निश्चय ही रोड़े फूल बनेंगे / संतोष श्रीवास्तव
वैदिक युग में स्त्री समाज की धुरी मानी जाती थी। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसकी सक्रिय भूमिका थी। शास्त्रों के सर्जन से लेकर शास्त्रार्थ, हवन-पूजन, राजनीति तमाम सामाजिक कार्यों में वह मौजूद थी। परिवार के महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने में उसे बराबरी का हक था। न घूंघट था न घर की चौखट तक उसकी सीमा... वह लज्जा, हया के संस्कारी आवरण में खुद को समेटे, नम्रता, दया, करुणा, ममता कि मूर्ति बनी पुरुष के साथ बराबरी का जीवन यात्रा का सफ़र तय कर रही थी। शायद यही वजह थी कि समूची दुनिया विशेष रूप से एशिया भारत की प्रगति और चिंतन-शैली से गंभीर रूप से प्रभावित था। धीरे-धीरे समय बदला और विदेशी जातियों के निरंतर आक्रमण से न जाने कैसे स्त्री धुरी से परिधि पर ढकेल दी गई। सामाजिक विकास में उसकी भूमिका समाप्त हो गई। उसकी आजादी छीन ली गई. शिक्षा के द्वार उसके लिए बंद हो गए। उसे घूंघट, परदे में घर की चौखट के अंदर कैद कर लिया गया। उसके लिए पुरुष प्रधान समाज ने बनावटी शास्त्र, बनावटी धर्म रचा। मिथ्या धारणाओं और अप्रासंगिक रूढ़ियों के बूते पर उसे मात्र गृहणी बना दिया। गृहिणी के इस रूप में भी जननी बनने के अधिकार को छोड़कर उससे बाकी सारे अधिकार छीन लिए गए और उसे कर्तव्यों की बलिवेदी पर शहीद होने के लिए मजबूर कर दिया गया और ताज्जुब तो ये है कि वह इस स्थिति को मूक बनी स्वीकार करती चली गई। उसने न तो कोई प्रतिक्रिया व्यक्त की और न विरोध। उसकी इस खामोशी ने सामाजिक बुराइयों को जन्म दिया।
बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा विवाह, अपराध, दहेज, घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न, बलात्कार, पिता कि संपत्ति में उशकी हिस्सेदारी न होना। अशिक्षा, पति की संपत्ति पर भी तलाक के बाद एक लम्बी कानूनी लड़ाई, घर से बेघर होना, अकेलापन एक भयानक स्थिति आदि बुराइयों के मकड़जाल में वह सदियों से उळझी, छटपटाती हुई बड़ी कारूणिक दशा में जीती रही।
स्त्री को इस दशा से उबारने के लिए कई महापुरुष सामने आए और सती प्रथा, बाल विवाह, विधवा विवाह निषेध आदि परंपराएँ खत्म हुई पर जड़ से नहीं। आज भी ऐसी घटनाएँ अखबारों की सुर्खियाँ बनती हैं जहाँ रूपकुंवर सती हो जाती है, बारह वर्षीय बालिका साठ वर्षीय बूढ़े से ब्याह दी जाती है। बनारस-काशी और मथुरा, वृंदावन, ऋषिकेश-हरिद्वार के आश्रम विधवाओं से भरे पड़े हैं, जिन्हें परिवार ने त्याग दिया है और जो केश मुंडाकर, उबला भोजन करके हर रात साधु संत, महंत की हवस का शिकार होती है। कानून में भले ही संपत्ति पर स्त्री का भी अधिकार बिल पास कर दिया है पर वास्तविकता कुछ और कहती है। तलाक, गृह त्याग आदि निर्णयों पर लम्बी कानूनी लड़ाई और वकीलों के दांव-पेंच सहते-सहते अंतत: वह खुद ही खामोश हो जाती है।
किसी भी तरह के परिवर्तन के लिए उठे उसके कदम में सबसे अधिक आड़े आता है उसका शरीर। जो ईश्वर प्रदत्त नाजुक, कोमल और प्रकृति प्रदत्त जरा-सी ठेस से कांच की तरह दरक जाने वाला है। शील, शर्म, हया उसे प्रकृति से मिली है पर इन तीनों तक ही उसके शरीर को बाँधा है पुरुषों ने... घर की चार दीवारी के अंदर वह भोग्या है या श्रद्धा और घर की चार दीवारी के बाहर वह मात्र भोग्या है।
