परवर्ती काल / हिंदी भाषा की उत्पत्ति / महावीर प्रसाद द्विवेदी

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पूर्वागत और नवागत आर्य

जो आर्य काबुल की पार्वत्‍य भूमि से पंजाब में आए वे सब एकदम ही नहीं आ गए। धीरे-धीरे आए। सैंकड़ों वर्ष तक वे आते गए। इसका पता वेदों में मिलता है। वेदों में बहुत सी बातें ऐसी हैं जो इस अनुमान को पुष्‍ट करती हैं। किसी समय कंधार में आर्य-समूह का राजा दिवोदास था। बाद में सुदास नाम का राजा नदी के किनारे पंजाब में हुआ। इस पिछले राजा के समय के आर्यों ने दिवोदास के बल, वीर्य और पराक्रम के गीत गाए हैं। इससे साबित होता है कि सुदास के समय दिवोदास को हुए कई पीढ़ियाँ हो चुकी थीं। आर्यों के पंजाब में अच्‍छी तरह बस जाने पर उनके कई फिरके - कई वर्ग - हो गए। संभव है इन फिरकों की एक दूसरे से बनती रही हो। इनकी बोली में तो फरक जरूर ही हो गया था। उस समय आर्यों का नया समूह पश्चिम से आता‍ था और पहले आए हुए आर्यों को आगे हटा कर उनकी जगह खुद रहने लगता था।

उस समय के आर्य जो भाषा बोलते थे उसके नमूने वेदों में विद्यमान हैं। वेदों का मंत्र-भाग एक ही समय में नहीं बना। कुछ कभी बना है, कुछ कभी। उसकी रचना के समय में बड़ा अंतर है। फिर एक ही जगह उसकी रचना नहीं हुई। कुछ की रचना कंधार के पास हुई है, कुछ की पंजाब में, और कुछ की यमुना के किनारे। जिन आर्य ऋषियों ने वेदों का विभाग करके उनका संपादन किया, और उनको वह रूप दिया जिसमें उन्‍हें हम इस समय देखते हैं, उन्‍होंने रचना-काल और रचना-स्‍थान का विचार न करके जिस भाग को जहाँ उचित समझा रख दिया। इसी से रचना-काल के अनुसार भाषा की भिन्‍नता का पता सहज में नहीं लगता।

जैसा ऊपर कहा जा चुका है, सब आर्य एक ही साथ पंजाब में नहीं आए। धीरे-धीरे आए। डाक्‍टर हार्नली आदि विद्वानों का मत है कि हिंदुस्‍तान पर आर्यों की मुख्‍य-मुख्‍य दो चढ़ाइयाँ हुईं। जो आर्य, इस तरह, दो दफा करके पंजाब में आए उनकी भाषाओं का मूल यद्यपि एक ही था, तथापि उनमें अंतर जरूर था। अर्थात् दोनों यद्यपि एक ही मूल भाषा की शाखाएँ थीं, तथापि उनके बोलने वालों के अलग-अलग हो जाने से, उनमें भेद हो गया था। चाहे आर्यों का दो दफे में पंजाब आना माना जाय, चाहे थोड़ा-थोड़ा करके कई दफे में, बात एक ही है। वह यह कि सब आर्य एक दम नहीं आए। कुछ पहले आए, कुछ पीछे। और पहले और पीछे वालों की भाषाओं में फरक था। डाक्‍टर ग्रियर्सन का अनुमान है कि आर्यों का पिछला समूह शायद कोहिस्‍तान हो कर पंजाब आया। यदि यह अनुमान ठीक हो तो यह पिछला समूह उन्‍हीं आर्यों का वंशज होगा जिनके वंशज इस समय गिलगिट और चित्राल में रहते हैं और जो असंस्‍कृत आर्य-भाषाएँ बोलते हैं। संभव है ये सब आर्य आक्सस अर्थात् अमू नदी के किनारे-किनारे साथ ही रवाना हुए हों। उनका अगला भाग पंजाब पहुँच गया हो और पिछला गिलगिट और चित्राल ही में रह गया हो। जब ये लोग पंजाब पहुँचे तब तक पंजाब को इन्‍होंने पश्चिम से आए हुए आर्यों से आबाद पाया। ये पूर्ववर्ती आर्य जो भाषा बोलते थे वह परवर्ती आर्यों की भाषा से कुछ भिन्‍न थी। परवर्ती आर्य पूर्वी पंजाब की तरफ बढ़े और वहाँ से पूर्वागत आर्यों को हरा कर आप वहाँ बस गए। पूर्वागत आर्य भी उनसे कुछ दूर पर उनके आस-पास बने रहे। पूर्वागत आर्यों की जो भाषाएँ या बोलियाँ थीं, उनके साथ नवागत आर्यों की बोली को भी स्‍थान मिला। धीरे-धीरे सब भाषाएँ गड्ड-बड्ड हो गईं। कुछ समय बाद उन सब के योग से, या उनमें से कुछ के योग से, पुरानी संस्‍कृत की उत्‍पत्ति हुई।

