पथ के दावेदार / अध्याय 1 / शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
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अपूर्व के मित्र मजाक करते, “तुमने एम. एस-सी. पास कर लिया, लेकिन तुम्हारे सिर पर इतनी लम्बी चोटी है। क्या चोटी के द्वारा दिमाग में बिजली की तरंगें आती जाती रहती हैं?”
अपूर्व उत्तर देता, “एम. एस-सी. की किताबों में चोटी के विरुध्द तो कुछ लिखा नहीं मिलता। फिर बिजली की तरंगों के संचार के इतिहास का तो अभी आरम्भ ही नहीं हुआ है। विश्वास न हो तो एम. एस-सी. पढ़ने वालों से पूछकर देख लो।”
मित्र कहते, “तुम्हारे साथ तर्क करना बेकार है।”
अपूर्व हंसकर कहता, “यह बात सच है, फिर भी तुम्हें अकल नहीं आती।”
अपूर्व सिर पर चोटी रखे, कॉलेज में छात्रवृत्ति और मेडल प्राप्त करके परीक्षाएं भी पास करता रहा और घर में एकादशी आदि व्रत और संध्या-पूजा आदि नित्य-कर्म भी करता रहा। खेल के मैदानों में फुटबाल, किक्रेट, हॉकी आदि खेलने में उसको जितना उत्साह था प्रात:काल मां के साथ गंगा स्नान करने में भी उससे कुछ कम नहीं था। उसकी संध्या-पूजा देखकर भौजाइयां भी मजाक करतीं, बबुआ जी पढ़ाई-लिखाई तो समाप्त हुई, अब चिमटा, कमंडल लेकर संन्यासी हो जाओ। तुम तो विधवा ब्राह्मणी से भी आगे बढ़े जा रहे हो।”
अपूर्व हंसकर कहता, “आगे बढ़ जाना आसान नहीं है भाभी! माता जी के पास कोई बेटी नहीं है। उनकी उम्र भी काफी हो चुकी है। अगर बीमार पड़ जाएंगी तो पवित्र भोजन बनाकर तो खिला सकूंगा। रही चिमटा, कमंडल की बात, सो वह तो कहीं गया नहीं?”
अपूर्व मां के पास जाकर कहता, “मां! यह तुम्हारा अन्याय है। भाई जो चाहें करें लेकिन भाभियां तो मुर्गा नहीं खातीं। क्या तुम हमेशा अपने हाथ से ही भोजन बनाकर खाओगी?”
मां कहती, “एक जून एक मुट्ठी चावल उबाल लेने में मुझे कोई तकलीफ नहीं होती। और जब हाथ-पांव काम नहीं करेंगे तब तक मेरी बहू घर में आ जाएगी।”
अपूर्व कहता, “तो फिर एक ब्राह्मण पंडित के घर से बहू, मंगवा क्यों नहीं देतीं? उसे खिलाने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है-लेकिन तुम्हारा कष्ट देखकर सोचता हूं कि चलो भाइयों के सिर पर भार बनकर रह लूंगा।”
मां कहती, “ऐसी बात मत कह रे अपूर्व, एक बहू क्या, तू चाहे तो घर भर को बिठाकर खिला सकता है।”
“कहती क्या हो मां? तुम सोचती हो कि भारतवर्ष में तुम्हारे पुत्र जैसा और कोई है ही नहीं?”
और यह कहकर वह तेजी से चला जाता।
अपूर्व के विवाह के लिए लोग बड़े भाई विनोद को आकर परेशान करते। विनोद ने जाकर मां से कहा, “मां, कौन-सी निष्ठावान जप-तपवाली लड़की है, उसके साथ अपने बेटे का ब्याह करके किस्सा खत्म करो। नहीं तो मुझे घर छोड़कर भाग जाना पड़ेगा। बड़ा होने के कारण लोग समझते हैं कि घर का बड़ा-बूढ़ा मैं ही हूं।”
पुत्र के इन वाक्यों से करुणामयी अधीर हो उठी। लेकिन बिना विचलित हुए मधुर स्वर में बोली, “लोग ठीक ही समझते हैं बेटा। उनके बाद तुम ही तो घर के मालिक हो। लेकिन अपूर्व के संबंध में किसी को वचन मत देना। मुझे रूप और धन की आवश्यकता नहीं है। मैं स्वयं देख-सुनकर तय करूंगी।”
“अच्छी बात है मां। लेकिन जो कुछ करो, दया करके जल्दी कर डालो,” कहकर विनोद रूठकर चला गया।
स्नान घाट पर एक अत्यंत सुलक्षणा कन्या पर कई दिन से करुणामयी की नजर पड़ रही थी। वह अपनी मां के साथ गंगा-स्नान करने आती थी। उन्हीं की जाति की है, गुप्त रूप से वह पता लगा चुकी थीं। उनकी इच्छा थी कि अगर तय हो जाए तो आगामी बैसाख में ही विवाह कर डालें।
तभी अपूर्व ने आकर एक अच्छी नौकरी की सूचना दी।
मां प्रसन्न होकर बोली, “अभी उस दिन तो पास हुआ है। इसी बीच तुझे नौकरी किसने दे डाली?”
अपूर्व हंसकर बोला, “जिसे जरूरत थी।” यह कहकर उसने सारी घटना विस्तार से बताई कि उसके प्रिंसिपल साहब ने ही उसके लिए यह नौकरी ठीक की है। वोथा कम्पनी ने बर्मा के रंगून शहर में एक नया कार्यालय खोला है। वह किसी सुशिक्षित और ईमानदार बंगाली युवक को उस कार्यालय का सारा उत्तरदायित्व देकर भेजना चाहती है। रहने के लिए मकान और चार-सौ रुपए माहवार वेतन मिलेगा और छ: महीने के बाद वेतन में दौ सौ रुपए की वृध्दि कर दी जाएगी।”
बर्मा का नाम सुनते ही मां का मुंह सूख गया, बोली, “पागल तो नहीं हो गया? तुझे वहां भेजूंगी? मुझे ऐसे रुपए की जरूरत नहीं है।”
अपूर्व भयभीत होकर बोला, “तुम्हें न सही, मुझे तो है। तुम्हारी आज्ञा से भीख मांगकर भी जिंदगी बिता सकता हूं लेकिन जीवन भर ऐसा सुयोग फिर नहीं मिलेगा। तुम्हारे बेटे के न जाने से वोथा कम्पनी का काम रुकेगा नहीं। लेकिन प्रिंसिपल साहब मेरी ओर से वचन दे चुके हैं। उनकी लज्जा की सीमा न रहेगी। फिर घर की हालत तो तुमसे छिपी नहीं है मां।”
“लेकिन सुनती हूं वह म्लेच्छों का देश है।”
अपूर्व ने कहा, “किसी ने झूठ-मूठ कह दिया है। तुम्हारा देश तो म्लेच्छों का देश नहीं है। फिर भी जो मनमानी करना चाहते हैं उन्हें कोई रोक नहीं सकता।”
“मैंने तो इसी बैसाख में तेरा विवाह करने का निश्चय किया है।”
अपूर्व बोला, “एकदम निश्चय? अच्छी बात है। एक दो महीने बाद जब तुम बुलाओगी, मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन करने आ जाऊंगा।”
करुणामयी बाहर से देखने में पुराने विचारों की अवश्य थी लेकिन बहुत ही बुध्दिमती थी। कुछ देर मौन रहकर बोली, “जब जाना ही है तो अपने भाइयों की सहमति भी ले लेना।”
यह कुल गोकुल दीधी के सुप्रसिध्द बंद्योपाध्याय घराने में से है। वंश-परम्परा से ही वह लोग अत्यंत आचार परायण कहलाते हैं। बचपन से जो संस्कार उनके मन में जग गए थे-पति, पुत्रों ने जहां तक लांछित और अपमानित करना था किया, लेकिन अपूर्व के कारण वह सब कुछ सहन करती हुई इस घर में रह रही थी। आज वह भी उनकी आंखों से दूर अनजाने देश जा रहा है। इस बात को सोच-सोचकर उनके भय की सीमा नहीं रही। बोली, “अपूर्व मैं जितने दिन जीवित रहूं, मुझे दु:ख मत देना बेटे,” कहते-कहते उनकी आंखों से दो बूंद आंसू टपक पड़े।
अपूर्व की आंखें भी गीली हो उठीं। बोला, “मां, आज तुम इस लोक में हो लेकिन एक दिन जब स्वर्गवास की पुकार आएगी, उस दिन तुम्हें अपने अपूर्व को छोड़कर वहां जाना होगा। मेरे जाने के बाद तुम यहां बैठकर मेरे लिए आंसू मत बहाती रहना”, इतना कहकर वह दूसरी ओर चला गया।
उस दिन सांझ के समय, करुणामयी अपनी नियमित संध्या-पूजा आदि कार्यों में मन नहीं लगा सकीं। अपने बड़े बेटे के कमरे के दरवाजे पर चली गईं। विनोद कचहरी से लौटकर जलपान करने के बाद क्लब जाने की तैयारी कर रहा था। मां को देखकर एकदम चौंक पड़ा।
करुणामयी ने कहा, “एक बात पूछने आई हूं, विनू!”
“कौन-सी बात मां?”
