निरामय / खंड 5 / भाग-15 / कमलेश पुण्यार्क
‘जरा लाओ तो पापा की अटैची, उसमें मेरा ‘वैनीटी बैग’ रखा है। उसे निकाल कर दो मुझे। ’—इधर-उधर देखती हुयी मीना ने कहा, मानों स्वयं ही ढूढ़ने का प्रयास कर रही हो।
मैंने बेड के नीचे झांक कर देखा। मीना के आदेश का पालन किया। अटैची खोलने पर ऊपर में ही बैग पड़ा था। उसे निकाल कर देने लगा मीना को; किन्तु बोली - ‘मुझे क्यों देते हो, खुद ही खोलो। ’
मैंने बैग खोला। आँखों ने ही सवाल किया- अब क्या? जवाब होठों ने दिया -‘भीतर में एक पुडि़या है, वही चाहिए’, जिसे निकालने में मेरे हाथों में अचानक कंपन हो आया- पता नहीं क्या है इसमें...कब से रखी है- सोचने लगा।
मेरे हाथ के कम्पन को, मन के झिझक को वह भांप गयी।
मुस्कुरा कर बोली- ‘घबड़ाओ मत, इसमें जहर नहीं है। वैसे भी ऐसे काम के लिए तुम्हें उकसा भी नहीं सकती हूँ- यह मेरा न कर्म है, और न धर्म। तुम्हारे आने में देर हो रही थी। मेरी व्यग्रता बढ़ती जा रही थी। परसों गयी थी, कालीघाट- माँ का दर्शन करने, मनौती करने- तुमसे शीघ्र भेंट होने के लिए। माँ सुन ली मेरी प्रार्थना, पर अर्थ लगाने में ही अनर्थ हो गया...
....वहाँ से चलते वक्त पंडितजी ने प्रसाद दिया था, साथ यह पुडि़या भी। प्रसाद तो खा गयी। यह पुडि़या पड़ी रह गयी- इसी बैग में। आखिर इसके उपयोग का इससे महत्वपूर्ण सुनहरा अवसर और हो ही क्या सकता है?’
पुडि़या खोल चुका था मैं । जहर नहीं है- जान कर हाथों का कम्पन थम गया था, पर भीतर कहीं किसी कोने में अजीब सा- कुछ नया सा कम्पन होना शुरू हो गया था। मैं उस नये कम्पन की व्याख्या सोचने लगा।
मीना के होठ फिर फड़के। आवाज में कड़क थी, आदेश भी, अनुनय भी- ‘सोचते क्या हो? उठाओ इस अतृप्त सुहाग-रज को, और भर तो मेरी माँग...साक्षी रहेगी- सर्वव्यापिनी माँ काली, जिनका यह प्रसाद है। तुम्हारे पाप का प्रायश्चित हो जायेगा, और मुझे मिल जाएगी सुख-चैन की मौत...सोचने का अवसर नहीं है...सोचने को तुम बहुत सोच लिए हो पहले ही...उठाओ इसी क्षण इस सिन्दूर को, और पूरी कर दो मेरी अधूरी लालसा। तुमसे मेरा सच्चा प्रेम होगा यदि, तो इस जन्म क्या, अगले जन्म में भी तुम्हारी ही रहूँगी.....। ’
मेरा दिल तेजी से धड़कने लगा था। हाथ कांपने लगे थे फिर से। मीना ने पुनः कहा- ‘बस मेरे देवता! और कुछ नहीं चाहती मैं । तुमसे कोई शिकायत नहीं, कोई याचना नहीं। बस, भर दो मेरी सूनी माँग। ’
उसके स्वर में अजीब सा कम्पन था- जलतरंग के विभिन्न फलकों से टकराती ‘ट्यूनी’ की तरह। मेरा हाथ पकड़ जा लगायी - पुडि़ये से, जो खुला पड़ा था अब तक।
कांपते हाथ मेरे- उठ गये ऊपर, जिनमें सहारा था- मीना के हाथ का भी...चुटकी भरा सिन्दूर जा लगा उसकी माँग से, जो इस अवस्था में भी प्रसस्त पगडंडी सी खिंची थी- काली, घनी लटों के बीच।
एक बार सिहर उठा मन। कांप उठे रोम-रोम, किसी सुखद अनुभूति से, और क्षण भर में ही ऐसा लगा मानों सिर से भारी बोझ का गट्ठर उतर गया हो।
मीना लपक कर मेरी बाहों में आ गयी थी। आलिंगन दृढ़ हो गया था। दोनों दिलों का आकुंचन-प्रकुंचन तीब्र हो गया था। फिर लिया- हमने भी, उसने भी सुमधुर प्रेमपूर्ण पवित्र- परम पवित्र, प्रथम चुम्बन। आलिंगन अब दृढ़तम हो गया- ‘तम’ के बाद अब, अब आगे क्या? यह तो कायिक मिलन की अन्तिम सीमा है, किन्तु शायद यहीं से आत्मिक मिलन की सीमा भी लगती है, पर ‘पारपत्र’ की तैयारी रहने पर ही, अन्यथा इस तल पर ही -शारीरिक तल पर ही- सिर धुनते रहना है।
आलिंगन वद्ध बैठा रहा- कब तक? ‘काल’ का कोई मात्रक तो होता नहीं ऐसे क्षणों में, जो कहा जाय। कथ्य बस यही कि- मन शान्त हो चुका था- उसका भी, मेरा भी। कहीं कुछ भी कहने वा सुनने को शायद शेष न रह गया था। देने या पाने का भी कुछ प्रयोजन सिद्ध न था।
बेड के रेलिंग से टेका लगाये बैठा था मैं, और मेरी जांघों पर सिर रखे पड़ी थी मीना- पूर्व-पर- सपनों का संसार...।
अतिशय शान्त मन नींद को दूर से भी निमन्त्रण दे आता है। हमदोनों भी न जाने कब उसके आगोश में चले गए थे।
सुखद झपकी ले रहा था। गोद में पड़ी थी मीना- अपने प्रियतम की गोद में। ऐसी ही स्थिति एक बार और बनी थी- पर ठीक विपरीत- गोद मीना का था, और सिर मेरा।
रात्रि के दो बज रहे थे- जब मेरी आँखें खुली, मीना की कराह से। उसकी आवाज कांप रही थी। शब्द टूट-टूट कर, अटक-अटक कर निकल रहे थे- ‘कमल! मेरे प्रियतम! समालो अपने उर में इस अभागिन को...ओह! बहुत जोरों की टीस उठ रही है सीने में...लगता है- फटा जा रहा है...थोड़ा पानी पिला दो.....। ’
मैंने बैठे-बैठे ही हाथ बढ़ा कर मेज पर रखा वाटर पॉट से पानी निकालने लगा। मीना अभी भी कराह ही रही थी-
‘आह कमल! बहुत जोर दर्द है सीने में...लगता है अब न बचूँगी...न बचूँगी अब.....। ’
पानी का गिलास होठों से लगा दिया था। आधा गिलास एक ही घूंट में पी गयी, फिर उसे मुंह से हटाते हुए बोली- ‘तृप्ति नहीं हो रही है इससे...बस पड़ी रहने दो यूँही...भर लो अपनी बाहों में...मत हटाना अपने से अलग...मत हटाना...देखो...दर्द यहाँ हो रहा है इस भाग में.....। ’- मेरा हाथ पकड़ कर जमा दी उन्नत युगल सुमेरूओं के बीच, जिसके भीतर धड़क रहा था- एक अतृप्त दिल।
‘दबाओ...आहिस्ते...जोर से ...बहुत दर्द.....। ’
मेरा दाहिना हाथ उसके सीने पर था। धीरे-धीरे सहलाते हुए से दबा रहा था उसके वक्ष प्रान्त को, और दूसरे हाथ से गले के आसपास।
डॉक्टर को बुलाता हूँ मीनू!
