नौ बच्चों की मां / कृष्णकांत / भाग 1
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सूरज की दस्तक पर जमाना जागा तो ननका भी जाग गयी और उसके भीतर की बेचैनी भी। बिस्तर से उठकर वह बाहर आयी और इधर-इधर देखा कि हो सकता है जुगनू रात में घर आया हो और कहीं सो रहा हो। बरामदे में, दालान में सभी जगह देख आयी। इधर-उधर निगाहें दौड़ायीं, वह कहीं नहीं था। सूरज की पदचाप नजदीक आती जा रही थी और उजाला धीरे-धीरे अंधेरे को निगल रहा था। लोग एक और दिन जीतने के लिए तैयार हो रहे थे। ननका बेचैन-सी अंदर-बाहर कुछ एक बार आयी-गयी और फिर दरवाजे पर झाड़ू देने लगी। वह बड़बड़ाती जा रही थी-आखिर कहां गये? क्या उन्हें घर की चिंता नहीं सताती होगी? बिना बताये ऐसे क्यों चले गये? ऐसा तो नहीं कि गांव वाले जो अफवाह उड़ा रहे हैं, वह सही हो? अब तक जितना दुख दिया था, वह क्या कम था कि अब ऐसा भी दिन देखना पड़ेगा? और वह चुड़ैल! जाने किस माटी से बनी है कि दूसरे का बसा-बसाया घर उजाड़ने में उसे संकोच नहीं होता?
पड़ोस में रहने वाली आरती लोटे में पानी लिए मैदान जाने को उधर से गुजरी तो पूछा लिया- अरे चाची! क्या हो गया, किस पर बड़बड़ा रही हो सुबेरे-सुबेरे?
ननका बोली- क्या होगा क्या? भगवान सब कुछ दे पर निखट्टू-आवारा मरद न दे। इससे भला है कि रांड़ ही रहो। सात दिन गुजर गये हैं ये अभी तक घर नहीं लौटे। जाने कहां कमाई करने गये हैं।
आरती बोली- पता नहीं लगाया कहां गये?
-पता क्या लगाना, उसी आवारा सरिता के चक्कर में होंगे कहीं। ढूंढ तो आयी... किसे पता कहां हैं? ये दर्जन भर छेवने और इतना बड़ा घर बार, सब छोड़ कर बुढ़ापे में इश्क फरमा रहा है कुत्ता। आने दो लौट कर फिर बताती हूं। आरती दबी-सी हंसी हंसती हुई आगे निकल गयी और ननका बड़बड़ाती हुए झाड़ू लगाती रही।
गांव के सभी लोग जानते हैं जुगनू का अड्डा सुखराम चैधरी की चैपाल है। अगर वह घर पर नहीं है तो वहीं होगा। सुखराम और जुगनू बचपन के दोस्त हैं और गांव वालों के मुताबिक, दोनों एक कान से सुनते हैं, एक ही आंख से देखते हैं। सुखराम की चैपाल उस इलाके की सबसे मशहूर अड्डेबाजी की जगह है। जहां पर तमाम लोग सारा दिन आते जाते रहते हैं। चिलम सुलगती रहती है और ठहाके उड़ते रहते हैं। उस चैपाल का अपना गौरवशाली इतिहास है जहां खपरैल की बल्लियों में तीन पीढि़यों से उड़ाया जा रहा चिलम का धुआं चिपका हुआ है। जुगनू और सुखराम के अलावा तमाम गांव वाले उस चिलम-परंपरा को बिना किसी व्यवधान के निभाते आ रहे हैं। जुगनू का बारह तेरह साल का वैवाहिक जीवन भी उसे इतना व्यस्त नहीं कर सका, कि उसका यहां आना-जाना कम हो पाता। वह जब कभी घर से गायब होता, तो सुखराम की चैपाल से ही बरामद होता।
