
‘हे भगवान! मेरे कमल को बचा लो.....बचा लो मेरे कमल को। ’
पास में खड़ी टॉमस अपने नाखुन कुतर रही थी -दांतों से। सबके चेहरे उतर गए थे। वसन्त की आँखें डबडबा आयी थी- आंसू के बूंद टपक पड़े थे गालों पर।
‘ हे भगवान! क्या इसी लिए विश्वेश्वर का प्रोग्राम बदल कर, कालेश्वर का प्रोग्राम बनाया था उसने...? कालेश्वर....यह तो काल बन गया कमल का...हे माँ काली! कौन सा मुंह लेकर वापस जायेंगे हम सब...। ’ वसन्त प्रलाप करने लगा था।
टॉमस की गीली आँखों में टकटकी बँधी थी - चेहरे के भाव व्यक्त कर रहे थे –सान्त्वना, पर शब्द न थे उनके पास जो वाणी देसके उसके विचारों को...भावों को...।
बहुत देर तक वहीं दुबका, बैठा देखता रहा मैं - ओह! कितना तड़पन है- इनमें मेरे लिए....टॉमस की छलछलायी हुयी आँखें...कांपते लब...मतलब? कुछ तो अभी भी मेरे लिए है जगह उसके दिल में .....है कोई ऐसी जगह बाकी, जहाँ अभी तक वसन्त के प्यार का पताका नहीं लहरा पाया है...वसन्त, वह तो भाई है- मामा का लड़का, लंगौटिया यार भी है, फिर क्यों न बेचैन हो?...पर मीना...बेचारी मीना! आह! वह कितना व्यग्र है...कितना बेसब्र...भूल गयी है स्वयं को...मेरी तलाश में...स्वयं को विसारने की इस स्थिति के लिए बड़े-बड़े योगी कितना जतन करते हैं...तब कहीं जाकर ‘लव’ लगती है प्रियतम से...और यह- मीना! इसने तो विसार ही लिया स्वयं को...इतनी सहजता से...अन्यथा क्या वह इस अवस्था में...इस अर्द्धनग्नता में आ सकती थी सबके सामने...कतई नहीं...वस्त्र...सबसे बड़ा आडम्बर.... अहं का ...जब ढहता है तो सर्वथा निर्विकार निष्कलुष बना जाता है...निर्वस्त्रता....अहंकार शून्यता में ही सम्भव है....अन्यथा? लोक लाज...मर्यादा...तरह तरह की सीमाओं का जकड़न....तड़फड़ाते प्राण..विकल मन....पर अभी तो कुछ नहीं है- इसके सामने है एक ही खोज...एक ही प्यास...एक ही अभीष्ट....कमल-- वस्तुतः जो उसका कोई नहीं....only a classmet, nothing else… पर शायद सब कुछ....
मैं सुन रहा था -सब कुछ, देख भी रहा था- सब कुछ....वहीं.. - दुबके-दुबके - ढोंके की आड़ से, झाड़ी में छिपा -एक ओर टॅामस, दूसरी ओर मीना...दोनों के बदन पर चिपका गीला स्वीमिंग सूट अंग-अंग के निखार को और भी उभार रहा है- एक ओर संगमरमरी प्रतिमा- टॉमस...दिव्य गौरांग सौष्ठव...उन्नत उरोज...कदली थम्भ सी चिकनी जंघायें...उससे चिपका भींगा जांघिया...और दूसरी ओर- बुत्तपरस्ती की स्मारिका बनी मीना...मुक्त केशी...गेहुआँ रंग..शंख ग्रीवा... दाडिम द्वय...नीला स्वीमिंग सूट चिपका है- गीला होकर उसके अंगों से...ऐसे ही तो उस दिन हॉल में चिपक गयी थी वह मुझसे...कितना तड़प रही थी उस दिन, और आज भी उस प्यासी आत्मा की तरह ही तो तड़प रही है.....
