निरामय / खंड 5 / भाग-14 / कमलेश पुण्यार्क
‘मैं भी तो लगता है- चन्द दिनों का ही मेहमान हूँ। मेरी भी बड़ी लालसा है- एक ही लड़का है;कम से कम बहू को देख लेती तो चैन से मरती। पोता-पोती देख सकना तो दूर की बात है। ’-कहती हुयी माँ फिर डबडबा गयी।
‘ऐसी बातें क्यों करती हो भाभी? अभी तुम्हें बहुत दिन जीना है। ठाट-बाट से कमल की शादी करो। बहू ही क्यों, पोता-पोती सब देखो। ’- पास बैठे चाचा ने सान्त्वना दी थी, माँ को।
‘नहीं गीता के बापू! इतना दिन जी कर क्या करूँगी...इस पापिन शरीर को कब तक ढोऊँगी?बस एक ही लालसा रह गयी है- बहू का मुंह देख लेती...शक्ति बिटिया की शादी मेरे कमल से हो जाती, तो मेरा घर बस जाता...मृत प्राणियों को चैन मिलता, कमल के बापू का वचन पूरा होता...और मुझे चैन की....। ’-कहती हुयी माँ की आँखों में प्रसन्नता और आशा के मोती तैरने लगे थे।
‘तो फिर देर किस बात की? हम सभी एकत्र हैं ही...क्यों न देख लिया जाय- एक बढि़याँ सा लग्न-मुहूर्त...और निपटा दिया जाय- वचनों और संकल्पों का बोझ! सुनते हैं शुक्रास्त भी इस महीने के अन्त तक होने जा रहा है, और आगे फिर आगे ही हो जायगा.....। ’-प्रसन्नता पूर्वक कहा था- शक्ति के मामा ने।
उनकी बातों का समर्थन करती हुयी माँ ने कहा था- ‘सही कहा आपने- समय बहुत कम है; किन्तु एक बार कमल से राय.....। ’-माँ का वाक्य अंटका ही रह गया था, मुंह में। अब तक पर्दे की ओट में खड़ी भाभी बीच में ही बोल पड़ी-
‘क्या कहती हैं माँजी! कमल बाबू जिस समय सुनेंगे कि शादी शक्ति से होने जा रही है, फिर सिर के बल दौड़ते हुए बारात निकलने से पहले ही पहुँच जायेंगे....। ’
भाभी द्वारा दी गयी- गोपनीय शाखा की यह सूचना सुन, सभी हँसने लगे। माँ ने भी भाभी की बातों का समर्थन किया।
‘हाँ-हाँ बहू ठीक कहती है, मुझे भी याद आ रही है- देवकान्त जी का परिवार जब कलकत्ते में रहता था, कमल अकसरहाँ वहाँ जाया करता था। शक्ति को वह अच्छी तरह जानता है। वसन्त ने भी कहा था मुझसे एक बार- वे एक दूसरे को....। ’-चाचाजी कह ही रहे थे कि बीच में ही हरकिशन जी बोल उठे-
‘बिलकुल ठीक कहा आपने भट्ट जी, मेरा भी कुछ ऐसा ही ख्याल है। ’ और पास ही रैक पर रखा हुआ पंचांग उठा लाए।
....और अगले आध घंटे के विचार-विमर्श के बाद मात्र दस दिनों बाद का ही विवाह मुहूर्त सर्व सम्मत्ति से पारित हो गया।
मैं सुबह ही चला गया था, पास के कस्बे से माँ की दवा लाने। देर रात घर वापस आया, तब तक हरकिशन जी जा चुके थे- अपने घर वापस- सुसंवाद लेकर शक्ति की शादी का- रात में भाभी ने विस्तृत जानकारी दी तो सिर धुनने के सिवा कुछ और सूझा नहीं। पैरों तले की धरती हिलती हुयी सी लगी। एक एक कर बहुत सारे बिम्ब
आँखों के सामने बनने और बिगड़ने लगे- ‘स्टार्टर-सर्किट’ से जुड़े- मीना और शक्ति के कई चित्र चलते फिरते दौड़ते से नजर आए....
शक्ति...जिससे मात्र परिचय है- एक दो दिन का। वैसा परिचय तो कईयों से है- स्कूल की बहुत सारी लड़कियों से...तो क्या सबको ब्याह लाऊँ, और बहुओं का हार बना, डाल दूँ- माँ के गले में?....परन्तु मीना...? इन सबसे अलग...बिलकुल अलग व्यक्तित्त्व है उसका...महत्त्व है उसका...दबा हूँ उसके एहसान से...किन्तु...क्या वह
मुझे चाहती है...प्रेम करती है? चाहती है...प्रेम भी करती है...इतना लगाव...माँ के सिवा कहीं और दीखा तो वह दीखा- मीना में...किन्तु क्या वह मुझसे...शादी...शादी तो जीवन का सौदा है- समान ‘धर्मियों’ के बीच होता है...‘वि’ ध्रुवों के बीच तो सिर्फ....शादी कोई प्रसाधन नहीं है...रोटी-कपड़ा-मकान नहीं...दो दिलों का विलयन है जिसे आज की भाषा में ‘समझौता’ कह कर संतोष करते हैं...शादी तो आजीवन-निर्वहण है...मीना ‘मीना’ है...मैं ‘मैं हूँ -एक साधारण सा...गृहस्थ का बेटा, जिसने जीवन भर झोली पसारी है संभ्रान्तों के द्वार पर... ‘बंकिम बाबू’ एक अति संभ्रान्त...एक बड़े जमींदार की इकलौती वारिस- मीना....को मुझ अकिंचन की झोली में डाल सकेंगे? असम्भव...असम्भव है यह...ऐसा नहीं हो सकता........पर उनका ‘अधूरा कर्तव्य’ क्या था, जिसे वे अकसर याद करते थे? क्या मुझे पढ़ा-लिखा, योग्य बना कर अपना जामाता बनाना चाहते हैं?....
चाची के उच्छ्वास- ‘काश ऐसा हो पाता, का क्या अर्थ हो सकता है....? मेरे प्रति उन दम्पति का काफी रूझान रहा...बहुत लगाव रहा...बहुत आकर्षण भी रहा...किन्तु इसका क्या मतलब?...
चटर्जी दम्पति के नेत्रों में तैरता एक सपना...निर्निमेष निहारते मुखमंडल...सिर पर फिरते हाथ...क्या है यह सब....?