सदी बीतते-बीतते स्त्री जागी... कुछ खुद के विवेक से कुछ स्त्री मुक्ति आंदोलन से, कुछ स्वैच्छिक क्षेत्र के प्रयासों से और जब उसने करवट बदली तो खुद में आसमान छूने की शक्ति और हिम्मत को महसूस किया। अब तक पुरुषों की बैसाखियों के सहारे चलने वाली स्त्री अपने बल पर खुद चलने की कोशिश करने लगी। नतीजा सामने है। यूं तो विश्व के हर कोने में, हर समाज, हर वर्ग की स्त्री की पीड़ाएँ समान ही हैं। उसे एक विश्वव्यापी आंदोलन की शुरूआत करनी होगी। आखिर कब तक चरित्र, सभ्यता और संस्कृति के जतन का भार वे अकेले संभालती रहेगी? पुरुष भी तो इस भार को ढोने में सहभागी बने। जबकि भारतीय संस्कृति में स्त्री शक्ति के सामने पुरुष नतमस्तक होता रहा है। देवी लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा के आगे नत हुआ पुरुष क्यों अपनी ही स्त्री की शक्ति को नहीं पहचानता। स्त्री जब अपनी शक्ति को लेकर सचेत होती है तो सामाजिक परंपराएँ हिल जाती हैं। हाल ही की घटना है मुजफ्फरनगर की। शादी के मंडप में शादी की रस्मे पूरी करने पर वर पक्ष के लोगों ने जब दहेज के रूप में भारी रकम की मांग की और मांग पूरी न होने पर वहीं मंडप में अड़कर बैठ जाने की धमकी दी तो वधू ने वर के साथ विदा होने से इंकार कर दिया और बारात बिना दुल्हन बैरंग वापिस लौट गई। इतना ही नहीं शादी में दुल्हन पक्ष का जितना भी रुपया खर्च हुआ था वह अदा करने पर ही बारातियों को वापिस जाने दिया गया।
मामला चाहे दहेज मांगने पर बारात लौटाने का हो या फिर शादी का झांसा देकर देह शोषण करने का, स्त्री अब इन अत्याचारों के खिलाफ खड़ी हो रही है। अब वह यह अच्छी तरह समझ चुकी है कि बरसों से वह पुरुष अत्याचार का शिकार है। उन ज्यादतियों से लड़ने के लिए उसे कमर कसनी ही पड़ेगी। इस जबरदस्ती की छवि को मानने से इंकार करना ही पड़ेगा। समाज उसे उसकी इज्जत-आबरू और शर्म-हया का वास्ता देकर चुप करा देता था। बरसों से उसने कमोबेश जीवन के हर क्षेत्र में क्रूर हादसों को झेला है और यही वजह है कि अब वह पत्थर जैसी कठोर हो चुकी है... अपने अंदर एक स्वतंत्र इच्छा शक्ति को पल्लवित होते महसूस कर रही है। उसकी सहनशीलता का विप्लवकारी रूप साबित करता है कि वह इस सामाजिक व्यवस्था से अफने लिए न्याय का मुंह नहीं ताकना चाहती। भले ही स्त्री मुक्ति आंदोलन से अभी सभी स्त्रियाँ नहीं जागी हैं पर जंगल में आग लगने के लिए एक चिंगारी ही काफी होती है।
बरसों से मां, बेटी, बहन, पत्नी की भूमिका निभाती आ रही महिलाओं की निजी विरोध की सोच को आमतौर पर इन्हीं रिश्तों का वास्ता देकर दबा दिया जाता है। नतीजतन आज की औरत इस बंदिश में कम ही नजर आ रही है। वह इस सोच की समर्थक नहीं है। आज जहाँ एक ओर वह अंतरिक्ष में अपनी मौजूदगी दर्ज करा चुकी है वहीं दूसरी ओर उसने चारों दिशाओं में अपनी फतह की पताका लहराते हुए सागर की गहराइयों को भी टटोला है। अब वह किसी भी तरह के शोषण को बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। उसकी सहनशीलता जिसे उसकी कमजोरी माना जाता था, अब उसकी ताकत बन गई है। शायद यही वजह है कि अब महिलाएँ समाज की बनाई एकतरफा व्यवस्थाओं से आजिज आ चुकी हैं और अपना हक पाने की जिम्मेदारी उसने खुद ही उठा ली है। हालांकि इसका खामियाजा भी उसे भुगतना पड़ा। परिवार टूटे, तलाक के मामले बढ़े, बच्चों से माँ छीनी गई, कार्यालयों में बॉस द्वारा यौन शोषण का शिकार होना पड़ा, अधिक काबिलियत की वजह से जीवनसाथी मिलने में बाधा आई, लम्बी उम्र तक कुंआरापन झेलना पड़ा, परिवार और नौकरी... दोहरी भूमिका निभानी पड़ी पर अपनी कर्मठता और ईमानदारी से उशने मनचाहे मुकाम भी हासिल किए और तेजी से बदलती गई आधी दुनिया कि दुनिया।