मुझसे सहा न गया...मुझसे रहा न गया...मुझसे देखा न गया...अब उसका तड़पना। दौड़ कर ढोंके की आड़ से बाहर आ गया, हँसता हुआ...और तब- नीर विहीन मीन को मानों अथाह जलनिधि मिल गया...दौड़ कर लिपट गयी मुझसे....फिर एक साथ ही मेरे रोम-रोम को चूम लेना चाही...‘सहस्राक्ष’ की तरह, उसे भी असंख्य होठ मिल जाते तो उसका यह काम आसान हो जाता...दृढ आलिंगन में बेताबी से धड़कते दो दिलों को...भींगे वस्त्र ने और अधिक समीप कर दिया था...न जाने कब तक सुनती रही थी- मेरे दिल के धड़कनों को...
मुझे कैसा लग रहा था उस वक्त- कहने लायक शब्द ही कहाँ हैं ‘कोष’ में...बस, थी- सिर्फ कामना- काश! काल अपना गति भूल जाता...घड़ी की टिकटिक बन्द हो जाती...धरती अपनी धूरी पर नृत्य करना भूल जाती... सूर्य अपने रास्ते में विश्राम ले लेता...हवायें रूख बदल लेती...काश ऐसा ही हो पाता...मेरी मीना आबद्ध रहती यूँही अनन्त-अनन्त काल तक...और मैं खो जाता उन्हीं धड़कनों के मधुर कोलाहल में....
बहुत देर बाद ज्वार कुछ कम हुआ जब...पकड़ कुछ ढीला हुआ...तब पागलों की तरह थपथपाने लगी मेरे सीने को...
‘कमल! कहाँ चले गए थे तुम? क्यों तड़पाया तूने इतनी देर तक मुझे...बेदर्द...बेरहम....?’
उसका प्रलाप काफी देर तक चलता रहा था। टॉमस और वसन्त के मुरझाये चेहरे खिल उठे थे।
वसन्त ने हँस कर कहा- ‘ अब क्यों रोती हो? पत्थर को तो तुम्हारे प्यार की आँच ने मोम कर दिया। तुममें तो वह शक्ति है मीना कि यमदूत के हाथों से भी छीन कर ला सकती हो...कहो सावित्री कैसा रहा सत्यवान का आलिंगन? भगवान करें ऐसी घड़ी बार-बार आए। ’
वसन्त के मजाक पर मीना को होश आया- स्वयं का बोध हुआ, शरमा कर छुई-मुई सी हो गयी। पर छिपे कहाँ? सभी तो यहीं हैं, सामने हीं। जाए तो जाए कहाँ ? निरूपाय होकर वहीं बैठ गयी, दुबक कर- घुटनों में दबा कर शरीर को...आँखें बन्द कर ली...सिर झुक गया जानुओं पर...शुतुर्मुर्ग की दुनियाँ होती ही कितनी है...सिर
बालू में दुनियाँ नदारथ....।
वसन्त और टॉमस उसकी इस मुद्रा पर हठा कर हँस पड़े। हँस तो मैं भी रहा था, पर मेरी हँसी के अन्तः में....
कुछ देर तक उस रूपश्री को निहारता रहा था...कभी टॉमस की अर्द्धनग्न देह-यष्ठि...कभी मीना के अवगुंठित गात...कभी सामने खड़ा वसन्त...
टॉमस- वही टॉमस, जिसकी चाहत को मैं अनचाहे ही नकार दिया था...सुन्दर नारी का ऐसा ही तिरस्कार पृथा पुत्र अर्जुन को कितना मंहगा- या कहें सस्ता - पड़ा था कि बृहन्नला बना दिया...टॉमस में उर्वशी सी श्राप क्षमता नहीं है...पर नारी अन्तर्मन में जो...प्रचन्ड दाहकता होती है...कहीं झुलसा न दे मुझे...टॉमस एक मिश्रित पौध...दो भिन्न भूखण्डों को मिलाने वाली क्षीण रेखा...पिता भारतीय-माँ जापानी...क्या ही सुन्दर रूप और भरा यौवन का उपहार मिला है- श्रष्टा से...किन्तु कहाँ वह सुसम्पन्न परिवेशिनी और कहाँ मैं अकिंचन...सर्वविध अकिंचन...परिव्राजक- सा....त्याग कर नहीं...त्याग ‘पा’ कर...फिर क्या अधिकार मुझे किसी पर?
