पगहा जोरी-जोरी रे घाटो / रोज केरकेट्टा

Gadya Kosh से
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जमादोहर गिरजा टोली का स्कूल घर चट्टान पर बना है। बीस वर्ष पहले तक इस स्कूल में तीन-चार कोस दूर से बच्चे पढ़ने आते थे। स्कूल के चारों ओर भदरा जैसा था। उसी के आसपास सीध, कोरोय, भड़अ और केन्दू के पेड़ भरे पड़े थे। गाँव के बच्चे स्कूल के निकट ही गाय-बकरी चराने के लिए लाते थे। एक ही बोखा मास्टर थे। वे पहली से तीसरी क्लास को एक साथ पढ़ाते थे। उनका असली नाम तो इलियास था। लेकिन उनके सारे दाँत झड़ चुके थे। इसलिए बच्चे उन्हें 'बोखा मास्टर' कहते थे। स्कूल भी क्या था- एक बड़ा कमरा, जिसमें एक दरवाजा और चार खिड़कियाँ थीं।

काटुकोना, तिर्रा, कसाईदोहर, तिलगा, डोंगा टोली तक के बच्चे आते थे पढ़ने। उन दिनों शिक्षक-शिक्षिकाओं का बड़ा सम्मान था। बच्चों में तो क्या, गाँव- जवार में शिक्षकों की इज्जत थी। स्कूल के बाहर वे गाँव के शुभेच्छु होते थे। इसलिए शिक्षक किसी बच्चे की शिकायत अभिभावक से कर दें तो उसकी खैर नहीं थी। ऐसे भी बिना सख्ती किए ही बच्चे अनुशासित रहते थे। हाँ, खेल पीरियड में बच्चे बाहर खूब हल्ला-गुल्ला करते। स्कूल में गणित, हिंदी और भूगोल पढ़ाया जाता था। पहाड़े और कविताएँ रटा दी जाती थीं। हिंदी की कविताएँ अहिंदीभाषियों के मुख से सुनना अच्छा लगता था। विद्यार्थी रास्ते में पहाड़ा या कविता चिल्ला-चिल्लाकर बोलते थे। एक कविता उन्हें ज्यादा पसंद थी शायद, इसलिए वे पाठ करते-

'उठो लाल आँखों को खोलो,

पानी लाई हूँ मुँह धो लो।

पिंजड़े में तोता कहता,

अरे कौन अब तक सोता।'

बच्चों की अल्हड़ता चरवाहों को आकर्षित करती थी। इसलिए स्कूल शुरू होने से पहले ही चरवाहे अपने जानवरों को लेकर मदरा में छोड़ देते और खेलते रहते। स्कूल जैसे ही आरंभ होता, वे अपनी-अपनी जगह लेने को तत्पर हो जाते। प्रार्थना के समय विद्यार्थी पंक्ति में खड़े होकर हाथ जोड़कर गाते-

'हे प्रभु आनंददाता

ज्ञान हमको दीजिए।

लीजिए हमको शरण में,

हम सदाचारी बनें।'

सुन-सुनकर चरवाहों ने भी प्रार्थना याद कर ली थी। सो दूर जाकर वे भी प्रार्थना की पंक्तियों को दुहराते। जब विद्यार्थी कक्षाओं में बैठ जाते, तब चरवाहे बच्चे भी दरवाजे और खिड़कियों के पीछे अपनी-अपनी जगह लेकर खड़े होते या बैठ जाते। वे मास्टरजी को पढ़ाते हुए ध्यान से सुनते थे। इसी ताक-झाँक में अंदर और बाहर के बच्चों की आँखें मिल जातीं तो हँस पड़ते। मास्टरजी की नजर पड़ जाती तो छात्रों पर हलकी छड़ी पड़ ही जाती। झाँकनेवाले बच्चों को हड़काते, 'भागो बेवकूफों, प्रतिदिन यहीं चराने लाते हो। मन है तो माँ-बाप को बोलो, तुम्हें स्कूल भेजेंगे।' वे छड़ी घुमाते खिड़की तक जाते, तब तक बच्चे भाग खड़े होते। दया का स्थान निश्चित था। वह ब्लैक बोर्ड के सामने पड़नेवाली खिड़की के पीछे खड़ी हो जाती। वहाँ से मास्टरजी क्या लिखते हैं, और कैसे लिखते हैं, उसे बड़े मनोयोग से देखती। वहाँ खड़े होने का दूसरा लाभ यह था कि दया की तरफ मास्टरजी की पीठ पड़ती थी। अतः उसे मास्टरजी हड़का नहीं पाते थे। हाँ, कभी- कभी दूसरे बच्चे आते तो झाँकने के लिए धक्कम-धुक्की होती। लेकिन मास्टरजी तक आवाज पहुँचे, उससे पहले ही वे झुककर छिप जाते।