मध्‍यदेश

परवर्ती आर्यों के फिरके, चाहे जहाँ से और चाहे जिस रास्‍ते आए हों, धीरे-धीरे वृद्धि उनकी जरूर हुई। जैसे-जैसे उनकी संख्‍या बढ़ती गई और वे फैलते गए वैसे ही वैसे पूर्ववर्ती आर्यों को वे सब तरफ दूर हटाते गए। संस्‍कृत साहित्‍य में एक प्रांत का नाम है 'मध्‍यदेश'। पुराने ग्रंथों में इसका बहुत दफे जिक्र आया है। वही आर्यों की विशुद्ध भूमि बतलाई गई है। वही उनका आदि स्‍थान माना गया है। उसकी चतुःसीमाएँ ये लिखी हैं। उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विंध्याचल, पूर्व में प्रयाग, पश्चिम में सरहिंद इस मध्‍य देश के एक छोर से दूसरे छोर तक सरस्‍वती नदी की पवित्र धारा बहती थी। वैदिक समय में उसी के किनारे नवागत आर्यों का अड्डा था।

संस्‍कृतोत्‍पन्‍न आर्य-भाषाओं की दो शाखाएँ

संस्‍कृत से संबंध रखने वाली जितनी भाषाएँ इस समय हिंदुस्‍तान में बोली जाती हैं उनकी दो शाखाएँ हैं। वे दो भागों में विभक्‍त हैं। एक शाखा तो ठीक उस प्रांत में बोली जाती है जिसका पुराना नाम मध्‍यदेश था। दूसरी शाखा इस मध्‍यदेश के तीन तरफ बोली जाती है। उससे निकली हुई भाषाओं का आरंभ काश्‍मीर में होता है। वहाँ से पश्चिमी पंजाब, सिंध और महाराष्‍ट्र देश में होती हुई वे मध्‍य भारत, उड़ीसा, बिहार, बंगाल और आसाम तक पहुँची हैं। गुजरात को हमने छोड़ दिया है, क्‍योंकि वहाँ की भाषा मध्‍य-देशीय शाखा से संबंध रखती है। इसका कारण यह है कि पुराने जमाने में गुजरात प्रांत मथुरा से जीता था। मथुरा के नवागत आर्यों ने गुजरात के पूर्वागत आर्यों को अपने अधीन कर लिया था। मथुरा मध्‍यदेश में था। और बहुत से नवागत आर्य गुजरात में जा कर रहने लगे थे। इसी से मध्‍यदेश की भाषा वहाँ प्रधान भाषा हो गई। हिंदुस्‍तान भर में एक यही प्रांत ऐसा है जिसके निवासियों ने अपने विजयी नवागत आर्यों की भाषा स्‍वीकार कर ली है।

अंतःशाखा और बहिःशाखा

परवर्ती नवागत आर्य जो मध्‍यदेश में बस गए थे उनकी भाषा का नाम सुभीते के लिए अंतःशाखा रखते हैं। और जो पूर्ववर्ती आर्य नवागतों के द्वारा बाहर निकाल दिए गए थे, अर्थात् दूर-दूर प्रांतों में जा कर जो रहने लगे थे, उनकी भाषा का नाम बहिःशाखा रखते हैं।