यों तो आजादी के बाद से ही स्त्रियाँ घर गृहस्थी की चार दीवारी से निकलकर अपने पैरों पर खड़ी होने लगी थीं लेकिन करीब दो दशक पहले तक इसकी रफ्तार काफी धीमी थी। कुछ समय पहले तक औरतें या तो अध्यापन करती थीं या डॉक्टरी, नर्सिंग या सिलाई, बुनाई, कढ़ाई विशेषज्ञ। यही क्षेत्र उनके लिए सुरक्षित माने जाते थे। औरतों ने भी इन्हीं पेशों को बेहतर समझा क्योंकि इन पेशों में काम करते हुए वे घर और बाहर दोनों की जिम्मेदारियाँ ठीक से निभा सकती थीं। यहाँ काम करने का एक नियमित ढर्रा या पैटर्न था और चुनौतियाँ नहीं के बराबर थीं और यह पसंद केवल महिलाओं की ही नहीं थी बल्कि उनके परिवार और पुरुषों की भी थी। दरअसल पुरुषों को लगता था कि इस तरह औरतें अपने पैरों पर खड़े होने का शौक पूरा करने के साथ-साथ पारिवारिक जिम्मेदारी भी ठीका-ठीक निभाती रहेंगी। इन पेशों को नोबेल करार देकर पुरुषवादी सोच ने लम्बे अरसे तक औरतों के लिए इन्हें आदर्श विकल्प बनाए रखा परंतु जैसे-जैसे वे अधिक शिक्षित होती गईं, तजुर्बे बढ़ते गए और उनकी सोच का विस्तार भी बढ़ता गया। उनमें आत्मविश्वास जागता गया। नए-नए क्षेत्रों और चुनौतियों को वे स्वीकार करती चली गई। अब तो कोई भी क्षेत्र उनके लिए अनजाना नहीं है। हाल के बरस औरतों के लिए काफी क्रांतिकारी रहे हैं। अगर आंकड़ों पर गौर करें तो पिछले दो वर्षों में कामकाजी महिलाओं की संख्या में आठ फीसदी बढ़ोत्तरी हुई है जो अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। निजी क्षेत्र में 91 फीसदी और सरकारी क्षेत्र में नौ फीसदी महिलाएँ कार्यरत हैं। सरकारी उपक्रमों में मार्च 1991 तक जहाँ कुल नौकरीपेशा लोगों में महिलाओं की भागीदारी चार फीसदी थी, वहीं मार्च, 2001 तक यह बढ़कर 5.68 फीसदी हो गई। हालांकि इस बीच इन क्षेत्रों में महिलाओं की संख्या जिन पदों पर सबसे अधिक बढ़ी वह था मैनेजर का पद। इस दौरान इस क्षेत्र में 87 फीसदी की दर से महिला मैनेजरों की संख्या में वृद्धि दर्ज की गई। इतना होने के बाद भी इस क्षेत्र में उच्च पदों पर उनकी संख्या नगण्य ही रही। वैसे आईटी के क्षेत्र में महिलाएँ तेजी से अपनी पहचान बना रही हैं। डाटा क्वेस्ट जॉब्स अहेड नामक एक सर्वे से कुछ रोचक तथ्य उभरकर सामने आए। करीब डेढ़ लाख आईटी पेशेवरों में जूनियर लेवल पर महिलाओं की संख्या 19 फीसदी है, जो सीनियर लेवल तक पहुँचते-पहुँचते गिर कर छह प्रतिशत रह जाती है।
ऐसे में सवाल उठता है कि जब महिलाएँ शुरुआत इतनी अच्छी करती हैं तो धीरे-धीरे यह गिरावट क्यों और कैसे आती है? दरअसल इसका जवाब कहीं न कहीं हमारे सामाजिक और पारिवारिक ढांचे में छिपा है। कैरिअर की शुरूआत में शादी से पहले महिलाएँ नौकरी करती हैं फिर जैसे-जैसे उनका पारिवारिक परिवेश बदलता जाता है, उनकी जिम्मेदारियाँ भी बढ़ जाती हैं। ऐसे में या तो वे मजबूरीवश नौकरी छोड़ देती हैं या फिर ऐसे पद पर कार्य करती हैं जिसके साथ वे पारिवारिक