....क्या यह चिन्तना भी व्यर्थ है? नहीं...शायद नहीं..मीना...वह तो मुझे बहुत चाहती है...अजीब निगाहों से अकसर देखा करती है...उन रतनारी आँखों में कुछ चाहत छिपी सी लगती है...किन्तु कहीं यह मेरा वहम तो नहीं... क्या उसकी आँखों में मेरे पतिरूप का बिम्ब झलकता है...
....तो क्या करूँ? पत्र लिख डालूँ? पत्र का आवागमन तो लम्बे समय की व्यवस्था और परिणाम है...यहाँ मुट्ठी में सिर्फ ‘पखवाड़ा’ है... वह भी मुकम्मल नहीं...क्षुद्र ‘टेलीग्राम’ प्रेम संवेदनाओं को कितना प्रकट कर पायेगा? ....तो चल दूँ....पर यह लम्बी यात्रा...यह तो और भी कठिन है- असम्भव जैसा- माँ को इस हाल में छोड़...
.....लोग कैसे कहते हैं कि दुनियाँ पहले से बहुत छोटी हो गयी है?गरीबों की दुनियाँ तो पहले जैसी ही है...काश छोटी होती!
अजीब मजाक है...शादी होने जा रही है...गुड्डे-गुड्डी का खेल मिन्टों-घंटों-दिनों में...सोचने समझने का दरकार नहीं...
....सुनते हैं कि संसद का प्रस्ताव राष्ट्राध्यक्ष के पास जाता है..एक दो तीन के बाद चौथी बार नकारने की गुंजायश नहीं रहती, अनिच्छित होने पर भी हस्ताक्षर कर ही देना पड़ता है- उस प्रस्ताव पर। ‘संघीय सत्ता व्यवस्था’ की इसे विशेषता कहूँ या दुर्गुण? किन्तु मेरे गृह-सांसदों ने तो उस पद को ही थोथा करार कर दिया। मेरे पास तो कोई प्रस्ताव क्या, विचार या कि राय भी नहीं पहुँच पाया- जिसे स्वीकारूँ या खारिज करूँ...सीधे ‘ज्वायनिंग-डिसमिश’ लेटर ही मिला...शादी मेरी...और मेरे ‘शाद’ की भी फिकर नहीं....
......इन्हीं विचारों के तूफान से पूरी रात जूझता रहा।
अगला सूरज मेरे ‘घर’ के लिए नयी आभा का संदेश लेकर आया था। सबके सब जुट पड़े थे काम में। ऐसा लग रहा था कि चाचा-चाची, उनसे जुड़े मेरे तथाकथित भैया-भाभी...सबके सब मेरे ही साथ हैं। मेरे परिवार को विखण्डित किया है इन्होंने ही- आज शायद माँ को याद नहीं...
किन्तु मैं कैसे भूल जाऊँ उस मनहूस घड़ी को? लाख कोशिश के बावजूद ये सब जरा भी अपने से नहीं लगते। चाची ने निकाल बाहर किया था अपने डेरे से...बंकिम चाचा के कल्पतरू की छांव यदि न मिलती तो आज मेरी क्या स्थिति होती? किन्तु जब माँ को ही विस्मरण हो गया है यह सब...फिर मैं?
घर की लिपाई-पोताई प्रारम्भ हो गयी थी। बाजारू सामानों की लम्बी फेहरिस्त तैयार हो गयी थी। निमन्त्रण-पत्र छापने का आदेश प्रेस को दे दिया गया था। सभी सदस्य बड़े मनोयोग पूर्वक एक जुट होकर
कार्य-व्यस्त हो गए थे। सबके चेहरे पर प्रसन्नता झलक रही थी। माँ भी अब जरा भी बीमार सी नहीं लग रही थी। सबकी तरह वह भी प्रसन्न थी- बहू जो आने वाली है, सास बनने की खु्शrrrrrrrrrr स्वाभाविक है।
किन्तु मैं कहाँ से ले आऊँ खु्श...प्रसन्नता...किससे मागूँ कोई
उधार में देगा? चाचा-चाची...से...भैया-भाभी...से...मैना से....किससे? कौन देगा अपने हिस्से का अल्पांश भी ...प्रसन्नता में से?
मुझे उदास देख कर मैना ने पूछा था एक दिन- ‘क्यों भैया! शादी होने जा रही है, और तुम यूँ उदास- उदास से रह रहे हो...क्या बात है?’
मैं क्या बतलाता बेचारी मैना को? अतः सिर्फ- कुछ नहीं, यूँहीं- कह कर काम चला लिया।
नियत तिथि को शादी हो गयी। ‘शादी हो गयी’ इससे अधिक इस सम्बन्ध में और कुछ नहीं...गुड्डे-गुड्डी का खेल खत्म हो गया। किसी स्वचालित यन्त्र सा सब कुछ करता रहा। बारात सज-धज कर शक्ति के मामा के घर गयी...शादी हुयी...बारात बिदा हुयी...शक्ति मेरी अर्द्धांगिनी बन कर, मेरे साथ मेरे घर आ गयी...बस, और क्या?
माँ की छाती गर्वोल्लास से फूल उठी। जी भर कर गले लगायी बहू को। माँ की ‘उमर’ दस साल पीछे खिसक आयी।
पर बेटे के अन्तर्मन की स्थिति से अनभिज्ञ माँ- और अधिक सोच भी क्या सकती थी...कर भी क्या सकती थी...परवाह करने के लिए था भी क्या?
परवाह हुयी- वचनों की...प्रतिज्ञा की...आत्माओं की शान्ति की।
त्रेता की कैकेयी ने वचन लिया था...एक ‘स्त्रैण’ राजा ने वचन ‘दिया था...और रघुकुल की रीति ‘निभायी’ गई थी।
आज भट्ट कुल ने भी रीति निभायी है। वचन पूरा किया है- “ प्राण जाहुँ, बरू वचनु न जाई। "
राम वन गए थे- प्रिया को साथ लेकर, पर तड़पी थी-विरहाग्नि में जली थी- उर्मिला...बेचारी उर्मिला...‘बे’ चारी-- इसका विचार किसने किया? शायद किसी ने नहीं। करे भी कौन...क्यों? फुरसत किसे है? प्रयोजन भी क्या है?