इन दोनों शाखाओं की भाषाओं के उच्‍चारण में फर्क है। प्रत्‍येक में कुछ न कुछ विशेषता है। जिन वर्णों का उच्‍चारण सिसकार के साथ करना पड़ता है उनको अंतःशाखा वाले बहुत कड़ी आवाज से बोलते हैं, यहाँ तक कि वह दंत्य 'स' हो जाता है। पर बहिःशाखा वाले वैसा नहीं करते। इसी से मध्‍यदेश वालों के 'कोस' शब्‍द को सिंध वालों ने 'कोहु' कर दिया है। पूर्व की तरह बंगाल में यह 'स', 'श' हो गया है। महाराष्‍ट्र में भी उसका कड़ापन बहुत कुछ कम हो गया है। आसाम में 'स' की आवाज गिरते-गिरते कुछ-कुछ 'च' की सी हो गई है। काश्‍मीर में तो उसकी कड़ी आवाज बिलकुल ही जाती रही है। वहाँ अंतःशाखा का 'स' बिगड़ कर 'ह' हो गया है।

संज्ञाओं में भी अंतर है। अंतःशाखा में जो भाषाएँ शामिल हैं उनकी मूल विभक्तियाँ प्राय: गिर गई हैं। धीरे-धीरे उनका लोप हो गया है। और उनकी जगह पर और ही छोटे-छोटे शब्‍द मूल शब्‍दों के साथ जुड़ गए हैं। उन्‍हीं से विभक्तियों का मतलब निकल जाता है। उदाहरण के लिए हिंदी की 'का' 'को' 'से' आदि विभक्तियाँ देखिए। ये जिस शब्‍द के अंत में आती हैं उस शब्‍द का उन्‍हें मूल अंश न समझना चाहिए। ये पृथक शब्‍द हैं और विभक्तिगत अपेक्षित अर्थ देने के लिए जोड़े जाते हैं। अतएव अंतःशाखा की भाषाओं को व्‍यवच्‍छेदक भाषाएँ कहना चाहिए। बहिःशाखा की भाषाएँ जिस समय पुरानी संस्‍कृत के रूप में थीं, संयोग्‍यात्‍मक थीं। 'का' 'को' 'से' आदि से जो अर्थ निकलता है उसके सूचक शब्‍द उनमें अलग न जोड़े जाते थे। इसके बाद उन्‍हें व्‍यवच्‍छेदक रूप प्राप्‍त हुआ। सिंधी और काश्‍मीरी भाषाएँ अब तक कुछ-कुछ इसी रूप में हैं। कुछ काल बाद फिर ये भाषाएँ संयोग्‍यात्‍मक हो गईं और व्‍यवच्‍छेदक अवस्‍था में जो वि‍भक्तियाँ अलग हो गई थीं वे इनके मूल रूप में मिल गईं। बँगला में षष्‍ठी विभक्ति का चिह्न 'एर' इसका अच्‍छा उदाहरण है।

क्रियाओं में भी भेद है। बहिःशाखा की भाषाएँ पुरानी संस्‍कृत की किसी ऐसी एक या अधिक भाषाओं से निकली हैं जिनकी भूतकालिक (यथार्थ में भाववाच्‍य) क्रियाओं से सर्वनामात्‍मक कर्ता के अर्थ का भी बोध होता था। अर्थात् क्रिया और कर्ता एक ही में मिले होते थे। यह विशेषता बहिःशाखा की भाषाओं में भी पाई जाती है। उदाहरण के लिए बँगला का 'मारिलाम' देखिए। इसका अर्थ है मैंने मारा। पर अंतःशाखा की भाषाएँ किसी ऐसी एक या अधिक भाषाओं से निकली हैं जिनमें इस तरह के क्रियापद नहीं प्रयुक्‍त होते थे। उदाहरण के लिए हिंदी का 'मारा' लीजिए। इस से यह नहीं ज्ञात होता कि किसने मारा? 'मैंने मारा', 'उसने मारा', 'उन्‍होंने मारा' जो चाहे समझ लीजिए। 'मारा' का रूप सब के लिए एक ही रहेगा। इससे साबित है कि ये बाहरी और भीतरी शाखाएँ जुदा-जुदा भाषाओं से निकली हैं। इनका उत्‍पत्ति-स्‍थान एक नहीं है।

