पथ के दावेदार / अध्याय 3 / शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
भारती हंस पड़ी। बोली, “यदि म्लेच्छ जीवनदान दे तो उसमें कोई दोष नहीं, लेकिन मुंह में जल देते ही प्रायश्चित्त होना चाहिए।” फिर जरा हंसकर बोली, “अच्छा, मैं जा रही हूं। अगर कल समय मिला तो एक बार देखने आऊंगी।” यह कहकर जाते-जाते अचानक घूमकर बोली, “और न आ सकूं तो तिवारी के अच्छा हो जाने पर उससे कह दीजिएगा कि अगर आप न आ जाते तो मैं न जाती। लेकिन म्लेच्छ का भी तो एक समाज है। आपके साथ एक ही कमरे में रात बिताने में वह लोग भी अच्छा नहीं मानते। कल सवेरे आपका चपरासी आएगा तो तलवलकर बाबू को खबर दे दीजिएगा। सब व्यवस्था करेंगे। अच्छा नमस्कार।”
अपूर्व ने कहा, “करवट बदलवाने की जरूरत पड़ी तो कैसे बदलूंगा?”
“सावधन होकर बदलिएगा। मैं स्त्री होकर अगर कर सकती हूं तो आप क्यों नही कर सकते?”
अपूर्व चुप ही रहा। जाने के लिए भारती ने ज्यों ही दरवाजा खोला, अपूर्व ने भय से आकुल होकर कहा, “और अगर यह बैठ जाए?.... अगर रोने लगे?”
इन प्रश्नों का उत्तर न देकर भारती दरवाजा बंद करके चली गई। जब तक उसके कदमों की आवाज सुनाई देती रही, अपूर्व शांत बैठा रहा। लेकिन खामोशी होते ही स्वयं को न संभाल सका। भय से दौड़ता हुआ बाहर आया। देखा, भारती तेजी से चली जा रही है। मिस भारती न कहकर उसने ऊंची आवाज में पुकारा, “भारती?”
भारती मुड़कर देखते ही अपूर्व दोनों हाथ जोड़कर बोला, “जरा इधर आइए।”
भारती लौट पड़ी। अंदर जाकर देखा, वहां अपूर्व नहीं है। तिवारी अकेला पड़ा है, वह बरामदे में भी नहीं था। कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। चारों ओर नजरें दौड़ाकर देखा, स्नानघर का दरवाजा खुला है, दरवाजे के अंदर गर्दन बढ़ाकर देखा तो उसके भय की सीमा नहीं रही। अपूर्व फर्श पर पड़ा था। दोपहर को जो कुछ खाया था, उलट दिया था। आंखें बंद हैं और शरीर पसीना-पसीना हो रहा है। पास जाकर बोली, “अपूर्व बाबू!”
अपूर्व ने आंखें खोलकर देखा लेकिन फिर तत्काल आंखें मूंद लीं। एक पल दुविधा के बाद भारती उसके पास आ बैठी और माथे पर हाथ रखकर बोली, “उठकर बैठना होगा। सिर पर और मुंह में जल न देने पर तबीयत ठीक नहीं होगी। अपूर्व बाबू!”
अपूर्व उठ बैठा। भारती हाथ पकडकर उसे नल के पास ले गई, और नल खोल दिया। उसने हाथ-मुंह धो डाले। भारती उसे धीरे-धीरे कमरे में ले आई और चारपाई पर लिटाकर आंचल से उसके हाथों और पैरों का पानी पोंछ डाला। फिर पंखे से हवा करती हुई बोली, “जरा सोने की कोशिश करो। आपके स्वस्थ न होने तक मैं यहीं रहूंगी।”
अपूर्व लज्जित होकर बोला, “लेकिन आपका खाना?”
भारती बोली, “आपने खाने का अवसर ही कहां दिया।”
पलभर चुप रहकर अपूर्व ने पूछा, “अच्छा आपको मिस भारती कहकर न पुकारने पर आप क्या नाराज होंगी?”
“जरूर, लेकिन केवल भारती कहकर पुकारने पर नहीं होऊंगी।”
“लेकिन और लोगों के सामने?'
“भारती हंसकर बोली, “और लोगों के सामने भी। लेकिन अब चुप होकर जरा सो जाइए। मुझे काफी काम करने हैं।”
अपूर्व बोला, “सोते हुए डर लगता है। पीछे कहीं तुम चली न जाओ।”
“अगर जागते रहने पर भी चली जाऊं तो आप क्या कर लेंगे?”
अपूर्व चुप रह गया।
भारती बोली, 'हमारे म्लेच्छ समाज में क्या नेकनामी और बदनामी से बचकर नहीं चलना पड़ता?”
अपूर्व की बुध्दि ठिकाने नहीं थी। प्रत्युत्तर में उसने एक विचित्र प्रश्न कर डाला। बोला, “मेरी मां यहां नहीं है। मेरे बीमार पड़ जाने पर आप क्या करेंगी? तब तो आपको ही रहना होगा।”
“मुझे रहना होगा? आपके मित्र तलवलकर बाबू को खबर देने से काम नहीं चलेगा?”
अपूर्व गर्दन हिलाकर बोला, “नहीं। यह नहीं हो सकता। या तो मां या फिर आप। आप दोनों में से एक को न देख पाने पर मैं नहीं बचूंगा। कल अगर मुझे चेचक निकल जाए तो आप यह बात भूल मत जाना।”
उसके अनुरोध के अंतिम शब्द किस तरह सुनाई दिए कि भारती जैसे स्वयं को ही भूल गई। बिछौने के एक छोर पर बैठकर अपूर्व के शरीर पर एक हाथ रखकर रुंधे गले से बोली, “नहीं....नहीं भूलूंगी....कभी नहीं भूलूंगी...इस बात को क्या कभी भूल सकती हूं।” लेकिन इन शब्दों के मुंह से निकलते ही अपनी भूल समझकर एकदम उठ खड़ी हुई। जोर लगाकर जरा हंसकर बोली, “लेकिन अच्छा हो जाने पर भी तो कम विपत्ति नहीं आएगी अपूर्व बाबू! धूमधाम से प्रायश्चित्त करना पड़ेगा। अच्छा अब सो जाइए। मुझे बहुत काम करने हैं।”
“कौन से काम? -खाना खाना है?”
भारती बोली, “खाना तो दूर, अभी तक स्नान भी नहीं किया।”
“लेकिन सांझ के समय स्नान करने से बीमार न पड़ जाओगी?”
भारती बोली, “असम्भव नहीं है। लेकिन स्नानघर में आपने जो गंदगी फैला दी है, उसे साफ करने पर स्नान किए बिना क्या रहा जा सकता है?”
अपूर्व लज्जित होकर बोला, “वह सब मैं साफ कर दूंगा। आप मत कीजिए,” कहकर वह उठने लगा।
भारती रूठकर बोली, “अब बहादुरी दिखाने की जरूरत नहीं है। थोड़ा सोने की कोशिश करो। लेकिन ऐसे कोमल आदमी को मां ने विदेश कैसे भेज दिया, यही सोच रही हूं। उठिए मत, वह नहीं हैं।” बनावटी क्रोध और शासन के स्वर में आज्ञा देकर वह चली गई।
निर्जीव की तरह अपूर्व कब सो गया, वह जान भी न सका।
उसकी नींद टूटी, भारती के पहुंचने पर। आंखें मलकर उठने पर देखा, रात के बारह बज गए हैं। भारती सामने खड़ी है। अपूर्व की पहली नजर पड़ी उसके बालों की लम्बाई पर। सुगंधित साबुन की गंध से कमरे की हवा हठात् पुलकित हो उठी थी। काली पाड़ की साड़ी पहने है। बदन पर अंगिया न होने के कारण वहां का अधिकतर भाग दिखाई दे रहा है। भारती की यह मानो कोई नूतन मूर्ति है जिसे अपूर्व ने इससे पहले कभी नहीं देखा था। मुंह से एकाएक निकला, “इतने भीगे बाल, सूखेंगे कैसे?”
“कैसे सूखेंगे, आप इनकी चिंता मत कीजिए। मेरे साथ आइए।”
“तिवारी कैसा है?”
“ठीक है। कम-से-कम आज की रात तो आपको सोचना न पड़ेगा!”
उसके साथ-साथ दूसरे कमरे में आकर देखा-एक छोटी-सी टोकरी में कुछ फल-फूल, एक थाली, एक गिलास रखा है। भारती ने दिखाकर कहा, “इससे अधिक और कुछ नहीं किया जा सकता था। पानी से सब धो डालिए। थाली-गिलास सब। गिलास में जल लेकर उस कमरे में जाइए। मैंने आसन लगा दिया है।”
अपूर्व ने पूछा, “आप यह सब कब ले आईं?”