जुगनू के घूमने और कई-कई रोज घर से गायब रहने को लेकर ननका बेपरवाह रहती। उसके मायके में भी इससे इतर कुछ कहां है? उसका बाप भी तो यूँ ही घूमा करता है और घर-बाहर के सारे काम मां के जिम्मे होते हैं। यह तो हर घर की रवायत है। मरद दो चार मेहनत के काम कर लेता है तो घर की औरतों पर हनक जमाता है और घर का सारा बोझ औरतों पर डाल देता है, वही जुगनू भी करता।
ननका यदा-कदा यूं ही पूछ लिया करती- कहां रहते हो सारा दिन? वह घुड़क देता- अपने काम से काम रखो। ननका चुटकी लेती- हां, क्यों नहीं? हम काम से काम से रखें और तुम इधर-उधर मुंह मारते फिरो। तुम्हारे खानदान भर का बोझ ढोने का ठेका हमी ने तो ले रखा है! इस पर जुगनू कहता- बड़ी बैरिस्टर मत बनो। जाओ भागो यहां से, अपना काम करो और बात टल जाती।
जब ननका की शादी हुई, उस समय वह पंद्रह बरस की थी। चेहरे-मोहरे से कुछ ज्यादा ही मासूम थी इसलिए बारह-तेरह की दिखती थी। व्याह कर ससुराल आयी तो कुछ दिन तो जैसे उत्सव का माहौल रहा। सब निहाल थे। जुगनू की मां गांव भर में जा-जाकर अपनी पतोहू का बखान करती। दुल्हन दिखाने के लिए औरतों को पकड़-पकड़ लाती। वे ननका की तारीफ करतीं- अरे भगवान, दुल्हन तो एकदम बिजली है। इस पर वह बल्लियों उछल जाती।
जुगनू भी तब उसे जैसे सर आंखों पर रखता। जब तक घर में रहता, बस ननका के आगे-पीछे लगा रहता। ननका को लगता कि ससुराल में सभी उसको बहुत प्यार करते हैं। मगर यह उत्सव बस थोड़े दिन का था। कुछ ही दिनों में धीरे-धीरे करके घर से लेकर बाहर तक की सारी जिम्मेदारियां ननका के सिर आ पड़ी। उधर, जुगनू की आवारागर्द जीवनचर्या में कोई बदलाव नहीं हुआ। उसकी घुमक्कड़ी और अड्डेबाजी वैसे ही जारी रही, जैसी चली आ रही थी। ननका कुछ बोलती नहीं, क्योंकि वह जानती थी कि वह कुछ बोले भी तो उसकी बात सुनी नहीं जाएगी।
दो-एक महीने में ही सारे घर का बोझ ननका के सिर आ पड़ा। वह घर में चूल्हा-चैका करती। बाहर पशुओं की देखरेख करती। घर के सब काम तो निपटाती ही, यदि कहीं से मजदूरी मिलती तो जुगनू के साथ वहां भी हाथ बंटाने जाती। धीरे-धीरे गृहस्थी के भार से उसके कंधे झुकने लगे। अपनी स्त्रियोचित कोमलता को मार कर भी वह कितनी ताकत, कितनी क्षमता जुटा सकती है? कभी-कभी लगता कि जैसे वह अपने नाजुक हाथों से पहाड़ धकेल रही हो। वह थक कर निढाल हो जाती। इस घड़ी में उसका साथ देने वाला नहीं होता।
दो बच्चों का बाप बनने के बाद जुगनू को दारू पीने की लत लग गई। अब वह रोज ही नशे की हालत में घर आने लगा। घर आकर वह तरह-तरह की वहशियाना हरकतें करता। ननका उसे मनाने समझाने की कोशिश करती और जब वह नहीं मानता तो ननका बुत बन जाती और जो वह करता उसे करने देती। तोड़-फोड़ से लेकर मारपीट तक सब होने लगी। ननका असहाय-सी मन ही मन कुढ़ती रहती और चुपचाप देखती रहती और बहुत बार वह खुद उसका शिकार हो जाती। घंटों उसका तमाशा चलता रहता और जब वह थककर सो जाता तो ननका खूब रोती। वह रात-रात भर आंगन में बैठी रहती और वहीं जमीन पर सो जाती। कुछ ही दिनों में उसके जीवन के जो सबसे नाजुक क्षण थे, वे नरक जैसे लगने लगे।