विस्‍तार और सीमाएँ

भीतरी शाखा जिन प्रांतों में बोली जाती हैं उनकी उत्तरी सीमा हिमालय, पश्‍चिमी झीलम और पूर्वी वह देशांश रेखा है जो बनारस से हो कर जाती है। पर पूर्वी और पश्चिमी सीमाएँ निश्चित नहीं। उनके विषय में विवाद है। वहाँ भीतरी और बाहरी शाखाएँ परस्‍पर मिली हुई हैं और एक दूसरी की सीमा के भीतर भी कुछ दूर तक बोली जाती है। यदि इन दोनों सीमाओं का आकुंचन कर दिया जाय, अर्थात् वे हटा कर वहाँ कर दी जायँ जहाँ भीतरी शाखा में बाहरी का जरा भी मेल नहीं है, तो उसकी पूर्वी सीमा संयुक्‍त प्रांत में प्रयाग के याम्‍योत्तर और पश्चिमी पटियाले में सरहिंद के याम्‍योत्तर कहीं हो जाय। यहाँ इस शाखा की भाषाएँ सर्वथा विशुद्ध हैं। उनमें बाहरी शाखा की भाषाओं का कुछ भी संश्रव नहीं है। सरहिंद और झीलम के बीच की भाषा पंजाबी है। यह भाषा भीतरी शाखा से ही संबंध रखती है, पर इसमें बहुत शब्‍द ऐसे भी हैं जो इस शाखा से नहीं निकले। इस तरह के शब्‍दों की संख्‍या जैसे-जैसे पश्चिम को बढ़ते जाइए, अधिक होती जाती है। मालूम होता है कि इस प्रांत में पहले बाहरी शाखा के आर्य रहते थे। धीरे-धीरे भीतर शाखा के आर्यों का प्रभुत्‍व वहाँ बढ़ा और उन्‍हीं की भाषा वहाँ की प्रधान भाषा को गई। प्रयाग और बनारस के बीच, अर्थात् अवध, बघेलखंड और छत्तीसगढ़, की भाषा पूर्वी हिंदी है। इस भाषा में भीतरी और बाहरी दोनों शाखाओं के शब्‍द हैं। यह दोनों के योग से बनी है। अतएव इसे हम मध्‍यवर्ती शाखा कहते हैं। भीतरी शाखा की दक्षिणी सीमा नर्मदा का दक्षिणी तट है। इसमें किसी संदेह, विवाद या विसंवाद के लिए जगह नहीं। यह सीमा निर्विवाद है। पश्चिम में यह शाखा राजस्‍थानी भाषा का रूप प्राप्‍त करके सिंधी में, और पंजाबी का रूप प्राप्‍त करके लहँडा में मिल जाती है। लहँडा वह बोली है जो पंजाब के पश्चिम मुल्‍तान और भावलपुर आदि में बोली जाती है। गुजरात में भी इस भीतरी शाखा का प्राधान्‍य है। वहाँ उसने पूर्व-प्रचलित बाहरी शाखा की भाषा के अधिकार को छीन लिया है।

जिन भाषाओं का जिक्र ऊपर किया गया उन्‍हें छोड़ कर शेष जितनी संस्‍कृतोत्‍पन्‍न आर्य-भाषाएँ हैं सब बाहरी शाखा के अंतर्गत हैं।

संस्‍कृतोत्‍पन्‍न आर्य-भाषाओं के भेद

संस्‍कृत से (याद रखिए, पुरानी संस्‍कृत से मतलब है) उत्‍पन्‍न हुई जितनी आर्य-भाषाएँ हैं वे नीचे लिखे अनुसार शाखाओं, उपशाखाओं और भाषाओं में विभाजित की जा सकती हैं -

1. बाहरी शाखा। इसकी तीन उपशाखाएँ हैं - उत्तर-पश्चिमी, दक्षिणी और पूर्वी।

2. मध्यवर्ती शाखा।

3. भीतरी शाखा। इसकी दो उपशाखाएँ हैं - पश्चिमी और उत्तरी।

अब हम नीचे एक लेखा देते हैं जिससे यह मालूम हो जायगा कि प्रत्‍येक उपशाखा में कौन-कौन भाषाएँ हैं, और 1901 ईसवी की मर्दुमशुमारी के अनुसार, प्रत्‍येक उपशाखा और भाषा के बोलने वालों की संख्‍या कितनी है।