भारती बोली, “आप सो रहे थे। पास ही फलों की एक दुकान है। दूर नहीं जाना पड़ा। टोकरी तो आप लोगों की ही है।” फिर जाते-जाते सावधन करती गई, “चाकू धोते समय कहीं हाथ मत काट लेना।”
कुछ देर बाद अपूर्व आसन पर बैठा फल काट रहा था और पास ही बैठी भारती हंस रही थी। अपूर्व ने कहा, “आप हंसिए, कोई हर्ज नहीं, लेकिन आपने मेरे भोजन के लिए जो व्यवस्था की है उसके लिए सहस्रों धन्यवाद! मां के अतिरिक्त और कोई ऐसा नहीं करता।”
उसकी बात को अनसुनी करके भारती ने कहा, “हंसती हूं क्या अपनी इच्छा से? अपूर्व बाबू! तिवारी के स्वस्थ हो जाने पर मैं अवश्य ही मां को चिट्ठी लिखूंगी कि या तो वह आ जाएं या फिर अपने लड़के को वापस बुला लें। ऐसे मनुष्य को बाहर नहीं छोड़ना चाहिए।”
अपूर्व बोला, “मां अपने लड़के को अच्छी तरह जानती है। लेकिन देखिए, अगर यहां मेरे बजाय मेरे भाइयों में से कोई होता तो आपकी इतनी बातें न चलतीं। वह लोग आपसे ही सारे काम करा लेते।”
भारती समझी नहीं।
अपूर्व बोला, “भाई लोग सब कुछ खाते-पीते हैं। मुर्गी और डिनर बिना उनका पेट नहीं भरता।”
भारती आश्चर्य से बोली, “यह क्या कह रहे हैं आप?”
अपूर्व बोला, “सच कह रहा हूं। पिताजी भी तो आधे ईसाई थे। मां को उस हालत में क्या कम कष्ट भोगने पड़े थे।”
भारती उत्सुक होकर बोली, “क्या यह सच है? लगता है, मां जी भयानक हिंदू हैं।”
अपूर्व बोला, “भयानक क्यों? हिंदू घर की लड़की को जैसा होना चाहिए वैसी ही हैं।” मां की बात कहते-कहते उसका स्वर करुण और स्निग्ध हो उठा। बोला, “घर में दो बहुएं हैं, फिर भी मां को अपनी रसोई आप ही बनानी पड़ती है। लेकिन मां का स्वभाव ही ऐसा है। कभी किसी पर दबाव नहीं डालतीं। किसी से कोई शिकायत नहीं करतीं। कहती हैं-मैं भी तो अपने आचार-विचार त्याग कर अपने पति के मत को स्वीकार नहीं कर सकी। अगर यह लोग मेरे मत से सहमत न हो सकें तो शिकायत करना ठीक नहीं? मेरी बुध्दि और मेरे संस्कार मानकर बहुओं को चलना पड़ेगा, इसका कोई अर्थ भी है?”
भारती ने भक्ति और श्रध्दा से अवनत होकर कहा?, “मां पुराने जमाने की महिला हैं। लेकिन उनमें धीरज बहुत है।”
अपूर्व ने उत्साहित होकर कहा, “धीरज? मां के धीरज की क्या कोई सीमा है? आपने उनको देखा नहीं है। देखने पर एकदम ही आश्चर्यचकित रह जाएंगी।”
भारती प्रसन्न मौन मुख से टकटकी लगाए ताकती रही। अपूर्व बोला, “यह मान लेना पड़ेगा कि समूचे जीवन में मेरी मां दु:ख ही भोगती रहीं। उनका सम्पूर्ण जीवन पति-पुत्रों के म्लेच्छाचार सहते ही बीता है। उनका एकमात्र भरोसा मैं हूं। बीमारी की हालत में केवल मेरे ही हाथ का पकाया भोजन मुंह में डालती हैं।”
भारती ने कहा, “तब तो उनको कष्ट हो सकता है।”
अपूर्व ने कहा, “शायद हो भी रहा हो। इसलिए तो उन्होंने मुझे पहले छोड़ना नहीं चाहा पर मैं हमेशा तो घर में बैठा नहीं रह सकता। उन्हें एकमात्र आशा है कि मेरी पत्नी रसोई बनाकर उन्हें खिलाया करेगी।”
भारती हंसकर बोली, “उनकी इस आशा को आप पूरा करके क्यों नहीं आए?”
अपूर्व बोला, “लड़की पसंद करके जब मां ने सब ठीक-ठाक कर लिया, तभी मुझे झटपट यहां चला आना पड़ा। मैं कह आया हूं कि मां जब चिट्ठी लिखेगी तो आकर आज्ञा का पालन करूंगा।”
भारती बोली, “यही ठीक है।”
अपूर्व बोला, “मैं चाहता हूं कि वह मां को कभी दु:ख न दे। मुझे क्या जरूरत है गान-वाद्य जानने वाली कॉलेज में पढ़ी हुई विदुषी लड़की की।”
भारती बोली, “हां जरूरत ही क्या है?”
अपूर्व स्वयं भी किसी दिन इसका विरोधी था। भाभी का पक्ष लेकर झगड़ा करके क्रुध्द होकर मां से कहा था, “किसी ब्राह्मण-पंडित के घर से जैसे बने एक लड़की पकड़ लाकर झमेला खत्म कर दो-'इस बात को आज बिल्कुल ही भूल गया। बोला, “आप जो बात समझती हैं मेरे भाई और भाभियां उस बात को समझना नहीं चाहतीं। अपना धर्म मानकर चलना चाहिए। पूरा घर आदमियों से भरा होने पर भी मेरी मां अकेली है। इससे बढ़कर दुर्भाग्य और क्या हो सकता है उनका? इसीलिए मैं भगवान से प्रार्थना करता हूं कि मेरे किसी आचरण से मां को दु:ख न हो।”
कहते-कहते उसका गला भारी हो गया और आंखों में आंसू छलछला उठे।
तभी तिवारी कुछ बड़बड़ा उठा, भारती उठकर चली गई। आज अपूर्व का तन-मन भय और चिंता से अत्यंत विकल हो उठा था। मां को अपने पास देखने की अंधी आकुलता से उसके भीतर-ही-भीतर कुहरा घूमड़ने लगा था। यह बात अन्तर्यामी से छिपी नहीं रही। लेकिन भारती का हृदय अपमान की वेदना से तड़प उठा।
थोड़ी देर बाद लौटकर उसने देखा-अपूर्व किसी तरह फल काटने का काम समाप्त करके चुपचाप बैठा है। बोली, “बैठे हैं? खाया नहीं?”
“नहीं आपके लिए बैठा हूं।”
“क्यों?”
“आप नहीं खाएंगी?”
“नहीं। इच्छा होगी तो मेरे लिए अलग रखे हैं।”
अपूर्व ने फलों का थाल हाथ से कुछ आगे ठेलकर कहा, “क्या ऐसा कभी हो सकता है? आपने सारे दिन नहीं खाया, और....”