जैसे-जैसे रात करीब आती ननका का जी लरजने लगता कि उसके पास सोना पड़ेगा और वह जाने क्या करेगा? वह काम करके थकी होती तो उसका मन होता कि वह जुगनू के पास जाये और वह उसे बुला कर अपने पास सुला ले। वह उसके पहरे में चैन की एक नींद को तरसती रहती और जुगनू अपनी धुन में मस्त रहता। उसने कभी ननका का मन टटोलने की कोशिश नहीं की।
एक दिन गांव भर के लड़कों ने मिलकर चंदा इकट्ठा किया और चौधरी की चैपाल में निलहकी फिलम (ब्लू फिल्म) चलवायी गयी। फिल्म देख कर दारू के नशे में जुगनू घर आया और ननका से कहने लगा कि जैसा-जैसा फिलम में हीरोइन करती है, तू भी किया कर। ननका बोली- मुझे क्या पता वह क्या करती है? जुगनू बोला- मैं बताता हूं न, जो जो कहूं तू करती जा। जब ननका ने उस फिल्म के बारे में जाना तो सकते में आ गयी। वह गुस्से में उठी और कमरे से बाहर जाने लगी। जुगनू ने उसे पकड़ कर बिस्तर पर खींच लिया। वह उसे मना करती रही, समझाने की कोशिश करती रही और वह किसी आदमखोर भेडि़ये की तरह उस पर टूट पड़ा। यह रात ननका के जीवन की सबसे काली रात थी। जुगनू ने उसके कपड़े फाड़ दिये और उसे पीटते हुए घर से बाहर तक ले आया। ननका के चिल्लाने की आवाज सुनकर मोहल्ले वाले जाग गये। सब लालटेन-चिराग टार्च वगैरह लेकर दौड़े तो देखा ननका एकदम नंगी जमीन पर पड़ी है और जुगनू उसे बेतहाशा पीट रहा है। लोगों ने उसे झिड़क कर दूर किया और ननका को औरतें उठा कर घर ले गयीं।
ननका के पड़ोस में रामधन पंडित का घर था। वह उनके यहां आती-जाती थी। पंडिताइन से उसकी खूब छनती थी। अपने परिवार में जैसे-जैसे वह अकेली होती गयी, पंडिताइन से उसकी नजदीकी बढ़ती गयी। वह आकर पंडिताइन के पास घंटों बैठी रहती। पंडिताइन के छोटे-मोटे कामों में हाथ बंटा देती। एक पंडिताइन ही थीं जिससे वह अपना दुख-सुख बांट सकती थी। पंडित को इस बात से चिढ़ होती। वे पंडिताइन पर चिल्लाते- यह पंडिताइन हरामजादी सारा खानदान डुबो देगी। जो कभी नहीं हुआ वह अब हो रहा है। उस चमारिन से जाने इसकी क्या दोस्ती है। इसको धरम-करम, छूत-अछूत कुछ नहीं समझ में आता। पंडिताइन अपने घर में दबंग थीं और गरज भर की मुंहफट भी। पंडित का बड़बड़ाना उनपर कोई असर नहीं डालता था। पंडित की बातों को अक्सर अनसुना ही कर देती थीं। और यदि कभी गुस्सा आता तो कहतीं- हे पंडित-लंडित, बेचारी एक घरी को आती है तो क्या ले जाती है हमारा? घर में मन ऊबता है तो आकर बैठ लेती है, मन बहल जाता है। कौन-सा छूत उसे चिपका है जो हमें लग जाएगा? तुम्हारी माई तुम्हें ब्यानी होंगी तो सबसे पहले चमारिन ही बुलायी गयी होगी। ज्यादा पंडित मत बनो। चोर-चंडाल सबका सीधा लाते हो खाने के लिए। चमार सोना-चांदी, पैसा-रुपया दान में दे दे, तब नहीं मना करोगे और दरवाजे पर आकर बैठ जाये तो छूत लग गया? पंडित कुढ़ कर रह जाते।
