पथ के दावेदार / अध्याय 2 / शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

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उपद्रव रहित एक सप्ताह के बाद एक दिन ऑफिस से लौटने पर तिवारी ने प्रसन्न होकर कहा, “आपने सुना छोटे बाबू?”

“क्या”

“साहब का पैर टूट गया। अस्पताल में हैं। देखें बचता है या नहीं।”

“तुझे कैसे पता लगा?”

तिवारी बोला, “मकान मालिक का मुनीम हमारे जिले का है। वह आया था किराया लेने, उसी ने बताया है।”

“हो सकता है,” कहकर अपूर्व कपड़े बदलने अपने कमरे में चला गया।

तिवारी को पूर्ण विश्वास था कि म्लेच्छ होकर ब्राह्मण के सिर पर जिसने घोड़े की तरह पैर पटका है, उसका पैर न टूटेगा तो क्या होगा? अगले दिन अपूर्व ने तिवारी को बुलाकर कहा, 'एक मकान मिला है, जाकर देख आओ।”

तिवारी ने हंसकर कहा, “अब दूसरे मकान की जरूरत नहीं पड़ेगी बाबू! मैंने सब ठीक कर लिया है। अगली पहली तारीख को जाने वाले चले जाएंगे।”

मकान बदलने में कम झंझट नहीं है, अपूर्व अच्छी तरह जानता था। लेकिन साहब की अनुपस्थिति में जो उपद्रव बंद हो गया है वह उनके लौट आने पर भी बंद रहेगा, उसे ऐसी आशा नहीं थी। ऑफिस जाने से पहले तिवारी ने छुट्टी मांगते हुए बताया कि आज दोपहर को वह बर्मियों के मंदिर में तमाशा देखने जाएगा। अपूर्व ने हंसकर पूछा, “तुझें तमाशा देखने का कब से शौक हुआ है। तिवारी?”

“विदेश का सब कुछ देख लेना चाहिए बाबू!”

अपूर्व बोला, “अवश्य, अवश्य। लंगडा साहब अस्पताल में है। इस समय बाहर जानें में कोई डर नहीं है। चले जाना, लेकिन जल्दी ही लौट आना।”

साहब की दुर्घटना के समाचार से वह इतना प्रसन्न था कि अपने यहां के जिस व्यक्ति से कल उसका परिचय हुआ था आज उसके प्रस्ताव को अस्वीकार नहीं कर सका।

उसे जाने की अनुमति देकर अपूर्व ऑफिस चला गया। उसके एक घंटे बाद ही तिवारी को उसके गांव का वही व्यक्ति आकर बर्मियों का तमाशा दिखाने ले गया।

तीसरे पहर घर लौटकर अपूर्व ने देखा, दरवाजे में ताला लगा है। तिवारी ने वह पुराना ताला बदलकर यह नया ताला क्यों लगाया, वह दो मिनट तक बाहर खड़ा सोचता रहा। तभी ऊपर से वही ईसाई लड़की बोली, “मैं खोलती हूं।” कहकर वह नीचे आई और बोली, “मां कह रही थी कि अपना ताला लगाकर मैंने अच्छा नहीं किया। ऐसा न हो कि मैं विपत्ति में पड़ जाऊं।”

फिर द्वार खोलते हुए बोली, 'मां बहुत डरपोक है। बिगड़ रही थीं कि अगर आप विश्वास न करेंगे तो मुझको ही चोरी के अपराध में जेल जाना पड़ेगा। लेकिन मुझे तनिक भी डर नहीं लगा।”

अपूर्व बोला, “लेकिन हुआ क्या?”

“कमरे में जाकर देखिए, क्या हुआ है?”

अपूर्व ने कमरें मे घुसकर देखा। दोनों ट्रंको के ताले टूटे पड़े हैं। पुस्तकें, कागज, बिस्तर, कपड़े आदि फर्श पर पड़े हैं। उसके मुंह से निकला, “यह सब कैसे हुआ? किसने किया?”

भारती बोली, “भले ही किसी ने भी किया हो, लेकिन मैंने नहीं किया।” फिर उसने पूरी घटना सुनाई- “दोपहर को तिवारी जब तमाशा देखने जा रहा था तो भारती की मां ने उसे देखा था। थोड़ी देर बाद नीचे के कमरे में खटखट सुनकर भारती को देखने के लिए कहा। उनकी छत के एक किनारे एक छेद है। उसी छेद से देखते ही भारती चिल्ला उठी। जो लोग बक्स तोड़ रहे थे वह जल्दी से भाग गए। तब वह नीचे आकर दरवाजे में ताला लगाकर पहरा देने लगी कि कहीं वह फिर न लौट आएं।”

अपूर्व पलंग पर बैठ गया। भारती ने कहा, “इस कमरे में आपका भोजन का तो कोई सामान नहीं है? क्या मैं कमरे में आ सकती हूं?”

“आइए,” अपूर्व ने कहा। फिर विमूढ़ की तरह उससे पूछा,”अब मुझे क्या करना चाहिए?

भारती ने कहा, “सबसे पहले यह देखना चाहिए कि क्या-क्या चीजें चोरी गई हैं।”

अपूर्व ने कहा, “अच्छा, देखिए न क्या-क्या चोरी गया है?”

भारती ने हंसकर कहा, “न तो मैंने आपके ट्रंक की चीजों को पहले कभी देखा था और न चोरी ही की है। इसलिए क्या था और क्या नहीं, मैं कैसे जान सकती हूं?

अपूर्व लज्जित होकर बोला, “आप ठीक कहती हैं। अच्छा तो फिर तिवारी को आ जाने दीजिए। वही सब कुछ जानता है,” कहकर इधर-उधर बिखरी चीजों को करुणा भरी नजरों से देखने लगा।

उसका निरुपाय चेहरा देखकर भारती हंसती हुई बोली, “वह जानता है और आप नहीं जानते। अच्छा मैं आपको सिखा देती हूं कि किस तरह जाना जाता है।” इतना कहकर फर्श पर बैठ गई और ट्रंक को पास खींचती हुई बोली, “अच्छा, पहले कपड़े-लत्ते संभाल लूं। यह क्या है? शायद मुर्शिदाबादी सिल्क का सूट है? ऐसे कितने सूट हैं?

“दो सूट।”

“मिल गए। यह एक और जोड़ा है। अच्छा, धोती एक, दो, तीन....चादर एक, दो, तीन.... ठीक मिल गया। शायद तीन ही जोड़ी थी?”

अपूर्व बोला, “हां तीन ही जोड़ी थी?”

“यह फ्लालेन का सूट है। आप वहां शायद टेनिस खेलते थे। हां तो एक, दो, तीन... उस अलमारी में एक, और एक आप पहने हैं-तो फिर सूट पांच ही जोडे हैं?”

अपूर्व प्रसन्न होकर बोला, “हां ठीक है। पांच ही जोड़े हैं।”

इतने में एक चमकीली वस्तु दिखाई पड़ी। उसे बाहर निकालकर बोली, “यह चेन सोने की है। घड़ी कहां गई?'

अपूर्व प्रसन्न होकर बोला, “खैर है कि बच गई। चेन शायद वह लोग देख नहीं सके। यह मेरे पिता जी की निशानी है।”

“लेकिन घड़ी?”

“यहां है,” कहकर अपूर्व ने घड़ी दिखा दी।

भारती बोली, “चेन और घड़ी मिल गई। अब अंगूठियां बताइए।”

अपूर्व बोला, “मेरे पास एक भी नहीं है।”

“चलो, यह भी अच्छा हुआ। लेकिन सोने के बटन?”

अपूर्व बोला, “टसर के पंजाबी कुर्ते में लगे थे।”

भारती ने अलमारी की ओर देखा। फिर हंसकर बोली, “लगता है कुर्ते के साथ वह बटन भी चले गए।”

फिर पूछा, “ ट्रंक में रुपया था न?”

अपूर्व के 'हां' कहने पर भारती बोली, “तो फिर वह भी चला गया।”

“कितना था?”

“यह मालूम नहीं।”

“यह तो मैं पहले ही समझ गई हूं। आपके पास मनी बैग है न? लाइए, मुझे दीजिए देखूं।”

अपूर्व ने मनी बैग भारती को दे दिया। वह हिसाब लगाकर बोली, “दो सौ पचास रुपए आठ आने हैं। घर से कितने लेकर चले थे?”

अपूर्व बोला, “छ: सौ रुपए।”

भारती लिखने लगी-जहाज का किराया, तांगे का भाड़ा, कुली की मजदूरी ...पहुंचकर घर के लिए तार भेजा था न? अच्छा, उसका भी रुपया और उसके बाद इधर दस दिनों का खर्च।”

अपूर्व बोला, “वह तिवारी से बिना पूछे कैसे बता सकता हूं?”

भारती बोली, “सब मालूम हो जाएगा। दो-एक रुपए का अंतर पड़ सकता है। अधिक नहीं।” कागज पर अपने आप हिसाब लिखकर बोली, “इसके अतिरिक्त और कोई खर्च तो नहीं है न?”

“नहीं।”

“तो फिर दो सौ अस्सी रुपए चोरी गए हैं।”

अपूर्व चकित होकर बोला, “इतने रुपए?-रुकिए, बीस रुपए और कम कीजिए। जुर्माने का रुपया नहीं लिखा?

“नहीं, वह अन्याय था, झूठमूठ का जुर्माना। वह मैं कम नहीं करूंगी।

अपूर्व चकित होकर बोला, “जुर्माना तो झूठमूठ हो सकता है लेकिन जुर्माना देना तो सच है।”

भारती बोली, “आपने दिया क्यों? उस रुपए को मैं कम नहीं करूंगी। पूरे दो सौ अस्सी रुपए चोरी गए हैं।”

“नहीं-दो सौ साठ।”

“नहीं, दो सौ अस्सी रुपए।”

अपूर्व ने विवाद नहीं किया। इस लड़की की प्रखर बुध्दि तथा अद्भुत तीक्ष्ण बुध्दि देखकर वह चकित रह गया।

अपूर्व ने पूछा, “पुलिस में खबर देना क्या ठीक होगा?”