उसकी बात पूरी नहीं हुई थी कि अत्यंत सूखे दबे स्वर में उत्तर मिला, “आह! आप तो बहुत परेशान करते हैं, भूखे हैं तो खाइए। नहीं तो खिड़की से बाहर फेंक दीजिए।” यह कहकर वह कमरे से चली गई।
उसके चेहरे को अपूर्व ने देख लिया। उस चेहरे को वह फिर कभी नहीं भूल सका। आने के दिन से लेकर अब तक अनेक बार भेंट हुई थी। झगड़े में, मेल-जोल में, शत्रुता में, मित्रता में, सम्पत्ति और विपत्ति में-कितनी ही बार तो इस लड़की को देखा है। लेकिन उस दिन के देखने और आज के देखने में कोई समता नहीं है।
भारती चली गई। फलों का थाल उसी तरह पड़ा रहा। अपूर्व उसी तरह काठ की तरह अवाक् और निस्पंद बैठा रहा।
एकाध घंटे के बाद उसने कमरे में जाकर देखा, तिवारी के सिरहाने के पास चटाई बिछाए भारती अपनी बांह पर सिर टिकाए सो रही है।
वह जैसे आया था उसी तरह लौट गया और जाकर सो गया।
नींद जब टूटी तो सवेरा हो चुका था।
भारती ने आकर कहा, “मैं अब जा रही हूं।”
अपूर्व हड़बड़ाकर उठ बैठा। लेकिन अभी वह अच्छी तरह होश में भी न आया था कि वह कमरे से निकलकर भाग पड़ी।
तिवारी रोग मुक्त हो चुका है लेकिन अभी कमजोरी बाकी है। जो आदमी अपूर्व के साथ मामो गया था, वही रसोई बना रहा है। तिवारी को बचाने के लिए अपूर्व के ऑफिस के अधिकारियों ने अथक परिश्रम किया था। रामदास तो कई दिन घर भी नहीं जा सका था। शहर के एक बड़े डॉक्टर से इलाज कराया गया था। बर्मा देश तिवारी को कभी अच्छा नहीं लगा। अपूर्व ने उसे छुट्टी दे दी है। निश्चय हुआ कि कुछ और स्वस्थ हो जाने पर वह घर चला जाएगा। अगले सप्ताह में शायद यह सम्भव होगा।
उस दिन की गई भारती फिर नहीं आई। तिवारी कभी सोचता-भारती बहुत चालाक लड़की है। अपूर्व के आने का समाचार पाकर भाग गई। कभी सोचता-अपूर्व ने यहां आने के बाद शायद उसका अपमान किया हो। अपूर्व स्वयं कुछ न बताता। उससे पूछते हुए तिवारी डरता कि उसकी पूछताछ से बातें खुल जाएंगी। उसके हाथ का छुआ जल उसने पिया है। उसका पकाया हुआ साबू-बार्ली खाया है। शायद जाति इतने भयंकर रूप से नष्ट हो गई है कि उसका कोई प्रायश्चित्त नहीं है। तिवारी ने निश्चय कर रखा था कि कलकत्ता पहुंचकर वह अपने गांव चला जाएगा। वहां गंगा-स्नान करके, किसी ब्राह्मणों को भोजन कराके, शरीर को काम-काज चलाने योग्य शुध्द कर लेगा। इधर-उधर की बातों में यहां की बातें अपूर्व की मां के कानों तक पहुंचा देने से क्या होगा, कुछ नहीं कहा जा सकता। हालदार परिवार की नौकरी जाएगी, साथ ही समाज में बदनामी भी हो जाएगी।
लेकिन इस स्वार्थ और भय के अतिरिक्त तिवारी के हाथ में एक बात और भी थी। वह बात जितनी मधुर थी उतनी ही वेदनापूर्ण भी थी। अपूर्व के मामो चले जाने के बाद इस लड़की के साथ उसका घनिष्ट परिचय हुआ था। जिस दिन अचानक उसकी मां की मृत्यु हुई, उस समय तक तिवारी का खाना-पीना भी नहीं हुआ था। लड़की ने रोते हुए आकर उसका दरवाजा खटखटाया। दो दिन पहले ही जोसेफ मरा था। किवाड़ खोलते ही भारती कमरे में आकर उसके दोनों हाथ पकड़कर ऐसी रोई कि क्या कहें। तिवारी का पकाया हुआ भात हांडी में ही रह गया। सारे दिन चिट्ठी लेकर न मालूम कहां-कहां दौड़ना पड़ा। दूसरे दिन जाते समय उसकी आंखों के आंसू जैसे रुकना नहीं चाहते थे। इस बीच उसने भारती को कभी दीदी, कभी बहिन भी कहकर पुकारा था। चार-पांच दिन तक स्वयं ही रसोई बनाकर खिलाई थी। फिर उसके बीमार पड़ जाने पर भारती ने उसकी कितनी सेवा की थी, यह बात वह अच्छी तरह जानता था। कभी सोचता भी न था। याद आते ही जाति नष्ट होने की बात याद आ जाती थी। सुबह स्नान करके भीगे बालों की विशाल राशि पीठ पर लटकाए प्रतिदिन उसका समाचार जानने के लिए आया करती थी। रसोई घर में नहीं जाती थी। कोई चीज नहीं छूती थी। चौखट के बाहर फर्श पर बैठकर कहती, “आज क्या-क्या पकाया तिवारी? देखूं तो।”
“दीदी, आसन बिछा दूं?”
“नहीं, फिर चौका धोना पड़ेगा।'
“क्या आसन भी छूने से बिगड़ता है?”
भारती कहती, “तुम्हारे बाबू तो सोचते हैं कि मेरे रहने से समूचे मकान को छूत लग गई है। अपना मकान होता तो शायद जल छिड़ककर पवित्र कर लेते। यही बात है न तिवारी?”
तिवारी हंसकर कहता, “तुम नहीं जान सकीं। इसलिए सभी को वैसा ही समझती हो। लेकिन अगर बाबू को एक बार भी अच्छी तरह जान जातीं तो तुम भी कहतीं कि ऐसा मनुष्य संसार में दूसरा कोई नहीं है।”
भारती कहती, “नहीं है, यह तो मैं भी कहती हूं। तभी तो जिसने चोरी होने में रुकावट डाली उसी को चोर समझ बैठे।”
इस विषय में अपना अपराध याद करके तिवारी दु:खी हो उठता। बात दबाकर कहता, “लेकिन तुमने भी तो काम कम नहीं किया। जानबूझ कर बाबू पर बीस रुपए जुर्माना कराया।”
भारती कहती, “लेकिन उस दंड को तो मैंने स्वयं ही झेला था तिवारी तुम्हारे बाबू को तो देने नहीं पड़े।”
“नहीं देने पड़े? मैंने अपनी आंखों से देखा कि दो नोट देकर अदालत से बाहर आए।”
“और मैंने भी तो अपनी आंखों से देखा था तिवारी कि तुमने कमरे में घुसते ही दो नोट नीचे से उठाकर अपने बाबू को दिए थे।”
तिवारी के हाथ की कलछुल हाथ-की-हाथ में रह गई, “ओह, यह सच है दीदी।”
“लेकिन सब्जी जली जा रही है तिवारी।”
तिवारी ने कहा, “बाबू से मैं यह बात जरूर कहूंगा दीदी।”
भारती हंसकर बोली, “तो क्या होगा? मैं तुम्हारे बाबू से डरती थोड़े ही हूं।”
लेकिन यह आश्चर्यजनक बात छोटे बाबू से कहने का अवसर तिवारी को नहीं मिला। कब और किस तरह मिलेगा, यह भी नहीं जान सका।
एक दिन बासी हल्दी से तरकारी बना रहा था कि भारती की झिड़की सुननी पड़ी। और जिस दिन स्नान किए बिना ही उसने रसोई तैयार की, भारती ने उसके हाथ का भोजन नहीं खाया।
तिवारी गुस्से से बोला, “तुम लोगों में इतना विचार है। देखता हूं, तुम तो माता जी को भी पार करके आगे बढ़ रही हो?”
भारती ने कोई उत्तर नहीं दिया। हंसती हुई चली गई।
बर्मा में अब वह कभी नहीं लौटेगा। जाने से पहले भारती से भेंट होने की आशा भी नहीं है। दिन-प्रतिदिन एक ही प्रतीक्षा में चुपचाप बैठे रहने से उसकी छाती में भारी कसक उठती रहती है।
उस दिन ऑफिस से लौटकर अपूर्व ने अचानक पूछा, “भारती का घर कहां है तिवारी?”
तिवारी बोला, “मैंने क्या जाकर देखा है बाबू?”
“जाते समय तुम्हें बताया हो शायद?”
“मुझे बताने की भला क्या जरूरत थी।”
अपूर्व बोला, “मुझे बताया तो था लेकिन ठीक से याद नहीं रहा। कल पता लगाना।”
तिवारी के मन में तूफान मचल उठा।
अपूर्व बोला, “पुलिस उस चोरी का माल देना चाहती है लेकिन भारती के हस्ताक्षर आवश्यक हैं।”
तिवारी कुछ देर चुप रहकर बोला, 'उस दिन वह यही सूचना देने आई थी। लेकिन मेरी हालत देखकर फिर लौटकर न जा सकी।”
“यदि वह देखभाल न करती तो तू कब का मर चुका होता तिवारी! मुझसे भी भेंट न होती।”
तिवारी कुछ नहीं बोला।
अपूर्व ने फिर कहा, 'आकर मैंने देखा कि अंधेरी कोठरी में तू है और वह है, तीसरा कोई नहीं। कहां जाना होगा, कहां सोना होगा, इसका कुछ भी निश्चय नहीं। दो दिन पहले ही उसके माता-पिता की मृत्यु हुई थी। बड़े कड़क दिल की लड़की है तिवारी!”
तिवारी चुप न रह सका। बोला, “वह कब चली गई?”