ननका के चेहरे पर नाखून और दांतों के निशान हमेशा ताजा रहते थे। मुहल्ले की औरतें और लड़कियां इस बारे में कानाफूसी करतीं। कोई जुगनू को शैतान कहता तो पिशाच कहता। कुछ औरतें तो ननका को ही दोषी ठहरातीं कि रंडियों की तरह सज-धज कर रहती है तो क्या होगा? एक तो गोरी चमड़ी, ऊपर से झम्मक-झल्लो बनी रहती है। कुछ का कहना था कि यह जुगनू की नहीं, किसी और की कारस्तानी है। बहाना जुगनू का है, मगर असलियत कुछ और है। पंडिताइन ने एक रोज पूछा- तेर चेहरा हमेशा नोचा हुआ क्यों रहता है रे? उसने कहा- पहलवान मरद मिला है। उसी की मरदानगी है यह। मुझे नोच कर खाने में मजा आता है उसे। पंडिताइन ने सलाह दी- सिरहाने हंसिया रख कर सोया करो। भतार की तरह आये तो ठीक, छिछोर-बरवार की तरह आये तो एक दिन लिंग काट लो हरामी का। किसी काम का न रह जाये, बस सारी मरदानगी उतर जाएगी। दाढ़ीजार कहीं का!
पंडिताइन की नायाब सलाह पर ननका को हंसी आ गयी तो पंडिताइन उस पर भी गुस्सायीं- खीस क्या निपोर रही है छिनालों की तरह। जो कहती हूं कर, नहीं तो ये मरद सुअर की औलाद जीने नहीं देते। अरे मरद है तो साथ सोये। नोचा-नाची क्यों करता है हरामजादा? बात ननका के मन की होती, लेकिन जाने क्या था कि वह अपने मरद के बारे में बुरा नहीं सोच पाती थी।
ननका के ससुराल आने के बाद से ही मोहल्ले के जितने लड़के थे, सब ननका को ताड़ते रहते और जब दाल नहीं गलती तो किसी न किसी से उसका नाम जोड़ देते। कोई कहता पंडित के लड़के से फंसी है, तभी तो रोज-रोज जाती है उनके घर। कोई कहता ठेकेदार से फंसी है, कोई कहता चैकीदार से फंसी है तो कोई कहता पैसे लेकर चलती है। यह और बात है कि उसे किसी के साथ कभी किसी ने देखा नहीं था।
पंडित का बड़ा लड़का-रमाशंकर तो सच में यही समझ बैठा था कि ननका उसके घर उसी के लिए आती है। वह दिन भर ननका के घर के आरी-आरी मंडराता रहता। ननका जब उसके घर जाती तो भी आसपास ही रहता। ननका उसकी हरकतें समझती तो थी, लेकिन इस डर से कि किसी तरह का बवाल न हो, अनदेखा कर जाती।
एक दिन पंडिताइन ने उसे बुलाया कि थोड़ा सा चावल है, जिसमें कीड़े पड़ गये हैं। जरा आ जाओ तो मिल कर साफ कर लेंगे। वह पहुंची तो रमाशंकर बरामदे में मिल गया। बोला- आओ, आओ! तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था। आओ बैठो। ननका बात काटते हुए बोली- पंडिताइन कहां हैं?