....और मीना?
वह क्या चाहती है मुझसे? कहीं वही तो नहीं- जो टॉमस चाहती
है? टामस को नहीं मिल पाया... फिर इसे...सक्षम हूँ दे पाने में?पूरी कर पाने में उसकी अभिप्सा?
वसन्त- प्यार की पहेली बुझाने वाला वसन्त...उसकी परिभाषा रचने...गढ़ने वाला मसखरा वसन्त...जो स्वयं ही गिर पड़ा है- टॉमस के प्रेम-सरोवर में....तो मैं भी कूद जाऊँ?
.....आखिर होता क्या जा रहा है, इधर कुछ दिनों से मुझे? मेरी अनुभूतियों को...मेरी समझ को...मेरी दृष्टि को...मेरी बुद्धि को...मेरे विवेक को...मेरे विचार को...इन सबको एक साथ खोता
जा रहा हूँ......?
...नहीं....नहीं....अभी मैं विकेक हीन नहीं हुआ हूँ...अभी मेरा विवेक उलझा नहीं है प्यार की मोटी चादर से...मेरी बुद्धि अभी तक पूर्णतया कारगर है- सोचने, समझने, निर्णय लेने में...टॉमस और मीना में-
गहरे में कोई फर्क नहीं है...आन्तरिक अन्तर नहीं है...टॉमस एक नारी है, मीना भी एक नारी है- दोनों आधुनिका हैं....नारी! - चाहे दुनियाँ की कोई नारी हो, पुरुष! चाहे संसार का कोई पुरुष हो...क्या फर्क पड़ता है? कोई फर्क नहीं एक ही दृष्टि..एक ही विचार, एक ही सोच...काम-शर-विंधित पुरुष-मदनालोडि़त नारी क्या पा सकते हैं कुछ और सोच?कोई और दृष्टि? कतयी नहीं....
विश्व स्रष्टा ब्रह्मा ने मानसिक सृष्टि की थी। अलौकिक सृजन किया था- एक दिव्य सुन्दरी- संध्या का, और फिर उस अपूर्व दर्शित सौन्दर्य को देख कर विवेकहीन हो गया। मुग्ध हो गया...होता चला गया- अपनी ही ‘रचना’ पर। फिर भूल गया अपना कर्तव्य...अपनी मर्यादा’ और याचना कर दिया- उसी से अपनी काम तृप्ति केलिए, जो उसे अपना जनक समझ रही थी...समझ क्या रही थी...व्यर्थ में? नहीं जनक को जनक नहीं तो और क्या समझती? अन्ततः जनक-काम-दूषित काया को भस्मसात कर दी बेचारी संध्या।
मीना नारी है, मैं पुरुष हूँ - मेरी चाह, उसकी अभिप्सा मेरी दृष्टि, उसकी दृष्टि- कैसे हो सकती है दूसरी?
तो क्या मीना मुझसे प्रेम करती है? मैं भी उससे प्रेम करता हूँ? नहीं...नहीं...शायद नहीं। भ्रम है....भ्रम है मेरा यह सोचना...सारा संसार- पानी के बुदबुदे सा संसार- जब यही भ्रम है...फिर मेरा और मीना का एक दूसरे के प्रति प्रेम...क्या यह भ्रम नहीं हो सकता.....?
....ओ...ऽ...फ! क्या हो गया है मुझे? क्या होता जा रहा है? लगता है- सिर की नसें फट पड़ेंगी, स्फीत होकर- रक्त चाप से। पर कहाँ जाऊँ स्वयं को छिपाने? यह तो पौरुष को चुनौती है...स्वीकारना होगा इसे...इस सत्य को...इस कठोर सत्य को, क्यों कि सत्य ही सुन्दर होता है...सुन्दर ही सत्य होता है, और जो सत्य और
सुन्दर है शिव तो होगा ही...होना ही चाहिए शिवत्व - कल्याणकारी।
...सोचता रहा...निहारता रहा...सोचता रहा...मीना...टॉमस.।
अचानक कंधे पर वसन्त के हाथों का स्पर्श पा, मानों नींद से जाग उठा।
‘यूँ खड़े सोच क्या रहे हो?’