स्कूल में खेल का पीरियड होता है। यह पीरियड बच्चों के लिए सबसे आनंददायक होता। मैदान में छुवा छुवी, बाघ और बकरी, कबड्डी तथा लोका गोटी खेलते। इसमें चरवाहे भी शामिल हो जाते। चरवाहे बच्चे दौड़ने में, पटकने में छात्रों से आगे रहते। इसलिए मारपीट, टाँग पकड़कर खींचना, रोना और गाली-गलौज भी होता रहता। लेकिन सिर्फ इसी डर से चरवाहों ने वहाँ मवेशी चराना कभी नहीं छोड़ा। इसके उलट ताकतवर चरवाहे को कबड्डी में, गेंद खेलने में हर दल अपने साथ रखना चाहता। इसके लिए वे अंटा, गोटी आदि देकर दोस्ती बनाते। चरवाहे बच्चों को दोस्तों के साथ-साथ मुफ्त में कविता और पहाड़े सीखने को मिल रहे थे। लेकिन पढ़ना उनका लक्ष्य नहीं था। सो वे बीच-बीच में अपने मवेशी दूसरी तरफ भी ले जाते थे।

परंतु दया पूरे चरवाही काल में वहीं स्कूल के पीछे डटी रही। एक दिन खिड़की से झाँकने में मगन हो गई। उसके मवेशी खेत में घुस गए। गेंदो बूढ़ा का खेत था। बड़ा खच्चड़ बूढ़ा। दौड़कर खेत में पहुँचा और डंडे से मवेशियों को दौड़ा- दौड़ाकर मारने लगा। मारते-पीटते वह स्कूल अहाते में पहुँचा। वह चीख रहा था, 'किसके बैल हैं? कौन चरवाहा है? आज मैं उसके पैर तोड़कर रहूँगा। बदमाश राड़ लोग।' गेंदो बूढ़ा को यों तो बच्चे 'आजा' कहते थे, पर उस दिन उसका रौद्र रूप देखकर भाग गए। उन्होंने ही बता दिया कि दया के मवेशी हैं। वह तो उन्हें खेत में छोड़ देती है। आप जाकर खिड़की के पास खड़ी रहती है।

दया बिल्कुल मगन होकर मास्टरजी की लिखाई देख रही थी। गेंदो आजा ने चार सोंटी उसे लगाए तो वह दौड़ने लगी। दया जोर-जोर से रोती भी जा रही थी। दया के रोने से क्लास में व्यवधान पड़ा। जैसा होता है, लड़के उठ-उठकर झाँकने लगे। कुछ 'बाहर छुट्टी' माँगकर बाहर निकल आए। तब तक गेंदो आजा अपना रास्ता नापने लगे थे। मास्टर बोले, 'तुम भी दया रोज यहीं चराने लाती हो। कल से दूसरी तरफ ले जाना। पढ़ने तो आती नहीं हो। पढ़ाई में खलल डालती हो। मत लाना कल से इधर चराने। ले जाओ, ले जाओ अपने बैलों को।' मास्टरजी डाँटने के बाद कक्षा में चले गए।