आखिर कसूर क्या था उर्मिला का? यही न कि भ्रातृभक्त की पत्नी थी- मर्यादा पुरुषोत्त्ूम के प्रिय अनुज की...भ्रातृधर्म की वेदी पर पत्नी धर्म / पति धर्म की बलि पड़ी।
शादी शक्ति की हुयी...वचन भट्ट कुल के निभे...और तड़पन मिला- मीना के हिस्से।
राम! तुम्हारी भूल है यह...सीता को साथ रख कर, उर्मिला को तड़पा कर....कैसे सोच लिए सुखद दाम्पत्य की बात? मर्यादा के नाम पर - " ?" प्रश्नचिह्न....त्रेता के राम...उर्मिला अकेली नहीं झुलसेगी;झुलसना पड़ेगा सीता को भी...राम को भी...
....मीना की तड़पन में तुम्हें भी तड़पना होगा शक्ति...और कमल तुमको भी...दुनियाँ की कोई ताकत इसे डिगा नहीं सकती...
...विक्षिप्त सा अपने आप से बातें कर रहा था। अचानक मैना के हाथों का स्पर्श मिला कन्धे को- ‘क्या सोच रहे हो भैया? जो होना था, सो हो चुका। कसूर यदि मीना का नहीं है, तो बेचारी शक्ति का ही क्या है कसूर? वह नादान...अनजान...क्या जानने गयी? उसे क्या पता है, इन बातों का- जो आज तुमने मुझे बतलाया- कहा सब कुछ, पर बहुत देर बाद...अब देर हो गयी है...खैर छोड़ो...भुला दो इन सपनों जैसी सच्चाई को...चलो...उठो...जाओ, कमरे में जाओ...मिलनयामिनी प्रतीक्षा में है तुम्हारी, और तुम....?’
मद-मत्त युवक को जैसे उसका मित्र घर के दरवाजे तक पहुँचा जाता है- हाथ पकड़ कर, मैना उसी प्रकार कमरे के चौखट तक पहुँचा गयी थी।
विस्तर पर गिरने के बाद ‘मदिरामय’ को होश शायद नहीं रहता। भीतर जा कर कमरे में पलंग पर पड़ रहा था। मेरे बदन के बोझ से दब कर सुहाग-सेज पर सजायी कई कलियाँ मसल गयी थी, कई और भी मसलेंगी- पर इसकी परवाह किसे थी?
नींद- प्रकृति का एक दिव्य वरदान! यदि न मिला होता मानव को तो वह कब का क्या से क्या हो गया रहता...गमगीन मानव को पागलखाने से इधर शरण कहाँ मिलता- इस वरदान के अभाव में?
न जाने कब आँखें लग गयी थी। चाँद प्रतीची में जा छिपा था, प्राची में सूर्य संसार को नया संदेश देने आने को अधीर...। कल से ही शुक्रास्त शुरू हो रहा है, अतः शक्ति को आज ही चले जाना है, दोपहर में। अमर भाईचारा दिखाने आया हुआ है- लेजाने के लिए...
...और दोपहर में शक्ति चली गयी वापस- मैके, जैसी आयी थी, वैसी ही। जरा भी दाग न लग पाया था कहीं उसके कौमार्य की चादर में- जस के तस धरी दीन्हीं चदरिया...
प्रकृति की गाड़ी चलती रही- सूरज गया, चाँद फिर आया। दिन के बाद रात के आगमन के साथ यादों का वातायन भी खुल गया, और उससे होकर आने लगे स्मृतियों के सर्द-गर्म झोंके- मेरे मानस-कक्ष में...
...मीना आयी...फिर शक्ति भी आयी...इनकी न जाने कितनी ही आवृत्तियाँ हुयी। फिर स्थिर होने लगी छवियाँ...मेरी आँखें निहारने लगी-
अविराम गति से, कल्पना लोक में भटकते उन मुखड़ों को- एक, जिसे अपना न सका, और दूसरा- जिसे अपना कर भी पा सकने का प्रयास तक न कर सका।
शक्ति! बेचारी शक्ति क्या सोचती होगी मन ही मन? कितने ही अरमानों की कलियाँ खिली होंगी- यह जान कर कि कमल से उसकी शादी हो रही है- उस कमल से जो एक दिन उसकी हथेली की रेखाओं में ही खो गया था...
....अपनी हथेली पर भतीजे की रेखा ढूढ़ने वाली शक्ति, जिसे मसखरे वसन्त ने रेडियो स्टेशन की रेखा कहा था...
...मैंने भी तो कहा था- ....शक्ति का दाम्पत्य बड़ा ही सुखद होना चाहिए...इसे किसी बड़े खानदान की बहू बननी चाहिए...।
बहू तो बन गयी- बड़े खानदान की- विक्रम भट्ट के खानदान की...पर दाम्पत्य? क्या उसका दाम्पत्य सुखमय हो पायगा?मैं तड़पूँगा मीना की याद में, और वह.....?मेरे लिए। फिर कैसे हो पायगा सुखमय- मेरा उसका दाम्पत्य?
पर उस दिन देवकान्त चाचा- अब कहूँ - मेरे गतायु स्वसुर परिवार की देखी गयी हस्तरेखा की लगभग सभी भविष्य वाणियाँ सही उतरी हैं। यही एक वाणि- शक्ति का सुनहरा दाम्पत्य- शायद गलत सिद्ध हो। होगा ही। होना ही है। किसी विचारक के सभी सिद्धान्त सही कैसे हो जायेगे? कुछ तो होगा ही अपवाद! अपवाद भी अपने आप में एक नियम है। सिद्धान्त की सार्थकता भी इसी में निहित है...
....शक्ति की झुक आयी पलकें...सुर्ख हो आए कपोल...पसीने की बूँदे छलक आयी हथेली...क्या वह छवि विसर सकती है कभी?
....भैया की शादी...गीत गोविन्द के धुन...मातृ-पितृ विहीन बालिका के कोकिल कण्ठ स्वर...क्या उन सबको भुला पाऊँगा कभी भी?
...सुहाग सेज पर पड़ी लाल गठरी- पलंग के एक कोने में दुबकी-सहमी सी...क्या उन मनोंभावों की अवहेलना मुझे चैन से रहने देगी....?
किन्तु महत्त्व ही कहाँ दिया मैंने? बेचारी आयी और चली गयी। मैंने एक शब्द भी कहाँ कुछ कहा-बोला उससे रात भर के ‘मिलन’ के दौरान भी...गाड़ी में बैठा उस मनहूश मुसाफिर की तरह ही तो रह गया मैं, जो लम्बी यात्रा के बावजूद सहयात्री से कुछ बोल नहीं पाता...पूछ नहीं पाता...
....आखिर वह क्या सोचती होगी? क्या वह नारी नहीं? क्या मैं पुरुष नहीं? और सब यदि ‘हाँ’ तो फिर ‘ना’ क्यों? क्यों हुआ ऐसा? क्या दलील है इसके लिए मेरे पास?