यहां आने से पहले मां अपनी आंखों के आंसू अच्छी तरह पोंछकर आई थी, लेकिन उनका रुंधा गला छिपा न रह सका। सारी घटना और अपूर्व के मासिक वेतन के बारे में बताने के बाद उन्होंने चिंतित स्वर में पूछा, “यही सोच रही हूं बेटा कि इन रुपयों के लोभ में उसे भेजूं या नहीं।”
विनोद धीरज खो बैठा। शुष्क स्वर में बोला, “मां, तुम्हारे अपूर्व जैसा लड़का भारतवर्ष में और दूसरा नहीं है। इस बात को हम सभी मानते हैं। लेकिन इस धरती पर रहकर इस बात को माने बिना भी नहीं रह सकते कि पहले चार सौ रुपए, फिर छ: महीने में दो सौ रुपए और-वह इस लड़के से बहुत बड़ा है।”
मां दु:खी होकर बोली, “लेकिन सुनती हूं कि वह तो एकदम म्लेच्छों का देश है।”
विनोद ने कहा, “तुम्हारा जानना-सुनना ही तो सारे संसार का अन्तिम सत्य नहीं हो सकता।”
पुत्र के अंतिम वाक्य से मां अत्यंत दु:खी होकर बोली, “बेटा! जब से समझदार हुई, इसी एक ही बात को सुन-सुनकर भी जब मुझे चेत नहीं हुआ तो इस उम्र में और शिक्षा मत दो। मैं यह जानने नहीं आई कि अपूर्व का मूल्य कितने रुपए है। मैं केवल यह जानने आई थी कि उसे इतनी दूर भेजना उचित होगा या नहीं।”
विनोद ने दाएं हाथ से मां के चरणस्पर्श करके कहा, “मां, मैंने तुम्हें दु:खी करने के लिए यह नहीं कहा। यह सच है कि पिता जी के साथ ही हम लोगों का मेल बैठता था और उनसे हम लोगों ने सीखा है कि घर-गृहस्थी के लिए रुपया होना कितना आवश्यक है। इस हैट कोट को पहनकर विनू इतना बड़ा साहब नहीं बन गया कि छोटे भाई को खिलाने के डर से उचित-अनुचित का विचार न कर सके। लेकिन फिर भी कहता हूं कि उसे जाने दो। देश में जैसी हवा बह रही है इससे वह कुछ दिनों के लिए देश छोड़कर, कहीं दूसरी जगह जाकर काम में लग जाए तो इसमें उसका भी हित होगा और परिवार की रक्षा भी हो जाएगी। तुम तो जानती हो मां, उस स्वदेशी आंदोलन के समय कितना छोटा था। फिर भी उसी के प्रताप से पिता जी की नौकरी जाने की नौबत आ गई थी।”
करुणामयी बोली, “नहीं, नहीं, अब अपूर्व वह सब नहीं कर सकता।”
विनोद बोला, “मां, सभी देशों में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनकी जाति ही अलग होती है। अपूर्व उसी जाति का है। देश की मिट्टी ही इसके शरीर का मांस है, देश का जल ही इनकी धमनियों का रक्त है। देश के विषय में इनका विश्वास कभी मत करना मां, नहीं तो धोखा खाओगी। बल्कि अपने इस म्लेच्छ विनू को, अपने उस चोटीधारी, गीता पढ़े एम. एस-सी. पास अपूर्व से अधिक ही अपना समझना।”
पुत्र की इन बातों पर मां ने विश्वास तो नहीं किया लेकिन मन-ही-मन शंकित हो उठी। देश के पश्चिमी क्षितिज पर जो भयानक मेघ के लक्षण प्रकट हुए हैं, उसे वह जानती थी। याद आया कि उस समय तो अपूर्व के पिता जीवित थे, लेकिन अब नहीं हैं।
विनोद ने मां के मन की बात जान ली। लेकिन क्लब जाने की जल्दी में बोला, “अच्छा मां, वह कल ही तो जा नहीं रहा। सब लोग बैठकर जो निश्चय करेंगे, कर लेंगे,” कहकर तेजी से बाहर निकल गया।
अपने ब्र्राह्मणत्व की बड़ी सतर्कता से रक्षा करते हुए अपूर्व एक जलयान द्वारा रंगून के घाट पर पहुंच गया। वोथा कम्पनी के एक दरबान और एक मद्रासी कर्मचारी ने अपने इस नए मैनेजर का स्वागत किया। तीस रुपए महीने का एक कमरा ऑफिस के खर्चे से यथासम्भव सजा हुआ तैयार है, यह समाचार देने में उन लोगों ने देर नहीं की।
समुद्र-यात्रा की झंझटों के बाद वह खूब हाथ-पैर फैलाकर सोना चाहता था। ब्राह्मण साथ था। घर में अत्यंत असुविधा होते हुए भी इस भरोसे के आदमी को साथ भेजकर मां को बहुत कुछ तसल्ली मिल गई थी। केवल ब्राह्मण रसोइया ही नहीं बल्कि भोजन बनाने के लिए कुछ चावल, दाल, घी, तेल पिसा हुआ मसाला यहां तक कि आलू, परवल तक वह साथ देना नहीं भूली थीं।
गाड़ी आ जाने पर मद्रासी कर्मचारी तो चले गए लेकिन रास्ता दिखाने के लिए दरबान साथ चल दिया। दस मिनट में ही गाड़ी जब मकान के सामने पहुंचकर रुकी तो तीस रुपए किराए के मकान को देखकर अपूर्व हतबुध्दि-सा खड़ा रह गया।
मकान बहुत ही भद्दा है। छत नहीं है। सदर दरवाजा नहीं है। आंगन समझो या जो कुछ, इस आने-जाने के रास्ते के अलावा और कहीं तनिक भी स्थान नहीं है। एक संकरी काठ की सीढ़ी, रास्ते के छोर से आरम्भ होकर सीधी तीसरी मंजिल पर चली गई है। इस पर चढ़ने-उतरने में कहीं अचानक पैर फिसल जाए तो पहले पत्थर के बने राजपथ पर फिर अस्पताल में और फिर तीसरी स्थिति को न सोचना अच्छा है। नया आदमी है इसलिए हर कदम बड़ी सावधानी से रखते हुए दरबान के पीछे-पीछे चलने लगा। दरबान ने ऊपर चढ़ने के बाद दाईं ओर में दो मंजिले के एक दरवाजे को खोलकर बताया।
“साहब, यही आपके रहने का कमरा है।”
दाईं ओर इशारा करके अपूर्व ने पूछा, “इसमें कौन रहता है?”
दरबान बोला, “एक चीनी साहब हैं।”
अपूर्व ने पूछा, “ऊपर तिमंजिले पर कौन रहता है?”
दरबान ने कहा, “एक काले-काले साहब हैं।”
कमरें में कदम रखते ही अपूर्व का मन बहुत ही खिन्न हो उठा। लकड़ी के तख्ते लगाकर एक-दूसरे की बगल में छोटी-बड़ी तीन कोठरियां बनी हुई हैं। इस मकान की सारी चीजें लकड़ी की हैं। दीवारें, फर्श, छत और सीढ़ी-सभी लकड़ी की हैं। आग की याद आते ही संदेह होता है कि इतना बड़ा और सर्वांग सुंदर लाक्षागृह तो सम्भव है दुर्योधन भी अपने पांडव भाइयों के लिए न बनवा सका होगा। इसी मकान में इष्ट-मित्र, आत्मीय-स्वजनों, मां और भाभियों आदि को छोड़कर रहना पड़ेगा। अपने को संभालकर, थोड़ी देर इधर-उधर घूमकर हर चीज को देखकर तसल्ली हुई कि नल में अभी तक पानी है। स्नान और भोजन दोनों ही हो सकते हैं। अपूर्व ने रसोइए से कहा, “महाराज, मां ने तो सभी चीजें साथ भेजी हैं। नहाकर कुछ बना लो। तब तक मैं दरबान के साथ सामान ठीक कर लूं।”
रसोई में कोयला मौजूद था। लेकिन चूल्हे में कालिख लगी थी। पता नहीं इसमें पहले कौन रहता था और क्या पकाया था? यह सोचकर उसे बड़ी घृणा हुई। महाराज से बोला, “एक उठाने वाला दम चूल्हा होता तो बाहर वाले कमरे में बैठकर कुछ दाल-चावल बना लिया जाता, लेकिन कौन जाने, इस देश में मिलेगा या नहीं।”
दरबान बोला, “पैसे दीजिए, अभी दस मिनट में ले आता हूं।”
वह रुपया लेकर चला गया।
तिवारी रसोई बनाने की व्यवस्था करने लगा और अपूर्व कमरा सजाने में लग गया। काठ के आले पर कपड़े सजाकर रख दिए। बिस्तर खोलकर चारपाई पर बिछा दिया। एक नया टेबल क्लाथ मेज पर बिछाकर उस पर लिखने का सामान और कुछ पुस्तकें रख दी। उत्तर की ओर खुली खिड़की के दोनों पल्लों को अच्छी तरह खोलकर उसके दोनों कोनों में कागज ठूंसकर सोने वाले कमरे को सुंदर बनाकर बिस्तर पर लेटकर सुख की सांस ली।
दरबान ने लोहे का चूल्हा ला दिया। तभी याद आया, मां ने सिर की सौगंध देकर पहुंचते ही तार करने को कहा था। इसलिए दरबान को साथ लेकर चटपट बाहर निकल गया। महाराज से कहता गया कि एक घंटे पहले ही लौट आऊंगा।
आज किसी ईसाई त्यौहार के उपलक्ष में छुट्टी थी। अपूर्व ने देखा, यह गली देशी-विदेशी साहब-मेमों का मुहल्ला है। यहां के प्रत्येक घर में विलायती उत्सव का कुछ-न-कुछ चिद्द अवश्य दिखाई दे रहा है। अपूर्व ने पूछा, “दरबान जी! सुना है, यहा बंगाली भी तो बहुत हैं। वह किस मुहल्ले में रहते हैं?”
उसने बताया कि यहां मुहल्ले जैसी कोई व्यवस्था नहीं है। जिसकी जहां इच्छा होती है, वहीं रहता है। लेकिन अफसर लोग इसी गली को पसंद करते हैं। अपूर्व भी अफसर था। कट्टर हिंदू होते हुए भी किसी धर्म के विरुध्द भावना नहीं थी। फिर भी स्वयं को ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं, भीतर-बाहर, चारों ओर से ईसाई पड़ोसियों को करीब देख अत्यंत घृणा अनुभव करते हुए उसने पूछा, “क्या किसी दूसरे स्थान पर घर नहीं मिल सकेगा?”