‘नगीं...नहीं... मत हटो, कहीं मुझे छोड़ कर....। ’
मैंने अनुभव किया अपने दायें हाथ के नीचे, जहाँ छिपा था एक प्रकम्पित हृदय, जिसकी गति अब अस्वाभाविक रूप से तीब्र हो गयी थी- दीपक के अन्तिम फफकते लौ की तरह। बैठे-बैठे ही आवाज लगायी मैंने- चाचाजी! जल्दी इधर आइये, डॉक्टर को बुलाइये।
मेरी आवाज सुन बगल चेम्बर से नर्स दौड़ी आयी। स्थिति देख बिना कुछ बोले उल्टे पांव पीछे भागी। चाचा-चाची दोनों ही आ गए।
मीना के मुंह से पुनः एक चीख निकली-‘ क...ऽ...म...ऽ...ल!’ और कस कर भींच ली मुझको।
नर्स के साथ डॉ. रस्तोगी आए। परीक्षण हेतु मैं अपना पकड़ ढीला कर, लिटाना चाहा, पर पकड़ स्वतः ढीला पड़ गया। मैंने लिटा दिया उसे।
डॉ.रस्तोगी ने स्टेथोस्कोप लगाया, फिर हटाया, फिर लगाया। लगता था- इतने तजुर्बेदार को अपनी ही जाँच पर यकीन न हो रहा था-
“O God ! how it possible?” - स्टेथोस्कोप कानों से हटा कर गले से लटका लिए। उनका चेहरा पराजित सेनानायक सा उतर गया था।
चीख-पकड़ अन्तिम थे। चाची चिघ्घाड़ मार कर गिर पड़ी मीना के वदन पर। चाचा सिर पकड़ कर वहीं नीचे बैठ गए थे। मेरी आँखें शून्य में ताकती रह गयी थी- न जाने कब तक।
मेरी गोद में पड़ा शरीर, जो कुछ पल पूर्व तक सौन्दर्य का विशाल तिलिस्म था, अब वीरान मरूस्थल बन चुका था। पिछले साढ़े सोलह बर्षो से सौन्दर्य की पहरेदार आँखें सदा-सदा के लिए बन्द हो चुकी थी अब।
फिर कब क्या हुआ, सब कुछ स्वयं करते हुए भी, कुछ भी पता न चला था।
सबेरा हो गया था। हम सभी गंगा-किनारे बांस घाट पर उपस्थित थे। चिता सजायी जा चुकी थी। मात्र अग्नि संस्कार शेष था।
वंकिम चाचा ने रूँधे गले से गम्भीर स्वर में कहा- ‘मीना को आज से बर्षों पूर्व मैं तुम्हें सौंप चुका था। तुमने इसे अपनाने में भूल की, किन्तु कसूर भी तुम्हारा क्या है इसमें ? यह तुम्हारी थी, तुम्हारी ही रही। जन्म-जन्मान्तर में भी तुम्हारी ही धरोहर रहेगी। तेरी ही बांहों में इसका अन्त हुआ- तेरी ही यादों को संजोए हुए। इसके मुंह से निकला अन्तिम शब्द तुम्हारा ही नाम था- कमल। अतः अग्नि संस्कार करने का भी तुम्हारा ही अधिकार है....
....वैसे भी धर्मशास्त्र पिता को यह अधिकार नहीं देते।
मेरे अन्दर स्फुरित हुआ एक तरंग- यह अधिकार तो पति को भी नहीं है।
किन्तु मेरी तर्क शक्ति शिथिल हो गयी थी। मीना के आदेश पर हाथ उठे थे- सिन्दूर लेकर, उसके पिता के आदेश पर उठ गए वे ही हाथ अग्नि लेकर। कुछ देर पहले जिन हाथों में सिन्दूर था, वे ही हाथ अब अग्नि लिए हुए था। सिन्दूर पहले ही दे दिया था, फेरा लगाना शेष रह गया था। उसे अब पूरा कर रहा हूँ।
अगले ही क्षण चिता धू-धू कर धधकने लगी थी। म® पाषाण प्रतिमा-सा खड़ा था, पास में ही। गोद से हटा कर चिता की अग्नि में डाल दिया था- अग्नि-परीक्षा हेतु। सीता तो मिल गयी थी वापस राम को; किन्तु क्या मेरी मीना मुझे मिल जा सकती है?
सवित्री ने सत्यवान को छीन लाया था- यमराज के हाथों से। पर क्या सत्यवान में है सामर्थ- छीन लाने की सावित्री को?- -- खड़ासोचता रहा था...सोचता रहा था, न जाने कब तक ।
वाराणसी जा, श्राद्धादि सम्पन्न कर, आ गया था वापस- अपने गांव में, सब कुछ गंवा कर कुछ और गंवाने। घर आने के करीब पन्द्रह दिनों बाद कलकत्ते से चाचाजी की चिट्ठी आयी थी। लिखा था उन्होंने-
‘परीक्षा-फल प्रकाशित हो गया है। प्रथम श्रेणी से तुमदोनों उतीर्ण हुए हो...पर अब दो कहाँ? तुम अपने भावी कार्यक्रम की जानकारी देने का प्रयास करोगे...वैसे मेरे विचार से तुम्हारा यहीं रह कर, आगे का अध्ययन
पूर्ववत जारी रखना उचित प्रतीत हो रहा है। हम दम्पति अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रमानुसार, जो कि समय से बहुत पहले ही आ गया- मथुरा या काशी वास कर अपने चतुर्थ पुरुषार्थ-प्रयास में व्यतीत करना चाहते हैं। मीना तो न रही। पर ‘मीना निवास’ का उचित अधिकारी तुम्हारे सिवा और कौन हो सकता है! अतः यथाशीघ्र आने का प्रयास करोगे। ’
पत्र एक ओर रख कर सोचने लगा- दान तो स्वीकार किया नहीं, उल्टे चल दूँ- दानान्त दक्षिणा के लिए- कृतघ्न ‘गाधिनन्दन’ की तरह? क्या हृदय गवाही दे सकता है, इसके लिए?