मैके पहुँची होगी। सखियाँ सब घेर ली होंगी। एक से एक सवाल करती होंगी। तब वह क्या कही होगी- ‘कोई बात नहीं हुयी। ’- इस बात पर भी कितनों ने यकीन किया होगा? कुछ न कहने पर भी तो सखियाँ हँसेगी ही। उन्हीं में से कोई शोख सहेली कह भी डालेगी-
“नाहं नो मम बल्लभश्चकुपितः, सुप्तो न वासुन्दरो;
वृद्धो नो न च बालकः कृशतनुर्नव्याधितो नो शठः ।
मां दृष्ट्वा नवयौवनां शशीमुखीं, कंदर्पवाणा हतो;
मुक्तो दैत्यगुरूः प्रियेणपुरतः पश्चाद्गतो विह्नलः। । - क्यों शक्ति यही बात है न?’-और बाकी सखियाँ ठहाके लगा कर हँस देंगी। -ऐसा ही तो कुछ होगा, बेचारी के साथ?
(श्लोकार्थः-...न मेरे पति मुझ पर कुपित हैं, न वे सुस्त हैं, न वे असुन्दर हैं, न वृद्ध हैं, न बालक हैं, न दुबले-कमजोर हैं, न रोगी हैं, न मूर्ख। बात यह है कि मुझ नवयौवना शशिमुखी को देखते ही वे काम देव के वाणों से आहत होकर दैत्यगुरू का त्याग, यानी शुक्र-पातन कर दिये, फलतः लज्जित हो विह्नल हो गये। )
स्मृति का एक और झोंका आया- मानस पटल पर मीना की छवि अंकित हो गयी, जिसके मम्मी-पापा ने इतना कुछ किया मेरे लिए। कंटकाकीर्ण पगड़ंडी से उठा कर जीवन की चौरंगी पर ला खड़ा कर दिया; परन्तु बदले में क्या दिया मैंने उन्हें? तड़पन ही तो या और कुछ? दुःख..संताप..वेदना..निराशा..यही सब तो। शादी हुयी, कितने लोग आए-गए; मैं उन्हें सूचना से भी वंचित कर दिया....
इसी प्रकार स्मृतियों की साकियाँ नृत्य करती रहीं मानस-मंच पर। अन्त में लाचार होकर लैम्प जला कर बैठ जाना पड़ा- लेटर पैड लेकर;और विस्तृत क्षमा-याचना-पत्र लिख दिया मीना के नाम।
रात बीती। प्रभात आया। पग उठ चले डगमग करते- डाकखाने की ओर। पत्र लिख चुका, हिम्मत करके डाकघर तक आ भी गया। पर, आगे- इसे पत्र-पेटिका में डालने में हाथ कांपने लगे- पैर तो पहले से ही कांप रहा था...परिणामों की परिकल्पना कई वीभत्स रूप में मुखौटा विहीन होकर सामने आ, मुंह चिढ़ाने लगा।
याद करना चाहा- माँ काली के उस दिव्य स्वरूप को, किन्तु उनकी लपलपाती लाल जिह्ना और शाम्भवी मुद्रा से सामना करने का साहस न संजो सका। थर्रायी आवाज रूँधे कंठ से टकरा कर बाहर आयी- माँ! मुझे शक्ति दो!! शक्ति दो माँ....।
उस दिन भी यही कहा था, आज भी यही निकला मुंह से। क्या
माँ मेरी भाषा, मेरे भाव को नहीं समझ पायी? शक्ति मांगा, शक्ति मिली। शब्द और भाव क्या इतने असम्बद्ध हो गए या कि मेरा किंचित सौभाग्य, दुर्निवार दुभाग्य में बदल गया? कम्पित कपोलों पर अनचाहे ही लुढ़क आयी अश्रु -बूदों को रूमाल से सहेज, फिर एक बार अन्तरतम की गहरायी में उतर कर गुहार लगाया-‘माँ! मुझे शक्ति दो’
और साहस बटोर कर डाल दिया- पत्र को पेटिका में....
....और क्षण...क्षण व्यतीत होता रहा - युगों के पैमाने पर। प्रतीक्षा करने लगा- प्रतिक्रिया की, उस नादान बालक की तरह जो आम की गुठली जमीन में बोकर अगले ही दिन माँ से पूछता है-‘माँ, मेरे आम कब पकेंगे?’
रोज जाया करता डाकघर, पता लगाने- कोई संवाद है मेरा?
फिर एक दो तीन चार करते पन्द्रह दिन गुजर गए- कैसे गुजरे- मैं ही जानता हूँ। पत्रोतर नहीं आया।
सोलहवें दिन आया एक ‘अर्जेन्ट टेलीग्राम’ कलकत्ते के वजाय, पटना से -
“Come soon PMCH Hathua ward bed 7- Bankim” -इस क्षुद्र, किन्तु गम्भीर संवाद का कोई अर्थ न लग रहा था, वस अर्थ इतना ही था कि कुछ न कुछ ‘अनर्थ’ हुआ है। इस क्षुद्र प्राण पंक्ति की व्याख्या वहाँ जाने से ही हो पायगी।
और चल दिया- पटना के लिए।
तार प्रेषण के करीब सत्ताईस घंटों के बाद मैं उपस्थित था पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पीटल के हथुआ वार्ड में, जिसके इमरजेंसी चेम्बर के बेड नम्बर सात पर पड़ी थी- मीना।
‘आ गए कमल?’ -मुझे देखते के साथ ही वंकिम चाचा और चाची के चेहरे पर मुस्कान की हल्की रेखा खिंच गयी, जो मूलतः औपचारिक थी।
बेड के पास ही नीचे बिछी दरी पर बैठे चाचाजी बतलाने लगे-‘.......तुम्हारी चिट्ठी की प्रतीक्षा में था। जैसा कि तुम्हें पूर्व विदित है, हम सबका प्रोगाम था ही, वाराणसी मीना के मौसा के यहाँ जाने का। सोचा था कि तुम आ जाओ, तो सब साथ चलें। किन्तु अचानक उनका पत्र आ गया- तबियत ज्यादा खराब हो गयी है। अतः कल सुबह ही चल दिया कलकत्ते से। घर से निकलते समय ही तुम्हारा एक पत्र मिला, जिसे जल्दबाजी में देख न पाया, जेब में डाल लिया...