भारती बोली, “क्यों नहीं? ठीक केवल इसलिए होगा कि उससे मेरी काफी खींचातानी होगी। वह आकर आपके रुपए दे जाएंगे-ऐसी तो आशा है नहीं।”

अपूर्व मौन रहा।

भारती बोली, “चोरी तो हो गई। अब अगर वह लोग आएंगे तो अपमान भी आरम्भ हो जाएगा।”

“लेकिन कानून तो है?”

“कानून तो है। लेकिन मैं किसी भी दशा में यह नहीं करने दूंगी। कानून उस दिन भी था जिस दिन आप अकारण जुर्माना दे आए थे।”

अपूर्व बोला, “लोग अगर झूठ बोलें और झूठे मामले को सिध्द करें तो इसमें कानून का क्या दोष है?”

भारती लज्जित-सी हो गई। बोली, “लोग झूठ न बोलेंगे, झूठे मामले न चलाएंगे तभी जाकर कानून निर्दोष होगा-क्या आपका मत यही है? अगर ऐसा हो तो ठीक ही है। लेकिन संसार में ऐसा होता नहीं।” इतना कहकर वह हंस पड़ी। लेकिन अपूर्व मौन रहा। भारती का यह चोरी छिपाने का आग्रह, इस समय उसे अच्छा नहीं लगा। किसी गुप्त षडयंत्र की आशंका से उसका अंत:करण देखते-ही-देखते कलुषित हो उठा। उस दिन उसका डरते हुए संकोच सहित फल-फूल देने के लिए आना....उसके बाद घटनाओं को विकृत तथा मिथ्या बनाकर कहना, न्यायालय में गवाही देना....पल में सारा इतिहास, बिजली की भांति चमक उठा। चेहरा गम्भीर और कंठ-स्वर भारी हो उठा। यह अभिनय है, छलना है।

उसके चेहरे के इस आकस्मिक परिवर्तन को भारती ने लक्ष्य किया लेकिन कारण न समझ सकी। बोली, “मेरी बातों का आपने उत्तर नहीं दिया?”

अपूर्व ने कहा, “और क्या उत्तर दूं? चोर को बढ़ावा नहीं देना चाहिए। पुलिस को खबर देना ही ठीक होगा।”

भारती भयभीत होकर बोली, “यह कैसी बात? न तो चोर ही पकड़ा जाएगा और न रुपए ही मिलेंगे। बीच में मुझे लेकर खींचा-तानी होगी। मैंने देखा है, ताला बंद किया है। सभी सजाकर रखा है। मैं विपत्ति में पड़ जाऊंगी।”

अपूर्व ने कहा, “जो कुछ हुआ है, आप वही कह दीजिएगा।”

भारती ने व्याकुल होकर कहा, “कहने से क्या होगा? अभी उस दिन आपके साथ इतना बड़ा अन्याय हो गया। एक-दूसरे से परिचय नहीं। बात-चीत नहीं। इसी बीच अचानक आपके लिए दिल में इतना दर्द क्यों है? पुलिस कैसे विश्वास करेगी?”

अपूर्व का मन और भी संदेह से भर उठा। बोला, “आपकी आरम्भ से अंत तक की झूठी बातों पर तो पुलिस ने विश्वास कर लिया और सच्ची बातों का विश्वास नहीं करेगी? रुपया तो थोड़ा ही गया, लेकिन चोर को बिना दंड दिलाए न छोड़ूंगा।”

भारती बुध्दिहीन की तरह उसे देखती रही। फिर बोली, “आप क्या कहते हैं अपूर्व बाबू? पिता जी अच्छे व्यक्ति नहीं हैं। उन्होंने आपके प्रति बहुत बड़ा अन्याय किया है। मैंने इसमें जो कुछ सहायता की है, उसे भी मैं जानती हूं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं आपके कमरे में घूसकर, ताला तोड़कर रुपए चुराऊंगी। ऐसी बात आप सोच सकते हैं, लेकिन मैं नहीं सोच सकती। ऐसी बदनामी होने पर मैं बचूंगी कैसे?”

कहते-कहते उसके होंठ फूलकर कांपने लगे। उन्हें जोर से दबाते-दबाते तूफान की तरह कमरे से निकलकर चली गई।

अगली सुबह, न जाने क्या सोचकर अपूर्व थाने की ओर चल दिया। पुलिस में रिपोर्ट करना व्यर्थ है, यह वह जानता था। रुपए नहीं मिलेंगे-यही नहीं, हो सकता है कि चोर पकडें भी न जाएं। लेकिन उस ईसाई लड़की पर उसके क्रोध और विद्वेष की सीमा नहीं थी। भारती ने स्वयं चोरी की है या चोरी करने में सहायता की है-इस विषय में तिवारी की तरह वह अभी तक निश्चिंत नहीं हो सका था। लेकिन उसकी दुष्टता तथा छल ने उसे बुरी तरह विचलित कर दिया था। उस लड़की की गतिविधि का रहस्य खोजने पर भी उसे नहीं मिला। उसने जो कुछ हानि की है उसके लिए उतना नहीं, लेकिन आरम्भ से उसका विचित्र आचरण जैसे निरंतर अपूर्व की बुध्दि का उपहास करता रहा है।

उसने अभी थाने में कदम भी नहीं रखा था कि पीछे से पुकार आई, “अरे अपूर्व! तुम यहां कहां?”

अपूर्व ने घूमकर देखा-निमाई बाबू खड़े हैं। आप बंगाल पुलिस के बहुत बड़े अफसर हैं। अपूर्व के पिता ने इनकी नौकरी लगाई थी। निमाई बाबू उनको दादा कहकर पुकारते थे और इसी संबंध के कारण अपूर्व के घर के सभी लोग उन्हें चाचा कहते थे। स्वदेशी आंदोलन के समय गिरफ्तार होने के बाद अपूर्व को जो किसी प्रकार का कष्ट नहीं सहना पड़ा था, उसका बहुत कुछ श्रेय इन्हीं को था। अपूर्व ने प्रणाम करके, अपनी नौकरी की बात बताकर पूछा, “लेकिन आप इस देश में कैसे?”

निमाई बाबू ने आशीर्वाद देते हुए कहा, “बेटा, तुम तो अभी कल के हो। जब तुम्हें घर-द्वार छोड़कर इतनी दूर आना पड़ा है तो क्या मैं नहीं आ सकता? लेकिन मेरे पास समय नहीं है। तुम्हें तो ऑफिस जाने में अभी देर है। आओ, चलते-चलते ही दो बातें कर लूंगा। मां अच्छी है न? और भाई भी?”

“सब ठीक है” कहकर अपूर्व ने पूछा, “आप कहां जाएंगे?”

“जहाज घाट पर। चलो न मेरे साथ।”

“चलिए-आपको क्या कहीं और भी जाना है?”

निमाई बाबू हंसकर बोले, “जाना हो भी सकता है। जिस महापुरुष को ले जाने के लिए घर छोड़कर इतनी दूर आना पड़ा है, उनकी इच्छा पर सब निर्भर है। उनका फोटोग्राफ है, लिखित विवरण है, लेकिन यहां की पुलिस में इतनी सामर्थ्य नहीं कि उन पर हाथ डाल सके। क्या मैं पकड़ पाऊंगा? यही सोच रहा हूं।”

अपूर्व ने उत्सुक होकर पूछा, “यह महापुरुष कौन हैं चाचा जी? जब आप आए हैं तब तो अवश्य ही कोई खूनी आसामी है?”

निमाई बाबू बोले, “यह तो नहीं बताऊंगा बेटा! क्या है और क्या नहीं है? यह बात ठीक-ठीक कोई भी नहीं जानता। इनके विरुध्द कोई निश्चित अभियोग भी नहीं है। फिर भी इनकी निरंतर निगरानी करते रहने में इतनी बड़ी सरकार मानो निष्प्राण हो गई है।”

अपूर्व ने पूछा, “कोई आसामी है?”

निमाई बाबू बोले, “भैया पोलिटिकल तो किसी समय तुम लोगों को भी कहते थे। लेकिन वह हैं राजद्रोही! राजा के शत्रु! हां, शत्रु कहलाने के योग्य तो अवश्य हैं। बलिहारी है उनकी प्रतिभा की जिन्होंने इस लड़के का नाम सव्यसाची रखा था। बंदूक, पिस्तौल चलाने में निशाना अचूक होता है। तैरकर पद्मा नदी को पारकर जाते हैं, कोई बाधा नहीं पड़ती। इस समय यह अनुमान किया गया है कि चटगांव के रास्ते से पहाड़ पार करके इन्होंने बर्मा में पदार्पण किया है। अब मांडले से नौका द्वारा या जहाज से रंगून आने वाले हैं या रेल द्वारा उनका शुभागमन हो चुका है। कोई पक्की खबर नहीं है। लेकिन वह रवाना हो चुके हैं, यह बात निश्चित है, उनके उद्देश्य के संबंध में कोई संदेह या तर्क नहीं है। शत्रु-मित्र सभी के मन में उनका सम्मान स्थिर सिध्दांत बना हुआ है। देश में आकर किस मार्ग से वह अपना कदम बढ़ाएंगे, हम नहीं जानते। लेकिन देखो बेटा, यह सब बातें किसी को बताना मत, नहीं तो इस बुढ़ापे में सत्ताईस साल की पेंशन रह जाएगी।”

अपूर्व उत्साहित होकर बोला, 'इतने दिनों यह कहां-क्या कर रहे थे। सव्यसाची नाम मैंने तो कभी पहले सुना नहीं।”