‘मीना! क्या सोच रही हो...अब तो उठो...कमल सामने है। तब... अब चिन्ता किस बात है?’-टॉमस मीना के माथे को सहलाते हुए कह रही थी; किन्तु इसका कोई असर न हुआ उस पर।
पहल मुझे ही करना पड़ा- ‘चलो मीना, बैठी क्या हो अब इस
प्रकार? चल कर कपड़े बदलो। ’
मैंने कहा तो उठ कर, नजरें नीची किए, चल पड़ी उस ओर, जिधर कपड़े रख, नहा रही थी। टॉमस भी उसके साथ हो ली। उन दोनों के जाने के बाद हम और वसन्त भी कपड़े बदलने लगे।
कुछ देर बाद हमसब पुनः पहाडि़यों की चढ़ाई प्रारम्भ किए। इस बार सब के सब दूसरे ही मूड में थे। न किसी को प्राकृतिक सौन्दर्य सूझ रहा था, और न मनोहर वातावरण ही बुला रहा था किसी को। चढ़ना... चढ़ना... ऊपर चढ़ना...चढ़ते जाना -एक ही लक्ष्य...
सभी लोग काफी सम्हल-सम्हल कर चल रहे थे। वसन्त टॉमस का हाथ पकड़े हुए था। मीना भी अपना हाथ बढ़ाई मेरी ओर। यन्त्रवत मेरे भी हाथ बढ़ गए- उसे थामने को...और फिर चलता ही गया।
ढोकों का सिलसिला खतम हुआ, कायदे की सीढि़याँ शुरू हुयी, तब एक दूसरे का हाथ छूटा।
दिन काफी चढ़ आया था। चढ़ क्या...अब तो कहें उतरने लगा था- साढ़े बारह बजने लगे थे। मीना ने घड़ी देखी और बिना किसी से कुछ पूछे खाने का सामान सजाने लगी।
‘तो क्या भोजन के बाद ही देवी-दर्शन होगा ‘देवीजी’ ?’- कहा वसन्त ने, नाटकीय भाव से हाथ जोड़ कर;जिसे सुनते ही मीना की जीभ दांतों तले आ दबी- ‘अरे! मैं तो भूल ही गयी थी। ’
‘आप तो स्वयं को भूल जाती हैं.....मन्दिर भूली तो क्या?’- वसन्त ने मुस्कुरा कर कहा।
हम सभी मन्दिर में गए। चारो ओर अनेक प्राचीन मूर्तियाँ सजी हुयी थी- दीवारों में बने ताकों में। गर्भगृह के मध्य में माँ काली की आदमकद प्रतिमा काले पत्थर की बनी थी- एक झलक देखने में तो ऐसा ही प्रतीत होता था; किन्तु पुरोहितों से पूछने पर पता चला- यह कोई सामान्य काला पत्थर नहीं है- गौर से देखिए बिलकुल गहरा लाल है- विशुद्ध ‘वैद्रुम’ - प्रवाल की अनुपम प्रजाति। सच में लगता था- प्रवाल के पहाड़ को करीने से काट कर यह दिव्य प्रतिमा बनाई गयी है- अद्भुत, नयनाभिराम....।
गर्भगृह के बाहर विशालकाय बटुक भैरब की मूर्ति भी वैसे ही पत्थर की अवस्थित थी। एक ओर विशाल अर्घ्यकेन्द्र में शिवलिंग स्थापित था, जिनके सामने नन्दी विराज रहे थे।
घूम-फिर कर चारो ओर से, हम पुनः आ खड़े हुए- माँ काली के सम्मुख। बगल में ही मीना खड़ी थी, और वहीं पास में ही हमलोगों की दूसरी जोड़ी भी- वसन्त और टॉमस की।
मीना हाथ जोड़े बहुत देर तक आँखें बन्द किए खड़ी रही थी, मूर्ति के समक्ष। उसकी इस मुद्रा पर टॉमस ने पूछा था-
‘इतनी देर खड़ी होकर काली माँ से क्या मांग रही हो मीना?’