‘रात जब हमलोग मोकामा पार कर रहे थे, अचानक कुरते की जेब में हाथ गया, और याद आ गयी तुम्हारी चिट्ठी की।
“किसका है पापा?’-कहती हुयी मीना चट से, ले ली मेरे हाथ से, ज्यों ही निकाला था- उसे जेब से, और खोल कर पढ़ने लगी। कुछ देर बाद, मैंने पूछा कि क्या लिखा है पत्र में कमल ने, कि वह चल दी पत्र लिए हुए ही गु्शलखाने की ओर...
‘उसे गए कुछ अधिक देर हो गयी, तब चिन्ता हुयी। तुम्हारी चाची उधर गयी, देखने के लिए। तब तक किसी भले मानस ने गाड़ी की जंजीर खींच दी थी। कम्पार्टमेंन्ट में कोलाहल मच गया था- “एक लड़की अभी-अभी गिर पड़ी नीचे, जो बाथरूम से निकल कर गेट पर झांक रही थी। "
‘गाड़ी खड़ी हो गयी। कई लोग नीचे उतर गए। ढूढ़ा जाने लगा-सर्चलाईट की रौशनी में...मिल भी गयी...पर न मिलने जैसी....। ’-कहते हुए चाचा बच्चों जैसा फूट-फूट कर रोने लगे थे।
‘मीना!... मुझ अन्धे की लाठी मीना....क्या हो गया मेरी मीना को कमल....कैसे गिर पड़ी....?’-चाची जार-जार रोये जा रही थी।
किन्तु मेरे पास इसका जवाब क्या था? क्यों गिर गयी- इसका जवाब क्या ‘दे’ सकता हूँ मैं? कह दूँ...मेरे पत्र ने ढकेला है इसे...मैंने ढकेला है इसे?
बातें हो ही रही थी, तभी डॉ. रस्तोगी अपनी पूरी टीम के साथ आ पहुँचे। मीना का निरीक्षण-परीक्षण किये। नाक पर लगे ऑक्सीजन-मॉस्क को निकाल कर रख दिये एक ओर। उनके इशारे पर नर्स आकर एक आई.भी.इन्जेक्शन लगा गयी।
“Now patient is out of danger.”- कहते हुए डॉ.रस्तोगी के होठों पर विजय की मुस्कान थी- ‘चटर्जीसाहब अब आपकी बच्ची खतरे से बाहर है। चिन्ता न करें। इन्जेक्शन लगा दिया गया है। दस-पन्द्रह मिनट में होश में आ जाना चाहिए। ’
डूबती नैया का पतवार थमा कर, निविड़ अन्धकार में रौशनी दिखा कर डॉ. रस्तोगी अपने चेम्बर में चले गए। पीछे से मैं भी गया। विशेष पूछने पर उन्होंने बतलाया था-
‘रोगी की स्थिति चिन्ता जनक जरूर थी, पर अब आशा बन गयी है, वशर्ते कि चौबीस घंटे सही-सलामत गुजर जाए। ’
फिर खतरे से बाहर कैसे कह रहे हैं, डॉक्टर?’-- मैंने बेचैनी से पूछा था।
‘वैसे इसे निरापद स्थिति ही कही जायेगी; किन्तु चोट से फेफड़ा थोड़ा प्रभावित है, इस कारण आशंका हो रही है। ’-स्थिति समझ कर मैं वापस आ गया, वार्ड में।
मीना के बदन पर पतली सी चादर पड़ी हुयी थी। मैंने आहिस्ते से उसे हटाया। माथे की पट्टी तो पहले से दीख ही रही थी। पैर पर इशारा करते हुए, चाचाजी ने कहा- ‘यहाँ भी प्लास्टर चढ़ा है। ’
मैं चादर पूर्ववत ढक दिया, और वहीं खड़ा रहा। चाचाजी नीचे दरी पर बैठ गए।
ठीक पन्द्रह मिनट बाद मीना आँखें खोली। होश में आने के बाद पहला शब्द मुंह से निकला- ‘कमल!’ और पुतलियाँ चंचल हो गयी।
‘कमल यहीं है बेटे! यहीं है तुम्हारा कमल। ’- हड़बड़ा कर वे उठते हुए बोले।
एक ओर चाचा-चाची दोनों खड़े थे। मैं बेड पर ही बैठ गया, मीना के बगल में।
कैसी तवियत है मीना?- पूछते हुए मैंने उसके माथे को धीरे से सहलाया, जिसके अधिकांश पर पट्टियाँ थी।
मृदुल स्नेहिल स्पर्श पाकर मीना ने आँखें खोल दी- बड़ी-बड़ी आँखें- नीली झील सी आँखें, - मुझसे मिलते ही सजल हो आयी। कराहती हुयी मीना दोनों बाहें उठा कर हार की तरह मेरे गले में डाल दी।
‘कमल! आ गए तुम कहाँ चले गए थे, मुझको छोड़ कर?क्यों चले गए थे? ’-कहती हुयी उठने का प्रयास करने लगी, मेरे कंधे से लटक कर।
मैं उसके गाल पर हाथ फेरते हुए बोला- ‘उठो मत मीनू। अभी तुम्हें आराम की जरूरत है। ’
‘क्या हुआ है मुझे, जो पड़ी रहने कह रहे हो? अरसे बाद आए हो तुम और मुझे पंगु सी पड़ी रहने को कह रहे हो?’--कहती हुयी मेरे गले से हाथ छुड़ा कर अपनी छाती पर ले जाती हुयी पुनः कहने लगी- ‘देखो न यहाँ पर बहुत जोरों का दर्द हो रहा है।
फिर आँखें अनजान सी इधर-उधर घुमाकर बोली- ‘क्या हुआ है कमल! मुझे घेरे हुए क्यों हो तुमलोग?’
‘कुछ नहीं हुआ है, तुम्हें मीना बेटे! कुछ नहीं हुआ है। ’- कांपती आवाज में चाची बोली।
‘यह क्या, पट्टी क्यों बँधी है?’-माथे पर अपना हाथ ले जाकर स्पर्श करती हुयी पूछने लगी। फिर हठात् मौन हो गयी, कुछ सोचने की सी मुद्रा में।
चाचाजी ने धीरे से मुझसे कहा- ‘लगता है- स्मृति अभी ठीक से काम नहीं कर रही है। ठहरो डॉक्टर को बुलाता हूँ। ’
और चल पड़े पास के अटेंडेंट चेम्बर की ओर।
डॉक्टर आए। पुनः निरीक्षण-परीक्षण किए। बोले- “Don’t worry. कोई चिन्ता की बात नहीं है। एक दवा देते हैं। थोड़ी देर में ठीक हो जाएगी। ’
डॉक्टर चले गए। दवा मैंने खिला दी, उनसे लेकर। दवा खाकर मीना पुनः आँखें बन्द कर ली।
चाची बाहर बरामदे में रेलिंग के पास गमगीन खड़ी थी। चाचाजी बाहर, बाजार की ओर निकले हुए थे। मैं वहीं मीना के बेड पर ही बैठा प्रतीक्षारत था- दवा के प्रभाव के लिए।
रात नौ बज रहे थे। मीना ने आँखें खोली। धीमे से आवाज निकली - ‘कमल!’
