नौ बच्चों की मां / कृष्णकांत / भाग 2
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काका और उसकी मां अक्सर घर से बाहर का कामकाज देखते और कोइला घर संभालती थी। वह खेतों में कभी-कभार ही जाया करती, जब बहुत जरूरी हो। काका कहता- इतनी सुंदर बहन है मेरी, खेत में काम करने के लिए? वह शरमाकर कहती- चलो हटो... हम नहीं हैं सुंदर-फुंदर....मस्का न मारो, कोई काम हो तो बोलो? इस तरह भाई-बहन में अक्सर एक बनावटी झगड़ा ठना रहता था।
मां-बेटे मिलकर कोइला की शादी की तैयारी ही कर रहे थे कि आखिर उस पर लंपटों की नजर लग गयी। ठकुराने के कुछ लंपटों में होड़ लगी कि देखना है कोइला को कौन पटा पाता है? इसके बाद लड़कों ने खूब कूल्हा पीटा, तरह-तरह के उपक्रम किये मगर किसी की दाल नहीं गली।
गांव से लगा एक बहुत बड़ा घना-सा बाग था। झाडि़यों की आड़ के कारण गांव की औरतें उसी में नित्यक्रिया के लिए जाया करती थीं। एक रोज दोपहर में कोइला उसी बाग में गयी हुई थी। अभी वह बैठी ही थी कि ठकुराने का एक लड़का अजय अचानक आकर सामने खड़ा हो गया। कोइला हड़बड़ाकर उठी और एक हाथ से सलवार का नारा पकड़ा और दूसरे हाथ में लोटा संभाल कर भागी। अजय ने दौड़कर उसका हाथ पकड़ लिया। कोइला ने आव देखा न ताव, हाथ का लोटा अजय के मुंह पर दे मारा। उसकी नाक से खून आ गया, चोट के कारण पकड़ ढीली पड़ गयी और कोइला हाथ छुड़ा कर घर भाग गयी।
यह घटना गांव के लड़कों में काफी चर्चित हुई। जिन लोगों में कोइला को पटाने की होड़ मची थी, उनमें से कइयों ने तो अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली। बोले- अबे यार! लौंडिया है या फूलन देवी? साली मार के मुंह तोड़ देगी, कौन पड़े उसके चक्कर में....।
इस घटना पर गांव के लोग जितना मजा ले रहे थे, अजय उतना ही तिलमिला रहा था। आखिर उसने प्रण किया कि वह बदला लेकर रहेगा।
एक दिन काका खेत में निराई कर रहा था। मां ने कोइला को खाना लेकर भेजा। कोइला जब तक खेत में पहुंचती, काका दूसरे रास्ते से घर आ गया। कोइला उसे खेत में न पाकर वहीं बैठ गयी कि यहीं कहीं होगा और वह वहीं पेड़ के नीचे इंतजार करने लगी। इतने में अजय वहां आ पहुंचा। भरी दोपहरी थी। दूर-दूर तक सन्नाटा पसरा था। अजय उसके साथ जबरदस्ती करने लगा। कोइला ने भरसक अपने को छुड़ाने-बचाने का प्रयास किया, लेकिन अंत में वह हार गयी। अजय जब तक वहां से हटा कि काका आ गया। कोइला बैठी सुबक रही थी। उसके चेहरे पर खरोंचें आ गयीं थी जिससे हल्का-हल्का खून रिस रहा था। कपड़े बुरी तरह क्षत-विक्षत हो गये थे। काका ने घबराहट में इधर-उधर देखा तो कुछ दूर पर अजय जाता हुआ दिखाई दिया। काका ने घबराकर पूछा क्या हुआ तो उसने सब कह दिया। काका जिस खुरपी से निराई कर रहा था, हाथ में ली और अजय के पीछे चल पड़ा। अजय ने उसे अपनी ओर आते हुए देखा पर वह बेपरवाह था। उसने सोचा आने दो क्या करेगा? अभी तक गांव में कोई ऐसी घटना सामने नहीं आयी थी कि ब्राहमणों-ठाकुरों पर कोई चमार कभी हाथ उठाये। जबकि, उनकी लड़कियों के साथ बलात्कार होना कोई नयी बात नहीं थी। ऐसा सुनने में कभी नहीं आया कि किसी लड़की का बलात्कार हुआ हो तो बलात्कारी को किसी तरह की कोई सजा मिले। सब गांव वाले मिलकर लीपापोती कर देते और बात खत्म हो जाती।
काका तेज कदमों से अजय के पास पहुंचा और बिना कुछ कहे खुरपी से उसपर ताबड़तोड़ वार करने लगा। वह उसे तब तक मारता रहा जब तक वह थक नहीं गया। अजय का पूरा बदन छलनी हो गया। वह थोड़ी देर तक छटपटाता रहा और फिर दम तोड़ दिया।
इस घटना पर पूरे गांव के सवर्णों को पहली बार अभूतपूर्व ढंग से एकजुट देखा गया, क्योंकि सबकी एक राय थी कि अभी ही इनको दबाया न गया तो ये आफत बन जायेंगे। काका को हत्या के जुर्म में दस साल की सजा काटनी पड़ी।