दरबान बोला, “खोजने से मिल सकता है। लेकिन इतने किराए में ऐसा मकान मिलना कठिन है।”
अपूर्व जब तार घर पहुंचा तो तारबाबू खाना खाने चले गए थे। एक घंटे प्रतीक्षा करने के बाद जब आए तो घड़ी देखकर बोले, “आज छुट्टी है। दो बजे ऑफिस बंद हो गया।”
अपूर्व ऊंची आवाज में बोला, “यह अपराध आपका है। मैं एक घंटे से बैठा हूं।”
बाबू बोला, “लेकिन मैं तो सिर्फ दस मिनट हुए यहां से गया हूं।”
अपूर्व ने उसके साथ झगड़ा किया। झूठा कहा, रिपोर्ट करने की धमकी दी। लेकिन फिर बेकार समझकर चुप हो गया। भूख, प्यास और क्रोध से जलता हुआ बड़े तारघर पहुंचा। वहां से अपने निर्विघ्न पहुंचने का समाचार जब मां को भेज दिया तब उसे संतोष हुआ।
दरबान ने विनय भरे स्वर में कहा, “साहब, हमको भी बहुत दूर जाना है।”
अपूर्व ने उसे छुट्टी देने में कोई आपत्ति नहीं की। दरबान के चले जाने के बाद घूमते-घूमते, गलियों का हिसाब करते-करते, अंत में मकान के सामने पहुंच गया।
उसने देखा-तिवारी महाराज एक मोटी लाठी पटक रहे हैं और न जाने क्या अंट-शंट बकते-झकते जा रहे हैं।
साथ ही एक-दूसरे व्यक्ति तिमंजिले से हिंदी और अंग्रेजी में इसका उत्तर भी दे रहे हैं और घोड़े के चाबुक से बीच-बीच में सट-सट का शब्द भी कर रहे हैं। तिवारी से नीचे उतरने को कह रहे हैं और वह उनको ऊपर बुला रहा है। शिष्टाचार के इस आदान-प्रदान में जिस भाषा का प्रयोग हो रहा है उसे न कहना ही उचित है।
अपूर्व ने सीढ़ी पर से तेजी से ऊपर चढ़कर तिवारी का लाठीवाला हाथ जोर से पकड़कर कहा, “क्या पागल हो गया है?” इतना कहकर उसे ठेलता हुआ घर के अंदर ले गया। अंदर आकर वह क्रोध, क्षोभ और दु:ख से रोते हुए बोला, “यह देखिए, उस हरामजादे ने क्या किया है।”
उस कांड को देखते ही अपूर्व की थकान, नींद, भूख और प्यास एकदम हवा हो गई। खिचड़ी के हांडी से अभी तक भाप तथा मसाले की भीनी-भीनी गंध निकल रही है, लेकिन उसके ऊपर, नीचे, आस-पास, चारों ओर पानी फैला हुआ है। दूसरे कमरे में जाकर देखा, उसका साफ-सुथरा बिछौना मैले काले पानी से सन गया है। कुर्सी पर पानी, टेबल पर पानी, यहां तक कि पुस्तकें भी पानी में भीग गई हैं।
अपूर्व ने पूछा, “यह सब क्या हुआ?”
तिवारी ने दुर्घटना का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए बताया-
“अपूर्व के जाने के कुछ देर बाद ही साहब घर में आए। आज ईसाइयों का कोई त्यौहार है। पहले गाना-बजाना और फिर नृत्य आरम्भ हुआ और जल्दी ही दोनों के संयोग से यह शास्त्रीय संगीत इतना असहाय हो उठा कि तिवारी को आशंका होने लगी कि लकड़ी की छत साहब का इतना आनंद शायद सहन न कर पाएगी तभी रसोई के पास ऊपर से पानी गिरने लगा? भोजन नष्ट हो जाने के भय से तिवारी ने बाहर जाकर इसका विरोध किया। लेकिन साहब चाहे काला हो या गोरा-देशी आदमी की ऐसी अभद्रता नहीं सह सकता। वह उत्तेजित हो उठा और देखते-ही-देखते अंदर जाकर बाल्टी-पर-बाल्टी पानी ढरकाना आरम्भ कर दिया। इसके बाद जो कुछ हुआ वह अपूर्व ने अपनी आंखों से देख लिया।
कुछ देर मौन रहकर अपूर्व बोला, “साहब के कमरे में क्या कोई और नहीं है।”
“शायद कोई हो। कोई उसे पियक्कड़ साले के साथ दांत किट-किटकर तो कर रहा था।” अपूर्व समझ गया कि किसी ने उसे रोकने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। लेकिन हम लोगों के दुर्भाग्य को तिल भर भी कम नहीं कर सका।
अपूर्व चुप रहा। जो होना था हो चुका था। लेकिन अब शांति थी।
अपूर्व ने हंसने की कोशिश करके कहा, “तिवारी, ईश्वर की इच्छा न होने पर इसी तरह मुंह का ग्रास निकल जाता है। आओ, समझ लें कि हम लोग आज भी जहाज में ही हैं। चिउड़ा-मिठाई अब कुछ बची है। रात बीत ही जाएगी।”
तिवारी ने सिर हिलाकर हुंकारी भरी और उस हांडी की ओर फिर एक बार हसरत भरी नजरों से देखकर चिउड़ा-मिठाई लेने के लिए उठ खड़ा हुआ। सौभाग्य से खाने-पीने के सामान का संदूक रसोईघर के कोने में रखा था। इसलिए ईसाई का पानी इसे अपवित्र नहीं कर पाया था।
फलाहार जुटाते हुए तिवारी ने रसोईघर से कहा, “बाबू, यहां तो रहना हो नहीं सकेगा।”
अपूर्व अन्यमनस्क भाव से बोला, “हां, लगता तो ऐसा ही है।”
तिवारी उसके परिवार का पुराना नौकर है। आते समय उसका हाथ पकड़कर मां ने जो बातें समझाकर बताई थीं, उन्हीं को याद कर उद्विग्न स्वर में बोला, “नहीं बाबू, इस घर में अब एक दिन भी नहीं। क्रोध में आकर काम अच्छा नहीं हुआ। मैंने साहब को गालियां दी हैं।”
अपूर्व ने कहा, “उसे गालियां न देकर मारना ठीक था।”
तिवारी में अब क्रोध के स्थान पर सद्बुध्दि पैदा हो रही थी। हम लोग बंगाली हैं।
अपूर्व मौन ही रहा। साहस पाकर तिवारी ने पूछा, “ऑफिस के दरबान जी से कहकर कल सवेरे ही क्या इस घर को छोड़ा नहीं जा सकता? मेरा तो विचार है कि छोड़ देना ठीक होगा।”
अपूर्व ने कहा, “अच्छी बात है, देखा जाएगा।” दुर्जनों के प्रति उसे कोई शिकायत नहीं है। समय नष्ट न करके चुपचाप जगह छोड़ देना ही उसने उचित समझ लिया है। बोला, “अच्छी बात है, ऐसा ही होगा। तुम भोजन आदि का प्रबंध करो।”
“अभी करता हूं बाबू!” कहकर कुछ निश्चिंत होकर अपने काम में लग गया।
लेकिन उसी की बातों का सूत्र पकड़कर, ऊपर वाले फिरंगी का र्दुव्यवहार याद कर अचानक अपूर्व का समूचा बदन क्रोध से जलने लगा। मन में विचार आया कि हम लोगों ने चुपचाप, बिना कुछ सोचे-समझे इसे सहन कर लेना ही अपना कर्त्तव्य समझ लिया है। इसीलिए दूसरों को चोट पहुंचाने का अधिकार स्वयं ही दृढ़ तथा उग्र हो उठा है। इसीलिए तो आज मेरा नौकर भी मुझको तुरंत भागकर आत्महत्या करने का उपदेश देने का साहस कर रहा है। तिवारी बेचारा रसोईघर में फलाहार ठीक कर रहा था। वह जान भी न सका। उसकी लाठी लेकर अपूर्व बिना आहट किए धीरे-धीरे बाहर निकला और सीढ़ियों से ऊपर चढ़ गया।
दूसरी मंजिल पर साहब के बंद द्वार को खटखटाना आरम्भ किया। कुछ देर बाद एक भयभीत नारी कंठ ने अंग्रेजी में कहा, “कौन है?”
“मैं नीचे रहता हूं और उस आदमी को देखना चाहता हूं।”
“क्यों?”