‘क्या है मीनू! मैं यहीं हूँ। ’-कहते हुए थोड़ा और समीप हो लिया।
‘ठीक हूँ, बिलकुल ठीक हूँ कमल। ’- कहा उसने और फफक कर रो पड़ी। उसकी आवाज, उसका रूदन, उसकी मुखाकृति बतला रही थी कि आसन्न अतीत उसकी स्मृति में उमड़-घुमड़ रहा है। उसके गालों पर लुढ़कती आँसू की लडि़यों को अपने रूमाल में सहेजते हुए मैंने कहा- ‘यह तूने क्या कर लिया मीनू?क्या कर लिया तूने?’
सहानुभूति प्रायः अन्तः की वेदना को बढ़ा देता है, कुरेद देता है- जख्मों को, जिन पर ‘काल’ की पपड़ी पड़ चुकी होती है। ब्रण ताजे होकर रिसने लगते हैं।
मेरे पूछने पर मीना और रोने लगी। रूदन में ध्वनि कम, कम्पन अधिक महसूस किया हमने।
‘मैंने कुछ नहीं किया कमल! कुछ नहीं....जो भी किया- तेरे प्रति निच्छल-निश्चल प्रेम ने किया...तेरे-मेरे प्रेम के बीच ‘मैं’ कहीं नहीं...पर सोचती हूँ- तुम इतना बेदर्द कब से...कैसे हो गए? कैसे भुला दिया
तूने मुझे? तुम्हें तो खोने की आदत है- खुद को, खुद में;और दूसरे को भी खोना सिखाने की, मगर मुझे कैसे बिसार दिये? बोलो कमल- कैसे भुला दिया तूने मेरे प्यार को? बोलते क्यों नहीं?’
अपने दोनों हाथों को मेरे गले से लिपटाते हुए मीना अनवरत रोए जा रही थी, और मैं उन अश्रुधार को रोकने का असफल प्रयास करता जा रहा था, करता जा रहा था।
मेरे कोष में शब्दों की कंगाली हो गयी थी, या कहें मनोंभावों ने लूट लिया था मेरे खजाने को। वैसे भी निरीह दुर्बल शब्दों पर भावों को बहुत भरोसा नहीं करना चाहिए। शब्दों में सामर्थ्य ही कितना है, भावों के सम्यक् वहन हेतु! किन्तु वास्तविकता तो यह है कि निःशब्द और निःभाव(निर्भाव) में जो अनुभूति होती है, अभागे शब्दों और भावों के भाग्य में कहाँ!
मीना अब भी कहे जा रही थी- ‘कमल! क्या सच में तूने शादी कर ली? तुम तो मजाक में भी झूठ नहीं बोलते, फिर झूठ लिख कैसे सकते हो?मगर अभी भी मुझे यकीन नहीं होता। कह दो यह झूठ है-मैंने झूठी बात लिख कर चिढ़ाया है तुम्हें। मगर चिढ़ाने की भी आदत नहीं है तुममें। उस दिन भी झरने पर तुम मेरे प्रेम की परीक्षा ही ले रहे होओगे, और कुछ नहीं....क्या सच में तूने त्याग दिया मुझको? मैं कोई नहीं तुम्हारी?कितना आश लगायी थी कमल! कितने सपनें संजोये थे तुमको लेकर....कितना तड़पी हूँ मैं- तेरे लिए- जरा इन आँखों से पूछो...कितना धड़का है यह दिल, इस सीने से पूछो.....। ’- कहती हुयी मेरा हाथ पकड़ कर अपने धड़कते कलेजे पर रख दी थी
....कमल! तुम इतने पत्थर दिल कैसे हो गए कैसे भूल गए
मेरे धड़कनों की ध्वनि को...तुमने तो कई बार बहुत करीब से सुना है इसे...तेरे-मेरे दिलों ने कितने गहरे संवाद किए हैं कई-कई बार... क्या उन संवादों में किसी ने भी गवाही न दी मेरे पक्ष में? किसी ने भी शोर न मचाया तुम्हारी ‘बेईमानी’ पर? मुझे त्यागने का निर्णय लेते वक्त तुमने एकबार भी ‘विवेक’से पूछा नहीं..?..नहीं.. ऐसा भी नहीं हुआ होगा...मन ने कहा होगा...बुद्धि ने मन के पक्ष में गवाही दी होगी, या फैसला भी उसने ही कर दिया होगा...विवेक की अदालत तक बात गयी ही नहीं होगी...अन्यथा ऐसा अनर्थ नहीं होता। अच्छा एक बात बताओ- यदि मुझे त्यागना ही था, फिर क्यों जलाया था तूने आशाओं के दीप मेरे दिल में?उसी दिन फूंक मारकर उसे बुझा क्यों न दिए थे, जिस दिन प्यार के दीप को अपनी आँखों की देहरी से उठा कर दिल के दीपाधार पर रखी थी मैं....आखिर क्या कसूर है मेरा, कहो तो कम से कम- क्यों नाराज हो गए मुझसे? क्यों चले आए मुझे अकेली छोड़ कर? आए भी तो इतने दिन लगा दिए...मिले भी तो सब खो कर....। ’-मीना के होठ फड़क रहे थे। आँखें बरस रही थी। मैं मौन, निःशब्द उसे निहार रहा था। शब्द थे ही कहाँ कुछ भी मेरे खजाने में।
......तुम सीढि़याँ उतर रहे थे। मैं पूछ रही थी- कब तक लौटोगे? कहा था तुमने- ‘देखें कब तक लौट पाता हूँ। ’ मुझे खटका उसी दिन हुआ था। मेरी दाहिनी आँख जोरों से फड़क रही थी। मम्मी कहती है- नारियों की दाहिनी आँख अशुभ सूचक होती है। मेरे मन ने कहा था- तुझे रोक लूँ। किन्तु न जाने क्यों रोक न पायी, जिसका परिणाम अब भोग रही हूँ। नारी के अन्दर की नारी को तुम ‘पुरुष’ की निगाहें शायद ही देख पाती हों। तुम पुरुष सिर्फ देख पाते हो ‘शरीर’; और उसी वाह्य परिधि पर चक्कर काटते रह जाते हो....
