पत्र / बलराम अग्रवाल

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(पहला पत्र)

नवम्बर 1, 1920

प्रिय मे,

आत्मा, ज़िन्दगी में कुछ नहीं देखती सिवा उसे बचाने के जो स्वयं उसमें निहित है। यह अपने निजी क्षणों के अलावा किसी और में यक़ीन भी नहीं करती। और जब यह किसी अनुभव से गुजरती है तो प्राप्त अनुभूति इसका अपना हिस्सा बन जाती है। पिछले साल मैंने एक बात का अनुभव किया; यह कि मैंने एक राज़ को छिपाने की कोशिश की, लेकिन मैं उसे छिपा नहीं सका। मैंने उसे अपनी एक ऐसी दोस्त के सामने खोल दिया जिससे आम तौर पर मैं अपनी कोई भी बात नहीं छिपाता हूँ; क्योंकि मुझे लगने लगता है कि मैं पेट की बात को किसी के आगे उगल देने की गहरी जरूरत में हूँ। लेकिन उस राज़ को जानकर उसने पता है मुझसे क्या कहा? कुछ भी सोचे-समझे बिना वह बोली — “यह तरंगित कर देने वाला गीत है।” सोचो, कि अपने बच्चे को गोद में लिए जा रही माँ से अगर कोई यह कह दे कि जिसे वह गोद में उठाकर लिये जा रही है, वह लकड़ी का एक पुतला है, तो क्या जवाब उसे मिलेगा और उस माँ के दिल पर क्या गुजरेगी?

कई महीने बीत गए और उसके शब्द (‘तरंगित कर देने वाला गीत’) आज भी मेरे कानों में गूँज रहे हैं; लेकिन मेरी उस दोस्त को इतने-भर से ही तसल्ली नहीं हुई। उसने मुझ पर नजर रखना शुरू कर दिया और मेरी जुबान से निकलने वाले एक-एक शब्द की भर्त्सना करने में जुट गई। वह हर बात मुझसे छिपाने लगी; यहाँ तक कि मैं जब भी उसे छूने की कोशिश करता, वह अपने नाखून से मेरे हाथ को खरोंच देती। उसकी इन हरकतों से मैं लगातार हताश होता गया। मे, हताशा दिल में उठने वाले प्यार के तूफान को ठंडा कर देती है। प्रेम एक मौन आकर्षण है। यही वज़ह है कि कुछ ही समय पहले मैं तुम्हारे सामने बैठा था, एक भी शब्द बोले बिना अपलक तुम्हें निहारता हुआ; तुम पर कुछ भी लिखने की तमन्ना से विहीन; क्योंकि मेरा दिल कहता है — ‘यह मेरी औकात से बाहर है।’

हर शिशिर के अन्तस् में एक वसंत लहलहा रहा होता है और प्रत्येक रात के घूँघट के पीछे सूर्योदय का मुस्कराता चेहरा होता है। मेरी हताशा भी अब आशा में तब्दील हो चुकी है।

जिब्रान

(दूसरा पत्र)

(मे ने जिब्रान से एक बार उनके लिखने, खाने और उनकी तमाम दिनचर्या के बारे में सवाल पूछे थे। उसने उनसे उनके घर और ऑफिस के बारे में तथा उन सारे कामों के बारे में जानकारी चाही थी जो वे करते थे। उसके कुछ प्रश्नों के उत्तर जिब्रान ने निम्न पत्र में दिए थे। प्रस्तुत हैं उस पत्र के कुछ अंश।)

1920

… तुम्हारे सवाल कितने शानदार हैं मे! और इनके जवाब देते हुए मुझे बड़ा मज़ा आ रहा है। आज धूम्रपान दिवस है; सुबह से अब तक मैं पहले ही दस लाख सिगरेटें फूँक चुका हूँ। धूम्रपान मेरी आदत नहीं बल्कि आनन्द का दाता है। कभी-कभी मैं एक भी सिगरेट पिए बिना हफ्तों गुजार देता हूँ। मैंने दस लाख सिगरेटें सुलगा चुकने की बात कही। इस सब की जिम्मेदार सिर्फ तुम हो। अगर मैं इस घाटी में होता, तो अपनी कसम खाकर कहता हूँ, मैं कभी भी लौटकर नहीं…