दायित्वों को भी निभा सकें। सामर्थ्य और क्षमता होते हुए भी कई बार महिलाएँ उच्च पदों और उनसे जुड़ी जिम्मेदारियों को लेने में सिर्फ़ इसलिए हिचकिचाती हैं क्योंकि इससे कहीं न कहीं उनके पारिवारिक उत्तरदायित्वों में रुकावट आती है। इस हिचकिचाहट के लिए कुछ हद तक वे खुद और काफी हद तक उनका माहौल जिम्मेदार होता है। हालांकि धीरे-धीरे यह दीवार टूट रही है और महिलाएँ अब कैरिअ्र को अहम मानते हुए उससे जुड़ी ऊंची जिम्मेदारियों को भी स्वीकारने लगी हैं।
संघर्ष, चुनौती स्वीकारना और आसानी से हार न मानने का जज्बा जैसे गुण ही हैं जो महिलाओं को आज लगभग हर क्षेत्र में कामयाब बना रहे हैं। उनकी यह जिद, लगन और समर्पण ही पुरुषों के द्वारा स्थापित एकाधिकारों को तोड़ने में उनकी मदद कर रहे हैं। आमतौर पर महिलाएँ पुरुषों की तुलना में कम अनुभवी होने के बावजूद अपने काम और जिम्मेदारियों को बखूबी निभाती हैं इसलिए वे पुरुषों की अपेक्षा जल्दी आगे बढ़ती हैं। जल्दी सफलता और पद हासिल करती हैं। सामाजिक ढांचा ऐसा है कि महिलाओं को काम करने के लिए अतिरिक्त प्रयास करना पड़ता है और यही उनकी सफलता का मुख्य कारक होता है। तमाम सामाजिक पूर्वाग्रहों को पार कर काम करने वाली स्त्री इतनी मजबूत हो जाती है कि जब उसे कोई जिम्मेदारी दी जाती है तो वह पूरी तरह खुद को साबित करती है और सफल होकर दिखाती है। टीम भावना या एकजुट होकर दिखाती है। टीम भावना या एकजुट होकर काम करने की आदत, एक साथ कई मोर्चों पर जूझने की प्रवृत्ति, हर स्थिति में सहजता से ढल जाने की खूबी और काम की भीड़ के बीच सृजनात्मक बनाए रखने की काबिलियत ने ही उशे सशक्त किया है जबकि उसके इन गुणों को सदियों से दबाया जाता रहा है।
आज संसद से लेकर सड़क तक, अखबार से लेकर अंतरिक्ष तक हर जगह औरत ने ऊंचाइयाँ नापी है। अपने इस संघर्ष में वह परिवार, पति, बच्चे, कार्यालय और खुद को अपने स्तर पर सामंजस्य बनाने का प्रयास करती नजर आती है। राजनीति, मीडिया, साहित्य, फैशन, ग्लैमर, फ़िल्म, साइंस, टेक्नॉलॉजी, शिक्षा, व्यापार, न्यायालय, अर्थव्यवस्था, इंडस्ट्री, कॉर्पोरेट, सर्विस सेक्टर से लेकर ब्यूरोक्रेसी तक धीरे-धीरे उच्च पदों की ओर बढ़ रही है। फोर्ब्स मैगजिन द्वारा तैयार दुनिया कि टॉप 50 कॉर्पोरेट महिलाओं की लिस्ट में शामिल दो भारतीय नाम हर भारतीय के लिए गौरव सिद्ध हुए हैं। ये सभी भारतीय महिलाएँ बदलती तस्वीर और तेवरों की प्रतीक हैं। महिलाओं की सफलता से गाँव भी अछूते नहीं हैं। पंच, सरपंच, मुखिया, प्रधान, महापौर, उपमहापौर जैसे पदों पर महिलाओं ने कब्जा जमा लिया है। वे ट्रैक्टर भी चलाती हैं, आॅटो रिक्शा भी और टैक्सी भी। 26 जुलाई, 2004 को मुंबई में आई बाढ़ में फंसी एक बस को, ठाणे में एक महिला ने चलाकर सबको सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया जबकि बस का ड्राइवर बस छोड़कर अपनी जान बचाकर भागा था।
यह सच है कि हिन्दुस्तानी महिला कि दुनिया तेजी से बदल रही है लेकिन उसके लिए सभी चीजें आसान और अ्नुकूल हो गई हों, ऐसा भी नहीं है। आज भी सामाजिक पूर्वाग्रहों के साथ-साथ उत्पीड़न, शोषण, दहेज हत्या, बलात्कार, लिंग भेद जारी है। यह ज़रूर है कि अब उशकी हिम्मत और जिजीविषा उठान पर है। घर और परिवार दोनों मोर्चों पर तालमेल बैठाती, आत्मविश्वास से भरी और नित नई चुनौतियों का सामना करने को तैयार है इक्कीसवीं सदी की औरत।