......मैं भाव विभोर होकर तुमसे लिपट पड़ती थी, तुम्हें शायद बुरा लगता था। तुम्हारी निगाहें मुझे शायद ‘कामिनी’ समझी, पर मैं वह नहीं, जो तुमने समझा। तुम सोचते होओगे कि मैं दौलत वाली हूँ , पर दौलत आज तक किसकी हुयी है? किसका पूरा-पूरा साथ दिया है इस दौलत ने? किसी का नहीं। इसे न लेकर आयी थी, और न जा ही सकती हूँ साथ में लेकर....मुसाफिरखाने का सामान मुसाफिरखाने में ही छोड़कर जाना पड़ता है...कोई लेकर कैसे चला जायेगा?.....
........मैं सावित्री बनी थी, तुम बने थे सत्यवान। अपने उस छद्म रूप को तुमने उतार फेंका नाट्य-मंच के बाद ही; किन्तु मैं अभी भी उतार नहीं पायी हूँ , आज भी मैं उसी रूप में हूँ। काश! मेरा वह सपना साकार हो पाता......। ’- मीना का प्रलाप जारी था, विलाप भी जारी था। मेरी जढ़ता जारी थी, ज़बान बन्द, शब्दकोष रिक्त।
भीतर से बहुत कुछ बटोरा- साहस.उर्जा.कुछ बेवजनी शब्द भी;और मीना के माथे को सहलाते हुए कहने लगा- ‘मीना मैंने बहुत बड़ी गलती की है, जिसके लिए कोई भी सजा शायद अपूर्ण ही होगी;किन्तु यह गलती बेवजह-बेबुनियाद नहीं। हालांकि हर अपराधी अपनी सफाई में ऐसा ही तर्क देता है। तुम मेरी बात पर यकीन करो मीनू! -दिवंगत पिता के वचन, मरणासन्न माँ की अभिलाषा, और कुटुम्बियों के हठात् दबाव ने मुझे घोर धर्मसंकट में डाल दिया, साथ ही मेरे स्वयं के विचार ने भी ठोंकर मारा- तूने मुझे अतिशय स्नेह और प्यार दिया है, आदर और सम्मान भी दिया है, यहाँ तक कि दिल भी दे डाली। परन्तु मैं सोच भी न पाया, समझ भी न सका, यहाँ तक कि कल्पना भी न कर सका कि तू मुझे इस स्वर्णिम सिंहासन तक पहुँचा दोगी। कभी भ्रम भी हुआ तो स्वयं को समझाने का प्रयास किया- इस असम्भव के प्रति। वस्तुतः मैं ऐसा- यहाँ तक- सोच भी कैसे सकता था? नीच मानव स्वभाव वश यदि ऐसा भाव कभी आता भी मन में तो उसे तुम्हारे प्रति, चाचा चाची के प्रति ‘महान अपराध बोध’ कह कर धिक्कार देता....। ’
मीना के नेत्रों से अश्रु निरन्तर प्रवाहित थे। मेरी बात पर थोड़ी आँखें सिकोड़ी, गौर की - मेरे चेहरे पर, और आह निकल पड़ी उसके मुंह से - ‘हाय रे मेरा दुर्भाग्य! ओफ!! मैंने खुद को एक खुली किताब की तरह रख दी थी, तुम्हारे सामने, पर तूने उसे पढ़ने में भूल की, या पढ़ कर भी समझ न सके तो मैं क्या करूँ मेरी आँखों की भाषा को, मेरे मन के भावों को, मेरे शरीर की भंगिमाओं को तुम समझ न पाए- मेरी क्या गलती है?पर गलती हो या न हो- सवाल यह नहीं है। सवाल है- सजावार होने का। तुम्हारे दिल के सर्वोच्च न्यायालय ने मेरे लिए फांसी की सजा सुना दी है...अब उन्हें हँस कर स्वीकारूँ अथवा रोकर। तुम मेरा मुंह खोलवाना चाहते हो...प्यार का नग्न नृत्य देखना चाहते हो, तो सुन लो कान खोल कर- मैं तुमसे ‘प्रेम’ करती हूँ , घटिया प्यार नहीं। प्रेम और में जो रहस्यमय अन्तर है- उसका ज्ञान और आभाश तो तुम्हें अवश्य होगा। प्रेम- क्षुद्र यौवन-सरिता के
प्रवाह का बुदबुदा नहीं, प्रशान्त महासागर का लहर है। यह लहर पहली बार उस मंच पर ही उठा था, जब तुम सत्यवान बन कर मेरी गोद में सिर रख कर सोये थे- जिसके साक्षी हैं- वे हजारों दर्शक, गण्यमान शिक्षक गण, और मेरे जनक-जननी भी। सत्यवान के सिवा किसका मजाल है, जो सो जाए सावित्री की गोद में?तुम्हें याद होगा-
“नारी अपने पति का वरण सिर्फ एक बार ही कर सकती है, गुरूदेव!"-ये सावित्री के वचन थे- पर दर्शकों की दृष्टि में, तुम्हारी दृष्टि में। मगर ये शब्द मेरे कंठ से नहीं, मेरे हृदय से निकले थे। मीना के मुंह से नहीं, सावित्री के मुंह से। नाट्य-मंचन की बहुत वाहवाही हुयी थी। क्यों न होती- मीना थी ही नहीं वहाँ, सावित्री स्वयं उपस्थित थी। ’- मीना अभी न जाने कब तक कहती जाती, निकालती जाती मन के गुबार, कि चाचाजी बाजार से लौट आए।
‘कैसी हो बेटी?’-उसके सिर पर हाथ फेरते हुए उन्होंने पूछा।
‘बिलकुल ठीक हूँ पापा, अब मुझे कोई तकलीफ नहीं है। ’- पापा को आया देख उठने का प्रयास करने लगी। उसके होठों पर कृत्रिम हँसी टहल गयी क्षण भर के लिए।
‘अभी आराम से सोयी रहो बेटी। उठने से प्लास्टर पर जोर पड़ेगा। ’- चाचाजी उसे लेटे रहने को प्रेरित किए, पर वह मान नहीं रही थी। मेरे गले में हाथ डाल कर पुनः उठने का प्रयत्न करने लगी।