उसी स्कूल की तीसरी कक्षा में दया का बड़ा भाई और दोनों छोटे भाई लिटिया और पहली कक्षा में पढ़ते थे। जब दया पिट रही थी तो बड़े भाई को शर्म आ रही थी। क्योंकि लड़के उस वक्त दया के बड़े भाई की हँसी उड़ा रहे थे। स्कूल समाप्त होने के बाद वे घर गए। वहाँ उन्होंने अपनी माँ को दया के बारे में आज की पूरी घटना बता दी और तीनों शाम को लालटेन लेकर पढ़ने बैठ गए। दया ने शाम को मवेशियों को बाँधा। इसके बाद घर के काम में माँ की मदद की। उसकी माँ बड़े प्रेम से बोलने लगी, 'बढ़िया से धान उसना- बरकाना सीखो बेटी। तुम्हारी सास तुम्हें बहुत प्यार करेगी, लेकिन दया अपने पढ़ रहे भाइयों के पीछे जाकर खड़ी हो गई। उसके भाई चिल्लाने लगे, 'देखो माँ, काम के डर से दया, इधर आकर खड़ी हो गई है। कोढ़नी कहीं की!' दया ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। चुपचाप आकर काम में जुट गई।

वर्ष बीता। बड़ा भाई लोअर पास करके दूसरे स्कूल में चला गया। छोटा भाई लिटिया पहली और मझला भाई दूसरी कक्षा में पढ़ने लगे। तभी पता नहीं दया को भी कौन सी धुन सवार हो गई। जनवरी का महीना था। कड़ाके की ठंढ पड़ रही थी, लेकिन दया के माता-पिता का पसीना छूट रहा था। कारण दोनों भार से और सिर पर धान ढोकर बाजार बेचने ले जाते थे, क्योंकि उन्हें तीनों बेटों के लिए नई पुस्तकें और कापियाँ लेने के लिए पैसों की जरूरत थी। दया भी प्रति शाम अपनी माँ को कहने लगी, 'मैं भी पढ़ेंगी'। जब-तब दया इसी की रट लगाने लगी।

एक दिन दया के माँ-बाप किताबें खरीदकर लौटे। शाम हो गई थी। दया की माँ सुफिया दालान में सुस्ताने को बैठी। रसोई में दया खाना बना रही थी। वह माँ के पास आकर बैठ गई। बोली, 'मेरा भी नाम स्कूल में लिखा दो। अपने बेटों को तो पढ़ाती हो। मुझसे सारा काम कराती हो।' माँ बोली, 'पढ़के क्या करोगी। विवाह होगा तो ससुराल में भी चूल्हा फूँकोगी। काम सीखो बेटी। सिखलाही बहू को सास भी प्यार नहीं करती है। सास को तो कमनी बहू चाहिए। पागल मत बनो।'

पता नहीं चुप रहनेवाली दया पर जिद कैसे सवार हो गई! उस शाम के बाद दया ने माँ की शांति भंग कर दी। कभी दया कहती, 'बेटों को पढ़ा रही है। एक गिलास पानी तक नहीं पिलाते हैं, उनको पढ़ा रही है।' कभी माँ पैर दबाने को कहती, बेटी तुरंत कहती, 'अपने बेटों से दबावाओ। कभी दया कहती, 'मेरा विवाह हो जाएगा तो इस घर के दरवाजे पर दोबारा पैर नहीं रखूँगी।' जनवरी माह बीतनेवाला था। लेकिन दया को स्कूल भेजने के नाम पर माँ- बाप चुप्पी साधे हुए थे। पर दया ने दबाव बनाए रखा था। माघ मेला जाने की तैयारी पूरी हो चुकी थी। दया की सखियाँ भी जतरा की तैयारी कर चुकी थीं। उन्होंने दया से चलने को कहा, पर उसने इनकार कर दिया। उसने उनके साथ बोल-चाल बंद कर दी। वह उनसे दूरी बनाकर रहने लगी।

आखिर दया की सखियों ने माँ सुफिया से पूछ ही लिया, 'हाँ काकी, दया हम लोगों से क्यों बात नहीं करती है? हमने तो उसको कुछ भी नहीं कहा है?'

सुफिया काकी बोली, 'पता नहीं बेटी, आजकल किसी से नहीं बोलती है। जाने दो, कितने दिनों तक नहीं बोलेगी ?'