वहाँ जाकर क्या रह पाऊँगा- उस चहारदीवारी में, जिसमें मीना की पावजेब की रून-झुन अभी भी गूँजती होगी? वही मकान...वही कमरा...वही विस्तर...वही सब कुछ। सब कुछ तो वही होगा। सबमें मीना की परछायी होगी...मीना का सुवास होगा, पर मीना कहाँ होगी?
इससे कहीं अच्छा होगा- पतित पावनी की पवित्र जलधारा में जल-समाधि ले लेना....
किन्तु अगले ही पल इस विचार की कल्पना मात्र ही हिला गयी थी- कर्तव्य की आधारशिला को, प्रकम्पित कर गयी थी हृदय को, झकझोर गयी थी तन के समस्त तन्तुओं को-
...पापी! यह क्या सोच रहा है? एक का जीवन लिया, दूसरे का सुहाग लेगा?
सिर पकड़ कर बैठ गया था। इतनी भी साहस न रही कि वंकिम चाचा के पत्र का जवाब कम से कम दे दूँ।
रवि-शशि का आवागमन होता रहा। दिन और महीने गुजरते रहे। किस प्रकार गुजरे- कहने की हिम्मत नहीं, ताकत नहीं। कोशिश भी करूँ तो कह कहाँ पाऊँगा! शब्द और मनोभाव असम्बद्ध जो ठहरे। आदमी भी कितना मूर्ख है, कितना अज्ञानी...शब्दों का मिथ्या जाल बुन कर थिरकने लगता है- मैंने तो सब कह डाला। पर वस्तुतः कहा कितना उसने? सादे कागज पर विभिन्न रंगों की डिबिया उढेल कर, अपने को चित्रकार घोषित करते अनबूझ बालक की तरह ही तो हमारी स्थिति है। न हम सुख को सही तौर पर व्यक्त कर सकते हैं, और न दुःख को ही। और ये दो ‘ध्रुव’ ही छिटक गए अभिव्यक्ति से, फिर ‘कर्क -मकर’ का क्या?
यूँ ही बैठा रहता प्रायः - आकाश ताकते- शून्य को निहारते...
ऐसे ही किसी ‘निरीह क्षण’ में एक दिन मैना ने कहा था- ‘आखिर कब तक घुलते रहोगे उसकी याद में भैया?’
पूरे गांव में...नहीं...नहीं, पूरे ब्रह्माण्ड में यही तो थी एक, जिससे कभी-कभार कुछ कह लिया करता था। कही थी बेचारी-
.....जाओ भैया, कॉलेज में नाम लिखवाओ। आगे के वक्त को सुधारने का प्रयत्न करो। रात सिर्फ बारह घंटे की ही होती है। फिर तो प्रभात आता ही है। ’
पूर्ववत गमगीन, मन मारे बैठा हुआ, मैंने कहा था -‘ठीक कहती हो मैना! प्रभात के बाद आती तो फिर रात ही है न?’
‘यह तो होता ही रहता है। होना ही है। परन्तु, काल की इस चक्की में अपने भविष्य को क्यों पीस रहे हो? तुम यह क्यों भूल रहे हो कि तुमने अग्नि का साक्षी रख कर किसी का हाथ थामा है। फेरे लगाये हो। सप्तपदी के सात वचनों की प्रतिज्ञा किए हो। ’- मैना के मुंह से निकला था यह उपदेश, और मेरा अभिज्ञान जागृत हो उठा था। ‘प्रतिज्ञा’, और ‘वचन’ ठोकर मारने लगा था।
‘भट्ट कुल ने सिर्फ वचन ही निभाया है। निभाना ही पड़ेगा मुझे भी। क्यों कि मैं भी उसी कुल का अंश हूँ। किन्तु मैना! -सप्तपदी के वचन तो सात ही हैं पर फेरे मैंने बारह लगाये हैं- सात, अग्नि को बीच में रख कर, और पाँच अग्नि को हाथों में लेकर। अतः वचन की तुलना में फेरों का पलड़ा भारी है। ’- मैंने मायूसी से कहा था, जिसका जवाब बेचारी मैना को न सूझा था शायद, और चली गयी थी दूसरे कमरे में।
इसी प्रकार जब कभी, समय पाकर मैना आ जाती थी। कुछ बात-चीत हो जाती, उसके आने से। माँ का स्वस्थ्य काफी सुधर चुका था। एक पुराने बैद्य जी ने उसकी बीमारी का सही निदान कर लिया था, और अपनी चिकित्सा प्रारम्भ कर दी थी।
मेरे माथे पर हाथ फेरती हुयी माँ ने पूछा था एक दिन- ‘क्या होता जा रहा है कमल! तुम्हारा शरीर सूखता क्यों जा रहा है दिनों दिन, आँखें धँसती जा रही है? इस खड़ी जवानी में यह हाल, फिर आगे क्या होगा? क्यों न एक बार बैद्यजी से दिखा कर, अपने लिए भी कुछ दवा ले लेते हो?’
परन्तु माँ को क्या जवाब देता मैं? क्या मेरे मानस संताप का निदान और चिकित्सा है बैद्यजी के पास?
बैद्य मुख्यतः व्याधि का उपचारक होता है। ‘आधि’ का क्या करेगा? वैसे, लोग कराते हैं- आधि की भी चिकित्सा।
हमेशा की तरह एक दिन मैना आयी, तो कहने लगी माँ से- ‘भाभी को कब बुलाओगी चाची?’
माँ ने कहा था- ‘जल्दी ही बुलाने को सोच रही हूँ। ब्याही बेटी ननिहाल की रोटी कब तक तोड़ती रहेगी! किन्तु इस कमल को देख कर कुछ अजीब लगता है। कुछ समझ में नहीं आता, क्या होता जा रहा है इसे दिनों दिन? लगता है- मैंने जबरन, दबाव डाल कर शादी कर दी है। इसी वजह से नाराज रहा करता है शायद। देखती नहीं- पढ़ाई-लिखाई भी छोड़ दिया है। दिन रात कमरे में बन्द, पता नहीं क्या करता रहता है! किस चिन्ता में घुलता रहता है! शरीर तो आधा कर लिया। पता नहीं बहू के साथ कैसा पेश आयेगा!’