और इस बारे में कि — ‘आज मैंने कैसा सूट पहन रखा है?’ रिवाज़ कुछ ऐसा है कि आदमी को दो सूट एक-साथ पहनने होते हैं। उनमें से एक, जुलाहे द्वारा बुना और दर्जी द्वारा सिया गया होता है और दूसरा, हाड़-मांस-लहू से बना। लेकिन आज मैं अलग-अलग रंग की बुंदकियों वाली एक लम्बी-चौड़ी पोशाक पहने हुए हूँ। यह किसी दरवेश द्वारा पहने जाने वाले चोगे-जैसी है। जब मैं वापस अपने देश जाऊँगा तब यह कुछ नहीं पहनूँगा बल्कि पुराने चलन की देसी पोशाक ही पहनूँगा।

… जहाँ तक मेरे ऑफिस की बात है, यह इस समय तक भी बिना छत-ओ-दीवार है; लेकिन बालू वाले सागर और मलय-गंध वाले सागर, दोनों ही, आज भी वैसे ही हैं जैसे वे कल थे — बहुत-सी लहरों से युक्त गहरे और तटहीन। नाव, जिनमें बैठकर मैं इन सागरों में तैरता हूँ, बिना पतवार की है। क्या तुम मेरी नाव को पतवार दे सकोगी?

पुस्तक ‘टुवर्ड्स गॉड’ छापेखाने में अटक गयी है और इसके सबसे अच्छे चित्र ‘द फोररनर’ में हैं, जिसे दो हफ्ते पहले मैंने तुम्हें भेजा था।

(उसके कुछ सवालों के जवाब देने के बाद खलील ने प्रतीकात्मक रूप से अपने बारे में लिखा।)

उस आदमी के बारे में, जिसे ईश्वर ने दो औरतों के बीच जकड़ रखा हो, तुम्हें क्या बताऊँ? उनमें से एक औरत उसके सपनों को जागरूकता में बदलती है और दूसरी, उसकी जागरूकता को सपनों में। उस इन्सान के बारे में, जिसे ईश्वर ने दो रोशनियों के बीच रख दिया हो, क्या कहूँ? वह दु:खी है या सुखी? क्या इस दुनिया में वह एक अजूबा है? मुझे नहीं मालूम। लेकिन मैं तुमसे यह जरूर जानना चाहूँगा कि क्या इस इन्सान के, जिसकी बोली को इस सृष्टि में कोई नहीं बोलता, अजनबी ही बने रहने की तुम हिमायती हो? मैं नहीं जानता। लेकिन मैं तुमसे पूछता हूँ कि क्या तुम इस इन्सान से उसकी जुबान में, जिसे तुम औरों की तुलना में बेहतर समझ सकती हो, बात करना चाहोगी? इस दुनिया में अनेक लोग ऐसे हैं जो मेरी आत्मा की आवाज़ को नहीं समझते हैं; और इस दुनिया में बहुत-से लोग ऐसे भी हैं तो तुम्हारी आत्मा की आवाज़ को नहीं समझते। मे, मैं उन लोगों में से एक हूँ, जिनके जीवन पर अनेक दोस्त और हितैषी क़ुर्बान हैं। लेकिन मुझे बताओ, कि उन संवेदनशील दोस्तों में से कोई एक भी ऐसा है जिससे हम यह कह सकें कि — “केवल एक दिन के लिए मेरी पीड़ाओं को अपने कन्धों पर ले लो।” क्या कोई आदमी है जो जानता हो कि हमारे गीतों के पीछे एक गीत ऐसा भी है जिसे बोलकर नहीं गाया जा सकता या तारों की झंकार से सुनाया नहीं जा सकता? क्या कोई है जो हमारी पीड़ा में आनन्द और आनन्द में पीड़ा देखता है?

… तुम्हें याद है मे, तुमने ब्यूनस आयर्स के एक पत्रकार के बारे में मुझे बताया था जिसने, हर पत्रकार की तरह, तुम्हारा फोटो तुमसे माँगा था। कई बार मैं उस पत्रकार के अनुरोध के बारे सोच चुका हूँ और हर बार अपने-आप से यही कहता हूँ कि — “मैं पत्रकार नहीं हूँ, इसलिए मैं वह चीज़ नहीं माँग सकता जिसे वे माँग सकते हैं। नहीं, मैं पत्रकार नहीं हूँ। अगर मैं किसी पत्र या पत्रिका का मालिक या संपादक होता तो बिना किसी संकोच के और बिना किसी घबराहट के, बड़े ही सीधे-सादे ढंग से लड़कियों से उनका फोटो भेजने को कह सकता था। लेकिन नहीं, मैं पत्रकार नहीं हूँ। क्या करना चाहिए?”