सुफिया को अच्छा नहीं लगा कि घर की बात बाहर जाने लगी है। उस दिन शाम होते ही बादल छा गया। माघ ढुंढुर। ठंढ बढ़ गई।

बूंदे पड़ने लगीं। माँ ने दया को खूब फटकारा। कहा, 'आखिर और लड़कियाँ भी तो स्कूल नहीं जाती हैं! लेकिन घर में हँसी-खुशी से रहती हैं।'

दया, 'हाँ, लेकिन तुम तो अपने बेटों को स्कूल भेजती हो।' माँ, 'तुम बेटा होती, तो तुमको भी भेजती।'

यह सुनकर दया को गुस्सा आ गया। बोली, 'तुम तब भी मुझे नहीं भेजती। मुझे चरवाही के लिए ही भेजती। तुम मुझे प्यार नहीं करती हो।' दया यह सब बोलते हुए उठी। पीढ़े को लात मारी। सूप को पटका और लोटे को लात मारकर सीधे बिस्तर पर चली गई। और वह मुँह ढँककर सो गई। दया की माँ ने उस रात अपने पति मनुवेल को सारी बातें बताईं।

सुबह हुई। सब अपने-अपने काम में लग गए। कलेवा के समय पिता ने दया से कहा, 'बेटी, इस वर्ष तो नहीं, लेकिन अगले वर्ष मैं जरूर तुम्हारा नाम स्कूल में लिखा दूँगा। माघ बीत गया। धांगर भी नहीं खोज सका। इस वर्ष भर तुम चरवाही करो। तब तक शायद धाँगर मिल जाएँगे।'

दया रोने लगी। रोते-रोते बोली, 'तो मुझे धाँगर बना रहे हो ?'

पिता, 'नहीं। मैं तो तुम्हारे नाम खेत लिख देता।'

दया, 'मैं तुम्हारा दिया खेत भी नहीं लूँगी।' पिता, 'गहिरन खेत लिख दूँगा। चालीस काठ धान होता है, उसे लिख दूँगा।'

दया, 'मुझे स्कूल जाना है, बाबा मैं पढ़ना चाहती हूँ।'

पिता, 'ठीक है बेटी। मैं तुम्हें समझा नहीं सकता। तुम स्कूल ही जाना। लेकिन अगले वर्ष ही जा सकोगी। अब खुश ?' आकाश शाम तक साफ हो गया था। सूरज फूलकर डूब रहा था। यानी कल सूरज निकलेगा। दया थोड़ा सा मुसकराई और मन से काम में जुट गई।

वर्षा ऋतु आई। दया फिर मवेशी लेकर स्कूल अहाते में ही पहुँचने लगी। उसने उत्तर दिशा की खिड़की पर अपना अधिकार जमा लिया। सुन- सुनकर सौ तक गिनती सीख ली। पहाड़े याद कर लिये। अन्य चरवाहे भी उसके साथ सीखने लगे। वे सारे लोग जहाँ-तहाँ कविता बोलते, पहाड़े बोलते। पर एक फर्क था। अन्य लोग कान से सुनकर सीख रहे थे, दया बोर्ड में लिखते हुए देखती और मैदान में बालू पर अपने चरवाही डंडे से लिखती। अक्षर बालू में सुंदर उभरते। इससे वह और प्रसन्न होती। कभी-कभी अकेले चराने लाती, तब पूरा मैदान उसका अपना होता। वह मैदान में गिनती, पहाड़ा, वर्णमाला लिख-लिखकर भर देती।

दिन गुजरते देर नहीं लगती। वर्ष अपने अंतिम छोर पर पहुँच रहा था। शरद ऋतु आ गई थी। खेत के धान सुनहले हो चुके थे। ठंढ पड़ने लगी थी। खेतों में कटाई-ढुलाई में लोग लगे थे। वच्चों की वार्षिक परीक्षा सामने थी। बच्चे उत्तीर्ण होने के लिए मनोयोग से पढ़ रहे थे। ठीक वैसे ही जैसे कबूतरों का झुंड गिरह मारकर खेतों में चुगने के लिए उतर रहा था। दोपहर ढलने लगी थी। तभी ऊँचे आकाश में उड़ते पक्षियों की लंबी कतार दिखी। पक्षी दक्षिण की ओर उड़ रहे थे।