कहती हुयी माँ, इशारा की थी- मैना को, देख आने को, खिड़की से झांक कर कि मैं सोया हूँ या कुछ कर रहा हूँ।
मैना आयी थी, खिड़की तक और मेरे मुंह पर चादर पड़ी देख, वापस चली गयी थी। उस बेचारी को क्या पता था कि चादर की झीनी छिद्रों से स्वच्छ होकर, उन लोगों की बातें मेरे कानों में घुसी जा रही थी- गर्म शीशे की तरह।
‘पेश क्या आयेगा? बहू आ जायेगी, समझदार होगी तो खुद ही ढाल लेगी- अपने साँचे में। पहले बुलाओ तो उसे। ’- कहती हुयी मैंना सशंकित सी, मुंड़ कर खुली खिड़की की ओर देखी थी एक बार, जिसे चादर की ओट से मैं सहज ही देख रहा था।
‘अच्छा मैंना! तुमसे कुछ कहता है कभी- अपने मन की बात?’- माँ ने मैना से धीमें से पूछा था।
मैना पल्ला झाड़ कर निकल गयी थी- ‘मैं क्या उसका राजदार हूँ , जो हमसे सब कुछ कहता रहे?’
महीने भर बाद शक्ति आ गयी थी- अपनी ससुराल- अपनी माँ के मैके से। मैना को हिदायत कर दिया था मैंने, शक्ति से कुछ विशेष न कहने-सुनने को।
शक्ति तो आगयी थी- मेरे घर में। पर मेरे अन्दर शक्ति कहाँ थी,
उससे सामना करने की?मेरे अन्दर भरा हुआ था- ग्लानि, क्षोभ, खेद...न जाने क्या-क्या!
सारा दिन जमघट सा लगा रहा था- मैना और उसकी सहेलियों का। महानगर में पली-बढ़ी शक्ति का कुन्दन सा रंग, परियों सा रूप, अप्सरा सा यौवन- बेचारी ग्राम्य बालाओं के लिए ‘मोहे न नारी, नारी के रूपा’ की निरर्थकता को प्रमाणित कर रहा था।
रात बारह बजे तक चलती रही थी- शतरंज की बाजी- सह और मात। अन्य लड़कियाँ तो मात्र दर्शक भर थी, बाजी ठनी थी- शक्ति और मैना के बीच। पर दोनों में कोई भी अपनी हार स्वीकारने को राजी न थी, और न कोई आत्मसमर्पण ही कर रही थी।
अन्त में मैना ने कहा था- ‘अरी सखी! क्या यही करती रहोगी सारी रात- भैया क्या कहेंगे?’
शक्ति ने मैना का हाथ पकड़ कर कहा था - ‘अभी खेलो न। क्या हर्ज है, बारह ही तो बजे हैं। ’
पर वहाँ कौन सुनने वाली थी अब! हँसती हुयी भाग खड़ी हुयी सब के सब। सभी चली गयी, तब मैना ने कहा- ‘बन्द करो भाभी, अब शतरंज की बाजी। अब प्रेम की कलाबाजी का समय हो गया है। तुम्हारी घड़ी में तो बारह बज ही गए, उधर भैया के चेहरे पर भी बारह बज रहे होंगे। यहीं तो सोये हैं- बाहर वरामदे में। ’- कहती हुयी मैना निकल पड़ी थी कमरे से। जाते-जाते मेरी चादर खींचती चली गयी थी- ‘उठो न भैया, क्या यहीं सोये रहोगे?’ परन्तु उस बेचारी को क्या पता था कि- उसका अभागा भैया चादर तान कर भी तारे गिन रहा है। और वहीं पड़े तब तक गिनता रहा जब तक सबेरा न हो गया।
दूसरे दिन दोपहर में चिट्ठी मिली थी मामाजी की। मामा ने लिखा था- ‘आजकल घर पर ही हूँ। तबियत थोड़ी खराब चल रही है। हो सके तो आ कर मुलाकात कर लो। ’
मुझे एक ‘रेडीमेड’ बहाना मिल गया- घर से पलायन करने का। भोजन के बाद शीघ्र ही चल पड़ा मामा-गांव, जो मेरे घर से मात्र दस किलोमीटर दूर था।
मामा सही में काफी अस्वस्थ हो गए थे, पर शरीरिक कम, मानसिक ज्यादा। दुलारे लाडले ने कालिख पोत दी थी कुल की चादर पर। संताप का कारण वही- पुत्र ही था।
कलकत्ता छोड़ने के बाद से ही बसन्त का कोई समाचार न मिल सका था। उस दिन मामा ने ही दिया था सब समाचार- सुन कर थोड़ा अटपटा लगा। कुलबोरनी लड़कियों की चर्चायें बहुत बार सुनी थी, पर कुल ‘बोरन’ लड़का...!
सोचा, इसमें नया क्या है?मामा इसे अचानक की संज्ञा दे रह हैं, पर मेरे लिए कुछ ‘अचानक’ जैसा नहीं...
माँ-बाप के लाढ़-दुलार ने वसन्त को समय से पहले ही कुछ ‘प्रौढ़’ बना दिया था, जिसका परिणाम उच्चत्तर माध्यमिक परीक्षा के परिणाम सहित ही प्रकाशित हो गया- युवा वसन्त-युवती टॉमस के प्रेम प्रसंग का अन्तिम हश्र...
भारतीय विवाह अधिनियम अभी इजाजत न दे रहा था- साल-दो-साल। अतः निर्णय लिया था उसने इस ‘जड़भरत’ कानूनची देश को ही त्याग देने का, और चल दिया था, - टॉमस को साथ लेकर सुदूर जापान
के ओशाका नगरी में।
मुझे याद आ गयी थी- कोकाफाउटन वाली बात- जो मीना ने कही थी- ‘इस परी को कहाँ लिए फिर रहे हो वसन्त? मुझे डर लगता है, कहीं अपने पंखों पर बिठा कर उड़ा न ले जाये। ’
वास्तव में उड़ा ही तो ली थी उस परी ने, अपने प्रेम-‘पक्ष’ के वयार में, और जा बैठायी थी- सुदूर सागर पार, एक छोटे से टापू पर।
वहाँ पहुँच कर पत्र भेजा था पिता के पास- ‘मेरी चिन्ता न करें...मैं यहाँ बड़े इत्मिनान से हूँ.....’