मीना मूर्तिवत खड़ी ही रही, कुछ बोली नहीं। पर वसन्त से रहा न गया- ‘....पति रूप में कमल....और क्या मांग सकती है मीना? इसे और चाहिए ही क्या? मांगना है तो तू भी मांग ले जल्दी से। मन की मुराद हाथों हाथ देती हैं- माँ कालेश्वरी। ’- इशारा टॉमस की ओर था, और एक नजर कमल की ओर भी।
‘हूंऽह! यही मांग रही हूँ? अपना नहीं कहते- मन में कैसे- कैसे लड्डू फूट रहे हैं?’- पीछे मुड़ कर तुनकती हुयी मीना ने कहा, और पुनः आँखें बन्द कर ली।
मैं भी करवद्ध खड़ा था वहीं- अन्तःवाह्य स्थिरता के प्रयास में। मेरे मुंह से हठात् निकल पड़ा - हे माँ! शक्तिदायिनी! शक्ति दो मुझे....शक्ति दो माँ!
‘मीना सामने है, और शक्ति मांग रहे हो माँ काली से, अजीब हो तुम भी! ’-वसन्त को यहाँ भी मजाक सूझा, और सब के सब हँस पड़े थे। मैंने मौन, दण्डवत किया, और वैसे ही बाहर आगया।
बाकी लोग भी मेरे पीछे-पीछे ही बाहर आ गए।
पता नहीं क्यों मन बिलकुल उचाट हो गया था। मीना चार प्लेटों में खाना निकाली। सबने मिलकर खाना खाया, और थोड़ा विश्राम करने के बाद वापस चलने की तैयारी हो गयी।
‘गाड़ी मैं चलाऊँ या तुम चलाओगे?’- गाड़ी में बैठती हुयी मीना ने पूछा।
‘जैसी तुम्हारी मर्जी। ’- संक्षिप्त सा मेरा उत्तर था।
‘ठीक है, मैं ही चलाती हूँ। ’- कहती हुयी गाड़ी स्टार्ट कर दी।
बहुत देर तक हमदोनों मौन ही रहे। लगता था- दोनों की वाणी खो गयी हो वहीं जलप्रपात के कलकल में या फिर पहाड़ की कन्दराओं में।
‘शे..ऽ..र...। ’-मीना चिल्लायी।
मैंने देखा- एक गद्दावर शेर आँखें तरेरे घने जंगल से निकल कर इसी ओर बढ़ा आ रहा है। मीना के हाथ कांपने लगे, गाड़ी का संतुलन बिगड़ने लगा। मैंने स्टेयरिंग सम्हालते हुए कहा- आओ, तुम इधर आ जाओ। घबराने की कोई बात नहीं। वह बिचारा स्वयं ही चला जाएगा।
सही में शेर एक ओर चला गया था। मीना की घबराहट भी थम चुकी थी- शेर के पलायन के बाद। मेरी ओर देखती हुयी बोली-
‘कमल! कमल!!’
‘क्या है-बोलो?’
‘देखो न इधर। ’
‘बोलो न, क्या कहती हो?’
‘क्या हो जाता है तुम्हें, कमल...क्या सोचने लग जाते हो?’- मीना का उदास चेहरा मुझे आइने में नजर आया। मैं सामने ही देखता रहा। गाड़ी चलती रही।
‘....कहाँ खो जाते हो कमल! बोलो न?’- मेरी बांह पकड़ कर झकझोर दी।
मैं पूर्ववत रहा। नजरें घुमा, आइने में फिर देखा, उसकी अक्स नज़र आ रही थी। पलकों की बदली उमड़-घुमड़ रही थी। यदि और कुछ देर मौन साधे रहता तो तय था कि बरस भी पड़ती। अतः बोलना ही पड़ा- क्या कह रही हो बोलो?