“उसे दिखाना है कि उसने मेरा कितना नुकसान किया है।”
“वह सो रहे हैं।”
अपूर्व ने कठोर स्वर में कहा, “जगा दीजिए। यह सोने का समय नहीं है। रात को सोते समय मैं तंग करने नहीं आऊंगा। लेकिन इस समय उसके मुंह से उत्तर सुने बिना नहीं जाऊंगा।”
लेकिन न तो द्वार ही खुला और न ही कोई उत्तर ही आया। दो-एक मिनट प्रतीक्षा करने के बाद अपूर्व ने फिर चिल्लाकर कहा, “मुझे जाना है, उसे बाहर भेजिए।”
इस बार वह विनम्र और मधुर नारी स्वर द्वार के समीप सुनाई दिया, “मैं उनकी लड़की हूं। पिताजी की ओर से क्षमा मांगती हूं। उन्होंने जो कुछ किया है, सचेत अवस्था में नहीं किया। आप विश्वास रखिए, आपकी जो हानि हुई है कल हम उसे यथाशक्ति पूरी कर देंगे।”
लड़की के स्वर से अपूर्व कुछ नर्म पड़ गया। लेकिन उसका क्रोध कम नहीं हुआ। बोला, “उन्होंने बर्बर की तरह मेरा बहुत नुकसान किया। उसे भी अधिक उत्पात किया है। मैं विदेशी आदमी हूं। लेकिन आशा करता हूं कि कल सुबह मुझसे स्वयं मिलकर इस झगड़े को समाप्त कर लेने की कोशिश करेंगे।”
लड़की ने कहा, “अच्छी बात है।” फिर कुछ देर चुप रहकर बोली, “आपकी तरह हम लोग भी यहां बिल्कुल नए हैं। कल शाम को ही मालपीन से आए हैं।”
और कुछ न कहकर अपूर्व धीरे-धीरे उतर आया। देखा, तिवारी भोजन की व्यवस्था में ही लगा था।
थोड़ा-सा खा-पीकर अपूर्व सोने के कमरे में आकर भीगे तकिए को ही लगाकर सो गया। प्रवास के लिए घर से बाहर पांव रखने के समय से लेकर अब तक विपत्तियों की सीमा नहीं रही थी। सुख-शांति हीन, चिंता ग्रस्त मन में एक ही बात बार-बार उठ रही थी-उस ईसाई लड़की की बात! वह नहीं जानता कि देखने में वह कैसी है। क्या उम्र है, कैसा स्वभाव है। लेकिन इतना जरूर जान गया कि उसका उच्चारण अंग्रेजों जैसा नहीं है और जो भी हो, ईसाई के नाते स्वयं को राजा की जाति का समझकर पिता की भांति घमंडी नहीं है। अपने पिता के अन्याय तथा उत्पात के लिए उसने लज्जा अनुभव की है। उसकी भयभीत, विनम्र स्वर में क्षमा-याचना, उसे अपने कर्कश तथा तीव्र अभियोग की तुलना में असंगत-सी लगी। उसका स्वभाव उग्र नहीं है। कड़ी बात कहने में उसे हिचक होती है।
तभी बिहारी का मोटा कंठ स्वर उसके कानों तक पहुंचा। वह कह रहा था, “नहीं मेम साहब यह आप ले जाइए। बाबू भोजन कर चुके। हम लोग यह सब छूते तक नहीं।”
अपूर्व उठ बैठा और उस ईसाई लड़की के शब्दों को कान लगाकर सुनने की कोशिश करने लगा। तिवारी बोला, “कौन कहता है कि हमने भोजन नहीं किया? यह आप ले जाइए। बाबू सुनेंगे तो नाराज होंगे।”
अपूर्व ने धीरे-धीरे बाहर आकर पूछा, “क्या बात है तिवारी?”
लड़की जल्दी से पीछे हट गई। शाम हो चली थी लेकिन कहीं भी रोशनी नहीं जली थी। लड़की का रंग अंग्रेजों जैसा सफेद नहीं है लेकिन खूब साफ है। उम्र उन्नीस-बीस या कुछ अधिक होगी। कुछ लंबी होने से दुबली जान पड़ती है। ऊपरी होंठ के नीचे सामने के दोनों दांतों को कुछ ऊंचा न समझा जाए तो चेहरे की बनावट अच्छी है। पैरों में चप्पल, शरीर पर भड़कीली-सी साड़ी, चाल-ढाल कुछ बंगाली और कुछ पारसी जान पड़ती है। एक डाली में कुछ नारंगी, नाशपाती, दो-चार अनार और अंगूर का एक गुच्छा सामने धरती पर रखे हैं।
अपूर्व ने पूछा, “यह सब क्या है?”
लड़की ने अंग्रेजी में धीरे से उत्तर दिया - “आज हमारा त्यौहार है। मां ने भेजा है। आज तो आपका खाना भी नहीं हुआ।”
अपूर्व ने कहा, “अपनी मां को हम लोगों की ओर से धन्यवाद देना और कहना कि हमारा खाना हो गया है।”
लड़की चुप थी। अपूर्व ने पूछा, “हमारा खाना नहीं हुआ, आपको यह कैसे पता लगा?”
लड़की ने लज्जित स्वर में कहा, “इसीलिए तो झगड़ा हुआ था।”
अपूर्व बोला, “नहीं। वास्तव में हमारा खाना हो चुका है।”
लड़की बोली, “हो सकता है। लेकिन यह तो बाजार के फल हैं, इनमें कोई दोष नहीं है।”
अपूर्व समझ गया कि उसे किसी प्रकार शांत करने के लिए दोनों अपरिचित स्त्रियों के उद्वेग की सीमा नहीं है। कुछ देर पहले वह अपने स्वभाव का जो परिचय दे आया है, उससे न जाने क्या होगा? यह सोचकर उसे प्रसन्न करने के लिए ही तो यह भेंट लेकर आई है इसलिए मीठे स्वर में बोला, “नहीं, कोई दोष नहीं है।” फिर तिवारी से बोला, “ले लो, इनमें कोई दोष नहीं है महाराज।”
तिवारी इससे प्रसन्न नहीं हुआ। बोला, “रात में हम लोगों को जरूरत नहीं है। और मां ने मुझे यह सब करने के लिए बार-बार मना किया है। मेम साहब, आप इन्हें ले जाइए। हमें जरूरत नहीं है।”
मां ने मना किया है या कर सकती हैं, इसमें असम्भव कुछ भी नहीं था और वर्षों के विश्वसनीय तिवारी को इन सब झंझटों को सौंपकर उसका अभिभावक भी वह नियुक्त कर सकती हैं, यह भी सम्भव है। अभी संकुचित, लज्जित और अपरिचित लड़की, जो उसे प्रसन्न करने उसके द्वार पर आई है, उसे उपहार की सामान्य वस्तुओं को अस्पृश्य कहकर अपमानित करने को भी वह उचित न मान सका। तिवारी ने कहा, “यह हम सब नहीं छुएंगे मेम साहब। इन्हें उठा ले जाइए। मैं इस स्थान को धो डालूं।”
लड़की कुछ देर चुपचाप खड़ी रही। फिर डाली उठाकर धीमे-धीमे चली गई।
अपूर्व ने धीमे और रूखे स्वर में कहा, “न खाते, लेकिन लेकर चुपके से फेंक तो सकते थे।”
तिवारी बोला, “नष्ट करने का क्या लाभ होता बाबू?”
“मूर्ख, गंवार कहीं का,” इतना कहकर अपूर्व सोने चला गया। बिस्तर पर लेटकर पहले तिवारी के प्रति क्रोध से उसका सम्पूर्ण शरीर जलने लगा। लेकिन इस विषय में वह जितना ही सोचता था, लगता था कि शायद यह ठीक ही हुआ कि उसने स्पष्ट कहकर लौटा दिया। उसे अपने बड़े मामा की याद आ गई। उस निष्ठावान ब्राह्मण ने एक दिन भोजन करने से मना कर दिया था। करुणामयी ने पति से भाई का मन-मुटाव दूर करने के लिए एक चतुराई का सहारा लेना चाहा, लेकिन दरिद्र ब्राह्मण ने हंसकर कहा- “नहीं बहन, यह सब नहीं हो सकता। जीजा जी क्रोधी व्यक्ति हैं। इस अपमान को वह सह न पाएंगे। हो सकता है, तुम्हें भी इसमें भागीदार बनना पड़े। मेरे स्वर्गीय गुरुदेव कहा करते थे, 'मुरारी, सत्य-पालन में दु:ख है। वंचना और प्रताणना के मीठे पथ से वह कभी नहीं आता।' मैं बिना भोजन किए चला जाऊंगा। यही उचित है बहन।”
इस घटना के कारण करुणामयी ने अनेक दु:ख सहे लेकिन भाई को कभी दोष नहीं दिया। इसी बात को याद कर अपूर्व के मन में बार-बार यह बात उठने लगी, “उचित ही हुआ। तिवारी ने ठीक ही किया।”
अपूर्व की इच्छा थी कि सुबह बाजार घूम आए। लेकिन न जा सका। क्योंकि ऊपर वाला साहब कब क्षमा-याचना करने आएगा, इसका कुछ ठीक नहीं था। वह आएगा अवश्य, इसमें कोई संदेह नहीं था। आज जब उसका नशा टूटेगा तब उसकी पत्नी और बेटी, उसे किसी भी दशा में छोडेंग़ी नहीं। क्योंकि उनके द्वारा ऐसा संकेत वह कल ही पा चुका था। नींद टूटने के बाद से वह लड़की कई बार याद आई। नींद में भी उसकी भद्रता, सौजन्यता और उसका विनम्र कंठ स्वर कानों में एक परिचित सुर की भांति आते-जाते रहे। अपने शराबी पिता के दुराचार के कारण उस लड़की की लज्जा की सीमा नहीं थी। मूर्ख तिवारी के रूखे व्यवहार से अपूर्व भी लज्जा का अनुभव कर रहा था।
अचानक सिर के ऊपर पड़ोसियों के जाग उठने की आहट आई और प्रत्येक आहट से वह आशा करने लगा कि साहब उसके द्वार पर आकर खड़ा है। क्षमा तो वह करेगा ही, यह निश्चित है। लेकिन विगत दिन की वीभत्सता, क्या करने से सरल और सामान्य होकर विषाद का चिद्द मिटा देगी? यही उसकी चिंता का विषय था। आशा और उद्वेग के साथ प्रतीक्षा करते-करते जब नौ बज गए तो सुना, साहब नीचे उतर रहे हैं। उनके पीछे भी दो पैरों का शब्द सुनाई दिया। थोड़ी देर बाद ही उनके द्वार का लोहे का कड़ा जोर से बज उठा। तिवारी ने आकर कहा, “बाबू, ऊपर वाला साहब कड़ा हिला रहा है।”
अपूर्व ने कहा, “दरवाजा खोलकर उनको आने दो।”
तिवारी के दरवाजा खोलते ही अपूर्व ने अत्यंत गम्भीर आवाज सुनी, “तुम्हारा साहब कहां है?”