परन्तु मामा इतने इत्मिनान हुए कि कलकत्ता छोड़, घर आकर बैठ गए, मुंह छिपा कर।
और इस प्रकार ‘उचाट मन’ मामा के मन बहलाव के लिए सप्ताह भर गुजारने का अच्छा अवसर मिल गया था मुझे।
किन्तु आखिर इस तरह का मौका कब तक मिला करेगा? मामा तो आ छिपे थे घर में, पर मैं कहाँ जाऊँ?
एक दिन मामी ने कह ही दिया- ‘तुम भी अजीब हो कमल! बहू को लाकर बिठा दिया है घर में, और खुद आठ दिनों से यहाँ पड़ा है?’
‘तो क्या वहीं बैठा, सिर्फ निहारता रहूँ?’- मेरे कहने पर मामी हँसने लगी थी। पर वास्तव में मैं कितना निहारा हूँ उसे, यह तो बेचारी शक्ति ही जानती होगी। विवाह में चेहरा भी नहीं देखा। इतने दिनों बाद इस बार आयी है, तो एक रात बाहर ही पड़ा रह गया- तारे गिनते, और दूसरे दिन से ही ननिहाल में पड़ा हूँ , बहाना बना कर।
उसी दिन संध्या समय वापस घर पहुँचा। व्यंग्य और उलाहनों का भारी गट्ठर, पहुँचते के साथ ही मैना ने पटक दिया-
‘यह क्या तरीका है भैया! क्या मार ही दोगे बेचारी को तड़पा कर? माँ-बाप है नहीं, जो भी आसरा है, तुम्हारा ही तो। देखो, ठीक न होगा, फिर आज भी यदि उसी दिन की तरह बाहर ही सोये रह गये।
आज न बाजी बिछी शतरंज की, न जमघट लगी सखियों की। रात दस बजे मैना ने खाना खिलाया स्वयं परोस कर, और हाथ पकड़ ढकेल दी कमरे में।
टेबल पर रखा ट्रन्जिस्टर गाए जा रहा था- ‘सूनी बगिया, सूखी कलियाँ, मुरझाया जीवन मेरा.....। ’
भीतर जा, पड़ गया था पलंग पर। मेरे कंठ भी फूट पड़े - ट्रन्जिस्टर के साथ-साथ, और गुनगुनाता रहा, उन्हीं पंक्तियों को, गाना समाप्त हो जाने के बाद भी। अचानक मेरे गर्दभ राग में पंचम स्वर मिल गया- ‘यह गाना आपको बहुत अच्छा लगता है?’
‘हाँ, लगता है। तभी तो इतनी देर से गाए जा रहा हूँ। ’- मेरे इस जवाब के साथ ही उस कोकिल-किन्नरी को एक ताल मिल गया, एक धुन मिल गया, एक गीत मिल गया। संगीत साकार हो गया। और मैं खो गया संगीत के सघन कुंज में। क्या ऐसा भी सुमधुर संगीत हो सकता है? हो सकता है ऐसा भी कभी संगीत...
सोचने लगा- उस स्वर के प्रति...उस गीत के प्रति...उस संगीत के प्रति...फिर उन झंकारों में एक विम्ब उभरा...धीरे-धीरे उस विम्ब का धुंधलका साफ होने लगा- सूर्योदय के बाद भागते कोहरे की तरह, थोड़ी देर में सब कुछ साफ नजर आने लगा- तब मैंने पहचाना उस स्वरूपवान विम्ब को - चेहरा चिर परिचित सा लगा- ‘अरे! यह तो मीना है...हाँ, मीना ही है यह...उसके सिवा ऐसा कौन गा सकती है?’- -खुद से ही सवाल उठा, और जवाब भी मिला- ‘हाँ, कोई नहीं। ’
....तो इसमें संदेह नहीं कि यह मीना ही है, जो आयी है मुझसे मिलने....और तब?
शिथिल भुजाओं में चेतना जगी। फैल गयी वे। ग्रस लिया उस विम्ब को -उस कोकिल-किन्नरी को अपने बाहु पाश में। फिर विचार आया मन में- क्यों न इन थिरकते अधरों को मैं चुरा लूँ अपने होठों में, जिनसे यह मदिर संगीत श्रवित हो रहा है...
अधरोष्ठ मिल गए। संगीत शान्त हो गया। आलिंगन दृढ़ हो गया। दो स्थूल- बर्फ शिला खण्ड- जल बनने को बेताब.......पुरुष ने देखा एक नारी को, जिसकी आँखें मुंदी जा रही थी, किसी अन्तःसलिला फेनिल मदिरा के प्रवाह के प्रभाव से...और तब उस पुरुष ने प्रवाहित कर दिया- स्वयं को उसी प्रवाह-पुंज में...धारा
के साथ, विपरीत नहीं !
तपन-तप्त-वसुधा तृप्त हो गयी, जलद-वारी-बून्दों से, और स्रजक का अनोखा नियम साकार होकर, गौरवान्वित हो उठा। और फिर.....?
मदिरालय के द्वार पर बेसुध पड़े शराबी का नशा जब काफूर होता है, तब ध्यान आता है उसे- मेरा भी कोई घर है...अपना घर। यह घर नहीं....मदिरालय है।
तो क्या यह मेरा घर नहीं था? यह मेरी मीना नहीं थी?
विवेक का जोरदार तमाचा झन्नाटे के साथ बुद्धि के गाल पर पड़ा- ‘पहचाना नहीं तूने? यह शक्ति है, तुम्हारी पत्नी...तुम्हारी परिणीता....तुम्हारी अर्द्धागिनी, जिसे तूने ब्याह कर लाया है। ’
बर्रे के छत्ते में अंगुली अनजाने में लग गयी हो मानों- हड़बड़ा कर विस्तर से उठ, बाहर भागना चाहा, तभी पैरों पर पकड़ का आभास मिला-
‘अभियुक्ता नतमस्तक है, अपना कसूर जानने के लिए, और उसकी सजा भोगने के लिए। ’
औखें विस्फारित हो गयी। चेहरा गम्भीर हो गया। मुंह से निकल पड़ा- ‘कुछ नहीं...कुछ नहीं....कोई कसूर नहीं है तुम्हारा। ’
‘यदि कसूर है ही नहीं कुछ भी, फिर सजा किस जुर्म की?’-प्रकम्पित कातर स्वर कानों में पड़ा।
‘सजा स्वयं को दी जा रही है, तुम्हें नहीं। ’-कहा था मैने, और उस चेहरे को निहारने का प्रयास किया था- फिर से एक बार।
‘तो फिर कैसा न्याय है यह? कैसा है यह न्याय?’-- कहती हुयी शक्ति मेरे पैरों पर लोटने लगी थी- मानों जल से निकाल कर मछली को तप्त मरू पर फेंक दिया गया हो।
वह काफी देर तक इसी तरह रोती तड़पती पड़ी रही थी।
आत्मा ने फिर ठोंकर मारा था- ‘आखिर कब तक तड़पती रहेगी इस तरह? कसूर क्या है इसका जो इतना तड़पा रहे हो?’