निमाई बाबू ने हंसते हुए कहा, “अरे भैया, इतने बड़े आदमियों का काम क्या केवल एक नाम से चलता है? सम्भवत: अर्जुन की तरह इनके भी अनेक नाम प्रचलित हैं। उन दिनों शायद सुना भी होगा, अब पहचान नहीं रहे हो। इस बीच में क्या कर रहे थे, इसकी भी पूरी जानकारी नहीं है। राजशत्रु अपने काम ढोल पीट-पीटकर करना पसंद नहीं करते। फिर भी मैं इतना जानता हूं कि वह पूना में तीन महीने की और दूसरी बार सिंगापुर में तीन वर्ष की सजा भुगत चुके हैं। यह लड़का दस-बारह भाषाओं में इस प्रकार बोल सकता है कि किसी विदेशी के लिए यह जान लेना कठिन है कि वह कहां के रहने वाले हैं? सुना है, जर्मनी के किसी नगर में डॉक्टरी पढ़ी है। फ्रांस में इंजीनियरिंग पास किया है। इंग्लैंड की नहीं जानता। लेकिन जब वहां रह चुका है तो वह अवश्य ही कुछ-न-कुछ पास किया ही होगा। इन लोगों को न तो दया है, न माया है, न धर्म-कर्म है, न कहीं घर-द्वार है। बाप रे बाप! हम लोग भी उसी देश के वासी हैं। लेकिन इस लड़के ने कहां से आकर बंगभूमि में जन्म ले लिया, यह तो सोचने पर भी नहीं जान पड़ता।”

अपूर्व कुछ न बोला। कुछ देर मौन रहकर उसने पूछा, “इनको क्या आप आज ही गिरफ्तार करेंगे?”

निमाई बाबू हंसकर बोले, “पहले पाऊं तो।”

अपूर्व ने कहा, “मान लीजिए, पा गए तो?”

“नहीं बेटा, इतना आसान काम नहीं है। मुझे पूरा विश्वास है कि अंतिम पल में वह किसी और रास्ते से खिसक गया होगा।”

“और अगर वह आ जाए तो?”

निमाई बाबू ने कुछ सोचकर कहा, “उस पर बराबर नजर रखने का आदेश मिला है, दो दिन देखता हूं। पकड़ने की अपेक्षा जांच करना जरूरी है। सरकार का यही विचार है।”

अपूर्व इस बात पर विश्वास न कर सका। क्योंकि वह उसके लिए जो कुछ भी हों फिर भी हैं तो पुलिस के आदमी! उसने पूछा, “उनकी उम्र क्या है?”

“लगभग तीस-बत्तीस की होगी।”

“देखने में कैसे हैं?”

“यही तो आश्चर्य है बेटा! अत्यंत साधारण मनुष्य है। इसीलिए तो पहचानना कठिन है। पकड़ना भी कठिन है। हम लोगों की रिपोर्ट में यही बात विशेष रूप से लिखी हुई है।”

अपूर्व बोला, “लेकिन पकड़े जाने के भय से ही तो यह पैदल वन लांघकर आए हैं।”

निमाई बाबू बोले, “हो सकता है, कोई विशेष उद्देश्य हो। हो सकता है इस रास्ते को भी जान लेना चाहता हो। कुछ भी नहीं कहा जा सकता अपूर्व! यह लोग जिस पथ के पथिक हैं उसमें साधारण मनुष्य के विचार के साथ इनके विचार मेल नहीं खाते। आज इसकी भूल है या हम लोगों की भूल है-इसकी परीक्षा होने वाली है। ऐसा भी सम्भव है कि हम लोगों की सारी दौड़-धूप व्यर्थ हो जाए।”

अपूर्व बोला, “ऐसा ही हो तो अच्छा है। मैं अन्त:करण से यही प्रार्थना करता हूं चाचा जी!”

निमाई बाबू हंस पड़े। बोले, “मूर्ख लड़के, कहीं पुलिस से ऐसी बात कही जाती है? तुमने अपने घर का क्या नम्बर बताया, तीस? हो सका तो कल आऊंगा। सामने की जेटी पर ही शायद यहां का स्टीमर खड़ा होता है। अच्छा, तुम्हारे ऑफिस का समय हो चुका है, नई नौकरी है। देर करना ठीक नहीं।” यह कहकर वह दूसरी ओर घूम गए।

अपूर्व ने कहा, “देर की क्यों, ऑफिस में गैरहाजिरी हो जाने पर मैं आपको छोडूंग़ा नहीं। मैं नहीं चाहता कि वह अब आपके हाथ पड़ जाएं, लेकिन यदि दुर्घटना हो भी जाए तो मैं एक बार उन्हें देख तो लूंगा, चलिए।”

इच्छा न होने पर भी निमाई बाबू ने विशेष आपत्ति नहीं की। केवल थोड़ा-सा सावधन करते हुए कहा, “देखने का लोभ होता है, मैं इसे अस्वीकार नहीं करता, लेकिन ऐसे लोगों से किसी प्रकार परिचय बढ़ाना भी भयानक है-यह जान लो अपूर्व? अब तुम लड़के नहीं हो। पिता जीवित नहीं हैं। भविष्य को भी सोचना चाहिए।”

अपूर्व हंसकर बोला, “परिचय का अवसर आप लोग किसी को देते कहां हैं चाचा जी! कोई अपराध नहीं, कोई अभियोग नहीं, फिर भी उनको जाल में फंसाने आप इतना दूर चले आए हैं।”

निमाई बाबू तनिक-सा मुस्करा पड़े। बोले, “यह तो कर्त्तव्य है।”

जिस समय दोनों जेटी पर पहुंचे, इस बड़ी नदी का विशाल स्टीमर किनारे लगने की वाला था। पांच-सात पुलिस अधिकारी, सादी पोशाक में पहले से ही खड़े थे। निमाई बाबू के प्रति उन लोगों की आंखों का एक प्रकार का संकेत देखकर अपूर्व उन्हें पहचान गया। वह सभी भारतीय थे। भारत के कल्याण के लिए सुदूर बर्मा में एक विद्रोही का शिकार करने आए हैं। शिकार की वस्तु लगभग हाथ आ चुकी है। सफलता का आनंद तथा उत्तेजना की प्रच्छन्न दीप्ति उनके चेहरे पर प्राप्त हो रही है।

जहाज के खलासी उस समय जेटी पर रस्सी फेंक रहे थे। कितने ही लोग रेलिंग पकड़े देख रहे थे। डेक पर शोर-शराबे और दौड़-धूप की सीमा नहीं थी। सम्भव है, इन्हीं लोगों के बीच खड़ा एक व्यक्ति उत्सुक दृष्टि से किनारे की प्रतीक्षा कर रहा हो। लेकिन अपूर्व की दृष्टि में सम्पूर्ण दृश्य आंखों के आंसुओं से एकदम धुंधला और अस्पष्ट हो उठा। ऊपर-नीचे जल में, स्थल में इतने नर-नारी खड़े हैं, किसी को कोई शंका नहीं। किसी का कोई अपराध नहीं। केवल जिस व्यक्ति ने अपने युवा हृदय के समस्त सुख, समस्त स्वार्थ तथा सभी आशाओं का स्वेच्छा से विसर्जन कर दिया है, कारागार तथा मृत्यु की राह केवल उसी के लिए मुंह बाए खड़ी है।

जहाज जेटी पर आकर लग गया। काठ की सीढ़ी नीचे लगा दी गई, लेकिन अपूर्व नहीं हटा। वहीं निश्चल, पाषाण मूर्ति के समान खड़ा आप-ही-आप कहने लगा कि क्षण भर बाद तुम्हारे हाथ में हथकड़ी पड़ जाएगी। उत्सुक नर-नारी तुम्हारी लांछना तथा अपमान आंखें फाड़-फाड़कर देखेंगे। वह जान भी न पाएंगे कि उन्हीं लोगों के लिए तुमने सर्वस्व त्याग कर दिया है। इसलिए इन लोगों के बीच तुम्हारा रहना न हो सकेगा। उसकी आंखों से आंसू झर-झर गिरने लगे और जिसे उसने कभी देखा नहीं उसी को सम्बोधित करके मन-ही-मन कहने लगा-”तुम तो हम लोगों की भांति सीधे-सादे मनुष्य नहीं हो। तुमने देश के लिए अपना सर्वस्व त्याग दिया है। इसीलिए देश की नौकाएं तुम्हें पार नहीं कर सकती। तुम्हें तैरकर पद्मा नदी को पार करना पड़ता है। इसलिए देश का राज-पथ तुम्हारे लिए अवरुध्द है। तुम्हें दुर्गम वन-पर्वत लांघने पड़ते हैं। हे मुक्ति पथ के अग्रदूत! हे पराधीन देश के राजविद्रोही! तुमको शत कोटि नमस्कार।”-इतने मनुष्यों की भीड़, इतने लोगों का आना-जाना, इतने लोगों की नजरें, किसी पर भी उसका ध्यान नहीं था। कितना समय बीत गया, इसकी उसे खबर ही नहीं थी। अचानक निमाई बाबू की आवाज से चौंककर झटपट आंखें पोंछ हंसने की चेष्टा करने लगा। उसका करुणविह्नल भाव देखकर वह आश्यर्च में पड़ गए। बोले, “जिस बात का भय था, वही हुआ, निकल गया।”

“कैसे निकल गया?”

निमाई बाबू बोले, 'अगर यही जानता तो वह कैसे निकल जाता? सुबह तीन सौ यात्री, बीस-पच्चीस फिरंगी साहब, उड़िया, मद्रासी, पंजाबी सौ-डेढ़ सौ के लगभग रहें होंगे। शेष बर्मी थे। पता नहीं किसकी पोशाक पहने और किसकी भाषा बोलते-बोलते बाहर निकल गया। समझ गए न भैया, हम तो पुलिस वाले हैं। पहचानने का उपाय नहीं है कि वह योरोपियन हैं या बंगाली। जगदीश बाबू संदेह में लगभग छ: बंगालियों को पकड़कर थाने में ले गए हैं। एक आदमी का चेहरा उनके चेहरे से मेल खा रहा है, ऐसा जान पड़ता है। लेकिन जान पड़ने से ही क्या होता है। वह नहीं है। क्या तुम चलोगे भैया? एक बार उस आदमी को देखोगे?”