उत्तर में तिवारी ने कहा, ठीक-ठाक सुनाई नहीं पड़ा।
स्वर से अपूर्व चौंक पड़ा, बाप रे! यह क्या सामान्य कंठ स्वर है?
सोचा, शायद साहब ने सवेरे उठते ही शराब पी ली है। इसलिए इस समय जाना उचित है या नहीं। सोचने से पहले ही फिर उधर से आदेश हुआ, “बुलाओ जल्दी।”
अपूर्व धीरे-धीरे पास जाकर खड़ा हो गया। साहब ने एक पल उसे ऊपर से नीचे तक देखकर अंग्रेजी में पूछा, “अंग्रेजी जानते हो?”
“जानता हूं।”
“मेरे सो जाने के बाद कल तुम ऊपर गए थे?”
“जी हां।”
“लाठी ठोंकी थी? अनाधिकार प्रवेश करने के लिए दरवाजा तोड़ने की कोशिश की थी?”
अपूर्व विस्मय के मारे स्तब्ध हो गया। साहब ने कहा-”संयोग से दरवाजा खुला होता तो तुम कमरे में घुसकर मेरी पत्नी या बेटी पर आक्रमण कर बैठते। इसीलिए मेरे जागते रहने पर नहीं गए?”
अपूर्व ने धीमे स्वर से कहा, “आप तो सो रहे थे, कैसे पता चला?”
साहब ने कहा, “मेरी लड़की ने मुझे बताया है। उसे तुमने गाली भी दी।”
इतना कहकर उसने बगल में खड़ी लड़की की ओर उंगली से इशारा किया, यह वही लड़की है। कल भी इसे अपूर्व अच्छी तरह नहीं देख पाया था। आज भी साहब के विशाल शरीर की आड़ में उसकी साड़ी की किनारी को छोड़ और कुछ भी नहीं देख पाया। सिर हिलाकर उसने पिता की हां-में-हां मिलाई या नहीं, यह भी समझ में नहीं आया। लेकिन इतना अवश्य समझ गया कि यह लोग भले आदमी नहीं हैं। सारे मामले को जान-बूझकर विकृत और उलटा करके सिध्द करने का प्रयत्न कर रहे हैं। इसलिए बहुत सतर्क रहने की जरूरत है।
साहब ने कहा, “मैं जाग रहा होता तो तुम्हें लात मारकर धकेल देता। तुम्हारे मुंह में एक भी दांत साबुत न रहने देता। लेकिन यह अवसर अब खो चुका हूं। इसलिए पुलिस के हाथ से जो कुछ न्याय मिलेगा उतना ही लेकर संतुष्ट होना पड़ेगा। हम लोग जा रहे हैं। तुम इसके लिए तैयार रहना।”
अपूर्व ने सिर हिलाकर कहा, “अच्छी बात है।”-लेकिन उसका मुंह उतर-सा गया।
साहब ने लड़की का हाथ पकड़कर कहा, “चलो!” और सीढ़ी से उतरते-उतरते बोला, “मैंने तो पहले ही कहा था बाबू, कि जो होना था हो गया। अब उन्हें और छेड़ने की जरूरत नहीं है। वह साहब और मेम ठहरे।”
अपूर्व ने कहा, “साहब-मेम ठहरे तो इससे क्या होता है?”
तिवारी ने कहा, “यह लोग पुलिस में जो गए हैं।”
अपूर्व ने कहा, “जाने से क्या होता है?”
तिवारी ने व्याकुल होकर कहा, “बड़े बाबू को तार कर दूं? छोटे बाबू, उन्हें बुला ही लिया जाए।”
“क्या पागल हो गया है तिवारी जा उधर देख। खाना सारा जल गया होगा। साढ़े दस बजे मुझे ऑफिस जाना है,” इतना कहकर वह अपने कमरे में चला गया। तिवारी रसोईघर में चला गया। लेकिन रसोई बनाने से लेकर बाबू के ऑफिस जाने तक का सभी कुछ उसके लिए अत्यंत अर्थहीन हो गया।
वह करुणामयी के हाथ का बना हुआ आदमी है इसलिए मन कितना ही दुश्चिन्ता ग्रस्त क्यों न हो, हाथ के काम में कहीं भूल-चूक नहीं होती। यथासमय भोजन करने बैठकर अपूर्व ने उसे उत्साहित करने के अभिप्राय से भोजन की कुछ बढ़ा-चढ़ाकर प्रशंसा की तथा दो-एक ग्रास मुंह में डालकर बोला, “तिवारी, आज का भोजन तो मानो अमृत ही बनाया है। कई दिनों से अच्छी तरह भोजन नहीं किया था। कैसा डरपोक आदमी है तू? मां ने भी अच्छे आदमी को साथ भेजा है।”
तिवारी ने कहा, “हूं।”
अपूर्व ने उसकी ओर देखकर हंसते हुए कहा, “मुंह एकदम हांडी जैसा क्यों बना रखा है? उस हरामजादे फिरंगी की धमकी देखी? पुलिस में जा रहा है। अरे जाता क्यों नहीं? जाकर क्या करेगा, सुनें तो? तेरा कोई गवाह है?”
तिवारी ने कहा, “मेम साहब को भी क्या गवाही की जरूरत है?”
अपूर्व ने कहा, “उनके लिए क्या कोई दूसरे नियम-कानून हैं फिर वह मेम साहब कैसे? रंग तो मेरे पॉलिश किए हुए जूते की ही तरह है?”
तिवारी मौन रहा।
कुछ देर चुपचाप भोजन करने के बाद अपूर्व ने मुंह ऊपर उठाया। कहा, “और वह लड़की भी कितनी दुष्ट है। कल इस तरह आई जैसे भीगी बिल्ली हो। और ऊपर जाते ही इतनी झूठ-मूठ बातें जोड़ दी।”
तिवारी बोला, “ईसाई है न?”
“जानते हो तिवारी, जो असली साहब हैं वह इनसे घृणा करते हैं। एक मेज पर बैठकर कभी नहीं खिलाते। चाहे कितना ही हैट-कोट पहनें और गिरजे में जाएं।”
तिवारी ने ऐसा कभी नहीं सोचा था। छोटे बाबू का ऑफिस जाने का समय हो रहा है। अब घर में अकेले उसका समय कैसे कटेगा? साहब थाने गया है। हो सकता है, लौटकर दरवाजा तोड़ डाले। हो सकता है, पुलिस साथ लेकर आए। हो सकता है उसे बांधकर ले जाए। क्या होगा? कौन जाने।
अपूर्व भोजन करने के बाद कपड़े पहन रहा था। तिवारी ने कमरे का पर्दा हटाकर कहा, “देखकर जाते तो अच्छा होता।”
“क्या देखकर जाता?”
“उनके लौटने की राह....।”
अपूर्व ने कहा, “यह कैसे हो सकता है? आज मेरी नौकरी का पहला दिन है। लोग क्या सोचेंगे?”
तिवारी चुप रह गया।
अपूर्व ने कहा, “तू दरवाजा बंद करके निश्चिंत बैठा रह, मैं जल्दी ही लौटूंगा। कोई दरवाजा नहीं तोड़ सकता।”
तिवारी ने कहा, “अच्छा।” लेकिन उसने एक लम्बी सांस दबा रखने की जो कोशिश की उसे अपूर्व ने देख लिया। बाहर जाते समय तिवारी ने भारी गले से कहा, “पैदल मत जाना छोटे बाबू! किराए की गाड़ी ले लेना।”
“अच्छा,” कहकर अपूर्व नीचे उतर गया। उसके चलने का ढंग ऐसा था, जैसे नई नौकरी के प्रति उसके मन में कोई हर्ष न हो।
वोथा कम्पनी के भागीदार पूर्वीय क्षेत्र के मैनेजर रोजेन साहब उस समय बर्मा में ही थे। रंगून कार्यालय उन्होंने ही स्थापित किया था। उन्होंने अपूर्व का बड़े आदर से स्वागत किया। उसके स्वरूप, बातचीत तथा यूनिवर्सिटी की डिग्री देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए। सभी कर्मचारियों को बुलाकर परिचय कराया और दो-तीन महीने में व्यवसाय का सम्पूर्ण रहस्य सिखा देने का आश्वासन दिया। बातचीत, परिचय तथा नए उत्साह से उसकी मानसिक ग्लानि कुछ समय के लिए मिट गई। एक व्यक्ति ने उसे विशेष रूप से आकर्षित किया। वह था ऑफिस का एकाउन्टेन्ट। ब्राह्मण है। नाम है रामदास तलवलकर। आयु लगभग उसके जितनी ही या कुछ अधिक हो सकती है। दीर्घ आकृति, बलिष्ठ, गौरवर्ण है। पहनावे में पाजामा, लम्बा कोट, सिर पर पगड़ी, माथे पर लाल चंदन का टीका। बड़ी अच्छी अंग्रेजी में बातचीत करते हैं, लेकिन अपूर्व के साथ उन्होंने पहले से ही हिंदी में बोलना आरम्भ कर दिया। अपूर्व हिंदी अच्छी तरह नहीं जानता। लेकिन जब देखा कि वह हिंदी छोड़कर और किसी में उत्तर नहीं देता तो उसने भी हिंदी बोलना आरम्भ कर दिया। अपूर्व ने कहा, “यह भाषा मैं नहीं जानता। बोलने में बहुत गलतियां होती हैं।”
रामदास बोला, “गलतियां तो मुझसे भी होती हैं। क्योंकि यह मेरी भी मातृभाषा नहीं है।”
अपूर्व बोला, “अगर पराई भाषा में ही बातचीत करनी है तो अंग्रेजी में क्या दोष है?”