‘नहीं..नहीं... अब जरा भी नहीं सोऊँगी। पीठ दुःख रही है सोये- सोये। मुझे थोड़ा सहारा देकर उठाओ न कमल! मैं बैठना चाहती हूँ। ’
मैं अपनी गोद में एक तकिया रख लिया, और उसके ऊपर, सहारा देकर आहिस्ते से मीना का सिर रखते हुए कहा- ‘ऐसे बैठो मीना, मेरे सहारे आराम मिलेगा। ’- वह बैठ गयी वैसे ही अधबैठी सी।
‘दस बज रहे हैं। तुम चाहो तो थोड़ा आराम कर लो। बारी-बारी से जागरण करना होगा। रात में कई बार दवा भी खिलानी है। ’- नीचे दरी पर बैठते हुए चाचाजी बोले। उनकी आवाज सुन, बाहर खड़ी चाची
भी वहीं आगयी।
‘कोई बात नहीं आप दोनों आराम करें। मैं पूरी रात अकेला ही जग लूँगा। आप लोग तो पिछली रात भी सो नहीं पाये होंगे। ’- मैंने कहा।
‘सो सब तो ठीक है। कुछ खाया पीया या नहीं तूने?’- कहते
हुए चाचाजी साथ में लाए हुए पैकेट खोलने लगे, जिसमें खाने का कुछ सामान था।
‘मुझे खाने की जरा भी इच्छा नहीं है। उस समय मीना के सो जाने के बाद बाहर जाकर कुछ खा लिया था। ’-मैंने कहा।
‘कोई बात नहीं, फिर मैं खा लेता हूँ। ’
मैंने देखा- सिर्फ एक-एक पूड़ी चाचा-चाची दोनों ने खायी, और पानी पीकर, दरी उठा बाहर बरामदे में चले गए-यह कहते हुए-
‘हमलोग यहीं हैं। कोई बात हो तो बुला लेना। ’
मम्मी-पापा के जाने के बाद मीना पूरी तरह लिपट गयी मुझसे।
अस्पताल के नियमानुसार साढ़े दस बजे प्रायः बत्तियाँ बुझा दी गयी थी। वैसे भी इमरजेन्सी वार्ड के सेपरेट चेम्बर में हमलोग थे, फलतः कोई वाह्य व्यवधान तो था नहीं।
मीना का प्रलाप उनके जाते ही फिर शुरू हो गया- ‘तुमने मेरे प्यार को भुला भले दिया है कमल, परन्तु मैं कदापि नहीं भूल सकती हूँ तुम्हें। नारी सिर्फ एक को ही स्थान दे सकती है अपने हृदय में। मैंने भी अपने मन के मन्दिर में सिर्फ एक ही मूर्ति की स्थापना की है- वह है, तुम्हारी मूर्ति- सिर्फ तुम्हारी, किसी और की नहीं। मेरे देवता की उस प्रतिमा को कोई दौलत से खरीद नहीं सकता। दुनियाँ की कोई शक्ति इसे छीन नहीं सकती है। तुम मुझे स्वीकारो या त्यागो- स्वतन्त्र हो इसके लिए, क्यों कि तुम पुरुष हो मैं हूँ नारी- विधाता की एक भूल..एक गलती...एक कमजोरी...एक मजबूरी.....। ’- वृक्ष में लता सी, मुझसे लिपटी हुयी मीना कहती जा रही थी।
मैंने अधीर होकर, कातर स्वर में कहा- ‘अब और न सालो मीना और न तड़पाओ, और न चुभोओ इन तीरों को। मेरा हृदय यूँही छलनी हुआ जा रहा है, पर कैसे दिखलाऊँ उन ज़ख्मों को! मुझ पर क्या बीत रही है- मैं ही जानता हूँ। ’
और सोचने लगता हूँ- ‘काश! मीना स्वस्थ हो जाती! इसे भी स्वीकार लेता- उसी रूप में, जिस रूप में यह चाहती है। क्या फर्क पडे़गा? एक ना दो ही सही। समाज- जाहिल, स्वार्थी समाज- थोड़ी टीका टिप्पणी करेगा कुछ दिन- और क्या? हालांकि, एक म्यान में दो तलवारों को रखने सी बात होगी...किन्तु ‘प्रेम’ के मन्दिर में दो मूर्तियाँ रखी कैसे जा सकती हैं?
उद्वेलित मन...विकल मन...आँखें मुंद जाती हैं। माँ काली का दिव्य विग्रह सामने प्रतीत होता है- वे मन्द-मन्द मुस्कुरा रही हैं। मेरे हाथ बँध जाते हैं - याचना की मुद्रा में-‘माँ! मुझे शक्ति दो.....यक्ति दो माँ। ’
‘क्या सोचने लगे कमल? मुझे बहुत डर लगता है- तुम्हारे इस सोच के अन्दाज से, तुम्हारी इस चिन्तन मुद्रा से...बोलो अब क्या सोच रहे हो? है कोई रास्ता तुम्हारे पास अब भी बाकी?’- कहती हुयी मीना गिड़गिड़ाने लगी थी। अश्रुधार बहते हुए कान के कोरियों में जा इकट्ठे हुए थे। मैं उन्हें रूमाल से पोंछने लगा था।
‘सोच कुछ नहीं रहा हूँ मीनू! सिर्फ यही बात मुझे साल रही है कि बिना सोचे समझे, मैंने बहुत बड़ा पाप किया है। उन दिनों में चाची के ‘उच्छ्वास’, वंकिम चाचा के ‘अधूरे कर्तव्य’ का अर्थ मुझे अब समझ आ रहा है। उन दिनों में मैं नहीं समझा था, कल्पना भी नहीं किया था कि इतना उदार-हृदय होगा यह परिवार। काश! अब भी
ढूढ़ पाता कोई रास्ता, हो पाता इस पाप का कोई परिमार्जन.....। ’-कहते हुए आत्मग्लानी में डूबने लगा था। आँखें भर आयी थी।
मीना के होठों पर हल्की सी मुस्कुराहट तैर गयी। विस्फारित नेत्रों से मेरे चेहरे को गौर से देखती हुयी बोली- ‘तो क्या तुम अपने पाप का प्रायश्चित ढूढ़ रहे हो? मिल नहीं रहा है? मैं बतलाऊँ? करोगे मेरे सुझाव पर अमल-पहल ?’
‘हाँ मीनू! करूँगा...जरूर करूँगा...तुम बतलाओ- मुझे क्या करना है। ’-बच्चों सा अधीर होकर बोला।