अपूर्व की छाती धड़क उठी। बोला, 'अगर आप उसे मारना-पीटना चाहते हैं तो मैं नहीं जाना चाहता।”

निमाई बाबू ने हंसकर कहा, “इतने आदमियों को तो हमने चुपचाप छोड़ दिया और यह बेचारे बंगाली हैं। स्वयं बंगाली होते हुए क्या मैं इन पर अत्याचार करूंगा? अरे भैया, पुलिस में सभी बुरे ही नहीं होते। मुंह बंद करके जितना दु:ख हमें सहना पड़ता है, अगर तुम जानते, तो अपने इस दरोगा चाचा से इतनी घृणा न कर पाते अपूर्व।'

अपूर्व बोला, “आप अपना कर्त्तव्य पालन करने आए हैं। फिर आपसे घृणा क्यों करूंगा चाचा?” कहकर उनके चरण छू लिए।

निमाई बाबू ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया और बोले, “चलो, जरा जल्दी चलें। वह लोग भूख-प्यास से दु:खी हो रहे होंगे। थोड़ी-बहुत जांच करके छोड़ दिया जाएगा।”

थाने के सामने वाले बड़े कमरे में छ: बंगाली बैठे थे। जगदीश बाबू ने इसी बीच उनके टीन के बक्स और गठरियां आदि खोलकर जांच आरम्भ कर दी थी। जिस व्यक्ति पर उन्हें विशेष रूप से संदेह था उसे एक अलग कमरे में बंद कर रखा था। यह लोग नौकरी की खोज में रंगून आए थे। इनके काम-धाम और विवरण आदि लिखकर और उनके सामान की जांच हो चुकने के बाद पॉलिटिकल सस्पेक्ट सव्यसाची को निमाई बाबू के सामने उपस्थित किया गया। वह खांसते-खांसते सामने आया। उम्र तीस-बत्तीस से अधिक न रही होगी, लेकिन जैसा दुबला-पतला था वैसा ही कमजोर भी था। जरा-सी खांसी से हांफने लगता था। अंदर के न जाने किस असाध्य रोग से उसका सम्पूर्ण शरीर भी तेजी से क्षय रोग की ओर दौड़ रहा था। आश्चर्यजनक थी तो केवल उसके उस रुग्ण चेहरे में दो अद्भुत आंखों की दृष्टि। यह आंखें छोटी हैं या बड़ी। लम्बी हैं या गोल। दीप्त हैं या प्रभावहीन-इनका विवरण देने की चेष्टा ही व्यर्थ है। अत्यधिक गहरे जलाशय की भांति उनमें न जाने क्या है? भय लगता है। अपूर्व तो मुग्ध होकर उस ओर देख रहा था। अचानक निमाई बाबू ने उसकी वेश-भूषा की बहार और ठाटबाट पर अपूर्व की दृष्टि आकर्षित करके हंसते हुए कहा, “बाबूजी का स्वास्थ्य तो चला गया है, लेकिन शौक में अभी कोई कमी नहीं आई है, यह तो मानना ही पड़ेगा। क्या कहते हो अपूर्व?”

इतनी देर बाद उसके पहनावे पर नजर डालकर, मुंह फेरकर अपूर्व ने हंसी छिपा ली। उसके सिर पर बड़े-बड़े बाल हैं, लेकिन गर्दन और कानों के पास बिल्कुल नहीं है। सिर में मांग कढ़ी हुई है। बालों में पड़े हुए नींबू के तेल की गंध से कमरा भर उठा है। शरीर पर सिल्क का कुर्ता है। छाती की जेब में से रूमाल का थोड़ा-सा हिस्सा दिखाई दे रहा है। चादर नहीं है। बदन पर विलायती मिल की काली मखमली किनारी की बारीक धोती है। पैरों में हरे रंग के पूरे मोजे हैं, जो घुटनों पर लाल फीते से बंधे हैं, पॉलिश किया हुआ पम्प शू है, पैरों में जिनके तलों को मजबूत और टिकाऊ बनाने के लिए लोहे के नाल जड़े हुए हैं। हाथ में हिरण के सींग की मूठवाली बेंत की छड़ी है। इन कई दिनों तक जहाज की भीड़भाड़ में सभी कपड़े गंदे हो गए हैं।

उनका सिर से पैर तक बार-बार निरीक्षण करके अपूर्व ने कहा, “चाचा जी इस आदमी को आप कोई भी बात पूछे बिना छोड़ दीजिए। जिसे आप खोज रहे हैं, वह आदमी यह नहीं है। इसकी जमानत मैं देने को तैयार हूं।”

निमाई बाबू ने हंसकर पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है जी?'

“मेरा नाम गिरीश महापात्र है।”

“एकदम महापात्र-तुम तो तेल की खान में काम करते थे? अब रंगून में ही रहोगे? तुम्हारे बक्स और बिस्तर की तलाशी तो हो चुकी है। देखूं तुम्हारे पर्स और जेब में क्या है?

उसके पर्स से एक रुपया और छ: आने निकले। जेब से लोहे का कंपास नापने के लिए लकड़ी का फुटरूल, कुछ बीड़ियां, एक दियासलाई और गांजे की चिलम निकली।

निमाई बाबू ने पूछा, “तुम गांजा पीते हो?”

उसने संकोच से उत्तर दिया, “जी नहीं।”

“तब यह चीज जेब में क्यों है?”

“रास्ते में पड़ी थी। उठा ली। किसी के काम आ जाएगी।”

तभी जगदीश बाबू कमरे में आ गए। निमाई बाबू ने हंसकर कहा, “देखो जगदीश, यह कितने परोपकारी व्यक्ति हैं। किसी के काम आ जाए, यह सोचकर इन्होंने गांजे की चिलम रास्ते से उठाकर रख ली है।” यह कहकर उन्होंने उसके दाएं हाथ के अंगूठे को देखकर हंसते हुए कहा, “गांजा पीने का चिद्द यह है भैया 'पीता हूं', कह देने से काम चल जाए। कितने दिन और जीना है। यही तो है तुम्हारा शरीर। बूढ़े की बात मानो, अब मत पीना।”

“जी नहीं, मैं तो पीता ही नहीं। मगर बनाने को कहते हैं तो बना देता हूं।”

जगदीश चिढ़कर बोला, “दया के सागर हैं न। दूसरों को बना देते हैं, स्वयं नहीं पीते। झूठा कहीं का।”

अपूर्व ने कहा, “समय हो गया। अब जा रहा हूं चाचा जी।”

निमाई बाबू ने उठकर कहा, “अच्छा, तुम जा सकते हो महापात्र। क्यों जगदीश, जा सकता है न?”

सम्मति देते हुए जगदीश बोला, “लेकिन मेरा विचार है, इस नगर में और कुछ दिनों तक निगरानी की आवश्यकता है। शाम की मेल ट्रेन पर नजर रखना। वह बर्मा में आ गया है, यह खबर सच है।”

अपूर्व थाने से बाहर आ गया। उसके साथ ही महापात्र भी अपने टूटे हुए टीन के बक्स को और चटाई में लिपटे गंदे बिछौने के बंडल को बगल में दबाकर उत्तर का रास्ता पकड़कर धीरे-धीरे चला गया।

कैसी आश्चर्यजनक बात है कि सव्यसाची नहीं पकड़ा गया। डेरे पर लौटकर शेव बनाने से लेकर संध्या-पूजा, स्नान, भोजन, कपड़े पहनने, ऑफिस जाने आदि के नित्य के कामों में कोई बाधा नहीं हुई। लेकिन उनका मन किस संबंध में सोचने लगा था, उसका कोई पता नहीं। उसकी आंखें, कान और बुध्दि-अपने सभी सांसारिक कार्यों से दूर होकर किसी अनजान, अनदेखे राजद्रोही की चिंता में ही निमग्न हो गए।

अपूर्व को अनमना देखकर तलवलकर ने पूछा, “आज घर से कोई चिट्ठी आई है क्या?”

अपूर्व ने कहा, “नहीं तो।”

“घर में कुशल तो है न?”

“जितना जानता हूं-कुशल ही है।”

रामदास ने फिर कोई प्रश्न नहीं किया। टिफिन के समय दोनों एक साथ ही जलपान करते थे। रामदास की पत्नी ने एक दिन अपूर्व से अत्यंत आग्रह से अनुरोध किया था कि जितने दिनों तक आपकी मां या घर की कोई और आत्मीय स्त्री इस देश में आकर डेरे की उपयुक्त व्यवस्था नहीं करती-उतने दिनों तक इस छोटी बहिन के हाथ की बनाई हुई थोड़ी-सी मिठाई आपको रोजाना लेनी ही पड़ेगी। अपूर्व सहमत हो गया था। ऑफिस का एक ब्राह्मण चपरासी वह सब ला देता था। आज भी जब वह पास के एकांत कमरे में भोजन सामग्री सजाकर रख गया, तब भोजन करने के लिए बैठते ही अपूर्व ने प्रसंग छेड़ दिया, “कल मेरे डेरे पर चोरी हो गई। सब कुछ जा सकता था। लेकिन ऊपर वाली मंजिल पर रहने वाली क्रिश्चियन लड़की की कृपा से रुपए-पैसे के अतिरिक्त और सब कुछ बच गया।” फिर सब कुछ विस्तार से सुनाने के बाद, कहा, “वास्तव में वह ऐसी कुशल लड़की है, ऐसा लगता नहीं था।”

रामदास ने पूछा, “इसके बाद?”