भारतीय दण्ड संहिता की सभी धाराओं को एक-एक कर सामने रखा, पर किसी भी अनुच्छेद को आरोपित न कर पाया। ग्लानि हो आयी खुद पर ही। सप्तपदी के प्रत्येक वचन बिना सरलार्थ के ही सरल होते गए।
झुक कर उठाया उसे पैरों पर से, और चूम लिया मुखड़े को- ‘शक्ति! तुम्हारी कोई गलती नहीं है शक्ति... कोई गलती नहीं है। ’
उसकी सभी संसयों का समाधान मिल गया था शायद, मात्र एक चुम्बन में ही। चिपट गयी थी मेरे सीने से, और प्रक्षालित करने लगी आँसू से अपने द्दृष्ट प्रश्न की धूली को।
समय के पंख निकल आए। विगत स्मृतियों पर शक्ति के प्रेम का प्रभाव, परत-दर-परत पड़ता गया। शक्ति ने स्वयं को पूरे तौर पर मेरे मनोंनुकूल ढालना शुरू कर दिया था। घरेलू कार्य, माँ की सुश्रुषा, और इन सबके साथ-साथ मेरे सेहत और मनोरंजन- सबका ख्याल बड़े सलीके से चुस्ती के साथ रखा करती। थोड़ी-बहुत बची
जमीन पर खेती का काम शुरू करवा दिया था। हालांकि उससे सिर्फ इतना ही जुट पाता था, जितने से किसी प्रकार दो जून की रोटियाँ सेंक ली जांए। पर प्रेम और सन्तोष के सामने संसार की सारी सम्पदा महत्त्व हीन हो जाती है।
शक्ति! तितलियों सी सदा फुदकती रहने वाली शक्ति, हर आधुनिक प्रसाधनों की गहन शौक रखने वाली शक्ति- स्वयं को इस प्रकार ढाल ली थी, मानों उसकी सभी जरूरतें पूरी हो चुकी हैं। वस्तुतः मानव को
परिस्थितियों का दास कहा जाता है, यहाँ तो परिस्थितियाँ स्वयमेव शक्ति की दासी बन गयी थी।
कभी कभी किंचित कारणों से यादों का वयार, स्मृतियों के परत को उघेड़ देता, और मायूस हो बैठ जाता; तब शक्ति मेरे मायूसियत के धूमिल धब्बों को अपने प्यार के पवित्र धार से धोने का प्रयास करती। पल भर भी अकेला न छोड़ती। चूम लेती मेरे होठों को, और कहती- ‘लगता है आज फिर मुझे गाना सुनाना पड़ेगा आपको। ’ और छेड़ देती संगीत की सुमधुर रागिनी। पल भर में ही मैं खो जाता उस
मादुर्य में...उस ‘शक्ति’ में...और शक्ति के प्यार में।
समय! चील सा उड़ता रहा।
एक दिन शक्ति ने कहा- ‘तो क्या आपने यही तय कर लिया है कि गांव में रह कर खेती ही करना है अब? इसे ही आपने अपनी नियति मान लिया है क्या?’
‘तो क्या शहर जाकर डकैती करूँ?’- कहता हुआ शक्ति को खीच कर भर लिया था- अपनी बाहों में, और चूम लिया था- उसके कपोलों को।
‘धत् ! आप तो हर समय.....’शक्ति अभी और कुछ कहती, पर मैंने उसके होठों को सील कर दिया, अपने होठों से। तभी मैंना फुदकती हुयी आ गयी, और बैठ गयी वहीं चटाई पर।
शक्ति शरमा कर, हमसे दूर छिटक गयी थी। मैं बैठा रहा, ऊपर पलंग पर ही।
शक्ति को फिर मौका मिला बोलने का- ‘अभी-अभी मैंने पूछा था- क्या आप यही करते रहेंगे, जो कर रहे हैं?’
‘तो फिर क्या करने को कहती हो?’- उसके चेहरे पर गौर करते हुए मैंने भी सवाल किया; किन्तु जवाब शक्ति के बदले मैना ने दिया था- ‘भाभी क्या कहना चाहती हैं, मैं जानती हूँ। ’
‘मतलब कि तुम वकील हो शक्ति का?’-मैंने हँस कर पूछा।
‘नहीं भैया, वकालत की बात नहीं। बात यह है कि भाभी कल कह रही थी...। ’- कहती हुयी मैना देखने लगी थी शक्ति की ओर- मानो आगे की बात उसके ही मुंह से सुनना उचित होगा।
मैना के कथन का अभिप्राय समझती हुयी शक्ति कहने लगी- ‘खेती का काम तो आप स्वयं करते नहीं। वन्दोवस्ती से किसी प्रकार भोजन भर जुट ही जाता है.....। ’
मैंने बीच में ही टोकते हुए कहा था- ‘तो क्या चाहती हो- मैं बाहर जाकर कोई नौकरी ढूढूँ?’
‘नहीं, नौकरी ढूढ़ने की जरूरत नहीं है अभी। ’
‘तो ?’
‘उमर ही क्या है, अभी आपकी?’
‘इसी लिए तो पूछ रहा हूँ -खेती करवाना छोड़ दूँ , नौकरी करूँ नहीं, तो फिर करूँ क्या? तुम क्या करवाना चाहती हो मुझसे ?’