अपूर्व बोला, “मेरे आने के दूसरे ही दिन। सवेरा होते-न-होते ही आवाज आई, 'अब मैं जा रहीं हूं,' कहकर एकदम चली गई।'
“नाराज होकर गई थी क्या?”
“नाराज होकर?” अपूर्व ने जरा सोचकर कहा, “नहीं जानता, शायद हो सकता है। उसे समझाया भी तो नहीं जा सकता, नहीं तो तेरा खयाल रहता था, एक बार समाचार जानने भी नहीं आई कि तू अच्छा हो गया है या नहीं।”
यह बात तिवारी को अच्छी नहीं लगी। बोला, “हो सकता है। स्वयं अपने ही रोग-शोक के झमेले में पड़ गई हों।”
“अपने रोग-शोक में?” अपूर्व चौंक पड़ा। उसके संबंध में कई दिन बहुत-सी बातें याद आई हैं, लेकिन ऐसी आशंका मन में पैदा नहीं हुई। अपूर्व को एकदम ध्यान आया कि उनके नए डेरे पर तो देखने सुनने वाला भी कोई नहीं है। हो सकता है अस्पताल वाले ले गए हों। हो सकता है अब तक जीवित भी न हो।
यह सब सोचकर वह मन-ही-मन व्याकुल हो उठा। एक कुर्सी पर बैठकर नेकटाई-वेस्ट कोट खोलते-खोलते उन दोनों में बातचीत शुरू हुई थी। उसके हाथ का काम वहीं रुक गया। मुंह से एक भी शब्द नहीं रहा। कुर्सी पर काठ की पुतली की तरह बैठा रहा।
कुछ देर बाद तिवारी धीरे-धीरे बोला, “छोटे बाबू, मकान मालिक का आदमी आया था। अगर तीसरी मंजिल का कमरा लेना हो तो इसी महीने बदल लेना चाहिए, वह कह गया है। मुझे चिंता हो रही है कि कोई फिर आ जाए।”
अपूर्व ने पूछा, “और कौन आने वाला है?”
तिवारी बोला, “आज मांजी का एक पोस्टकार्ड मुझे मिला है। दरबान से लिखवाकर भेजा है उन्होंने। मैं अच्छा हो गया इसके लिए बहुत प्रसन्नता प्रकट की हैं। दरबान का भाई अपने गांव छुट्टी लेकर जा रहा है। उसके हाथ पांच रुपए विश्वेश्वर की पूजा के लिए भेजे हैं।”
अपूर्व बोला, “ठीक तो है। मां तुझे बेटे जैसा प्यार करती है तिवारी।”
तिवारी बोला, 'बेटे से भी अधिक। मैं तो चला ही जाऊंगा। मां तो चाहती हैं कि छुट्टी लेकर हम दोनों ही चलें। चारों ओर रोग-शोक....”
अपूर्व बोला, “रोग-शोक-मरण कहां नहीं है? कलकत्ते में नहीं है? तूने शायद बहुत-सी बातें लिखकर उन्हें डरा दिया है।”
“जी नहीं, तिवारी बोला, “काली बाबू पीछे पड़ गए हैं। सभी की इच्छा है कि वैसाख के आरम्भ में ही यह शुभ कार्य सम्पन्न हो जाए।”
काली बाबू की छोटी लड़की को माता जी ने पसंद किया है। इस बात का आभास उनके कई पत्रों में भी था। तिवारी की बात अपूर्व को अच्छी नहीं लगी। बोला, “इतनी जल्दी किस लिए? अगर काली बाबू को बहुत अधिक जल्दी हो तो वह और कहीं प्रबंध कर सकते हैं।”
तिवारी जरा हंसकर बोला, “जल्दी माता जी को है। शायद लोग उनको यह कहकर डराते हैं कि बर्मा में लड़के बिगड़ जाते हैं।”
अपूर्व को क्रोध आ गया। बोला, 'देख तिवारी, मुझे पंडिताई दिखाने की जरूरत नहीं है। मां को रोज-रोज चिट्ठियां क्यों लिखता रहता है? मैं बच्चा नहीं हूं।”
अकारण क्रोध से तिवारी पहले विस्मित हुआ। बीमारी के बाद से उसका दिमाग अच्छा नहीं था। रोष भरे स्वर में बोला, “आते समय यह बात मां को कहकर न आ सके? ऐसा होने से मैं बच जाता। जात-धर्म नष्ट करने के लिए जहाज पर न चढ़ना पड़ता।”
अपूर्व ने उसके प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। खूंटी से कोट नेकटाई लेकर पहनता हुआ तेजी से कमरे से निकल गया।
तिवारी गरम होकर बोला, “कल रविवार को जहाज चटगांव जाता है। मैं उसी से घर चला जाऊंगा, कहे देता हूं।”
अपूर्व जाते-जाते बोला, “न जाओ तो हजारों सौगंधें रहीं।”
अपूर्व के जाने का एकमात्र स्थान था तलवलकर का घर। लेकिन रास्ते में उसे याद आया कि आज शनिवार है। उसका पत्नी के साथ थियेटर जाने का प्रोग्राम है। तभी उसे अचानक भारती की याद आ गई। उसका आहत, अपराधी मन अपने ही प्रति बार-बार कहने लगा- वह अच्छी तरह ही है। उसे कुछ भी नहीं हुआ। नहीं तो इतनी बड़ी जीवन-मरण की समस्या में खबर भी न देती? तेल के कारखाने के आसपास ही कहीं उसका नया मकान है यह बात वह भूला नहीं था। उसे खोजकर ढूंढ़ निकालने की कल्पना से उसका मन नाच उठा।
लेकिन इसे महसूस करके मन के चोर के पकड़े जाने की लज्जा से भी वह नहीं बच सका। शायद वह मुझे नहीं चाहती। शायद वह मुझे देखकर उपेक्षा करे। यह सोचकर वह स्वयं को सैकड़ों तरह से समझाने लगा। पुलिसवाले उससे हस्ताक्षर लेना चाहते हैं। इसी काम से वह आया है। वह कैसी है, कहां है, यह सब कौतूहल उसे अकारण नहीं है। इस तरह इतने दिनों बाद जाने का वह कोई उलाहना भी नहीं दे पाएगी।
इस इलाके में अपूर्व पहले कभी नहीं आया था। काफी दूर चलने पर दाईं ओर नदी के किनारे रास्ता दिखाई दिया। एक आदमी से पूछा, “इधर साहब-मेम लोग कहां रहते हैं?” प्रत्युत्तर में उस आदमी ने आसपास के छोटे-बड़े बंगले दिखा दिए। उनकी सजावट देखकर अपूर्व समझ गया कि उसका प्रश्न गलत था। संशोधन करके पूछा, “अनेक बंगाली भी तो यहां रहते हैं? कोई कारीगर, कोई मिस्त्री है।”
वह आदमी बोला, “बहुत हैं। मैं भी एक मिस्त्री हूं। तुम किसको खोज रहे हो।?”
अपूर्व ने कहा, “देखो मैं जिसे खोज रहा हूं.... अच्छा जो बंगाली ईसाई अथवा....”
वह आदमी आश्चर्य से बोला, “क्या कह रहे हैं? बंगाली-फिर ईसाई कैसे? ईसाई हो जाने पर फिर कोई बंगाली रह जाता है क्या? ईसाई, ईसाई है। मुसलमान, मुसलमान है। यही तो....।”
अपूर्व बोला, 'अरे भाई, बंगाल का आदमी तो है। बंगला भाषा बोलता है।”
वह गर्म होकर बोला, “भाषा बोलने से ही हो गया? जो जात देकर ईसाई बन गया, उसमें और क्या पदार्थ रह गया महाशय? कोई भी बंगाली उसके साथ आहार-व्यवहार करे तो देख लूं। न मालूम कहां से मास्टरी करने कुछ लड़कियां आ गई हैं। बच्चों को पढ़ाती हैं-बस, इसीलिए कोई भी क्या उनके साथ खा रहा है या बैठ रहा है?”
अपूर्व ने पूछा, “वह कहां रहती हैं-आप जानते हैं?”
वह बोला, “जानता क्यों नहीं। इस रास्ते से सीधे नदी के किनारे जाकर पूछिए कि नया स्कूल कहां है, छोटे-छोटे बच्चे भी बता देंगे।” यह कहकर वह अपने काम पर चला गया।
उसी रास्ते चलकर अपूर्व को लाल रंग का काठ का एक मकान दिखाई दिया। रात हो चुकी थी। सुनसान था। ऊपर की खुली खिड़की से बत्ती की रोशनी आ रही थी। किसी से पूछने के लिए वहीं खड़ा हो गया। उसे निश्चय हो गया कि भारती यहीं रहती है।
पंद्रह मिनट बाद दो-तीन आदमी बाहर निकले। उसे देखकर एक पूछा, “कौन हैं? किसे चाहते हैं?”