अपूर्व ने कहा, “तिवारी घर में था नहीं। बर्मी नाच देखने चला गया था। इसी बीच यह घटना हो गई। उसका विश्वास है कि यह काम उस लड़की के अतिरिक्त किसी और ने नहीं किया है। मेरा भी कुछ-कुछ ऐसा ही अनुमान है। चोरी भले ही न करे लेकिन सहायता अवश्य की है।”

“इसके बाद?”

“फिर सवेरे पुलिस में खबर देने गया। लेकिन वहां जाकर ऐसा तमाशा देखा कि इस बात की याद ही नहीं रही। आज सोच रहा हूं कि पुलिस से चोर-डाकुओं को पकड़वाना बेकार है। यही अच्छा है कि वह लोग विद्रोहियों को ही गिरफ्तार करते रहें,” यह कहते ही उसे गिरीश महापात्र की याद आ गई। हंसी रुकने पर उसने विज्ञान और चिकित्सा शास्त्र के असाधारण ज्ञाता, विलायत के डॉक्टर उपाधि धारी, राज शत्रु महापात्र के स्वास्थ्य, शिक्षा, रुचि, उनका बल-वीर्य, इन्द्रधानुषी रंग का कुर्ता, हरे रंग के मोजे, लोहे के नाल लगे पम्प शू, नींबू के तेल से सुवासित केश और सर्वोपरि परोपकार्य गांजे की चिलम का आविष्कार करने की कथा विस्तारपूर्वक सुनाते-सुनाते अपनी उत्कट हंसी का वेग किसी प्रकार और एक बार रोककर अंत में कहा, “तलवलकर महाचतुर पुलिस दल को आज की तरह मूर्ख बनते सम्भवत: किसी ने कभी नहीं देखा होगा।'

रामदास ने पूछा, “क्या ये लोग आपकी बंगाल पुलिस के हैं?”

अपूर्व ने कहा, “हां। इसके अतिरिक्त सबसे अधिक लज्जा की बात यह है कि इनके इंचार्ज मेरे पिताजी के मित्र हैं। बाबूजी ने ही एक दिन इनकी नौकरी लगवाई थी।”

“तब तो आपको किसी दिन इसका प्रायश्चित्त करना पड़ेगा।” यह कहकर रामदास सहसा अप्रतिम-सा हो गया। अपूर्व उसका चेहरा देखते ही उसका तात्पर्य समझ गया। बोला, “मैं उनको चाचा जी कहता हूं। वह हमारे आत्मीय हैं, शुभाकांक्षी हैं। लेकिन क्या इसीलिए वह मेरे लिए देश से बढ़कर हैं। बल्कि जिन्हें देश के रुपए खर्च करके, देश के आदमियों की सहायता से शिकार की तरह पकड़ने के लिए घूम रहे हैं, वह ही मेरे परम आत्मीय हैं।”

रामदास बोला, “बाबूजी, यह कहने में भी विपत्ति है।”

अपूर्व बोला, “भले ही तलवलकर! केवल अपने ही देश में नहीं, संसार के जिस किसी देश में, जिस किसी युग में, जिस किसी ने अपनी जन्म-भूमि को स्वतंत्र कराने की चेष्टा की है। उसको अपना कहने की सामर्थ्य और किसी में भले ही न हो, मुझ में है। बिना अपराध के ही फिरंगी लड़कों ने जब मुझे लात मारकर प्लेटफार्म से बाहर निकाल दिया और जब मैं इसका प्रतिवाद करने के लिए गया तब अंग्रेज स्टेशन मास्टर ने मुझे केवल देशी आदमी समझकर कुत्ते की तरह ऑफिस से निकलवा दिया। उनकी लांछना, इस काले चमड़े के नीचे कम जलन पैदा नहीं करती तलवलकर! जो लोग इन जघन्य अत्याचारों से हमारी माताओं, बहनों और भाइयों का उध्दार करना चाहते हैं, उनको अपना कहकर पुकारने में जो भी कष्ट पड़े, मैं सहर्ष झेलने को तैयार हूं।”

रामदास का सुंदर गोरा चेहरा पलभर के लिए लाल हो उठा। बोला 'यह दुर्घटना तो आपने मुझे बताई नहीं।'

अपूर्व बोला, “कहना सरल नहीं है रामदास। वहां कम भारतीय नहीं थे, लेकिन मेरे अपमान का किसी पर प्रभाव नहीं पड़ा। लात की चोट से मेरी हड्डी-पसली टूटी, इसी कुशल समाचार से वह प्रसन्न हो गए। क्या बताऊं, याद आते ही दु:ख, लज्जा तथा घृणा से अपने आप मानों मिट्टी में गड़ जाता हूं।'

रामदास मौन हो रहा। लेकिन उसकी दोनों आंखें डबडबा आईं। तीन बज चुके थे, वह उठकर खड़ा हो गया।

उस दिन छुट्टी होने से पहले बड़े साहब ने कहा, “हमारे मामो के ऑफिसों में अव्यवस्था हो रही है। मांडले, शोएवी, मिक्थिला और प्रोम सभी ऑफिसों में गड़बड़ी है। मेरी इच्छा है कि तुम एक बार जाकर उन सबको देख आओ। मेरे न रहने पर सारा काम तुम्हीं को करना होगा। एक परिचय रहना चाहिए। इसलिए अगर कल-परसों...।”

अपूर्व बोला, “मैं कल ही बाहर जा सकता हूं।”

दूसरे दिन वह मामो जाने के लिए ट्रेन में जा बैठा। साथ में एक अर्दली और ऑफिस का एक हिंदुस्तानी ब्राह्मण भी था। तिवारी डेरे पर ही रहा। लंगड़ा साहब अस्पताल में पड़ा है, इसलिए अब उतना भय नहीं है। तलवलकर ने तिवारी की पीठ ठोककर कहा, “चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। कभी कोई घटना हो तो मुझे खबर देना।”

ट्रेन छूटने में लगभग पांच मिनट की देर होगी कि सहसा अपूर्व चौंककर बोल उठा, “वही तो।”

तलवलकर गर्दन फेरते ही समझ गया कि वही गिरीश महापात्र है। वही ठाटबाट वाला बांहदार कुर्ता, हरे रंग के मोजे, वही पम्प शू और घड़ी। अंतर केवल इतना ही है कि इस बार वह बाघ अंकित रूमाल, छाती की जेब के बजाय गले में लिपटा हुआ है। महापात्र इसी ओर आ रहा था। निकट आते ही अपूर्व ने पुकारकर कहा, “क्यों गिरीश, मुझे पहचान सकते हो? कहां जा रहे हो?”

“जी हां, पहचान रहा हूं। कहां के लिए प्रस्थान हो रहा है?”

“इस समय तो मामो जा रहा हूं। तुम कहां चल रहे हो?”

गिरीश ने कहा, “जी, एनाज से दो मित्रों के आने की बात थी, लेकिन बाबूजी, मुझे लोग झूठ-मूठ तंग करते हैं। हां, यह अवश्य है कि लोग अफीम और गांजा छिपाकर ले आते हैं, लेकिन बाबू, मैं तो बहुत ही धर्मभीरु आदमी हूं। लेकिन कहावत है न-ललाट की लिखावट मेटी नहीं जा सकती।”

अपूर्व ने हंसते हुए कहा, “मुझे भी ऐसा विश्वास है। लेकिन तुम गलत समझ रहे हो भाई। मैं पुलिस का आदमी नहीं हूं। अफीम-गांजे से मेरा कोई मतलब नहीं है। उस दिन तो मैं केवल तमाशा देखने गया था।”

तलवलकर बोला, “बाबू! मैंने अवश्य ही कहीं देखा है।”

गिरीश ने कहा, “इसमें कोई आश्चर्य नहीं है बाबू! नौकरी के लिए कितनी ही जगह मैं घूमता रहता हूं। अच्छा, अब जा रहा हूं बाबू, राम-राम।” इतना कहकर वह आगे बढ़ गया।

अपूर्व ने कहा, “इसी सव्यसाची के पीछे-पीछे चाचा जी अपने दल-बल के साथ इस देश से उस देश में घूम रहे हैं तलवलकर।” यह कहकर वह हंस पड़ा। लेकिन तलवलकर ने इस हंसी में साथ नहीं दिया।

दूसरे पल सीटी बजाकर ट्रेन स्टार्ट हो गई। उसने हाथ बढ़ाकर मित्र से हाथ मिलाया लेकिन मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला।

अपूर्व फर्स्ट क्लास का यात्री था। उस कम्पार्टमेंट में और कोई यात्री नहीं था। संध्या हो चली तो उसने संध्या-पूजा के बाद भोजन किया। उसका ब्राह्मण अर्दली सवेरे जलपान रख गया था और बिछौना भी बिछा गया। भोजन करने की बाद हाथ-मुंह धो, तृप्त हो इत्मीनान से बिस्तर पर लेट गया। लेकिन उस रात तीन बार पुलिसवालों ने उसे जगाकर उसका नाम, काम और पता-ठिकाना पूछा।

एक बार अपूर्व बोला, “मैं फर्स्ट क्लास का यात्री हूं। तुम रात के समय मेरी नींद खराब नहीं कर सकते।”

“यह नियम रेलवे कर्मचारियों के लिए है। मैं पुलिस कर्मचारी हूं। चाहूं तो तुम्हें खींचकर नीचे भी उतार सकता हूं।”