‘पिकनिक पर आने की तुम्हारी भी इच्छा थी या सिर्फ मेरी इच्छा पर आए हो?’- कातर स्वर में पूछा था उसने, और अपने होठों पर अंगुली फेरने लगी थी।
‘मेरी भी इच्छा थी। ’- संक्षिप्त सा उत्तर था मेरा।
‘स्वीमिंग ड्रेस में नहाने उतरी तुम्हारी मर्जी से या कि अपनी मर्जी से?’- दूसरा प्रश्न था मीना का।
‘दोनों की मर्जी से। ’- कहता हुआ मैं उसके चेहरे को गौर से देखने लगा, जिस पर टेलीवीजन के पर्दे की तरह कई भाव जल्दी- जल्दी बन और मिट रहे थे।
‘फिर यह मौन क्यों? यह खामोशी क्यों? यह नाराज़गी क्यों?’- एक ही भाव के तीन सवाल, एक ही साथ रख दिया उसने।
‘यूँहीं। ’
‘मैं तब से ही देख रही हूँ- तुम छिपे अपनी मर्जी से, निकले भी अपनी मर्जी से। मैं तड़पी अपनी मर्जी से। रोयी भी अपनी मर्जी से। फिर कसूर क्या है मेरा? यही न कि खुद को भूल गयी, चली आयी सबके सामने उस अवस्था में, और आकर लिपट गयी तुमसे? तुमने उस दिन भी टोका था मुझे, जब हॉल में भयभीत होकर लिपट गयी थी तुमसे। क्या इसी लिए बुरा मान गए आज भी? बोलो? यदि बुरा लगता है, तो न कहूँगी कुछ कभी; पर तुम स्वयं ही सोचो, पूछो अपने दिल से- यह सब क्या मैंने अपने होश-वो-हवाश में किया है? तुम भी कहोगे- शायद नहीं। ...नहीं कमल! मैंने जानबूझ कर ये सब नहीं किया...ये सब हुआ है- तुम्हारे प्रति प्रेम...सहानुभूति
और भाउकता में विवश होकर...बेबस होकर....बेसुध होकर कमल...बेसुध होकर...तुम इसे गलत न समझो...मैंने ऐसा कुछ नहीं किया है कमल, जिसमें तुम्हें नाराजगी हो। तुम्हारा दिल मैं क्यों दुःखा सकती हूँ? सोचो... समझो... परखो- अपने विवेक की कसौटी पर- फिर पाओगे कि स्नेह, प्रेम और विवशता का सोना कितना खरा है...अगर अनजाने में कोई गलती हो ही गयी हो, तो उसे माफ कर दो...माफ कर दो कमल...मुझे माफ कर दो...। ’
मीना प्रलाप करती जा रही थी। उसके कोमल कपोल आँसु की लडि़यों से तर हो चुके थे। मेरी अजीब स्थिति हो रही थी- क्या कहूँ...क्या समझाऊँ इसे...इस नादान-भोली बच्ची को, कि मैं क्या सोच रहा हूँ।
थोड़ा सहेजा स्वयं को। संतुलित किया- मन को;और बोला-
‘मीना! मैं तुमसे नाराज़ नहीं हूँ। नाराज़ होने का मेरा हक ही क्या है? मैं दबा हूँ- तुम्हारे और तुम्हारे मम्मी पापा के एहसानों तले। फिर नाराज क्यों कर हो सकता हूँ? पर मेरी अपनी भी कुछ भावनायें हैं। अपना भी कोई अस्तित्त्व है। क्या मैं अपने अस्तित्त्व को...अपने व्यक्तित्त्व को भी गिरवी रख दिया हूँ या कि बेंच चुका हूँ अपनी उन रचनाओं की तरह ही कौड़ी के मोल.....?’
मीना सुनती जा रही थी चुप...मौन..शान्त...स्थिर...और मैं...
मैं कहता जा रहा था, ‘...मीना तुम खुद सोचो...जरा समझने की कोशिश करो- अब तुम कोई छोटी बच्ची नहीं हो पांच-दस साल की। मैं क्या हूँ...तुम क्या हो -इसे नजरअन्दाज मत करो। मत भूलो मीना, स्वयं को मत भूलो....मैं जानता हूँ- इसमें तुम्हारी कोई भूल नहीं...गलती नहीं...गलती तो वक्त का है...दोष उम्र का है.. .जमाने का है...तेरा-मेरा नहीं...