अपूर्व ने लज्जित होकर पूछा, “मिस जोसेफ नाम की कोई महिला यहां रहती है?”
वह बोला, “अवश्य रहती है। आइए।”
अपूर्व की जाने की इच्छा न थी। उसे दुविधा में देख वह आदमी बोला, “आप कब से खड़े थे? आइए न, हम आपको पहुंचा दें।” यह कहकर वह आगे हो लिया।
“चलिए,” कहकर वह उसके पीछे-पीछे मकान के निचले कमरे में पहुंच गया। कमरा काफी बड़ा था। छत से एक बहुत बड़ी बत्ती लटक रही थी। कुछ टेबल-कुर्सियां, एक ब्लैकबोर्ड और दीवारों पर चारों ओर तरह-तरह के आकार और रंगों के नक्शे टंगे हुए थे। यही नया स्कूल है। देखते ही अपूर्व पहचान गया।
वहां चार-पांच स्त्रियों-पुरुषों में किसी विषय पर बहस हो रही थी। सहसा एक अपरिचित पुरुष को आते देख सब चुप हो गए। अपूर्व ने एक बार उन लोगों की ओर देखा। फिर जिसके साथ आया था उसी के पीछे-पीछे चढ़ गया। भारती कमरे में ही थी। अपूर्व को देखते ही उसका चेहरा चमक उठा। कुर्सी पर बैठाकर बोली, “इतने दिनों तक आपने मेरी खोज-खबर खूब ली?”
अपूर्व बोला, 'आपने भी तो हम लोगों की खोज-खबर नहीं ली।”लेकिन यह उत्तर उचित नहीं था, यह कहते ही वह समझ गया।
भारती हंसकर बोली, “तिवारी घर जाना चाहता है तो चला जाए। न जाने पर वह अच्छा भी न होगा।”
अपूर्व बोला, “इसका मतलब यह है कि मेरा यह अभियोग गलत है कि आप हम लोगों की खोज-खबर नहीं रखतीं।”
भारती फिर हंसकर बोली, “परसों बारह बजने से पहले ही कोर्ट जाकर रुपया और चीजें वापस ले आइएगा। भूल न जाइएगा।”
“लेकिन उस पर तो आपके हस्ताक्षर होने जरूरी हैं।”
“मैं जानती हूं।”
“आपके साथ तिवारी की भेंट नहीं हुई?”
“नहीं। लेकिन आप जाकर उस पर बेकार नाराज न हों।”
अपूर्व बोला, 'झूठा नहीं, सच्चा क्रोध करना उचित है। अपने प्राण बचाने वाले के प्रति मन में कृतज्ञता रहना उचित है।”
भारती बोली, “वह तो है ही। नहीं तो वह मुझे जेल भेजने की भी कम-से-कम चेष्टा जरूर करता।”
अपूर्व इस संदेह को समझ गया। नीचा मुंह करके बोला, “आप मुझ पर भयंकर रूप से नाराज हैं।”
भारती बोली, “कभी नहीं। सारे दिन स्कूल में बच्चों को पढ़ाकर घर लौटकर फिर समिति की सेक्रेटरी की हैसियत से अनेक चिट्ठी-पत्री लिखने के बाद बिस्तर पर लेटते ही सो जाती हूं। नाराज होने के लिए मेरे पास समय ही नहीं है।”
अपूर्व बोला, “ओह, नाराज होने तक का समय नहीं है।'
भारती ने कहा, “कहां है? आप किसी दिन सवेरे से देखिए कि सच कहती हूं या झूठ।”
अपूर्व के मुंह से अनजाने ही एक लम्बी सांस निकल गई। बोली, “मुझे देखने की क्या जरूरत है?” फिर जरा रुककर बोला, “स्कूल से आपको क्या वेतन मिलता है?”
भारती हंसी दबाकर बोली, “आप भी खूब हैं? क्या वेतन की बात पूछने पर उसका अपमान नहीं होता?”
अपूर्व क्षुब्ध कंठा से बोला, “मैंने अपमान करने के लिए नहीं कहा। जब नौकरी ही कर रही हैं....”
भारती ने कहा, “न करके क्या भूखा मर जाने को कहते हैं?”
“ऐसी नौकरी से भूखा मरना ही अच्छा है। हमारे ऑफिस में एक जगह खाली है। वेतन एक सौ रुपए माहवार मिलेगा। शायद दो घंटे से अधिक काम नहीं करना पड़ेगा।”
“आप मुझे वह काम करने को कहते हैं?”
“क्या हर्ज है?”
भारती बोली, “नहीं, मैं नही करूंगी। आप उसके मालिक हैं। काम में कभी भूल हुई तो लाठी लेकर द्वार पर आ खड़े होंगे।”
अपूर्व ने उत्तर नहीं दिया। मन-ही-मन समझ गया कि भारती ने केवल मजाक किया है। फिर बोला, “मालूम हो रहा है कि आप लोगों का स्कूल शुरू हो गया। बच्चों ने पढ़ना शुरू कर दिया है।”
भारती बोली, “ऐसा होता तो शोर कुछ कम रहता। लगता है कि उनके शिक्षक विषय का निर्वाचन कर रहे हैं।”
“आप नहीं जाएंगी?”
“जाना तो है। लेकिन आपको छोड़कर जाने की इच्छा नहीं हो रहीं।” यह कहकर वह हंस पड़ी। लेकिन अपूर्व के कान तक लाल हो उठे। दीवार पर सजे कच्चे झाऊ के पत्तों पर अंकित कुछ अक्षरों पर नजर डालकर अपूर्व बोला, “वहां पर वह क्या लिखा हुआ है?”
“आप पढ़ सकते हैं।”
अपूर्व बोला-”पथ के दावेदार”-”इसका क्या अर्थ है?”
“यह हम लोगों की संस्था का नाम है। इस विद्यालय का संचालक भी यही है। आप इसके सदस्य बनेंगे?”
“इसमें क्या करना होगा?”
भारती बोली, “हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है। चलिए हमारे साथ?”
“हमारा राष्ट्र पराधीन है भारती! स्टेशन की एक बेंच पर बैठने तक का हमें अधिकार नहीं है। अपमानित होने पर दावा करने का उपाय नहीं।” कहते-कहते उस दिन की लांछना, फिरंगी लड़कों के बूटों के आघात से लेकर स्टेशन मास्टर द्वारा निकाले जाने तक की सभी अपमानजनक बातों को याद करके उसकी आंखें लाल हो उठीं। बोला, “हमारे बैठने से बेंच अपवित्र हो जाती है। हमारे रहने से मकान की हवा बिगड़ जाती है। जैसे हम मनुष्य ही नहीं हैं। अगर हम लोगों की यही साधना हो तो मैं आप लोगों के दल में हूं।”
“आप क्या मनुष्य की पीड़ा का कुछ पता पा सके हैं अपूर्व बाबू? क्या वास्तव में मनुष्य के छूने में, आपत्ति की कोई बात नहीं है? उसके शरीर की हवा लगने से दूसरे के मकान की हवा क्या गंदी नहीं हो जाती?”
अपूर्व ने दृढ़ स्वर में कहा, “बिल्कुल नहीं। मनुष्य के चमड़े का रंग उसकी मनुष्यता का मापदंड नहीं। किसी विशेष देश में जन्म लेना उसका कोई अपराध नहीं है। क्षमा करना, आपके पिता ईसाई थे। इसलिए कोर्ट ने मुझ पर बीस रुपया जुर्माना किया। यह कहां का न्याय है? याद रखिए, इसी कारण एक दिन हमारा सर्वनाश होगा। अकारण मनुष्य को छोटा समझना, यह घृणा-द्वेष, यह अपराध भगवान कभी भी सहन नहीं करेंगे।”
भारती चुप बैठी रही। अपूर्व की बातें समाप्त होते ही उसने मुस्कराकर अपना मुंह दूसरी ओर घूमा लिया। अपूर्व इस तरह चौंक पड़ा, जैसे किसी ने उसके मुंह पर कसकर थप्पड़ मार दिया हो। भारती के किसी प्रश्न पर अब तक उसने ध्यान नहीं दिया था। लेकिन अब वह अग्नि शिखा की तरह उसके दिमाग में सनसनाते हुए चक्कर काटकर उसे एकदम ही वाक्यहीन कर गए।
कुछ क्षणों के बाद जब भारती ने नजर उठाई तो उसके होठों पर हंसी नहीं थी। बोली, 'आज शनिवार है। हमारा स्कूल बंद है। लेकिन समिति का काम होगा। चलिए न, नीचे चलकर आपका डॉक्टर साहब से परियच कराकर आपको 'पथ के दावेदार' का सदस्य बनवा दूं।”
“क्या वह अध्यक्ष हैं?”