उसका भावुक मन भीतर-बाहर से आछन्न और अभिभूत होता चला जा रहा था। अचानक जोर का धक्का लगने से उसने चौंककर देखा। रामदास की बातें याद आ गईं। यहां आने के बाद से इस बर्मा देश की बहुत-सी व्यक्त-अव्यक्त कहानियों का उसने संग्रह कर रखा था। इस प्रसंग में उसने एक दिन कहा था, “बाबूजी, केवल शोभा, सौंदर्य ही नहीं, प्रकृति माता की दी हुई इतनी बड़ी सम्पदा कम देशों में है। इसके वन और अरण्यों की सीमा नहीं। इसकी धरती में कभी न समाप्त होने वाली तेलों की खानें हैं। इसकी हीरों की महामूल्यवान खानों का मूल्य आंका नहीं जा सकता और विशाल वृक्षों की यह जो गगनचुम्बी पांतें हैं, इनकी तुलना संसार में कहां है! बहुत दिनों की बात है। यहां के बारे में जानकर एक दिन अंग्रेज बनिए की लालची दृष्टि अचानक इस पर आसक्त हो उठी। बंदूकें-तोपें आईं। लड़ाई छिड़ गई। युध्द में पराजित दुर्बल-शक्तिहीन राजा को निर्वासित कर दिया गया। उसकी रानियों के शरीर के जेवर बेचकर लड़ाई का जुर्माना वसूल किया गया। इसके बाद देश की, मानवता, सभ्यता और न्याय-धर्म के कल्याण के लिए अंग्रेज राजशक्ति इस विजित देश का शासन भार ग्रहण कर, उसका अनेक प्रकार से कल्याण करने के लिए तन-मन से जुट गई।

इसी प्रकार न जाने कितनी बातें उसके हृदय को आलोड़ित करती रहीं। अचानक ट्रेन की गति धीमी पड़ने पर उसे चेत हुआ। जल्दी से आंखें पोंछकर उसने देखा-स्टेशन आ गया था।

बचपन से ही स्त्रियों के प्रति अपूर्व के मन में श्रध्दा की अपेक्षा घृणा की भावना ही अधिक थी। भाभियां मजाक करतीं तो वह मन-ही-मन दु:खी होता। घनिष्ठता बढ़ाने आतीं तो दूर हट जाता। मां के अतिरिक्त और किसी के सेवा या देखभाल उसे अच्छी नहीं लगती थी। किसी लड़की के परीक्षा में पास होने के समाचार से उसे प्रसन्नता नहीं होती थी। यूरोप में स्त्रियां कमर कसकर राजनीतिक अधिकार पाने के लिए लड़ रही थीं। अखबारों में उनके समाचार पढ़कर उसका शरीर जलने लगता था। लेकिन उसका हृदय स्वभाव से ही भद्र और कोमल था। वैसे वह नर-नारी का भेद न मानकर प्राणीमात्र को अत्यंत प्रेम करता था। किसी को तनिक-सा भी कष्ट देने में उसे हिचक होती थी। इसीलिए भारती को अपराधी जानते हुए भी उसने दंडित नहीं होने दिया। पुरुषों में स्त्री के संबंध में जो कमजोरियां होती हैं वह उसे छू तक नहीं गई थी। इस ईसाई लड़की को दंड देना उसके स्वभाव के विरुध्द था। नारी जाति के प्रति अनुराग न रखते हुए भी उसका मन भारती को आसानी से बहुत दिनों तक दूर हटाकर रख सकेगा, यह भी सच नहीं था। फिर भी इस निर्भय, मिथ्यावादिनी युवती के प्रति उसके मन में राग-द्वेष की सीमा नहीं थी।

उसे मामो आए पंद्रह दिन हो गए हैं। यहां से कल-परसों तक मिक्थिला जाने की बात है। ऑफिस से लौटकर बरामदे में बैठा मन-ही-मन सोचने लगा। नारी स्वाधीनता के संबंध में उसका मन अपनी सम्मति देना नहीं चाहता था। इसमें मंगल नहीं है। यह धारणा उसकी रुचि तथा संस्कार पर आधारित थी। शास्त्रीय अनुशासनों में भी इनके प्रति गम्भीर अन्याय है इस सत्य को भी उसका न्याय परायण मन किसी प्रकार स्वीकार नहीं करता था। लेकिन आज जिस कारण अचानक ही उसकी यह धारणा मिट गई, उसका विवरण इस प्रकार है-

जिस दो मंजिले मकान में उसने कमरे किराए पर लिए हैं उसकी निचली मंजिल में एक बर्मी परिवार रहता है। सवेरे ऑफिस जाने से पहले उनके परिवार में एक अनर्थकारी दुर्घटना हो गई। उनकी चार लड़कियां हैं- सभी विवाहिता हैं। किसी उत्सव के उपलक्ष में आज सभी उपस्थित हुए थे। भोज के समय सम्मान के विषय में पहले तो लड़कियों में, दामादों में तू-तू, मैं-मैं होने लगी और खून-खराबे तक बात पहुंच गई। अपूर्व खबर लेने गया तो सुना कि इनमें से एक तो मद्रास का चुलिया मुसलमान है। एक चटगांव का बंगाली पोर्तुगीज है। एक ऐंग्लो इंडियन और सबसे छोटा चौथा दामाद एक चीनी है। वह सब कई पीढ़ियों से इस शहर में रहकर चमड़े का व्यवसाय कर रहे हैं।

इस प्रकार पृथ्वीव्यापी सब जातियों का श्वसुर बनने का गौरव अन्य स्थानों में दुर्लभ होते हुए यहां सुलभ है। इन संबंधों का पिता ने विरोध किया था, लेकिन लड़कियों की स्वाधीनता ने उस पर ध्यान नहीं दिया। एक-एक दिन एक-एक करके लड़कियों का घर पर पता नहीं रहा। फिर एक-एक कर वह लौट आईं और उनके साथ आ गया विचित्र दामादों का यह दल। उनकी भाषा अलग, भाव-विचार अलग, कर्म और स्वभाव अलग। शिक्षा-संस्कार किसी के साथ किसी का मेल नहीं मिलता। यह तो हमारे देश की हिंदू-मुस्लिम समस्या की भांति धीरे-धीरे जटिल होती जा रही है। कैसे सुलझेगी?

अपूर्व का मन क्षोभ दु:ख और विरक्ति से दु:खी हो उठा और लड़कियों की इस सामाजिक स्वतंत्रता को बार-बार कोसने लगा। बर्मा नष्ट हो रहा है। यूरोप नष्टप्राय हो चुका है। इसी प्रकार की सभ्यता को अपने देश में लाने पर हम लोग भी समूल नष्ट हो जाएंगे। इस दुर्दिन में अगर हम संशय छोड़कर अपने पुरातन सिध्दातों का पालन न कर सके तो हमें विनाश से कोई नहीं बचा सकेगा। इसी प्रकार की अनेक विचारधाराओं में डूबा अंधेरे में अकेला बैठा रहा। लेकिन दुर्भाग्य? यह सीधी-सी बात उसके मन में एक बार भी नहीं आई कि जिस मुक्ति मंत्र को वह जीवन का एकमात्र व्रत मानकर तन-मन से ग्रहण करना चाहता है उसी की दूसरी मूर्ति को हाथों से ठेलकर मुक्ति के सच्चे देवता को ही सम्मान सहित दूर हटा रहा है। मुक्ति क्या ऐसी ही कोई छोटी-सी वस्तु है?

अर्दली बोला, “आपके जाने की बात तो परसों के लिए थी न?”

“नहीं परसों नहीं कल-एक बत्ती दे जा,” समाज में महिलाओं की स्वाधीनता का यह नया रूप देखकर उसका मन उद्विग्न हो उठा था।

दूसरे दिन ठीक समय पर वह मिक्थिला के लिए चल पड़ा। लेकिन वहां पहुंचने पर मन नहीं लगा। देशी और विलायती पलटनों की छावनी है। अनेक बंगाली सपरिवार रहते हैं। अच्छा शहर है। नए लोगों के लिए घूमकर देखने की बहुत-सी चीजें हैं। लेकिन यह सब उसे अच्छा नहीं लगा। मन रंगून पहुंचने के लिए छटपटाने लगा। मामो में रहते हुए रिडायरेक्ट किया हुआ मां का एक पत्र उसे मिला था। उसके बाद रामदास के दो पत्र आए थे। उसने लिखा था कि जब तक तुम लौट नहीं आते, डेरा बदलने की कोई आवश्यकता नहीं है। वह स्वयं जाकर देख आया है। तिवारी अच्छी तरह रह रहे हैं।

स्टेशन पर एक लड़के को रेल के कर्मचारियों ने ट्रेन से उतार दिया था। उसके बदन पर मैले, फटे-पुराने हैट-कोट थे। साथ में एक टूटा ट्रंक था। टिकट खरीदने के पैसे से उसने शराब पी ली थी। उसका बस इतना ही अपराध था। लड़के को पुलिस ले जा रही है। यह देखकर अपूर्व ने उसका किराया चुका दिया तथा और चार-पांच रुपए उसे देकर वहां से हटा रहा था कि सहसा उसने हाथ जोड़कर कहा, “महाराज, मेरा यह ट्रंक लेते जाइए। इसे बेचकर जो दाम मिले उसमें से अपना रुपया काट लीजिएगा और बाकी रुपया मुझे लौटा दीजिएगा।” उसके कंठ स्वर से यह स्पष्ट हो गया कि उसने यह बात पूरे होश-हवास में कही है।

अपूर्व ने पूछा, “कहां लौटाऊं?”