लेकिन भारत के ही कई राज्यों में क्षेत्रीय असमानता के पहलू भी सामने आए हैं। पब्लिक सेक्टर में बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में महिलाओं की भागीदारी काफी कम है। इस मामले में केरल, तमिलनाडु और मिजोरम की महिलाएँ बेहतर स्थिति में हैं। आंकड़ों से सिद्ध होता है कि असम में निजी सेक्टर में महिलाओं की भागीदारी लगभग 50 फीसदी है। असम 27 राज्यों की लिस्ट में पहले स्थान पर है। इस लिस्ट में सबसे निचले पायदान पर बिहार है। जहाँ महिलाओं की भागीदारी महज 6.83 फीसदी है। पब्लिक सेक्टर में केरल 30 फीसदी महिलाओं के साथ सबसे आगे है। इस मामले में भी बिहार करीब 7 फीसदी महिलाओं की भागीदारी के साथ सबसे निचली पायदान पर है। ये आंकड़े साफ तो बता रहे हैं कि देश में लिंग समानता के मामले में क्षेत्रीय असमानता कि गहरी खाई मौजूद है। क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि महिलाओं की स्थिति पहले से तब बेहतर होगी जब निवेश और निजीकरण का सिलसिला तेज होगा और बाजारवाद के दायरे में देश के पिछड़े इलाके भी आएंगे। लेकिन यह सब अपने आप नहीं होगा। उसके लिए पिछड़े इलाकों के राजनेताओं को अपनी सोच बदलनी होगी। सिर्फ़ बाजारवाद के सहारे लिंग समानता जैसे संवेदनशील मुद्दे का हल नहीं खोजा जा सकता। मिसाल के तौर पर हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र जैसे विकसित माने जाने वाले राज्यों में, महिलाओं की न केवल भागीदारी कम है, बल्कि ये राज्य लिंग अ्नुपात के मामले में भी काफी नीचे हैं। जिन राज्यों में महिलाएँ तेजी से उभर रही हैं वहाँ उन्हें लेकर रूढ़िवादिता नहीं है। इन राज्यों की सरकारें लिंग समानता को लेकर काफी संवेदनशील है। इसी का नतीजा है कि इन राज्यों की अधिकतर महिलाएँ आर्थिक रूप से आजाद हैं और विकास के रास्ते पर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। अगर देश में लिंग अनुपात को सही करना है तो लड़कियों को शिक्षा और महिलाओं को काम देना होगा।
राजस्थान राज्य महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष डॉ. पवन सुराणा का कहना है कि महिलाएँ अब समझ गई हैं कि वह डरकर सुरक्षित नहीं रह सकती बल्कि अपनी सूझबूझ और हौसले से इन सामाजिक कुरीतियों और असमानताओं को चुनौती देना ही कारगर उपाय है। उनमें जागरुकता आ रही है और वे खुलकर सामने आने लगी हैं।
विश्व स्तर पर स्त्री जागरूकता ने समाज को बदल डालने की मुहिम छेड़ रखी है। यह बात सिद्ध होती है नोबल शांति पुरस्कार से नवाजी गई चौंसठ वर्षीया बंगारी माथई के जीवन संघर्ष को जानकर जो पूर्वी अफ्रीकी देश केन्या में ही नहीं समूचे अफ्रीका महाद्वीप में नारी शक्ति का प्रतीक बन चुकी हैं। 1980 के दशक में बंगारी माथई अपने पति से तलाक के पश्चात कोने में बैठकर आंसू बहाने और अपनी ज़िन्दगी को कोसने जैसे हालात को नकारकर ज़िन्दगी को संवारने में जुट गई। तमाम संघर्षों को झेलते हुए उन्होंने पीएचडी की डिग्री ली और नैरोबी यूनिवर्सिटी में विभागाध्यक्ष बनने वाली पहली महिला बनीं। इससे पूर्व वे अमेरिका में केनसस और पीटर्सबर्ग में पढ़ी और विदेश में पढ़ाई लिखाई के अनुभव ने उनका नजरिया बदला। अमेरिका में जार्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय के इन्स्टीट्यूट फॉर वुमेन्स पॉलिसी रिसर्च द्वारा किए गए एक अध्ययन से उन्होंने जाना कि अमेरिकी महिलाओं ने कामकाजी स्थल पर भले ही बराबरी हासिल कर ली हो पर पुरुषों के समान वेतन पाने में अभी भई उन्हें लंबा संघर्ष करना पड़ेगा। इन अनुभवों ने उनके बुनियादी क्षितिज को और विस्तृत किया और अफ्रीका विशेषकर उनके अपने देश के लोगों का जीवन स्तर सुधारने के लिए पर्यावरण, स्त्री और विकास जैसे मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए प्रेरित किया। स्वदंश लौटने पर उन्होंने देखा कि गरीब औरतें दूर-दूर से पानी लाने और जलाऊ लकड़ी के जुगाड़ में अपना दिन भर का समय गंवाने को मजबूर हैं। बंगारी माथई ने इन औरतों को संगठित किया और कहा कि जलाऊ लकड़ी के लिए दूर-दूर जाने से अच्छा है अपने घरों के आसपास पेड़ लगाओ। देखते ही देखते उनका यह ग्रीन बेल्ट मूवमेंट इतना अधिक बढ़ा कि आज उसमें चार हजार नर्सरियाँ शामिल हैं और वे दो करोड़ पेड़ लगवा चुकी है। इससे गरीब औरतों को रोजगार मिला, पर्यावरण की रक्षा हुई। उन्होंने औरतों के सशक्तिकरण का आंदोलन भी चलाया। इस आंदोलन में कई बार उन्हें जेल भी जाना पड़ा। उनके अपूर्व साहस, दबंग तेवर और काम के प्रति घनघोर निष्ठा कि वजह से आज केन्या के आम लोग अपनी बेटियों को माथई जैसा बनाना चाहते हैं। आज भी वहाँ गाँव की किसी लड़की द्वारा उच्च शिक्षा ग्रहण करना, विदेश में अध्ययन करना और एक विराट आंदोलन खड़ा कर देना असाधारण बात है। माथई परित्यक्ता है। दुर्भाग्य से एक पारंपरिक समाज में यह बात स्त्री के खिलाफ साबित होती है, लेकिन माथई अपने देश की स्त्रियों की आशा है। नोबल शांति पुरस्कार का सम्मान न केवल माथई का सम्मान है बल्कि विकास की मौजूदा अवधारणाओं की सीमाओं की तरफ भी एक स्पष्ट संकेत है।
हमारे यहाँ पहाड़ों की स्त्री का जीवन भी बेहद कठिन है। उसे भी जलाऊ लकड़ी को जुटाने में बहुत खटना पड़ता है। बढ़ती आबादी और निरंतर कम होते जंगल जो कि अब मात्र 33 प्रतिशत रह गए हैं। हमारे यहाँ भी 1970 के दशक में गौरा देवी ने पेड़ से चिपक कर और ये जंगल हमारे मायके जैसे हैं का नारा देकर चिपको आंदोलन का सूत्रपात किया था। लेकिन विडंबना देखिए... उसी पहाड़... उसी जम्मू कश्मीर के कानून में औरत निशाने पर है। जहाँ औरतों के खिलाफ स्थायी निवास अयोग्यता बिल पास करने की पेशकश की गई। हालांकि यह बिल पास होते-होते रह गया। सवाल यह है कि ऐसा बिल बनाया ही क्यों गया? औरतों की हैसियत से जुड़े इस बिल ने पुरुष मानसिकता को खुलकर सामने रखा है। यह बताया है कि औरतों से दोयम दर्जे का बर्ताव किया जाना चाहिए। काश। कश्मीर के नेताओं ने महिलाओं को अपनी बेटियों की नजर से देखा होता। यह महसूस किया होता कि इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुके भारत में औरतों ने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति और कठोर श्रम से उन मुकामों को छू लिया है जहाँ तक पहुँचने में आदिकाल से उनके पैरों में बेड़ियाँ डाली गई हैं। संसार विकसित हो रहा है, समाज भी सभ्य होता रहा है पर स्त्री के साथ भेदभाव की मन: स्थिति आखिर सुधरती क्यों नहीं? क्यों ऐसे कानून बनाए जाते हैं? क्यों पुरुषवादी नजरिया नहीं बदलता? आखिर कब तक हम इसे देश और स्त्री का दुर्भाग्य कहकर टालते रहेंगे?