रामदास बोला, “अंग्रेजी में तो हम लोग और अधिक गलतियां करते हैं। आप अंग्रेजी में बोला करें। लेकिन अगर मैं हिंदी में उत्तर दूंगा, क्षमा कर दीजिएगा।”
अपूर्व बोला, “मैं भी हिंदी में ही बोलने की चेष्टा करूंगा। लेकिन गलती होने पर आप भी मुझे क्षमा करोगे।”
इस बातचीत के बीच रोजेन साहब स्वयं मैनेजर के कमरे में आ गए। उम्र पचास के लगभग होगी। हालैंड के निवासी हैं। साधारण ढंग के कपडे। चेहरे पर घनी दाढ़ी-मूंछें। टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलते हैं। पक्के व्यवसायी हैं। अब तक बर्मा के अनेक स्थानों में घूमकर तरह-तरह के लोगों से मिलकर, तथ्य संग्रह करके, काम काज के कार्यक्रम का उन्होंने खाका तैयार कर लिया है। उस कार्यक्रम के कागज अपूर्व की टेबल पर रखते हुए बोले, “इसके विषय में आपकी क्या राय है?” फिर तलवलकर से बोले, “इसकी एक प्रति आपके कमरे में भी भेज दी है। लेकिन इसे अभी रहने दिया जाए। क्योंकि आज नए मैनेजर के सम्मान में ऑफिस बंद हो जाएगा। मैं जल्दी ही चला जाऊंगा। तब आप दोनों पर ही सारा कार्यक्रम रहेगा। मैं अंग्रेज नहीं हूं। यद्यपि यह राज्य हम लोगों का हो सकता था। फिर भी उन लोगों की तरह हम भारतीयों को नीच नहीं समझते। अपने समान ही समझते हैं। केवल फर्म की ही नहीं, आप लोगों की उन्नति भी आप लोगों के कर्त्तव्य-ज्ञान पर निर्भर है। अच्छा गुड्ड। ऑफिस दो बजे के बाद बंद जो जाना चाहिए। कहते हुए जिस तरह आए थे उसी तरह चले गए।
ठीक दो बजे दोनों साथ-साथ ऑफिस से निकले। तलवलकर शहर में नहीं रहता। लगभग दस मील पश्चिम में इनसिन नामक स्थान में डेरा है। डेरे में उसकी पत्नी तथा एक छोटी-सी बेटी रहती है वहां शहर का हो-हल्ला नहीं है। टे्रनों में आने-जाने से कोई असुविधा नहीं होती।
“हाल्दर बाबू, कल ऑफिस के बाद मेरे यहां चाय का निमंत्रण रहा,” तलवलकर ने कहा।
अपूर्व बोला, “मैं चाय नहीं पीता बाबू जी।”
“नहीं पीते? पहले मैं भी नहीं पीता था। लेकिन मेरी पत्नी नाराज होती है। अच्छा, न हो तो फल-फूल, शर्बत... हम लोग भी ब्राह्मण हैं।”
अपूर्व ने हंसते हुए कहा, “ब्राह्मण तो अवश्य हैं, लेकिन अगर आप लोग मेरे हाथ का खाएं तो मैं भी आपकी पत्नी के हाथ का खा सकता हूं।”
रामदास ने कहा, “मैं तो खा सकता हूं। लेकिन मेरी पत्नी की बात...अच्छा, आपका डेरा तो पास ही है। चलिए न, आपको पहुंचा आऊं। मेरी ट्रेन तो पांच बजे छूटेगी।”
अपूर्व घबरा गया। इस बीच वह सब कुछ भूल गया था। डेरे का नाम लेते ही क्षण भर में उसका सारा उपद्रव, सारा झगड़ा बिजली की रेखा की भांति चमककर उसके चेहरे को श्रीहीन कर गया। अब तक वहां क्या हुआ होगा, वह कुछ नहीं जानता। हो सकता है, बहुत कुछ हुआ तो। अकेले उसी को बीच में जाकर खड़ा होना पड़ेगा। एक परिचित व्यक्ति के साथ रहने से कितनी सुविधा और साहस रहता है। लेकिन परिचय के आरम्भ में ही....यह क्या सोचेगा?.... यह सोचकर अपूर्व को बड़ा संकोच हो उठा। बोला, “देखिए....?”
अभी बात पूरी नहीं कर सका था कि उसके संकोच और लज्जा को अनुभव करके रामदास ने हंसते हुए कहा, “एक ही रात में पूरी सुव्यवस्था की मैं आशा नहीं करता बाबू जी! मुझे भी एक दिन नया डेरा ठीक करना पड़ा था। फिर मेरी तो पत्नी भी थी। आपके साथ तो वह भी नहीं है। आप आज लज्जा का अनुभव कर रहे हैं। लेकिन उन्हें न लाने पर एक वर्ष बाद भी आपकी लज्जा दूर नहीं होगी। यह मैं कहे देता हूं। चलिए देखूं क्या कर सकता हूं। अव्यवस्था के बीच ही तो मित्र की आवश्यकता होती है।”
इस मित्रहीन देश में आज उसे मित्र की अत्यंत आवश्यकता है। दोनों टहलते-टहलते डेरे के सामने पहुंचे तो तलवलकर को घर में आमंत्रित किए बिना न रह सका। ऊपर चढ़ते समय देखा कि वही ईसाई लड़की नीचे उतर रही है। उसका पिता उसके साथ नहीं था। वह अकेली थी। दोनों एक ओर हटकर खड़े हो गए। लड़की धीरे-धीरे उतरकर सड़क पर चली गई।
रामदास ने पूछा, “यह लोग तीसरी मंजिल पर रहते हैं क्या?”
“हां।”
“यह लोग भी बंगाली हैं?”
अपूर्व ने सिर हिलाकर कहा, “नहीं, देसी ईसाई हैं। सम्भव है मद्रासी, गोआनीज या और कुछ होंगे, लेकिन बंगाली नहीं हैं।”
रामदास ने कहा, “लेकिन साड़ी पहनने का ढंग तो ठीक आप लोगों जैसा ही है।”
अपूर्व ने हैरानी से पूछा, “हम लोगों का ढंग आपको कैसे मालूम?”
रामदास ने कहा, “मैंने बम्बई, पूना, शिमला में बहुत-सी बंगाली महिलाओं को देखा है। इतना सुंदर साड़ी पहनने का ढंग भारत की किसी जाति में नहीं है।”
“हो सकता है,” कहकर अपूर्व डेरे के बंद दरवाजे को खटखटाने लगा।
थोड़ी देर बाद अंदर से सतर्क कंठ का उत्तर आया, “कौन?”
“मैं हूं, मैं। दरवाजा खोलो। भय की कोई बात नहीं है,” कहकर अपूर्व हंसने लगा। यह देखकर कि इस बीच कोई भयानक घटना नहीं हुई, तिवारी कमरे में सुरक्षित है। और यह अनुभव करके उसके ऊपर से जैसे एक बहुत बड़ा बोझ उतर गया।
कमरा देखकर रामदास बोला, “आपका नौकर अच्छा है। सब कुछ अच्छी तरह सजाकर रखा है। यह सारा सामान मैंने ही खरीदा था। आपको और जिस चीज की जरूरत हो, बताइए, भेज दूंगा। रोजेन साहब की आज्ञा है।”
तिवारी ने मधुर स्वर में कहा, “और सामान की जरूरत नहीं है बाबू जी, यहां से सकुशल हट जाएं तो प्राण बच जाएंगे।”
उसकी बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन अपूर्व ने सुन लिया। उसने आड़ में ले जाकर पूछा, “और कुछ हुआ था क्या?”
“नहीं।”
“तब फिर ऐसी बात क्यों कहता है?”
तिवारी ने कहा, “शौक से थोडे ही कहता हूं। दोपहर भर साहब जैसी घुड़दौड़ करता रहा है, वैसी क्या कोई मनुष्य कर सकता है?”
अपूर्व मुस्कराकर बोला, “तो तू चाहता है कि वह अपने कमरे में चलने-फिरने भी न पाए? लकड़ी की छत है! अधिक आवाज होती है।”
तिवारी ने रुष्ट होकर कहा, “एक स्थान पर खड़े होकर घोड़े की तरह पैर पटकने को चलना कहा जाता है?”
अपूर्व बोला, “इससे पता चलता है कि वह शराबी है। उसने जरूर शराब पी रखी होगी।”
तिवारी बोला, “हो सकता है। मैं उसका मुंह सूंघकर देखने नहीं गया था।” फिर अप्रसन्न भाव से रसोई घर में जाते हुए बोला, “चाहे जो भी हो, इस घर में रहना नहीं होगा।”
ट्रेन का समय हो जाने पर रामदास ने विदा मांगी। पता नहीं तिवारी के अभियोग या उसके स्वामी के चेहरे से उसने कुछ अनुमान लगाया या नहीं, लेकिन जाते समय अचानक पूछ बैठा, “बाबू जी, क्या आपको इस डेरे में असुविधा है?”
अपूर्व ने तनिक हंसकर कहा, “नहीं।” फिर रामदास को जिज्ञासु भाव से निहारते देखकर बोला, “ऊपर जो साहब रहते हैं वह मेरे साथ अच्छा व्यवहार नहीं कर रहें।”
रामदास ने विस्मित होकर पूछा, “वही लड़की तो नहीं?”
“जी हां, उसी के पिता,” इतना कहकर अपूर्व ने कल सांझ और आज सवेरे की घटनाएं सुना दीं। रामदास कुछ देर मौन रहने के बाद बोला, “मैं होता तो इतिहास दूसरा ही होता। बिना क्षमा मांगे वह इस दरवाजे से एक कदम भी नीचे न उतर पाता।”
अपूर्व ने कहा, “अगर वह क्षमा न मांगता तो आप क्या करते?”