लड़के ने कहा, “अपना पता दे दीजिए। मैं आपको चिट्ठी लिख दूंगा।”

अपूर्व बोला, “अपना ट्रंक अपने पास रहने दो। मैं इसे नहीं बेच सकूंगा। मेरा नाम अपूर्व हालदार है। रंगून की वोथा कम्पनी में नौकर हूं। कभी भेज सको तो रुपया भेज देना।”

उसने कहा, “अच्छा नमस्कार। मैं अवश्य भेज दूंगा। यह दया मैं जीवन भर नहीं भूलूंगा,” यह कहकर एक बार फिर नमस्कार करके ट्रंक बगल में दबाकर वह चला गया।

इस बार अपूर्व ने ध्यान से उसके चेहरे को देखा। आयु अधिक नहीं है लेकिन कितनी है ठीक-ठीक बताना कठिन है। सम्भव है, नशे के कारण दस वर्ष का अंतर पड़ गया हो। शरीर का रंग गोरा है। लेकिन धूप में जलकर तांबे के रंग जैसा हो गया है। सिर के रूखे-सूखे बाल माथे के नीचे तक झूल रहे हैं। आंखों की दृष्टि उछलती-सी है। नाक खंजर की तरह सीधी है। शरीर दुबला है। हाथ की अंगुलियां लम्बी और पतली हैं तथा समूचे बदन पर उपवास और अत्याचार के चिद्द अंकित हैं।

टिकट खरीदकर अपूर्व ट्रेन में जा बैठा और दूसरे दिन ग्यारह बजे रंगून पहुंच गया। जब तांगा डेरे पर पहुंचा तो देखा, तिवारी को जैसे कोई उत्कंठा ही नहीं। बरामदे का दरवाजा तक नहीं खुला। गाड़ी की आवाज सुनकर भी नीचे नहीं आया।

उसने दरवाजे पर पहुंचकर पुकारा-”तिवारी-! ऐ तिवारी!”

थोड़ी देर बाद धीरे से, बड़ी सतर्कता से दरवाजा खुला। क्रोध से पागल अपूर्व कमरे में घूसते ही अवाक और हतबुध्दि हो गया। सामने भारती खड़ी थी। यह कैसी मूर्ति है उसकी? पैर में जूते नहीं हैं, काले रंग की साड़ी पहने है, बाल सूखे-सूखे बिखरे हैं। शांत चेहरे पर विषाद की आभा है। उस पर कभी क्रोध भी कर सकेगा, यह विचार अपूर्व मन में ला ही नहीं सका। भारती बोली, “आ गए? अब तिवारी बच जाएगा।”

अपूर्व ने कहा, “उसे क्या हुआ?”

भारती ने कहा, “इधर बहुत से लोगों को चेचक की बीमारी हुई है। उसे भी हो गई। आप ऊपर चलिए, स्नान करके थोड़ी देर आराम करने के बाद नीचे आइएगा। तिवारी अभी सो रहा है, जागने पर बता दूंगी।”

अपूर्व आश्चर्य से बोला, “ऊपर के कमरे में?”

भारती बोली, “हां, अभी कमरा हमारे अधिकार में है। मैं चली गई। खूब साफ है। आपको कोई कष्ट नहीं होगा। चलिए।”

कमरे में फर्श पर संवारकर अपने हाथों से बिस्तर बिछाकर बोली, “अब आप स्नान कर लीजिए।”

अपूर्व ने कहा, “पहले सारी बातें मुझे बताइए।”

भारती बोली, “स्नान करके संध्या-पूजा कर लें, तब।”

अपूर्व ने जिद नहीं की। कुछ देर बाद जब वह स्नान आदि समाप्त करके आया तो भारती ने हंसकर कहा, “अपना यह गिलास लीजिए। खिड़की पर कागज में लिपटी चीनी रखी है। उसे लेकर मेरे साथ नल के पास आइए। किस तरह शर्बत बनाया जाता है, मैं सिखा देती हूं।”

अधिक कहने की आवश्यकता नहीं थी। प्यास से छाती फटी जा रही थी। शर्बत बनाकर उसने पी लिया।

भारती बोली, “अभी आपको एक कष्ट और दूंगी।”

अपूर्व बोला, “कैसा कष्ट?”

भारती बोली, “नीचे से मैंने कोयला लाकर रख दिया है। उड़िया लड़के को बुलाकर आपके चूल्हे को मंजवा दिया है। चावल है, दाल है, परवल, घी, तेल, नमक सब है। पीतल की बटलोई ला देती हूं। थोड़ा-सा पानी लेकर धो लें और चढ़ा दें। कठिन काम नहीं हैं, मैं सब बता दूंगी। आप केवल चढ़ाएंगे और उतारेंगे। आज यह कष्ट उठा लीजिए, कल दूसरी व्यवथा हो जाएगी।”

अपूर्व ने पल भर मौन रहकर पूछा, “लेकिन आपके भोजन की व्यवस्था क्या होती है? कब अपने डेरे पर जाती हैं?

भारती ने कहा, “डेरे पर भले ही न जाऊं, लेकिन हम लोगों को भोजन के लिए चिंता नहीं करनी पड़ेगी।”

अपूर्व ने घंटे भर में रसोई तैयार की। भारती कमरे की चौखट के बाहर खड़ी होकर बोली, “यहां खड़े रहने से तो कोई दोष नहीं होता आपके खाने में?”

अपूर्व बोला, “होता तो आप खड़ी न रहतीं।”

जीवन में पहली बार अपूर्व ने रसोई बनाई है। हजारों कमियां देखकर बीच-बीच में भारती का धीरज टूटने लगा। लेकिन जब कटोरे में डालते समय दाल इधर-उधर बिखर गई तब वह सहन न कर पाई। क्रोध से बोली, “आप जैसे निकम्मे आदमियों को भगवान न जाने क्यों जन्म देते हैं? केवल हम लोगों को परेशान करने के लिए?”

खाने के बाद अपूर्व ने कहा, 'अच्छा, क्या मामला है, अब मुझे साफ-साफ बताइए। इधर और भी दस आदमियों को चेचक की बीमारी हुई है। तिवारी को हुई है। यहां तक तो समझ गया, पर जब इस मकान को छोड़कर आप सभी लोग चले गए तो इस बंधुहीन देश में और इससे भी अधिक बंधुहीन नगर में आप उसके लिए प्राण देने के लिए कैसे ठहर गईं? क्या जोसेफ ने कोई आपत्ति नहीं की?”

भारती बोली, 'बाबू जी तो अस्पताल में ही मर गए थे।”

“मर गए?” अपूर्व सन्नाटे में बैठा रह गया, “आपके काले कपड़े देखकर इसी प्रकार की किसी भयंकर दुर्घटना का मुझे अनुमान कर लेना चाहिए था।”

भारती बोली, “इससे भी बड़ी दुर्घटना यह हुई कि मां अचानक स्वर्ग सिधार गईं....”

“मां भी मर गईं?” अपूर्व स्तब्ध रह गया। अपनी मां की बात याद करके उसकी छाती में न जाने कैसी कंपकंपी होने लगी। भारती ने किसी तरह आंसू रोके। मुंह फेरने पर उसने देखा कि अपूर्व सजल आंखों से उसकी ओर देख रहा है। दो-तीन मिनट बीतने पर उसने धीरे से कहा, “तिवारी बहुत ही अच्छा आदमी है। मेरी मां बहुत दिनों से बीमार थी। हम सभी जानते थे कि किसी भी क्षण उनकी मृत्यु हो सकती है। तिवारी ने हम लोगों की बहुत सेवा की। मेरे यहां से जाते समय बहुत रोया। लेकिन मैं इतना भाड़ा कैसे दे सकती थी?”

अपूर्व चुपचाप सुनता रहा।

भारती ने कहा, “आपकी वह चोरी पकड़ी गई है। रुपया और बटन पुलिस में जमा हैं। आपको पता है?”

“कहां? नहीं तो।”

“तिवारी को उस दिन जो लोग तमाशा दिखाने ले गए थे, उन्हीं के दल का काम था। और भी न जाने कितने घरों में चोरी करने के बाद शायद चोरी का माल बांटने में झगड़ा हो जाने के कारण उनमें से एक ने सारी बातें खोलकर बता दीं। पुलिस के गवाहों में एक मैं भी हूं। यह पता लगाकर वह लोग एक दिन मेरे पास आए थे। तभी मैंने यहां आकर यह कांड देखा। मुकदमे की तारीख कब है, यह तो मैं ठीक से नहीं जानती। लेकिन सब कुछ वापस मिल जाएगा। यह सुन चुकी हूं।”

यह अंतिम बात अगर वह न भी कहती तो अच्छा होता। क्योंकि लज्जा के मारे अपूर्व का मुंह केवल लाल ही नहीं हो उठा, इस मामले में अपने उन प्रकट और अप्रकट इशारों की याद करके उसके शरीर में कांटे से चुभ उठे।

भारती फिर कहने लगी, “दरवाजा बंद था। हजारों बार पुकारने और चिल्लाने पर भी किसी ने उत्तर नहीं दिया। ऊपर की मंजिल की चाबी मेरे पास थी। दरवाजा खोलकर अंदर गई। मेरे फर्श में एक छेद हो गया है, “यह कहकर उसने लज्जा से हंसी को छिपाकर कहा, “उस छेद से आपके कमरे का सब कुछ दिखाई देता है। देखा, सभी दरवाजे बंद हैं। अंधेरे में कोई आदमी सिर से पैर तक कपड़ा ओढ़े सोया पड़ा है। तिवारी जैसा दिखाई दिया। उसी छेद पर मुंह रखकर चिल्ला-चिल्लाकर पुकारा, तिवारी मैं भारती हूं। तुमको क्या हुआ? दरवाजा खोल दो- फिर नीचे आकर इसी तरह चीख-पुकार मचाने लगी। बीस मिनट के बाद तिवारी किसी तरह घिसटकर आया और दरवाजा खोल दिया। उसका चेहरा देखकर फिर कुछ पूछने की आवश्यकता ही नहीं रही। इसके तीन-चार दिन पहले, सामने वाले मकान के कमरे से पुलिस वाले चेचक से बीमार दो तेलुगु कुलियों को पकड़कर अस्पताल ले गए थे। उनका रोना-पीटना, गिड़गिड़ाना तिवारी ने अपनी आंखों से देखा था। मेरे दोनों पांव पकड़कर भों-भों करके रोते हुए बोला, “माई जी मुझे प्लेग अस्पताल में मत भेजना। भेजने से फिर मेरे प्राण नहीं बचेंगे।” यह बात बिल्कुल झूठी भी नहीं है। वहां से किसी के जिंदा लौटकर आने की बात बहुत ही कम सुनाई देती है, इसी डर से वह रात-दिन दरवाजे-खिड़कियां बंद करके पड़ा रहता है। मुहल्ले में किसी भी आदमी को अगर पता चल गया तो फिर रक्षा नहीं है।”

अपूर्व बोला, “और आप तभी से आप दिन-रात अकेली यहां रह रही हैं। इसकी सूचना क्यों नहीं भेजी? हमारे ऑफिस के तलवलकर बाबू को तो आप जानती हैं। उन्हें क्यों नहीं बुला लिया।”

भारती ने कहा, “कौन जाता? आदमी कहां है? सोचा था, शायद हालचाल पूछने आएंगे लेकिन वह नहीं आए। और इसके अलावा बात फैल जाने की भी आशंका थी।”

“यह तो जरूर है,” कहकर अपूर्व ने एक लम्बी सांस लेकर चुप रह गया। बहुत देर बाद बोला, “आपका चेहरा कैसा हो गया?”