“अध्यक्ष नहीं, वह हम लोगों की जड़ हैं। धरती के भीतर रहते हैं। उनका काम आंखों से दिखाई नहीं देता।”
“क्या इस सभा के सभी सदस्य ईसाई हैं?”
“नहीं। मेरे अतिरिक्त सभी हिंदू हैं।”
“लेकिन महिलाओं की आवाज भी तो सुन रहा हूं।”
“वह सब हिंदू हैं।”
अपूर्व बोला, “सम्भवत: वह लोग जाति-भेद अर्थात् खान-पान और छूत-छात का विचार नहीं करते होंगे?”
भारती ने कहा, “नहीं।” फिर हंसती हुई बोली, “लेकिन अगर कोई यह सब माने तो उसके मुंह में हम लोग कोई खाद्य पदार्थ जबर्दस्ती ठूंस भी नहीं देते। मनुष्य की व्यक्तिगत मान्यता का हम सम्मान करते हैं। आपको कोई भय नहीं है।”
“भय की बात क्या है?”-आपकी तरह शिक्षित महिलाएं भी संभव है आपके दल में हैं?”
“मेरी तरह?- हमारी जो अध्यक्षा हैं उनका नाम है सुमित्रा। वह अकेली ही पूरे विश्व का भ्रमण करके आई हैं। डॉक्टर के अतिरिक्त उन जैसी विदुषी सम्भवत: इस देश में और कोई नहीं है।”
“और जिन्हें आप डॉक्टर कह रही हैं वह?”
“डॉक्टर?” श्रध्दा और भक्ति से भारती की दोनों आंखें छलक आईं, बोली, “उनकी बात रहने दें, अपूर्व बाबू! परिचय देने लगूंगी तो उनको छोटा बना डालूंगी।”
अपूर्व चुप रहा। देश-प्रेम का पागलपन तो उनके रक्त में विद्यमान था ही। 'पथ के दावेदार' का विचित्र नाम उसे अपनी ओर आकर्षित करने लगा। उसके साथ घनिष्ठ रूप से मिलने के लोभ को रोक रखना कठिन हो गया। फिर भी एक प्रकार की विजातीय, धर्महीन, अस्वास्थ्यकर भाप नीचे से उठकर उसके मन को धीरे-धीरे ग्लानि से भरने लगी।
शोर बढ़ रहा था। भारती बोली, “चलिए, नीचे चलें।”
अपूर्व बोला, “चलिए।”
दोनों नीचे पहुंचे तो भारती ने उसे बेंत के एक सोफे पर बैठने को कहा और जगह की कमी के कारण स्वयं भी उसके पास बैठ गई।
ऐसा अद्भुत आचरण भारती ने इससे पहले कभी नहीं किया था। अपूर्व को लज्जा अनुभव होने लगी। लेकिन यहां इन मामलों में आक्षेप करने का किसी के पास अवसर नहीं था।
वहां पहुंचते ही अपूर्व को एक व्यक्ति एकटक देखता रह गया। वह कुछ लिख रहा था।
अपूर्व ने गिनकर देखा-छ: महिलाएं और आठ पुरुष मिलकर एक साथ किसी विषय पर बातचीत कर रहे थे। वह सभी लोग अपरिचित हैं, केवल एक आदमी को देखते ही अपूर्व पहचान गया। वेश-भूषा में कुछ परिवर्तन अवश्य हो गया था। लेकिन उसने इसी आदमी को कुछ दिन पहले मिक्थिला स्टेशन पर बिना टिकट होने के अपराध में पुलिस के हाथ पड़ने से बचाया था और जिसने जल्द-से-जल्द रुपये वापस करने का वचन दिया था। उस आदमी ने नजरें दौड़ाकर देखा। लेकिन शराब के नशे में जिसके सामने हाथ पसारकर सहायता ग्रहण की थी शराब के पिए हुए उसकी याद तक नहीं आ सकी। लेकिन इस बात के लिए नहीं, भारती के संबंध में सोचकर उसके हृदय में पीड़ा की कसक उठी कि वह ऐसे लोगों के बीच कैसे आ फंसी।
भारती ने सामने खड़ी महिला की ओर इशारा करके कहा, 'यह हमारी अध्यक्षा हैं सुमित्रा देवी।”
कहने की आवश्यकता नहीं थी। अपूर्व ने उसे पहले ही पहचान लिया था। उम्र तीस के लगभग होगी। लेकिन जान पड़ता है जैसे कहीं की राजरानी हैं। शरीर का रंग तपे सोने के समान है। दक्षिणी ढंग से सिर के बाल ढीले बांधे हुए हैं। कलाई में सोने की दो-चार चूड़ियां हैं। गले पर सोने के हार का कुछ भाग चमक रहा है। कानों में हरे पत्थर के झुमकों पर प्रकाश पड़ने से सांप की आंखों जैसे दिखाई देते हैं। यही तो चाहिए। माथा, ठोड़ी, नाक, आंख, होंठ- कहीं भी कोई कमी नहीं है। इतना आश्यर्चजनक सौंदर्य! ब्लैकबोर्ड पर वह एक हाथ रखे खड़ी थीं। साहबी पोशाक वाले सज्जन के प्रत्युत्तर में वह बोलने लगीं-यही तो। इसी को तो नारी का कंठ स्वर कहते हैं।”
सुमित्रा ने कहा, “मनोहर बाबू, आप नौसिखिए वकील नहीं हैं। आपका तर्क असम्बध्द हो जाने पर मैं इसका विवेचन कर सकती हूं।”
मनोहर बाबू बोले, 'असम्बध्द तर्क करना मेरा व्यवसाय भी नहीं है।”
सुमित्रा हंसते हुए बोली, “मुझे भी यही आशा है। बहुत अच्छा! आपके बयान को छोटा कर देने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि आप नवतारा के पति के मित्र हैं। वह जबर्दस्ती उसे वापस ले जाना चाहते हैं। लेकिन उनकी पत्नी गृहस्थी चलाने की इच्छा न रखकर, देश का काम करना चाहती है। इसमें तो कोई अन्याय नहीं है।”
“लेकिन पति के प्रति भी तो पत्नी का कुछ कर्त्तव्य है?” देश का काम करूंगी कह देने से इसका निर्वाह नहीं हो जाता।”
सुमित्रा बोली, “मनोहर बाबू, नवतारा के पति का अपनी पत्नी के प्रति जो कर्त्तव्य था, क्या उसे उन्होंने कभी निभाया? यह सब जानते हैं। कर्त्तव्य का भार तो दोनों ओर समान ही रहता है।”
मनोहर बाबू क्रुध्द स्वर में बोले, “लेकिन क्या इसीलिए स्त्री को कुलटा बन जाना चाहिए? ऐसी तो कोई युक्ति है नहीं। इस दल में शामिल होकर, सतीत्व को सुरक्षित रखकर, वह देश की सेवा कर सकेंगी। यह तो किसी प्रकार भी सम्भव नहीं है।”
सुमित्रा के चेहरे पर हल्की-सी लालिमा छा गई, लेकिन दूसरे पल ही सामान्य हो गईं। बोलीं, “जोर देकर कुछ भी नहीं कहना चाहिए। लेकिन हम देख रहे हैं कि नवतारा में हृदय है, प्राण है, साहस है और सबसे बड़ा कर्म-ज्ञान है। देश-सेवा में हम इसी को पर्याप्त मानते हैं। लेकिन आप जिसे सतीत्व कहते हैं, उसकी रक्षा करने की उनको सुविधा मिल सकेगी या नहीं, यह वह ही जानती हैं।”
नवतारा के चेहरे पर नजर डालकर मनोहर बाबू ने व्यंग्य से कहा, “अच्छा कर्म-ज्ञान है। सम्भवत: देश के काम में वह महिलाओं को यही शिक्षा देती फिरेंगी?”
सुमित्रा बोली, “उसके उत्तरदायित्व पर हमें विश्वास है। व्यक्ति विशेष के चरित्र की आलोचना करना हमारे नियमों के विरुध्द है। जिस पति को वह प्रेम न कर सकी और इस महान कार्य के लिए उन्होंने जिसे छोड़ देना अन्याय नहीं समझा। अगर देश की महिलाओं को वह यही शिक्षा दे तो हमें कोई आपत्ति नहीं होगी।”
“हमारे सीता-सावित्री के देश में क्या आप स्त्रियों को यही शिक्षा देंगी?”