मैं बके जा रहा था, मीना सुने जा रही थी, गाड़ी चलती जा रही थी....कलकत्ता पहुँच गए...सफर समाप्त हो गया....सबका। टॉमस और वसन्त रास्ते में ही रास्ता बदल लिए थे- कहीं और भी जाने का
प्रोग्राम बन गया था शायद। मैं मीना के साथ आ गया ‘मीना निवास’।
अगले दिन मैंने चटर्जी चाचा से कहा था- ‘चाचाजी परीक्षा तो समाप्त हो ही चुकी। रिजल्ट आने में कम से कम दो-ढ़ायी महीने लग ही जायेंगे। अच्छा होता घर हो आता। ’
उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया, और मैं चल दिया उसी दिन संध्या की गाड़ी- दून एक्सप्रेस से- गांव के लिए।
‘कब तक लौटोगे कमल?’- सीढ़ी पर खड़ी मीना ने सजल नेत्रों से पूछा था।
उसकी तो इच्छा थी- साथ जाकर स्टेशन छोड़ने की’ किन्तु मैंने मना कर दिया।
‘देखें कब तक लौट पाता हूँ। ’-कहता हुआ सीढि़याँ उतरने लगा था।
‘जल्दी ही लौट आना कमल। ’- कहती हुयी मीना के सुर्ख कपोल गीले हो गए थे- अश्रुमुक्ता से। मैं ठहर कर उन्हें पोंछने अथवा मीना को कुछ कहने-समझाने की जरूरत भी ‘न महसूस’ कर सका, पीछे मुड़ कर देखने की हिम्मत भी ‘न’ जुटा सका, बस चल दिया...खट...खट...खट...सीढि़याँ उतरते।
पिछले दिनों से ही कुछ अजीब सा तूफान उठ खड़ा हुआ था मेरे अन्तःस में और बहे जा रहा था मैं उसके थपेड़ों में।
दून एक्सप्रेस के थ्रीटायर स्लीपर में सौभाग्य से सीट मिल गयी थी। तौलिया बिछा कर पड़ गया। चलते वक्त चाची टिफिन कैरियर में रात का खाना दे दी थी, पर उसकी जरूरत ही महसूस न हुयी।
विगत वर्षों के कलकत्ता प्रवास की कुछ धूमिल, कुछ साफ चित्र एक-एक कर आँखों के सामने नृत्य कर रहे थे। मैं उनका खतौनी कर रहा था- जीवन-तलपट के खाकों में। न जाने कब आँखें लग गयी- इतनी गहराई से कि गन्तव्य पर पहुँच कर ही खुलीं।
घर आ गया था। सकु्शल पहुँचने की सूचना, पत्र द्वारा मीना को दे दी थी। अन्य समाचारों के अलावा लिखा था- ‘अच्छा किया मीना कि मैं जल्दी ही आ गया, अन्यथा शीघ्र ही यहाँ से ‘तार’ जाता। माँ काफी बीमार है। पिताजी के निधन के बाद से ही इसे भी अचानक दिल का दौरा पड़ना शुरू हो गया है, जो तुम जानती ही हो। इधर सप्ताह भर से पुनः इसकी स्थिति गम्भीर हो गयी है....सोचा था घर जाकर थोड़ा आराम करूँगा कुछ दिन; किन्तु मुझ अभागे के भाग्य में न लिखा है सुख-आराम। माँ के स्वास्थ्य लाभ के बाद ही कलकत्ता आ पाना सम्भव हो सकेगा। देखें कब तक लौट पाता हूँ। तुम इन्तजार में हो, तो मैं भी प्रतीक्षा में हूँ....।
इसके बाद मीना के कई पत्र आए। हर दो-तीन दिनों पर एक लिफाफा हाजिर रहता। समयानुसार पत्रोत्तर भी दे ही दिया करता। एक पत्र में मीना ने लिखा था-
‘कमल! तुम्हारे आने की वाट रोज देख रही हूँ। तुम आ जाते तो अच्छा होता। फिर एक बार कहीं घूमने चला जाता। वैसे मई अन्त तक वाराणसी जाने का विचार हो रहा है- मौसी के यहाँ। यदि माँका स्वास्थ्य सुधर गया हो तो शीघ्र यहाँ आने का प्रयास करना। ’