भारती हंसकर बोली, “यानी पहले इससे सुंदर था?”

अपूर्व इस बात का कोई उत्तर नहीं दे सका। उसकी दोनों आंखों की मुग्ध दृष्टि श्रध्दा और कृतज्ञता से उस तरुणी पर टिक गई। बोला, “मनुष्य जो काम नहीं करता, उसे आपने किया है। लेकिन अब आपकी छुट्टी है। तिवारी मेरा केवल नौकर ही नहीं है, मेरा मित्र भी है। उसकी गोद और पीठ पर चढ़-चढ़कर ही मैं बड़ा हुआ हूं। अब भोजन के लिए घर जाइए। क्या घर यहां से बहुत दूर है?'

भारती बोली, “हम लोग तेल के कारखाने के पास, नदी के किनारे रहते हैं। मैं कल फिर आऊंगी।”

दोनों उतरकर नीचे आ गए। ताला खोलकर दोनों कमरे में घुसे। तिवारी जाग जाने पर भी बेसुध-सा पड़ा था। अपूर्व उसके बिस्तर के पास आकर बैठ गया और जो बर्तन आदि बिना मांजे-धोए पड़े थे उन्हें उठाकर भारती स्नानघर में चली गई। उसकी इच्छा थी कि जाने से पहले रोगी के संबंध में दो-चार जरूरी बातें बताकर इस भयानक रोग से अपने को सुरक्षित रखने की आवश्यकता की बात याद दिलाकर जाए। हाथ का काम समाप्त करके इन्हीं बातों को दोहराती हुई कमरे में लौटी तो उसने देखा कि चेतना शून्य तिवारी के विकृत मुंह की ओर टकटकी लगाए देखता हुआ अपूर्व पत्थर की मूर्ति की तरह बैठा है। उसका चेहरा एकदम सफेद हो गया है। चेचक की बीमारी उसने अपने जीवन में कभी देखी नहीं थी। भारती जब निकट आ गई तो उसकी दोनों आंखें छलछला उठीं। बच्चों की तरह व्याकुल स्वर में बोल उठा, “मैं कुछ न कर सकूंगा भारती।”

“तब तो खबर देकर इसे अस्पताल भेज देना पड़ेगा।” भारती के शब्दों में न श्लेष था, न व्यंग्य। लेकिन लज्जा से अपूर्व का सिर झुक गया।

भारती बोली, “दिन रहते ही कुछ कर देना ठीक रहेगा। आप कहें तो घर जाते समय कहीं से अस्पताल को टेलीफोन करती जाऊं। वह लोग गाड़ी लेकर आएंगे और इसे यहां से उठा ले जाएंगे।”

अपूर्व बोला, “लेकिन आपने ही तो कहा है कि वहां जाने पर कोई भी नहीं बचता।'

“कोई भी नहीं बचता-यह मैंने कब कहा?”

“आपने कहा था, अधिकांश रोगी मर जाते हैं।”

“मर जाते हैं। इसीलिए होश रहते वहां कोई नहीं जाना चाहता।”

अपूर्व ने पूछा, “क्या तिवारी को बिल्कुल होश नहीं है।”

भारती बोली, “कुछ तो जरूर है।”

तभी तिवारी के कराह उठने पर अपूर्व चौंक पड़ा। भारती ने पास आकर स्नेह भरे स्वर में पूछा, “क्या चाहिए तिवारी?”

तिवारी ने कुछ कहा पर अपूर्व उसे समझ नहीं सका। लेकिन भारती ने सावधानी से उसकी करवट बदलवाकर लोटे से थोड़ा जल उसके मुंह में डालकर कहा, “तुम्हारे बाबू जी आ गए हैं तिवारी।”

प्रत्युत्तर में तिवारी ने न जाने क्या कहा और फिर उसकी मुंदी आंखों के कोने से आंसू लुढ़ककर बहने लगे। कुछ देर किसी ने कुछ नहीं कहा। समूचा कमरा जैसे दु:ख और शोक से बोझिल हो गया। कुछ देर बाद भारती ने कहा, “अब इसे आप अस्पताल ही भेज दीजिए।”

अपूर्व सिर हिलाकर बोला, “नहीं।”

“अच्छा, अब मैं जा रही हूं। हो सका तो कल आऊंगी।”

जाने से पहले भारती बोली, “सब कुछ है, केवल मोमबत्ती खत्म हो गई है। मैं नीचे से एक बंडल खरीदकर दे जाती हूं।” यह कहकर बाहर चली गई। कुछ देर बाद जब वह मोमबत्ती लेकर आई, तो अपूर्व अपने को संभाल चुका था। मोमबत्ती का बंडल देकर भारती ने कुछ कहना चाहा। लेकिन अपूर्व के मुंह फेर लेने पर उसने भी कुछ नहीं कहा। पर भारती ने जाने के लिए ज्यों ही दरवाजा खोला, अपूर्व एकदम बोल उठा, 'अगर तिवारी पानी चाहे?” भारती ने कहा, “पानी दे दीजिएगा।”

“और अगर करवट बदलकर सोना चाहे?”

“करवट बदलकर सुला दीजिएगा।”

“और मैं कहां सोऊंगा? उसके कंठ स्वर का क्रोध छिपा नहीं रहा, बोला, “बिछौना तो ऊपर के कमरे में पड़ा है।”

पल भर मौन रहकर वह बोली, “वह बिछौना जो आपकी चारपाई पर है आप उस पर सो सकते हैं।”

“और मेरे भोजन का क्या होगा?”

भारती चुप रही। लेकिन इस असंगत प्रश्न से छिपी हंसी के आवेग से उसकी आंखों की दोनों पलकें जैसे कांपने लगीं। कुछ देर बाद बहुत ही गम्भीर स्वर में बोली, “आपके सोने और खाने-पीने का भार क्या मेरे ऊपर है?”

“मैं क्या कह रहा हूं?”

“इस समय तो आपने यही कहा है और वह भी गुस्से से।”

अपूर्व इसका उत्तर न दे सका। उसके उदास चेहरे को देखते हुए भारती ने कहा, “आपको इस तरह कहना चाहिए था-कृपा करके आप इन सबकी व्यवस्था कर दीजिए।”

अपूर्व बोला, “यह कहने में कोई कठिनाई तो है नहीं।”

“अच्छी बात है, यही कहिए न।”

“यही तो कह रहा हूं,” कहकर अपूर्व मुंह फुलाकर दूसरी ओर देखने लगा।

“आपने क्या कभी किसी रोगी की सेवा नहीं की?”

“नहीं।”

“विदेश में भी कभी नहीं आए?”

“नहीं, मां मुझे कभी कहीं जाने नहीं देती थीं।”

“तब उन्होंने इस बार कैसे भेज दिया?”

अपूर्व चुप रहा। मां उसे क्यों विदेश जाने पर सहमत हुई थीं यह बात किसी को बताने की इच्छा नहीं थी।

भारती बोली, “इतनी बड़ी नौकरी, आपको न भेजने से कैसे काम चलता। लेकिन वह साथ क्यों नहीं आईं?”

अपूर्व क्षुब्ध होकर बोला, 'मेरी मां को आपने देखा नहीं है, नहीं तो ऐसा न कहतीं। मुझे छोड़ने में उनकी आत्मा को अत्यंत दु:ख हुआ है। दूसरा कारण वह तो विधवा हैं। इस म्लेच्छ देश में कैसे आ सकती थीं?”

“म्लेच्छों पर आप लोगों के मन में इतनी घृणा है? लेकिन रोग तो केवल गरीबों के लिए नहीं बना है, आपको भी तो हो सकता था। तो क्या ऐसी दशा में मां न आतीं?”

अपूर्व का मुंह फीका पड़ गया। बोला, “अगर इस तरह डराओगी तो मैं रात में अकेला कैसे रहूंगा।”

“न डराने पर भी आप अकेले नहीं रह सकेंगे। आप डरपोक आदमी हैं।'

अपूर्व चुपचाप बैठा सुनता रहा।

भारती बोली, “अच्छा बताइए, मेरे हाथ का पानी पीकर तिवारी की जाति नष्ट हो गई। रोग अच्छा हो जाने पर यह क्या करेगा?”

अपूर्व कुछ सोचकर बोला, “उसने सचेत अवस्था में ऐसा नहीं किया। मरणासन्न बीमारी की दशा में किया है। न पीता तो शायद मर जाता। ऐसी परिस्थिति में भी प्रायश्चित तो करना ही पड़ता है।”

भारती बोली, “हूं। इसका खर्च शायद आपको ही देना पड़ेगा, नहीं तो आप उसके हाथ का भोजन कैसे करेंगे?”

अपूर्व बोला, “मैं ही दूंगा। भगवान करे वह अच्छा हो जाए।”

भारती बोली, “और मैं ही सेवा करके, उसे अच्छा कर दूं?”

अपूर्व कृतज्ञता से गद्गद होकर बोला, “आपकी बड़ी दया होगी। तिवारी बच जाए। आपने ही तो उसे जीवन दान दिया है।”