पक्षीवास / भाग 16 / सरोजिनी साहू / दिनेश कुमार माली

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पूरा गाँव थम सा गया था। किसी के मुंह से कोई भी आवाज नहीं निकल रही थी। कोई भी घर से बाहर निकलकर नहीं बोल रहा है चलो, देख आते हैं। ऎसा लग रहा था कि किसी ‘कोकुआभय’का सन्नाटा सा छा गया हो पूरे गांव में।

उस समय तक गांव वाले पूरे साल भर का काम धन्धा खत्म कर चुके थे। सुनहरे धान के गुच्छों से कभी भरे रहने वाले आंगन आज खाली होकर सुनहरी धूप से भरे हुये थे।

अभी-अभी ही लौटी थी माँ लक्ष्मी, पूरे मार्गशीष महीने व्यस्त रहने के बाद। दिन सब छोटे और रात सब लंबी होती जा रही थी। शाम को जल्दी-जल्दी खाना खाकर, लोग रजाई गुदडी ओढ़कर सो जा रहे थे। खेतिहर किसान खुश थे कि अगले साल के लिये फसल इकट्ठी हो गयी। भूमिहीन किसान भी खुश थे कि इधर-उधर से, अगले एक महीने के लिये उनका भी जुगाड हो गया था।

अब हाथों में किसी भी प्रकार का और काम नहीं था। खेतों में भी कोई काम नहीं था, सारे खेत किसी बूढ़े की दाढ़ी की भाँति राख के रंग जैसे मलिन दीख रहे थे। काम नहीं होने से लोग ताश खेल कर समय बिता रहे थे। देखते-देखते सुबह, देखते-देखते सांझ बीतते जाते थे। गांव के मार्ग में जगह-जगह आग जलाकर लोग, बैठे बैठे इधर-उधर की बातें, हँसी-मजाक कर रहे थे।


प्रधान के आंगन से गुड़ बनाने की खुशबु आ रही थी। राह जाते हर राहगीर को प्रधान बूढ़ा बुलाकर हाथ में गुड़ का एक ढ़ेला दे देता था। केंवट बस्ती में गुडवाली लपसी बनायी जा रही थी। इधर बसंत ऋतु आने का रास्ता ढूंढ रही थी।

सवेरे-सवेरे कोहरा अपनी सफेद चादर से ढ़क देता था। पता नहीं चलता था कि पहाड़ है या जंगल। पास में से गुजरता हुआ आदमी ऐसे लग रहा था जैसे कि स्वर्ग से उतर कर आ रहा हो। धूप तो ऐसे लग रही थी जैसे किसी ने पीले रंग के पानी का छिड़काव कर दिया हो। पेड़, पौधें, पहाड़, पर्वत अपनी-अपनी चद्दर फेंककर मुंह दिखाने लगे थे। किसी ने नूरी शा के दुकान की दीवार पर, क्लब के खंभे पर, सरपंच के ट्रेक्टर पर पोस्टर चिपका दिये थे। डर-सा लग रहा था, जैसे कि ‘कल्कि’ अवतार दौडा आ रहा हो। इतनी लम्बी तलवार, अपना घोड़ा भगाते हुये, साथ में आँधी-तूफान, चक्रवात सब लेकर। ‘मलिका’ में लिखा गया है ऐसे दुर्दिन, बुरे दिनों की बातें। नक्सल, नक्सल। घेर लेंगे चारों तरफ से। पीछे-पीछे आयेगी पुलिस की फौज। उदंती नदी के किनारे में इस छोटे अगम्य गांव के पास के जंगल में से यह क्या सुनाई पड़ रहा है? बंदूको की गोलियों की आवाज। ध्यान से सुनने से सुनाई देती है जंगल की नीरव आवाज। उस नीरवता में छुपा हुआ था एक आतंक। सब आकाश की तरफ देख रहे थे। कहीं कोई लाल सा एक बादल तो नहीं छाने लगा था?

ऐसा ही कुछ लिखा हुआ था नूरी शा के दुकान में चिपकाये हुये पोस्टर पर। गाँव का चौकीदार भागा-भागा गया था थाने में। पुलिस बाबू की एक मोटर-साईकिल तत्काल दिखायी पड़ी थी गांव में। खिड़की-दरवाजा बंद करके आधे लोग, सांझ ढ़लने से पहले ही घरों में छुप जाते थे। फिर भी रात होती थी और दिन आता था। खेतों में कुछ भी काम नहीं था। आंखों से नींद उडी जा रही थी। पहले जैसे ताश के पत्ते नहीं जमते थे। सट्टे का खेल भी नहीं होता था।

गाँव की लड़कियों के कंठ से गीत नहीं निकलते थे। दोपहर के बाद रात। रात के बाद सुबह। इसके बाद दिन। इसके बाद अगला दिन। कल्कि का अवतार तो हुआ नहीं। पुलिस बाबू का भी और दर्शन नहीं हुआ।