सुमित्रा बोली-”देना अनुचित नहीं है। महिलाओं के सामने अर्थहीन शब्द न कहकर अगर नवतारा कहे कि इस देश में एक दिन सीता को भी आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए पति को त्यागकर पाताल में जाना पड़ा था और राज-कन्या सावित्री ने दरिद्र सत्यवान को विवाह से पहले इतना प्यार किया था कि उसकी अल्प आयु के बारे में जानते हुए भी हिचकी नहीं और मैं स्वयं भी उस दुष्ट पति को प्यार नहीं कर सकी और उसे छोड़कर चली आई हूं। इसलिए मेरी जैसी अवस्था में तुम लोग भी वही करो। इस शिक्षा से तो देश की भलाई ही होगी मनोहर बाबू।”
मनोहर बाबू के होंठ क्रोध से कांपने लगे। पहले तो उनके मुंह से बात ही नहीं निकली। फिर बोला, “ऐसा होने पर देश नष्ट हो जाएगा। आप लोगों की जो इच्छा हो कीजिए, लेकिन दूसरों को ऐसी शिक्षा मत दीजिए। यूरोप की सभ्यता की हवा लगने से काफी क्षति हुई है। लेकिन महिलाओं में इस सभ्यता का प्रचार करके समूचे भारत वर्ष को रसातल में मत भेजिए।”
सुमित्रा के चेहरे पर विरक्ति तथा क्लान्ति एक साथ ही फूट पड़ी। बोलीं, “देश को रसातल से बचाने का यदि कोई मार्ग है तो वही है। आपको योरोपियन सभ्यता के संबंध में यथेष्ट ज्ञान नहीं है। इसलिए इस विषय पर बहस करना समय की बर्बादी होगी। बहुत टाइम बर्बाद हो गया। हम लोगों को और भी बहुत से काम करने हैं।”
मनोहर बाबू ने यथासम्भव अपना क्रोध दबाकर कहा, “मेरे पास भी अधिक समय नहीं है?-तो नवतारा नहीं जाएगी?”
“नहीं,” नवतार ने सिर झुकाकर कहा।
मनोहर ने सुमित्रा से कहा, “तब इसकी जिम्मेदारी आप पर ही है।'
नवतारा बोली, “मेरी जिम्मेदारी स्वयं मुझ पर ही है। आपको चिंता करने की जरूरत नहीं।”
मनोहर ने वक्र दृष्टि से उसकी ओर देखकर सुमित्रा से पूछा, “पति-गृह में विवाहित जीवन से अधिक गौरव की वस्तु नारी के लिए और भी कुछ है क्या?”
“दूसरों की बात जो भी हो, लेकिन नवतारा का पति के घर रहकर जीवन बिताना कोई गौरव का जीवन नहीं है।”
इस उत्तर पर मनोहर स्वयं को न रोक सके। क्रुध्द होकर पूछ बैठे- “लेकिन घर से बाहर रहकर जो यह व्यभिचारपूर्ण जीवन बिताएगी, उसे आप सम्भवत: गौरवपूर्ण जीवन कहेंगी।”
इतने भीषण विद्रूप से भी किसी के चेहरे पर चंचलता दिखाई नहीं दी। सुमित्रा ने शांत स्वर में कहा, “हम लोगों की समिति में संक्षेप में बातचीत करने का नियम है, यह न भूलिए।”
“और अगर मैं इस नियम को मान न सकूं तो?”
“तो हमें बाहर निकालना पड़ेगा।”
मनोहर बाबू पागल हो उठे। एकदम सीधे खड़े होकर बोले, “अच्छा, मैं जाता हूं। गुडबाई।”- यह कहकर दरवाजे के पास पहुंचकर क्रोध से पागल होकर बोले, “मैं तुम लोगों का सारा हाल जानता हूं। तुम लोग ब्रिटिश राज्य को समाप्त कर सकोगी, कभी सोचना मत। मैं एक ऐडवोकेट हूं। किस तरह तुम्हारे हाथों में हथकड़िया डाली जा सकती हैं, मैं अच्छी तरह जानता हूं।” अच्छा....यह कहकर वह चले गए।
अचानक यह कौन-सा कांड हो गया। यद्यपि किसी ने भी उत्तेजना प्रदर्शित नहीं की तो भी सभी के चेहरे पर एक छाया-सी डोल गई। केवल एक व्यक्ति, जो कोने में बैठा लिख रहा था, उसने एक बार भी आंख उठाकर नहीं देखा। अपूर्व ने सोचा-या तो यह एकदम बहरा है या पत्थर की भांति निर्विकार है। मनोहर ने इस समिति के विरुध्द जो बात कही, वह अत्यंत संदेहपूर्ण है। इतनी बड़ी संख्या में इन आश्चर्यमयी नारियों ने कहां से आकर यह समिति स्थापित की है? इसका उद्देश्य क्या है? भारती को अचानक इसका पता कैसे लगा? और यह आदमी जो टिकट के बदले शराब खरीदकर पी लेने पर उसके सामने ही पकड़ा गया था-और सबसे बढ़कर वह नवतारा, जो पति को छोड़कर देश का काम करने आई है। सतीत्व की रक्षा की बात पर सोचने के लिए जिसके पास समय नहीं है-फिर भी यह सब लोग इतने बड़े अन्याय का समर्थन ही नहीं कर रहे, उसे प्रश्रय भी दे रहे हैं और जो इस दल की अध्यक्षा हैं, उन्होंने स्वयं स्त्री होते हुए भी खुली सभा में इतने पुरुषों के सामने सती धर्म के प्रति उसकी गहरी अवज्ञा निस्संकोच प्रकट करने में लज्जा नहीं की।
कुछ देर तक लोगों में खामोशी छाई रही। बाहर अंधेरा था। राजपथ सुनसान पड़ा था। एक प्रकार की उद्विग्न आशंका से अपूर्व का मन भारी हो गया।
अचानक सुमित्रा बोल उठीं, “अपूर्व बाबू!”
अपूर्व ने चकित होकर मुंह उठाकर देखा।
सुमित्रा ने कहा, “आप हम लोगों को नहीं जानते, लेकिन भारती के द्वारा हम सभी आपसे परिचित हैं। सुना है, आप हमारी समिति के सदस्य बनना चाहते हैं। क्या यह सच है?”
अपूर्व ने गर्दन हिलाकर सम्मति प्रकट की। इनकार न कर सका। जो व्यक्ति एकाग्रचित्त से लिख रहा था, उसे लक्ष्य करके सुमित्रा ने कहा, “अपूर्व बाबू का नाम लिख लीजिए।” फिर हंसकर अपूर्व से कहा, “हमारे यहां किसी प्रकार का चंदा नहीं लिया जाता। हमारी समिति की यही विशेषता है?”
प्रत्युत्तर में अपूर्व ने हंसने की चेष्टा की, लेकिन हंस न सका। एक मोटी जिल्द वाले रजिस्टर में उनका नाम लिख लिया गया है, यह देखकर वह चुप न रह सका। बोला, “लेकिन उद्देश्य क्या है? मुझे क्या करना पड़ेगा? यह तो मैं कुछ नहीं जानता।”
“भारती ने आपको बताया नहीं?”
अपूर्व बोला, “कुछ तो बताया है। लेकिन एक बात आपसे पूछना चाहता हूं- नवतारा के आचरण को क्या आप वास्तव में अनुचित नहीं समझतीं?”
सुमित्रा ने कहा, “कम-से-कम मैं नहीं समझती। क्योंकि देश से बढ़कर मेरे लिए दूसरी कोई वस्तु नहीं है।”
अपूर्व श्रध्दा से भरे स्वर में बोला, “देश को मैं हृदय से प्यार करता हूं और देश की सेवा करने का अधिकार स्त्री-पुरुष को समान है। लेकिन इनके कर्म-क्षेत्र भी तो एक नहीं हैं। पुरुष बाहर काम करेंगे तो स्त्री तो घर में पति-पुत्र की सेवा करके ही सार्थक होगी। उसके सत्य कल्याण से देश का जितना बड़ा काम होगा, पुरुषों के साथ घर से निकलकर खड़ी होने से उतना न हो सकेगा।”
सुमित्रा हंस पड़ी।
अपूर्व ने देखा, सभी ने उसकी ओर देखकर, होंठ भींचकर हंसी छिपा ली।
सुमित्रा ने कहा, “अपूर्व बाबू, यह बात बहुत पुरानी हो चुकी है और कोई बात बहुत लोगों के वर्षों से कहने के कारण सच नहीं बन जाती यह छल है। जिन लोगों ने कभी देश का काम नहीं किया यह बात उनकी बात है। आप स्वयं जब काम में लग जाएंगे, तभी इस सत्य को समझ सकेंगे कि जिसे आप नारी का बाहर आना कह रहे हैं, वह जब होगा, तभी देश का काम होगा। नहीं तो पुरुषों की भीड़ में सूखी बालू की भांति सब झर पड़ेगा, टिक नहीं पाएगा।”
अपूर्व लज्जित-सा होकर बोला, “लेकिन क्या इससे चरित्र कलुषित होने का भय नहीं होगा?”