ननका के मन में काका के प्रति सहानुभूति थी। वह अक्सर उनका खाना बना आती या बुला कर अपने घर खिला देती। उनका छोटा-मोटा काम कर देती। काका, ननका की बहुत इज्जत करते। कभी चिलम पी रहे हों और ननका पहुंच जाये तो वे चिलम बुझा देते। उन्हें कोई काम पड़ता तो वे ननका को बुला लेते और वह जाकर मदद कर देती। काका अक्सर ननका से कहते- जुगनू बहुत नसीब वाला है जो तुम जैसी सुंदर और कामकाजी मेहरी पाया है। हमारा नसीब लिखने में तो मालिक ने कंजूसी कर दी। वह शरमा कर वहां से हट जाती।
ननका के जीवन में जो भी परेशानियां थीं, उनकी जड़ केवल जुगनू था। अकेले उसका सहयोग न मिलने के कारण ननका को लगता कि जैसे वह कहीं घने जंगल में भटक रही है। जब तब वह घबरा उठती और झल्लाती, चारों ओर राह तलाशती, मगर करे तो क्या करे? यह बात उसे कचोटती रहती कि मरद कितना बेपरवाह होता है? अगर औरत भी ऐसी हो जाये तो? हमें चूल्हा भी फूंकना है, घर भी देखना है, पशुओं की देखरेख भी हमी को करनी है। मजदूरी करने भी जाना है। सांझ को लौट के आयें तो दिन भर का हिसाब भी देना है। क्या मर्द यह सब निबाह सकता है?
ससुराल आने के बाद जल्दी ही वह मां बन गयी थी और फिर यह सिलसिला रुका नहीं। बारह साल के भीतर उसने नौ बच्चे जने। जैसे-जैसे बच्चों की संख्या बढ़ती गयी, उसकी जिंदगी कठिन से कठिनतर होती गयी। इतने सारे बच्चों को संभालना हिमालय सर पर उठाने से कुछ कम तो बिल्कुल नहीं। उधर, जुगनू बेपरवाह। वह कभी-कभार मजदूरी के सिवा कोई और काम नहीं करता। घर पर रहता तो बस पत्नी और बच्चों को आदेश देता रहता। किसी न किसी पर चिल्लाता रहता। इसलिए जब वह घर पर नहीं होता तो ननका ज्यादा सुकून महसूस करती। वह सोचती-जब सारे काम हमीं को करने हैं तो किसी की झिड़की क्यों? मरद जितने वक्त घर पर न रहे, जी को आराम ही रहता है। काम तो एक नहीं करना, पड़े-पड़े हुकुम चलाता रहता है।
जुगनू आठवें दिन भी घर नहीं आया। ननका जाने क्या-क्या सोच रही थी कि बडी़ लड़की माया आकर ननका से बोली- गांव के सब लोग चैधरी की बहन सरिता और बाबू के बारे में उल्टा सीधा कहते हैं। कहते हैं कि दोनों का कुछ चक्कर है इसीलिए बाबू घर नहीं आते। इतना सुनते ही ननका ने उसे खदेड़ लिया- भाग यहां से हरामजादी, जो कहता हो उसी से कह दो रखवाली करे। आलतू-फालतू बातें करेगी तो खींच लूंगी जबान।
ननका ने बिटिया को खदेड़ तो लिया लेकिन उसके मन में शक पैदा हो गया। जाता तो है ही जुगनू चैधरी के यहां। आखिर कोई बात नहीं है तो फिर इस तरह वह गायब क्यों रहता है? कहां जाता है? क्या सचमुच वह.... ननका रो पड़ी।
सरिता सुखराम चैधरी की बहन है जो कि विधवा है। शादी के कुछ ही महीने बाद उसका पति एक हादसे में मर गया तो सुखराम उसे अपने घर ले आया कि दूसरी शादी कर देंगे। मगर उसने दूसरी शादी करने से मना कर दिया। वह कहती- एक बार जो हो गया, हो गया। दूसरी शादी नहीं करेंगे। हरदम बुझी-बुझी सी रहती। बैठती तो बैठी रहती। सोती तो सोती रहती। घर के लोग उसे लेकर चिंतित रहते। जुगनू का बचपन से उसके यहां आना जाना था और सरिता से उसकी अच्छी जमती थी। वह उसे बहलाने की कोशिश करता। धीरे-धीरे देखने में आया कि जुगनू रहता है तो सरिता थोड़ा खुश रहती है। इसलिए वह उदास हो या खाना न खा रही हो तो घरवाले कोशिश करके उसे जुगनू के सुपुर्द कर देते और जुगनू उसे बहला देता। इस दौरान जुगनू और सरिता की नजदीकियां बढ़ती गयीं और उनके आपस में प्रेम संबंध हो गये। इस बीच चैधरी ने गांव से थोड़ा बाहर हटकर सरिता के रहने के लिए एक चैपाल बनवा दी। अब जुगनू को उससे मिलने में कोई असुविधा भी नहीं रही।