स्त्री जब उभरती है, सशक्त होती है तो उसके रास्ते के रोड़े फूल बन जाते हैं। पुरुषवादी नजरिया भले ही इसे नजरअंदाज करे पर स्त्री इतिहास रचती है। बंगारी माथई तो नोबल पुरस्कार पाने के कारण पूरी दुनिया कि नजरों में आई पर कुछ स्त्रियाँ गुमनाम रहकर भी सुर्खियों में आने के काम कर रही हैं। गुजरात राज्य में एक छोटा-सा औद्योगिक शहर है-मोरबी जिसने महिला सशक्तिकरण का अद्भुत नमूना पेश किया है। इस शहर के विकास में विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत महिलाओं ने पुरुषों को पीछे छोड़ दिया है। हर तरह की औद्योगिक इकाइयों में महिलाओं का प्रभुत्व है। यही नहीं बल्कि वे तो सड़क पर दौड़ते निजी, सरकारी, गैरसरकारी वाहनों पर चालक की सीट पर विराजमान हैं।
दुनिया कि सबसे बड़ी घड़ी निर्माता कंपनियों में से एक एलोरा टाइम लिमिटेड की फैक्टरी में महिलाओं का ही वर्चस्व है। इस कंपनी की 90 फीसदी कामगार महिलाएँ ही हैं। सूत्रों के मुताबिक इस कंपनी में पांच हजार महिलाएँ काम करती हैं और इनमें से अधिकांश ग्रामीण महिलाएँ हैं। हेलमेट लगाए और हाथ में टिफिन लटकाए महिलाओं को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इस शहर में विकास के हर क्षेत्र में महिलाओं ने पैठ बना ली है। मोरबी के दर्जनों संयंत्रों में महिलाओं का दबदबा है। इंजीनियरिंग, इलैक्ट्रॉनिक्स, कॉस्मेटिक्स आदि इकाइयों में महिला कामगारों को छोटे से लेकर बड़े पदों पर आसीन देखा जा सकता है। ये महिलाएँ भले ही अधिक पढ़ी-लिखी नहीं हैं, लेकिन इनकी सूझबूझ और दक्षता कि तारीफ करते पुलिस अधिकारी भी नहीं थकते। पेशे से बस ड्राइवर भावना ने आईएएनएस को बताया कि पिछले पंद्रह वर्षों से मैं एक कंपनी की गाड़ी चला रही हूँ। मुझे मजा तब आता है जब मैं सड़क पर किसी पुरुष ड्राइवर से होड़ लेती हूँ।
क्या महिलाएँ अपनी ईमानदारी और कर्मठता से वैदिक युग लौटा पाएंगी? जब पुरुष प्रधान समाज में वे पूर्ण स्वतंत्रता से मान सम्मान भरा स्वस्थ जीवन गुजारती थीं। निश्चय ही वह समय शीघ्र आएगा। क्योंकि अब पुरुष भी उसकी मुश्किलों को समझने लगा है और युवा पीढ़ी की मानसिकता बदल रही है। कवि विजेन्द्र के शब्दों में...
अंदर ही अंदर झेल रही है
धरे कंठ में विष को
खेल अनूठा खेल रही है
साहस है उसका माटी
लू, बर्फाद, ओले, गर्जन
जो भी आए, आए...