रामदास ने कहा, “तो उतरने न देता।”
अपूर्व ने भले ही उसकी बातों पर विश्वास न किया हो, लेकिन साहस भरी बातों से उसे कुछ साहस अवश्य मिला। हंसते हुए बोला, “चलिए अब नीचे चलें। आपकी ट्रेन का समय हो गया है।” इतना कहकर मित्र का हाथ पकड़कर नीचे उतरने लगा। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि जिस तरह आते समय उस लड़की से भेंट हुई थी उसी तरह जाते समय भी हो गई। उसके हाथ में कागज का एक मुड़ा हुआ बंडल था। शायद कुछ खरीदकर लौट रही थी। उसे रास्ता देने के लिए अपूर्व एक ओर हटकर खड़ा हो गया। लेकिन सहसा घबराकर देखा-रामदास रास्ता न देकर उसे रोके खड़ा है। वह अंग्रेजी में बोला, “क्षमा करना, मैं बाबू जी का मित्र हूं। इनके साथ अकारण किए गए र्दुव्यवहार के लिए आप लोगों को लज्जित होना चाहिए।”
लड़की ने आंख उठाकर क्रुध्द स्वर में कहा, “इच्छा हो तो यह बातें आप मेरे पिता जी से कह सकते हैं।”
“आपके पिताजी घर पर हैं।”
“नहीं।”
“मेरे पास प्रतीक्षा करने के लिए समय नहीं है। मेरी ओर से उनसे कह दीजिएगा कि उनके उपद्रव से इनका रहना दूभर हो गया है।”
लड़की ने पूर्ववत् कड़वे स्वर में कहा, “उनकी ओर से मैं ही उत्तर दिए देती हूं कि आप अगर चाहें तो किसी दूसरी जगह जा सकते हैं।”
रामदास थोड़ा हंसकर बोला, “भारतीय ईसाईयों को मैं पहचानता हूं। उनके मुंह से इससे बड़े उत्तर की आशा मैं नहीं करता। लेकिन इससे उनको सुविधा नहीं होगी। क्योंकि इनके स्थान पर मैं आऊंगा, मेरा नाम रामदास तलवलकर है। मैं जात से ब्राह्मण हूं। तलवार शब्द का क्या अर्थ होता है अपने पिता को जान लेने के लिए कहिएगा। गुड इवनिंग। चलिए बाबू जी,” इतना कहकर वह अपूर्व का हाथ पकड़कर एकदम रास्ते में आ गया।
लड़की के चेहरे को अपूर्व ने छिपी नजरों से देख लिया था। घटना के अंत में वह किस प्रकार कठोर हो उठी थी-यह सोचकर वह कुछ क्षण तक कोई बात ही नहीं कर सका। इसके बाद धीरे से बोला, “यह क्या हुआ तलवलकर?”
तलवलकर ने उत्तर दिया, “यही हुआ कि आपके जाते ही मुझे यहां आना पड़ेगा। केवल खबर मिल जानी चाहिए।”
अपूर्व ने कहा, “अर्थात दोपहर को आपकी पत्नी अकेली रहेंगी?”
रामदास ने कहा, “अकेली नहीं। मेरी दो वर्ष की लड़की भी है।”
“यानी आप मजाक कर रहे हैं।”
“नहीं, मैं सच कह रहा हूं। हंसी-मजाक की मेरी आदत ही नहीं है।”
अपूर्व ने एक बार अपने साथी की ओर देखा। फिर धीरे से कहा, “तो फिर मैं यह डेरा नहीं छोड़ सकूंगा....।”
उसकी बात पूरी नहीं हो पाई थी कि रामदास ने सहसा उसके दोनों हाथों को अपने शक्तिशाली हाथों से पकड़कर जोर से झकझोरते हुए कहा, “मैं यही चाहता हूं बाबू जी! उत्पात के भय से हम लोग बहुत भाग चुके हैं, लेकिन अब नहीं।”
सांझ होने में अभी देर थी। एक घंटे तक किसी ट्रेन का समय भी नहीं था। इसलिए स्टेशन के दूसरी ओर वाले प्लेटफार्म पर यात्रियों की भीड़ अधिक नहीं थी। अपूर्व टहलते हुए घूमने लगा। अचानक उसके मन में विचार आया कि कल से आज तक इस एक ही दिन में जीवन न जाने कैसे सहसा कई वर्ष पुराना हो गया है। यहां पर मां नहीं है, भाई नहीं है। भाभियां नहीं हैं। स्नेह की छाया भी कहीं नहीं है। कर्मशाला के असंख्य चक्र दाएं-बाएं, सिर के ऊपर, पैरों के नीचे, चारों ओर वेग से घूमते हुए चल रहे हैं। तनिक भी असमर्थ होने पर रक्षा पाने का कहीं कोई उपाय नहीं है।
उसकी आंखों की कोरें गीली हो उठीं। कुछ दूरी पर काठ की एक बेंच थी। उस पर बैठकर आंखें पोंछ रहा था कि सहसा पीछे से एक जोर का धक्का खाकर पेट के बल जमीन पर जा गिरा। किसी तरह उठकर खड़ा होते ही देखा पांच-छ: फिरंगी बदमाश लड़के हैं। किसी के मुंह में सिगरेट है तो किसी के मुंह में पाइप है और वह दांत निकालकर हंस रहे थे। शायद वही लड़का जिसने धक्का मारा था, बेंच के ऊपर लिखे अक्षरों को दिखाकर बोला, “साले! यह साहब लोगों के वास्ते है, तुम्हारे लिए नहीं।”
लज्जा, क्रोध तथा अपमान से अपूर्व की गीली आंखें लाल हो उठीं, होंठ कांपने लगे।
“साला, दूधवाला, आंखें दिखाता है?” सब एक साथ ऊंचे स्वर से हंस पड़े। एक ने उसके मुंह के सामने आकर अत्यंत अश्लील ढंग से सीटी बजाई।
अपूर्व पल भर बाद ही शायद सबके ऊपर झपट पड़ता लेकिन कुछ हिंदुस्तानी कर्मचारियों ने, जो कुछ दूर बैठे चिमनी साफ कर रह थे, बीच में पड़कर उसे प्लेटफार्म से बाहर कर दिया। एक फिरंगी लड़का भागता हुआ आया और भीड़ में पैर बढ़ाकर अपूर्व के सफेद सिल्क के कुर्त्तों पर जूते का दाग लगा गया। हिंदुस्तानियों के इस दल से वह अपने को मुक्त करने के लिए खींचातानी कर रहा था। एक ने उसे झकझोरते हुए कहा, “अरे बंगाली बाबू! अगर साहब लोगों का शरीर छुएगा तो एक साल की जेल हो जाएगी। जाओ भागो।” एक ने कहा, “अरे बाबू है, धक्का मत दो।” जो लोग कुछ नहीं जानते थे वह कारण पूछने लगे। जो लोग जानते थे, तरह-तरह की सलाह देने लगे। अपूर्व ऑफिस का पहनावा छोड़कर सामान्य बंगाली की पोशाक में स्टेशन गया था। इसलिए फिरंगियों ने उसे दूधवाला समझकर मारा था।
अपूर्व सीधा स्टेशन मास्टर के कमरे में गया। स्टेशन मास्टर अंग्रेज थे। मुंह उठाकर उन्होंने देखा। अपूर्व ने जूते का दाग दिखाकर घटना सुनाई, वह अवज्ञापूर्वक बोले, “योरोपियन की बेंच पर बैठे क्यों?”
अपूर्व ने कहा, “मुझे मालूम नहीं था।”
“मालूम कर लेना चाहिए था।”
“क्या इसीलिए उन्होंने एक भले आदमी पर हाथ उठाया?”
साहब ने दरवाजे की ओर हाथ बढ़ाकर कहा, “गो-गो-गो, चपरासी इसको बाहर कर दो।” कहकर वे अपने काम में लग गए।
अपूर्व न जाने किस तरह घर लौटा। दो घंटे पहले रामदास के साथ इस रास्ते से जाते समय उसके हृदय में जो दुर्भावना सबसे अधिक खटक रही थी, वह अकारण मध्यस्थता ही थी। उत्पात और अशांति की मात्रा उससे घटेगी नहीं, बल्कि बढ़ेगी ही। इसके अतिरिक्त उस ईसाई लड़की का कितना ही अपराध क्यों न हो, वह नारी है। इसलिए पुरुष के मुंह से ऐसे कठोर वचन निकालना उचित नहीं हुआ। इसके अतिरिक्त उस समय एकदम अकेली भी थी। जब उस लड़की की बात याद आई तो वह साहब की लड़की मालूम हुई, साधारण नारी-जाति की नहीं। जिन फिरंगी लड़कों ने कुछ पल पहले अकारण ही उसका अपमान किया, जिनकी कुशिक्षा, नीचता और बर्बरता की सीमा नहीं थी, उनकी ही बहन जान पड़ी। जिस साहब ने अत्यंत अविचार के साथ उसे कमरे से बाहर निकाल दिया था, मनुष्य का सामान्य अधिकार भी नहीं दिया था, उसकी परम आत्मीय ज्ञात हुई।
तिवारी ने आकर कहा, “छोटे बाबू, भोजन ठंडा हो रहा है।”
“चलो आता हूं,” अपूर्व ने कहा।
दस-पंद्रह मिनट बाद उसने फिर कहा, “भोजन ठंडा हो रहा है।”
अपूर्व ने क्रोधित होकर कहा, “क्यों बेकार तंग करता है तिवारी? मैं नहीं खाऊंगा। मुझे भूख नहीं है।”
उसकी आंखों में नींद नहीं आई। रात जितनी ही बढ़ने लगी, सारा बिछौना मानो कांटे की सेज हो उठा। एक मर्मान्तक वेदना उसके सम्पूर्ण अंग में चुभने लगी और उसी के बीच-बीच स्टेशन के उन हिंदुस्तानियों की याद आने लगी जिन्होंने संख्या में अधिक होते हुए भी उसकी लांछना को कम करने में बिल्कुल ही भाग नहीं लिया। बल्कि उसके अपमान की मात्रा बढ़ाने में ही सहायता की। देशवासियों के विरुध्द देशवासियों की इतनी लज्जा, इतनी ग्लानि संसार के और किसी देश में है? ऐसा क्यों हुआ? कैसे हुआ? इन्हीं बातों पर विचार करता रहा।
दो-तीन दिन शांतिपूर्वक बीत गए। ऊपर की मंजिल से साहब का अत्याचार जब किसी नए रूप में प्रकट नहीं हुआ तो अपूर्व ने समझ लिया कि उस ईसाई लड़की ने उस दिन की बातें अपने पिता को नहीं बताई। लड़की से भी सीढ़ियों में दो-एक बार भेंट हुई। वह मुंह मोड़कर उतर जाती है। उस दिन सवेरे छोटे बाबू को भात परोसकर तिवारी ने प्रसन्नता भरे स्वर में कहा, “लगता है, साहब ने कोई नालिश-वालिश नहीं की।”
अपूर्व ने कहा, “जो गरजता है बरसता नहीं है।”
तिवारी बोला, “हम लोगों का डेरे में अधिक दिन रहना नहीं हो सकेगा। साले, सब कुछ खाते-पीते हैं। याद आते ही....।”
“चुप रह तिवारी,” वह उस समय भोजन कर रहा था। बोला, “इसी महीने के बाद छोड़ देंगे। लेकिन अच्छा मकान तो मिले।”
उसी दिन शाम को ऑफिस से लौटकर तिवारी की ओर देखकर अपूर्व स्तब्ध रह गया। इतनी ही देर में वह जैसे सूखकर आधा हो गया था। पूछा, “क्या हुआ तिवारी?”