अब तक जुगनू और सरिता को लेकर लोगों में कानाफूसी होने लगी थी। ननका इस अफवाह की पुष्टि के लिए पंडिताइन के पास गयी तो पंडिताइन पहले से ही जुगनू से खार खाये बैठी थीं, क्योंकि उन्हें सब मालूम था। बोलीं- जाकर थाने में रिपोर्ट लिखवा। वह चैधरी की बहन है न रांड़, फांस लिया है उसको। सारा दिन उसी के चक्कर मंे घूमता रहता है कुत्ता। उसी के साथ कहीं गायब है आठ दिन से। ननका के पैरों तले से तो जैसे जमीन खिसक गयी। वह फफक पड़ी। पंडिताइन ने खूब समझाया और अंततः ननका ने निश्चय किया कि अब कुछ करने की जरूरत है।
जुगनू नौंवे दिन घर लौटा। ननका ने उससे न कुछ कहा और न ही कुछ पूछा। सारा दिन उसने जुगनू से बात नहीं की। जुगनू ने जो भी पूछा या बोलने की कोशिश की तो उसने हां-हूं में जवाब दे कर टाल दिया। शाम को जुगनू ने फिर घर के बारे में हालचाल पूछा तो ननका उबल पड़ी- हमें तुम्हारी घर-गृहस्थी से कोई मतलब नहीं है। ये अपने बहत्तर अंडे-बच्चे सम्हालो और जहां मन करे जाओ जो मन करे करो। हमसे कुछ मत पूछो। बिना बताये गायब हो, इतना बड़ा परिवार है, कैसे चलेगा, इसके बारे में कभी सोचते हो? किसके दम पर घर छोड़ गायब हो गये थे? न रह पाते हो उनके बिना तो ले आओ। हम तुम्हारी लौंडी नहीं हैं कि गुलामी करें और तुम देश भर की रांड़ों के पीछे-पीछे फिरो....।
वह बड़बड़ाती जा रही थी कि जुगनू ने उसे टोका- अच्छा मुंह बंद रखो नहीं मुंह तोड़ देंगे। ननका और जोर चिल्लाने लगी। जुगनू ने इतना कुछ ननका के मुंह से कभी सुना नहीं था, न उसे इसकी आदत थी। उसने ननका की पिटाई कर दी, लेकिन ननका भी अब आरपार के मूड में आ चुकी थी। जुगनू के प्रति उसके मन में कोई लिहाज नहीं रह गया था जिसे वह रख छोड़ती। उसने जी भर गालियां दीं। वह जितनी गालियां देती जुगनू उसे और पीटता, ननका और गालियां देती। पूरे मोहल्ले के लोग जुट गये। पंडिताइन भी आ गयीं। उन्होंने बगल में पड़ा एक डंडा उठाया और जोर से गरियाते हुए जुगनू की पीठ पर दे मारा। जुगनू वहां से हट गया।
मारपीट का यह सिलसिला अब रुकने वाला नहीं था। जुगनू यदि काम पर नहीं जाता तो सरिता के यहां जरूर जाता। इस पर ननका टोका-टाकी करती और फिर झगड़ा होता। झगड़े में और होना क्या था? जुगनू उसे बेतहाशा पीट देता। इस पर ननका चीखती-चिल्लाती। जुगनू और पीटता। ननका और चिल्लाती। मुहल्ले के लोग इकट्ठा होकर तमाशा देखते। फिर कोई आकर छुड़ा देता और झगड़ा शांत हो जाता। लोग जुगनू को समझाते भी कि अब इस उम्र में यह क्या कर रहे हो? नौ बच्चों की मां है वह। उसे मारने पीटने में तुम्हें शर्म नहीं आती? लेकिन जुगनू पर किसी के कुछ कहने सुनने का जैसे कोई फर्क ही न पड़ता हो।
इस सब के बीच घर की हालत बिगड़ने लगी। जुगनू काम पर अक्सर नहीं जाने लगा। ननका अनमनी सी रहने लगी। घर में खाने पीने की किल्लत शुरू हो गयी। ये सारी मुसीबतें भी ननका के सिर आयीं, क्योंकि बच्चों को भूख लगती तो वे ननका के पास आते। किसी की तबीयत खराब है, किसी का कपड़ा फटा है, किसी के पास जांघिया नहीं है, किसी को गोलियां और चूरन चाहिए, ननका परेशान हो उठती। अब उसमें शायद इतनी ताकत नहीं बची थी कि बच्चों समझा ले जाये।
बड़ी लड़की माया अब चैदह साल की हो गयी थी। उसके बाद दो लड़के और फिर एक लड़की, ये चार बच्चे ऐसे थे जो अब मजदूरी के लिए भेजे जा सकते थे। ननका ने उन्हें काम पर भेजना शुरू किया, लेकिन बिना सीजन के मजदूरी भी कहां मिलती है? छिटपुट काम मिला तो मिला। ननका के लिए घर चलाना अब ऐसे हो गया जैसे चींटी के लिए पहाड़ उठाना।
ननका की यह सब समस्या काका देखा करता था। वह जुगनू पर भीतर ही भीतर कुढ़ता रहता। बीच-बीच में वह ननका की कुछ मदद करने की भी कोशिश करता, लेकिन ननका मना कर देती। बाल-बच्चे जिसके हैं जब उसे कोई मतलब नहीं है तो दूसरे को तकलीफ क्यों दें?