बाहरी शाखा

(क) उत्तरी-पश्चिमी उपशाखा 7,352,305

1. काश्‍मीरी 1,007,957

2. कोहिस्‍तानी 36

3. लहँडा 3,337,917

4. सिंधी 3,006,395

(ख) दक्षिणी उपशाखा 18,237,899

5. मराठी 18,237,899

(ग) पूर्वी उपशाखा 90,242,167

6. उड़िया 9,687,429

7. बिहारी 34,579,844

8. बँगला 44,624,048

9. आसामी 1,350,846

मध्‍यवर्ती शाखा

(घ) माध्‍यकि उपशाखा 22,136,358

10. पूर्वी हिंदी 22,136,358

भीतरी शाखा

(ड.) पश्चिमी उपशाखा 78,632,099

11. पश्चिमी हिंदी 40,714,925

12. राजस्‍थानी 10,917,712

13. गुजराती 9,928,501

14. पंजाबी 17,070,961

(च) उत्तरी उपशाखा 3,124,681

15. पश्चिमी पहाड़ी 1,710,029

16. मध्‍यवर्ती पहाड़ी 1,270,931

17. पूर्वी पहाड़ी 143,721

                                    218,725,509

इससे मालूम हुआ कि संस्‍कृतोत्‍पन्‍न आर्य-भाषाएँ तीन शाखाओं, छः उपशाखाओं और सत्रह भाषाओं में विभक्‍त हैं और 21 करोड़ से भी अधिक आदमी उन्‍हें बोलते हैं। इस देश की आबदी 294,361,056 अर्थात् कोई तीस करोड़ के लगभग है। उसमें से इक्‍कीस करोड़ आदमी ये भाषाएँ बोलते हैं, साढ़े पाँच करोड़ द्राविड़ भाषाएँ और शेष तीन करोड़ अनार्य विदेशी भाषाएँ। तामील, तैलगू, कनारी आदि द्राविड़-भाषाएँ मदरास प्रांत में बोली जाती हैं। उनकी उत्‍पत्ति संस्‍कृत से नहीं है। अतएव हिंदी की उत्‍पत्ति से उनका कोई संबंध नहीं। इसी से उनके विषय में यहाँ पर और कुछ नहीं लिखा जाता।

ऊपर के लेखे से संस्‍कृतोत्‍पन्‍न आर्य-भाषा बोलने वालों की संख्‍या 219,725,509 आती है। पर पहले अध्‍याय के अंत में लिखे के अनुसार उनकी संख्‍या 219,726,225 होती है। इन आँकड़ों में 716 का फर्क है। ये अंक उन लोगों की संख्‍या बतलाते हैं जिन्‍होंने अपनी भाषा विशुद्ध संस्‍कृत बतलाई है। ये 716 जन काशी के दिग्‍गज पंडित नहीं हैं, किंतु मदरास और माइसोर प्रांत के कुछ लोग हैं जो विशेष करके संस्‍कृत ही बोलते हैं। पूर्वोक्‍त लेखे के टोटल में इनको भी शामिल कर लेने से संस्‍कृतोत्‍पन्‍न आर्य-भाषा बोलने वालों की संख्‍या पूरी 219,726,225 हो जाती है।

मराठी और पूर्वी हिंदी में बहुत-सी बोलियाँ शामिल हैं। इन दोनों उपशाखाओं से संबंध रखने वाली बोलियाँ बहुत हैं, पर भाषाएँ इनके सिवा और कोई नहीं। इसी तरह उत्तरी उपशाखा में जो तीन भाषाएँ बतलाई गई हैं वे यथार्थ में भाषाएँ नहीं हैं। बहुत-सी मिलती-जुलती बोलियों के समूह जुदा-जुदा तीन भागों में विभक्‍त कर दिए गए हैं और प्रत्येक भाग का नाम भाषा पर रख दिया गया है। ये बोलियाँ हिंदुस्‍तान के उत्तर मंसूरी, नैनीताल, गढ़वाल और कुमायूँ आदि पहाड़ी जिलों में बोली जाती हैं।