‘करवाना नहीं, करना...मैं आपको पढ़ाई शुरू करने कह रही हूँ। एक बर्ष तो यू हीं बरबाद हो गया, आगे से तो सम्हल जाए। ’- शक्ति ने अपनी राय जाहिर की।
‘पढ़ाई का खर्च कहाँ से आयेगा?’-मैंने समस्या रखी।
‘खर्चा ऊपर वाला जुटायेगा। ’- हाथ का इशारा ऊपर आकाश की ओर करती हुयी शक्ति ने कहा था- ‘आप फिर चले जायें कलकत्ता। पुराना परिचित जगह है। थोड़े दिन कुछ परेशानी होगी। फिर ट्यू्शन आदि कुछ कर करा कर, किसी प्रकार पढ़ाई प्रारम्भ तो कर दें। ’
‘हाँ भैया! भाभी ठीक राय दे रहीं हैं। शास्त्रों में सुनते हैं कि- पत्नी को ‘मंत्री’ भी कहा गया है। भाभी की एकदम उचित मंत्रणा है, आपके लिए। ’- मैना की बात पर शक्ति मुस्कुरा दी।
‘तो फिर ठीक है- बहन और पत्नी- दो मंत्रियों की राय न मानना भी सरासर अन्याय ही है, इसलिए ‘आपलोगों, का सुझावादेश हमें शिरोधार्य है। दोनों हाथ जोड़, ऊपर उठा, माथे से लगा लिया- प्रणाम की मुद्रा में। ननद-भौजाई हँसते-हँसते लोट गयी।
थोड़ा सोच विचार कर मैंने कहा- कॉलेज का सत्र शुरू होने में अभी दो माह देर है। मैं ऐसा करता हूँ कि दो-चार दिन में ही चला जा रहा हूँ कलकत्ता। कालीघाट चाचा के यहाँ, या किसी अन्य मित्र के यहाँ एकाध सप्ताह गुजारा कर लूँगा......इस बीच ट्यू्शन ढूढ़ लूँगा, और डेरे की व्यवस्था भी कहीं न कहीं हो ही जाएगी। फिर समयानुसार एडमीशन ले लूँगा। ’- कहता हुआ मैं कमरे से बाहर निकल गया। मैना और शक्ति वहीं बैठी देर तक बातें करती रही।
घरेलू व्यवस्था जुटाने में पांच-छः दिन लग गए। तब तैयार हो पाया था कलकत्ता जाने को। चलते वक्त शक्ति ने पूछा था- ‘कब तक लौटेंगे वहाँ से?’
‘अभी तो जा ही रहा हूँ। लौटने की बात क्या बतलाऊँ? सब कुछ अनुकूल रहा तो दशहरे की छुट्टी में आ पाऊँगा। ’-मैंने कहा था, अन्यमनस्क भाव से, और डबडबाई आँखों से निहारती हुयी शक्ति लिपट पड़ी थी मुझसे।
‘भूल न जाइयेगा, वहाँ जाकर -अपनी शक्ति को। ’
‘शक्ति को ही भुला दूँगा, तो फिर कुछ काम कैसे करूँगा?’- कहते हुए उसके होठों को चटाक से चूम लिया था।
‘धत्! इतने जोर से! कोई सुनेगा तो क्या कहेगा?’- कहती हुयी शक्ति शरमा कर थोड़ा अलग हट गयी थी।
‘कहेगा क्या, ‘सी ऑफ’ की क्लैपिंग है। ’
शक्ति के गाल थपथपाते हुए मैं बाहर निकल गया था कमरे से। आंगन में ही माँ और मैना खड़ी थी। मुन्नी घर पर नहीं थी, वह कहीं पड़ोस में खेलने निकल गयी थी।
प्रणामाशीष के समय माँ ने पूछा- ‘रहोगे कालीघाट चाचा के ही डेरे पर न ?’
कुछ दिन तो वहीं रहूँगा, फिर देखा जाएगा; जहाँ जैसी व्यवस्था हो पाएगी- कहता हुआ माँ का चरण-स्पर्श कर, निकल गया। मैना सजल नेत्रों से देखती, दरवाजे पर खड़ी रह गयी थी । मैने ही कहा- राखी, चाचा के पते पर भिजवा देना।
तेरह महीनों बाद कलकत्ते में पुनः पदार्पण किया, और साथ ही अतीत की धूमिल हो चली तसवीरें भी धीरे-धीरे मानस मंच पर बारी-बारी से आ-आ कर नृत्य करने लगी- महाताण्डव...नृत्य चलता रहा...चलता ही रहा, और मैं चलता रहा कंधे पर विस्तर और हाथ में बड़ा सा झोला लटकाए, मन्थर गति से अघोषित गन्तव्य की ओर। पीछे से कितनी ही टैक्सियाँ, ट्रामें, तांगे, और बसें आ-आकर बगल से निकलती हुयी आगे बढ़ गयी; मगर कोई रूकी नहीं आज! और मैं बढ़ता रहा...बढ़ता रहा...
हावड़ा पुल पार किया...हरिशन रोड पकड़ा...फिर चलते-चलते आ गया चौरंगी- चितरंजन एभेन्यू के पास। किनारे में थोड़ा ठहर कर गहरी सांस लिया- अल्प स्वच्छ ऑक्सीजन के साथ-साथ डीजल-पेट्रोल के धुएँ भी, कुछ धूल कण भी अन्दर गए- हाँ आज की ताजगी यही नसीब है- महानगर वासी को, ‘तरोताजा’ हो कर आगे
बढ़ा, बढ़ते रहा। पटेल कॉटन कम्पनी कम्पाउण्ड तक पहुँचते-पहुँचते थक कर चूर हो गया। हालाकि असली गन्तव्य का अभी पता नहीं था।
चाचाजी का डेरा तो रैन बसेरा भर था, कितने रैन! यह भी कह नहीं सकता।
रास्ता भूल कर इधर कैसे आ गए कमल?’- चरणस्पर्श के साथ ही चाचाजी का तीखा सा सवाल था। वैसे यह सवाल चाची को करना चाहिए था, पर कर दिया- जल्दवाजी में ‘प्रभारी’ ने ही।
हाथ का झोला और कंधे का विस्तर एक ओर वरामदे में ही रख कर, समुचित उत्तर की खोज में था, तभी आवाज सुन अन्दर से चाची आ पहुँची। आज इतने दिनों बाद मुझे देख कर उनके चेहरे पर थोड़ी प्रसन्नता की एक झलक सी मिली, किन्तु सवाल की पुनरावृत्ति भी हो ही गयी, इनकी ओर से भी। फलतः उत्तर देना अनिवार्य सा लगने लगा।
‘रास्ता भूल कर नहीं, याद कर ही आया हूँ। सुना था कि आपदोनों बीमार हैं। कलकत्ता आना था ही नामांकन के सिलसिले में। सोचा, पहले यहीं हो लूँ , फिर तो इतनी बड़ी दुनियाँ- इतना बड़ा यह
शहर, ठौर-ठिकाने तो भरे पड़े हैं। ’- मेरे सपाट, अप्रत्याशित उत्तर से झटका सा लगा उन्हें।