धूल-धूसरित होकर बच्चे भी भागे-भागे फिर रहे थे। ‘नक्सल’ ‘नक्सल’ पता नहीं था, वह हाथी है या घोड़ा? नया-आविर्भाव, नया-खेल। लेकिन, बूढ़े-बुजुर्ग समझ पा रहे थे। वे लोग कुछ अंदाज भी कर ले रहे थे। नक्सल उनके लिये नया नाम नहीं था। लेकिन उनके गांव में नक्सल का यह पहला आक्रमण था।

कलंदर किसान की दारु की दुकान में गांव के लोग पांव रखना भी भूल गये थे। सामने थी ‘पुषपुनी’ त्यौहार। इसलिये, दो जरीकेन में दारु भरकर ले आया था कलंदर। लेकिन, यह क्या? आधी रात को कोई आकर ऐसा कागज चिपका कर चला गया, कि सब लोग डर के मारे अपने-अपने घर के अंदर दुबक कर बैठे रह गये।

किसका विश्वास करेगा और किसका नहीं करेगा, कलंदर? कोई कह रहा था नक्सल गरीबों का पक्ष लेते हैं। भात खाने को देते हैं, सुख देते हैं, जमीन देते हैं, जंगल देते हैं। तो फिर यह फोरेस्ट-गार्ड अपनी लाल-लाल सुर्ख आँखों से ‘नक्सल-पुराण’ सुनाकर क्यों चला गया?

“पूछो, साले, इन नक्सलियों को, उनका मालिक कौन है? धनी महाजन से लूटा हुआ माल कहाँ जाता है? अगर वे लोग भगवान है तो तुम लोग भूख से क्यों तड़प रहे हो? पूछो, तो, पूछो, उन लड़कियों को, नक्सल में शामिल होकर कितनी सती बची हुयी हैं? क्या जंगल के अंदर उनको चूस-चूसकर नहीं खा रहे है सारे मर्द?”

कलंदर जैसे कि भंवरधारा में घूमता ही जा रहा था। ये दुनिया ऐसी ही है। जितने दिन तक पेट, मुंह, और शरीर रहेगा, पाप भी रहेगा।

पुषपुनी का त्यौहार नजदीक था। कलंदर ने खुली रखी थी अपनी दारु की दुकान। बिना दारु के पुषपुनी, त्यौहार जैसा लगता भी कैसे? वह इसी इंतजार में था। सर्दी कम होती जा रही थी। पैसे वालों ने पुषपुनी के लिये तरह-तरह के स्वादिष्ट व्यंजन बना लिये थे। बच्चें गुलाबी धूप में झूनझूना बांधकर ‘छेर-छेरा’ माँगने निकल पडे थे।

सारे भूखे पेट, भूख भूल गये थे। किसिंडा में चल रहा था ओपेरा। रातभर ओपेरा देखकर लौटने वाले लोग, अपनी स्वप्निल आँखों से फिल्मी धुन पर नाचने वाली, युवती के बारे में सोच रहे थे। ठीक, इसी समय में कोई खबर लेकर आया था। चौकीदार अस्त-व्यस्त होकर दौड़ा चला था किसिंडा। छेर-छेरा मांगने वाले बच्चें गाना भूल गये थे। स्वादिष्ट व्यंजन और मिठाईयों की खुशबू उड़ गयी थी गांव के रास्तो में। नाचने वाली युवतियां भी हट गयी थी स्वप्निल आँखों से। मतलब साफ था कि नक्सल गाँव में घुस आए हैं?

उसी समय किसी ने भाग-भागकर हाँफते-हाँफते खबर दी कि जंगल में एक लाश पड़ी है। हाँफते-हाँफते उसके मुंह से कोई आवाज नहीं निकल पा रही थी। जैसे कि वह अभी-अभी कल्कि अवतार को देख कर आ रहा हो। पुलिस की जीप जंगल की तरफ धूल उडाते हुये जा रही थी। पुलिस की गाडी देखकर, गांव के लोग फटाफट घर के अंदर घुस कर दरवाजा बंद कर दिये थे।

सरसी का मन, पता नहीं क्यों, बड़ा बैचेन हो रहा था। उसका बेटा सन्यासी तो जंगल में घूमता रहता है। वहां बांसुरी बजाता रहता है। पत्थरों पर चित्र बनाता रहता है। अंतरा बोल रहा था कल्कि को आने दो। जितने पापी, अन्यायी है, वे सब मरेंगे। और बचे रहेंगे केवल गिने-चुने अच्छे लोग। सतयुग आयेगा।