काँ-को के शोर से आसमान आंदोलित था। चरवाहे बच्चों ने आवाज सुनी। एकाएक वे चिल्लाने लगे, 'पगहा जोरी-जोरी रे। घाटो संखो किनारे, कोइलो किनारे उतरेले घा-टो।' बार-बार बच्चे दुहरा रहे थे। कुछ बच्चे चिल्लाते हुए दौड़- दौड़कर घासों की सात गेंठ लगाने की कोशिश करते रहे। एक साँस में सात गेंठ लगाना था न। तभी तो घाटो वहाँ आकाश में चक्कर काटेंगे! नहीं तो वे उड़कर दूर चले जाएँगे।

चरवाहों की आवाज सुनकर अंदर के बच्चे उसुड़-फुसुड़ होने लगे। कुछ खड़े होकर बाहर ताकने लगे। कुछ बिना अनुमति के बाहर निकल गए। वे चरवाहों के साथ मिलकर, 'पगहा जोरी-जोरी रे घा-टो' गाने लगे। बड़े लड़के लघुशंका के बहाने बाहर आ गए। पूरा मैदान शोर से भर गया। स्कूल का अनुशासन समाप्त हो गया। मास्टरजी क्रोध के मारे आपे से बाहर हो गए। वे छड़ी लेकर बाहर निकले और चरवाहों पर, विद्यार्थियों पर पिल पड़े।

इधर मास्टरजी के क्लास से बाहर निकलते ही बाकी बचे हुए बच्चे भी बाहर आ गए। मास्टरजी दौड़ा-दौड़ाकर पीट रहे थे। जो भी सामने आया, चरवाहा, मवेशी, छात्रा- सब पिटे। लेकिन आज की पिटाई ने बच्चों को आह्लादित किया। जिस पर छड़ी पड़ती, भागता, मैदान में लोटता, किलकारी मारता, लोटपोट होता। पिटते ही पैरों को, बाँहों को सहलाते हुए वे मैदान में दौड़ पड़ते। वे कक्षा में नहीं जा रहे थे। मास्टरजी गुस्से में चीख रहे थे, गालियाँ बक रहे थे। लेकिन बच्चों की चीख में उनकी चीख दबकर रह गई थी। जब घाटो उड़कर दूर चले गए, तब बच्चे शांत हुए। मास्टरजी ने उन्हें कक्षा में बैठने को कहा। विद्यार्थी कक्षाओं में बैठ गए। लेकिन मास्टरजी गाय-बैलों की पिटाई करते हुए डाँट रहे थे, 'बदमाश सब, इसी जगह और इसी जगह को देखते हो तुम लोग। दूसरी जगह नहीं देखी है? पढ़ना न लिखना। राड़ लोग। घर-घर जाकर तुम्हारे माँ-बाप को बताऊँगा। कल से कोई इधर चराने जानवरों को लाया तो उसकी टाँगें तोड़ दूंगा।'