जिब्रान

मे ज़ैदी को लिखे उपर्युक्त दूसरे पत्र में जिब्रान ने अपने देश लौटने पर पारम्परिक पोशाक पहनकर रहने की बात लिखी है। लेकिन वेशभूषा को पारम्परिक रखने-सम्बन्धी उनके विचार रूढ़ न होकर क्रान्तिकारी हैं। इस तथ्य को एक समाचार-पत्र में प्रतिक्रियास्वरूप ‘द फैज़ एंड द इन्डिपेंडेंस’ शीर्षक से प्रकाशित उनके निम्न पत्र को पढ़कर आसानी से समझा जा सकता है:

हाल ही में मैंने एक फ्रांसीसी स्टीमर पर सवार जनसमूह के खिलाफ एक ऐसे विद्वान की रचना पढ़ी, जिन्होंने उनके साथ सीरिया से मिस्र तक की यात्रा की थी। उनका आरोप था कि उन्होंने उस वक्त, जब वे अपनी मेज़ पर खाना खा रहे थे, उनकी फैज़ (झब्बेदार लाल तुर्की टोपी) उतरवा दी, या कहिए कि उतरवाने का प्रयास किया।

हम सभी जानते हैं कि पश्चिमी सभ्यता में दोपहर का भोजन नंगे सिर करने का अनुकरणीय चलन है। विद्वान महोदय के विरोध ने… पुरातन प्रतीक, जो उनकी दृष्टि में रोजाना श्रृंगार की वस्तु था, को सुदृढ़ता प्रदान करने के प्रयास ने मुझे आश्चर्य में डाल दिया। मुझे इससे ऐसा धक्का लगा जैसा कि एक हिन्दू राजकुमार द्वारा ‘मिलान’ के एक ऑपेरा में मिलने का मेरा निमन्त्रण अस्वीकार कर देने पर मुझे लगा था। उसने मुझसे कहा — “यदि तुम मुझे दान्ते द्वारा व्यक्त साक्षात ‘नरक’ देखने को आमन्त्रित करते तो मैं खुशी से तुम्हारा निमन्त्रण स्वीकार करता, किन्तु ऑपेरा नहीं। मैं किसी ऐसी जगह, जहाँ मुझे अपना साफा उतारने और हुक्का बाहर रखने को बाध्य होना पड़े, नहीं जा सकता।”

मुझे प्रसन्नता होती है, यदि कोई पुरातनपंथी अपनी रीतियों और परम्पराओं से लेशमात्र भी लगाव रखता है; तथापि कुछ कड़वे सच हैं जिन पर विचार करना चाहिए।

यदि हमारे विद्वान दोस्त, जो यूरोपियन नौका पर टोपी उतारने की बात से क्रुद्ध हो गए, विचार करते कि यह आदर्श शीश-परिधान एक यूरोपियन फैक्ट्री में ही बना है तो उसे सिर पर से उतार फेंकने में वह तनिक भी दिक्कत महसूस न करते।

ऐसी आत्मनिर्भरता और आत्मदृढ़ता को भली प्रकार स्वीकार किया जा सकता है, यदि हमारे अपने उद्यम (इण्डस्ट्री) और अपनी संस्कृति हो। विद्वान महोदय को शायद याद हो कि उनके सीरियाई पूर्वज सीरियाई हाथों द्वारा काते, बुने और सिले कपड़े पहनकर सीरियाई नौकाओं द्वारा मिस्र को जाते थे। अच्छा होता कि वह भी अपने देश में बने कपड़े पहनते और सीरियाइयों द्वारा बनाई और चलाई जाने वाली नौका में ही सफर करते।

हमारे विद्वान दोस्त के साथ परेशानी यह है कि उन्होंने कारण का नहीं, परिणाम का विरोध किया है। यह उन घोर पुरातनपंथियों की बात है जो सिर्फ छोटी और तुच्छ बातों के बारे में, जो उन्होंने पश्चिम से ही ली हैं, डींग हाँकते हैं।

अपने विद्वान दोस्त से, और उस सारी कौम से जो टोपी पहनती है, मैं कहता हूँ — अपनी टोपियों को अपनी कार्यशालाओं में तैयार करें। उसके बाद तय करें कि नौका में सफर के दौरान, या पर्वतारोहण के समय, या किसी गुफा में जाते समय उसका क्या करना है?

ईश्वर साक्षी है कि मैंने किसी अवसर-विशेष पर टोपी उतारने या पहनने को लेकर बहस शुरू करने के लिए इसे नहीं लिखा है। ठिठुरते आदमी के सिर पर टोपी की अभिव्यंजना से यह इतर है।