दो घंटे के बाद, जंगल से जीप लौटी। दो घंटे तक बंदूक धारी पुलिस जंगल का छप्पा-छप्पा छानकर खोजबीन कर रही थी। अंत में जीप लौट आयी थी गांव को। गांव के चौपाल में धूल उड़ाते हुये, ब्रेक लगाकर रोक दी जीप को। तुरंत कई पुलिस वाले जीप से नीचे उतरे। दो सिपाहीयों ने जीप में लदी हुई लाश को निकालकर ऐसे फेंका, जैसे शिकार कर लाये हुये किसी एक जंगली सुअर को या साँभर हिरण को। ड्राइवर हाँर्न पर हाँर्न बजा रहा था। धीरे-धीरे गाँव वालों ने एक-एक करके अपने बंद दरवाजे खोलना शुरु किये। डर-डरकर धीरे-धीरे कदम बढाते हुये अपने-अपने बरामदे से नीचे उतर कर आये थे वे लोग। वे पुलिस वालों से दूर-दूर रह रहे थे, उन्होने देखा कि एक लाश औंधे मुंह पडी हुयी थी। लाश का मुँह खुला था। शरीर धूल से भरा हुआ था। लाल बनियान, खून के धब्बों से सन गया था।

पुलिस वाला चिल्ला चिल्लाकर, कह रहा था “इसको पहचानो। ये तुम्हारे गांव का लडका है या नहीं? किसका बेटा है?”

देखने वालों का शरीर काँप रहा था। मगर कोई सामने आकर उत्तर नहीं दे पा रहा था। किसी ने भागकर अंतरा को इस बात की खबर दी।

“जल्दी जल्दी चलो अंतरा, अपने बेटे को देखने के लिये।”

“कौन? मेरा बेटा डाँक्टर लौटकर आ गया क्या? कहाँ है वह?”

“तुम पहले चलो तो, जंगल से लाये है तुम्हारे बेटे को।”


आंगन में बरतन साफ कर रही थी सरसी। “क्या बोल रहा है?” कहकर बाहर की तरफ चली आयी। “जंगल से मेरे बेटे को लाये है क्या? कहाँ है मेरा सन्यासी?” कहकर सरसी उस आदमी के पीछे-पीछे भाग रही थी। अंतरा उनसे काफी पीछे था। लाठी पकड़कर धीरे-धीरे चल रहा था। और सरसी पागल की तरह दौड़े जा रही थी आगे-आगे।

“मेरा सन्यासी, मेरा सन्यासी ” पुकारे जा रही थी सरसी। “इतने दिनों तक तुम जंगल में छुप कर बैठे थे मेरे बेटे।”

गाँव की चौपाल में एक पुलिस गाडी खडी थी- सरसी ने देखा। लोगों ने गाड़ी को घेर रखा था। सरसी को देखते ही भीड़ ने दो भाग होकर रास्ता दे दिया। उसने देखा धूल से सनी हुई एक लाश को। देखते ही वह जड़वत हो गयी।

मां की ओर नहीं बल्कि देख रहा था आकाश की ओर। खुला हुआ मुंह और फटी फटी सी आँखे लेकर सरसी का वकील। सीने में जमे हुये खून के धब्बे काले पड़ गये थे। उसका बेटे का पूरा शरीर धूल से सना था। बड़ा ही जिद्दी और उद्दंड स्वभाव का था उसका वकील। किसने इसकी नृशंस हत्या की? उसके पास ऐसा क्या था? जो उसको मार दिया।


उसके शरीर की धूल झाडते-झाड़ते सरसी फफक-फफक कर रो पडी थी “मेरे वकील, मेरे वकील, रे! ” इतने दिनों के बाद सरसी ने अपने चार बच्चों में से एक का मुंह देखा। हल्की-हल्की मूँछे व दाढ़ी निकल आयी थी। कितना बड़ा हो गया था उसका बेटा। “मेरा वकील, मेरा वकील” कहकर उसने उसे अपनी छाती से चिपका लिया। अंतरा तो मानों पत्थर बन गया हो। जैसे कि वकील कह रहा हो, “तुमने तो मुझे कभी प्यार नहीं किया मेरे बाप, मेरे लिये और कभी दुख मत करना।” बुदबुदाते हुये अंतरा कहने लगा “कैसे दुख नहीं होगा, मेरे बेटे!” वास्तव में हमेशा-हमेशा के लिये उसका बेटा उसे छोडकर चला गया उससे रुठकर बहुत दूर।

पुलिस अंतरा से पूछने लगा

“ये तुम्हारा लड़का है?”

“जी।”

“तुम्हारा बेटा नक्सल में शामिल हुआ था?”

अंतरा चुप रहा।

पुलिस धमकी भरे स्वर में कहने लगी “साला, फोरेस्ट गार्ड को मारने के लिये आया था तेरा बेटा। चलो, तुम गाड़ी में बैठो।”

धूल उड़ाते चली गयी पुलिस की गाड़ी, वकील की लाश को साथ लेते हुये। अंतरा को भी साथ ले गई। गांव की चौपाल में बैठी थी सरसी। एक दम गुमसुम। आँखों में आँसू नहीं। गाँव की चौपाल में सन्नाटा छा गया था। लोग अपने-अपने घर चले गये थे। अंदर से सभी ने दरवाजे बंद कर दिये थे। ड़र का माहौल छा गया था गाँव में। थम सा गया था गाँव।

सरोजिनी साहू कृत और दिनेश कुमार माली द्वारा हिन्दी में अनूदित उपन्यास "पक्षीवास" समाप्त