सुमित्रा बोली, “क्या घरों में रहकर भय कम रहता है? यह दोष बाहर आने का नहीं, विधाता का है-जिसने नारी का निर्माण किया। उसमें अनुराग और आकर्षण दिया। जरा सहानुभूतिपूर्वक संसार के अन्य देशों की ओर ध्यान से देखिए तो....।”
इस बात से अपूर्व को प्रसन्नता नहीं हुई। तीखे स्वर में बोला, “अन्य देशों की बात अन्य देश ही सोचें। अपने देश की ही चिंता कर सकूं, यही बहुत है। क्षमा कीजिएगा, एक बात पर ध्यान दिए बिना मैं नहीं रह सकता। शायद विवाहित जीवन के प्रति आपकी आस्था नहीं। यहां तक कि सतीत्व और पतिव्रत धर्म का भी आपकी नजरों में कोई मूल्य नहीं है। इससे क्या देश का कल्याण होगा?”
सुमित्रा ने मीठे स्वर में कहा, “अपूर्व बाबू्! आप क्रोध में आकर विचार कर रहे हैं। नहीं तो मेरा भाव वह नहीं है। लेकिन आपने आदि से अंत तक गलत ही समझा है, यह बात भी नहीं है। जिस समाज में केवल पुरुष द्वारा ही पत्नी ग्रहण करने का विध्न है, नारी होकर मैं उसे श्रध्दा नहीं कर सकती। आप सतीत्व के गौरव की बड़ाई कर रहे हैं। लेकिन जिस देश में ऐसी ही विवाह-व्यवस्था है, उसके देश में यह वस्तु बड़ी नहीं होती। सतीत्व केवल देह में निहित नहीं है, मन में होना जरूरी है। तन और मन-दोनों से प्यार न कर सकने पर तो उसे ऊंचे स्तर पर पहुंचाया नहीं जा सकता। क्या आप वास्तव में ऐसा ही समझते हैं कि मन्त्र पढ़कर विवाह कर देने से ही कोई स्त्री किसी भी पुरुष को प्यार कर सकती है?”
अपूर्व बोला, “लेकिन युगों-युगों से ऐसा ही चल रहा है।”
सुमित्रा हंसकर बोली, “अवश्य चल रहा है। पत्र में प्राणाधिकार पति कहकर सम्बोधित करने में भी तो कोई रुकावट नहीं होती। वास्तव में घर-गृहस्थी के काम में इससे अधिक की उसे जरूरत नहीं पड़ती। आपने तो यह कथा पढ़ी होगी-किसी मुनि के लड़के दूध के स्थान पर चावल का धोवन पीकर ही सुख से जीवन बिताते थे। लेकिन सुख जैसा भी क्यों न हो, जो नहीं है उसे वही कहकर तो गर्व नहीं किया जा सकता।”
यह आलोचना अपूर्व को बड़ी कटु लगी। लेकिन उत्तर न देकर बोला, “क्या आप यह कहना चाहती हैं कि इससे अधिक किसी के भाग्य में कुछ नहीं होता?”
सुमित्रा बोली, “नहीं, क्योंकि संसार में भाग्य नाम का एक भी शब्द नहीं है।”
अपूर्व बोला, “भाग्य! लेकिन अगर आपकी बात सच भी हो तो भी मैं कहता हूं कि आने वाली पीढ़ियों के कल्याण के लिए हम लोगों की यह व्यवस्था उचित है।”
सुमित्रा बोली, “नहीं अपूर्व बाबू! किसी का इससे कल्याण नहीं होगा। समाज और वंश के नाम पर किसी समय व्यक्ति की बलि चढ़ाई जाती थी, लेकिन उसका फल अच्छा नहीं हुआ। आज वह चेतना ठीक है। प्रेम और प्यार का सबसे अधिक प्रयोजन अगर भावी वंशजों के लिए न रहता तो ऐसे भयंकर स्नेह की व्यवस्था उसके बीच में स्थान न पाती। इस अर्थहीन विवाहित जीवन का मोह, नारी को त्यागना ही पड़ेगा। उसे समझना ही होगा कि इसमें लज्जा ही है गौरव नहीं।”
अपूर्व बोला, 'लेकिन विचार कर देखिए-आप लोगों की इन सब शिक्षाओं से हम लोगों के सुगठित समाज में अशांति और विप्लव ही बढ़ेगा।”
सुमित्रा बोली, “भले ही बढ़े। अशांति और विप्लव का अर्थ विनाश नहीं होता अपूर्व बाबू! जो रुग्ण, जीर्ण और ग्रस्त है केवल वही सतर्कता से स्वयं को अलग रखना चाहता है। जिससे किसी भी ओर से उसके शरीर में धक्का न लगे। अगर समाज की ऐसी दशा हो गई हो तो एक प्रकार से एब कुछ समाप्त हो जाए तो क्या हानि है?”
अपूर्व ने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया। पलभर मौन रहकर सुमित्रा बोली, “ऋषि पुत्र की उपमा देकर लगता है मैंने आपके मन को चोट पहुंचाई है। लेकिन जो चोट लगने ही वाली थी उससे मैं आपको बचा भी कैसे सकती थी?”
अंतिम बात को समझते हुए अपूर्व बोला, “जगन्नाथ जी के मार्ग में खड़े होकर ईसाई मिशनरी के लोग यात्रियों को बहुत सताते हैं। इस पर भी उस लूले मास्टर जी को छोड़कर कोई प्रभु को नहीं पूजता। लूले से ही उन लोगों का काम चल जाता है। यही आश्चर्य की बात है।”
“संसार में आश्चर्य है। इसीलिए तो मनुष्य का बचना असम्भव नहीं हो जाता अपूर्व बाबू! पेड़ की पत्ती का रंग सभी हरा नहीं देखते, इसे वह जानते भी नहीं। फिर भी लोग उसे हरा ही कहते हैं। क्या यह कम आश्चर्य की बात है? सतीत्व का मूल्य जान लेने से क्या....?”
जो व्यक्ति इतनी देर से चुपचाप बैठा लिख रहा था, उठ खड़ा हुआ। अन्य लोग भी उठ खड़े हुए।
अपूर्व ने देखा-गिरीश महापात्र।
भारती ने उसके कान में कहा, “यह ही हमारे डॉक्टर साहब हैं। उठकर खड़े हो जाइए।”
मशीन के पुर्जों की तरह अपूर्व उठकर खड़ा हो गया। लेकिन क्रोधित मनोहर की अंतिम बातें याद आते ही उसके शरीर का रक्त जैसे ठंडा पड़ने लगा।
गिरीश ने उसके पास आकर कहा, “सम्भवत: मुझे आप भूले नहीं होंगे। यह सभी लोग मुझे डॉक्टर कहते हैं” कहकर वह हंस पड़े।
अपूर्व हंस न सका। लेकिन धीरे-धीरे बोला, “मेरे चाचा जी के रजिस्टर में आपका कोई भयानक नाम लिखा हुआ है।”
गिरीश ने एकाएक उसके दोनों हाथ अपने हाथ में लेकर धीरे से कहा, “सव्यसाची ही न?” फिर हंसते हुए बोले, 'लेकिन अब रात हो गई है अपूर्व बाबू!” चलिए आपको कुछ दूर तक पहुंचा आऊं। रास्ता कोई अच्छा नहीं है। पठान मजदूर जब शराब पी लेते हैं तब उन्हें बिल्कुल सुध-बुध नहीं रहती। चलिए, “यह कहकर एक तरह से जबर्दस्ती ही उसे कमरे से बाहर ले गया।”
उसे सुमित्रा को भी नमस्कार करने का अवसर नहीं मिला। न भारती से ही कोई बात कह सका। लेकिन जिस बात से उसके हृदय को धक्का लगा, वह था उसके चाचा का रजिस्टर, जिसमें उस विद्रोही का नाम लिखा था।