प्रत्युत्तर में उसने बादामी रंग के कुछ कागज अपूर्व को पकड़ा दिए। फौजदारी अदालत का सम्मन था। वादी जे. डी. जोसेफ थे और प्रतिवादी तीन नम्बर कमरे का अपूर्व नामक बंगाली और उसका नौकर था। दोपहर को कचहरी का चपरासी दे गया था।
चपरासी के साथ वही साहब आया था। परसों हाजिर होने की तारीख है। अपूर्व ने कागज पढ़कर कहा, “कोर्ट में देखा जाएगा।”
यह कहकर वह कपड़े बदलने कमरे में चला गया।
तारीख वाले दिन तिवारी को साथ लेकर अपूर्व अदालत में हाजिर हुआ। इस विषय में रामदास से सहायता लेने में उसे लज्जा अनुभव हुई। केवल जरूरी काम का बहाना करके उसने एक दिन की छुट्टी ले ली थी।
डिप्टी कमिश्नर की अदालत में मुकदमा था। वादी जोसेफ-सच, झूठ जो मन में आया, कह गया। अपूर्व ने न तो कोई बात छिपाया और न कोई बात बढ़ाकर ही कही। बाकी की गवाह उसकी लड़की थी। अदालत के सामने उस लड़की का नाम और बयान सुनकर अपूर्व खिन्न रह गया। आप किसी स्वर्गीय राजकुमार भट्टाचार्य महाशय की सुपुत्री हैं। पहले यह लोग पारीसाल में थे। लेकिन अब बंगलौर में हैं। आपका नाम मेरी भारती है। इनकी मां किसी मिशनरी के साथ बंगलौर चली आई थीं वहीं जोसेफ साहब के रूप पर मोहित होकर उनसे विवाह कर लिया। भारती ने पैतृक भट्टाचार्य नाम को निरर्थक समझकर उसे त्याग दिया और जोसेफ नाम को ग्रहण कर लिया। तभी से वह मिस मेरी जोसेफ के नाम से प्रसिध्द हैं। न्यायाधीश के प्रश्न करने पर वह फल-फूल उपहार देने की बात से इनकार कर गई। लेकिन उसके कंठ स्वर में असत्य बोलने की घबराहट इतनी स्पष्ट हो गई कि केवल न्यायाधीश ही नहीं उसके चपरासी तक को धोखा नहीं दे सकी। फैसला उसी दिन हो गया। तिवारी छूट गया, लेकिन अपूर्व पर बीस रुपया जुर्माना हो गया। निरपराध होते हुए दंडित होने पर उसका मुंह सूख गया। रुपए देकर घर आकर देखा- दरवाजे के सामने रामदास खड़ा है। अपूर्व के मुंह से निकल पड़ा-”बीस रुपए जुर्माना हुआ रामदास। अपील की जाए?”
उत्तेजना से उसकी आवाज कांप उठी। रामदास ने उसके दाएं हाथ को थामकर हंसते हुए कहा, “बीस रुपए जुर्माने के बदले दो हजार की हानि उठाना चाहते हैं?”
“होने दो। लेकिन यह तो जुर्माना है। दंड है। राजदंड है।”
रामदास हंसते हुए बोला, 'किसका दंड? जिसने झूठी गवाही दिलाई। लेकिन इसके ऊपर भी एक अदालत है। उसका न्यायाधीश अन्याय नहीं करता। वहां आप निर्दोष हैं।”
अपूर्व बोला, “लेकिन लोग तो ऐसा नहीं समझेंगे रामदास! उनके सामने तो यह बदनामी हमेशा के लिए बनी रहेगी।”
रामदास ने कहा, “चलो नदी किनारे टहल आएं।” चलते हुए रास्ते में वह बोला, “अपूर्व बाबू, विद्या में आपसे छोटा होते हुए भी उम्र में आपसे बड़ा हूं मैं। अगर कुछ कहूं तो खयाल न करना।”
अपूर्व मौन रहा।
रामदास ने कहा, “वह इस मामले को जानता था। लोग जानते हैं कि 'हालदार' के साथ जोसेफ का मुकदमा चलने पर अंग्रेजी न्यायालय में क्या होता है। बीस रुपए की जुर्माने की बदनामी....।
“लेकिन यह तो बिना अपराध का दंड हुआ रामदास?”
“हां, बिना अपराध मैं भी दो वर्ष जेल में रह आया हूं।”
“दो वर्ष जेल में?”
“हां, दो वर्ष,” फिर हंसकर बोला, 'अगर अपने कुर्त्तों को उतार दूं तो देखोगे कि बेंतों के दागों से कोई स्थान बचा नहीं है।”
“बेंत भी लग चुके हैं रामदास?”
रामदास हंसकर बोला, “हां, ऐसा ही। बिना अपराध के भी मैं इतना निर्लज्ज हूं कि लोगों को मुंह दिखाता हूं और आप बीस रुपए जुर्माने की बदनामी नहीं सह सकते?”
अपूर्व उसका मुंह देखकर चुप हो गया। रामदास बोला, “अच्छा, चलिए आपको पहुंचाकर घर जाऊं।”
“अभी ही चले जाओगे? अभी तो बहुत-सी बातें जाननी हैं।”
रामदास ने हंसकर कहा, “सब आज ही जान लोगे? यह नहीं होगा। मुझे सम्भवत: बहुत दिनों तक बताना पड़ेगा।”
बहुत दिनों पर उसने इस तरह जोर दिया कि अपूर्व आश्चर्य से उसे देखता रह गया, लेकिन कुछ समझ नहीं पाया। रामदास गली के अंदर नहीं गया। बाहर से ही विदा लेकर स्टेशन चला गया।
अपूर्व ने द्वार पर धक्का दिया। तिवारी ने आकर दरवाजा खोल दिया। वह घर के कामों में लगा हुआ था, उसका चेहरा उतर गया था। वह बोला, “उस समय जल्दबाजी में दो नोट फेंक गए थे आप?”
अपूर्व ने आश्चर्य से पूछा, 'कहां फेंक गया था जी?”
“यहीं तो....” कहते हुए उसने दरवाजे के पास रखी मेज की ओर इशारा किया, “आपके तकिए के नीचे रख दिए हैं। बाहर कहीं नहीं गिरे, यही सौभाग्य है।”
वह नोट कैसे गिर पड़े? यही सोचते हुए अपूर्व अपने कमरे में चला गया।
तिवारी ने रात को रोते हुए हाथ जोड़कर कहा, “इस बूढे क़ी बात मानिए बाबू! चलिए, कल सवेरे ही हम लोग जहां भी हो भाग चलें।”
अपूर्व ने कहा, 'कल ही? सुनूं तो? क्या धर्मशाला में चले, चलें?”
तिवारी बोला, “इससे तो वही अच्छा है। साहब मुकदमे में जीत गया है। अब किसी दिन हम दोनों को पीट भी जाएगा।”
अपूर्व सहन न कर सका। क्रोधित होकर बोला, “मां ने क्या तुझे मेरे घाव पर नमक छिड़कने के लिए भेजा था? मुझे तेरी जरूरत नहीं, तू कल ही घर चला जा। मेरे भाग्य में जो बदा है वही होगा।”
तिवारी फिर कुछ नहीं बोला। चुपचाप सोने चला गया। उसकी बात अपूर्व को अपमानजनक जान पड़ी। इसलिए उसने ऐसा उत्तर दिया था। अगले दिन नए मकान की खोज होने लगी। तलवलकर को छोड़कर ऑफिस के लगभग सभी लोगों से उसने कह दिया था। इसके बाद तिवारी ने फिर कोई शिकायत नहीं की।
स्वाभाविक बात थी कि मुकदमा जीत जाने के बाद जोसेफ परिवार के विचित्र उपद्रव नए-नए रूप में प्रकट होंगे। लेकिन उपद्रव की बात कौन कहे, ऊपर कोई रहता नहीं, कभी-कभी यह संदेह होने लगा था।
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