कक्षा में आकर भी मास्टरजी ने विद्यार्थियों को डाँट पिलाई। वे बोले, 'शैतान हो तुम लोग। परीक्षा निकट है सो नहीं मालूम ? घाटो घाटो कर रहे हो। वही परीक्षा पास करा देगा? आकाश में गुजराते हो गेंट बाँध के ? वह तुम्हारी बात सुनेगा कि अपने अगुवे की बात सुनेगा ? हाँ, बोलो ?' गुस्से में मास्टरजी बकते रहे। चार बजने को आया। मास्टरजी ने कहा, 'जाओ गधे लोग। घर भागो। रास्ता रास्ता चिल्लाते जाना घाटो घाटो।' मास्टरजी का आदेश हुआ और सारे बच्चे रेलम-पेल होते स्कूल से निकले और यह जा, वह जा। पूरा कैंपस खाली हो गया। एक सप्ताह तक कोई चरवाहा स्कूल के अहाते में नहीं दिखाई दिया। लेकिन दया तीसरे ही दिन स्कूल अहाते में पहुँच गई थी। वह अकेली थी और पूरा मैदान उसका था। बिना मित्रों के, अकेली दया किसके साथ खेलती ? पूरे क्लास के समय वह खिड़की के पीछे छिपकर देखती रहती। शीत से मैदान के सारे चिह्न मिट जाते। बालू समतल हो जाता। वह वहाँ जो कुछ सिखाया जाता, जाकर लिख लेती। उसने क, ख, ग तो सीखा ही, वाक्यों को भी सीख लिया। एक दिन मास्टरजी बड़े सवेरे स्कूल की ओर गए। वहाँ मैदान में सुंदर अक्षरों में लिखा देखा। उन्होंने जो पढ़ाया था, वही सब बिल्कुल सही-सही लिखा था। लेकिन वे चुप रहे। दूसरे दिन उन्होंने पगडंडी में लिखा देखा। तब क्लास में लड़कों से पूछा कि कौन मैदान में, पगडंडी में लिखता है? लड़के चिल्ला उठे, 'दया सर, दया लिखती है। दिन भर खिड़की के पास छिपकर देखती रहती है।' मास्टरजी ने याद किया, किस तरह बच्चे घाटो को देखकर चिल्लाते थे तो उन्होंने सभी चरवाहे बच्चों को, छात्रों को पीटा था। जब गेदो बूढ़ा दया को पीटकर चले गए थे, तब उन्होंने भी दया को पीटा था। उनके डाँटने से सभी चरवाहों ने मैदान में चराना बंद कर दिया, लेकिन दया सबकुछ सहती रही। उसने पिटकर, डाँट सहकर भी पढ़ना नहीं छोड़ा। मास्टरजी ग्लानि में डूब गए। दूसरे दिन शाम को वह दया के माता-पिता के पास गए। उन्होंने माँ- बाप से अरजी की कि वे दया का नाम स्कूल में लिखा दें। उन्होंने कहा कि वह स्कूल की तरफ से उसके लिए किताब-कॉपी और पेंसिल देंगे। फिर तो दया स्कूल जाने लगी। चार वर्षों की पढ़ाई उसने दो वर्षों में पूरी कर ली।

बड़ा स्कूल दूर था। दया के पिता ने कहा, 'अब बहुत पढ़ चुकी बेटी। घर में रहो।' सुनकर दया ने खाना-पीना छोड़ दिया। बस सिसक-सिसककर बिछावन पर या घर के पीछे रोती रहती। पिता क्या करे। आखिर एक दिन मनुवेल उपाय ढूँढ़ने के लिए मेरे पिताजी के पास आए। वे साथ में दया को भी लेते आए थे। पिताजी के पास पहुँचकर मनुवेल ने कहा, 'देखिए बहनोई, आपकी भगनी को। मेरी तो ताकत ही नहीं है कि इसे बाहर रखकर पढ़ाऊँ। मत पढ़ो बोलता हूँ तो सिसक-सिसककर रोती है। आप ही अब रास्ता बताएँ। मैं आपकी भगनी को आपके जिम्मे छोड़ रहा हूँ।'

पिताजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने पूछा, 'मइया कुछ काम करोगी? अपने पेट के लिए करो और पढ़ो।' बाप-बेटी दोनों राजी हो गए। पिताजी ने कहा, 'कॉलेज में पढ़नेवाली लड़कियों के लिए खाना बना देना और स्कूल भी जाना। खाना-रहना भी हो जाएगा और पढ़ने में भी वे मदद करेंगे।'

कन्या पाठशाला भी पिताजी और उनके दोस्तों के प्रयास से खुला था। दया का नाम लिखा दिया गया उसी स्कूल में। चार वर्षों तक दया कॉलेज की लड़कियों के साथ रही। मरसा, एरेन, राहिल जैसी लड़कियों के साथ रहकर काम भी सीखा, पढ़ाई हुई, सिलाई बुनाई भी सीखी और दया मिडिल पास हो गई। तभी लड़कियों का एस. एस. हाई स्कूल खुला। दया का नाम उस स्कूल में लिखा दिया गया। रहने को आदिम जाति सेवा मंडल का छात्रावास मिला। दया की किस्मत चमकी। उसे छात्रावृति भी मिली। चार वर्षों तक यहाँ रही। दया मैट्रिक पास कर ही बाहर निकली।