एक रोज सबसे छोटे लड़के को तेज बुखार हो आया। शाम को जुगनू घर तो आया लेकिन उसने बच्चे की ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। ननका ने माया से कहलवाया कि मुन्ने को बुखार है, तो जुगनू बात टाल कर चला गया।
लड़का चारपाई पर पेट के बल लेटा उल्टी कर रहा था। उसके पास कोई नहीं था। काका ने अपने घर से ही देखा तो आकर उसे पानी दिया और ननका को आवाज दी। वह आयी तो उसे डांटने के लहजे में बोला- क्यों नहीं इसकी दवा करातीं? मर रहा है वह तुम्हें फुरसत नहीं है?
-फुरसत है तो क्या करूं? कहां से करूं? घर में एक पैसा नहीं है। लड़का बीमार है, देखा है फिर भी जाने कहां चले गये। मरने दो, हम क्या करें। काका ने बच्चे को अपने साथ साइकिल पर लादा और डाॅक्टर के यहां ले गये।
ननका का डाॅक्टर के यहां, बनिये के यहां, सब जगह कई महीने से खाता चल रहा था और हजार-पांच सौ सबका उधार था। जुगनू से उसकी बातचीत एकदम बंद थी। ऐसे में तमाम संकोच के बावजूद वह काका से अक्सर पैसे की मदद लेने लगी। काका को भी यह अच्छा ही लगता था, क्योंकि ननका भी उसके लिए बहुत करती थी। उधर, पंडिताइन भी उसे जब-तब अनाज वगैरह दे दिया करतीं, लेकिन नौ बच्चों को किसी के रहमो-करम पर कैसे पाला जा सकता है?
एक दिन काका की तबीयत खराब थी। उन्होंने ननका को बुलाया कि कुछ खाने का इंतजाम कर दे। ननका ने काढ़ा बना कर उसे पीने को दिया और खाना बनाने लगी। काका वहीं चैखट पर बैठा चाय पी रहे थे। ननका खाना बना रही थी और दोनों बातें भी कर रहे थे। काका ने कहा- आज कल तुम बहुत कमजोर हो गयी हो।
- कौन सा सुख के दिन काट रही हूं कि मोटापा आएगा?
- वह तो छिछोरा निकल गया। अब उसकी करतूतों पर मत जाओ। तुम्हारा घर है, बच्चे हैं, हिम्मत से काम लो। जो जरूरत हो, बताया करो। किसी बात का कोई संकोच मत किया करो। मेरे कोई नहीं है। तुम्हीं सब हो, जिससे कभी-कभी सहारा मांग लेता हूं। यह कर्ज इसी जनम में उतर जाये तो अच्छा है.... कहते-कहते काका भावुक हो गये और आंखों के कोर गमछे से पोंछ लिये। ननका को ऐसी संवेदना की दरकार जाने कबसे थी। काका को रोते देख उसे भीतर-भीतर दुख में सनी हुई अजीब सी खुशी हुई। ननका भी रो पड़ी। मन हुआ जाकर काका से लिपट रहे। उदासी भरी आवाज से बोली- मेरा मन बहुत घबराता है काका। अब जी चाहता है अपने आप को खतम कर लूं। वह जोर से फफक पड़ी। काका उठ कर उसके पास आ गये। वह चूल्हे के आगे ही उठकर खड़ी हो गयी। काका ने उसके सर
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