-अरे आ जाएंगी वे भी, पहले हमसे तो मिलो। उसने करीब आकर ननका का हाथ पकड़ लिया और बोला- आओ बैठो तो सही। तुम तो हाथ भी नहीं रखने देती हो! ननका ने हाथ झिड़क दिया और वापस लौट पड़ी। इतने में पंडिताइन घर से बाहर निकलीं- अरे ननका आओ! काहे जा रही हो? रमाशंकर मां की आहट पाकर वहां से हट गया था। ननका बोली- कोई दिखा नहीं तो हमने सोचा कि बाद में आते हैं। कहते हुए पंडिताइन का पांव छुआ और बैठ गई।
रमाशंकर ऐसी हरकतें बार-बार करने लगा, पर वह क्या करे? सबके दुख पंडिताइन से बांट लेती थी, पर उनसे कैसे जाकर कहे कि तुम्हारा बेटा ही मुझ पर बुरी निगाह रखता है। कभी-कभी वह सोचती कि पंडिताइन का हंसिया वाला फार्मूला पहले इसी पर अपनाया जाये, लेकिन जाने क्या सोचकर वह हमेशा टालती रहती।
ननका के घर के बगल में एक और झोपड़ीनुमा घर था जिसमें एक काका रहते थे। उनके मां-बाप उन्हें इसी नाम से बुलाते थे और अब पूरा मोहल्ला तो क्या, पूरा इलाका उन्हें इसी नाम से जानता था। जब ननका ससुराल आई, उस समय काका दस साल की सजा काटकर जेल से आये थे। उम्र कोई पैंतीस के आसपास थी। शादी नहीं हुई थी। जब वे जेल गये थे तो उनकी एक मां और छोटी बहन थी। जब जेल से लौटे तो कोई नहीं था। मां ने बेटी की औने-पौने शादी की और खुद जहाने-फानी से कूच कर गयीं।
काका दस दरजा तक पढ़ थे और हरदम गुस्से में रहते थे, खास कर ऊंची जातियों के लोगों से। वे दस साल जेल की सजा काट कर आये थे। जेल की रहनवारी ने उन्हें और उग्र बना दिया था। वे बिरादरी वालों से कहा करते कि यह ऊंचा-नीचा, पंडित-शूद्र कुछ नहीं होता। सब साजिश है। सब इंसान एक बराबर हैं। सबको जीने खाने का हक है। किसी से दब कर रहने की जरूरत नहीं है, चाहे ठाकुर हो, चाहे बाभन। अपने इस विद्रोही स्वभाव के कारण काका हरदम ब्राह्मणों और ठाकुरों के निशाने पर रहते थे। यह गुस्सा उनमें अनायास नहीं आया था। इसकी वजह उनके तमाम भले-बुरे और बर्बरतापूर्ण अनुभव थे।
काका की उम्र 13 तेरह साल की थी, तभी बाप मर गया। बाकी बची मां और छोटी बहन, जिसका नाम कोइला था। साढ़े तीन बीघे खेत था, जिसमें हांड़ तोड़ कर मां-बेटे कुछ न कुछ उगा ही लेते थे। बाकी कुछ मजूरी-धतूरी हो जाती और उसी के सहारे गृहस्थी की गाड़ी खिसकती थी।
कोइला बेहद सीधी लड़की थी जो बहुत ही कम बोलती थी। वह स्वभाव से शर्मीली थी और घर से बाहर कम ही निकलती थी। मुस्कराती तो लगता जैसे बिजली कौंध गयी हो। उसका नाम भले कोइला भले रहा हो, पर उसकी सुन्दरता से गांव की सभी युवतियां जलती थीं। वे आपस में कहतीं- चमारिन भला इतनी सुंदर कैसे हो सकती है? पक्का किसी बांभन-ठाकुर की लड़की है, वरना इतनी सुंदर न होती। मजदूरी करती है तब भी दूध की तरह भभक्क उज्जर है। जाने क्या खाती है! गांव में जहां भी दो-चार लड़कों का झुंड इकट्ठा होता, कोइला की चर्चा जरूर हो जाती।
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