किन्तु माँ का अस्वस्थता दौर शुरू हुआ तो महीनों से उपर हो गए। कलकत्ते से चाचा-चाची भी आए, माँ की नाजुक स्थिति सुन कर मुलाकात करने।
बीमारी की सूचना पाकर अन्य परिजन भी क्रमशः आ-जा रहे थे। हालांकि, माँ की स्थिति में शनैः-शनैः काफी सुधार हो चला था, पर आने वालों की स्थिति पूर्ववत जारी रही। इस समय मेरी वही स्थिति थी, जो घर में चोरी-डकैती-कुछ अन्य संकट के बाद घर के मुखिया की होती है। दारोगा जी दस बार आयेंगे, कुछ पूजा-दक्षिणा ले
कर जायेंगे, काम-परिणाम कुछ हो ना हो, खु्शमद-जीहुजूरी जरूरी है। वस ऐसा ही- बीमार की सुश्रुषा बाद में, आगन्तुकों की आवभगत पहले।
डेढ़ महीने तक आवा-जाही लगी रही।
इसी क्रम में आए एक दिन- भाभी के पिताजी- यानी शक्ति के मामा;और बातचित के क्रम में कहा उन्होंने मेरे तत्कालिक अभिभावक चाचाजी से-
‘क्यों भट्टजी! कैसा रहेगा?मैं समझता हूँ- समय आ पहुँचा है, कमल बाबू परीक्षा देकर आही गए हैं। आखिर बेचारे दिवंगत समधी साहब की आत्मा को कब तक तरसाया जायगा? शक्ति के माता-पिता की आत्मायें भी तो इसी दिन की प्रतीक्षा में होंगी। ’
उनकी बात पर चाचाजी कुछ चौंकते हुए बोले- ‘क्या कह रहे हैं हरकिशनजी? मैं आपकी पहेली कुछ बूझ नहीं पा रहा हूँ। ’
‘तुम क्या बूझोगे गीता के बापू? हरकिशन जी की इस पहेली को मैं अच्छी तरह बूझ रही हूँ....। ’-वार्तालाप में दखल देती हुयी माँ ने कहा था।
‘हाँ, देखे न आप भट्टजी, आप न समझ पाए मेरी बात को, पर जिसे समझना है, वह समझ गयी। ’- कहते हुए हरकिशन जी हँसने लगे थे, और इस हँसी में उनके मुंह की ढीली बतीसी बाहर आने को बेताब हो गयी थी, जिसे हड़बड़ा कर सम्हाल लिया उन्होंने।
माँ ने आगे कहा था- ‘ठीक कह रहे हैं, हरकिशन बाबू आप। हम तो वचनवद्ध हैं ही बहुत पहले से- आपकी बच्ची तो बहुत बाद में हमारे घर की बहू बनी। उससे बहुत पहले ही, जब बड़कु की शादी में मैं गयी थी मैके, उसी समय कमल के बापू ने वचन दिया था, शक्ति के पिता श्री देवकान्त जी को -”अपने यहाँ मैं आपकी बच्ची का
सम्बन्ध करने का वचन देता हूँ। " मगर अफसोस, आज उन दोनों...क्या तीनों में कोई न बचा रह गया...न कमल के बापू और न शक्ति के माता-पिता ही। वे दोनों तो साल-दोसाल पहले ही चले गए। पिछली बार जब कमल के बापू ज्यादा बीमार हो गए थे, तो एक दिन मुझसे कहे थे- मुन्नी की माँ! शक्ति की शादी के लिए मैंने वचन दिया है- देवकान्त जी को। ’-कहती हुयी माँ रो पड़ी थी।
हरकिशन जी ने उसे ढाढ़श बँधाया था- ‘भगवान को शायद यही मंजूर था। दैव पर किसका वश चला है ! कितना सुखमय वह परिवार कुछ बर्षों में ही तितर-वितर हो गया। लड़का भी है एक, सो करम अभागा- नालायक ही निकला- तभी तो बेचारी शक्ति उन लोगों के गुजरने के बाद से ननिहाल में ही पड़ी है। अतः इस पर विचार कर कुछ रास्ता जल्दी ही निकालना जरूरी है...आप भी हमेशा बीमार ही रहती हैं। ’