‘वही तो मुझे भी लगा, कमल बड़ा होशियार है, बहुत लायक भी। अरे माँ-बाप तो अपने क्रोध के वशीभूत बहुत कुछ कह जाते हैं, पर क्या इससे उनका स्नेह घट जाता है बच्चों के प्रति? और क्या बच्चा भी भूल जाता है- अपने माँ-बाप को?’- चाचा ने थोड़ी झिझक के साथ कहा। चाची ने भी हाँ में हाँ मिलायी, और भीतर चली गयी, यह कहते हुए- ‘हाथ मुंह धोओ, मैं तुम्हारे लिए जलपान लेकर आती हूँ। ’
हाथ-मुंह धो, जलपान कर मैं निकल पड़ा बाहर, सामान वहीं छोड़कर, कुछ व्यवस्था की तलाश में।
सड़क पर आ, सोचने लगा- किधर जाऊँ! पहले किससे मिलुँ?डेरे का प्रबन्ध, ट्यू्यन या अन्य कोई आय-स्रोत- क्या ढूढ़ूँ, कहाँ ढूढूँ?विद्यालय जाकर अंक-पत्र लेना भी जरूरी ही जान पड़ा। पास से गुजरते एक सज्जन से समय की जानकारी ली- बारह बजने ही वाले थे। फिर सोचा, सबसे पहले स्कूल में ही चला जाए।
स्कूल पहुँचा। प्रधानाचार्य श्री घोषाल से बातें हुयी। उन्होंने पहले तो एक बर्ष बरबाद होने पर खेद व्यक्त किया। फिर बोले- ‘तुम कल इसी वक्त आ जाओ यहाँ, सारे कागजात तैयार मिलेंगे। ’
मामा के बारे में पूछने पर ज्ञात हुआ कि इसी माह प्रथम सप्ताह में ही अवकाश ग्रहण किए हैं। अब शायद घर पर ही रहने का विचार है उनका। अतः उस ओर जाने का कोई सवाल ही नहीं रहा। तभी ध्यान आया, अपने एक पुराने मित्र- विजय नैयर का। पता नहीं- क्या करता होगा आज कल, मुझसे तो दो बर्ष आगे था। अच्छा होगा,
चल कर उसके डेरे पर ही पता किया जाए।
डेरा वहीं पास में ही बांगड़ बिल्डिंग में था। वहाँ पहुँचने पर बगल के किरायेदार से मालूम हुआ कि वह आजकल पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर काम पर जुट गया है। स्टेनोग्राफी तो वह बहुत पहले ही कर चुका था। और फिर ऐसों को कलकत्ते में काम मिलना बड़ा ही आसान हो जाता है। किरायेदार ने ही उसके ऑफिस का पता भी बता दिया था।
आधे घंटे में ही पहुँच गया झाबरमल जालान के कार्यालय में। विजय से मुलाकात हुयी।
‘अरे कमल! बहुत दिनों बाद याद आयी विजय की?’- कहता हुआ अपनी पुरानी आदत के अनुसार बांया हाथ आगे बढ़ा, और हाथ मिलाने के बाद लिपट गया- भरत मिलाप की तर्ज पर।
वहीं बैठ, बातें होने लगी थी। विगत बर्षों की लम्बी डायरी पढ़-सुन कर यह जाहिर हो गया कि हम दोनों बहुत मामले में एक ही धार के पत्थर हैं। अन्तर मात्र इतना ही है कि वह परिस्थिति की लहरों के चपेटों से टकरा-टकरा कर मेरी अपेक्षा कुछ ज्यादा चिकना हो गया है घिस-घिस कर।
बड़े मायूसी से बोला- ‘क्या रखा है यार जिन्दगी में! न माँ, न बाप, न बीबी, फिर बच्चे कहाँ? सबके सब जीवन के रंगमंच पर आए, और एक दो पटाक्षेप के बाद ही नाटक समाप्त हो गया। अब रहा- अकेला पेट, पेड़ की सूखी टहनियों सी दो हाथ-पैर लिए। किसी प्रकार भर ही जाना है इसे। ’
‘तो क्या तुम फिर शादी नहीं करोगे?’-मैंने उसके चेहरे पर खिंच आयी अपूर्व दर्शित रेखाओं को पढ़ने का प्रयास किया।
‘फिर से फंसना फिजूल है इस फंदे में दोस्त। ’- कहता हुआ वह हँसने लगा था। हालांकि उसकी हँसी में व्यंग्य दर्शित हुआ था मुझे- जीवन दर्शन के प्रति।
मैंने अनुभव किया- घंटे भर की बैठक के दौरान, मिनट भर भी उसकी अंगुलियाँ खाली न रही थी, सिगरेट की पकड़ से, जब कि इस बीच माचिस का इस्तेमाल एक बार भी न हुआ था। यह वही विजय है, जो ट्राम-बस में सफर के दौरान ‘मास्क’ इस्तेमाल करता था, ताकि कहीं सिगरेट के धुएँ से उबकाई न हो जाए।
‘अरे बाप रे! तुम इतना सिगरेट पीते हो?’- मैंने चिन्ता जाहिर की, उसकी इस हरकत पर।
‘यही तो तनहाईयों में हमसफर बनता है। इस बेचारे को भी छोड़ ही दूँ?’- कहता हुआ विजय उठ खड़ा हुआ। घड़ी देखते हुए बोला- ‘चलो यार, छोड़ो यह सब दुनियादारी गप्पें। चलो लंच लिया जाये। और मेरा हाथ पकड़ दफ्तर से बाहर निकल आया।
करीब पौन घंटे बाद हमदोनों पूर्वस्थान पर बैठ, पूर्व प्रसंग छेड़ दिए। फाइल खोलते हुए विजय ने कहा-
‘अब तक तो पुरानी बातें ही होती रही। मैं तो भूल ही गया, तुम्हारे यहाँ आने का मकसद पूछना, क्यों कि सिर्फ घूमने के ख्याल से तो इतनी दूर तुम आने वाले हो नहीं। ’
‘आने का मकसद तो सिर्फ एक ही है- आगे की पढ़ाई, पर उसकी पूर्ति के लिए कई अन्य सहयोगी मकसद भी पनप आए हैं। ’
‘मतलब? ’- ऐश-ट्रे में सिगरेट झाड़ते हुए विजय ने पूछा।
‘पढ़ने के लिए चाहिए यहाँ रहना, रहने के लिए डेरा, और डेरे को चाहिए समुचित नहीं तो कम से कम गुजारा भत्ता...ये कैसे हल होगा?- मेरी चिन्ता का यह विषय है। ’
‘अच्छा तो अब समझा। किन्तु चिन्ता क्या? ’- हाथ मटकाते हुए विजय ने कहा।
‘क्या परवाह किए वगैर यूँही हो जाएगा?’
‘सुनो यार! आए हो बड़े मौके से- तुम तो पक्के पंडित ठहरे, यात्रा-मुहुर्त देख-सोच कर चले होगे- बात ये है कि मेरे फर्म में एक मुन्शी की जरूरत है। आज ही तुम्हें सेठ जी से मिलवा देता हूँ। मेरी बात वे टालेंगे भी नहीँ, इतना भरोसा है।